Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-145 ]paramAtmaprakAsh: [ 457
bhAvArtha: — jyA.n deh paN potAno nathI tyA.n anya padArtho shu.n potAnA thAy?
em jANIne dehathI bahirbhUt strI, vastra, AbharaN, upakaraN Adi evA parigrahanA
nimitte tu.n moh na kar. he tapodhan! ‘shiv’ shabdathI vAchya evA shuddhAtmAnI bhAvanAno
tyAg na kar.
amUrta, vItarAgasvabhAvI nijashuddhAtmAnI sAthe vyavahArathI dUdh-pANInI jem ekamek
thaIne je A deh rahe Che te paN jIvanu.n svarUp nathI, em jANIne bAhya padArthanu.n mamatva
ChoDIne ane shuddha AtmAnI anubhUtilakShaN vItarAg nirvikalpa samAdhimA.n sthit thaIne
sarvatAtparyathI bhAvanA karavI joIe, e abhiprAy Che. 145.
देहोऽपि यत्र नात्मीयः तत्रात्मीयं किमन्यत् ।
परकारणे मा मुह्य (?) त्वं शिवसंगमं अवगण्य ।।१४५।।
देहुवि इत्यादि । देहु वि जित्थु ण अप्पणउ देहोऽपि यत्र नात्मीयः तहिं अप्पणउ
किं अण्णु तत्रात्मीयाः किमन्ये पदार्था भवन्ति, किं तु नैव । एवं ज्ञात्वा पर-कारणि
परस्य देहस्य बहिर्भूतस्य स्त्रीवस्त्राभरणोपकरणादिपरिग्रहनिमित्तेन मण गुरुव तुहुं सिव-संगमु
अवगण्णु हे तपोधन शिवशब्दवाच्यशुद्धात्मभावनात्यागं मा कार्षीरिति । तथाहि । अमूर्तेन
वीतरागस्वभावेन निजशुद्धात्मना सह व्यवहारेण क्षीरनीरवदेकीभूत्वा तिष्ठति योऽसौ देहः
सोऽपि जीवस्वरूपं न भवति इति ज्ञात्वा बहिःपदार्थे ममत्वं त्यक्त्वा शुद्धात्मानुभूति-
लक्षणवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ।।१४५।।
गाथा – १४५
अन्वयार्थ : — [यत्र ] जिस संसारमें [देहोऽपि ] शरीर भी [आत्मीयः न ] अपना नहीं
है, [तत्र ] उसमें [अन्यत् ] अन्य [आत्मीयं किं ] क्या अपना हो सकता है ? [त्वं ] इस कारण
तू [शिवसंगमं ] मोक्षका संगम [अवगण्य ] छोड़कर [परकारणे ] पुत्र, स्त्री, वस्त्र, आभूषण
आदि उपकरणोंमें [मा मुह्य ] ममत्व मत कर ।
भावार्थ : — अमूर्त वीतराग भावरूप जो निज शुद्धात्मा उससे व्यवहारनयकर दूध-पानी
की तरह यह देह एकमेक हो रही है, ऐसी देह, जीवका स्वरूप नहीं है, तो पुत्र-कलत्रादि
धन – धान्यादि अपने किस तरह हो सकेंगे ? ऐसा जानकर बाह्य पदार्थोंमें ममता छोड़कर
शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप जो वीतराग निर्विकल्पसमाधि उसमें ठहरकर सब प्रकारसे
शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये ।।१४५।।