Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (itrans transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-148 ]paramAtmaprakAsh: [ 461
bhAvArtha:joke A sharIr khal (durjan) Che to paN thoDAk koLiyA ApIne
(kA.nIk bhojan ApIne) asthir evA dehathI sthir mokShasukhanu.n grahaN karAy Che. sAt
dhAtumay hovAthI ashuchimay Che evA sharIrathI paN shuchibhUt shuddhAtmasvarUpanu.n grahaN thAy
Che, nirguN hovA ChatA.n sharIrathI paN kevaLaj~nAnAdi guNono samUh sAdhavAmA.n Ave Che. vaLI
(shrIrAmasi.nh dohApAhuD gAthA 19mA.n) kahyu.n paN Che
‘‘अथिरेण थिरा मलिणेण णिम्मला
णिगुणेण गुणसार काएण जा विढप्पइ सा किरिया किण्ण कायव्वा ।। (artha:asthir, malin
उद्वर्तय म्रक्षय चेष्टां कुरु देहि सुमृष्टाहारान्
देहस्य सकलं निरर्थ गतं यथा दुर्जने उपकाराः ।।१४८।।
उव्वलि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते उव्वलि उद्वर्तय कुरु चोप्पडि
तैलादिम्रक्षणं कुरु, चिट्ठ करि मण्डनरूपां चेष्टां कुरु, देहि सु-मिट्ठाहार देहि सुमृष्टाहारान्
कस्य देहहं देहस्य सयल णिरत्थ गय सकला अपि विशिष्टाहारादयो निरर्थका गताः
केन द्रष्टान्तेन जिमु दुज्जणि उवयार दुर्जने यथोपकारा इति तद्यथा यद्यप्ययं कायः
खलस्तथापि किमपि ग्रासादिकं दत्त्वा अस्थिरेणापि स्थिरं मोक्षसौख्यं गृह्यते सप्तधातु-
मयत्वेनाशुचिभूः तेनापि शुचिभूतं शुद्धात्मस्वरूपं गृह्यते निर्गुणेनापि केवलज्ञानादिगुणसमूहः
साध्यत इति भावार्थः
तथा चोक्त म्‘‘अथिरेण थिरा मलिणेण णिम्मला णिग्गुणेण
गाथा१४८
अन्वयार्थ :[देहस्य ] इस देहका [उद्वर्तय ] उबटना करो, [म्रक्षय ] तैलादिकका
मर्दन करो, [चेष्टां कुरु ] श्रृंगार आदि से अनेक प्रकार सजाओ, [सुमृष्टाहारान् ] अच्छेअच्छे
मिष्ट आहार [देहि ] दो, लेकिन [सकलं ] ये सब [निरर्थ गतं ] यत्न व्यर्थ हैं, [यथा ] जैसे
[दुर्जने ] दुर्जनोंका [उपकाराः ] उपकार करना वृथा है
भावार्थ :जैसे दुर्जन पर अनेक उपकार करो वे सब वृथा जाते हैं, दुर्जनसे कुछ
फ ायदा नहीं, उसी तरह शरीरके अनेक यत्न करो, इसको अनेक तरहसे पोषण करो, परंतु यह
अपना नहीं हो सकता
इसलिये यही सार है कि इसको अधिक पुष्ट नहीं करना कुछ थोड़ासा
ग्रासादि देकर स्थिर करके मोक्ष साधन करना; सात धातुमयी यह अशुचि शरीर है, इससे पवित्र
शुद्धात्मस्वरूपकी आराधना करना
इस महा निर्गुण शरीरसे केवलज्ञानादि गुणोंका समूह साधना
चाहिये यह शरीर भोगके लिये नहीं है, इससे योगका साधनकर अविनाशी पदकी सिद्धि
करनी ऐसा कहा भी है, कि इस क्षणभंगुर शरीरसे स्थिरपद मोक्षकी सिद्धि करनी चाहिये,
यह शरीर मलिन है, इससे निर्मल वीतरागकी सिद्धि करना, और यह शरीर ज्ञानादि गुणोंसे रहित