Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ശ്രീ ദിഗംബര ജൈന സ്വാധ്യായമംദിര ട്രസ്ട, സോനഗഢ - ൩൬൪൨൫൦
൧൨൨ ]യോഗീന്ദുദേവവിരചിത: [ അധികാര-൧ : ദോഹാ-൬൯
तो ‘मुक्त’ (छूटा) ऐसा कहना, ठीक मालूम पड़ता है और दूसरा जो बंधा ही नहीं, उसको
जो ‘आप छूट गये’ ऐसा कहा जाय, तो वह क्रोध करे, कि मैं कब बँधा था, सो यह मुझे
‘छूटा’ कहता है, बँधा होवे, वह छूटे, इसलिये बँधेको तो मोक्ष कहना ठीक है, और बँधा
ही न हो, उसे छूटे कैसे कह सकते हैं ? उसीप्रकार यह जीव शुद्धनिश्चयनयकर बँधा हुआ
नहीं है, इस कारण मुक्त कहना ठीक नहीं है । बंध भी व्यवहारनयकर है, बंध भी
व्यवहारनयकर और मुक्ति भी व्यवहारनयकर है, शुद्धनिश्चयनयकर न बंध है, न मोक्ष है, और
अशुद्धनयकर बंध है, इसलिये बंधके नाशका यत्न भी अवश्य करना चाहिये । यहाँ यह
अभिप्राय है, कि सिद्ध समान यह अपना शुद्धात्मा वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें लीन पुरुषोंको
उपादेय है, अन्य सब हेय हैं ।।६८।।
आगे निश्चयनयकर जीवके जन्म, जरा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण, और संज्ञा नहीं है, आत्मा
इन सब विकारोंसे रहित है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – ६९
अन्वयार्थ : — [आत्मन् ] हे जीव आत्माराम, [जीवस्य ] जीवके [उद्भवः न ] जन्म
രീതേ ശുദ്ധനിശ്ചയനയഥീ ജീവനേ പണ ബംധനാ അഭാവമാം ‘മുക്ത’ ഏവും വചന പണ ഘടതും നഥീ.
അഹീം സിദ്ധ സമാന പോതാനോ ശുദ്ധ ആത്മാ വീതരാഗ നിര്വികല്പ സമാധിരത പുരുഷോനേ ഉപാദേയ
ഛേ. ഏവോ ഭാവാര്ഥ ഛേ. ൬൮.
ഹവേ നിശ്ചയനയഥീ ജീവനേ ജന്മ, ജരാ, മരണ, രോഗ, ലിംഗ, വര്ണ, സംജ്ഞാ നഥീ ഏമ കഹേ ഛേ : —
बन्धनरहितस्तिष्ठति यस्य बन्धभावो मुक्त इति व्यवहारो घटते, द्वितीयं प्रति मोक्षो जातो
भवत इति यदि भण्यते तदा कोपं करोति । कस्माद्वन्धाभावे मोक्षवचनं कथं घटते इति ।
तथा जीवस्यापि शुद्धनिश्चयेन बन्धाभावे मुक्त वचनं न घटते इति । अत्र
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतो मुक्त जीवसद्रशः स्वशुद्धात्मोपादेय इति भावार्थः ।।६८।।
अथ निश्चयनयेन जीवस्योद्भवजरामरणरोगलिङ्गवर्णसंज्ञा नास्तीति कथयति —
६९) अत्थि ण उब्भउ जर - मरणु रोय वि लिंग वि वण्ण ।
णियमिं अप्पु वियाणि तुहुँ जीवहँ एक्क वि सण्ण ।।६९।।
अस्ति न उद्भवः जरामरणं रोगाः अपि लिङ्गान्यपि वर्णाः ।
नियमेन आत्मन् विजानीहि त्वं जीवस्य एकापि संज्ञा ।।६९।।