Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration). Gatha-146 (Adhikar 2).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
458 ]yogIndudevavirachit: [ adhikAr-2 : dohA-146
have, pharI te ja arthane bIjA prakAre pragaT kare Che :
bhAvArtha:he yogI! tu.n kevaL ek ‘shiv’ shabdathI vAchya, shuddha, buddha ja jeno ek
svabhAv Che evA mAtra ek nijashuddhAtmAnI bhAvanAno sa.nsarga kar, ke je svashuddhAtmAnA
sa.nsargamA.n akShay, ana.ntasukh prApta thAy Che, je kAraNathI-bAhya-chintAthI avyAbAdh
sukhAdi-
svarUp mokSha maLato nathI evI svasvabhAvathI anya chi.ntA tu.n na kar, e tAtparya Che. 146.
अथ तमेवार्थं पुनरपि प्रकारान्तरेण व्यक्त ीकरोति
२७७) करि सिव-संगमु एक्कु पर जहिँ पाविज्जइ सुक्खु
जोइय अण्णु म चिंति तुहुँ जेण ण लब्भइ मुक्खु ।।१४६।।
कुरु शिवसंगमं एकं परं यत्र प्राप्यते सुखम्
योगिन् अन्यं मा चिन्तय त्वं येन न लभ्यते मोक्षः ।।१४६।।
करि इत्यादि करि कुरु कम् सिवसंगमु शिवशब्दवाच्यशुद्धबुद्धैकस्वभावनिज-
शुद्धात्मभावनासंसर्गं एक्कु पर तमेवैकं ज्ाहिं पाविज्जइ सुक्खु यत्र स्वशुद्धात्मसंसर्गे प्राप्यते
किम् अक्षयानन्तसुखम् जोइय अण्णु म चिंति तुहुं हे योगिन् स्वभावत्वादन्यचिन्तां मा
कार्षीस्त्वं जेण ण लब्भइ येन कारणेन बहिश्चिन्तया न लभ्यते कोऽसौ मुक्खु
अव्याबाधसुखादिलक्षणो मोक्ष इति तात्पर्यम् ।।१४६।।
आगे इसी अर्थको फि र भी दूसरी तरह प्रगट करते हैं
गाथा१४६
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी हंस, [त्वं ] तू [एकं शिवसंगमं ] एक निज
शुद्धात्माकी ही भावना [परं ] केवल [कुरु ] कर, [यत्र ] जिसमें कि [सुखम् प्राप्येत ]
अतीन्द्रिय सुख पावे, [अन्यं मा ] अन्य कुछ भी मत [चिंतय ] चिंतवन कर, [येन ] जिससे
कि [मोक्षः न लभ्यते ] मोक्ष न मिले
भावार्थ :हे जीव, तू शुद्ध अखंड स्वभाव निज शुद्धात्माका चिन्तवन कर, यदि तू
शिवसंग करेगा तो अतीन्द्रिय सुख पावेगा जो अनंत सुखको प्राप्त हुए वे केवल आत्मज्ञानसे
ही प्राप्त हुए, दूसरा कोई उपाय नहीं है इसलिये हे योगी, तू अन्य कुछ भी चिन्तवन मत
कर, परके चिंतवनसे अव्याबाध अनंत सुखरूप मोक्षको नहीं पावेगा इसलिये निजस्वरूपका
ही चिन्तवन कर ।।१४६।।