Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-139 ]paramAtmaprakAsh: [ 447
bhAvArtha: — kaDavA jher jevA ane 1ki.npAkaphaLanI upamAvALA (arthAt dekhavAmA.n
manoj~na) vidyamAn viShayone ke je alabdhapUrva (pUrve nahi prApta karelA) niruparAg shuddha
AtmatattvanI prAptirUp nishchayadharmanA chor Che temaneChoDe Che, tenI hu.n pUjA karu.n Chu.n. e rIte
shrIyogIndradev viShayatyAgI pratye potAno guNAnurAg darshAve Che.
vidyamAn viShayanA tyAg upar draShTA.nt kahe Che, jene mAthe TAl Che te daivathI ja mu.nDAyo Che.
ahI.n, pUrvakALamA.n devonu.n Agaman joIne, sAt R^IddhirUp dharmano atishay joIne,
avadhij~nAn, manaHparyayaj~nAn ane kevaLaj~nAnanI utpatti joIne ane jemanA.n charaNarUpI kamaLane
anek rAjAdhirAjanA maNimukuTanA kiraNo chumban karatA.n hatA.n (jemanA charaNAravi.ndane moTA
moTA rAjAo namaskAr kare Che) evA bharat, sagar, rAm, pA.nDavAdine jinadharmamA.n rat
संता इत्यादि । संता विसय कटुकविषप्रख्यान् किंपाकफ लोपमानलब्धपूर्वनिरुपराग-
शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपनिश्चयधर्मचौरान् विद्यमानविषयान् जु परिहरइ यः परिहरति बलि
किज्जउं हउं तासु बलिं पूजां करोमि तस्याहमिति । श्रीयोगीन्द्रदेवाः स्वकीयगुणानुरागं
प्रकटयन्ति । विद्यमानविषयत्यागे द्रष्टान्तमाह । सो दइवेण जि मुंडियउ स दैवेन मुण्डितः ।
स कः । सीसु खडिल्लउ जासु शिरः खल्वाटं यस्येति । अत्र पूर्वकाले देवागमनं द्रष्ट्वा
सप्तर्द्धिरूपं धर्मातिशयं द्रष्ट्वा अवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानोत्पत्ति द्रष्ट्वा भरतसगररामपाण्डवादि-
भावार्थ : — जो देखनेमें मनोज्ञ ऐसा इन्द्राइनिका विष – फ ल उसके समान ये मौजूद
विषय हैं, ये वीतराग शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप निश्ययधर्मस्वरूप रत्नके चोर हैं, उनको जो ज्ञानी
छोड़ते हैं, उनकी बलिहारी श्रीयोगीन्द्रदेव करते हैं, अर्थात् अपना गुणानुराग प्रगट करते हैं, जो
वर्तमान विषयोंके प्राप्त होने पर भी उनको छोड़ते हैं, वे महापुरुषोंकर प्रशंसा योग्य हैं, अर्थात्
जिनके सम्पदा मौजूद हैं, वे सब त्यागकर वीतरागके मारगको आराधें, वे तो सत्पुरुषोंसे सदा
ही प्रशंसाके योग्य हैं, और जिसके कुछ भी तो सामग्री नहीं है, परंतु तृष्णासे दुःखी हो रहा
है, अर्थात् जिसके विषय तो विद्यमान नहीं हैं, तो भी उनका अभिलाषी है, वह महानिंद्य है
।
चतुर्थकालमें तो इस क्षेत्रमें देवोंका आगमन था, उनको देखकर धर्मकी रुचि होती थी, और
नानाप्रकारकी ऋद्धियोंके धारी महामुनियोंका अतिशय देखकर ज्ञानकी प्राप्ति होती थी, तथा
अन्य जीवोंको अवधिमनःपर्यय केवलज्ञानकी उत्पत्ति देखकर सम्यक्त्वकी सिद्धि होती थी,
जिनके चरणारविन्दोंको बड़े – बड़े मुकुटधारी राजा नमस्कार करते थे, ऐसे बड़े – बड़े राजाओंकर
सेवनीक भरत, सगर, राम, पांडवादि अनेक चक्रवर्ती बलभद्र, नारायण तथा मंडलीक
1ki.npAk=sa.nskR^it-mahAkAL, hi.ndI-lAl indrAyananu.n viShaphaL, gujarAtI-rAtA.n indrAyaNA.n, lAlaindravAraNA.
A jhADanA.n phaL dekhAve su.ndar hoy Che paN khAvAmA.n kaDavA.n ane jherI hoy Che.