Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
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jANIne ghuNathI khAvAmA.n AvelA nakAmA thayelA sA.nThAno, vAvavAmA.n bIj tarIke upayog
karI asArane sAr karavAmA.n Ave Che. tevI rIte manuShyajanmane asAr hovA ChatA.n sArabhUt
karavAmA.n Ave Che. kevI rIte? jevI rIte ghuNabhakShit sheraDInA sA.nThAno bIj tarIke upayog
अथ भेदाभेदरत्नत्रयभावनारहितं मनुष्यजन्म निस्सारमिति निश्चिनोति —
२७८) बलि किउ माणुस-जम्मडा देक्खंतहँ पर सारु ।
जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ।।१४७।।
बलिः क्रियते मनुष्यजन्म पश्यतां परं सारम् ।
यदि अवष्टभ्यते ततः क्वथति अथ दह्यते तर्हि क्षारः ।।१४७।।
बलि किउ इत्यादि । बलि किउ बलिः क्रियते मस्तकस्योपरितनभागेनावताऽनं
क्रियते । किम् । माणुस-जम्मडा मनुष्यजन्म । किंविशिष्टम् । देक्खंतहँ पर सारु बहिर्भागे
व्यवहारेण पश्यतामेव सारभूतम् । कस्मात् । जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ यद्यवष्टभ्यते भूमौ
निक्षिप्यते ततः कुत्सितरूपेण परिणमति । अह डज्झइ तो छारु अथवा दह्यते तर्हि
आगे भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनासे रहित जीवका मनुष्य – जन्म निष्फ ल है, ऐसा कहते
हैं —
गाथा – १४७
अन्वयार्थ : — [मनुष्यजन्म ] इस मनुष्य – जन्मको [बलिः क्रियते ] मस्तकके ऊ पर
वार डालो, जो कि [पश्यतां परं सारम् ] देखनेमें केवल सार दीखता है, [यदि अवष्टभ्यते ]
जो इस मनुष्य – देहको भूमि में गाड़ दिया जावे, [ततः ] तो [क्वथति ] सड़कर दुर्गन्धरूप
परिणमे, [अथ ] और जो [दह्यते ] जलाईये [तर्हि ] तो [क्षारः ] राख हो जाता है ।
भावार्थ : — इस मनुष्य – देहको व्यवहारनयसे बाहरसे देखो तो सार मालूम होता है,
यदि विचार करो तो कुछ भी सार नहीं है । तिर्यञ्चोंके शरीरमें तो कुछ सार भी दिखता है,
जैसे हाथीके शरीरमें दाँत सार है, सुरह गौके शरीर में बाल सार हैं इत्यादि । परन्तु मनुष्य –
देहमें सार नहीं है, घुनके खाये हुए गन्नेकी तरह मनुष्य – देहको असार जानकर परलोकका बोज