PDF/HTML Page 1 of 4199
single page version
PDF/HTML Page 2 of 4199
single page version
PDF/HTML Page 3 of 4199
single page version
मंगलं कुंदकुंदार्यो जैन धर्मोऽस्तु मंगलम्।।
प्रारंभिकः
परम देवाधिदेव जिनेश्वरदेवश्री वर्धमानस्वामी, गणधर देवश्री गौतमस्वामी तथा आचार्य भगवान श्री कुंदकुंददेवने अत्यंत भक्ति सहित. नमस्कार.
ए तो सुविदित छे के अंतिम तीर्थंकर भगवान श्री वर्धमानस्वामीनी दिव्यध्वनिनो सार आचार्य श्री कुंदकुंददेव प्रणित समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय आदि परमागमोमां ठांसी ठांसीने भरेलो छे. भव्यजीवोना सद्भाग्ये आजे पण आ परमागमो श्री अमृतचंद्राचार्य आदि महान दिग्गज आचार्योनी टीका सहित उपलब्ध छे. वळी विशेष महाभाग्यनी वात तो ए छे के सांप्रतकाळमां आ परमागमोनां गूढरहस्यो समजवानी जीवोनी योग्यता मंदतर थती जाय छे. तेवा समयमां जैनशासनना नभोमंडळमां एक महाप्रतापी पुरुष पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी-जेमने युगपुरुष कही शकाय, तेवा सत्पुरुषनो योग थयो छे. पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी आजे छेल्लां ४प वर्षोथी उपरोक्त परमागमोमां प्रतिपादित जैनधर्मना मूळ सिद्धांतोने अतिस्पष्ट, शीतळ अने परम शांतिप्रदायक प्रवचनगंगा द्वारा रेलावी रह्या छे. आ पवित्र प्रवचनगंगामां अवगाहन पामीने अनेक भव्य आत्माओने जैनधर्मनी प्राप्ति थई छे, तेम ज अनेक जीवो जैनधर्मना गंभीर रहस्योने समजता थया छे अने मार्गानुसारी बन्या छे. आ रीते पूज्य गुरुदेवनो जैन समाज उपर अनुपम, अलौकिक अनंत उपकार छे. तेओश्रीना आ उपकारनो अहोभाव नीचेनी पंक्तिओ द्वारा प्रत्येक मुमुक्षुओ व्यक्त करे छे.
पुण्यप्रसंगनुं सौभाग्यः
संवत २०३४नी दीपावलि प्रसंगे मुंबई मुमुक्षु मंडळना सभ्यो पूज्य गुरुदेवश्री पासे ९०मी जन्मजयंती मुंबईमां उजवाय ते माटे अनुमति प्राप्त करवा विनंती करवा
PDF/HTML Page 4 of 4199
single page version
माटे सोनगढ आवेला त्यारे केटलाक सभ्योने पोताना स्वाध्यायना लाभना हेतुथी पूज्य गुरुदेवश्रीना श्री समयसार परमागम उपर अढारमीवार थयेल सातिशय प्रवचनो (सने १९७प, १९७६, १९७७मां) प्रसिद्ध करवानो मंगळ विचार आव्यो. आ विचार मंडळना सौ सभ्योए प्रमोदथी आवकार्यो अने प्रसिद्ध अध्यात्मप्रवक्ता, धर्मानुरागी मुरब्बी श्री लालचंदभाईनी पण आ सुंदर कार्य माटे मंडळने प्रोत्साहित करती शुभप्रेरणा मळी. आ रीते मुंबईना मुमुक्षुमंडळने पूज्य गुरुदेवश्रीना अढारमी वारना परमागम श्री समयसार उपर थयेला अनुभवरसमंडित परमकल्याणकारी, आत्महितसाधक प्रवचनो प्रकाशित करवाना आ पुनित प्रसंगनुं सौभाग्य प्राप्त थयुं छे ते अत्यंत हर्ष अने उल्लासनुं कारण छेे.
प्रकाशननो हेतुः
आ प्रवचनोना प्रकाशननो मूळ हेतु तो निजस्वाध्यायनो लाभ थाय ते ज छे. तद् उपरांत सौ जिज्ञासु भाई-बहेनोने पूज्य गुरुदेवश्रीनां समयसार उपरनां सळंग सर्व प्रवचनो साक्षात् सांभळवानो लाभ प्राप्त न थई शक्यो होय ते संभवित छे. तेथी आ गं्रथमाळामां कमशः आदिथी अंत सुधीना पूरां प्रवचनोने समजवानो कायमी अने सर्वकालिक लाभ मळी रहे ते हेतुथी पूज्य गुरुदेवश्रीनी अध्यात्मरसझरती अमृतमयी वाणीना स्वाध्याय द्वारा निरंतर मुमुक्षु जीवोने आत्महितथी प्रेरणा मळती रहेशे. तेवो आशय पण आ प्रकाशननुं प्रेरकबळ छे.
वळी आ पंचमकाळना प्रवाहमां क्रमशः जीवोनो क्षयोपशम मंदतर थतो जाय छे तेथी परमागममां रहेला सूक्ष्म अने गंभीर रहस्यो स्वयं समजवा घणा ज कठिन छे. आ परिस्थितिमां पूज्य गुरुदेवश्रीए सादी अने सरळ भाषामां स्पष्ट करेलां प्रवचनो लेखबद्ध करीने पुस्तकारूढ करवामां आवे तो भावी पेढीने पण श्री समयसार परमागमनां अतिगूढ रहस्यो समजवामां सरळतापूर्वक सहायरूप बनी रहेशे अने ते रीते जिनोक्त तत्त्वज्ञान अने तेनी स्वाध्याय परंपरा तेना यथार्थ स्वरूपमां जळवाई रहेशे तेम ज ते द्वारा अनेक भव्यजीवोने पोतानुं आत्मकल्याण साधवामां महान प्रेरणा प्राप्त थशे तेवा विचारना बळे पूज्य गुरुदेवश्रीना श्री समयसार उपरांत बीजा पण अनेक परमागमो उपर थयेल प्रवचनो प्रकाशित करवानी भावना छे एने ते भावनावश आ ट्रस्टनी रचना थई छे. उपरोक्त हेतुथी आ ट्रस्टनो जन्म थयो छे अने पूज्य गुरुदेवनां हजारो प्रवचनो प्रसिद्ध करवानो ज मुख्य उद्देश आ ट्रस्टमां राखवामां आवेल छे.
आ प्रसंगे स्व. श्री सोगानीजीनुं एक वचन साकार थशे तेवुं भासे छे. तेमणे कह्युं छे के पूज्य गुरुदेवश्रीथी धर्मनो जे आ पायो नंखायो छे ते पंचमकाळना अंत
PDF/HTML Page 5 of 4199
single page version
सुधी रहेशे. तद्द उपरांत पूज्य बेनश्रीनां वचनामृत नं. २७मां उल्लेख छे के “तेमनो (पूज्य गुरुदेवश्रीनो) महिमा आजे तो गवाय छे परंतु हजारो वर्ष सुधी गवाशे.” खरेखर ज्ञानीओना निर्मळ श्रुतज्ञानमां भाविप्रसंगो केवळज्ञानवत् प्रतिभासे छे, कारण के आ ट्रस्टनी योजना पूज्य गुरुदेवश्रीनां पांच परमागमो उपर थयेलां प्रवचनो उपरांत बीजा पण अनेक शास्त्रो उपर थयेलां प्रवचनो क्रमशः प्रसिद्ध करवानी भावना समाहित छे. ए रीते हजारो प्रवचनोनुं संकलन प्रथम संस्करणमां ज अनेक ग्रंथोरूपे पुस्तकारूढ थशे अने तेवा प्रत्येक पुस्तकोनुं संस्करण (आवृत्ति) हजारोनी संख्यामां रहेशे. ए रीते हिंदी अने गुजराती भाषामां तात्कालिक प्रकाशन थतां पुस्तकोनी संख्या लाखोमां थवा जाय छे अने तेनी परंपरा चाले तो उपरोक्त ज्ञानीओनां वचनो सिद्ध थवानुंप्रत्यक्ष जणाई आवे छे.
कार्यवाहीः
श्री समयसार परमागम उपरनां पूज्य गुरुदेवश्रीनां अढारमी वखतना थयेल मंगळ प्रवचनो ते समये टेपरेकोर्डर उपर अंकित करी लेवामां आव्यां हतां. आ ध्वनिमुद्रित प्रवचनो टेप उपरथी सांभळीने क्रमशः लेखबद्ध करवामां आव्या छे. एक ज टेपने वारंवार सांभळीने लेखन करवामां आवेल छे. तेम छतां तेमां कांई त्रुटी रही जवा न पामे ते हेतुथी लखनार सिवाय तपासनारे फरीथी सघळां प्रवचनो टेप उपरथी सांभळीने तेनी चकासणी करेल छे. आ प्रमाणे तैयार थयेलां प्रवचनोना यथायोग्य सुसंगत फकरा पाडी तेने फरीथी भाईश्री रमणलाल माणेकलाल शाहे लिपिबद्ध करी आपेल छे. तथा ते लिपिबद्ध थयेलां प्रवचनोनी पण छेल्ले विद्वान भाईश्री वजुभाई द्वारा पूरती चकासणी करवामां आवेल छे. आ रीते पूज्य गुरुदेवश्रीनां प्रवचनोमां व्यक्त थयेल भावो सारी रीते यथास्थित जळवाई रहे तेनी पूरेपूरी काळजी लेवामां आवी छे.
उपरोक्त रीते तैयार थयेलां प्रवचनो उपरथी मुद्रण माटे मोकलवानुं प्रवचन- साहित्य प्रसिद्ध तत्वचिंतक अने प्रवक्ता डो. हुकमचंदजी भारिल्ल समक्ष वांची संभळाववामां आवेल छे अने त्यार बाद तेनुं मुद्रण थयेल छे.
आभारः
उपर्युक्त कार्यवाहीमां अनेक मुमुक्षुओ तरफथी आ ट्रस्टने अत्यंत निस्पृहभावे सहयोग मळेलो छे तेनी साभार नोंध लेवामां आवे छे. जे जे मुमुक्षुओए प्रवचनो उतार्यो छे तेम ज उतारेलां प्रवचनोने तपासी आपेल छे अने आ कार्य खूब ज सावधानीथी
PDF/HTML Page 6 of 4199
single page version
उत्साहथी अने काळजीथी जे रीते करी आप्युं छे अने जेमना निस्पृह सहकारथी आवुं सुंदर कार्य थई शक्युं छे तेओ प्रत्ये आभारनी लागणी व्यक्त कर्या विना रही शकीए तेम नथी. भाईश्री रमणभाई तथा ब. श्री वजुभाईए निस्पृहपणे घणो परिश्रम लईने लखाण तैयार करी तथा तपासी आपेल छे. ते बदल तेमनो खूब खूब आभार मानीए छीए. विशेष अमारा ट्रस्टने श्री वीतराग सत् साहित्य प्रसारक ट्रस्ट-भावनगर तरफथी घणो ज सहयोग प्राप्त थयो छे. आ योजना तेमणे विचारेली अने साकार करवाना प्रयत्नो रूपे गुरुदेवश्रीनां ध्वनिमुद्रित थयेलां प्रवचनो (अक्षरशः लखावी तैयार करेला, जे अगाउथी अमोने लेखबद्ध करवा माटे तैयार मळी गया अने आ कार्य शरू करवामां जरा पण विलंब न थयो, ते बदल तेमनो आभार मानीए छीए. श्रीमान डो. हुकमचंदजी भारिल्ल अनेक धार्मिक प्रवृत्तिओमां व्यस्त होवा छतां तेमणे आ प्रवचनो सांभळी जईने यथायोग्य सूचनो अने मार्गदर्शन आपेल छे ते बदल तेमनो खूब आभार मानीए छीए. आ प्रवचनोनुं प्रकाशन करवा माटे मुंबईना चारेय मुमुक्षुमंडळोए उदारताथी आर्थिक सहयोग आपेल छे ते बदल समस्त दाता भाईबहेनोनो आभार मानवामां आवे छे.
आ प्रवचन ग्रंथनी वेचाण किंमत-पडतर किंमत मांथी २प% घटाडीने नक्की करेल, तेमां बीजा २०% नुं वळतर श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ तरफथी आपवामां आवेल छे. ते बदल तेमनो आभार मानवामां आवे छे.
आवकार्यः आ प्रकाशन अमारो प्रथम प्रयास छे. अत्यंत काळजी अने संभाळ राखवा छतां प्रकाशनमां कोई त्रुटीओ रही जवा पामी होय ते संभवित छे. सुज्ञ पाठकगण तरफथी आ संबंधी जे कांई सूचनो मोकलवामां आवशे तेने अत्रे आवकारीए छीए अने हवे पछीना प्रकाशनमां ते संबंधी घटतुं करवामां आवशे. ता. ९-३-१९८० चीमनलाल हिंमतलाल शाह फागण वद ७, २०३६ प्रमुख रविवार, मुंबई. श्री कुंदकुंदकहान परमागम प्रवचन ट्रस्ट
PDF/HTML Page 7 of 4199
single page version
३ कळश-२ ३-४ २०
४ कळश-३ ३-४ २प
प गाथा-१ प-६ ३०
६ गाथा-२
PDF/HTML Page 8 of 4199
single page version
_________________________________________________________________
समयसार शासन करुं देशवचनमय, भाई! १.
लय लय पार ग्रहे भवधार, –जय जय समयसार अविकार. ३.
PDF/HTML Page 9 of 4199
single page version
अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम्।। २।।
_________________________________________________________________
काळ, मत, सिद्धांत–भेदत्रय नाम बताव्या;
ते महीं आदि शुभ अर्थसमयकथनी सुणीए बहु,
अर्थसमयमां जीव नाम छे सार, सुणजो सहु;
ते महीं सार विणकर्ममळ शुद्ध जीव शुद्धनय कहे,
आ ग्रंथमां कथनी सहु, समयसार बुधजन ग्रहे. ४.
विध्नहरण, नास्तिकहरण, शिष्टाचार उच्चार. प.
मुद्रा जिन निर्ग्रंथता, नमुं कहे सहु चेन. ६.
आ प्रमाणे मंगळपूर्वक प्रतिज्ञा करीने श्री कुंदकुंद आचार्यकृत गाथाबद्ध समयप्राभृत ग्रंथनी श्री अमृतचंद्र आचार्यकृत आत्मख्याति नामनी जे संस्कृत टीका छे तेनी देशभाषामां वचनिका लखीए छीए.
प्रथम, संस्कृत टीकाकार श्री अमृतचंद्र आचार्य ग्रंथना आदिमां (पहेला श्लोक द्वारा) मंगळ अर्थे ईष्टदेवने नमस्कार करे छेः-
श्लोकार्थः– [नाः समयसाराय] ‘समय’ अर्थात् जीव नामनो पदार्थ, तेमां सार-जे द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा, तेने मारा नमस्कार हो. ते केवो छे? [भावाय] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु छे. आ विशेषणपदथी सर्वथा अभाववादी नास्तिकोनो मत खंडित थयो. वळी ते केवो छे? [चित्स्वभावाय] जेनो स्वभाव चेतनागुणरूप छे. आ विशेषणथी गुण-गुणीनो सर्वथा भेद माननार नैयायिकोनो निषेध थयो. वळी ते केवो छे? [स्वानुभूत्या चकासते] पोतानी ज अनुभवनरूप क्रियाथी प्रकाशे छे, अर्थात् पोताने पोताथी ज जाणे छे- प्रगट करे छे. आ विशेषणथी, आत्माने तथा ज्ञानने सर्वथा परोक्ष ज माननार जैमिनीय-भट्ट-प्रभाकर भेदवाळा मीमांसकोना मतनो व्यवच्छेद थयो; तेम ज ज्ञान अन्य ज्ञानथी जाणी शकाय छे, पोते पोताने नथी जाणतुं-एवुं माननार नैयायिकोनो पण प्रतिषेध थयो. वळी ते केवो
PDF/HTML Page 10 of 4199
single page version
दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः।
_________________________________________________________________ छे? [सर्वभावान्तरच्छिदे] पोताथी अन्य सर्व जीवा जीव, चराचर पदार्थोने सर्व क्षेत्रकाळ संबंधी, सर्व विशेषणो सहित, एक ज समये जाणनारो छे. आ विशेषणथी, सर्वज्ञनो अभाव माननार मीमांसक आदिनुं निराकरण थयुं. आ प्रकारनां विशेषणो (गुणो) थी शुद्ध आत्माने ज ईष्टदेव सिद्ध करी तेने नमस्कार कर्यो छे.
भावार्थः– अहीं मंगळ अर्थे शुद्ध आत्माने नमस्कार कर्यो छे. कोई एम प्रश्न करे के कोई ईष्टदेवनुं नाम लई नमस्कार केम न कर्यो? तेनुं समाधानः– वास्तविकपणे ईष्टदेवनुं सामान्य स्वरूप सर्वकर्मरहित, सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्ध आत्मा ज छे तेथी आ अध्यात्मग्रंथमां समयसार कहेवाथी ईष्टदेव आवी गया. तथा एक ज नाम लेवामां अन्यमतवादीओ मतपक्षनो विवाद करे छे ते सर्वनुं निराकरण, समयसारनां विशेषणो वर्णवीने, कर्युं. वळी अन्यवादीओ पोताना ईष्टदेवनुं नाम ले छे तेमां ईष्ट शब्दनो अर्थ घटतो नथी, बाधाओ आवे छे; अने स्याद्वादी जैनोने तो सर्वज्ञ वीतराग शुद्ध आत्मा ज ईष्ट छे. पछी भले ते ईष्टदेवने परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर, परब्रह्म, शिव, निरंजन, निष्कलंक, अक्षय, अव्यय, शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी, अनुपम, अच्छेद्य, अभेद्य, परमपुरुष, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हत्, जिन, आप्त, भगवान, समयसार इत्यादि हजारो नामोथी कहो; ते सर्व नामो कथंचित् सत्यार्थ छे. सर्वथा एकांतवादीओने भिन्न नामोमां विरोध छे, स्याद्वादीने कांई विरोध नथी. माटे अर्थ यथार्थ समजवो जोईए.
सौ ज्ञाता लखीने नमुं, समयसार सहु भूप. –१
हवे (बीजा श्लोकमां) सरस्वतीने नमस्कार करे छेः-
श्लोकार्थः– [अनेकान्तमयी मूर्तिः] जेमां अनेक अंत (धर्म) छे एवुं जे ज्ञान तथा वचन ते-मय मूर्ति [नित्यम एव] सदाय [प्रकाशताम्] प्रकाशरूप हो. केवी छे ते मूर्ति? [अनन्तधर्मणः प्रत्यगात्मनः तत्त्वं] जे अनंत धर्मवाळो छे अने जे परद्रव्योथी ने परद्रव्यना गुणपर्यायोथी भिन्न तथा परद्रव्यना निमित्तथी थता पोताना
PDF/HTML Page 11 of 4199
single page version
र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।।
_________________________________________________________________ विकारोथी कथंचित् भिन्न एकाकार छे एवा आत्माना तत्त्वने, अर्थात् असाधारण- सजातीय विजातीय द्रव्योथी विलक्षण-निजस्वरूपने [पश्यन्ती] ते मूर्ति अवलोकन करे छे -देखे छे.
भावार्थः– अहीं सरस्वतीनी मूर्तिने आशीर्वचनरूप नमस्कार कर्यो छे. लौकिकमां जे सरस्वतीनी मूर्ति प्रसिद्ध छे ते यथार्थ नथी, तेथी अहीं तेनुं यथार्थ वर्णन कर्युं छे. जे सम्यग्ज्ञान छे ते ज सरस्वतीनी सत्यार्थ मूर्ति छे. तेमां पण संपूर्ण ज्ञान तो केवळज्ञान छे के जेमां सर्व पदार्थो प्रत्यक्ष भासे छे. ते अनंत धर्मो सहित आत्मतत्त्वने प्रत्यक्ष देखे छे तेथी ते सरस्वतीनी मूर्ति छे. तदनुसार जे श्रुतज्ञान छे ते आत्मतत्त्वने परोक्ष देखे छे तेथी ते पण सरस्वतीनी मूर्ति छे. वळी द्रव्यश्रुत वचनरूप छे ते पण तेनी मूर्ति छे, कारण के वचनो द्वारा अनेक धर्मवाळा आत्माने ते बतावे छे आ रीते सर्व पदार्थोना तत्त्वने जणावनारी ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी सरस्वतीनी मूर्ति छे; तेथी सरस्वतीनां नाम ‘वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी’ इत्यादि घणां कहेवामां आवे छे. आ सरस्वतीनी मूर्ति अनंत धर्मोने ‘स्यात्’ -पदथी एक धर्मोमां अविरोधपणे साधे छे तेथी ते सत्यार्थ छे. केटलाक अन्यवादीओ सरस्वतीनी मूर्तिने बीजी रीते स्थापे छे पण ते पदार्थने सत्यार्थ कहेनारी नथी.
कोई प्रश्न करे के आत्माने अनंत धर्मवाळो कह्यो छे तो तेमां अनंत धर्मो कया कया छे? तेनो उत्तरः– वस्तुमां सत्पणुं, वस्तुपणुं, प्रमेयपणुं, प्रदेशपणुं, चेतनपणुं, अचेतनपणुं, मूर्तिकपणुं, अमूर्तिकपणुं, ईत्यादि (धर्म) तो गुण छे; अने ते गुणोनुं त्रणे काळे समय-समयवर्ती परिणमन थवुं ते पर्याय छे- जे अनंत छे. वळी वस्तुमां एकपणुं, अनेकपणुं, नित्यपणुं, अनित्यपणुं, भेदपणुं, अभेदपणुं, शुद्धपणुं, अशुद्धपणुं, आदि अनेक धर्म छे. ते सामान्यरूप धर्मो तो वचनगोचर छे पण बीजा विशेषरूप धर्मो जेओ वचननो विषय नथी एवा पण अनंत धर्मो छे- जे ज्ञानगम्य छे. आत्मा पण वस्तु छे तेथी तेमां पण पोताना अनंत धर्मो छे.
आत्माना अनंत धर्मोमां चेतनपणुं असाधारण धर्म छे, बीजा अचेतन द्रव्योमां नथी. सजातीय जीवद्रव्यो अनंत छे. तेमनामांय जोक के चेतनपणुं छे तोपण सौनुं चेतनपणुं निज स्वरूपे जुदुं जुदुं कह्युं छे; कारण के दरेक द्रव्यने प्रदेशभेद होवाथी कोईनुं कोईमां भळतुं नथी. आ चेतनपणुं पोताना अनंत धर्मोमां व्यापक
PDF/HTML Page 12 of 4199
single page version
छे तेथी तेने आत्मानुं तत्त्व कह्युं छे. तेने आ सरस्वतीनी मूर्ति देखे छे अने देखाडे छे. ए रीते एनाथी सर्व प्राणीओनुं कल्याण थाय छे. माटे ‘सदा प्रकाशरूप रहो’ एवुं आशीर्वादरूप वचन तेने कह्युं छे. २.
हवे (त्रीजा श्लोकमां) टीकाकार आ ग्रंथनुं व्याख्यान करवाना फळने चाहतां प्रतिज्ञा करे छेः-
श्लोकार्थः– श्रीमान अमृतचंद्र आचार्य कहे छे केः- [समयसारव्याख्यया एव] आ समयसार (शुद्धात्मा तथा ग्रंथ) नी व्याख्या (कथनी तथा टीका) थी ज [मम अनुभूतेः] मारी अनुभूतिनी अर्थात् अनुभवनरूप परिणतिनी [परमविशुद्धिः] परम विशुद्धि (समस्त रागादि विभावपरिणति रहित उत्कृष्ट निर्मळता) [भवतु] थाओ. केवी छे ते परिणति? [परपरिणतिहेतोः मोहनाम्नः अनुभावात्] परपरिणतिनुं कारण जे मोह नामनुं कर्म तेना अनुभाव (-उदयरूप विपाक) ने लीधे [अविरतम् अनुभाव्य–व्याप्ति–कल्माषितायाः] जे अनुभाव्य (रागादि परिणामो) नी व्याप्ति छे तेनाथी निरंतर कल्माषित (मेली) छे. अने हुं केवो छुं? [शुद्धचिन्मात्रमूर्तेः] द्रव्यद्रष्टिथी शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति छुं.
भावार्थः– आचार्य कहे छे के शुद्धद्रव्यार्थिक नयनी द्रष्टिए तो हुं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति छुं. परंतु मारी परिणति मोहकर्मना उदयनुं निमित्त पामीने मेली छे- रागादिस्वरूप थई रही छे. तेथी शुद्ध आत्मा नी कथनीरूप जे आ समयसार ग्रंथ छे तेनी टीका करवानुं फळ ए चाहुं छुं के मारी परिणति रागादि रहित थई शुद्ध थाओ, मारा शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति थाओ. बीजुं कांई पण - ख्याति, लाभ, पूजादिक- चाहतो नथी. आ प्रकारे आचार्ये टीका करवानी प्रतिज्ञागर्भित एना फळनी प्रार्थना करी. ३.
प्रवचन नंबर १–२ तारीख २८–११–७प, २९–११–७प
आ समयसार परम अध्यात्मशास्त्र छे. आ अढारमी वखत सभामां वंचाय छे. आ समयसारनो एक शब्द पण सांभळीने यथार्थभाव समजे तो कल्याण थई जाय एवी आ अद्भूत चीज छे. आ ग्रंथमां शुद्धनयनो (शुद्धात्मानो) अधिकार छे. समयसार, शुद्ध-जीव-शुद्ध आत्माने बतावे छे. आखाय समयसारमां शुद्धनय ‘ध्रुव ध्रुव चैतन्य’ ने बतावे छे, जे मात्र सारभूत छे.
‘ॐ परमात्मने नमः’ त्यांथी तो शरू कर्युं छे. श्रीमद् कुंदकुंदाचार्यदेव प्रणीत श्री समयसारजी शास्त्रना जीव-अजीव अधिकारनो प्रारंभ थाय छे. टीकाकार श्री अमृतचंद्रा-
PDF/HTML Page 13 of 4199
single page version
चार्यदेव छे, जेमणे आ शास्त्रनी टीकानुं नाम ज ‘आत्म-ख्याति’ आप्युं छे; ‘आत्म- ख्याति’ एटले के शुद्धचैतन्यघननी प्रसिद्धि.
प्रारंभमां अनुवादकर्ता (श्रीमान् पं. जयचंद्रजी) मांगळिक * करे छेः- ‘श्री परमातमको प्रणमि, शारद सुगुरु मनाय, समयसार शासन करूं देशवचनमय, भाय!’ १ श्री सर्वज्ञ परमेश्वर एवा परमात्मदेव, शारद कहेतां सम्यक् शास्त्र अने सुगुरु- निग्रंथ गुरु-ए त्रणेने नमीने समयसाररूपी शास्त्रनो देशमां चालती भाषामां अनुवाद करुं छुं. ‘शब्दब्रह्म परब्रह्मकैं वाचकवाच्य नियोग; मंगलरूप
जेम साकर शब्द वाचक छे अने साकर पदार्थ ते वाच्य छे, तेम समयसाररूप शब्दब्रह्म वाचक छे, तेनुं वाच्य पूर्णानंदस्वरूप भगवान परमब्रह्म छे. ते बे वच्चे वाचक-वाच्य-नो संबंध छे.
‘मंगळरूप प्रसिद्ध ए’- शास्त्र मंगळरूप प्रसिद्ध छे. मंगळ एटले पवित्रताने प्राप्त करावे अने अपवित्रतानो नाश करावेे. पंडित बनारसीदासे ‘समयसार नाटक’मां कह्युं छे के आ शब्दब्रह्म अने तेनुं वाच्य जे परमब्रह्म तेने जे जाणे छे तेनां अंदरथी फाटक खूली जाय छे. ‘फाटक खुलत है’ एम लख्युं छे. ‘नमु धर्मधन- भोग’ एटले के मारी धर्मरूपी लक्ष्मीना भोगने भोगवतो हुं नमुं छुं. आनंदरूपी लक्ष्मी ते खरेखर (आत्मानुं) धन छे. आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा-तेनी द्रष्टि करतां पर्यायमां जे आनंदनो लाभ थाय तेनो भोग-अनुभव करुं छुं.
अहाहा...! अजोड शास्त्र छे. जगतनां भाग्य के आवुं शास्त्र रही गयुं अने ते पण शरूआतथी पूर्ण सुधी पुरुं थई गयुं!
नय नय सार- एकैक पदमां नयोना साररूप शुद्धनयनो अधिकार छे, तेने लहे- प्राप्त करे- स्वकाळमां (पोतानी पर्यायमां) त्रिकाळी आनंदने प्राप्त थाये पद पद -पुरुषार्थ द्वारा चोराशीना अवतार जन्ममरणना दुःखनो तथा कामादि विकारनो नाश थाय छे. _________________________________________________________________ *मंगलाचरणनी पंक्तिओ हिंदी समयसार परथी लीधी छे.
PDF/HTML Page 14 of 4199
single page version
लय लय पार ग्रहे भवधार एटले के-जेम जेम शुद्धात्मामां लीनता पामतो जाय छे तेम तेम भवनो अंत आवतो जाय छे. आवा भगवान अविकारी आत्मानो जय हो, जय हो एम जयकार कर्यो छे. शब्द, अर्थ अरु ज्ञान
ईनहिं आदि शुभ अर्थसमयवचके सुनिये बहु,
आगममां शब्दसमय जे वाचक छे, अर्थसमय जे वाच्य पदार्थ छे अने ज्ञानसमय जे पदार्थनुं ज्ञान छे -ए त्रणेने समय कह्या छे. वळी काळ मत अने सिद्धांतने पण आगममां समय नामथी कहेवामां आवे छे. ते बधामां पण शुभ अर्थसमय-जीव पदार्थ (शुद्धात्मा) तेथी कथनी प्रारंभमां ज बधा जीवो सांभळजो; कारण के कर्ममळ विनानी चीज निर्मळानंद प्रभु, त्रिकाळ ध्रुव, शुद्धजीव बधामां सारभूत छे. आ सारभूत चीजने शुद्धनय बतावे छे. आखा समयसारनो सार त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यघन प्रभु -एने ज्ञानीजनो पर्यायमां ग्रहे छे. तेने ग्रहवो ए ज आखा समयसारनो सार छे. नामादिक छह ग्रंथमुख, तामें मंगल सार;
मंगळ, नाम, निमित्त, प्रयोजन, परिमाण अने कर्ता-एम छ प्रकार ग्रंथनी शरूआतमां आवे छे. तेमां प्रथम मांगळिक छे. पवित्रताने पमाडे अने अपवित्रतानो नाश करे तेने मांगळिक कहे छे. ग्रंथनुं नाम ‘समयसार’ ते नाम छे; कोना निमित्ते बनाव्युं? तो जीव माटे बनावेल छे ए निमित्त छे. वीतरागदशा प्रगट करवी ए ग्रंथ बनाववानुं प्रयोजन छे. तेनुं परिमाण एटले संख्या ४१प गाथाओ छे. अने तेना कर्ता भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव छे. दरेक ग्रंथमां मांगळिक ते मुख्य छे. वळी केवुं छे मंगळ? विघ्ननो नाश करनारु छे. जेणे साधकभाव शरू कर्यो तेने विघ्न आवतुं नथी एम कहे छे. वळी नास्तिकहरण एटले के नास्तिकतानो नाश करनारुं छे. आ शिष्टाचार-एटले उत्तम पुरुषोनां आचरण-तेनो उच्चार छे एटले कथन छे. (अर्थात् मांगळिक ते ग्रंथनी शरूआतनो शिष्टाचार छे.) समयसार जिनराज है, स्याद्वाद जिनवैन, मुद्रा जिन
PDF/HTML Page 15 of 4199
single page version
समयसार कहेतां भगवान आत्मा जिनराज छे. जिनराज पर्याय जे थाय छे ते जिनराज-स्वरूपमांथी थाय छे. अहीं तो कहे छे के आत्मानुं स्वरूप ज जिनराज छे.
वस्तुना अनेकांतस्वरूपने बतावनार (द्योतक) वीतरागनी वाणी ते स्याद्वाद छे.
अने जेने अंतरमां मिथ्यात्वादि रागनी गांठ छूटी गई छे अने बाह्यमां वस्त्रादि छूटी गयां छे एवा निर्गरंथ मुद्राधारी भावलिंगी संत ते गुरु छे. आवा देव, शास्त्र, गुरुने के जे आनंदना आपनारा छे तेमने हुं नमुं छुं.
आ प्रमाणे मंगळपूर्वक प्रतिज्ञा करीने श्री कुंदकुंदाचार्यकृत गाथाबद्ध समयप्राभृत ग्रंथनी श्री अमृतचंद्र आचार्यकृत आत्मख्याति नामनी जे संस्कृत टीका छे तेनी देशभाषामां वचनिका लखीए छीए.
प्रथम संस्कृत टीकाकार श्री अमृतचंद्र आचार्यदेव ग्रंथना आरंभमां मंगळ अर्थे ईष्टदेवने नमस्कार करे छेः- कळश नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते।
अहाहा...! एकलुं अस्तिथी मांगळिक कर्युं छे! अस्ति एटले छे छे छे एवो भाव. ध्रुव चिदानंद जे छे अर्थात् समय नामनो पदार्थ जे छे तेमां सार कहेतां जे द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मथी रहित शुद्धात्मा-पवित्र आत्मा तेने मारा नमस्कार हो. अहीं ईष्टदेवने नमस्कार कर्या छे. पोतानो त्रिकाळी ध्रुव आत्मा-चैतन्यमूर्ति ते पोते ज ईष्टदेव छे. तेने नमः एटले तेने नमुं छुं, तेमां ढळुं छुं, तेनो सत्कार करुं छुं, ध्रुव आत्मानी सन्मुख थइने तेमां हुं नमुं छुं ढळुं छुं आ नमुं छुं ते (नमन करवुं) पर्याय छे. (वस्तु ध्रुव छे.)
कळश टीकामां कह्युं छे के समय शब्दथी सामान्यपणे जीवादि सकळ पदार्थो जाणवा. तेमां सार कहेतां उपादेय चीज ते पोते छे. सार एटले उपादेय. त्रिकाळी ध्रुव, शुद्ध आत्मा उपादेय छे. आ पोतानी वात छे. जीव ए सार एटले उपादेय- त्रिकाळ उपादेय छे. कोने? तो कहे छे के पर्यायने. (पर्यायमां ध्रुव आत्मा एक ज त्रिकाळ उपादेय छे) आम स्व आत्मानुं ईष्टपणुं सिद्ध करीने नमस्कार कर्या. पर्यायमां तेनो स्वीकार कर्यो ए ज तेने नमस्कार छे. आ ‘नमः समयसाराय’ मांथी काढयुं. पोतानी जे शुद्ध जीव-वस्तु के जे प्रगट छे तेने सारपणुं घटे छे.
PDF/HTML Page 16 of 4199
single page version
सार एटले हितकारी अने असार एटले अहितकारी. त्यां हितकारी सुख जाणवुं, अहितकारी दुःख जाणवुं; कारण के अजीव पदार्थ-पुद्गल, धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाश, काळ अने संसारी जीवने ज्ञान पण नथी, सुख पण नथी. अने तेमनुं स्वरूप जाणनार जीवने पण ज्ञान अने सुख नथी. परने जाणे तेने ज्ञान क्यांथी होय? ते आत्म-साधक ज्ञान क्यां छे? ते तो परलक्षी ज्ञान छे.
परने जाणतां-एमां संसारी जीवने जाणतां, एम कहेतां सिद्धने जाणतां एम पण गौणपणे आवी जाय छे. (निश्चयथी जीव पोताने जाणे त्यारे तेणे सिद्धने जाण्या एम (व्यवहारे) कहेवाय. शब्दो होय तेनो न्याय लेवो जोईए ने? सिद्ध ने ज्ञान छे, सुख छे; पण सिद्ध समान स्वरूप पोतानुं छे तेने जाणतां पोताने ज्ञान अने सुख थाय. झीणी वात छे, भाई! सिद्ध पण आ आत्मानी अपेक्षाए पर वस्तु छे. अहा! पर वस्तुने जाणतां ज्ञान अने सुख केम होई शके? अंतरआत्मा शुद्ध वस्तु छे, तेने जाणतां साचुं ज्ञान अने साचुं सुख थाय. आम वात छे. जे त्रिकाळशुद्ध जीव छे तेने जाणतां पर्यायमां ज्ञान अने सुख थाय-आनंदनो अनुभव थाय; निमित्तने जाणतां कांई नहि. (परने जाणतां साचुं ज्ञान अने साचुं सुख थाय नहि).
पोताने जाणतां ज्ञान थाय; अरिहंतने जाणे माटे साचुं ज्ञान थई जाय छे एम नथी. ‘जे खरेखर अरिहंतने द्रव्य-गुण-पर्यायपणे जाणे छे ते खरेखर पोताना आत्माने जाणे छे’, एवुं जे प्रवचनसारमां (गाथा ८०) लीधुं छे एनो आशय एवो छे के- प्रथम अरिहंतनां द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणे एटले मनथी कळे, मनथी कळे एटले विकल्पपूर्वक जाणे; पछी एनुं लक्ष छोडी पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायने भेदथी जाणे, पछी एवा भेदने समावी दे-समावी दे एटले द्रव्य-गुण-पर्यायना भेदनुं लक्ष छोडी अंतरमां स्थित थाय. (त्यारे तेने अतीन्द्रिय सुख प्रगटे छे अने त्यारे पोताना आत्माने जाण्यो एम कहेवाय छे.)
स्वना आश्रये थाय ते सम्यग्ज्ञान पर्याय छे. पर्याय परनी हो के स्वनी हो, पर्यायनुं लक्ष थतां पण विकल्प ऊठे छे. अनंत गुणोनी पर्याय अंदरमां ज्यारे द्रव्य तरफ ढळे छे त्यारे तेने ज्ञान अने सुख थाय छे. भाई! सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवनो मार्ग एटले शुद्ध-जीवनो मार्ग कोइ अलौकिक छे!
छ द्रव्यो एटले संसारी जीवो, अने बीजां पांच द्रव्यो; एनुं गमे तेटलुं विशाळ ज्ञान थाय तोपण सुख न थाय. जे त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यघन ध्रुवस्वभाव भगवान केवळीए
PDF/HTML Page 17 of 4199
single page version
जोयो अने जाण्यो तेने लक्षमां लेतां-उपादेय करतां पर्यायमां ज्ञान सम्यक् थाय अने साथे आनंद प्रकट थाय. एने शुद्ध आत्मा जाण्यो अने मान्यो कहेवाय.
पोतानो भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन द्रव्यस्वभाव ते उपादेय छे. परनो शुद्ध आत्मा भले हो, सिद्धादि भले हो, पण ते परद्रव्य होवाथी उपादेय नथी. अने अहीं तो निश्चयथी स्वानुभूतिनी पर्याय, संवर-निर्जरानी पर्याय अने मोक्षनी पर्याय पण पर्याय होवाथी हेय छे. अहाहा-! आवी अंतरनी वात छे, त्यां एने (पर) भगवान उपादेय केम होय? माटे आमांथी सार काढवानो के पोतानो शुद्ध आत्मा एक ज उपादेय छे.
पर्यायमां राग होवा छतां भगवान आत्मा तो पूर्णानंदनो नाथ छे. पर्याय तरफना वलणने-लक्षने छोडीने एक समयनी पर्यायथी पण अधिक अने रागनी पर्यायथी पण अधिक (भिन्न) एवा आत्म-भगवाननो आश्रय करवो एने उपादेय करवो ए एने नमस्कार छे. (पर) भगवानने नमस्कार करवा ए तो विकल्प छे- राग छे, ए कांई धर्म नथी. पंच परमेष्ठीने नमस्कार करवा त्यां पंच परमेष्ठी ए तो परद्रव्य छे. आकरी वात छे. भाई! ‘परदव्वाओ दुग्गई.’ परद्रव्यने नमस्कार करवा ते चैतन्यनी गति नहि; ते शुभ परिणाम छे, विभाव छे. अरे! आवो वीतरागनो मार्ग लोकोए सांभळ्यो नथी.
अहीं कोई प्रश्न करे के पहेलां स्वरूपने मेळववुं पडे ने? ए पण नहि, ए पण विकल्प छे. व्यवहारथी ए वात आवे खरी, पण ए खरी वस्तु नहि. पर्याय सीधो ज शुद्ध चैतन्यनो आधार ले (पर्याय द्रव्य तरफ ढळे) ए ज वस्तु छे.
अहीं जे शुद्धद्रव्य उपादेय कह्युं ते पर्याय सहित न मानवुं. शुद्धजीव जे उपादेय छे तेनी साथे शुद्ध पर्यायने भेळवीने जे उपादेय माने ते अशुद्धनय थयो. प्रवचनसारमां ४६ मां नयमां लीधुं छे के माटीने पर्याय सहित जाणवी. ते माटीनी उपाधि छे, व्यवहार छे, मेचकपणुं छे, मलिनता छे. अने माटीने माटीरूप एकली जाणवी ते शुद्ध छे, निश्चय छे, निरुपाधि छे. तेम भगवान आत्माने पर्यायना भेद सहित जाणवो ते उपाधि छे, अशुद्धता छे, मलिनता छे; ते व्यवहारनयनो विषय छे अने आत्माने पर्यायथी भिन्न एक शुद्धात्मस्वरूपे जाणवो ए शुद्ध छे, निश्चय छे, निरुपाधि छे.
संसारी जीव शुद्ध जीवनुं (परअर्हंतादिनुं) लक्ष करे छे माटे सम्यग्ज्ञान छे एम नथी. शुद्ध पोते त्रिकाळध्रुव छे तेने पर्यायमां स्वीकारे त्यारे साचुं ज्ञान अने सुख थाय; त्यारे तेने सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने शांति थाय.
PDF/HTML Page 18 of 4199
single page version
पोतानो भगवान शुद्ध चैतन्य वस्तु-एनो पर्यायमां आदर कर्यो त्यारे पर्यायमां जे अनुभूति थई ते पर्याये सिद्ध कर्युं के स्वानुभूतिनी पर्यायमां ते प्रकाशे छे. द्रव्य द्रव्यथी प्रकाशतुं नथी, द्रव्यगुणथी प्रकाशतुं नथी कारणके बन्ने ध्रुव छे. ते स्वानुभूतिनी पर्याय द्वारा प्रकाशे छे. आवो मार्ग छे, भाई! भगवाननुं आम कहेवुं छे. त्रिलोकनाथ परमात्मानां आ वचनो छे, एनां आ कहेण छे जेम कोई करोडपति अने मोटा घरनी कन्यानां कहेण आवे तो तरत पोते स्वीकारी ले छे, तेम आ तो त्रिलोकनाथनां कहेण छे, तेने झट स्वीकारी ले; ना न पाड. त्रिलोकनाथ तारी पर्यायनां लग्न ध्रुव साथे करावे छे. तारे लगनी लगाडवी होय तो द्रव्य साथे लगाड. आ सिवाय बीजे क्यांय सुख के शांति छे नहि. पैसामां रागमां, बैरां-छोकरांमां, मोटा हजीरा वगेरेमां क्यांय सुख नथी. तो कोई एम कहे के ते सुखनां निमित्तो तो छे ने? शानां निमित्त? ए तो बधां दुःखनां निमित्त छे.
अहा! आ बधा जैनकुळमां जन्म्या तेमने पण खबर नथी के जैन शुं कहेवाय? जैन कोई संप्रदाय नथी. गुणस्वरूप जे शुद्ध चैतन्यघन तेने जे पर्यायमां उपादेय करी अनुभवे तेणे राग अने अज्ञानने जीत्या, तेने जैन कहेवाय छे.
हवे (जेने नमस्कार करुं छुं) ते केवो छे? ‘भावाय’ कहेतां शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु छे. भगवान आत्मामां जे अनंत गुणो वस्या छे ते शुद्ध छे. आ रीते तेने शुद्ध होवापणुं घटे छे. आ विशेषणथी सर्वथा अभाववादी नास्तिकोनो मत खंडित थयो.
कथंचित् अभाव कहेता आत्मा स्वसत्ताथी छे अने परसत्ताथी नथी ए वात तो साची छे. स्वपणे भावरूप अने परपणे अभावरूप छे एम स्वथी अस्ति अने परथी नास्ति ए तो बराबर छे. सर्वथा अभावनी सामे ‘भावाय’ कहीने भगवान आत्मा शुद्ध होवापणे बिराजे छे एम कह्युं छे.
वळी ते केवो छे? ‘चित्स्वभावाय.’ पोते शुद्धात्मा-तेनो स्वभाव चेतना गुण- स्वरूप-जाणवुं-देखवुं एवा गुणस्वरूप भगवान आत्मा छे.
आ विशेषणथी सर्वथा गुण-गुणीनो भेद माननार नैयायिकोना मतनुं खंडन थयुं.
प्रदेशभेद न होवा छतां नामभेद, लक्षणभेद, संख्याभेदथी गुण-गुणी वच्चे भेद छे. गुणीने गुणी कहेवो, गुणने गुण कहेवो एम नामभेद छे. द्रव्यनुं लक्षण-के गुणने धारी राखे ते द्रव्य. एम द्रव्यनुं लक्षण द्रव्यना आश्रये अने गुणनुं लक्षण गुणना आश्रये एम लक्षणभेद छे तथा गुणी एक अने गुणो अनेक एम संख्या-भेद छे. एम होवा छतां पण प्रदेशथी अभेद छे एम न माननार-सर्वथा भेद माननारनो मत जूठो छे एम कहे छे.
PDF/HTML Page 19 of 4199
single page version
वळी ते केवो छे? ‘स्वानुभूत्या चकासते’ -चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा पोतानी अनुभवनरूप क्रियाथी -स्वने अनुसरीने थती परिणतिथी- शुद्धचैतन्यनी निर्मळ अनुभूतिथी जणाय एवो छे. रागथी प्रकाशे एवो आत्मा नथी. तेने रागनी के निमित्तनी अपेक्षा छे ज नहि. अहीं अनुभवनरूप क्रिया ते व्यवहार छे, तेमां निश्चय ध्रुव आत्मा जणाय छे. अनुभूति-ते अनित्य पर्याय, नित्यने जाणे छे. नित्य नित्यने शुं जाणे? (नित्य अक्रिय होवाथी तेमां क्रियारूप जाणवुं केम थाय?)पर्यायने द्रव्य जे ध्येय छे ते पर्यायमां जणाय छे. आवी सुंदर वात मांगळिकमां प्रथम कही छे. अहाहा...! शैली तो जुओ! व्यवहार समकित होय तो निश्चय समकित थाय एम नथी. व्यवहार समकित ए समकित ज नथी. व्यवहार समकित ए तो रागनी पर्याय छे. निश्चय सम्यक्स्वरूपना अनुभवसहित प्रतीति थवी ते निश्चय समकित छे. एनी साथे देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धानो जे राग आवे तेने व्यवहार समकित कहेवामां आवे छे. पण ए छे तो राग; कांई समकितनी पर्याय नथी. भाई! झीणी वात छे. नियमसारनी बीजी गाथामां (टीकामां) कह्युं छे के भगवान आत्मानी सम्यक्दर्शननी पर्याय स्व-द्रव्यना आश्रये उत्पन्न थाय छे, तेने व्यवहारनी अपेक्षा नथी. निरपेक्षपणे स्वना आश्रये थाय छे. सम्यक्दर्शननी पर्यायने, वस्तु जे उपादेय छे एनो आश्रय छे एम कहेवुं ए तो एनी तरफ पर्याय ढळी छे ए अपेक्षाए कहेवामां आवे छे; नहींतर ए सम्यक्दर्शननी पर्यायना षट्कारकना परिणमनमां परनी तो अपेक्षा नथी पण द्रव्य-गुणनी पण अपेक्षा नथी. एक समयनी विकारी पर्याय पण पोताना षट्कारकथी परिणमीने विकारपणे थाय छे. तेने पण द्रव्य के गुणना कारणनी अपेक्षा नथी; कारण के द्रव्य-गुणमां विकार छे जे नहि. विकारी पर्यायने पर कारकोनी पण अपेक्षा नथी. ते एक समयनी स्वतंत्र पर्याय पोताना कर्ता-कर्मआदिथी थाय छे. ते पर्यायनो कर्ता पर्याय पोते, करण पोते वगेरे छये कारको पोते छे. लोकोने लागे छे के आ शुं? नवुं नथी, भाई? अनादिथी सत् वस्तु ज आवी छे. भगवान! मानवुं कठण पडे पण मानवुं पडशे. वस्तुनी स्थिति ज आवी छे. (समयसारना) बंध अधिकारमां आवे छे के द्रव्य अहेतुक, गुण अहेतुक, पर्याय अहेतुक. पर्याय जे सत्स्वभाव छे ते स्वतंत्र अने निरपेक्ष छे. अपेक्षाथी कथन करवामां आवे छे के पर्यायने द्रव्य उपादेय छे. फक्त पर्याय द्रव्य बाजु ढळी एटले आश्रय लीधो, अभेद थई एम कहेवामां आवे छे. आवुं स्वतंत्र स्वरूप छे, भगवान! एने ओछुं, अधिक के विपरीत करवा जशे तो मिथ्यात्वनुं शल्य थशे. जगतने बेसे, न बेसे एमां जगत स्वतंत्र छे.
PDF/HTML Page 20 of 4199
single page version
अनुभूतिनी पर्यायमां त्रिकाळी आत्मा जणाय छे. अनित्य एवी अनुभूतिनी पर्याय नित्यने जाणे छे. जाणनार ज्ञाननी पर्याय छे, पण जाणे छे द्रव्यने. अनुभूतिनी पर्यायने आश्रय द्रव्यनो छे. (अनुभूतिनी पर्यायनुं वलण द्रव्य तरफ छे). पर्यायने पर्यायनो आश्रय नथी. कार्य पर्यायमां थाय छे, पण ते कार्यमां कारण त्रिकाळी वस्तु छे. कार्यमां कारणनुं ज्ञान थाय छे. भाई! आ तो बधा मंत्रो छे.
‘भावाय’ एटले सत्तास्वरूप पदार्थ-वस्तु, अने ‘चित्स्वभावाय’ कहेतां गुण एटले ज्ञान जेनो स्वभाव छे ते, अने ‘स्वानुभूत्या चकासते’ एटले अनुभूतिथी प्रकाशे छे ते. अनुभूति ते पर्याय. एम द्रव्य, गुण, पर्याय त्रणे सिद्ध थयां. अहीं अनुभूतिथी प्रकाशे छे एमां रागथी नहि, पुण्यथी नहि, निमित्तथी नहि एम सिद्ध थयुं. पोतानी अनुभवनरूप क्रियाथी प्रकाशे छे अर्थात् पोताने पोताथी जाणे छे, एटले ज्ञाननी पर्यायथी त्रिकाळ ज्ञान (ज्ञायक) जणाय छे, ज्ञाननी पर्यायथी त्रिकाळ ध्रुव जणाय छे. पोताने पोताथी प्रगट करे छे एटले अनुभूति ज्ञायकने प्रगट करे छे. संवर अधिकारमां आवे छे के -‘उपयोगमां उपयोग छे’-त्यां ‘उपयोगमां’ कहेतां जाणनक्रियामां, ‘उपयोग छे’ कहेतां ध्रुव त्रिकाळी आत्मा छे. जाणनक्रिया ते आधार अने ध्रुव वस्तु ते आधेय कही छे. उपयोगरूप जाणनक्रियामां त्रिकाळी आत्मा जणायो तेथी अहीं जाणनक्रियाने आधार कही अने तेमां जे ध्रुव आत्मा जणायो ते वस्तुने आधेय कही छे.
खरेखर ध्रुव तो अक्रिय छे. तेमां जाणवानी क्रिया क्यां छे? ध्रुवने पर्याय जाणे छे, पर्याय द्रव्यनो आश्रय ले छे. द्रव्य, द्रव्यनो तो आश्रय लई शके नहीं, द्रव्य पर्यायनो पण आश्रय लेतुं नथी; पण पर्याय द्रव्यनो आश्रय ले छे. एटले के पर्याय द्रव्यने जाणे छे तेथी पोते पोताने जाणे छे-स्वानुभूतिथी प्रकाशे छे एम कहे छे.
‘स्वानुभूत्या चकासते’ एम कहेतां आत्माने तथा ज्ञानने सर्वथा परोक्ष ज माननारा जैमिनीय प्रभाकर भेदवाळा मीमांसकोना मतनो व्यवच्छेद थयो.
जेओ आत्माने अने ज्ञानने सर्वथा परोक्ष ज माने छे, प्रत्यक्ष थई शके ज नहीं एम माने छे तेओनो अभिप्राय जूठो छे. स्वानुभूतिथी प्रत्यक्ष थई शके छे एम कहे छे. वस्तु जे छे ते ज्ञानमां प्रत्यक्ष ज छे. शास्त्रमां आत्माने स्वरूप-प्रत्यक्ष कह्यो छे. स्वरूप प्रत्यक्ष ज वस्तु छे तेथी ज ते पर्यायमां प्रत्यक्ष थाय छे. वस्तु स्वरूप प्रत्यक्ष ज ज्ञानमां छे तेथी प्रत्यक्ष पर्यायथी जणाय छे.
समयसारमां ४७ शक्तिओ कही छे, त्यां आत्मामां एक ‘प्रकाश’ नामनी शक्ति कही छे. ते वडे ते स्वसंवेदन प्रत्यक्ष थई शके छे, पोते पोताथी प्रत्यक्ष वेदाय एवो छे.