Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ଶ୍ରୀ ଦିଗଂବର ଜୈନ ସ୍ଵାଧ୍ଯାଯମଂଦିର ଟ୍ରସ୍ଟ, ସୋନଗଢ - ୩୬୪୨୫୦
भवतनुभोगेषु रञ्जितं मूर्छितं वासितमासक्तं चित्तं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नवीतराग-
परमानन्दसुखरसास्वादेन व्यावृत्त्य स्वशुद्धात्मसुखे रतत्वात्संसारशरीरभोगविरक्तमनाः सन् यः
शुद्धात्मानं ध्यायति तस्य गुरुक्की महती संसारवल्ली त्रुटयति नश्यति शतचूर्णा भवतीति । अत्र
येन परमात्मध्यानेन संसारवल्ली विनश्यति स एव परमात्मोपादेयो भावनीयश्चेति
तात्पर्यार्थः ।।३२।। इति चतुर्विंशतिसूत्रमध्ये प्रक्षेपकपञ्चकं गतम् ।
तदनन्तरं देहदेवगृहे योऽसौ वसति स एव शुद्धनिश्चयेन परमात्मा तन्निरूपयति –
३३) देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ-अणंतु ।
केवल-णाण-फु रंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु ।।३३।।
विरक्त मन हुआ [आत्मानं ] शुद्धात्माका [ध्यायति ] चिंतवन करता है, [तस्य ] उसकी
[गुर्वी ] मोटी [सांसारिकी वल्ली ] संसाररूपी बेल [त्रुटयति ] नाशको प्राप्त हो जाती है ।
भावार्थ : — संसार, शरीर, भोगोंमें अत्यंत आसक्त (लगा हुआ) चित्त है, उसको
आत्मज्ञानसे उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद सुखामृतके आस्वादसे राग-द्वेषसे हटाकर अपने
शुद्धात्म-सुखमें अनुरागी कर शरीरादिकमें वैराग्यरूप हुआ जो शुद्धात्माक ो विचारता है, उसका
संसार छूट जाता है, इसलिये जिस परमात्माके ध्यानसे संसाररूपी बेल दूर हो जाती है, वही
ध्यान करने योग्य (उपादेय) है ।।३२।।
आगे जो देहरूपी देवालयमें रहता है, वही शुद्धनिश्चयनयसे परमात्मा है, यह कहते
हैं —
ଭାଵାର୍ଥ : — ସଂସାର, ଶରୀର ଅନେ ଭୋଗୋମାଂ ରଂଜିତ-ମୂର୍ଚ୍ଛିତ-ଵାସିତ-ଆସକ୍ତ ଚିତ୍ତନେ
ସ୍ଵସଂଵିତ୍ତିଥୀ ଉତ୍ପନ୍ନ ଵୀତରାଗ ପରମାନଂଦରୂପ ସୁଖନା ରସାସ୍ଵାଦ ଵଡେ (ସଂସାର, ଶରୀର ଅନେ ଭୋଗୋଥୀ)
ଵ୍ଯାଵୃତ୍ତ କରୀନେ (ପାଛୁଂ ଵାଳୀନେ) ନିଜ ଶୁଦ୍ଧାତ୍ମସୁଖମାଂ ରତ ଥଵାଥୀ ସଂସାର, ଶରୀର ଅନେ ଭୋଗୋଥୀ
ଵିରକ୍ତ ମନଵାଳୋ ଥଯୋ ଥକୋ ଜେ ଶୁଦ୍ଧ ଆତ୍ମାନେ ଧ୍ଯାଵେ ଛେ ତେନୀ ସଂସାରରୂପୀ ମୋଟୀ ଵେଲନା ସେଂକଡୋ କଟକା
ଥଈ ଜାଯ ଛେ – ଚୂରେଚୂରା ଥଈ ଜାଯ ଛେ – ନାଶ ପାମୀ ଜାଯ ଛେ.
ଅହୀଂ ଜେ ପରମାତ୍ମାନା ଧ୍ଯାନଥୀ ସଂସାରଵଲ୍ଲୀ ନାଶ ପାମେ ଛେ ତେ ଜ ପରମାତ୍ମା ଉପାଦେଯ ଛେ,
ଅନେ ଭାଵଵା ଯୋଗ୍ଯ ଛେ ଏଵୋ ତାତ୍ପର୍ଯାର୍ଥ ଛେ. ୩୨.
ଏ ପ୍ରମାଣେ ଚୋଵୀଶ ସୂତ୍ରୋମାଂ ପାଂଚ ପ୍ରକ୍ଷେପକ ସୂତ୍ରୋ ସମାପ୍ତ ଥଯାଂ.
ତ୍ଯାର ପଛୀ, ଦେହରୂପୀ ଦେଵାଲଯମାଂ ଜେ ରହେ ଛେ ତେ ଜ ଶୁଦ୍ଧନିଶ୍ଚଯନଯଥୀ ପରମାତ୍ମା ଛେ ଏମ
କହେ ଛେ : —
୬୨ ]ଯୋଗୀନ୍ଦୁଦେଵଵିରଚିତ: [ ଅଧିକାର-୧ : ଦୋହା-୩୩