Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ஶ்ரீ திகஂபர ஜைந ஸ்வாத்யாயமஂதிர ட்ரஸ்ட, ஸோநகட - ௩௬௪௨௫௦
௧௧௪ ]யோகீந்துதேவவிரசித: [ அதிகார-௧ : தோஹா-௬௪
गाथा – ६४
अन्वयार्थ : — [जीवानां ] जीवोंके [बहुविधं ] अनेक तरहके [दुःखमपि सुखं अपि ]
दुःख और सुख दोनों ही [कर्म ] कर्म ही [जनयति ] उपजाता है । [आत्मा ] और आत्मा
[पश्यति ] उपयोगमयी होनेसे देखता है, [परं मनुते ] और केवल जानता है, [एवं ] इस प्रकार
[निश्चयः ] निश्चयनय [भणति ] कहता है, अर्थात् निश्चयनयसे भगवान्ने ऐसा कहा है ।
भावार्थ : — आकु लता रहित पारमार्थिक वीतराग सुखसे पराङ्मुख (उलटा) जो
संसारके सुख-दुःख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनयकर जीव सम्बन्धी है, तो भी शुद्ध निश्चयनयकर
जीवने उपजाये नहीं हैं, इसलिये जीवके नहीं हैं, कर्म-संयोगकर उत्पन्न हुए हैं और आत्मा तो
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें स्थिर हुआ वस्तुको वस्तुके स्वरूप देखता है, जानता है,
रागादिकरूप नहीं होता, उपयोगरूप है, ज्ञाता द्रष्टा है, परम आनंदरूप है । यहाँ पारमार्थिक
सुखसे उलटा जो इन्द्रियजनित संसारका सुख-दुःख आदि विकल्प समूह है वह त्यागने योग्य
பாவார்த : — அநாகுளதா ஜேநுஂ லக்ஷண சே ஏவா பாரமார்திக வீதராக ஸுகதீ ப்ரதிகூள
ஸாஂஸாரிக ஸுக-துஃக ஜோ கே அஶுத்த நிஶ்சயநயதீ ஜீவஜநித சே தோபண ஶுத்த நிஶ்சயநயதீ கர்மஜநித
சே, அநே ஆத்மா வீதராக நிர்விகல்ப ஸமாதிஸ்த தயேலோ, வஸ்துநே வஸ்துஸ்வரூபே தேகே-ஜாணே சே பண
ராகாதி கரதோ நதீ.
அஹீஂ, பாரமார்திக ஸுகதீ விபரீத ஸாஂஸாரிக ஸுக-துஃகரூப விகல்பஜாள ஹேய சே, ஏவோ
६४) दुक्खु वि सुक्खु वि बहु – विहउ जीवहँ कम्मु जणेइ ।
अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ ।।६४।।
दुःखमपि सुखमपि बहुविधं जीवानां कर्म जनयति ।
आत्मा पश्यति मनुते परं निश्चयः एवं भणति ।।६४।।
दुक्खु वि सुक्खु वि बहुविहउ जीवहं कम्मु जणेइ दुःखमपि सुखमपि । कथंभूतम् ।
बहुविधं जीवानां कर्म जनयति । अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउं भणेइ आत्मा पुनः
पश्यति जानाति परं नियमेन निश्चयनयः एवं ब्रुवते इति । तथाहि — अनाकुल-
त्वलक्षणपारमार्थिकवीतरागसौख्यात् प्रतिकूलं सांसारिकसुखदुःखं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं
तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति । आत्मा पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिस्थः सन् वस्तु
वस्तुस्वरूपेण पश्यति जानाति च न च रागादिकं करोति । अत्र पारमार्थिकसुखाद्विपरीतं