Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
ଘାତକ ମନନା ସଂକଲ୍ପଵିକଲ୍ପନୀ ଜାଳନେ ଜୀତୀନେ ହେ ପ୍ରଭାକରଭଟ୍ଟ! ତୁଂ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମାନୋ ଅନୁଭଵ କର
ଏଵୋ ଭାଵାର୍ଥ ଛେ. କହ୍ଯୁଂ ପଣ ଛେ କେ : —
୧
अक खाण रसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभं च । गुत्तीसु य मणगुत्ती चउरो दुक्खेहिं
सिज्झंति ।।
ଅର୍ଥ : — ଇନ୍ଦ୍ରିଯୋମାଂ ଜୀଭ ପ୍ରବଳ ଛେ, ଜ୍ଞାନାଵରଣାଦି ଆଠ କର୍ମୋମାଂ ମୋହନୀଯ ବଳଵାନ ଛେ,
ତଥା ପାଂଚମହାଵ୍ରତୋମାଂ ବ୍ରହ୍ମଚର୍ଯଵ୍ରତ ପ୍ରବଳ ଛେ ଅନେ ତ୍ରଣ ଗୁପ୍ତିଓମାଂ ମନୋଗୁପ୍ତି ପାଳଵୀ କଠଣ ଛେ;
ଏ ଚାରେ ଭାଵୋ ମୁଶ୍କେଲୀଥୀ ସିଦ୍ଧ ଥାଯ ଛେ. ୨୨.
ହଵେ ଵେଦ, ଶାସ୍ତ୍ର ଇନ୍ଦ୍ରିଯାଦି ପରଦ୍ରଵ୍ଯନା ଅଵଲଂବନନେ ଅଗୋଚର ଅନେ ଵୀତରାଗ ନିର୍ଵିକଲ୍ପ
ସମାଧିନେ ଗୋଚର ପରମାତ୍ମାନୁଂ ସ୍ଵରୂପ କହେ ଛେ : —
ज्ञानादिगुणस्वभावं च मन्यस्व जानीहि । अतीन्द्रियसुखास्वादविपरीतस्य जिह्वेन्द्रियविषयस्य
निर्मोहशुद्धात्मस्वभावप्रतिकूलस्य मोहस्य वीतरागसहजानन्दपरमसमरसीभावसुखरसानुभवप्रतिपक्षस्य
नवप्रकाराब्रह्मव्रतस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिघातकस्य मनोगतसंकल्पविकल्पजालस्य च विजयं
कृत्वा हे प्रभाकरभट्ट शुद्धात्मानमनुभवेत्यर्थः । तथा चोक्त म् — ‘‘अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी
तह वयाण बंभं च । गुत्तिसु य मणगुत्ती चउरो दुक्खेहिं सिज्झंति ।।’’ ।।२२।।
अथ वेदशास्त्रेन्द्रियादिपरद्रव्यालम्बनाविषयं च वीतरागनिर्विकल्पसमाधिविषयं च
परमात्मानं प्रतिपादयन्ति —
२३) वेयहिँ सत्थहिँ इंदियहिँ जो जिय मुणहु ण जाइ ।
णिम्मल – झाणहँ जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ।।२३।।
୪୮ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୨୨
୧. ଅନଗାର ଧର୍ମାମୃତ ପୃ. ୨୬୨, ହିନ୍ଦୀ ପୃ. ୪୦୩
तथा निर्विकल्पसमाधिके घातक मनके संकल्प विकल्पोंको त्यागकर हे प्रभाकर भट्ट, तू
शुद्धात्माका अनुभव कर । ऐसा ही दूसरी जगह भी कहा है — ‘‘अक्खाणेति’’ इसका आशय
इस तरह है, कि इन्द्रियोंमें जीभ प्रबल होती है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंमें मोह कर्म बलवान
होता है, पाँच महाव्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है, और तीन गुप्तियोंमेंसे मनोगुप्ति पालना कठिन
है । ये चार बातें मुश्किलसे सिद्ध होती हैं ।।२२।।
आगे वेद, शास्त्र, इन्द्रियादि परद्रव्योंके अगोचर और वीतराग निर्विकल्प समाधिके
गोचर (प्रत्यक्ष) ऐसे परमात्माका स्वरूप कहते हैं —