Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
ଭାଵାର୍ଥ : — ଜେ କୋଈ ଵୀତରାଗ ନିର୍ଵିକଲ୍ପ ସହଜ ଆନଂଦରୂପ ଏକ (କେଵଳ) ଶୁଦ୍ଧାତ୍ମାନୁଭୂତି
ଜେନୁଂ ଲକ୍ଷଣ ଛେ ଏଵୀ ପରମସମାଧିମାଂ ସ୍ଥିତ ଥଯୋ ଥକୋ, ଅନୁପଚରିତ ଅସଦ୍ଭୂତ ଵ୍ଯଵହାରନଯଥୀ
ଦେହଥୀ ଅଭିନ୍ନ ଅନେ ନିଶ୍ଚଯନଯଥୀ ଦେହଥୀ ଭିନ୍ନ, ଜ୍ଞାନମଯ କେଵଳଜ୍ଞାନଥୀ ରଚାଯେଲ ପରମାତ୍ମାନେ ଜାଣେ
ଛେ, ତେ ଜ ପଂଡିତ-ଵିଵେକୀ ଅନ୍ତରାତ୍ମା ଛେ ୧‘‘कः पण्डितो विवेकी’’ ‘‘इति वचनात्’’ (ଅର୍ଥ : – ‘‘ପଂଡିତ
କୋଣ? ତୋ କେ ଜେ ଵିଵେକୀ ଛେ,’’) ଏଵୁଂ ଆଗମନୁଂ ଵଚନ ଛେ.
ଏ ପ୍ରମାଣେ ଅନ୍ତରାତ୍ମା ହେଯରୂପ ଛେ, ଜେ ପରମାତ୍ମା ଛେ ତେ ଜ ସାକ୍ଷାତ୍ ଉପାଦେଯ ଛେ ଏଵୋ
ଭାଵାର୍ଥ ଛେ. ୧୪.
ହଵେ ସମସ୍ତ ପରଦ୍ରଵ୍ଯନେ ଛୋଡୀନେ ଜେଣେ କେଵଳଜ୍ଞାନମଯ, କର୍ମରହିତ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମାନେ ପ୍ରାପ୍ତ କର୍ଯୋ
देहविभिन्नं ज्ञानमयं यः परमात्मानं पश्यति ।
परमसमाधिपरिस्थितः पण्डितः स एव भवति ।।१४।।
देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन देहादभिन्नं
निश्चयनयेन भिन्नं ज्ञानमयं केवलज्ञानेन निर्वृत्तं परमात्मानं योऽसौ जानाति परमसमाहिपरिट्ठियउ
पंडिउ सो जि हवेइ वीतरागनिर्विकल्पसहजानन्दैकशुद्धात्मानुभूतिलक्षणपरमसमाधिस्थितः सन्
पण्डितोऽन्तरात्मा विवेकी स एव भवति । ‘‘कः पण्डितो विवेकी’’ इति वचनात्, इति
अन्तरात्मा हेयरूपो, योऽसौ परमात्मा भणितः स एव साक्षादुपादेय इति भावार्थः ।।१४।।
अथ समस्तपरद्रव्यं मुक्त्वा केवलज्ञानमयकर्मरहितशुद्धात्मा येन लब्धः स
୩୮ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୧୪
୧. ଅମୋଧ ଵର୍ଷ, ପ୍ରଶ୍ନୋତ୍ତରମାଲା ୫
गाथा – १४
अन्यवयार्थ — [यः ] जो पुरुष [परमात्मानं ] परमात्माको [देहविभिन्नं ] शरीरसे जुदा
[ज्ञानमयं ] केवलज्ञानकर पूर्ण [पश्यति ] जानता है, [स एव ] वही [परमसमाधिपरिस्थितः ]
परमसमाधिमें तिष्ठता हुआ [पण्डितः ] अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी [भवति ] है ।
भावार्थ : — यद्यपि अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयसे अर्थात् इस जीवके परवस्तुका
संबंध अनादिकालका मिथ्यारूप होनेसे व्यवहारनयकर देहमयी है, तो भी निश्चयनयकर सर्वथा
देहादिकसे भिन्न है, और केवलज्ञानमयी है, ऐसा निज शुद्धात्माको वीतरागनिर्विकल्प सहजानंद
शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप परमसमाधिमें स्थित होता हुआ जानता है, वही विवेकी अंतरात्मा
कहलाता है । वह परमात्मा ही सर्वथा आराधने योग्य है, ऐसा जानना ।।१४।।
आगे सब पररव्योंको छोड़कर कर्मरहित होकर जिसने अपना स्वरूप केवलज्ञानमय पा