Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Tamil transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
ஶ்ரீ திகஂபர ஜைந ஸ்வாத்யாயமஂதிர ட்ரஸ்ட, ஸோநகட - ௩௬௪௨௫௦
பாவார்த :சார கதிநாஂ துஃகதீ தப்த ஜீவோநீ ஆஹாரஸஂஜ்ஞா, பயஸஂஜ்ஞா, மைதுநஸஂஜ்ஞா,
அநே பரிக்ரஹஸஂஜ்ஞா ஆதிரூப ஸமஸ்த விபாவ ரஹித ததா வீதராக நிர்விகல்ப ஸமாதிநா பளதீ
பரம ஆத்மாதீ உத்பந்ந ஏக (கேவள) ஸஹஜாநஂதரூப ஸுகாம்ருததீ ஸஂதுஷ்ட ஜீவோநாஂ சாரகதிநாஂ
துஃகநா விநாஶக, சிதாநஂத ஜேநோ ஏக ஸ்வபாவ சே ஏவா ஜே கோஈ பரமாத்மா சே, தே ஜ பரமாத்மாநே
ஹே பகவாந! க்ருபா கரீநே கஹோ. அஹீஂ ஜே பரமஸமாதிமாஂ ரத ஜீவோநாஂ சார கதிநாஂ துஃகநோ
விநாஶக சே தே ஜ பரமாத்மஸ்வபாவ ஸர்வ ப்ரகாரே உபாதேய சே. ௧௦.
चतुर्गतिदुःखैः तप्तानां यः परमात्मा कश्चित्
चतुर्गतिदुःखविनाशकरः कथय प्रसादेन तमपि ।।१०।।
चउगइदुक्खहं तत्ताहं जो परमप्पउ कोइ चतुर्गतिदुःखतप्तानां जीवानां यः
कश्चिच्चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा पुनरपि कथंभूतः चउगइदुक्खविणासयरु आहारभय-
मैथुनपरिग्रहसंज्ञारूपादिसमस्तविभावरहितानां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबलेन परमात्मोत्थ-
सहजानन्दैकसुखामृतसंतुष्टानां जीवानां चतुर्गतिदुःखविनाशकः
कहहु पसाएं सो वि हे भगवन्
तमेव परमात्मानं महाप्रसादेन कथयति
अत्र योऽसौ परमसमाधिरतानां चतुर्गति-
दुःखविनाशकः स एव सर्वप्रकारेणोपादेय इति तात्पर्यार्थः ।।१०।। एवं त्रिविधात्म
அதிகார-௧ : தோஹா-௧௦ ]பரமாத்மப்ரகாஶ: [ ௩௧
गाथा१०
अन्वयार्थ :[चतुर्गतिदु:खै: ] देवगति, मनुष्यगति, नरकगति, तिर्यंचगतियोंके
दुःखोंसे [तप्तानां ] तप्तायमान (दुःख) संसारी जीवोंके [चतुर्गतिदु:खविनाशकर: ] चार
गतियोंके दुःखोंका विनाश करनेवाला [य
: कश्चित् ] जो कोई [परमात्मा ] चिदानंद परमात्मा
है, [तमपि ] उसको [प्रसादेन ] कृपा करके [कथय ] हे श्रीगुरू, तुम कहो
भावार्थ :वह चिदानंद शुद्ध स्वभाव परमात्मा, आहार, भय, मैथुन, परिग्रहके
भेदरूप संज्ञाओंको आदि लेके समस्त विभावों से रहित, तथा वीतराग निर्विकल्पसमाधिके
बलसे निज स्वभावकर उत्पन्न हुए परमानंद सुखामृतकर संतुष्ट हुआ है हृदय जिनका, ऐसे
निकट संसारी
जीवोंके चतुर्गतिका भ्रमण दूर करनेवाला है, जन्म-जरा-मरणरूप दुःखका
नाशक है, तथा वह परमात्मा निज स्वरूप परमसमाधिमें लीन महामुनियोंको निर्वाणका
देनेवाला है, वही सब तरह ध्यान करने योग्य है, सो ऐसे परमात्माका स्वरूप आपके
प्रसादसे सुनना चाहता हूँ
इसलिये कृपाकर आप कहो इस प्रकार प्रभाकर भट्टने श्री
योगींद्रदेवसे विनती की ।।१०।।