Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Tamil transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ஶ்ரீ திகஂபர ஜைந ஸ்வாத்யாயமஂதிர ட்ரஸ்ட, ஸோநகட - ௩௬௪௨௫௦
அதிகார-௧ : தோஹா-௬௯ ]பரமாத்மப்ரகாஶ: [ ௧௨௩
नहीं [अस्ति ] है, [जरामरणंः ] जरा (बुढ़ापा) मरण [रोगाः अपि ] रोग [लिंगान्यपि ] चिन्ह
[वर्णाः ] वर्ण [एका संज्ञा अपि ] आहारादिक एक भी संज्ञा वा नाम नहीं है, ऐसा [त्वं ]
तू [नियमेन ] निश्चयकर [विजानीहि ] जान
भावार्थ :वीतराग निर्विकल्पसमाधिसे विपरीत जो क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि
विभावपरिणाम उनकर उपार्जन किये कर्मोंके उदयसे उत्पन्न हुए जन्म-मरण आदि अनेक
विकार है, वे शुद्धनिश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, क्योंकि निश्चयनयकर आत्मा केवलज्ञानादि
अनंत गुणाकर पूर्ण है, और अनादि-संतानसे प्राप्त जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, स्त्री,
पुरुष, नपुंसकलिंग, सफे द काला वर्ण, वगैर आहार, भय, मैथुन, परिग्रहरूप संज्ञा इन सबोंसे
भिन्न है
यहाँ उपादेयरूप अनंतसुखका धाम जो शुद्ध जीव उससे भिन्न जन्मादिक हैं, वे सब
त्याज्य हैं, एक आत्मा ही उपादेय हैं, यह तात्पर्य जानना ।।६९।।
आगे जो शुद्धनिश्चयनयकर जन्म-मरणादि जीवके नहीं हैं, तो किसके हैं ? ऐसा
பாவார்த :வீதராக நிர்விகல்ப ஸமாதிதீ விபரீத க்ரோத, மாந, மாயா, லோப ஆதி
விபாவபரிணாமோதீ உபார்ஜித கர்மோ சே தேநா உதயஜநித ஜே ஜந்மாதி தே ஶுத்த நிஶ்சயநயதீ ஜீவநே
நதீ, காரண கே கேவளஜ்ஞாநாதி அநஂத குணே கரீநே நிஶ்சயநயதீ அநாதி ஸஂதாநதீ ப்ராப்த ஜந்மாதிதீ
ஜீவ பிந்ந சே.
அஹீஂ, உபாதேயரூப அநஂத ஸுகநீ ஸாதே அவிநாபூத ஶுத்த ஜீவதீ ஜே ஜந்மாதி பிந்ந சே
தே ஹேய சே, ஏவோ தாத்பர்யார்த சே. ௬௯.
ஶுத்த நிஶ்சயநயதீ ஜே ஜந்மாதி ஸ்வரூபோ ஜீவநாஂ நதீ தோ தே கோநாஂ சே? ஏவா ஶிஷ்யநா
अत्थि ण उब्भउ जरमरणु रोय वि लिंग वि वण्ण अस्ति न न विद्यते किं किं
नास्ति उब्भउ उत्पत्तिः जरामरणं रोगा अपि लिङ्गान्यपि वर्णाः णियमिं अप्पु वियाणि तुहुं
जीवहं एक्क वि सण्ण नियमेन निश्चयेन हे आत्मन् हे जीव विजानीहि त्वम् कस्य नास्ति
जीवस्य न केवलमेतन्नास्ति संज्ञापि नास्तीति अत्र संज्ञाशब्देनाहारादिसंज्ञा नामसंज्ञा वा ग्राह्या
तथाहि वीतरागनिर्विकल्पसमाधेर्विपरीतैः क्रोधमानमायालोभप्रभृतिविभावपरिणामैर्यान्युपार्जितानि
कर्माणि तदुदयजनितान्युद्भवादीनि शुद्धनिश्चयेन न सन्ति जीवस्य तानि कस्मान्न सन्ति केवल-
ज्ञानाद्यनन्तगुणैः कृत्वा निश्चयेनानादिसंतानागतोद्भवादिभ्यो भिन्नत्वादिति अत्र
उपादेयरूपानन्तसुखाविनाभूतशुद्धजीवात्तत्सकासाद्यानि भिन्नान्युद्भवादीनि तानि हेयानीति
तात्पर्यार्थः
।।६९।।
यद्युद्भवादीनि स्वरूपाणि शुद्धनिश्चयेन जीवस्य न सन्ति तर्हि कस्य सन्तीति प्रश्ने देहस्य