Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
shrI diga.nbar jain svAdhyAyama.ndir TrasTa, sonagaDh - 364250
adhikAr-2 : dohA-154 ]paramAtmaprakAsh: [ 469
have, tu.n AtmAdhIn (svAdhIn) sukhamA.n rati (prIti) kar, em darshAve Che : —
bhAvArtha: — anya dravyothI nirapekSha hovAthI AtmAdhIn Che evu.n je shuddhAtmAnA
sa.nvedanathI utpanna sukh tenAthI ja – tenA anubhavathI ja – sa.ntoSh kar. he vatsa-mitra! parAdhIn
-indriyAdhIn-sukhanA chintavanArane hR^idayano antardAh maTato nathI.
ahI.n, adhyAtmanI rati (prIti) svAdhIn Che ane vichChed tathA vighnonA samUhathI rahit
Che; ane bhogonI prIti parAdhIn Che tathA jevI rIte indhanathI agni shA.nt thato nathI, hajAro
अथात्मायत्तसुखे रतिं कुर्विति दर्शयति —
२८५) अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेण जि करि संतोसु ।
पर सुहु वढ चिंतंताहँ हियइ ण फि ट्टइ सोसु ।।१५४।।
आत्मायत्तं यदेव सुखं तेनैव कुरु संतोषम् ।
परं सुखं वत्स चिन्तयतां हृदये न नश्यति शोषः ।।१५४।।
अप्पायत्तउ इत्यादि । अप्पायत्तउ अन्यद्रव्यनिरपेक्षत्वेनात्माधीनं जं जि सुहु यदेव
शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नं सुखं तेण जि करि संतोसु तेनैव तदनुभवेनैव संतोषं कुरु पर
सुहु वढ चिंतंताहं इन्द्रियाधीनं परसुखं चिन्तयतां वत्स मित्र हियइ ण फि ट्टइ सोसु
हृदये न नश्यति शोषोऽन्तर्दाह इति । अत्राध्यात्मरतिः स्वाधीना विच्छेदविघ्नौघरहिता च,
भोगरतिस्तु पराधीना वह्नेरिन्धनैरिव समुद्रस्य नदीसहस्रैरिवातृप्तिकरा च । एवं ज्ञात्वा
आगे यह उपदेश करते हैं, कि तू आत्म – सुखमें प्रीति कर —
गाथा – १५४
अन्वयार्थ : — [वत्स ] हे शिष्य, [यदेव जो आत्मायत्तं सुखं ] परद्रव्यसे रहित
आत्माधीन सुख है, [तेनैव ] उसीमें [संतोषम् ] संतोष [कुरु ] कर, [परं सुखं ] इन्द्रियाधीन
सुखको [चिंतयतां ] चिन्तवन करनेवालोंके [हृदये ] चित्तका [शोषः ] दाह [न नश्यति ] नहीं
मिटता ।
भावार्थ : — आत्माधीन सुख आत्माके जाननेसे उत्पन्न होता है, इसलिये तू आत्माके
अनुभवसे संतोष कर, भोगोंकी वाँछा करनेसे चित्त शान्त नहीं होता । जो अध्यात्मकी प्रीति
है, वह स्वाधीनता है, इसमें कोई विघन् नहीं है, और भोगोंका अनुराग वह पराधीनता है । भोगोंको
भोगते कभी तृप्ति नहीं होती । जैसे अग्नि ईंधनसे तृप्त नहीं होती, और सैकड़ों नदियोंसे समुद्र