Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
ଭାଵାର୍ଥ : — ହଵେ ଲୋକାଲୋକନା ପ୍ରକାଶକ କେଵଳଜ୍ଞାନରୂପ ସ୍ଵସଂଵେଦନ ଵଡେ ତ୍ରଣ ଲୋକନା
ଗୁରୁ ଛେ ତେ ସିଦ୍ଧୋନେ ହୁଂ ଫରୀ ନମସ୍କାର କରୁଂ ଛୁଂ, କେ ଜେ ତୀର୍ଥଂକର ପରମଦେଵୋ, ଭରତ, ରାମଚଂଦ୍ର,
ପାଂଡଵୋ ଆଦି ପୂର୍ଵକାଳେ ଵୀତରାଗ ନିର୍ଵିକଲ୍ପ ସ୍ଵସଂଵେଦନଜ୍ଞାନନା ବଳଥୀ ନିଜ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମସ୍ଵରୂପନେ
ପାମୀନେ କର୍ମନୋ କ୍ଷଯ କରୀ ହାଲ ନିର୍ଵାଣମାଂ ସଦା କାଳନେ ମାଟେ ବିରାଜୀ ରହ୍ଯା ଛେ, ଏମାଂ କାଂଈ
ଶଂକା ନଥୀ.❃
ତ୍ଯାର ପଛୀ ଜୋ କେ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମାଓ ସିଦ୍ଧ ଭଗଵଂତୋ-ଵ୍ଯଵହାରନଯଥୀ ମୁକ୍ତିଶିଲା ଉପର
ते पुणु वंदउं सिद्धगण तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् । किंविशिष्टान् । जे णिव्वाणि वसंति
ये निर्वाणे मोक्षपदे वसन्ति तिष्ठन्ति । पुनरपि कथंभूता ये । णाणिं तिहुयणि गरुया वि
भवसायरि ण पडंति ज्ञानेन त्रिभुवनगुरुका अपि भवसागरे न पतन्ति । अत ऊर्ध्वं विशेषः ।
तथाहि – तान् पुनर्वन्देऽहं सिद्धगणान् ये तीर्थंकरपरमदेवभरतराधवपाण्डवादयः पूर्वकाले
वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानबलेन स्वशुद्धात्मस्वरूपं प्राप्य कर्मक्षयं कृत्वेदानीं निर्वाणे तिष्ठन्ति
सदापि न संशयः । तानपि कथंभूतान् । लोकालोकप्रकाशकेवलज्ञानस्वसंवेदनत्रिभुवनगुरून्१।
त्रैलोक्यालोकनपरमात्मस्वरूपनिश्चयव्यवहारपदपदार्थव्यवहारनयकेवलज्ञानप्रकाशेन समाहितस्व-
स्वरूपभूते निर्वाणपदे तिष्ठन्ति यतः ततस्तन्निर्वाणपदमुपादेयमिति तात्पर्यार्थः ।।४।।
अतः ऊर्ध्वं यद्यपि व्यवहारनयेन मुक्ति शिलायां तिष्ठन्ति शुद्धात्मनः हि सिद्धास्तथापि
୧୮ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୪
पतन्ति ] नहिं पडते हैं ।
भावार्थ : — जो भारी होता है, वह गुरुतर होता है, और जलमें डूब जाता है, वे
भगवान त्रैलोक्यमें गुरु हैं, परंतु भव-सागरमें नहीं पड़ते हैं । उन सिद्धोंको मैं वंदता हूँ, जो
तीर्थंकरपरमदेव, तथा भरत, सगर, राघव, पांडवादिक पूर्वकालमें वीतरागनिर्विकल्प
स्वसंवेदनज्ञानके बलसे निजशुद्धात्मस्वरूप पाके, कर्मोंका क्षयकर, परमसमाधानरूप निर्वाण
-पदमें विराज रहे हैं उनको मेरा नमस्कार होवे यह सारांश हुआ ।।४।।
आगे यद्यपि वे सिद्ध परमात्मा व्यवहारनयकर लोकालोकको देखते हुए मोक्षमें तिष्ठ
୧. ପାଠାନ୍ତର : — गुरून् त्रैलोक्या लोकनपरमात्मस्वरूपनिश्चयव्यवहारपदार्थव्यवहारनयकेवलज्ञानप्रकाशनगुरुकान् ।
लोकालोकनं परमात्मस्वरूपावलोकनं निश्चयेन पुद्गलादिपदार्थावलोकनं व्यवहारनयेन केवलज्ञानप्रकाशेन
❃ ତେ ସିଦ୍ଧୋ କେଵା ଛେ? ଲୋକାଲୋକ ପ୍ରକାଶେ ଛେ ତେ କେଵଳଜ୍ଞାନ ପ୍ରାପ୍ତ ସିଦ୍ଧୋ ଛେ. ଵ୍ଯଵହାରନଯଥୀ ତ୍ରଣ ଲୋକ ପ୍ରକାଶକ
ପରମାତ୍ମା ନିଶ୍ଚଯଥୀ ସ୍ଵସ୍ଵରୂପମାଂ ରହେଲା ସିଦ୍ଧୋ ନିର୍ଵାଣପଦମାଂ ସ୍ଥିତ ଛେ. ଆଥୀ ଅହୀଂ ନିର୍ଵାଣପଦ ଉପାଦେଯ ଛେ. ଏଵୋ
ତାତ୍ପର୍ଯାର୍ଥ ଛେ. ୪.