Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration). Gatha-140 (Adhikar 2) Manane Jeetee Indriyone Jeetavee.

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
448 ]yogIndudevavirachit: [ adhikAr-2 : dohA-139
joIne koI paramAtmAnI bhAvanA arthe vidyamAn viShayono tyAg kare ane tenI bhAvanAmA.n
rat jIvone dAn-pUjAdik kare temA.n Ashcharya nathI, para.ntu A je
‘‘दैवागमपरिहीणे
कालेऽतिशयवर्जिते केवलोत्पत्तिहीने तु हलचक्रधराज्झिते’’ (artha:A pa.nchamakALamA.n devonu.n
Agaman thatu.n nathI, koI atishay jovAmA.n Avato nathI, kevaLaj~nAn thatu.n nathI, ane haLadhar
(baLadev) chakraghar (chakravartI) no abhAv Che. e pramANe shlokamA.n kahelA lakShaNavALA
duShamakALamA.n je viShayano tyAg kare Che te Ashcharya Che. (arthAt tevA puruShone dhanya Che)
evo bhAvArtha Che. 139.
have, manojya (manano jay) karatA.n indriyajay thAy Che, em pragaT kare Che :
कमनेकराजाधिराजमणिमुकुटकिरणकलापचुम्बितपादारविन्दजिनधर्मरतं द्रष्ट्वा च परमात्म-
भावनार्थं केचन विद्यमानविषयत्यागं कुर्वन्ति तद्भावनारतानां दानपूजादिकं च कुर्वन्ति
तत्राश्चर्यं नास्ति इदानीं पुनः ‘‘देवागमपरिहीणे कालेऽतिशयवर्जिते
केवलोत्पत्तिहीने तु
हलचक्रधरोज्झिते ।।’’ इति श्लोककथितलक्षणे दुष्षमकाले यत्कुर्वन्ति तदाश्चर्यमिति
भावार्थः ।।१३९।।
अथ मनोजये कृते सतीन्द्रियजयः कृतो भवतीति प्रकटयति
२७१) पंचहँ णायकु वसिकरहु जेण होंति वसि अण्ण
मूल विणट्ठइ तरु-वरहँ अवसइँ सुक्कहिं पण्ण ।।१४०।।
राजाओंको जिनधर्ममें लीन देखकर भव्यजीवोंको जिनधर्मकी रुचि उपजती थी, तब परमात्म
भावनाके लिए विद्यमान विषयोंका त्याग करते थे और जब तक गृहस्थपनेमें रहते थे, तब
तक दानपूजादि शुभ क्रियायें करते थे, चार प्रकारके संघकी सेवा करते थे इसलिये पहले
समयमें तो ज्ञानोत्पत्तिके अनेक कारण थे, ज्ञान उत्पन्न होनेका अचंभा नहीं था लेकिन इस
पंचमकालमें इतनी सामग्री नहीं हैं ऐसा कहा भी है, कि इस पंचमकालमें देवोंका आगमन
तो बंद हो गया है, और कोई अतिशय नहीं देखा जाता यह काल धर्मके अतिशयसे रहित
है, और केवलज्ञानकी उत्पत्तिसे रहित है, तथा हलधर, चक्रवर्त्ती आदि शलाकापुरुषोंसे रहित
है, ऐसे दुःषमकालमें जो भव्यजीव धर्मको धारण करते हैं, यती श्रावकके व्रत आचरते हैं, यह
अचंभा है
वे पुरुष धन्य हैं, सदा प्रशंसा योग्य हैं ।।१३९।।
आगे मनके जीतनेसे इंन्द्रियोंका जय होता है, जिसने मनको जीता, उसने सब इन्द्रियोंको
जीत लिया, ऐसा व्याख्यान करते हैं