Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ശ്രീ ദിഗംബര ജൈന സ്വാധ്യായമംദിര ട്രസ്ട, സോനഗഢ - ൩൬൪൨൫൦
अथ येन शुद्धात्मना स्वसंवेदनज्ञानचक्षुषावलोकितेन पूर्वकृतकर्माणि नश्यन्ति तं किं न
जानासि त्वं हे योगिन्निति कथयन्ति —
२७) जेँ दिट्ठेँ तुट्टंति लहु कम्मइँ पुव्व-कियाइँ ।
सो परु जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइँ ।।२७।।
येन द्रष्टेन त्रुटयन्ति लघु कर्माणि पूर्वकृतानि ।
तं परं जानासि योगिन् देहे वसन्तं न किम् ।।२७।।
जें दिट्ठें तुट्टंति लहु कम्मइं पुव्वकियाइं येन परमात्मना द्रष्टेन सदानन्दैकरूपवीतराग-
निर्विकल्पसमाधिलक्षणनिर्मललोचनेनावलोकितेन त्रुटयन्ति शतचूर्णानि भवन्ति लघु शीघ्रम्
अन्तर्मुहूर्तेन । कानि । परमात्मनः प्रतिबन्धकानि स्वसंवेद्याभावोपार्जितानि पूर्वकृतकर्माणि सो परु
ഹവേ സ്വസംവേദന രൂപ ജ്ഞാനചക്ഷു വഡേ ജേ ശുദ്ധാത്മാനേ അവലോകവാഥീ പൂര്വകൃത കര്മോ നാശ പാമേ
ഛേ തേനേ ഹേ യോഗീ! തും കേമ ജാണതോ നഥീ? ഏമ കഹേ ഛേ : —
ഭാവാര്ഥ : — സദാനംദ ജേനും ഏക രൂപ ഛേ ഏവാ നിര്വികല്പ സമാധിസ്വരൂപ നിര്മള നേത്രഥീ
ജേ പരമാത്മാനേ അവലോകവാഥീ പരമാത്മാനാം പ്രതിബംധക, സ്വസംവേദന (ജ്ഞാന)നാ അഭാവഥീ (അജ്ഞാന
ഭാവഥീ) ഉപാര്ജിത കരേലാം പൂര്വകൃത കര്മോനാ ശീഘ്ര-അന്തര്മുഹൂര്തമാം സേംകഡോ ചൂരേചൂരാ ഥഈ ജായ ഛേ തേ
൫൪ ]യോഗീന്ദുദേവവിരചിത: [ അധികാര-൧ : ദോഹാ-൨൭
आगे जिस शुद्धात्माको सम्यग्ज्ञान-नेत्रसे देखनेसे पहले उपार्जन किए हुए कर्म नाश
हो जाते हैं, उसे हे योगिन्, तू क्यों नहीं पहचानता, ऐसा कहते हैं —
गाथा – २७
अन्वयार्थ : — [येन ] जिस परमात्माको [द्रष्टेन ] सदा आनंदरूप वीतराग निर्विकल्प
समाधिस्वरूप निर्मल नेत्रोंकर देखनेसे [लघु ] शीघ्र ही [पूर्वकृतानि ] निर्वाणके रोकनेवाले पूर्व
उपार्जित [कर्माणि ] कर्म [त्रुटयन्ति ] चूर्ण हो जाते हैं, अर्थात् सम्यग्ज्ञानके अभावसे
(अज्ञानसे) जो पहले शुभ अशुभ कर्म कमाये थे, वे निजस्वरूपके देखनेसे ही नाश हो जाते
हैं, [तं परं ] उस सदानंदरूप परमात्माको [देहं वसन्तं ] देहमें बसते हुए भी [हे योगिन् ]
हे योगी [किं न जानासि ] तू क्यों नहीं जानता ?
भावार्थ : — जिसके जाननेसे कर्म-कलंक दूर हो जाते हैं वह आत्मा शरीरमें निवास
करता हुआ भी देहरूप नहीं होता, उसको तूँ अच्छी तरह पहचान और दूसरे अनेक प्रपंचों