Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
468 ]yogIndudevavirachit: [ adhikAr-2 : dohA-153
bhAvArtha: — A pratyakShagochar dehane paN vItarAg tAttvik Ana.ndarUp shuddhAtma-
sukhathI vilakShaN narakAdinA duHkhanu.n kAraN manamA.n jANIne shuddha AtmAmA.n sthit thaIne
satpuruSho dehanu.n mamatva ChoDe Che, (kAraN ke) je dehamA.n pa.nchendriyonA viShayothI rahit
shuddhAtmAnubhUtisa.npanna param sukh pAmatA nathI te dehamA.n satpuruSho shA mATe nivAs kare?
shuddhAtmasukhamA.n sa.ntoSh ChoDIne te dehamA.n shA mATe rati kare? 153.
दुःखस्य कारणं मत्वा मनसि देहमपि इमं त्यजन्ति ।
यत्र न प्राप्नुवन्ति परमसुखं तत्र किं सन्तः वसन्ति ।।१५३।।
दुक्खहं इत्यादि । दुक्खहं कारणु वीतरागतात्त्विकानन्दरूपात् शुद्धात्मसुखाद्विलक्षणस्य
नारकादिदुःखस्य कारणं मुणिवि मत्वा । क्व । मणि मनसि । कम् । देहु वि देहमपि एहु इमं
प्रत्यक्षीभूतं चयंति देहममत्वं शुद्धात्मनि स्थित्वा त्यजन्ति जित्थु ण पावहिं यत्र देहे न प्राप्नुवन्ति ।
किम् । परम-सुहु पञ्चेन्द्रियविषयातीतं शुद्धात्मानुभूतिसंपन्नं परमसुखं तित्थु कि संत वसंति तत्र
देहे सन्तः सत्पुरुषाः किं वसन्ति शुद्धात्मसुखसंतोषं मुक्त्वा तत्र किं रतिं कुर्वन्ति इति
भावार्थः ।।१५३।।
गाथा – १५३
अन्वयार्थ : — [दुःखस्य कारणं ] नरकादि दुःखका कारण [इमं देहमपि ] इस
देहको [मनसि ] मनमें [मत्वा ] जानकर ज्ञानीजीव [त्यजंति ] इसका ममत्व छोड़ देते हैं,
क्योंकि [यत्र ] जिस देहमें [परमसुखं ] उत्तम सुख [न प्राप्नुवंति ] नहीं पाते, [तत्र ] उसमें
[संतः ] सत्पुरुष [किं वसंति ] कैसे रह सकते हैं ? ।
भावार्थ : — वीतराग परमानंदरूप जो आत्म – सुख उससे विपरीत नरकादिकके
दुःख, उनका कारण यह शरीर, उसको बुरा समझकर ज्ञानी जीव देहकी ममता छोड़ देते
हैं, और शुद्धात्मस्वरूपका सेवन करते हैं, निजस्वरूपमें ठहरकर देहादि पदार्थोंमें प्रीति
छोड़ देते हैं । इस देहमें कभी सुख नहीं पाते, सदा आधि – व्याधिसे पीड़ित ही रहते हैं ।
पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे रहित जो शुद्धात्मानुभूतिरूप परमसुख वह देहके ममत्व करनेसे कभी
नहीं मिल सकता । महा दुःखके कारण इस शरीरमें सत्पुरुष कभी नहीं रह सकते । देहसे
उदास होके संसारकी आशा छोड़ सुखका निवास जो सिद्धपद उसको प्राप्त होते हैं । और
जो आत्म – भावनाको छोड़कर संतोषसे रहित होके देहादिकमें राग करते हैं, वे अनंत भव
धारण करते हैं, संसारमें भटकते फि रते हैं ।।१५३।।