Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ശ്രീ ദിഗംബര ജൈന സ്വാധ്യായമംദിര ട്രസ്ട, സോനഗഢ - ൩൬൪൨൫൦
रूपस्वसंवेदनज्ञानं सरागमपि द्रश्यते तन्निषेधार्थमित्यभिप्रायः ।।१२।।
अथ त्रिविधात्मसंज्ञां बहिरात्मलक्षणं च कथयति —
१३) मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति – विहु हवेइ ।
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ ।।१३।।
मूढो विचक्षणो ब्रह्म परः आत्मा त्रिविधो भवति ।
देहमेव आत्मानं यो मनुते स जनो मूढो भवति ।।१३।।
मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा तिविहु हवेइ मूढो मिथ्यात्वरागादिपरिणतो बहिरात्मा,
൩൬ ]യോഗീന്ദുദേവവിരചിത: [ അധികാര-൧ : ദോഹാ-൧൩
वीतरागीके शुक्लध्यानका दूसरा पाया (भेद) प्रगट होता है, यथाख्यातचारित्र हो जाता है ।
बारहवेंके अंतमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीनोंका विनाश कर डाला, मोहका नाश
पहले ही हो चुका था, तब चारों घातिकर्मोंके नष्ट हो जानेसे तेरहवें गुणस्थानमें केवलज्ञान प्रगट
होता है, वहाँपर ही शुद्ध परमात्मा होता है, अर्थात् उसके ज्ञानका पूर्ण प्रकाश हो जाता है,
निःकषाय है । वह चौथे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक तो अंतरात्मा है, उसके
गुणस्थान प्रति चढ़ती हुई शुद्धता है, और पूर्ण शुद्धता परमात्माके है, यह सारांश समझना ।।१२।।
तीन प्रकारके आत्माके भेद हैं, उनमेंसे प्रथम बहिरात्माका लक्षण कहते हैं —
गाथा – १३
अन्वयार्थ : — [मूढः ] मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ बहिरात्मा, [विचक्षणः ]
वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूप परिणमन करता हुआ अंतरात्मा [ब्रह्मा परः ] और शुद्ध
-बुद्ध स्वभाव परमात्मा अर्थात् रागादि रहित, अनंत ज्ञानादि सहित, भावद्रव्य कर्म नोकर्म रहित
आत्मा इसप्रकार [आत्मा ] आत्मा [त्रिविधो भवति ] तीन तरहका है, अर्थात् बहिरात्मा, अंतरात्मा,
परमात्मा, ये तीन भेद हैं । इनमेंसे [यः ] जो [देहमेव ] देहको ही [आत्मानं ] आत्मा [मनुते ]
मानता है, [स जनः ] वह प्राणी [मूढः ] बहिरात्मा [भवति ] है, अर्थात् बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि है ।
भावार्थ : — जो देहको आत्मा समझता है, वह वीतराग निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न
ഹവേ ത്രണ പ്രകാരനാ ആത്മാനീ സംജ്ഞാ അനേ ബഹിരാത്മാനും ലക്ഷണ കഹേ ഛേ.
ഭാവാര്ഥ : — മൂഢ മിഥ്യാത്വ രാഗാദിരൂപേ പരിണമതോ ബഹിരാത്മാ ഛേ, വിചക്ഷണ വീതരാഗ