Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 2-3 ; Gatha: 1.

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१४ [ समयसार प्रवचन

पोते स्वानुभव प्रत्यक्ष छे. सम्यक्दर्शनमां आत्मा ज्ञाननी अपेक्षाए प्रत्यक्ष छे. (परना आश्रय विना सीधो ज्ञानमां जणाय छे) सम्यक्दर्शन तो प्रतीतिरूप छे, पण ते काळे मति श्रुतज्ञानथी स्वने पकडतां पोते प्रत्यक्ष थई जाय छे (वेदननी अपेक्षाए वात छे). परमार्थ वस्तु ज आवी छे, पोते पोताथी जणाय एवी चीज छे.

वळी ज्ञान अन्य ज्ञानथी जाणी शकाय छे अने पोताथी पोताने न जाणे ए वात खोटी छे. ज्ञान ज्ञानथी ज जाणे छे अने ज्ञान ज्ञानथी ज जणाय छे. आ रीते ज्ञान अन्य ज्ञानथी जाणी शकाय छे, पोते पोताने नथी जाणतुं एवुं माननार नैयायिकोनो निषेध थयो. ज्ञान पोते पोताने न जाणे अने परने जाणे एम केम बनी शके? कदी य न बनी शके.

खरेखर तो ज्ञाननी पर्याय स्व तरफ ढळी एटले ज्ञान प्रत्यक्ष थयुं. प्रत्यक्ष स्वानुभूतिनी दशा प्रगट थई गई. ते स्वानुभूतिनी दशामां जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान- ज्ञानने (ज्ञायकने) जाणे, साथे अन्यने पण जाणे. द्रव्यमां स्व-परने जाणवानी शक्ति छे, ते जाणवानुं कार्य तो प्रगट पर्यायमां ज थाय छे.

क्रियाकांडवाळाओने आ आकरुं लागे छे. बाह्यत्यागरूप संयम ए आत्मा प्राप्त करवानुं साधन छे एम तेओ माने छे. अहीं तो स्पष्ट कहे छे के ‘स्वानुभूत्या चकासते’ एटले के अनुभूति ए एक ज उपाय-साधन छे.

कळशमां त्रण अस्तिथी वात लीधी छे. ‘भावाय’ कहेतां सत् स्वरूप शुद्ध चैतन्य प्रभु ते द्रव्य अस्ति, ‘चित्स्वभावाय’ कहेतां तेनो ज्ञान स्वभाव ते गुण अस्ति अने ‘स्वानुभूत्या चकासते’ कहेतां त्रिकाळी ज्ञायकभाव-तेनो जे चित्स्वभाव भाव तेने स्वानुभूतिथी प्रकाशे छे ते स्वानुभूति, ते पर्याय अस्ति. केवी अद्भूत शैली! आमां बार अंगनो सार छे. अमृतचंद्राचार्ये गजबनुं काम कर्युं छे. एकलां अमृत रेडयां छे. कहे छे के चैतन्य जेनो स्वभाव छे एवी स्वभाववान भाव-स्वरूप वस्तु-आत्मा, ते स्वानुभूतिथी जणाय छे.

अहीं अस्तिथी वात करी छे. अस्ति एटले एकलुं सत् सत् सत्; तेमां बधुं आवी जाय छे. ज्यारे विस्तारथी समजावे त्यारे कहे के अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध तेमां नथी. ज्यां अस्तिथी जाण्युं त्यां भेगुं नास्तिनुं ज्ञान आवी जाय छे. आस्रव हेय छे, संवर उपादेय छे ते बधुं आमां आवी जाय छे. वस्तु शुद्ध छे त्रिकाळ, तेनो ज्ञानस्वभाव त्रिकाळ, तेनी परिणति शुद्ध निर्मळ, त्रणेय निर्मळ. ते निर्मळमां मलिनता नथी. शुं नथी ते कहेवानी जरूर नथी. ते त्रणे जाणतां तेमां शुं नथी तेनुं ज्ञान आवी गयुं. आवो गंभीर अर्थ छे


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भाग-१ ] १प

हवे मोक्षरूप अस्तिनी वात करे छे, पूर्णतानी वात करे छे. ‘सर्वभावान्तर- च्छिेद’- पोताना भावथी अनेरा सर्व जीव-अजीव (चराचर), गति करनार अने गतिस्थ (स्थित रहेनार) सर्व पदार्थोने सर्वक्षेत्र, सर्वकाळ अने सर्व विशेषो सहित एक ज समयमां जाणनारो छे. आ पर्यायना पूर्ण सामर्थ्यनी वात छे. पोताना भावने तो स्वानुभूतिथी जाणे, पण भावान्तर कहेतां बीजाना भावोने पण संपूर्ण जाणनार छे. पोताथी अनेरा बधा भावो एटले के सर्वक्षेत्रसंबंधी अने सर्वकाळसंबंधी बधा जीव-अजीव पदार्थोने सर्व विशेषो सहित-एटले के एकेक द्रव्यना बधा गुणो अने पर्यायो सहित-एक ज समये जाणनार छे. आम, आत्मा सर्वज्ञ स्वभावी छे एम सिद्ध कर्युं.

सर्वज्ञ एक ज समये बधुं जाणनार-देखनार छे. सर्वज्ञ पहेला समये जाणे अने बीजा समये देखे एम माननारा सादि-अनंत केवळज्ञान-केवळदर्शनमां अने सादि-अनंत काळमां बे भागला पाडी नाखे छे. आ आखी द्रष्टि तत्त्वविरुद्ध छे, कल्पनामय छे. (परमात्मा एक ज समये बधुं देखे अने जाणे छे- माटे सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी एक ज समये छे)

अ हा हा...! आत्मानी ज्ञानपर्यायनी एक समयमां जाणवानी ताकात केटली! पोताना बधा भाव अने परना बधा भावने एक समयमां जाणे तेवी तेनी योग्यता छे. आने मोक्षतत्त्व अथवा केवळज्ञानतत्त्व कहीए. ए पर्यायनुं सामर्थ्य पण अद्भूत छे; तो पछी द्रव्यना सामर्थ्यनुं तो शुं कहेवुं? आम एक समयनी केवळज्ञान पर्यायनुं अलौकिक सामर्थ्य बतावी सर्वज्ञनो अभाव माननार मीमांसकोनुं निराकरण कर्युं.

आ तो दिगंबर संतो-मुनिओना सिद्धांत एनुं शुं कहेवुं? श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे ने के तेमना एकेक शब्दमां, एकेक वाक्यमां आगम भर्या छे. आ प्रथम मांगळिकना श्लोकमां चार बोल कहीने अस्ति सिद्ध करी छे. भगवान आत्मा वस्तु छे, तेनो गुण छे चित्स्वभाव. चित्स्वभाव ते गुण छे केमके अहीं भेद पाडीने समजाववुं छे. एटले चित्स्वभाव स्वभाववाननो छे एम समजाव्युं. चित्स्वभाव जे छे ते अभेदथी जोईए तो द्रव्य छे, भेदथी जोईए तो गुण छे. ‘चित्स्वभावाय भावाय’ अहीं भाव छे ते चित्स्वभाव छे एम अभेदथी लीधुं. चित्स्वभाव गुण छे ते भेदथी कह्युं.

आनंदघनजीमां लीधुं छे ने? के अनेकांत एटले शुं? सत्ता जे गुण छे तेने अभेदपणे कहेवुं ते द्रव्य-सत्ता, अभेदपणे द्रव्यरूप कहेवाय, ते ज सत्ता भेद अपेक्षाए गुणरूप कहेवाय. सत्ताने वस्तुरूप कहेवी, अभेदरूप कहेवी ए द्रव्यरूप छे, तेने भेदथी कहेवी ते गुणरूप छे. भेदाभेद ते अनेकांत छे. आ भगवान आत्मा-जीवद्रव्य सुखस्वरूप छे एम अभेदथी लीधुं. भेदथी कहेवुं होय तो सुखगुणवाळो ते आत्मा; ए भेदनुं कथन छे.


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१६ [ समयसार प्रवचन

प्रवचनसार गाथा १०६मां आवे छे के सत्ता अने द्रव्यने एटले के गुण अने गुणीने विभक्त प्रदेशत्वनो अभाव छे. बन्नेना प्रदेशो एक छे एम होवा छतां सत्ता अने द्रव्यने अन्यत्व छे, एटले अतद्भाव छे. अहीं एक-बीजामां अभावरूप छे माटे अन्यत्व छे एम नथी. द्रव्य, गुण के पर्याय वच्चे अतद्भावरूप अन्यत्व छे. जे द्रव्य छे ते गुण नथी, गुण छे ते द्रव्य के पर्याय नथी अने पर्याय छे ते द्रव्य के गुण नथी. आ प्रमाणे अतद्भावरूप अन्यत्व छे.

अरेरे! अनादिथी जन्म-मरण करीने भाई तुं दुःखी छे. संसारमां गरीब थईने भटकतो-रांको थईने रखडे छे. पोतानी बादशाही शक्तिनी खबर नथी. पोते बादशाह? हा, भाई! भगवान् पूर्णानंदनो नाथ बादशाह छे. ते बादशाहनो जे स्वीकार करे तेने स्वतंत्र अतीन्द्रिय सुखस्वरूप पर्याय प्रगटे छे.

हवे भावार्थ कहे छे.

भावार्थः– अहीं मंगळ अर्थे शुद्धात्माने नमस्कार कर्या छे. कोई एम प्रश्न करे के कोई बीजा ईष्टदेवनुं नाम लईने नमस्कार केम न कर्या छे?

तेनुं समाधानः– वास्तविकपणे ईष्टदेवनुं सामान्य स्वरूप सर्वकर्मथी रहित, सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्धआत्मा ज छे. प्रगटेलानी आ वात छे. तेथी अध्यात्म शास्त्रमां समयसार कहेवाथी ईष्टदेव आवी गया. एक ज नाम लेवाथी मतवादीओ मतपक्षनो विवाद करे छे. ते सर्वनुं निराकरण समयसारनां विशेषणो वर्णवीने कर्युं छे. अन्यवादीओ पोताना ईष्टदेवनुं नाम ले छे, तेमां ईष्ट शब्दनो अर्थ घटतो नथी, बाधाओ आवे छे; अने स्याद्वादी जैनोने तो सर्वज्ञ, वीतराग, शुद्ध आत्मा ज ईष्ट छे. ते बधां नामो एने लागु पडे छे, पछी भले ते ईष्टदेवने परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर कहो, परम ब्रह्म कहो, परम शिव कहो. आ शिव जे अन्यमतीओ कहे छे ते नहि. सर्वज्ञ वीतराग केवळज्ञानी परमात्माओने शिव पण कहेवामां आवे छे. तेमने निरुपद्रव दशा प्रगटी माटे शिव कहेवाय छे. परम आनंदनो नाथ पर्यायमां प्रगटयो तेने ‘पर ब्रह्म’ कहेवाय छे. आत्मा वस्तुपणे ‘पर ब्रह्म’ छे; सर्वज्ञ अरिहंत ए पर्यायमां ‘परमात्मा’ छे, आत्मा पर्याय विनानो एकलो ‘परमात्मा स्वरूप’ ज छे. सर्वज्ञ परमेश्वर प्रगट ‘परम ज्योति’ छे, आत्मा त्रिकाळ ‘परमचैतन्यज्योति’ छे. श्रीमदे कह्युं छे ने केः-

“शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम,
बीजुं कहीए केटलुं, कर
विचार तो पाम.”

पर्यायमां एनो आदर, विचार-ज्ञान करे तो पामे एवी आ आत्मानी वात छे.


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भाग-१ ] १७

आ प्रगट थयेला शुद्धात्मानां नाम छे. आ शुद्ध चैतन्य भगवान नित्य ‘निरंजन’ छे. सर्वज्ञ परमेश्वर पर्यायमां ‘निरंजन’ छे. अंजन कहेतां मेल जेमां नथी ते ‘निरंजन’ कहेवाय छे. सर्वज्ञ वीतराग पर्यायमां ‘निष्कलंक’ छे, एम भगवान आत्मा वस्तुपणे ‘निष्कलंक’ छे. सर्वज्ञ भगवान पर्यायपणे क्षय न पामे एवी ‘अक्षय’ चीज छे, तो आत्मा पोते स्वरूपथी ‘अक्षय’ छे. कुंदकुंदाचार्यदेवे त्रिकाळी द्रव्यना आश्रये प्रगटेलो सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जे मोक्षनो मार्ग, एने चारित्र पाहुडमां ‘अक्षय अमेय’ कह्यो छे. क्षय रहित, मर्यादा विनानी चीज छे. सर्वज्ञपणुं प्रगट थयुं पछी कदीय एनो अभाव थवानो नथी ए अपेक्षाए तेओ ‘अव्यय’ छे. पर्याय बीजे समये व्यय थाय ए जुदी वात छे. पण एक वखत सर्वज्ञपणुं प्रगट थयुं पछी अल्पज्ञ थई जाय एम कदीय बनतुं नथी. सर्वज्ञदशा ए व्यय विनानो उत्पाद छे-एम प्रवचनसारमां आवे छे. भगवान आत्मा वस्तुपणे ‘अव्यय’ छे.

सर्वज्ञ वीतराग अरिहंतदेव ‘शुद्ध’ छे, ए ईष्टदेव छे. भगवान आत्मा परमार्थे ‘शुद्ध’ छे, अने ए ज आत्माने ईष्ट छे. प्रवचनसारमां कह्युं छे के भगवानने (अरिहंतने) पुण्य-पापरूपी अनिष्टनो नाश थई ईष्टपणुं प्रगटयुं छे. ईष्ट जे वस्तु-भगवान पूर्णानंद प्रभु एना आश्रये पर्यायमां ईष्टपणुं प्रगटयुं छे; अने अनिष्ट जे अज्ञान अने रागद्वेष-तेनो नाश थयो छेे.

सर्वज्ञ परमात्मा पर्यायमां ‘बुद्ध’ छे. एक समयमां ज्ञाननी पूर्ण दशा प्रगट थतां पोते अने आखुं लोकालोक ज्ञानमां आव्युं एवा भगवानने ‘बुद्ध’ कहे छे. आ भगवान आत्मा द्रव्ये ‘बुद्ध’ छे, ज्ञानस्वरूप बुद्धनी मूर्ति छे. सर्वज्ञ परमेश्वर ‘अविनाशी’ छे, एम आ आत्मा पण ‘अविनाशी’ छे. एक समयमां सर्वज्ञदशा जेमने प्रगट थई छे एवा भगवान ‘अनुपम’ कहेतां कोईनी साथे उपमा न आपी शकाय तेवा छे. भगवानने उपमां कोनी? एम ईष्टस्वरूप शुद्ध आनंदनो नाथ भगवान आत्मा जे द्रष्टिनो विषय छे ते त्रिकाळ ‘अनुपम’ छे.

सर्वज्ञ वीतराग कोईथी छेदाय नहि एवा ‘अच्छेद्य’ छे. एम भगवान आत्मा पण ‘अच्छेद्य’ छे, छेद-खंड थाय नहीं एवी चीज छे. भगवान सर्वज्ञ पर्यायमां ‘अभेद्य’ छे, एटले कोईथी भेदाता नथी. एम भगवान आत्मा पण ‘अभेद्य’ छे. जे पर्यायथी भेदातो नथी एवो आत्मा अभेद्य छे. गीतामां पण ‘अच्छेद्य’ अने ‘अभेद्य’ एवा शब्दो आवे छे ए वात अहीं नथी. आ तो सर्वज्ञथी सिद्ध थयेली वात छे.


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१८ [ समयसार प्रवचन

छरीथी टुकडा थाय तेने दावुं कहे छे, अने साकरनो गांगडो होय तेनो भुको थाय तेने भेदावुं कहे छे.

सर्वज्ञने ‘परम-पुरुष’ कहेवामां आवे छे, एम आत्मा वस्तुपणे ‘परम पुरुष’ छे. अंदर आनंदनो नाथ प्रभु सच्चिदानंद-स्वरूप ए ‘परम पुरुष’ छे. सर्वज्ञ परमात्मा बाधा रहित ‘निराबाध’ छे. सर्वज्ञने बाधा केवी? भगवाननो सर्वज्ञ उपयोग-तेनो कदी नाश थतो नथी. अलिंग-ग्रहणना नवमा बोलमां आवे छे के उपयोगनुं कदीय परथी हरण थई शकतुं नथी. एम आत्मा वस्तुपणे ‘निराबाध’ छे. सर्वज्ञ परमेश्वर वीतराग अरिहंतदेव ‘सिद्ध’ छे, एम भगवान आत्मा ‘सिद्ध’ स्वरूप छे; ‘तुं छो सिद्धस्वरूप’. सर्वज्ञ परमेश्वर ए साचा ‘सत्यात्मा’ छे, केमके पर्यायमां सत्यार्थपणुं प्रगट थई गयुं छे. एम द्रव्य पोते ‘सत्यात्मा’, सत्यार्थ-भूतार्थ त्रिकाळ छे. आ वात समयसार गाथा अगियारमां आवे छे.

सर्वज्ञ परमेश्वर पर्याय ‘चिदानंद’ छे, एम भगवान आत्मा शक्तिए ‘चिदानंद’ छे. चिदानंद स्वभाव छे तो चिदानंद पर्याय प्रगट थाय छे. ईष्टदेव ‘सर्वज्ञ’ छे. आ आत्मा पण स्वभावे ‘सर्वज्ञ’ छे. सर्वज्ञ परमेश्वर ‘वीतराग’ छे, आ आत्मा पण ‘वीतराग’ स्वरूप ज छे. द्रव्य स्वरूपथी ज वीतराग-स्वरूप छे जेमांथी वीतराग पर्याय प्रगट थाय छे. सर्वज्ञ परमात्मा ‘अर्हत्’ एटले सर्वने पूजनीय छे, पर्यायमां बधाने पूजवा लायक छे. एम भगवान आत्मा पण पूजनीय- ‘अर्हत्’ छे. पूजनार पर्याय छे, पूजवा योग्य भगवान आत्मा छे.

सर्वज्ञ परमेश्वर ‘जिन’ छे, आ आत्मा पण ‘जिन स्वरूप’ छे. जिन स्वरूप ज पोते छे. सर्वज्ञ परमेश्वर ‘आप्त’ छे, एम आत्मा पण निश्चयथी ‘आप्त’ छे. वीतराग पूर्ण हितने माटे मानवा लायक छे एम आ आत्मा पण हितने माटे मानवा लायक छे. सर्वज्ञदेव ‘भगवान’ छे. परमेश्वर साक्षात् केवळज्ञानी बिराजे छे एवो ज आ आत्मा शक्तिए ‘भगवान’ छे. सर्वज्ञ भगवान ‘कार्य समयसार’ छे, तो आत्मा पोते ‘कारण समयसार’ छे. ईत्यादि हजारो नामो कही शकाय छे.

भगवान केवळज्ञान पामे त्यां समोसरणमां ईंद्रो आवीने एक हजार आठ नामोथी भगवाननी स्तुति करे छे बनारसीदासे तथा जिनसेनस्वामीए पण आदिपुराणमां १००८ नामोथी भगवाननी स्तुति करी छे. जेटला नाम सर्वज्ञ वीतरागने कहेवामां आवे छे एटलां ज नाम पर्यायथी व्यतिरिक्त भगवान द्रव्यस्वभावने कहेवामां आवे छे. जे नाम


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भाग-१ ] १९

सर्वज्ञ परमात्माने लागु पडे छे ते ज नाम अनंत अनंत स्वभावोथी संयुक्त त्रिकाळी, ध्रुव, भगवान आत्माने लागु पडे छे.

कळश टीकाकारे तो आत्माने उपादेय गणीने त्यां निश्चयथी आत्माने लीधो छे. अंतरमां निश्चयनुं लक्ष छे तेथी व्यवहारनी साथे निश्चयनी वात करी छे. परने उपादेय करे, पर्यायने उपादेय करवा जाय, के भेदने उपादेयने करवा जाय तो विकल्प उत्पन्न थाय छे. शुद्ध, पूर्णानंद भगवानने उपादेय करतां निर्विकल्पता थाय छे. अहीं (समयसारमां) सर्वज्ञ वीतराग पर्यायपणे प्रगट छे तेमने लेवामां आव्या छे. बेय वात (अपेक्षाए) बराबर छे.

ते सर्वनामो कथंचित् -ते ते अपेक्षाए -सत्यार्थ छे. सर्वथा एकांतवादीओने भिन्न नामोमां विरोध छे. अज्ञानीओने एकने जुदां जुदां नाम आपवामां विरोध आवे छे. पण स्याद्वादीओने विरोध नथी. माटे जेवी वस्तु छे तेम तेने समजवी जोईए.

प्रगटे निज अनुभव करे, सत्ता चेतनरूप;
सौ–ज्ञाता लखीने नमुं, समयसार सहु–भूप.

जे निज अनुभवथी प्रगट थाय छे, चैतन्य जेनुं स्वरूप छे, बधाने जाणवानो जेनो स्वभाव छे, सौनो जे राजा छे एवा समयसारने हुं जाणीने नमुं छुं आमां ‘नमः समयसाराय’ नो आखो प्रथम कळश टूंकामां आवी जाय छे.


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* समयसार कळश बीजो *

ः कळशः

अनंतधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः।
अनेकांतमयी
मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम्।। २।।

ः कळश उपरनुं प्रवचनः
प्रवचन नंबर ३–४ तारीख ३०–११–७प, १–१२–७प

जुओ, देव, शास्त्र, अने गुरु एम त्रण छे ने? एमां प्रथम कळशमां ईष्टदेवनी स्तुति करीने मांगळिक कर्युं. अहीं बीजा कळशमां सरस्वतीने नमस्कार करे छे. आमां अर्थकार श्रुतज्ञान, केवळज्ञान अने वाणी त्रणेयने नमस्कार करे छे, ज्यारे कळश टीकाकारे (राजमल्लजीए) आ कळशमां एकली वाणीने सरस्वतीनी मूर्ति कहीने नमस्कार कर्यो छे. आवी वात छे, भाई! आ तो वीतरागनो अनेकांत मार्ग छे. जे अपेक्षाए कहेवुं होय ए प्रमाणे लागु पडी जाय.

श्लोकार्थः– ‘अनेकांतमयी मूर्ति कहेतां जेमां अनेक अंत (धर्म) छे एवुं जे ज्ञान तथा वचन-तेमय मूर्ति सदाय प्रकाशरूप हो. अहीं समयसारमां ‘अनेकांतमयी मूर्ति’ मां ज्ञान अने वचन बे लईने ज्ञानना बे भेद-श्रुतज्ञान अने केवळज्ञान एम लीधा छे; ज्यारे कळशटीकाकारे ‘अनेकांतमयी मूर्ति’ एटले अनेकांतधर्मने बतावनारी वीतरागनी वाणी अर्थात् अनेकांत कहेतां अनेक जेमां धर्म छे एवो भगवान आत्मा-चैतन्यतत्त्व-तेने बतावनारी वाणीने -अनेकांतधर्मवाळी गणी एकली वाणीने लीधी छे.

आचार्य कहे छे के जेणे आत्माने प्रत्यक्षपणे पूर्ण जोयो एवुं केवळज्ञान जगतमां नित्य प्रकाशरूप हो, तथा आत्माने परोक्षपणे पूर्ण जोयो एवुं श्रुतज्ञान नित्य प्रकाशरूप हो. केवळज्ञान अने श्रुतज्ञान एमां प्रत्यक्ष अने परोक्षनो ज फेर छे. वळी आत्माना स्वरूपने देखाडनार एवी सर्वज्ञ वीतरागनी दिव्यध्वनि-वाणी ते पण सदा प्रकाशरूप हो; केमके जगतने सत् आत्मा-तेनुं स्वरूप समजवामां (वाणी) निमित्त छे. नियमसारमां आवे छे के ईष्टफळनी सिद्धिनो उपाय सुबोध छे, (एटले मुक्तिनी प्राप्तिनो उपाय सम्यग्ज्ञान छे), सुबोध सुशास्त्रथी थाय छे अने सुशास्त्रनी उत्पत्ति भगवाननी दिव्यध्वनिथी थाय छे. माटे तेमना प्रसादने लीधे ‘आप्त पुरुष’ बुधजनो वडे पूजवा योग्य छे. अर्थात् मुक्ति


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भाग-१ ] २१

सर्वज्ञदेवनी कृपानुं फळ होवाथी सर्वज्ञदेव ज्ञानीओ वडे पूजनीय छे; केमके करेला उपकारने साधु पुरुषो भूलता नथी. शुं कह्युं? अहीं केवळज्ञान जे मोक्ष, श्रुतज्ञान-जे मोक्षनो उपाय अने सुशास्त्र-जे उपाय बतावे छे -ए त्रणेयने वंदनीय अने परोपकार मानवा लायक कह्यां छे. वळी केवी छे ते मूर्ति? ‘प्रत्यगात्मनः’- जे आत्मतत्त्व अनंतधर्मवाळुं छे, जे परद्रव्योथी अने परद्रव्योना गुणपर्यायोथी भिन्न, तथा परद्रव्यना निमित्तथी थता पोताना विकारोथी कथंचित् भिन्न छे एवा एकाकार तत्त्वने-आत्माना नित्य स्वरूपने -अर्थात् असाधारण-सजातीय कहेतां पोताथी भिन्न बीजा आत्माओ अने विजातीय कहेतां पोताथी भिन्न पुद्गलादि द्रव्यो-एनाथी विलक्षण एटले विपरीतलक्षणवाळुं पोतानुं जे निजस्वरूप तेने सरस्वतीनी मूर्ति देखे छे-अवलोकन करे छे. अहीं निर्मळ पर्यायथी भिन्ननी वात नथी करी, कारण के निर्मळ पर्याय तो त्रिकाळीनुं लक्ष करे छे -एनो आश्रय करे छे. परथी अने रागथी भिन्न आत्मतत्त्व एम लीधुं छे. त्रिकाळी भगवान नित्यानंद ध्रुव ते आत्मतत्त्व छे-आत्मानुं स्वरूप छे. देह, कर्म अने रागथी भिन्न एवा आत्मतत्त्वने श्रुतज्ञान अने केवळज्ञान जाणे छे अने वाणी एने बतावे छे. हवे कळश-टीका साथे आ कथनने मेळवीए- ‘अनेकांतमयी मूर्ति’ - सत्य वस्तुने नित्य प्रकाशनार वाणी -ते केवी छे? ‘अनंतधर्मणः प्रत्यगात्मनः तत्त्वं पश्यन्ती’ अनंतधर्मात्मक, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मथी भिन्न, एक समयमां त्रण काळ त्रणलोकने जाणनार सर्वज्ञ वीतरागना स्वरूपनी ‘पश्यन्ती’ एटले ‘अनुभवनशील’ छे. अनुभवनशील कहेतां वाणी सर्वज्ञ अनुसारिणी छे. सर्वज्ञने अनुसरीने थवानो जेनो स्वभाव छे, ‘पश्यन्ती’ नी व्याख्या आम करी छे. गजबनी वात छे ने! सर्वज्ञ वीतरागनो एकरार करनारी वाणी -एने अनुभवनशील कही छे. ‘समयसारमां जयचंदजीए ‘पश्यन्ती’ नो अर्थ- भावश्रुतज्ञान आत्माने परोक्ष देखे छे केवळज्ञान आत्माने प्रत्यक्ष देखे अने दिव्यध्वनि आत्माने देखाडे छे एम लीधुं छे. सर्वज्ञस्वभावने अनुसरीने थवानो जेनो स्वभाव छे ए वाणीने सरस्वती कहेवामां आवी छे. एने शास्त्र पण कहीए. शास्त्रनो अर्थ कळशटीकामां एकलो वाणी कर्यो, ज्यारे समयसारमां त्रण लीधा-श्रुतज्ञान, केवळज्ञान अने द्रव्यश्रुत एटले जिनवाणी. केवळज्ञान ए पण शास्त्र छे ने? भावश्रुतज्ञाननुं फळ केवळज्ञान आव्युं, एटले एने पण शास्त्र कही दीधुं. आ त्रणेय साची सरस्वती छे, माटे त्रणेयने नमस्कार कर्यो छे. वाणी पूर्ण आत्माने बतावे छे माटे वाणीने पण अमारा नमस्कार हो. अहीं कोई वितर्क करे के वाणी तो अचेतन छे, एने नमस्कार केम कर्या? तेनो उत्तर कळशटीकाकारे एम आप्यो छे के वाणी सर्वज्ञ


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२२ [ समयसार प्रवचन

अनुसारिणी छे, वळी जीवादि पदार्थोना स्वरूपनुं ज्ञान जे प्रकारे थाय छे तेमां वाणी निमित्त छे; माटे वाणीनुं पूज्यपणुं पण छे. कळशटीकाकारे स्वतंत्र टीका करी छे, परंतु अजब मेळवाळी छे.

भाई! सर्वज्ञ परमेश्वर एटले शुं-एनी लोकोने खबर नथी. भगवान आत्मा सर्वज्ञ स्वरूपी ज छे. अहा! श्रीमदे कह्युं छे ने के सम्यक्दर्शन थतां (श्रद्धा अपेक्षाए) केवळज्ञान प्रगटयुं. अनादिथी पोते शक्तिए सर्वज्ञ होवा छतां हुं अल्पज्ञ छुं एम मानतो हतो. ते सम्यक्दर्शन प्रगट थतां हुं पूर्णानंद सर्वज्ञस्वभावी छुं एम श्रद्धामां आव्युं. माटे श्रद्धा अपेक्षाए केवळज्ञान वर्ते छे, एम श्रीमदे लीधुं छे. जे श्रद्धामां सर्वज्ञनी मान्यता न हती ए श्रद्धाए सर्वज्ञतत्त्वने प्रतीतिमां लीधुं-ए अपेक्षाए सर्वज्ञपणुं प्रगटयुं एम कहेवाय.

निजस्वरूपने सरस्वतीनी मूर्ति अवलोकन करे छे -एटले भगवान आत्मानुं जे पूर्णस्वरूप एनुं श्रुतज्ञान अने केवलज्ञान अवलोकन करे छे अने वाणी एने बतावे छे. आम शास्त्रने वंदन करतां त्रण लीधां छे. भावश्रुतज्ञाननी पर्याय त्रिकाळीनुं लक्ष करे छे ने? एम केवळज्ञाननी पर्याय त्रिकाळीने जाणे छे. परने जाणे छे ए वात अहीं न लीधी. त्रिकाळीने जाणतां बधुं जणाइ जाय छे. (पोतानी ज्ञानपर्याय पूर्ण प्रगट थई जाय छे). त्यां ज्ञाता, ज्ञेय अने ज्ञाननो भेद रहेतो नथी. कळशटीकामां आवे छे ने के ज्ञाता पोते, ज्ञान पोते अने पोते ज ज्ञेय; त्रणेय अभेद छे. एने अमारा नमस्कार छे एम कहे छे.

भावार्थः– अहीं सरस्वतीनी मूर्तिने आशीर्वचन रूप नमस्कार कर्यो छे. आशीर्वाद कहो कै आशीर्वचन. वाद एटले वचन. लोकमां आशीर्वाद आपुं छुं एम कहे छे ने? सरस्वतीनी मूर्ति नित्य प्रकाशो एम आशीर्वाद कह्यो छे. लौकिकमां जे सरस्वतीनी मूर्तिने मोर उपर बेसाडी तेनी पूजा करे छे ते यथार्थ स्वरूप नथी तेथी अहीं तेना यथार्थ स्वरूपनुं वर्णन कर्युं छे.

जे सम्यग्ज्ञान छे ए ज सरस्वतीनी सत्यार्थ मूर्ति छे. द्रव्यने अडीने जे ज्ञानपर्याय थाय ते सम्यग्ज्ञान, ते सरस्वतीनी साची मूर्ति छे. तेमां पण संपूर्ण ज्ञान तो केवळज्ञान छे जेमां सर्व पदार्थो प्रत्यक्षभासे छे. ते अनंतधर्मो सहित आत्मतत्त्वने - चैतन्यतत्त्वने प्रत्यक्ष देखे छे. आत्मानुं चैतन्यतत्त्व-चैतन्यपणुं सर्वधर्मोमां व्यापक छे. सर्व धर्मोमां अने गुणोमां व्यापेलुं एवुं महा चैतन्यस्वरूप ए आत्मतत्त्वनो असाधारण स्वभाव छे. श्रुतज्ञान ते आत्मतत्त्वने परोक्ष देखे छे. (वेदननी अपेक्षाए जो के श्रुतज्ञान आत्मतत्त्वने प्रत्यक्ष देखे छे) केवळज्ञान अने श्रुतज्ञान वच्चे आटलो फेर छे. तद्अनुसार शब्द पडयो छे ने? पोतामां जे श्रुतज्ञान थाय छे ते भगवानना ज्ञान अनुसार अने यथार्थ तत्त्वने अनुसरीने छे. तेथी ते पण सरस्वतीनी सत्यार्थ मूर्ति छे.


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भाग-१ ] २३

द्रव्यश्रुत वचनरूप छे, ते पण सरस्वतीनी साची मूर्ति छे. निमित्त छे ने? वचनो द्वारा अनंत धर्मोवाळा आत्माने बतावे छे. आ रीते सर्व पदार्थोनां तत्त्वने जणावनारी ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी सरस्वतीनी मूर्ति छे. तेथी सरस्वतीनां नाम वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी ईत्यादि घणां कहेवामां आवे छे. आ सरस्वतीनी मूर्ति नित्य, अनित्य वगेरे अनंतधर्मोने स्यात् पदथी एटले के कथंचित्-कोई अपेक्षाए एक धर्मोमां अविरोधपणे साधे छे तेथी ते सत्यार्थ छे. केटलाक अन्यवादीओ सरस्वतीनी मूर्तिने बीजी रीते स्थापे छे पण ते पदार्थने सत्यार्थ कहेनारी नथी; माटे उपरोक्त सत्यार्थ बतावनारी ज्ञान-वचनरूप सरस्वती ज यथार्थ छे एम जाणवुं.

हवे कोई प्रश्न करे के आत्माने अनंतधर्मवाळो कह्यो छे तो तेमां अनंत धर्मो कया कया छे? उत्तरमां पहेलां सामान्य वस्तुनी (छये द्रव्योनी) वात करी छे अने छेल्ले आत्मानी वात लीधी छे. वस्तुमां सत्पणुं एटले होवापणुं छे, वस्तुपणुं छे, प्रमेयपणुं छे, प्रदेशपणुं छे. चेतनपणुं छे, अचेतनपणुं, मूर्तिकपणुं छे. जडनी अपेक्षाए अचेतनपणुं अने मूर्तिकपणुं कह्युं छे. वळी अमूर्तिकपणुं छे, -ए चेतन अचेतन बन्नेमां छे, ईत्यादि धर्म तो गुण छे. भाषामां धर्म एम कह्युं छे पण आ धर्म एटले गुणनी वात छे. गुणोमां समय-समयवर्ती परिणमन थवुं ते पर्याय छे. दरेक गुणमां क्षणे क्षणे पर्याय थाय छे. एम गुणनी समयवर्ती त्रणेकाळ पर्यायो होय छे, जे अनंत छे.

हवे धर्मनी वात करे छे. धर्म एटले धारी राखेली योग्यता; गुण नहीं. (गुणने धर्म कहेवाय, परंतु धर्मने गुण न कहेवाय.) गुण होय तेने पर्याय होय. वस्तुमां एकपणुं ए गुण नथी, परंतु धर्मरूप लायकात छे एवी रीते अनेकपणुं, नित्यपणुं, अनित्यपणुं, भेदपणुं, अभेदपणुं, शुद्धपणुं, अशुद्धपणुं आदि अनेक धर्म छे. ते सामान्य धर्मो तो वचनगोचर-वचनगम्य छे. पण बीजा विशेषरूप धर्मो जेओ वचनना विषय नथी एवा पण अनंत धर्मो छे- जे ज्ञानगम्य छे, एटले ज्ञानमां जणाय एवा छे पण वचन द्वारा कथनमां आवी शके नहीं. अहीं सुधी सामान्य वात करी.

शिष्यनो प्रश्न तो आत्मानो हतो. आत्मामां अनंत धर्मो कह्या छे तो ते कया कया छे? अहीं सुधी तो वस्तुनी (दरेक पदार्थनी) सामान्य स्थिति बतावी. हवे आत्मा पण एक वस्तु छे, तेथी तेमां पण पोताना अनंत धर्मो छे. आत्माना अनंतधर्मोमां चेतनपणुं असाधारण धर्म छे; केमके बीजा अचेतन द्रव्योमां ते गुण नथी, अने आत्मामां पण स्वपरने जाणवानी ताकातवाळो बीजो एकेय गुण नथी. वळी सजातीय जीव द्रव्यो अनंत छे.


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२४ [ समयसार प्रवचन तेमनामां जो के चेतनपणुं छे, तो पण सौनुं चेतनपणुं निज निज स्वरूपे जुदुं जुदुं छे; केमके दरेक द्रव्यने प्रदेशभेद होवाथी दरेक द्रव्यना प्रदेशो-क्षेत्र भिन्न छे; कोईनुं कोईमां भळतुं नथी. आ चेतनपणुं पोताना अनंतधर्मोमां व्यापक छे. जोयुं? तत्त्व कह्युं हतुं ने? अनंत धर्मो छे, तेमां चैतन्यने मूळतत्त्व कह्युं छे. केमके अनंतधर्मोमां चेतनपणुं व्यापक छे. तेने आ सरस्वतीनी मूर्ति देखे छे. श्रुतज्ञान अने केवळज्ञान देखे छे अने वाणी देखाडे छे. आ रीते एनाथी सर्व प्राणीओनुं कल्याण थाय छे. माटे ‘सदा प्रकाशरूप रहो’ एवुं आशीर्वादरूप वचन कह्युं छे.

प्रथम कळशमां मांगळिक करतां सर्वज्ञपणुं सिद्ध कर्युं. खरेखर तो जीवनो सर्वज्ञ स्वभाव छे. ए तेनुं स्वरूप छे. सर्वज्ञपणुं पोतानी अनुभूतिनी क्रियाथी प्रगट थाय छे. चैतन्यतत्त्व-ज्ञायकभाव पोताना बधा धर्मोमां व्यापक छे. प्रथम कळशमां सर्वज्ञस्वरूप अने प्रगट सर्वज्ञपणुं सिद्ध कर्युं. आत्मा सर्वज्ञस्वभाव कहेतां पोते जाणनार-देखनार स्वभाव छे, एटले अकर्तापणुं छे. क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय अकर्तापणाना निर्णयमां थाय छे. द्रव्यनी पर्याय क्रमसर थाय छे. एमां आत्मानुं कर्तृत्व नथी. क्रमसर थाय एमां कर्तृत्व शुं? क्रमबद्धपर्यायमां अकर्तापणुं अथवा अस्तिथी ज्ञातापणुं ज सिद्ध कर्युं छे. ज्यां पर वस्तुनी के पोतानी रागादि पर्यायनुं पण करवुं नथी त्यां अकर्तापणुं अर्थात् ज्ञातापणुं छे. ज्ञातापणानो अनुभव थवो ए सम्यक्दर्शन छे. बीजा कळशमां सर्वज्ञनी वाणीने नमस्कार कर्यो छे. सर्वज्ञनी वाणी पण सर्वज्ञपणुं सिद्ध करे छे, परनुं अकर्तापणुं बतावी ज्ञातापणुं सिद्ध करे छे.


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समयसार कळश त्रीजा

हवे कळश त्रीजामां पण ‘चिन्मात्र मूर्ति’ कहीने आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे एम सिद्ध कर्युं छे. आ कळशमां टीकाकार आचार्य (अमृतचंद्राचार्यदेव) आ ग्रंथनुं व्याख्यान करवाना फळने चाहतां प्रतिज्ञा करे छेः-

ः कळशः

परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा–
दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः।
मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते–
र्भवतु
समयसारव्याख्यायैवानुभूतेः।। ३।।

ः कळश उपरनुं प्रवचनः

श्रीमान् अमृतचंद्राचार्य कहे छे के समयसार एटले शुद्धात्मा अने तेनो वाचक समयसार ग्रंथ-शब्दो तेनी व्याख्या एटले टीकाथी ज -‘व्याख्ययैव’ शब्द छे! ने मारी अनुभूति एटले अनुभवनरूप परिणतिनी परम विशुद्धि थाओ. जुओ ‘एव’ शब्द पडयो छे. एटले कथनी वा टीकाथी ज मारी अनुभवनरूप परिणतिनी परम विशुद्धि थाओ. एक बाजु एम कहेवुं के टीका करवानो भाव तो विकल्प छे, कारण के टीका ए शब्दो छे तेथी ते परद्रव्य छे. पण एम कहीने आचार्य एम कहेवा मागे छे के- हुं मुनि छुं, त्रण कषायोनो तो अभाव छे, परंतु पूर्ण वीतरागता प्रगट नथी. एटले विकल्प छे एम सिद्ध करे छे.

हवे कहे छे के - ‘टीकाथी ज’ एनो अर्थ एम छे के - टीकाना काळमां टीका करवामां मारुं वलण तो सर्वज्ञ स्वभावने पर्यायमां सिद्ध-प्रगट करवानुं छे, अने मारुं ध्येय ध्रुव छे; ध्रुव सर्वज्ञ स्वरूपी छे. प्रगट करवा योग्य पर्याय सर्वज्ञता छे तेथी टीकाना काळमां भले टीका थई त्यारे केवळज्ञान प्रगट थयुं नथी, पण निर्मळता थई छे अने निर्मळता थई छे अने निर्मळता विशेष थशे, केमके मारुं ध्येय द्रव्य छे. त्रीजुं पद छे ने? ‘हुं तो चिन्मात्र मूर्ति छुं.’ एटले शुद्ध चिन्मात्र, सर्वज्ञस्वभाव-मात्र मारुं स्वरूप छे. द्रव्यदष्टिए


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२६ [ समयसार प्रवचन

तो हुं आवो छुं. अहो! प्रत्येक गाथा अने कळशदीठ ज्ञाननी पूर्णताने वर्णवी छे. ‘चिन्मात्र मूर्ति छुं.’ पोताने अने जगतना अन्य द्रव्यो, तेमना गुण-पर्यायोने जाणनार मात्र द्रव्य छुं. शक्तिओना वर्णनमां जीवत्व शक्ति, चिति शक्ति, ज्ञान शक्ति, सर्वज्ञ शक्ति वगेरे दरेकमां ज्ञान आवे छे. ज्ञान विना बीजी चीजने अने पोताना अनंतगुणोने जाणे कोण? बीजा गुणो कांई जाणता नथी, जाणनार तो ज्ञान छे. आवा ज्ञानमात्र द्रव्यस्वभावनुं ज टीकाना काळमां घोलन छे, एवो अर्थ छे.

हवे ‘अनुभूतिनी परम विशुद्धि थाओ’ एम कहे छे. कळशटीकाकारे (राजमल्लजीए) ‘अनुभूति’ नो अर्थ हुं त्रिकाळ अनुभूतिस्वरूप छुं एम द्रव्यद्रष्टिनो- सम्यक्दर्शननो जे विषय छे ते अर्थमां लीधो छे. ‘चिन्मात्र मूर्ति’ कहेतां जेम शुद्ध शुद्ध एक चैतन्यस्वभाव लीधो तेम. अहाहा...!! ‘अनुभूति’ कहेतां अनंत अनंत अतीन्द्रिय सहज सुखस्वरूप ज हुं छुं एम लीधुं छे. समयसारनी ७३ मी गाथामां आवे छे ने के- जे पर्यायमां षट्कारकोना समूहरूप परिणमन-भले सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्यायरूप हो-तेथी पार-भिन्न अनुभूतिमात्र शुद्ध- एवो अहीं द्रव्यद्रष्टिना विषयरूप ‘अनुभूति’ नो अर्थ लीधो छे. आवी ज वात प्रवचनसार-चरणानुयोग चूलिका (गाथा २०२, टीका) मां लीधी छे. त्यां सम्यक्द्रष्टि पुरुष जेने ज्ञानज्योति प्रगट थई छे ते मुनिपणुं- अंतरस्थिरता करवा मागे छे. ते स्त्री पासे रजा मागे छे. कहे छे-आ शरीरने रमाडनारी हे स्त्री! तुं मने छोड, केमके हुं मारी अनुभूति (रमणी) जे अनादिनी छे एनी पासे जवा मागुं छुं- अहीं ‘अनुभूति’ ए पर्याय नहीं, पण वस्तु-मारो नाथ जे त्रिकाळ अनुभूतिस्वरूप ज छे ते-एनी पासे जवा मागुं छुं. कळशटीकाकारे पण ‘अनुभूति’ एटले त्रिकाळ अनंत सहज-सुखस्वरूपआत्मा एम लीधुं छे. मुनिने आवा चिन्मात्र, अनुभूतिस्वरूप शुद्धात्मानुं ज टीकाना काळमां घोलन छे तेथी ज विशेष विशेष निर्मळता थशे एम भावना छे.

मारी पर्यायमां अनुभूति-स्वभावने अनुसरीने निर्मळ परिणति छे एम सिद्ध करी ते अनुभूतिनी-परिणतिनी परम विशुद्धि कहेतां समस्त रागादि विभाव रहित उत्कृष्ट निर्मळता थाओ एम भावे छे. भले टीकाना काळमां निर्मळता पूर्ण थई नथी, परंतु टीकाना काळमां मारुं ध्येय तो ध्रुवधाम सर्वज्ञशक्ति-स्वभाव ज छे. एटले ध्येयने कारणे मारी शुद्धि वधती जाय छे, केमके ध्येयमांथी मारी द्रष्टि खसती नथी. टीका करतां मारी परम विशुद्धि थाओ एनो अर्थ ए के टीकाना काळमां मारी परम विशुद्धि थाओ. त्यां मारुं ध्येय तो द्रव्यस्वभाव छे, पण आ शास्त्रना भावो विशेष स्पष्ट थाय एवो विकल्प आव्या करे छे. छतां टीका लखती वेळा पण मारुं जोर तो अंदरमां शुद्ध द्रव्य उपर वर्ते छे, तेथी मारी परम विशुद्धि थशे एम निश्चय छे. मने विशुद्धि नथी एम नथी, पण परम विशुद्धि


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भाग-१ ] २७

थाओ एम कहे छे. एटले टीकाना काळमां मारो साधक स्वभाव वधशे-निश्चयथी वधशे. भगवानने पूछयुं नथी के टीका करती वखते मने परम विशुद्धि थशे के नहीं? पण हुं ‘शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति छुं’ ने? अहाहा...!! आचार्यदेव कहे छे-आत्मानो जे ‘ज्ञ’ स्वभाव-तेनी मने द्रष्टि अने आश्रय छे तेथी पर्यायमां जे विशुद्धि -निर्मळता छे ते वधीने परम विशुद्ध थशे एम निश्चय थयो छे. अहाहा...! शुं अप्रतिहत द्रष्टि! शुं चैतन्यना अनुभवनी बलिहारी!! अने शुं चैतन्यना पूर्णस्वभावना सामर्थ्यनी चमत्कारी रमत!!!

प्रभु! तुं सांभळ. तुं सर्वज्ञस्वरूपी छो के नहीं? नाथ! तुं कोण छो अने केवडो छो? तुं जेवो छो तेवो जो ख्यालमां आवी जाय तो क्रमबद्ध, अकर्तापणुं अने ज्ञातापणुं सिद्ध थई जाय. आमां नियतवाद छे पण पांचेय समवाय एकीसाथे छे. स्वभाव, पुरुषार्थ, भवितव्य, काळलब्धि, कर्मना उपशमादि -बधा एकसाथे छे.

मारी शुद्धि थई छे अने विशेष आश्रय थतां शुद्धि वधशे, ए बधी मने खबर छे. हुं आ भावे ज -सम्यक्दर्शन अने सम्यक्ज्ञानना भावे ज पूर्ण केवलज्ञान लेवानो छुं. विशुद्धि थाओ एम कह्युं एमां ज ए आव्युं के प्रगट विशुद्धि साथे अशुद्धि पण छे; नहीं तो परम विशुद्धि थाओ ए केवी रीते कहेत? अशुद्धतानो अंश अनादिनो छे. मारी पर्यायमां जे अशुद्धतानो अंश छे, ए परिणतिनो हेतु मोह नामनुं कर्म छे. परिणति विकारी छे माटे पर परिणति कही, केमके आ परिणति स्वभावभूत नथी. नियमसारना कळशमां (कळश २प३) आवे छे के -मुनिनी दशा अने केवळज्ञानीनी दशामां फेर माने ते जड छे. अहीं मुनि एम कहे छे के मारी दशामां जरा राग छे. नियमसारमां, आ जे जरी रागांश छे तेने गौण करी नाख्यो छे, केमके ए नीकळी जवानो छे. तेथी एम कह्युं के मुनिमां अने केवळीमां फेर नथी; फेर माने ते जड छे. प्रवचनसारनी छेल्ली पांच गाथाओ -पंचरत्न-एमां एम कह्युं छे के -जेणे मोक्षमार्ग साध्यो छे तेने अमे मोक्षतत्त्व कहीए छीए. परंतु अहीं जरा अशुद्धि छे एम ख्यालमां लीधुं छे.

आ अशुद्ध परिणतिनो हेतु मोह नामनुं कर्म छे. आ निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे. तेना उदयना विपाकने लीधे विकार छे एम नथी. पण मारुं विपाकमां जोडाण थयुं एने लीधे छे. मारी परिणति नबळी-कमजोर छे एटले जोडाई जाय छे. त्यां निमित्त कांई करतुं नथी. एक बाजु एम कहे के ‘समकितीने आस्रव अने बंध होय नहिं’ ए मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायना अभावनी अपेक्षाए छे. एक बाजु एक कहे के ‘ज्ञानीनो भोग निर्जरानो हेतु छे,’ ए द्रष्टिना जोरनी अपेक्षाए वात करी छे. अहीं मुनि कहे छे के मारे अशुद्धतानो पण अंश छे, तेमां निमित्त मोहकर्म छे.


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२८ [ समयसार प्रवचन

रागादि परिणामोनी व्याप्ति मारामां माराथी छे. पर्यायमां विकारनी व्याप्ति मारी कमजोरीने लईने अनादिनी छे. केटलीक परिणति निर्मळ होवा छतां पूर्ण निर्मळ नहीं होवाथी, मारे निरंतर कलुषित परिणाम छे; एनाथी हुं व्याप्त छुं. कर्म तो निमित्तमात्र छे. स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षामां आवे छे के -समकिती वस्तु तरीके पोताने प्रभु माने छे, पण पर्यायमां पोताने तृण-तुल्य पामर माने छे. क्यां केवलज्ञाननी दशा अने क्यां मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायना अभावपूर्वकनी चारित्र दशा? द्रव्य तरीके हुं पूर्ण प्रभु छुं, ए मारुं लक्ष्य छे. पर्यायमां पामरता छे, तृण-तुल्य छुं. ए टाळवा माटे मारो प्रयत्न टीका करवा काळे छे. अंतर स्वभाव- सन्मुख थवामां ज मारा प्रयत्ननी दशा छे. मुनिराज कहे छे के मारी पर्यायमां मलिनता छे, संज्वलन कषाय छे, छतां द्रव्ये शुद्ध छुं. ए शुद्ध स्वभावनी एकाग्रताना बळे सर्व कषायनो नाश थई मने परम विशुद्धि थशे ए निश्चित छे.

भावार्थः– अमृतचंद्राचार्य कहे छे के मारी परिणतिमां थोडी अशुद्धता छे ए मारा लक्ष बहार नथी. हुं शुद्ध ज थई गयो अने अशुद्धता आवे छे ए बधी निर्जरी जाय छे एम नथी. अशुद्धता आवे छे एटली मलिन दशा छे, एटलो कर्मनो बंध थाय छे. तेमां मोहकर्म निमित्त छे. पर्यायमां अशुद्धता छे ए माराथी मारामां व्याप्त छे. माटे एम गर्वमां न चढी जईश के समकित थई गयुं एटले बस सर्व थई गयुं. कर्मनो थोडो बंध थाय छे, एमां अुशद्धता निमित्त पण छे. जुओ, द्रष्टिनुं जोर तो ध्रुव उपर छे, अने पर्यायमां शुद्धता अने अशुद्धता बन्ने अंशोनुं ज्ञान यथार्थ वर्ते छे.

शुद्ध द्रव्यनुं जेने प्रयोजन छे एटले जे ज्ञानमां, शुद्ध पूर्ण द्रव्य-स्वभाव-ज्ञायक वीतरागस्वभाव-ध्रुव एकरूप स्वभावनुं ज प्रयोजन छे एवा द्रव्यार्थिकनयनी द्रष्टिए हुं ‘शुद्ध चिन्मात्रमूर्ति’ छुं. बधा सम्यक्द्रष्टि पोताने द्रव्यद्रष्टिए शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति माने छे. चोथे, पांचमे, छठ्ठे गुणस्थाने पर्यायमां फेर छे ए वात जुदी छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां (रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां) आवे छे के जेवुं समकित तिर्यंचनुं एवुं समकित सिद्धनुं. द्रव्यद्रष्टिए चिन्मात्र मूर्ति छुं, पण परिणतिमां मोहकर्मना उदयनुं निमित्त पामीने मलिनता माराथी छे. मोक्षमार्ग प्रकाशक प्रथम अधिकारमां आवे छे के - मुनिने अशुभ भाव तो छे ज नहीं, फक्त कोई धर्मलोभी जीवने देखीने उपदेश देवानो्र शुभ भाव आवे छे; ए शुभ भाव पण पोताना पुरुषार्थनी कमजारी छे.

छठ्ठे गुणस्थाने, ध्यानना चार भाग पडतां आर्तध्यान हजु छठ्ठे छे एम आवे छे. छ लेश्यामां छठ्ठे गुणस्थाने कृष्ण, नील अने कापोत नथी, ज्यारे पीत, पद्म अने शुकल कही छे. छठ्ठे गुणस्थाने कषायनो अंश छे ने? एटलुं आर्तध्यान छे. एटलो आत्मा पीडाय छे. माटे क्यां क्यां कई अपेक्षाए कथन छे ए बराबर समजवुं जोईए.


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भाग-१ ] २९

आचार्यदेव कहे छे के आ समयसार ग्रंथनी टीका करवानुं फळ ए चाहुं छुं के- मारी परिणति रागादि रहित शुद्ध थाओ. टीका करवामां परद्रव्य उपर लक्ष छे. एक तरफ एम कहे के परद्रव्य उपर लक्ष करे तो राग थया विना रहे नहीं. मोक्षपाहुडमां १६मी गाथामां कह्युं छे के ‘परदव्वाओ दुग्गई’. (एटले परद्रव्य उपर लक्ष जशे तो राग थशे अने तेथी आत्मानी दुर्गति थशे एटले चार गतिमां भ्रमण थशे.) टीकाना शब्दो छे ते परद्रव्य छे. परद्रव्य पर लक्ष जाय तो राग तो छे; परतुं जोर विकल्प उपर नथी, जोर ध्रुवस्वभाव उपर छे माटे आ टीकाथी मारी परिणति राग रहित शुद्ध थाओ एम अपेक्षाथी कह्युं छे. उपदेशनो विकल्प ऊठे छे ए राग छे; राग छे एटलुं बंधन छे. रागनी दिशा पर तरफ छे, रागनी दशा मेली छे; पण मारुं जोर द्रव्यस्वभाव उपर होवाथी मने शुद्ध स्वभावनी प्राप्ति थशे एम कह्युं छे. परिणतिमां परम विशुद्धि थाओ, बीजी कोई चाहना नथी. टीका करवाथी मारी ख्याति वधे के प्रशंसा थाय के लोक अभिनंदन आपे ए चाहना नथी. हुं टीकाना फळमां लाभ, ख्याति, पूजादि चाहतो नथी. आ प्रकारे आचार्यदेवे टीका करवानी प्रतिज्ञा लीधी अने गर्भितपणे एना फळनी प्रार्थना करी.



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जीव–अजीव अधिकार

गाथा–१

अथ सूत्रावतारः–

वंदित्तु सव्वसिद्धे
धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते।
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं।। १।।

हवे मूळगाथासूत्रकार श्री कुंदकुंदाचार्य ग्रंथना आदिमां मंगळपूर्वक प्रतिज्ञा करे छेः -

ध्रुव, अचल ने अनुपम गति पामेल सर्वे सिद्धने
वंदी कहुं श्रुतकेवळी–भाषित समयप्राभृत
अहो! १.

गाथार्थः– आचार्य कहे छेः हुं [ध्रुवम] ध्रुव, [अचलाम्] अचळ अने [अनौपम्यां] अनुपम-ए त्रण विशेषणोथी युक्त [गतिं] गतिने [प्राप्तान्] प्राप्त थयेल एवा [सर्वसिद्धान्] सर्व सिद्धोने [वंदित्वा] नमस्कार करी, [अहो] अहो! [श्रुतकेवलिभणितम्] श्रुतकेवळीओए कहेला [इदं] [समयप्राभृतम्] समयसार नामना प्राभृतने [वक्ष्यामि] कहीश.

टीकाः– अहीं (संस्कृत टीकामां) ‘अथ’ शब्द मंगळना अर्थने सूचवे छे. ग्रंथना आदिमां सर्व सिद्धोने भाव-द्रव्य स्तुतिथी पोताना आत्मामां तथा परना आत्मामां स्थापीने आ समय नामना प्राभृतनुं भाववचन अने द्रव्यवचनथी परिभाषण शरू करीए छीए- एम श्री कुंदकुंदाचार्य कहे छे. ए सिद्ध भगवंतो, सिद्धपणाने लीधे, साध्य जे आत्मा तेना प्रतिच्छंदना स्थाने छे, - जेमना स्वरूपनुं संसारी भव्य जीवो चिंतवन करीने, ते समान पोताना स्वरूपने ध्याईने, तेमना जेवा थई जाय छे अने चारे गतिओथी विलक्षण जे पंचमगति मोक्ष तेने पामे छे. केवी छे ते पंचमगति? स्वभावभावरूप छे तेथी ध्रुवपणाने अवलंबे छे. चारे गतिओ परनिमित्तथी थती होवाथी ध्रुव नथी, विनाशिक छे; ‘ध्रुव’ विशेषणथी पंचमगतिमां ए विनाशिकतानो व्यवच्छेद थयो. वळी ते गति


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भाग-१ ] ३१

केवी छे? अनादि काळथी अन्य (पर) भावना निमित्तथी थतुं जे परमां भ्रमण तेनी विश्रांति (अभाव) वश अचलपणाने पामी छे. आ विशेषणथी, चारे गतिओने परनिमित्तथी जे भ्रमण थाय छे तेनो पंचमगतिमां व्यवच्छेद थयो. वळी ते केवी छे? जगतमां जे समस्त उपमायोग्य पदार्थो छे तेमनाथी विलक्षण अद्भूत माहात्म्य होवाथी तेने कोईनी उपमा मळी शकती नथी. आ विशेषणथी, चारे गतिओमां जे परस्पर कथंचित् समानपणुं मळी आवे छे तेनो पंचमगतिमां व्यवच्छेद थयो. वळी ते केवी छे? अपवर्ग तेनुं नाम छे. धर्म, अर्थ अने काम- ए त्रिवर्ग कहेवाय छे; मोक्षगति आ वर्गमां नहि होवाथी तेने अपवर्ग कही.- आवी पंचमगतिने सिद्धभगवंतो पाम्या छे. तेमने पोताना तथा परना आत्मामां स्थापीने, समयनो (सर्व पदार्थोनो अथवा जीवपदार्थनो) प्रकाशक एवो जे प्राभृत नामनो अर्हत्प्रवचननो अवयव (अंश) तेनुं, अनादि काळथी उत्पन्न थयेल मारा अने परना मो्रहना नाश माटे, हुं परिभाषण करुं छुं. केवो छे ते अर्हत्प्रवचननो अवयव? अनादिनिधन परमागम शब्दब्रह्मथी प्रकाशित होवाथी, सर्व पदार्थोना समूहने साक्षात् करनार केवळीभगवान सर्वज्ञथी प्रणीत होवाथी अने केवळीओना निकटवर्ती साक्षात् सांभळनार तेम ज पोते अनुभव करनार एवा श्रुतकेवळी गणधरदेवोए कहेल होवाथी प्रमाणताने पाम्यो छे. अन्यवादीओना आगमनी जेम छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) नी कल्पना मात्र नथी के जेथी अप्रमाण होय.

भावार्थः– गाथासूत्रमां आचार्ये ‘वक्ष्यामि’ कह्युं छे तेनो अर्थ टीकाकारे ‘वच् परिभाषणे’ धातुथी ‘परिभाषण’ कर्यो छे. तेनो आशय आ प्रमाणे सूचित थाय छेः चौद पूर्वमां ज्ञानप्रवाद नामना पांचमां पूर्वमां बार ‘वस्तु’ अधिकार छे; तेमां पण एक एकना वीश वीश ‘प्राभृत’ अधिकार छे. तेमां दशमां वस्तुमां समय नामनुं जे प्राभृत छे तेनां मूळ सूत्रोना शब्दोनुं ज्ञान तो पहेलां मोटा आचार्योने हतुं अने तेना अर्थनुं ज्ञान आचार्योनी परिपाटी अनुसार श्री कुंदकुंदाचार्यने पण हतुं. तेमणे समयप्राभृतनुं परिभाषण कर्युं-परिभाषासूत्र बांध्यु. सूत्रनी दश जातिओ कहेवामां आवी छे तेमां एक ‘परिभाषा’ जाति पण छे. अधिकारने जे यथास्थानमां अर्थद्वारा सूचवे ते परिभाषा कहेवाय छे. श्री कुंदकुंदाचार्य समयप्राभृतनुं परिभाषण करे छे एटले के समयप्राभृतना अर्थने ज यथास्थानमां जणावनारुं परिभाषासूत्र रचे छे.

आचार्ये मंगळ अर्थे सिद्धोने नमस्कार कर्यो छे. संसारीने शुद्ध आत्मा साध्य छे अने सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा छे तेथी तेमने नमस्कार करवो उचित छे. कोई ईष्टदेवनुं नाम लई नमस्कार केम न कर्यो तेनी चर्चा टीकाकारना मंगळ पर करेली छे ते अहीं पण जाणवी. सिद्धोने ‘सर्व’ एवुं विशेषण आप्युं छे; तेथी ते सिद्धो अनंत छे एवो अभिप्राय


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३२ [ समयसार प्रवचन

बताव्यो अने ‘शुद्ध आत्मा एक ज छे’ एवुं कहेनार अन्यमतीओना व्यवच्छेद कर्यो. श्रुतकेवळी शब्दना अर्थमां, (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम अने केवळी अर्थात् सर्वज्ञदेव कह्या, तेम ज (२) श्रुत-अपेक्षाए केवळी समान एवा गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधरो कह्या; तेमनाथी समयप्राभृतनी उत्पत्ति कही छे. ए रीते ग्रंथनी प्रमाणता बतावी अने पोतानी बुद्धिथी कल्पित कहेवानो निषेध कर्यो; अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) पोतानी बुद्धिथी पदार्थनुं स्वरूप गमे ते प्रकारे कही विवाद करे छे तेनुं असत्यार्थपणुं बताव्युं.

आ ग्रंथना अभिधेय, संबंध, प्रयोजन तो प्रगट ज छे. शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ते अभिधेय छे. तेना वाचक आ ग्रंथमां शब्दो छे तेमनो अने शुद्ध आत्मानो वाच्यवाचकरूप संबंध ते संबंध छे. शुद्धात्माना स्वरूपनी प्राप्ति थवी ते प्रयोजन छे.

प्रवचन नंबर प–६ तारीख ३–१२–७प, ४–१२–७प

* गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

आचार्य कहे छे के हुं ध्रुव, (अहीं ध्रुव पर्यायनी-सिद्ध गतिनी वात छे) अचल अने अनुपम ए त्रण विशेषणोथी युक्त गतिने प्राप्त थयेल सर्व सिद्धोने - बधा सिद्धोने नमस्कार करीने ‘श्रुतकेवली भणितम्’ कहेतां भगवान श्रुतकेवळी अने केवळी बन्नेना कहेला आ समयसार नामना प्राभृतने कहीश.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

अहीं संस्कृत टीकामां ‘अथ’ शब्द मंगळना अर्थने सूचवे छे. अनादिनो जे अज्ञानभाव तेनो द्रव्यना आश्रये नाश करी सम्यक्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान प्रगट कर्युं त्यां साधकभावनी शरूआत थई त्यांथी मांगळिक अने धर्मनी शरूआत थाय छे. अनंत काळथी द्रव्यना आश्रये जे साधकभावनी शरूआत थई न हती ते थई एनुं नाम मांगळिक छे. अथ प्रथमतः आ बे शब्दोथी शास्त्रनी शरूआत करी छे.

अमृतचंद्राचार्य महामुनि हता. समयसारनी जे आ टीका छे एवी टीका भरतक्षेत्रमां दिगंबर शास्त्रोमां बीजे क्यांय नथी. अन्य मतमां तो होय ज शानी? मुनि कोने कहेवा एनी लोकोने खबर नथी. मुनि तो परमेश्वर छे. जेने त्रण कषायनो अभाव थयो छे; बापु, ए शुं चीज छे! सम्यक्दर्शन पण एक अलौकिक चीज छे. तो पण चारित्र तो एथी य विशेष अलौकिक छे. आवा चारित्रवंत संतनी आ टीका छे. अमृतचंद्रनां आ अमृत वचनो छे, एकलां अमृत वरसाव्यां छे. संतो तो तीर्थंकर परमेश्वरना केडायतो छे. एमनी टीकामां शुं कहेवानुं होय?


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भाग-१ ] ३३

ग्रंथनी आदिमां आचार्य सर्व सिद्धोने एटले अनंत सिद्धोने भाव अने द्रव्य स्तुतिथी नमस्कार करे छे. जोयुं? अंदर भावथी एटले ज्ञायकनी सन्मुख थईने - एमां एकाकार थईने स्तुति करे छे; तथा द्रव्यथी एटले विकल्पथी स्तुति करे छे. ‘वंदित्तुं’ छे ने? एटले भाव अने द्रव्य स्तुतिथी नमस्कार. अंदरमां पोतामां शुद्धचैतन्यघन तरफनुं परिणमन थयुं ए भाव नमस्कार छे अने सिद्ध भगवान आवा छे एवो (तेमना स्वरूपनो विचार) विकल्प ऊठवो ए द्रव्यनमस्कार छे.

सर्व सिद्धोने भाव-द्रव्य स्तुतिथी पोताना अने परना आत्मामां स्थापीने- एटले के मारा आत्मामां अने सांभळनार श्रोताओना आत्मामां, बन्नेमां हुं सिद्धोने स्थापुं छु.ं अहाहा..! ज्ञाननी पर्याय अल्पज्ञ होवा छतां अनंत अनंत सिद्धोनो सत्कार करे छे. अनंतज्ञानने प्राप्त परमात्माने एक समयमां (पर्यायमां) स्थापन करे छे. आ ज एनुं वंदन छे. अनंता सिद्धोने पर्यायमां स्थापे ते ‘वंदित्तु’ छे. वंदित्तुनो अर्थ स्थापे. स्थापे एटले ज्ञाननी पर्यायमां राखे. राखे एटले? आत्मानुं साध्य सिद्धदशा छे ने? एटले साध्यने पर्यायमां स्थापे छे.-राखे छे. आम सांभळनार अने कहेनार बन्नेमां सिद्ध पर्यायनुं स्थापन करी संभळाववानी वात करे छे.

अहाहा...! अहीं कहे छे के अमे अनंत सिद्धोने नमस्कार करीए छीए. जेणे अनंत सिद्धो अने केवळीओने मतिज्ञाननी पर्यायमां स्वीकार्या एनी पर्याय स्वद्रव्य तरफ ढळी जशे. पर्यायमां आटलुं जोर आवे-अनंत सिद्ध अने केवळीओने स्थापे-त्यां लक्ष द्रव्य तरफ जतुं रहे छे. आ एनो लाभ छे.

आचार्य कहे छे के आगळ मारे पण सिद्ध थवुं छे अने श्रोताओने पण सिद्ध थवुं छे एटले पोताना आत्मामां तथा श्रोताओना आत्मामां अनंत सिद्धोनी स्थापना करुं छुं. कारण के सिद्ध थवानो काळ मारे हजु नथी अने श्रोताने पण नथी, माटे सिद्धनुं पर्यायमां पस्तानुं (प्रस्थानुं) मूकुं छुं. लौकिकमां पण पस्तानुं करे छे ने? जेम वार-कवार होय अने कोई प्रसंगे बहार जवानुं थाय तो शेरीमां बीजाने त्यां पस्तानुं मूकी आवे, पछी बीजे दिवसे त्यांथी लईने नीकळे. तेम अहीं पर्यायमां अनंत सिद्धोने पस्तानामां मूके छे (स्थापना करे छे). हवे हुं सिद्धमां जवानो छुं, तेनुं आ मंगळ प्रस्थान छे. अहा! श्रोताने पण एम कहे छे. पांचमी गाथामां आव्युं ने? ‘जो हुं (शुद्धात्मानुं स्वरूप) देखाडुं तो प्रमाण करजे’ द्रव्यनो आश्रय-करीने अनुभव करीने प्रमाण करजे. हा पाडवाना विकल्पथी -एम नही; पर्यायने द्रव्य तरफ वाळीने अनुभवथी प्रमाण करजे.