Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Oriya transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
प्रथमतस्तावत् ‘सिरिगुरु’ इत्यादिमोक्षस्वरूपकथनमुख्यत्वेन दोहकसूत्राणि दशकम्, अत ऊर्ध्वं
‘दंसणु णाणु’ इत्याद्येकसूत्रेण मोक्षफ लं, तदनन्तरं ‘जीवहं मोक्खहं हेउ वरु’
इत्याद्येकोनविंशतिसूत्रपर्यन्तं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गमुख्यतया व्याख्यानम्, अथानन्तरम-
भेदरत्नत्रयमुख्यत्वेन
‘जो भत्तउ’ इत्यादि सूत्राष्टकम्, अत ऊर्ध्वं समभावमुख्यत्वेन ‘कम्मु
पुरक्किउ’ इत्यादिसूत्राणि चतुर्दश, अथानन्तरं पुण्यपापसमानमुख्यत्वेन ‘बंधहं मोक्खहं हेउ णिउ’
इत्यादिसूत्राणि चतुर्दश, अत ऊर्ध्वम् एकचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं प्रक्षेपकान् विहाय
शुद्धोपयोगस्वरूपमुख्यत्वमिति समुदायपातनिका
तत्र प्रथमतः एकचत्वारिंशन्मध्ये ‘सुद्धहं संजमु’
इत्यादिसूत्रपञ्चकपर्यन्तं शुद्धोपयोगमुख्यतया व्याख्यानम्, अथानन्तरं ‘दाणिं लब्भइ’
ବୀଜୋ ମହାଧିକାର (ଦୋହକ ସୂତ୍ରୋ୨୧୪)
ତ୍ଯାରପଛୀ ବୀଜା ମହାଧିକାରନୀ (ଦୋହକସୂତ୍ରୋ ୨୧୪) ଶରୂଆତମାଂ ମୋକ୍ଷ, ମୋକ୍ଷଫଳ, ଅନେ
ମୋକ୍ଷମାର୍ଗନୁଂ ସ୍ଵରୂପ କହେଵାମାଂ ଆଵେ ଛେ. (୧) ତ୍ଯାଂ ପ୍ରଥମ ଜ ମୋକ୍ଷ ସ୍ଵରୂପନା କଥନନୀ ମୁଖ୍ଯତାଥୀ
‘‘सिरिगुरु’’ ଇତ୍ଯାଦି ଦସ ଦୋହକସୂତ୍ରୋ ଛେ, (୨) ତ୍ଯାରପଛୀ ‘‘दंसणु णाणु’’ ଏ ଏକ ସୂତ୍ରଥୀ
ମୋକ୍ଷନୁଂ ଫଳ ଦର୍ଶାଵ୍ଯୁଂ ଛେ, (୩) ତ୍ଯାରପଛୀ ‘‘जीवहं मोक्खहं हेउ वरु’’ ଇତ୍ଯାଦି ଓଗଣୀସ ସୂତ୍ର
ସୁଧୀ ନିଶ୍ଚଯଵ୍ଯଵହାରମୋକ୍ଷମାର୍ଗନୀ ମୁଖ୍ଯତାଥୀ ଵ୍ଯାଖ୍ଯାନ କର୍ଯୁଂ ଛେ, (୪) ତ୍ଯାରପଛୀ ଅଭେଦରତ୍ନତ୍ରଯନୀ
ମୁଖ୍ଯତାଥୀ
‘‘जो भत्तउ’’ ଇତ୍ଯାଦି ଆଠ ସୂତ୍ରୋ ଛେ, (୫) ତ୍ଯାରପଛୀ ସମଭାଵନୀ ମୁଖ୍ଯତାଥୀ ‘‘कम्मु
पुरक्किउ’’ ଇତ୍ଯାଦି ଚୌଦ ସୂତ୍ରୋ ଛେ, (୬) ତ୍ଯାରପଛୀ ପୁଣ୍ଯ ପାପନୀ ସମାନତାନୀ ମୁଖ୍ଯତାଥୀ ‘‘बंधहं
मोक्खहं हेउ णिउ’’ ଇତ୍ଯାଦି ଚୌଦ ସୂତ୍ରୋ ଛେ.
ତ୍ଯାର ପଛୀ ପ୍ରକ୍ଷେପକୋନେ ଛୋଡୀନେ ଏକତାଲୀସ ସୂତ୍ରୋ ସୁଧୀ ଶୁଦ୍ଧୋପଯୋଗନା ସ୍ଵରୂପନୀ ମୁଖ୍ଯତା
ଛେ. ଏ ପ୍ରମାଣେ ସମୁଦାଯପାତନିକା ଜାଣଵୀ.
(୭) ତେ ଏକତାଲୀସ ସୂତ୍ରୋମାଂଥୀ ପ୍ରଥମ ‘‘सुद्धहं संजमु’’ ଇତ୍ଯାଦି ପାଂଚ ସୂତ୍ରୋ ସୁଧୀ
ଶୁଦ୍ଧୋପଯୋଗନୀ ମୁଖ୍ଯତାଥୀ ଵ୍ଯାଖ୍ଯାନ ଛେ, (୮) ତ୍ଯାରପଛୀ ‘दाणिं लब्भइ’ ଇତ୍ଯାଦି ପଂଦର ସୂତ୍ରୋ
୪ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ପାତନିକା
और मोक्षमार्ग इनका स्वरूप कहा है, उसमें प्रथम ही ‘सिरिगुरु’ इत्यादि मोक्ष रूपके कथनकी
मुख्यताकर दस दोहे, ‘दंसण णाणु’ इत्यादि एक दोहाकर मोक्षका फ ल, निश्चय व्यवहार
मोक्षमार्गकी मुख्यताकर ‘जीवहं मोक्खहं हेउ वरु’ इत्यादि उन्नीस दोहे, अभेदरत्नत्रयकी
मुख्यताकर ‘जो भत्तउ’ इत्यादि आठ दोहे, समभावकी मुख्यताकर ‘कम्मु पुरक्किउ’ इत्यादि
चौदह दोहे पुण्य-पापकी समानताकी मुख्यता कर ‘बंधहं मोक्खहं हेउ णिउ’ इत्यादि चौदह दोहे
हैं, और शुद्धोपयोगके स्वरूपकी मुख्यताकर प्रक्षेपकोंके बिना इकतालीस दोहे पर्यंत व्याख्यान
है
उन इकतालीस दोहोंमें से प्रथम ही ‘सुद्धहं संजमु’ इत्यादि पाँच दोहा तक शुद्धोपयोगके
व्याख्यानकी मुख्यता है, ‘दाणिं लब्भइ’ इत्यादि पंद्रह दोहा पर्यंत वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकी