Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ಶ್ರೀ ದಿಗಂಬರ ಜೈನ ಸ್ವಾಧ್ಯಾಯಮಂದಿರ ಟ್ರಸ್ಟ, ಸೋನಗಢ - ೩೬೪೨೫೦
‘‘सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सुद्धो णमो
तस्स ।।’’ ।।६७।।
अथ निश्चयेन स्वकीयशुद्धभाव एव धर्म इति कथयति —
१९५) भाउ विसुद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु ।
चउ-गइ-दुक्खहँ जा धरइ जीउ पडंतउ एहु ।।६८।।
भावो विशुद्धः आत्मीयः धर्मं भणित्वा गृह्णीथाः ।
चतुर्गतिदुःखेभ्यः यो धरति जीवं पतन्तमिमम् ।।६८।।
೩೩೨ ]ಯೋಗೀನ್ದುದೇವವಿರಚಿತ: [ ಅಧಿಕಾರ-೨ : ದೋಹಾ-೬೮
वीतराग स्वसंवेदनज्ञान और उसका फ ल केवलज्ञान वह भी शुद्धोपयोगियोंके ही होता है, और
कर्मक्षय अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मका नाश तथा परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति वह भी
शुद्धोपयोगियोंके ही होती है । इसलिये शुद्धोपयोग – परिणाम और उन परिणामोंका धारण
करनेवाला पुरुष ही जगत्में प्रधान है । क्योंकि संयमादि सर्व गुण शुद्धोपयोगमें ही पाये जाते
हैं । इसलिये शुद्धोपयोगके समान अन्य नहीं है, ऐसा तात्पर्य जानना । ऐसा ही अन्य ग्रन्थोंमें
हरएक जगह ‘‘सुद्धस्स’’ इत्यादिसे कहा गया है । उसका भावार्थ यह है, कि शुद्धोपयोगीके
ही मुनि - पद कहा है, और उसीके दर्शन ज्ञान कहे हैं । उसीके निर्वाण है, और वही शुद्ध अर्थात्
रागादि रहित है । उसीको हमारा नमस्कार है ।।६७।।
आगे यह कहते हैं कि निश्चयसे अपना शुद्ध भाव ही धर्म है —
गाथा – ६८
अन्वयार्थ : — [विशुद्धः भावः ] मिथ्यात्व रागादिसे रहित शुद्ध परिणाम है, वही
ಛೇ, ಏವುಂ ತಾತ್ಪರ್ಯ ಛೇ.
ಅನ್ಯತ್ರ ಶುದ್ಧೋಪಯೋಗನುಂ ಫಳ ಪಣ ದರ್ಶಾವ್ಯುಂ ಛೇ ಕೇ —
‘‘सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं ।
सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ।।
(ಶ್ರೀ ಪ್ರವಚನಸಾರ ೨೭೪) ಅರ್ಥ: — ಶುದ್ಧನೇ (ಶುದ್ಧೋಪಯೋಗೀನೇ) ಶ್ರಾಮಣ್ಯ ಕಹ್ಯುಂ ಛೇ, ಶುದ್ಧನೇ
ದರ್ಶನ ಅನೇ ಜ್ಞಾನ ಕಹ್ಯುಂ ಛೇ, ಶುದ್ಧನೇ ನಿರ್ವಾಣ ಹೋಯ ಛೇ, ತೇ ಜ (ಶುದ್ಧ ಜ) ಸಿದ್ಧ ಹೋಯ ಛೇ; ತೇನೇ ನಮಸ್ಕಾರ
ಹೋ.) ೬೭.
ಹವೇ, ನಿಶ್ಚಯನಯಥೀ ಪೋತಾನೋ ಶುದ್ಧ ಭಾವ ಜ ಧರ್ಮ ಛೇ, ಏಮ ಕಹೇ ಛೇ : —