Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ശ്രീ ദിഗംബര ജൈന സ്വാധ്യായമംദിര ട്രസ്ട, സോനഗഢ - ൩൬൪൨൫൦
൧൩൨ ]യോഗീന്ദുദേവവിരചിത: [ അധികാര-൧ : ദോഹാ-൭൭
उसका अर्थ यह है कि, आत्मस्वरूपमें मगन हुआ जो यति वह निश्चयकर सम्यग्दृष्टि होता है, फि र
वह सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट आठ कर्मोंको क्षय करता है ।।७६।।
इसके बाद मिथ्यादृष्टिके लक्षणके कथनकी मुख्यतासे आठ दोहा कहते हैं —
गाथा – ७७
अन्वयार्थ : — [पर्यायरक्तः जीवः ] शरीर आदि पर्यायमें लीन रहता हुआ जो अज्ञानी
जीव है, वह [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [भवति ] होता है, और फि र वह [बहुविधकर्माणि ]
अनेक प्रकारके कर्मोंको [बध्नाति ] बाँधता है, [येन ] जिनसे कि [संसारं ] संसारमें [भ्रमति ]
भ्रमण करता है ।
भावार्थ : — परमात्माकी अनुभूतिरूप श्रद्धासे विमुख जो आठ मद, आठ मल, छह
अनायतन, तीन मूढता, इन पच्चीस दोषोंकर सहित अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्व परिणाम जिसके
हैं, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है । वह मिथ्यादृष्टि नर नारकादि विभाव-पर्यायोंमें लीन रहता है ।
अत ऊर्ध्वं मिथ्याद्रष्टिलक्षणकथनमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं कथ्यते तद्यथा —
७७) पज्जय – रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ ।
बंधउ बहु - विह-कम्मडा जेँ संसारु भमेइ ।।७७।।
पर्यायरक्त ो जीवः मिथ्याद्रष्टिः भवति ।
बध्नाति बहुविधकर्माणि येन संसारं भ्रमति ।।७७।।
पज्जयरत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ पर्यायरक्त ो जीवो मिथ्याद्रष्टिर्भवति
परमात्मानुभूतिरुचिप्रतिपक्षभूताभिनिवेशरूपा व्यावहारिकमूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलान्तर्भाविनी
मिथ्या वितथा व्यलीका च सा द्रष्टिरभिप्रायो रुचिः प्रत्ययः श्रद्धानं यस्य स
भवति मिथ्याद्रष्टिः । स च किंविशिष्टः । नरनारकादिविभावपर्यायरतः । तस्य मिथ्या-
നിജദ്രവ്യമാം രത (ആത്മസ്വരൂപമാം മഗ്ന) ശ്രമണ നിയമഥീ സമ്യഗ്ദ്രഷ്ടി ഹോയ ഛേ. വളീ സമ്യക്ത്വരൂപേ
പരിണമേലോ തേ ശ്രമണ ദുഷ്ട ആഠ കര്മനോ ക്ഷയ കരേ ഛേ.] ൭൬.
ത്യാര പഛീ മിഥ്യാദ്രഷ്ടിനാ ലക്ഷണനാ കഥനനീ മുഖ്യതാഥീ ആഠ ദോഹാസൂത്രോ കഹേവാമാം ആവേ ഛേ.
തേ ആ പ്രമാണേ : —
ഭാവാര്ഥ : — നരനാരകാദി വിഭാവപര്യായമാം രത ഥയേലോ ജീവ മിഥ്യാദ്രഷ്ടി ഹോയ ഛേ –
പരമാത്മാനീ അനുഭൂതിനീ രുചിഥീ പ്രതിപക്ഷഭൂത, അഭിനിവേശരൂപ ഏവീ, വ്യാവഹാരിക ത്രണ മൂഢതാ,