Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration). Gatha-132 (Adhikar 2).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-132 ]paramAtmaprakAsh: [ 435
Che. evA ‘parabrahma’ shabdathI vAchya shuddhajIvadravya sivAy A pratyakSha samasta vishva ke je pR^ithvI
par lokamA.n rachAyelu.n Che te vinashvar Che. he prabhAkarabhaTTa! tu.n A visheSh jAN.
ahI.n, A bhAvArtha Che ke vishuddhaj~nAnadarshan svabhAvavALA ‘paramabrahma’ shabdathI vAchya evA
shuddhajIvatattva sivAy anya samasta pA.nch indriyonA viShayabhUt padArtho vinashvar Che. 131.
have, pUrvokta adhruvapaNu.n jANIne dhan ane yauvananI tR^iShNA na karavI joIe, em kahe
Che :
जीवद्रव्यं भुवणु वि एहु इदं प्रत्यक्षीभूतम् कतिसंख्योपेतम् असेसु अशेषं समस्तमपि
कथंभूतमिदं सर्वं पुहविहिं णिम्मउ पृथिव्यां लोके निर्मापितं भंगुरउ विनश्वरं एहउ बुज्झि
विसेसु इमं विशेषं बुध्यस्व जानीहि त्वं हे प्रभाकरभट्ट
अयमत्र भावार्थः
विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं परब्रह्मशब्दवाच्यं शुद्धजीवतत्त्वं मुक्त्वान्यत्पञ्चेन्द्रियविषयभूतं
विनश्वरमिति
।।१३१।।
अथ पूर्वोक्त मध्रुवत्वं ज्ञात्वा धनयौवनयोस्तृष्णा न कर्तव्येति कथयति
२६२) जे दिट्ठा सूरुग्गमणि ते अत्थवणि ण दिट्ठ
तेँ कारणिं वढ धम्मु करि धणि जोव्वणि कउ तिट्ठ ।।१३२।।
ये द्रष्टाः सूर्योद्गमने ते अस्तगमने न द्रष्टाः
तेन कारणेन वत्स धर्मं कुरु धने यौवने का तृष्णा ।।१३२।।
हैं वे सब जीव अविनाशी हैं, और सब देहादिकी रचना विनाशीक दिखती है शुभअशुभ
कर्मकर जो देहादिक इस जगत्में रची गई हैं, वह सब विनाशीक हैं, हे प्रभाकरभट्ट, ऐसा विशेष
तू जान, देहादिको अनित्य जान और जीवोंको नित्य जान
निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव परब्रह्म
[शुद्ध जीवतत्त्व ] उससे भिन्न जो पाँच इंद्रियोंका विषयवन वह क्षणभंगुर जानो ।।१३१।।
आगे पूर्वोक्त विषयसामग्रीको अनित्य जानकर धन, यौवन और विषयोंमें तृष्णा नहीं
करनी चाहिये, ऐसा कहते हैं
गाथा१३२
अन्वयार्थ :[वत्स ] हे शिष्य, [ये ] जो कुछ पदार्थ [सूर्योद्गमने ] सूर्यके उदय
होने पर [दृष्टाः ] देखे थे, [ते ] वे [अस्तगमने ] सूर्यके अस्त होनेके समय [न दृष्टाः ] नहीं
देखे जाते, नष्ट हो जाते हैं [तेन कारणेन ] इस कारण तू [धर्मं ] धर्मको [कुरु ] पालन कर