Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
ଭାଵାର୍ଥ : — ହେ ପ୍ରଭାକର ଭଟ୍ଟ! ଆଗଳ କହେଵାମାଂ ଆଵତା ଵିଵକ୍ଷିତ ନଯ ଵିଭାଗନୀ
ଅପେକ୍ଷାଏ ପରମାତ୍ମା ସର୍ଵଗତ ପଣ ଛେ, ଜଡ ପଣ ଛେ, ଦେହପ୍ରମାଣ ପଣ ଛେ, ଶୂନ୍ଯ ପଣ ଛେ, (ନଯଵିଭାଗ
ଅନୁସାରେ ତେମ ମାନଵାମାଂ) କୋଈ ଦୋଷ ନଥୀ. ଏଵୋ ଭାଵାର୍ଥ ଛେ. ୫୧.
ହଵେ କର୍ମ ରହିତ ଆତ୍ମା କେଵଳଜ୍ଞାନ ଵଡେ ଲୋକାଲୋକନେ ଜାଣେ ଛେ ତେ କାରଣେ ‘ସର୍ଵଗତ’ ଛେ, ଏମ
ପ୍ରତିପାଦନ କରେ ଛେ : —
ଭାଵାର୍ଥ : — ଆ ଆତ୍ମା ଵ୍ଯଵହାରନଯଥୀ କେଵଳଜ୍ଞାନ ଵଡେ ଲୋକାଲୋକନେ ଜାଣେ ଛେ, ଦେହମାଂ
आत्मा हे योगिन् सर्वगतोऽपि भवति, आत्मानं जडमपि विजानीहि, आत्मानं देहप्रमाणं
मन्यस्व, आत्मानं शून्यमपि जानीहि । तद्यथा । हे प्रभाकरभट्ट वक्ष्यमाणविवक्षितनयविभागेन
परमात्मा सर्वगतो भवति, जडोऽपि भवति, देहप्रमाणोऽपि भवति, शून्योऽपि भवति नापि दोष
इति भावार्थः ।।५१।।
अथ कर्मरहितात्मा केवलज्ञानेन लोकालोकं जानाति तेन कारणेन सर्वगतो भवतीति
प्रतिपादयति —
५२) अप्पा कम्म-विवज्जियउ केवल-णाणेँ जेण ।
लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ।।५२।।
आत्मा कर्मविवर्जितः केवलज्ञानेन येन ।
लोकालोकमपि मनुते जीव सर्वगः उच्यते तेन ।।५२।।
आत्मा कर्मविवर्जितः सन् केवलज्ञानेन करणभूतेन येन कारणेन लोकालोकं मनुते
जानाति हे जीव सर्वगत उच्यते तेन कारणेन । तथाहि — अयमात्मा व्यवहारेण केवलज्ञानेन
आगे कर्मरहित आत्मा केवलज्ञानसे लोक और अलोक दोनोंको जानता है, इसलिये
सर्व व्यापक भी हो सकता है, ऐसा कहते हैं —
गाथा – ५२
अन्वयार्थ : — [आत्मा ] यह आत्मा [कर्मविवर्जितः ] कर्मरहित हुआ [केवलज्ञानेन ]
केवलज्ञानसे [येन ] जिस कारण [लोकालोकमपि ] लोक और अलोकको [मनुते ] जानता
है [तेन ] इसीलिये [हे जीव ] हे जीव, [सर्वगः ] सर्वगत [उच्यते ] कहा जाता है ।
भावार्थ : — यह आत्मा व्यवहारनयसे केवलज्ञानकर लोक-अलोकको जानता है, और
शरीरमें रहनेपर भी निश्चयनयसे अपने स्वरूपको जानता है, इस कारण ज्ञानकी अपेक्षा तो
୮୮ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୫୨