Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Tamil transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ஶ்ரீ திகஂபர ஜைந ஸ்வாத்யாயமஂதிர ட்ரஸ்ட, ஸோநகட - ௩௬௪௨௫௦
அதிகார-௧ : தோஹா-௭௬ ]பரமாத்மப்ரகாஶ: [ ௧௩௧
गाथा७६
अन्वयार्थ :[आत्मानं ] अपनेको [आत्मना ] अपनेसे [जानन् ] जानता हुआ यह
[जीवः ] जीव [सम्यग्दष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [भवति ] होता है, [सम्यग्दृष्टिः जीवः ] और सम्यग्दृष्टि
हुआ संता [लघु ] जल्दी [कर्मणा ] कर्मोंसे [मुच्यते ] छूट जाता है
भावार्थ :यह आत्मा वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें परिणत हुआ अंतरात्मा होकर अपनेको
अनुभवता हुआ वीतराग सम्यग्दृष्टि होता है, तब सम्यग्दृष्टि होनेके कारणसे ज्ञानावरणादि कर्मोंसे
शीघ्र ही छूट जाता है
रहित हो जाता है यहाँ जिस हेतु वीतराग सम्यग्दृष्टि होनेसे यह जीव
कर्मोंसे छूटकर सिद्ध हो जाता है, इसी कारण वीतराग चारित्रके अनुकूल जो शुद्धात्मानुभूतिरूप
वीतराग सम्यक्त्व है, वही ध्यावने योग्य है, ऐसा अभिप्राय हुआ
ऐसा ही कथन श्री
कुंदकुंदाचार्यने मोक्षपाहुड ग्रंथमें निश्चयसम्यक्त्वके लक्षणमें किया है ‘‘सद्दव्वरओ’’ इत्यादि
பாவார்த :ஆத்மாதீ ஆத்மாநே ஜாணதோ ஜீவ-வீதராக ஸ்வஸஂவேதநஜ்ஞாநரூபே பரிணமேலா
அந்தராத்மா வடே ஸ்வஶுத்தாத்மாநே (போதாநா ஶுத்த ஸ்வரூபநே) அநுபவதோ ஜீவ வீதராகஸம்யக்த்ரஷ்டி ஹோய
சே. நிஶ்சயஸம்யக்த்வநீ பாவநாநுஂ பள கஹேவாமாஂ ஆவே சே. ஸம்யக்த்ரஷ்டி ஜீவ ஶீக்ர ஜ்ஞாநாவரணாதி
கர்மதீ முகாய சே.
அஹீஂ, கரேகர ஜே காரணே வீதராகஸம்யக்த்ரஷ்டி கர்மதீ ஶீக்ர சூடே சே தே காரணே ஜ வீதராக
சாரித்ரநே அநுகூள ஶுத்தாத்மாநீ அநுபூதி ஸாதே அவிநாபூத வீதராகஸம்யக்த்வ ஜ பாவவா யோக்ய சே
ஏவோ அபிப்ராய சே. ஶ்ரீகுஂதகுஂதாசார்யே மோக்ஷப்ராப்ருத (காதா-௧௪)மாஂ நிஶ்சயஸம்யக்த்வநுஂ லக்ஷண கஹ்யுஂ சே
கே
‘‘सद्दव्वरओ सवणो सम्मादिट्ठी हवेइ णियमेण सम्मतपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठ कम्माइं ।।’’ [அர்த:
आत्मना आत्मानं जानन् जीवः सम्यग्द्रष्टिः भवति
सम्यग्द्रष्टिः जीवः लघु कर्मणा मुच्यते ।।७६।।
अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिट्ठि हवेइ आत्मनात्मानं जानन् सन् जीवो
वीतरागस्वसंवेदनज्ञानपरिणतेनान्तरात्मना स्वशुद्धात्मानं जानन्ननुभवन् सन् जीवः कर्ता सम्मदिट्ठि
हवेइ वीतरागसम्यग्
द्रष्टिर्भवति निश्चयसम्यक्त्वभावनायाः फ लं कथ्यते सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु
कम्मइं मुच्चेइ सम्यग्द्रष्टिः जीवो लघु शीघ्रं ज्ञानावरणादिकर्मणा मुच्यते इति अत्र येनैव कारणेन
वीतरागसम्यग्द्रष्टिः किल कर्मणा शीघ्रं मुच्यते तेनैव कारणेन वीतरागचारित्रानुकूलं
शुद्धात्मानुभूत्यविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वमेव भावनीयमित्यभिप्रायः तथा चोक्तं
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यैर्मोक्षप्राभृते निश्चयसम्यक्त्वलक्षणम्‘‘सद्दव्वरओ सवणो सम्मादिट्ठी हवेइ
णियमेण सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माइं ।।’’ ।।७६।।