Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
तावत्कथ्यन्ते । सिद्धत्वादयः स्वभावपर्यायाः केवलज्ञानादयः स्वभावगुणा असाधारणा इति ।
अगुरुलघुकाः स्वभावगुणास्तेषामेव गुणानां षड्हानिवृद्धिरूपस्वभावपर्यायाश्च
सर्वद्रव्यसाधारणाः । तस्यैव जीवस्य मतिज्ञानादिविभावगुणा नरनारकादिविभावपर्यायाश्च इति ।
इदानीं पुद्गलस्य कथ्यन्ते । केवलपरमाणुरूपेणावस्थानं स्वभावपर्यायः वर्णान्तरादिरूपेण
परिणमनं वा । तस्मिन्नेव परमाणौ वर्णादयः स्वभावगुणा इति,
द्वयणुकादिरूपस्कन्धरूपविभावपर्यायास्तेष्वेव द्वयणुकादिस्कन्धेषु वर्णादयो विभावगुणा इति
ସାଧାରଣ ସ୍ଵଭାଵ ଗୁଣୋ ଛେ, ତେ ଜ ଗୁଣୋନୀ ଷଟ୍ଗୁଣହାନିଵୃଦ୍ଧିରୂପ ସ୍ଵଭାଵ ପର୍ଯାଯୋ ଛେ. ତେ ଜୀଵନେ
ମତିଜ୍ଞାନାଦି ଵିଭାଵଗୁଣୋ ଅନେ ନରନାରକାଦି ଵିଭାଵପର୍ଯାଯୋ ଛେ.
ହଵେ ପୁଦ୍ଗଲନା ଗୁଣପର୍ଯାଯ କହେଵାମାଂ ଆଵେ ଛେ : — କେଵଳ ପରମାଣୁରୂପେ ରହେଵୁଂ ତେ ଅଥଵା
ଵର୍ଣାନ୍ତରାଦିରୂପେ (ଏକ ଵର୍ଣଥୀ ବୀଜା ଵର୍ଣରୂପେ) ପରିଣମଵୁଂ ତେ ସ୍ଵଭାଵପର୍ଯାଯ ଛେ. ତେ ପରମାଣୁମାଂ
ଵର୍ଣାଦି ସ୍ଵଭାଵଗୁଣୋ ଛେ, ଦ୍ଵ୍ଯଣୁକାଦି ସ୍କଂଧରୂପ ଵିଭାଵପର୍ଯାଯୋ ଛେ, ତେ ଦ୍ଵ୍ଯଣୁକାଦିସ୍କଂଧୋମାଂ ଵର୍ଣାଦି
द्रव्यसे तन्मयपना नहीं छोड़ते । तथा पर्यायके दो भेद हैं — एक तो स्वभाव दूसरी विभाव ।
जीवके सिद्धत्वादि स्वभाव-पर्याय हैं, और केवलज्ञानादि स्वभाव-गुण हैं । ये तो जीवमें ही
पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यमें नहीं पाये जाते । तथा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, ये
स्वभावगुण सब द्रव्योंमें पाये जाते हैं । अगुरुलघु गुणका परिणमन षट्गुणी हानि-वृद्धिरूप है ।
यह स्वभावपर्याय सभी द्रव्योंमें हैं, कोई द्रव्य षट्गुणी हानि-वृद्धि बिना नहीं है, यही अर्थ-
पर्याय कही जाती हैं, वह शुद्ध पर्याय है । यह शुद्ध पर्याय संसारीजीवोंके सब अजीव-
पदार्थोंके तथा सिद्धोंके पायी जाती है, और सिद्धपर्याय तथा केवलज्ञानादि गुण सिद्धोंके ही
पाया जाता है, दूसरोंके नहीं । संसारी-जीवोंके मतिज्ञानादि विभावगुण और नर-नारकी आदि
विभावपर्याय ये संसारी-जीवोंके पायी जाती हैं । ये तो जीव-द्रव्यके गुण-पर्याय कहे और
पुद्गलके परमाणुरूप तो द्रव्य तथा वर्ण आदि स्वभावगुण और एक वर्णसे दूसरे वर्णरूप
होना, ये विभावगुण व्यंजन-पर्याय तथा एक परमाणुमें जो तीन इत्यादि अनेक परमाणु
मिलकर स्कंधरूप होना, ये विभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय हैं । द्वयणुकादि स्कंधमें जो वर्ण आदि
हैं, वे विभावगुण कहे जाते हैं, और वर्णसे वर्णान्तर होना, रससे रसान्तर होना, गंधसे अन्य
गंध होना, यह विभाव-पर्याय हैं । परमाणु शुद्ध द्रव्यमें एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और
शीत उष्णमेंसे एक तथा रूखे-चिकनेमेंसे एक, ऐसे दो स्पर्श, इस तरह पाँच गुण तो मुख्य
हैं, इनको आदिसे अस्तित्वादि अनंतगुण हैं, वे स्वभाव-गुण कहे जाते हैं, और परमाणुका जो
आकार वह स्वभावद्रव्य व्यंजन-पर्याय है, तथा वर्णादि गुणरूप परिणमन वह स्वभावगुण
୧୦୦ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୫୭