Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Punjabi transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ਸ਼੍ਰੀ ਦਿਗਂਬਰ ਜੈਨ ਸ੍ਵਾਧ੍ਯਾਯਮਂਦਿਰ ਟ੍ਰਸ੍ਟ, ਸੋਨਗਢ - ੩੬੪੨੫੦
भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रियाः परमात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दसुधारसपिपासिता वीतराग-
निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतविपरीतनारकादिदुःखभयभीता भव्यवरपुण्डरीका भरत-सगर-राम
-पाण्डव-श्रेणिकादयोऽपि वीतरागसर्वज्ञतीर्थंकरपरमदेवानां समवसरणे सपरिवारा भक्ति -
भरनमितोत्तमाङ्गाः सन्तः सर्वागमप्रश्नानन्तरं सर्वप्रकारोपादेयं शुद्धात्मानं पृच्छन्तीति
अत्र
त्रिविधात्मस्वरूपमध्ये शुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः ।।११।।
ਪਰਮਾਨਂਦਰੂਪ ਸੁਧਾਰਸਨਾ ਪਿਪਾਸੁ, ਵੀਤਰਾਗ ਨਿਰ੍ਵਿਕਲ੍ਪ ਸਮਾਧਿਥੀ ਸਮੁਤ੍ਪਨ੍ਨ ਸੁਖਾਮ੍ਰੁਤਥੀ ਵਿਪਰੀਤ,
ਨਾਰਕਾਦਿ ਦੁਃਖਥੀ ਭਯਭੀਤ, ਭਵ੍ਯੋਮਾਂ ਮਹਾ ਸ਼੍ਰੇਸ਼੍ਠ ਭਰਤ, ਸਗਰ, ਰਾਮਚਂਦ੍ਰ, ਪਾਂਡਵ, ਸ਼੍ਰੇਣਿਕ, ਵਗੇਰੇ
ਪਣ ਪਰਿਵਾਰ ਸਹਿਤ, ਵੀਤਰਾਗ ਸਰ੍ਵਜ੍ਞ ਤੀਰ੍ਥਂਕਰ ਪਰਮਦੇਵਨਾ ਸਮਵਸਰਣਮਾਂ ਅਤ੍ਯਂਤ ਭਕ੍ਤਿਭਾਵਥੀ
ਮਸ੍ਤਕ ਨਮਾਵਤਾ ਸਰ੍ਵ ਆਗਮੋਨਾ ਪ੍ਰਸ਼੍ਨੋ ਕਰ੍ਯਾ ਪਛੀ, ਸਰ੍ਵ ਪ੍ਰਕਾਰੇ ਉਪਾਦੇਯਭੂਤ ਸ਼ੁਦ੍ਧ ਆਤ੍ਮਾਨੁਂ ਸ੍ਵਰੂਪ
ਜ ਪੂਛਤਾਂ ਹਤਾਂ.
ਅਹੀਂ ਤ੍ਰਣ ਪ੍ਰਕਾਰਨਾ ਆਤ੍ਮਾਨਾ ਸ੍ਵਰੂਪਮਾਂਥੀ ਸ਼ੁਦ੍ਧ ਆਤ੍ਮਾਨੁਂ ਸ੍ਵਰੂਪ ਉਪਾਦੇਯ ਛੇ ਏਵੋ ਭਾਵਾਰ੍ਥ
ਛੇ. ੧੧.
ਅਧਿਕਾਰ-੧ : ਦੋਹਾ ੧੧ ]ਪਰਮਾਤ੍ਮਪ੍ਰਕਾਸ਼: [ ੩੩
रामचंद्र, बलभद्र, पांडव तथा श्रेणिक आदि : बड़े बड़े राजा, जिनके भक्ति-भारकर नम्रीभूत
मस्तक हो गये हैं, महा विनयवाले परिवारसहित समोसरणमें आके, वीतराग सर्वज्ञ परमदेवसे
सर्व आगमका प्रश्नकर, उसके बाद सब तरहसे ध्यान करने योग्य शुद्धात्माका ही स्वरूप पूछते
थे
उसके उत्तरमें भगवन्ने यही कहा, कि आत्म-ज्ञानके समान दूसरा कोई सार नहीं है
भरतादि बड़े बड़े श्रोताओंमेंसे भरतचक्रवर्तीने श्रीऋषभदेव भगवानसे पूछा, सगरचक्रवर्तीने श्री
अजितनाथसे, रामचंद्र बलभद्रने देशभूषण कुलभूषण केवलीसे तथा सकलभूषण केवलीसे,
पांडवोंने श्रीनेमिनाथभगवान्से और राजा श्रेणिकने श्रीमहावीरस्वामीसे पूछा
कैसे हैं ये श्रोता
जिनको निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयकी भावना प्रिय है, परमात्माकी भावनासे उत्पन्न
वीतराग परमानंदरूप अमृतरसके प्यासे हैं, और वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर उत्पन्न हुआ जो
सुखरूपी अमृत उससे विपरीत जो नारकादि चारों गतियोंके दुःख, उनसे भयभीत हैं
जिस
तरह इन भव्य जीवोंने भगवंतसे पूछा, और भगवंतने तीन प्रकार आत्माका स्वरूप कहा, वैसे
ही मैं जिनवाणीके अनुसार तुझे कहता हूँ
सारांश यह हुआ, कि तीन प्रकार आत्माके स्वरूपोंसे
शुद्धात्म स्वरूप जो निज परमात्मा वही ग्रहण करने योग्य है जो मोक्षका मूलकारण रत्नत्रय
कहा है, वह मैंने निश्चयव्यवहार दोनों तरहसे कहा है, उसमें अपने स्वरूपका श्रद्धान, स्वरूपका
ज्ञान और स्वरूपका ही आचरण यह तो निश्चयरत्नत्रय है, इसीका दूसरा नाम अभेद भी है,
और देव-गुरु-धर्मकी श्रद्धा, नवतत्वोंकी श्रद्धा, आगमका ज्ञान तथा संयम भाव ये
व्यवहाररत्नत्रय हैं, इसीका नाम भेदरत्नत्रय है
इनमेंसे भेदरत्नत्रय तो साधन हैं और
अभेदरत्नत्रय साध्य हैं ।।११।।