Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
శ్రీ దిగంబర జైన స్వాధ్యాయమందిర ట్రస్ట, సోనగఢ - ౩౬౪౨౫౦
शुद्धात्मसंवित्त्यभावेनोपार्जितेन कर्मणा यद्यपि व्यवहारेण जन्यते स्वयं च शुद्धात्मसंवित्तिच्युतः सन्
कर्माणि जनयति तथापि शुद्धनिश्चयनयेन शक्ति रूपेण कर्मकर्तृभूतेन नरनारकादिपर्यायेण न
जन्यते स्वयं च कर्मनोकर्मादिकं न जनयतीति । आत्मा पुनर्न केवलं शुद्धनिश्चयनयेन
व्यवहारेणापि न च जन्यते न च जनयति तेन कारणेन द्रव्यार्थिकनयेन नित्यो भवति,
पर्यायार्थिकनयेनोत्पद्यते विनश्यति चेति । अत्राह शिष्यः । मुक्त ात्मनः कथमुत्पादव्ययाविति ।
కరే ఛే, తోపణ శుద్ధ నిశ్చయనయథీ శక్తిరూపే కర్మరూప కర్తా వడే నరనారకాది పర్యాయ రూపే ఉత్పన్న
థతో నథీ అనే పోతే కర్మ-నోకర్మాదికనే ఉత్పన్న కరతో నథీ. వళీ ఆత్మా పోతే కేవళ శుద్ధ
నిశ్చయనయథీ నహి, పరంతు వ్యవహారథీ పణ ఉత్పన్న థతో నథీ అనే ఉత్పన్న కరతో నథీ తే కారణే
ద్రవ్యార్థికనయథీ ఆత్మా నిత్య ఛే, పర్యాయార్థికనయథీ ఆత్మా ఊపజే ఛే నే నాశ పామే ఛే.
అహీం శిష్య ప్రశ్న కరే ఛే కే : — ముక్తఆత్మానే ఉత్పాదవ్యయ కఈ రీతే ఘటీ శకే?
विनसता है, और आप भी शुद्धात्मज्ञानसे रहित हुआ कर्मोंको उपजाता (बाँधता) है, तो भी
शुद्धनिश्चयनयकर शक्तिरूप शुद्ध ही है, कर्मोंसे उत्पन्न हुई नर-नारकादि पर्यायरूप नहीं होता,
और आप भी कर्म-नोकर्मादिकको नहीं उपजाता और व्यवहारसे भी न जन्मता है, न किसीसे
विनाशको प्राप्त होता है, न किसीको उपजाता है, कारणकार्यसे रहित है अर्थात् कारण
उपजानेवालेको कहते हैं । कार्य उपजनेवालेको कहते हैं । सो ये दोनों भाव वस्तुमें नहीं हैं,
इससे द्रव्यार्थिकनयकर जीव नित्य है, और पर्यायार्थिकनयकर उत्पन्न होता है, तथा विनाशको
प्राप्त होता है । यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता है, कि संसारी जीवोंके तो नर-नारकी आदि पर्यायोंकी
अपेक्षा उत्पत्ति और मरण प्रत्यक्ष दिखता है, परन्तु सिद्धोंके उत्पाद, व्यय, किस तरह हो सकता
है ? क्योंकि उनके विभाव-पर्याय नहीं है, स्वभाव-पर्याय ही है, और वे सदा अखंड अविनश्वर
ही हैं । इसका समाधान यह है – कि जैसा उत्पन्न होना, मरना, चारों गतियोंमें संसारी जीवोंके
है, वैसा तो उन सिद्धोंके नहीं है, वे अविनाशी हैं, परन्तु शास्त्रोंमें प्रसिद्ध अगुरुलघु गुणकी
परिणतिरूप अर्थपर्याय है, वह समय-समयमें आविर्भावतिरोभावरूप होती है । अर्थात् समयमें
पूर्वपरिणतिका व्यय होता है और आगेकी पर्यायका आविर्भाव (उत्पाद) होता है । इस
अर्थपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय जानना, अन्य संसारी-जीवोंकी तरह नहीं है । सिद्धोंके एक
तो अर्थपर्यायकी अपेक्षा उत्पाद व्यय कहा है । अर्थपर्यायमें षट्गुणी हानि और वृद्धि होती है ।
१ अनंतभागवृद्धि , २ असंख्यातभागवृद्धि, ३ संख्यातभागवृद्धि, ४ संख्यातगुणवृद्धि,
५ असंख्यातगुणवृद्धि, ६ अनंतगुणवृद्धि । १ अनंतभागहानि, २ असंख्यातभागहानि,
३ संख्यातभागहानि, ४ असंख्यातगुणहानि, ५ असंख्यातगुणहानि, ६ अनंतगुणहानि । ये षट्गुणी
हानि-वृद्धिके नाम कहे हैं । इनका स्वरूप तो केवलीके गम्य है, सो इस षट्गुणी हानि
అధికార-౧ : దోహా-౫౬ ]పరమాత్మప్రకాశ: [ ౯౭