Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Oriya transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
लोकालोकं जानाति, देहमध्ये स्थितोऽपि निश्चयनयेन स्वात्मानं जानाति, तेन कारणेन
व्यवहारनयेन ज्ञानापेक्षया रूपविषये
द्रष्टिवत्सर्वगतो भवति न च प्रदेशापेक्षयेति कश्चिदाह यदि
व्यवहारेण लोकालोकं जानाति तर्हि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्वं, न च निश्चयनयेनेति
परिहारमाहयथा स्वकीयमात्मानं तन्मयत्वेन जानाति तथा परद्रव्यं तन्मयत्वेन न जानाति तेन
कारणेन व्यवहारो भण्यते न च परिज्ञानाभावात् यदि पुनर्निश्चयेन स्वद्रव्यवत्तन्मयो भूत्वा परद्रव्यं
जानाति तर्हि परकीयसुखदुःखरागद्वेषपरिज्ञातो सुखी दुःखी रागी द्वेषी च स्यादिति महद्दूषणं
ରହେଵା ଛତାଂ ପଣ, ନିଶ୍ଚଯନଯଥୀ ପୋତାନା ଆତ୍ମାନେ ଜାଣେ ଛେ ତେ କାରଣେ ନେତ୍ରଵତ୍ (ଜେଵୀ ରୀତେ
ଵ୍ଯଵହାରନଯଥୀ ରୂପନା ଵିଷଯନେ ଦେଖଵାଥୀ ନେତ୍ର ‘ପଦାର୍ଥଗତ’ ଛେ, ପଣ ତେ ପଦାର୍ଥୋମାଂ ଜତୁଂ ନଥୀ ତେଵୀ
ରୀତେ,) ଵ୍ଯଵହାରନଯଥୀ ଜ୍ଞାନ-ଅପେକ୍ଷାଏ ଆତ୍ମା ‘ସର୍ଵଗତ’ ଛେ, ପଣ ପ୍ରଦେଶନୀ ଅପେକ୍ଷାଏ ନହି.
ଅହୀଂ କୋଈ ପ୍ରଶ୍ନ କରେ ଛେ କେ ଜୋ ଆତ୍ମା ଵ୍ଯଵହାରନଯଥୀ ଲୋକାଲୋକନେ ଜାଣେ ଛେ ତୋ
ଵ୍ଯଵହାରନଯଥୀ ସର୍ଵଜ୍ଞପଣୁଂ ଠର୍ଯୁଂ ପଣ ନିଶ୍ଚଯନଯଥୀ ନହି?
ତେନୋ ପରିହାର:ଜେଵୀ ରୀତେ ଆତ୍ମା ତନ୍ମଯ ଥଈନେ ପୋତାନା ଆତ୍ମାନେ ଜାଣେ ଛେ ତେଵୀ ରୀତେ
ପରଦ୍ରଵ୍ଯମାଂ ତନ୍ମଯ ଥଈନେ ତେମନେ ଜାଣତୋ ନଥୀ ତେ କାରଣେ ଵ୍ଯଵହାର କହେଵାମାଂ ଆଵେ ଛେ, ପଣ ଜ୍ଞାନନା
ଅଭାଵଥୀ ନହି. (ପଣ ସର୍ଵଜ୍ଞପଣାନୋ ଅଭାଵ ଛେ ମାଟେ ଵ୍ଯଵହାର କହେଵାମାଂ ଆଵେ ଛେ ଏମ ନଥୀ.)
ଵଳୀ ଜୋ ଆତ୍ମା ନିଶ୍ଚଯନଯଥୀ, ସ୍ଵଦ୍ରଵ୍ଯନୀ ଜେମ ପରଦ୍ରଵ୍ଯମାଂ ତନ୍ମଯ ଥଈନେ ତେମନେ ଜାଣେ ତୋ
ବୀଜାନାଂ ସୁଖ-ଦୁଃଖ, ରାଗ-ଦ୍ଵେଷ ଜାଣଵାମାଂ ଆଵତାଂ, ପୋତେ ସୁଖୀ-ଦୁଃଖୀ ଅନେ ରାଗୀ-ଦ୍ଵେଷୀ ଥାଯ ଏଵୋ
ମହାନ ଦୋଷ ଆଵେ.
व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं है जैसे रूपवाले पदार्थोंको नेत्र देखते हैं, परंतु
उन पदार्थोंसे तन्मय नहीं होते, उसरूप नहीं होते हैं यहाँ कोई प्रश्न करता है, कि जो
व्यवहारनयसे लोकालोकको जानता है, और निश्चयनयसे नहीं, तो व्यवहारसे सर्वज्ञपना हुआ,
निश्चयनयकर न हुआ ? उसका समाधान करते हैं
जैसे अपनी आत्माको तन्मयी होकर जानता
है, उस तरह परद्रव्यको तन्मयीपनेसे नहीं जानता, भिन्नस्वरूप जानता है, इस कारण
व्यवहारनयसे कहा, कुछ ज्ञानके अभावसे नहीं कहा
ज्ञानकर जानना तो निज और परका
समान है जैसे अपनेको सन्देह रहित जानता है, वैसा ही परको भी जानता है, इसमें सन्देह
नहीं समझना, लेकिन निज स्वरूपसे तो तन्मयी है, और परसे तन्मयी नहीं और जिस तरह
निजको तन्मयी होकर निश्चयसे जानता है, उसी तरह यदि परको भी तन्मय होकर जाने, तो
परके सुख, दुःख, राग, द्वेषके ज्ञान होने पर सुखी, दुःखी, रागी, द्वेषी हो, यह बड़ा दूषण है
सो इस प्रकार कभी नहीं हो सकता यहाँ जिस ज्ञानसे सर्वव्यापक कहा, वही ज्ञान उपादेय
अतीन्द्रियसुखसे अभिन्न है, सुखरूप है, ज्ञान और आनन्दमें भेद नहीं है, वही ज्ञान उपादेय
ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୫୨ ]ପରମାତ୍ମପ୍ରକାଶ: [ ୮୯