Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 2.

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३४ [ समयसार प्रवचन

अहो! समयसारनी टीकाना प्रारंभमां ज उपरथी साक्षात् केवळी उतार्या छे. परमेष्ठीपदमां स्थित मुनिराजनी वाणी परमांथी सुखबुद्धिनी कल्पनानुं विरेचन करावनार औषध छे. श्रीमदे कह्युं छे ने केः-

‘वचनामृत वीतरागनां परम शांत–रस मूळ,
औषध जे भवरोगनां कायरने प्रतिकूळ.’

अहाहा...! जिनवचन ए तो स्वपरनुं भेद-विज्ञान करावी परम शांति पमाडनारां ऐाषध छे. मिथ्यावासनाओथी उत्पन्न थता भवरोगने मटाडनारां छे. पण अरेरे! ते कायर कहेतां विषयवासनाना कल्पित सुखमां राचता एवा नपुंसकोने सुहातां नथी- अनुकूळ लागतां नथी.

आ रीते पर्यायमां सिद्धोने स्थापीने ‘समय’ नामना प्राभृतनुं भाववचन एटले निर्मळ दशा अने द्रव्यवचन एटले विकल्पथी परिभाषण शरू करीए छीए. एम कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे.

अहीं जे कह्युं के अमे सिद्धने नमस्कार करीए छीए ए व्यवहारथी वात उपाडी छे. सिद्ध, साध्य छे ने? एटले पर्यायमां जे सिद्ध स्थाप्या ए जाणवा माटे छे, आश्रय माटे नहीं. आश्रय योग्य ध्येय तो त्रिकाळ, ध्रुव, स्वभावे सिद्ध एवो निज शुद्धात्मा छे.

आगळ १६ मी गाथामां आवशे के ‘साधु पुरुषे दर्शन, ज्ञान अने चारित्रने सदा सेववां’ लोको पर्यायना भेदथी जाणे छे माटे पर्यायथी कथन छे. सेववो छे तो एक आत्मा, त्रण भेद नहीं. त्रण भेद तो पर्याय छे, तेथी ते व्यवहार छे. भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन जे एक स्वरूपे छे एने एकने ज सेववो छे, पण लोको पर्यायथी-व्यवहारथी समजे छे माटे भेदथी कथन कर्युं छे; आदरवा माटे नहीं. तेम अहीं अनंत सिद्धोने पर्यायमां तेनुं ज्ञान कराववा माटे स्थाप्या छे; के साध्य जे सिद्धपद एनुं आवुं पूर्ण स्वरूप छे. ध्येय (ध्यान करवा योग्य) तो द्रव्य छे. भेद पाडवो ते वस्तुनुं ज्ञान कराववा माटे बराबर छे, पण ध्येय तो ‘एक’ द्रव्य ज छे.

मोक्षमार्गप्रकाशकनी पाछळ रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां ज्यां सविकल्पथी निर्विकल्पनुं कथन कर्युं छे त्यां कह्युं छे के ‘चिन्मय आत्मा एकस्वरूपे छे., एमां सर्व परिणाम एकाग्र थाय छे.’ माटे द्रव्य अने परिणाम एक थई गया एम नहीं. (अने द्रव्य अने परिणाम बे थईने द्रष्टिनो विषय बने छे एम पण नहीं.) चिन्मात्र आत्मा के जे द्रव्यार्थिकनयनो-निश्चयनयनो अने सम्यक्दर्शननो विषय छे ते तो एकस्वरूपे ज छे, त्रण रूपे नहीं. त्रण


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भाग-१ ] ३प

रूपे परिणमन छे एम कहेवुं ए असत्यार्थ नयथी कहेवामां आवे छे. सम्यक्दर्शन थतां द्रव्यना बधा निर्मळ परिणाम द्रव्य तरफ ढळे छे, एकली श्रद्धानी पर्याय ज ढळे छे एम नहीं. फक्त मलिन परिणाम बहार रही जाय छे. द्रव्यार्थिक नयनी मुख्यतामां ‘एकना सेवननी ज’ (ध्रुव आत्मानी ज) मुख्यता होय छे. ते काळे त्रणे रूपे परिणमवुं एने गौण करीने-व्यवहार कहीने असत्यार्थ कहे छे.

गाथा १६ (समयसार) ना कळश १७ मां आवे छे के -‘आत्मा एक छे तो पण व्यवहारद्रष्टिथी जोईए तो त्रण स्वभावपणाने लीधे अनेकाकाररूप (मेचक) छे, कारण के दर्शन, ज्ञान अने चारित्र -ए त्रण भावे परिणमे छे. जोयुं? दर्शन, ज्ञान, चारित्र ए त्रणेपणे परिणमे छे ए व्यवहारकथन छे. आ ज कळशना भावार्थमां खुलासो छे के शुद्ध द्रव्यार्थिकनये आत्मा एक छे. आ नयने प्रधान करी कहे त्यारे पर्यायार्थिकनय गौण थयो, तेथी एकने त्रणरूपे (दर्शन, ज्ञान, चारित्र एम त्रणरूपे) परिणमवो कहेवो ते सद्भूत व्यवहार छे; राग छे ते असद्भूत व्यवहार छे. (आत्मा रागरूपे परिणमे छे एम कहेवुं ते असद्भूत व्यवहार छे.)

अहा! परिणमननी त्रण निर्मळ दशाने व्यवहार कही, असत्यार्थ कही तो द्रव्यने निर्मळ पर्याय साथे लईने द्रष्टिनो विषय बनावे ए तो घणुं स्थूळ थइ गयुं (एवी मान्यता) विपरीत अने ऊंधी द्रष्टि छे. निश्चयनयनो विषय एक अंश छे, प्रमाण नथी. जे ‘एकरूप’ छे ते द्रव्यार्थिकनयनो विषय छे. एक वस्तुने द्रव्यार्थिकनये-निश्चयनयथी ज्यारे ‘एक’ कही त्यारे बीजो नय हजु बाकी रही गयो; केमके वस्तुनो बीजो अंश छे ने? तेने विषय करनार व्यवहारनय बाकी रही गयो, अन्यथा नय ज कहेवाय नहीं. त्रणपणे परिणमे छे ए पर्यायअंश व्यवहारनयनो विषय छे. आ व्यवहारनयना विषयने गौण करी, ते नथी, एम असत्यार्थ कहेल छे. वळी द्रव्यथी साथे पर्याय लेवी ए पण व्यवहार छे. बे थया माटे व्यवहार छे. बीजी रीते कहीए तो पर्याय सद्भूत व्यवहार छे, अने त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य निश्चय छे; बे मळीने प्रमाणनो विषय थई गयो अने प्रमाण पोते व्यवहारनयनो विषय छे, एम पंचाध्यायीमां लीधुं छे.

हवे अहीं कहे छे के ए सिद्ध भगवंतो, सिद्धपणाने लीधे-एटले सिद्ध-पूर्ण- दशा प्राप्त थई गई छे एने लीधे, साध्य जे आत्मा तेना प्रतिच्छंदना स्थाने छे. प्रतिच्छंद एटले पडघो. राणपुरमां राजानो नदीना कांठे पथ्थरनो ऊंचो महेल छे. तेमां (एक जगाथी) अवाज करे अने त्यांथी अवाज ऊठे. अवाज पाछो पडे. आने पडघो कहेवाय. तेम अहीं ‘हे सिद्ध?’ एम बोले त्यां अंदर सामो पडघो पण एवो पडे के ‘हे सिद्ध!’


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३६ [ समयसार प्रवचन

अथवा अहीं कहे के ‘हे भगवान! तमे तारजो.’ त्यां अंदरमां सामो प्रतिघोष थाय के ‘हे भगवान! तमे तारजो.’ आ रीते सिद्ध भगवंतो, सिद्धपणाने लीधे प्रतिच्छंदना स्थाने छे. सिद्ध भगवान नमूनो छे. (साध्यनो नमूनो छे). लोगस्समां आवे छे ने? ‘सिद्धा सिद्ध मम दिसतुं.’ एटले के हे सिद्ध भगवान! मने सिद्धपद दो. आम तेमना सिद्धोना स्वरूपनुं संसारी भव्य जीवो चिंतवन करीने, ते समान पोतानुं स्वरूप ध्यावीने-एटले के ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो, ’ एम पोतानुं स्वरूप जे शुद्ध चैतन्यघन, आनंदकंद एनुं ध्यान करीने पूर्णतानी प्राप्ति करे छे.

अहीं पर्यायनुं ध्यान करवानी वात नथी. अहीं तो मारुं द्रव्य ज सिद्ध स्वरूप छे, स्वभावथी शक्तिरूपे हुं सिद्ध ज छुं. नियमसारमां आवे छे ने? बधा संसारी जीवो (निश्चयनयना बळे) सिद्ध समान ज छे, अष्टगुणथी पुष्ट छे. आ स्वभावनी वात छे. द्रव्ये पोतानुं सिद्धस्वरूप छे एने ध्यावीने, पोताना त्रिकाळी स्वरूपनुं ध्यान करीने तेना जेवो थई जाय छे. अहा! निर्मळ पर्यायमां ध्यान कोनुं छे? द्रव्यनुं, के जे स्वरूपे पूर्ण, आनंदस्वरूप एकरूप छे, एने पर्याय विषय बनावीने ध्यान करे छे. परम अध्यात्मतरंगिणीमां त्रण ठेकाणे आवे छे के ‘ध्यान विषय कुरु’ -पर्यायमां द्रव्यने विषय बनाव. एनो अर्थ ए नथी के आ पर्याय छे ते द्रव्यमां वाळुं छुं, पण पर्याय द्रव्य तरफ वळी ए द्रव्यनुं ध्यान छे. सिद्धनुं ध्यान-एटले जेवो पोते सिद्ध समान स्वभावथी छे-तेनुं ध्यान करतां सिद्ध समान थई जाय छे; न थाय ए प्रश्न ज नथी. तेथी चारेय गतिथी विलक्षण एवी पंचमगति- मोक्षने पामे छे. बीजी गतिओ तो विकारवाळी छे, त्यांथी तो पाछुं आववुं पडे छे. पण आ मोक्षगति तो थई ए थई, ‘सादि अनंत अनंत समाधि सुखमां.’ सादि-अनंतकाळ सिद्धमां ज रहेशे. अहो! अमृतचंद्रे अमृतना नाथने अमृत गति प्राप्त कराववानी अद्भूत वात करी छे. अमृत रेलाव्यां छे! ‘रे गुणवंता ज्ञानी अमृत वरस्यां रे पंचम काळमां!!

केवी छे ते पंचमगति? ‘धुवमचलमणोवमं’. ध्रुवताथी प्रथम उपाडयुं छे. पर्याय अंदर ध्रुव स्वभावमांथी आवी छे ने? ध्रुवमांथी ध्रुव पर्याय-सिद्ध पर्याय थई छे. सिद्ध पर्यायने वंदन करवुं छे ने? ए पंचमगति-सिद्ध गति स्वभावरूप छे. जे आत्मानो स्वभावभाव छे एमांथी स्वभावभावपर्याय आवेली छे. सिद्ध भगवाननी निर्मळ पर्याय स्वभावभावरूप छे माटे ध्रुवपणाने अवलंबे छे-ध्रुवपणाने राखे छे. चार गतिओ पर निमित्तथी-कर्मना निमित्तथी थती होवाथी ध्रुव नथी, विनाशिक छे. चार गति विभावभावरूप विकारी अवस्था छे. आम ध्रुव विशेषणथी पंचमगतिमां विनाशिकतानो व्यवच्छेद थयो. जो के मोक्षनी पर्याय (सिद्ध पर्याय) पण नाशवान (उत्पाद-व्ययरूप) छे, छतां अहीं


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भाग-१ ] ३७

मोक्षनी पर्याय एवी ने एवी रहेवानी छे, ए अपेक्षाए विनाशिक नथी एम कह्युं छे. सिद्धगतिनुं परिणमन भले हो, पण एवुं ने एवुं रहे छे माटे तेने विनाशिकता रहित (ध्रुव) कहेवाय छे.

वळी ते केवी छे? अचळ छे. सिद्धगति अचळ छे. अचळ स्वभावमांथी आवी छे माटे अचळ छे. सिद्धदशा एक वखत थई पछी तेमां फेरफार थतो नथी. अनादिकाळथी पर भावना निमित्तथी थतुं जे परमां भ्रमण तेनी विश्रांतिवश अचळपणाने पामी छे. आ विशेषणथी चारेय गतिओने परना निमित्तथी जे भ्रमण थाय छे तेनो पंचमगतिमां व्यवच्छेद थयो. जेवो स्वभाव अचळ छे तेवी ज सिद्धगति अचळ थई छे, एटले फरती नथी.

वळी ते केवी छे? अनुपम छे. अहाहा...! सिद्धगति, एनी शी वात! समस्त उपमायोग्य पदार्थो तेमनाथी विलक्षण, अद्भुत माहात्म्यवाळी होवाथी तेने कोईनी उपमा मळी शकती नथी. सिद्धने उपमा सिद्धनी. सिद्धनी, बीजानी साथे उपमा थई शकती नथी अहाहा...! एक समयमां जेने अनंत अतीन्द्रिय आनंद, अनंत केवळज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत स्वच्छता, अनंत प्रभुता... एने कोनी उपमा आपवी? आ विशेषणथी चारेय गतिओमां जे परस्पर समानपणुं मळी आवे छे तेनो पंचमगतिमां व्यवच्छेद थयो. मोटा चक्रवर्तीने स्वर्ग जेवुं सुख छे एम उपमाथी कहेवाय, पण पंचमगतिने कोई उपमा आपी शकाय एम नथी.

वळी ते केवी छे? अपवर्ग तेनुं नाम छे. सिद्धगतिनुं नाम अपवर्ग छे. धर्म, अर्थ, अने कामथी भिन्न छे. ए त्रिवर्गमां ए आवती नथी तेथी अपवर्ग छे. धर्म एटले पुण्य, अर्थ एटले लक्ष्मी, अने काम एटले विषयनी वासना -आ त्रिवर्ग छे. मोक्षगति आ वर्गमां नथी.

ल्यो, आ सिद्ध भगवानने वंदन करीने मांगळिक कर्युं. आवा सिद्ध भगवान छे एम ज्ञान करीने तेमने वंदन कर्युं, तेमनो आदर कर्यो. ओघे ओघे ‘णमो सिद्धाणं’ कहे एम नहीं एम अहीं कहे छे. आखा संसारनो-चोराशीना अवतारनो अभाव थईने सिद्ध गति उत्पन्न थई छे, भाई. ए व्यय विनानो उत्पाद थयो छे. प्रवचनसारमां आवे छे के सिद्ध भगवानने संसारनो जे व्यय थयो छे ते उत्पाद विनानो व्यय छे. संसारनो जे नाश थयो ते हवे उत्पन्न नहीं थाय. अहा! सिद्धगति जे उत्पन्न थइ छे ते व्यय विनानी उत्पन्न थइ छे. आवा सिद्धनी वंदना करी छे.


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३८ [ समयसार प्रवचन

आम सिद्धोने पोताना आत्मामां तथा परना आत्मामां स्थापीने समयनो (सर्व पदार्थोनो अथवा जीव पदार्थनो) प्रकाशक प्राभृत नामनो अर्हत्-प्रवचननो अवयव-अंश, तेनुं हुं परिभाषण करुं छुं आ समय प्राभृत ए सर्व पदार्थोनो वा जीव पदार्थनो प्रकाशक छे अने ते अर्हत् प्रवचननो अंश कहेतां भगवान श्री अरिहंतना श्रीमुखेथी नीकळेली दिव्यध्वनि -वाणी-प्रवचन एनो एक अंश छे. तेनुं, अनादिकाळथी उत्पन्न थयेल मारा अने परना मोहना नाश माटे परिभाषण करुं छुं. अहीं आचार्यश्री-मारामां (पोतामां) पण चारित्रमोहनी जे अल्प अस्थिरता छे तेनो तथा पर जीवोमां जे मिथ्यात्व-रागादि छे तेनो नाश करवानी वात करे छे मारे पण हजी अल्प मोह छे एम कहे छे. अमृतचंद्राचार्ये त्रीजा कळशमां कह्युं हतुं ने के आ टीका करतां मारा मोहनो नाश थशे. तेओश्रीनी ज आ टीका छे ने?! कहे छे के मारा अने परना मोहना नाश माटे परिभाषण करुं छुं, एटले के व्याख्या करुं छुं.

आ समयसार छे ए अर्हत्-प्रवचननो अवयव एटले अंश छे. केवो छे ते अवयव? अनादिनिधन परमागम शब्दब्रह्मथी प्रकाशित छे, सर्व पदार्थोना समूहने साक्षात् करनार केवळी भगवान सर्वज्ञथी प्रणीत छे. आम कहीने आ समयसारनी प्रामाणिकता सिद्ध करे छे. समयसार बन्युं छे केम? अनादि परमागम छे एमांथी बन्युं छे, अने सर्वज्ञ भगवाने ते कह्युं छे-प्रणीत कर्युं छे, अने केवळीओना निकटवर्ती साक्षात् (सीधा) सांभळनार, तेम ज पोते अनुभव करनार-एटले के सांभळीने आनंद स्वरूप आत्मानो अनुभव करनार एवा श्रुतकेवळी गणधरदेवोए कहेलुं होवाथी प्रमाणताने पामेल छे. अन्यवादीओना आगमनी जेम अल्पज्ञानीनी कल्पनामात्र नथी. अन्यवादीओए एटले जैन परमेश्वर सिवाय बीजाओए आगम बनाव्यां छे एम आ नथी. आ तो अनादि अनंत शब्दब्रह्म, सर्वज्ञकथित अने श्रुतकेवळीओ तथा साक्षात् सांभळनार अने अनुभव करनार एमणे कहेलुं छे तेथी प्रमाण छे. बीजाओनां आगम तो कल्पित छे. श्वेतांबरोए पण कल्पित आगम बनाव्यां छे छद्मस्थ अल्पज्ञानीनी कल्पनामात्र होय एवा आ आगम नथी अल्पज्ञानीओनां कल्पनामात्र आगमो छे ते बधां अप्रमाण छे.

*भावार्थ उपरनुं प्रवचन*

गाथासूत्रमां आचार्ये ‘वक्ष्यामि’ कह्युं छे. तेनो अर्थ टीकाकारे ‘वच परिभाषणे’ धातुथी परिभाषण कर्यो छे. संस्कृत टीकामां छेल्ला शब्दो छेः ‘भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते’– एनो आशय आ प्रमाणे सूचित थाय छेः चौद पूर्वमां ज्ञानप्रवाद नामना पूर्वमां बार वस्तु अधिकार छे; तेमां पण एक एकना वीश वीश ‘प्राभृत’


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भाग-१ ] ३९

अधिकार छे. तेमां दशमा वस्तुमां समय नामनुं जे प्राभृत छे तेनां मूळ सूत्रोना शब्दोनुं ज्ञान तो पहेलां मोटा आचार्योने हतुं, अने तेना अर्थनुं ज्ञान आचार्योनी परिपाटी अनुसार श्री कुंदकुंदाचार्यने पण हतुं. तेमणे समयप्राभृतनुं परिभाषण कर्युं- परिभाषा सूत्र बांध्युं. सूत्रनी दश जातिओ कहेवामां आवी छे, तेमां एक परिभाषा जाति पण छे. अधिकारने जे यथास्थानमां अर्थ द्वारा सूचवे ते परिभाषा छे. श्री कुंदकुंदाचार्य समयप्राभृतनुं परिभाषण करे छे एटले समयप्राभृतना अर्थने ज यथास्थानमां जणावनारुं परिभाषासूत्र रचे छे. एटले ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे त्यां ते प्रमाणे शास्त्रनी रचना करे छे. अहाहा! श्रुतकेवळीओए जे कहेलुं तेना अर्थनुं ज्ञान श्री कुंदकुंदाचार्यने हतुं.

आचार्ये मंगळ अर्थे सिद्धने नमस्कार कर्या छे. संसारीने शुद्ध आत्मा साध्य छे अने सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा छे. जे ज्ञायकभाव छे ते एकलो ज आश्रय करवा लायक छे-ध्येयमां लेवा लायक छे. पण अहीं तो सिद्ध भगवान लीधा छे. सिद्ध भगवानने पर्यायमां पण शुद्धता प्रगट थई छे. वस्तु तरीके आत्मद्रव्य स्वभावे शुद्ध, शुद्ध छे. अहीं शुद्ध आत्मानुं स्वरूप कहेवानुं प्रयोजन छे, ध्रुव स्वरूप, शुद्धचैतन्य कहेवानुं प्रयोजन छे. तेथी तेने नमस्कार करवो उचित छे. कोई ईष्टदेवनुं नाम लईने नमस्कार केम न कर्यो तेनी चर्चा टीकाकारना मंगळ पर (प्रथम कळशमां) करेली छे ते अहीं पण जाणवी.

सिद्धोने सर्व एवुं विशेषण आप्युं तेथी ते अनंत छे एवो अभिप्राय बताव्यो. ए रीते ‘शुद्ध आत्मा एक ज छे’ एम कहेनार अन्यमतीओनो व्यवच्छेद कर्यो. वेदान्त एक सर्वव्यापक आत्मा माने छे, पण एम छे नहीं. अनंत अनंत आत्माओ छे एम कही वेदान्तीओनो व्यवच्छेद कर्यो.

श्रुतकेवळी शब्दनो अर्थः श्रुतने अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम -शब्दब्रह्म कह्युं अने केवळी शब्दना बे अर्थ कर्या (१) सर्वज्ञ (२) परमागमने जाणनार श्रुतकेवळी. श्रीमद् कुंदकुंदाचार्यदेव एम कहे छे के अमे तो सर्वज्ञ परमेश्वर अने श्रुतकेवळीओए कहेलुं, जे अनादिनिधन परमागम-तेनुं परिभाषण करीए छीए; अमे अमारा घरनुं कल्पित कांई कहेता नथी. तेथी आ ग्रंथ प्रमाण छे.

हवे आ ग्रंथनुं अभिधेय शुं? ध्येय शुं छे? शब्दोनो संबंध एनी साथे शुं छे? ध्येय आत्मा वाच्य, वाचक एना शब्दो अने प्रयोजन शुद्धात्माना स्वरूपनी प्राप्ति थवी ए तो प्रगट छे.

शुद्धात्मानुं स्वरूप अभिधेय छे. अखंड आनंद, चैतन्य, ध्रुव, प्रभु परमात्मस्वरूप ए ध्येय बताववानुं प्रयोजन छे. जाणे छे पर्याय ध्येय त्रिकाळी शुद्ध आत्मा छे.


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४० [ समयसार प्रवचन

त्रिकाळशुद्ध, ध्रुवस्वरूप, एकरूप त्रिकाळ जेम पर्यायनो भेद पण नथी एवा शुद्धात्मानुं स्वरूप अभिधेय छे. छठ्ठी गाथामां कहेशे के ज्ञायकभाव प्रमत्त पण नथी, अप्रमत्त पण नथी. ए रीते एने शुद्ध कहीए छीए. तेना वाचक आ ग्रंथना (समयसार शास्त्रना) शब्दो छे, अने वाच्य शुद्ध आत्मा छे.

ध्येय एटले पकडवा लायक, आश्रय करवा लायक, अनुकरण करवा लायक, अनुसरण करवा लायक-जे ध्रुव छे ते. आम अनंत केवळीओए कह्युं छे. तेना वाचक ग्रंथना शब्दो छे. छे ने? शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ते ध्येय छे-अभिधेय छे. द्रष्टिमां लेवा योग्य शुद्ध आत्मा ध्रुव छे. ते सम्यक्दर्शननो विषय छे. सम्यक्दर्शननी पर्यायनो विषय आ छे. बीजी रीते कहीए तो पर्याय व्यवहार छे, तेनो विषय निश्चय छे. शुं कह्युं? पर्याय छे ए व्यवहार छे, एनो विषय त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छे. चिद्दविलासमां आवे छे ने, के ‘नित्यने अनित्य जाणे छे.’ एटले के क्षणिक पर्याय ते ध्रुवने जाणे छे. वस्तु अनादिथी आवी छे. द्रव्य अने निर्मळ पर्याय बे थतां निश्चयनयनो विषय न रह्यो, व्यवहारनयनो विषय थई गयो. खरेखर व्यवहारनो (पर्यायनो) विषय निश्चय (द्रव्य) जोईए. पर्याय छे ए व्यवहार छे, भेद छे. एनो विषय त्रिकाळी ध्रुव ए निश्चय छे. आ अभिधेयने ज्यारे पर्याय जाणे छे त्यारे अभिधेय थाय छे. (त्यारे आ ध्रुव आत्मा छे एम जाण्युं अने मान्युं.)

ध्रुव द्रव्य जे ध्येय तेने ज्ञाननी पर्याय जाणे छे, श्रद्धानी पर्याय ध्रुवने ध्येय बनावीने श्रद्धे छे. त्यारे कहे छे के पर्याय जे भेद अने व्यवहार छे ते अभेदने जाणे छे. वाणी बधुं बतावे छे. वाणी बतावे छे के ज्ञाननी पर्याय छे ते जाणे छे. आ तो अनादि सनातन सत्य छे. ध्येय तो ध्येय छे, पण ज्यारे पर्याय धेयने जाणे छे, तेने ध्येय बनावे छे, त्यारे ध्येय खरेखर थयुं कहेवाय. अभिधेय एटले शुं? के शुद्ध आत्मा. शास्त्रे कह्युं के अभिधेय शुद्ध आत्मा ध्रुव छे. पण कोने? जे जाणे एने.

आत्मा तो निश्चयथी परमात्मस्वरूपे बिराजमान नित्य ध्रुव पोते छे. तेने आचार्य भगवाने छठ्ठी गाथामां ज्ञायक कह्यो अने ११ मी गाथामां भूतार्थ कह्यो छे. भूतार्थ ने जाणे छे पर्याय, पण ए पर्याय द्रव्यमां नथी. अहा! पर्याय पर्यायनी छे. पर्यायने द्रव्यनी कहेवी ए तो परथी भिन्न पाडवा माटे छे. उत्पाद, व्यय, ध्रुव त्रणेय सत् छे. पर्याय कोनी छे एम भेद पाडीने समजाववुं होय त्यारे द्रव्यनी कहेवाय. निरपेक्षथी कहेवुं होय तो पर्याय पर्यायनी छे, अने द्रव्य द्रव्यनुं छे.

आ ग्रंथमां अभिधेय, संबंध, प्रयोजन प्रगट ज छे. शुद्धात्मानुं स्वरूप ते अभिधेय छे ए प्रगट छे, गुप्त नथी. भगवान नित्यानंद प्रभु वाच्य छे अने शब्दो वाचक छे,


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भाग-१ ] ४१

समयसार (शास्त्र) वाचक छे अने एनुं वाच्य जे शुद्धात्मा तेने शब्दो बतावे छे. जेम साकर पदार्थ वाच्य छे अने साकर शब्द वाचक छे. वाचक-वाच्यनो अर्थ निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे. भगवान आत्मा ध्रुव वाच्य छे-कहेवा लायक छे अने समयसारना शब्दो वाचक छे. बीजी रीते कहीए तो वाचक शब्दो वडे कहेलो जे आत्मा तेनुं ज्ञान जेने थाय ते ज्ञाननी पर्याय अभिधेयने जाणे छे. श्रुत जेम अभेद ध्येयने बतावे छे. एम ज्ञाननी पर्याय छे ए अभेद अभिधेयने जाणे छे. आ तो भगवाननो अलौकिक मार्ग छे, भाई. समयसार कळश २०० मां आवे छे के परद्रव्य अने आत्माने कांईपण संबंध नथी; तो कर्ता-कर्म संबंध कई रीते होय? हवे अहीं कहे छे के वाचक-वाच्यनो संबंध छे. ए व्यवहारथी छे. एटले के ग्रंथना शब्दो अने शुद्धात्माने वाचक-वाच्य संबंध कह्यो ते निमित्त -नैमित्तिक संबंध छे अने ते व्यवहार छे, निश्चयथी कोई संबंध नथी.

आ तो अनादि परमागम-शब्दब्रह्मथी अने भगवान केवळीनी वाणीथी प्रमाणित वात छे. भाई, आगम अनादि छे, हां. ए कांई नवुं नथी. ए परमागमना शब्दोनी शैली अनादि छे. कह्युं छे ने, के ‘सिद्धो वर्णसमाम्नायः’ आ वाणीनी कोई रचना करे छे एम नथी. वाणीमां पुद्गलनी पर्यायनी रचना अनादि छे. भगवान सर्वज्ञ परमेश्वरनी वाणी जे छे ए वाणीनी रचना तो वाणीना कारणे छे, केवळीए वाणीनी रचना नथी करी. दिव्यध्वनिनी रचना थई एमां केवळी निमित्त छे, तेथी निमित्तथी एम कह्युं के केवळीनुं कहेलुं छे. आवो निमित्तनैमित्तिक संबंध ए व्यवहार छे.

तीर्थंकरो श्रुतथी उपदेश आपे छे-एवो धवलमां पाठ छे. भगवान श्रुतज्ञानथी कहे छे. भगवाननी वाणी (दिव्य ध्वनि) छे ते श्रुतज्ञानथी कहे छे. केमके सांभळनारने (तेना निमित्ते) श्रुतज्ञान थाय छे, तेथी श्रुतज्ञानथी कहे छे एम कहेवामां आव्युं छे. भगवानने श्रुतज्ञान छे एम नथी, भगवानने तो केवळज्ञान छे. आशय एवो छे के सांभळनारने भावश्रुतज्ञान थाय छे-भले थाय छे पोताथी, पण वाणी निमित्त छे एथी ए पण श्रुत कहेवामां आवी छे. अनादि परमागम छे तेने द्रव्यश्रुत कहे छे. गणधरो सूत्रनी रचना करे छे, तथा भव्य जीवोने श्रुतज्ञान प्रगट थाय छे तेमां केवळीनी वाणी-दिव्यध्वनि निमित्त छे तेथी ते वाणीने पण श्रुत कहेवामां आवी छे.

शुद्ध आत्मानी प्राप्ति थवी ए प्रयोजन छे. एटले जे शुद्ध, ध्रुव आत्मा छे तेनो पर्यायमां अनुभव थाय ए प्रयोजन छे. वस्तु पोते जे छे-जीवती ज्योत तेने ज्ञानमां


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४२ [ समयसार प्रवचन

कबूलवी ए प्रयोजन छे. जेवो आत्मा छे एवो कबूल्यो, त्यारे जीवती ज्योतने जीवती राखी-के आवो हुं शुद्ध, ध्रुव, चैतन्यज्योति छुं. आत्माना स्वरूपने आ सिवाय बीजी रीते माने एणे शुद्ध आत्मानुं (मान्यतामां) मृत्यु कर्युं छे. तेथी वस्तुनुं स्वरूप जेवुं छे तेवुं यथार्थ मानवुं अने अनुभववुं ए वास्तविक प्रयोजन छे.


ॐ ॐ ॐ

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जीव–अजीव अधिकार

गाथा–२

तत्र तावत्समय एवामिघीयते–

जीवो चरित्तदंसणणाणठिदो तं हि ससमयं जाण।
पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण
परसमयं।। २।।

प्रथम गाथामां समयनुं प्राभृत कहेवानी प्रतिज्ञा करी. त्यां ए आकांक्षा थाय के समय एटले शुं? तेथी हवे पहेलां समयने ज कहे छेः-

जीव चरित–दर्शन–ज्ञानस्थित स्वसमय निश्चय जाणवो;
स्थित कर्मपुद्गलना
प्रदेशे परसमय जीव जाणवो. २

गाथार्थः– हे भव्य! [जीव] जे जीव [चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः] दर्शन-ज्ञान- चारित्रमां स्थित थइ रह्यो छे [तं] तेने [हि] निश्चयथी [स्वसमयं] स्वसमय [जानीहि] जाण; [च] अने जे जीव [पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं] पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित थयेल छे [तं] तेने [परसमयं] परसमय [जानीहि] जाण.

टीकाः– ‘समय’ शब्दनो अर्थ आ प्रमाणे छेः ‘सम’ तो उपसर्ग छे, तेनो अर्थ ‘एकपणुं’ एवो छे; अने ‘अय् गतौ’ धातु छे एनो गमन अर्थ पण छे अने ज्ञान अर्थ पण छे; तेथी एकसाथे ज (युगपद) जाणवुं तथा परिणमन करवुं ए बे क्रियाओ जे एकत्वपूर्वक करे ते समय छे. आ जीव नामनो पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ज वखते परिणमे पण छे अने जाणे पण छे तेथी ते समय छे. आ जीव-पदार्थ केवो छे? सदाय परिणामस्वरूप स्वभावमां रहेलो होवाथी, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यनी एकतारूप अनुभूति जेनुं लक्षण छे एवी सत्ताथी सहितछे. आ विशेषणथी, जीवनी सत्ता नहि माननार नास्तिकवादीओनो मत खंडित थयो तथा पुरुषने (जीवने) अपरिणामी माननार सांख्यवादीओनो व्यवच्छेद, परिणमनस्वभाव कहेवाथी, थयो. नैयायिको अने वैशेषिको सत्ताने नित्य ज माने


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छे अने बौद्धो सत्ताने क्षणिक ज माने छे; तेमनुं निराकरण, सत्ताने उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यरूप कहेवाथी थयुं. वळी जीव केवो छे? चैतन्यस्वरूपपणाथी नित्यउद्योतरूप निर्मळ स्पष्ट दर्शन-ज्ञान-ज्योतिस्वरूप छे (कारण के चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप छे). आ विशेषणथी, चैतन्यने ज्ञानाकारस्वरूप नहि माननार सांख्यमतीओनुं निराकरण थयुं. वळी ते केवो छे? अनंत धर्मोमां रहेलुं जे एकधर्मीपणुं तेने लीधे जेने द्रव्यपणुं प्रगट छे (कारण के अनंत धर्मोनी एकता ते द्रव्यपणुं छे). आ विशेषणथी, वस्तुने धर्मोथी रहित माननार बौद्धमतीनो निषेध थयो. वळी ते केवो छे? क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अने भावो जेनो स्वभाव होवाथी जेणे गुणपर्यायो अंगीकार कर्या छे. (पर्याय क्रमवर्ती होय छे अने गुण सहवर्ती होय छे; सहवर्तीने अक्रमवर्ती पण कहे छे.) आ विशेषणथी, पुरुषने निर्गुण माननार सांख्यमतीओनो निरास थयो. वळी ते केवो छे? पोताना अने परद्रव्योना आकारोने प्रकाशवानुं सामर्थ्य होवाथी जेणे समस्त रूपने प्रकाशनारुं एकरूपपणुं प्राप्त कर्युं छे (अर्थात् जेमां अनेक वस्तुओना आकार प्रतिभासे छे एवा एक ज्ञानना आकाररूप ते छे). आ विशेषणथी, ज्ञान पोताने ज जाणे छे परने नथी जाणतुं एम एकाकार ज माननारनो, तथा पोताने नथी जाणतुं पण परने जाणे छे एम अनेकाकार ज माननारनो, व्यवच्छेद थयो. वळी ते केवो छे? अन्य द्रव्योना जे विशिष्ट गुणो- अवगाहन-गति-स्थिति-वर्तनाहेतुपणुं अने रूपीपणुं-तेमना अभावने लीधे अने असाधारण चैतन्यरूपता-स्वभावना सद्भावने लीधे आकाश, धर्म, अधर्म, काळ अने पुद्गल-ए पांच द्रव्योथी जे भिन्न छे. आ विशेषणथी, एक ब्रह्मवस्तुने ज माननारनो व्यवच्छेद थयो. वळी ते केवो छे? अनंत अन्यद्रव्यो साथे अत्यंत एकक्षेत्रावगाहरूप होवा छतां पण पोताना स्वरूपथी नहि छूटवाथी जे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप छे. आ विशेषणथी वस्तुस्वभावनो नियम बताव्यो. -आवो जीव नामनो पदार्थ समय छे.

ज्यारे आ (जीव), सर्व पदार्थोमां स्वभावने प्रकाशवामां समर्थ एवा केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योतिनो उदय थवाथी, सर्व परद्रव्योथी छूटी दर्शनज्ञानस्वभावमां नियत वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्व साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे त्यारे दर्शनज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी युगपद् स्वने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा स्व-रूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘स्वसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे; पण ज्यारे ते, अनादि अविद्यारूपी जे केळ तेना मूळनी गांठ जेवो जे (पुष्ट थयेलो) मोह तेना उदय अनुसार प्रवृत्तिना आधीनपणाथी, दर्शनज्ञानस्वभावमां नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वथी छूटी परद्रव्यना निमित्तथी उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भावो साथे एकत्वगतपणे (एकपणुं मानीने) वर्ते छे त्यारे पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित होवाथी युगपद् परने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा


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पररूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘परसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे. आ रीते जीव नामना पदार्थने स्वसमय अने परसमय- एवुं द्विविधपणुं प्रगट थाय छे.

भावार्थः– जीव नामनी वस्तुने पदार्थ कहेल छे. ‘जीव’ एवो अक्षरोनो समूह ते ‘पद’ छे अने ते पदथी जे द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतस्वरूपपणुं निश्चित करवामां आवे ते पदार्थ छे. ए जीवपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप छे, दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप छे, अनंतधर्मस्वरूप द्रव्य छे, द्रव्य होवाथी वस्तु छे, गुणपर्यायवाळो छे, तेनुं स्वपरप्रकाशकज्ञान अनेकाकाररूप एक छे, वळी ते (जीवपदार्थ) आकाशादिथी भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप छे अने अन्य द्रव्यो साथे एक क्षेत्रमां रहेवा छतां पोताना स्वरूपने छोडतो नथी. आवो जीव नामनो पदार्थ समय छे. ज्यारे ते पोताना स्वभावमां स्थित होय त्यारे तो स्वसमय छे अने परस्वभाव-रागद्वेषमोहरूप थईने रहे त्यारे परसमय छे. ए प्रमाणे जीवने द्विविधपणुं आवे छे.

प्रथम गाथामां समयनुं प्राभृत कहेवानी प्रतिज्ञा करी, एटले के समयनो सार कहेवानी प्रतिज्ञा करी. त्यां ए आकांक्षा थाय के समय एटले शुं? तेथी हवे पहेलां समयने ज कहे छे. दरेक पदार्थनुं स्वरूप ज समय छे, अर्थात् दरेक पदार्थ पोताना गुण-पर्यायोने प्राप्त थई परिणमन करे छे तेथी तेने ‘समय’ कहेवामां आवे छे. ‘समय’ शब्दनो बीजो अर्थः एकी साथे जाणवुं अने परिणमन करवुं एवी बे क्रियाओ जेमां होय तेने समय कहे छे. आ रीते बधा आत्माओ समय छे. आ बीजी गाथामां जे शुद्ध आत्माने जाणे अने ए रूपे परिणमे तेने स्वसमय जाणवो एम विशेषपणे कहे छे.

प्रवचन नंबर ६–८, तारीख ४–१२–७प थी ६–१२–७प

*गाथार्थ उपरनुं प्रवचन*

छेल्लो शब्द ‘जाण’ छे ने? आचार्य कहे छे के ‘जाण’ आज्ञावाचक शब्द छे. एटले आचार्य भगवान आज्ञा करे छे के हे भव्य! जे जीव दर्शन -ज्ञान-चारित्रमां स्थित छे तेने निश्चयथी स्वसमय जाण. भाषा तो जुओ! खरेखर तो दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि पर्यायो आत्मामां स्थिर-एकाग्र थाय छे एने ठेकाणे अहीं तो दर्शन- ज्ञान-चारित्रमां जे आत्मा स्थित छे तेने स्वसमय जाण एम कह्युं. एटले के आत्मा अनादिथी जे रागमां अने निमित्तमां स्थित हतो ते ज आत्मा अंदर द्रव्यना लक्षे एना जेवी जे (ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि) पर्याय प्रगट थइ एमां स्थित थयो तेने स्वसमय जाण एम कह्युं. रागमां नहीं, पण ध्येयना लक्षे ज्ञान, श्रद्धा, चारित्र प्रगट थयां एमां रहे ते स्वसमय छे. छहढाळामां आवे छे ने? के- ‘पर द्रव्यनतै भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भला है’ आत्मरुचि


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कही छे ने? ए रुचिमां आत्मा जणायो एटले आत्मा रुचि अने ज्ञानमां स्थित थयो एवी शैलीथी वात करी छे.

जीव एटले भगवान आत्मा जे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित थई रह्यो छे एने स्वसमय कहेवामां आवे छे. आचार्य भगवान पोते मुनि छे ने? एटले ‘चारित्र-दर्शन-ज्ञानस्थित’ एवा शब्दनो प्रयोग कर्यो छे. त्रिकाळी जे छे ते सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रनी पर्यायमां ख्यालमां आव्यो एटले एमां ए स्थित छे एम कही एवा जीवने स्वसमय कह्यो. एनो अर्थ के जे अनादिथी रागमां स्थित हतो ते आत्मामां स्थित थयो.

अहो! समयसारनी एक कडी तेना भाव सहित यथार्थ समजे तो कल्याण थाय एवुं छे.

‘जीव’ शब्द केम वापर्यो? केटलाक कहे छे के आत्मा तो तद्न शुद्ध छे अने जीव अशुद्ध छे, पण एम नथी एवुं सिद्ध करवा जीव शब्द वापर्यो छे. जीव कहो के आत्मा, बन्ने एक ज चीज छे.

अहीं बीजी गाथामां ‘जीवो चरित्तदंसणणाणठिदो’ त्यांथी उपाडयुं छे, अने छेल्ले ज्यां ४७ शक्तिओनुं वर्णन छे त्यां जीवत्व शक्तिथी शरूआत करी छे. आत्मामां एक जीवत्व शक्ति छे जेने लईने आत्मा ज्ञान, दर्शन, आनंद अने सत्ता एवा भाव-प्राणने धारण करे छे-एनाथी टके छे. जीव कहेतां जीवतुं द्रव्य जीवत्व स्वभावथी जीवे छे. अहीं एम कहे छे के-हे भव्य! जे जीव दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित थई रह्यो छे, एटले जे (जीव) ज्ञानमां जणाय छे, श्रद्धामां निर्णीत थाय छे, स्थिरतामां आवे छे तेने निश्चयथी स्वसमय जाण. कुंदकुंदाचार्य पोकारीने कहे छे के हे भाई! जे आत्मा पोतानी श्रद्धामां श्रद्धायो, ज्ञानमां जणायो अने चारित्रमां ठर्यो एने तुं स्वसमय जाण. जीवने ध्येय (द्रष्टिमां लेवा योग्य) तो द्रव्य छे ए वात अहीं नथी. अहीं तो जे आत्मा पोताना स्वरूपे परिणमे छे एने स्वसमय कह्यो छे. जे आत्मा पोतानी शुद्ध परिणतिमां आवे छे एने स्वसमय कह्यो छे. आत्मा जे विकाररूपे हतो ते ज्यारे शुद्ध परिणतिए परिणमे त्यारे ते स्वसमय छे, त्यारे आत्मा आत्मारूपे थयो एम कहेवाय. अलबत, आवा आत्माने ध्येय तो त्रिकाळी द्रव्य ज छे. नियमसारमां आवे छे के-सर्वकर्मना क्षयनो हेतु एवो जे मोक्षमार्ग-सम्यक्दर्शन- ज्ञान-चारित्र-जेने अहीं स्वसमय परिणति कही एनो हेतु त्रिकाळ परमात्मा छे.

‘अने जे जीव पुद्गलकर्मना प्रदेशमां स्थित थयेल छे तेने पर समय जाण.’ जे जीव रागमां स्थित छे ए पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित छे, ते भगवान आत्माना श्रद्धा-


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ज्ञान-चारित्रमां स्थित नथी. राग-द्वेष आदि विकारना जेटला अंशो छे ए बधा पुद्गलकर्मना प्रदेशो छे, आत्मानो भाव नथी. तेथी एने परसमय-अनात्मा जाण.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

‘समय’ शब्दनो अर्थ आ प्रमाणे छे. ‘सम्’-उपसर्ग छे तेनो अर्थ ‘एकसाथे’ एवो छे; अने ‘अय’ गमनार्थक धातु छे एनो गमन अर्थ छे अने ज्ञान अर्थ पण छे. तेथी एकसाथे जाणवुं अने परिणमवुं एवी बे क्रियाओ जेमां होय ते समय कहेवामां आवे छे. आ जीव नामनो पदार्थ एक ज वखते परिणमे पण छे अने जाणे पण छे तेथी ते समय छे. जीव जे सम्यक्दर्शननो विषय त्रिकाळी शुद्ध आत्मा ते वात अहीं नथी. अही तो जीवनी सत्ता-होवापणुं सिद्ध करे छे.

आ जीव पदार्थ केवो छे? ‘सदाय परिणमनस्वरूप स्वभावमां रहेलो होवाथी, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यनी एकतारूप अनुभूति जेनुं लक्षण छे एवी सत्ताथी सहित छे.’ अहीं अनुभूतिनो अर्थ अनुभव एम नथी. अनुभूतिनो अर्थ रहेवुं एम थाय छे. उत्पाद-व्यय-ध्रुवपणे रहेवुं एवो अनुभूतिनो अर्थ छे. अनुभूति एटले सम्यग्ज्ञान ए वात अहीं नथी. जड पण उत्पाद-व्यय-ध्रुवपणे रहे छे तेने जडनी अनुभूति कहे छे. जड पण एक समयमां टकीने परिणमे छे तेथी ते सत् छे, सत्ता सहित छे. पण एक समयमां परिणमे अने जाणे एवी विशेषता जडमां नथी. अहीं तो जीवनी सत्तानुं वर्णन छे.

‘उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत्’ सूत्र छे ने. (तत्त्वार्थसूत्र) आत्मा पण उत्पाद- व्यय-ध्रौव्य युक्तं सत्, एवी सत्ताथी सहित छे. उत्पाद, व्यय अने ध्रुव ए त्रणेयना एक समयमां होवापणारूप सत्ता छे. सम्यक्दर्शननो विषय शुं छे ते वात पछी करशे. अहीं तो जीवनी हयाती केवी रीते छे तेनी सिद्धि करी छे. उत्पाद एटले नवी पर्यायनुं थवुं, व्यय एटले जूनी पर्यायनुं जवुं अने ध्रुवपणे कायम रहेवुं एवी सत्तानी अहीं वात छे. जीव जे समये जाणे ते ज समये परिणमे एवी उत्पाद-व्यय- ध्रुवरूप सत्ता ए जीवनुं स्वरूप छे.

आ विशेषणथी जीवनी सत्ता नहीं माननार नास्तिकवादीओनो मत खंडित थयो. तथा पुरुषने अपरिणामी माननार सांख्योनो व्यवच्छेद थयो. जीव परिणमतो नथी, कूटस्थ छे एम माननारनो परिणमनस्वभाव कहेवाथी निषेध थयो. द्रव्यस्वभाव, ध्रुव अपरिणामी जे सम्यक्दर्शननो विषय छे ते वात अहीं नथी. अहीं तो परिणाम सहितनुं आखुं द्रव्य सिद्ध करवुं छे.


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नैयायिको अने वैशेषिको सत्ताने नित्य ज माने छे. बौद्धो सत्ताने क्षणिक ज माने छे. ए बधानुं अहीं निराकरण थयुं. उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप सत्ता कहेवाथी उत्पाद- व्ययरूप परिणमन न माने एनो निषेध थयो अने एकलुं क्षणिक ज माने एनो ‘ध्रुव’ कहेवाथी निषेध थयो. उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप सत्तानी अहीं सिद्धि करी छे. कई अपेक्षाथी कहेवाय छे ते ध्यानमां राखे तो आ समजाय एवुं छे. उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप सत्तानुं होवापणुं तेने अहीं अनुभूति कहेवामां आवी छे.

वळी जीव केवो छे? ‘चैतन्यस्वरूपपणाथी नित्य-उद्योतरूप निर्मळ स्पष्ट दर्शनज्ञान-ज्योतिस्वरूप छे.’ अहीं पण परिणमननी वात छे, त्रिकाळी ध्रुवनी वात नथी. अहीं चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप छे एम कह्युं छे. जडनुं परिणमन जडपणे छे अने चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानपणे छे एम सिद्ध कर्युं छे. आ दर्शन एटले सामान्य उपयोग अने ज्ञान एटले विशेष उपयोगनी वात छे. दर्शन एटले सम्यक्दर्शन नहीं, चैतन्यस्वरूपपणाथी पोते चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा छे ते नित्यउद्योतरूप निर्मळ स्पष्ट दर्शनज्ञान ज्योतिमय परिणमन स्वरूप छे. चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप छे. आ विशेषणथी चैतन्यने ज्ञानाकार-ज्ञानस्वरूप नहीं माननार सांख्यमतनुं निराकरण थयुं.

वळी ते केवो छे? ‘अनंत धर्मोमां रहेलुं जे एकधर्मीपणुं तेने लीधे जेने द्रव्यपणुं प्रगट छे. अनंत धर्मोनी एकता ते द्रव्यपणुं छे. अहीं तो बधा धर्मोनी वात छे, एकलो ध्रुव एम नहीं, पण उत्पाद, व्यय, ध्रुव आदि अनंत धर्मोथी तेने एकधर्मीपणुं प्रगट छे. सम्यक्दर्शननो विषय जे ध्रुव द्रव्य तेनी अहीं वात नथी. आ तो द्रव्यना अनंत धर्मोमां रहेलुं जे एकपणुं तेने लीधे द्रव्यपणुं जेने प्रगट छे ए द्रव्यनी वात छे. आ विशेषणथी वस्तुने धर्मोथी रहित माननार बौद्धमतनो निषेध थयो.

अहा! उत्पाद-व्यय-ध्रुवपणे आखो समय छे’ ते प्रमाणज्ञाननो विषय छे. सम्यक्दर्शननो विषय जे द्रव्य ते जुदी वस्तु छे. अहीं तो हजु आखी वस्तु सिद्ध करे छे.

वळी ते केवो छे? ‘क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनेक भावो जेनो स्वभाव होवाथी जेणे गुणपर्यायो अंगीकार कर्या छे.’ क्रमे प्रवर्ते ते पर्याय अने अक्रमे प्रवर्ते ते गुण छे. अहीं तो वस्तुने सिद्ध करवी छे. आखी चीज गुणो अने पर्यायो सहित छे. गुणो ते अक्रमवर्ती छे, एटले सहवर्ती छे; पर्यायो उत्पाद-व्ययरूप क्रमवर्ती छे; आवो ज स्वभाव छे. सम्यक्दर्शननो विषय जे द्रव्य एनी आ वात नथी. आ तो जीव द्रव्य आखी चीज छे ते गुणपर्यायो सहित छे एम नक्की करे छे. तेमांथी सम्यक्दर्शननो विषय जे ध्रुवसामान्य ते पछी सिद्ध करशे. आ विशेषणथी पुरुषने निर्गुण माननार सांख्यमतनो निरास थयो.


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वळी ते केवो छे? ‘पोताना अने पर द्रव्योना आकारोने प्रकाशवानुं सामर्थ्य होवाथी जेणे समस्त रूपने झळकावनारुं एकरूपपणुं प्राप्त कर्युं छे. अहा...! पोतानुं ज्ञान करे अने परद्रव्यना आकारनुं एटले परना स्वरूपनुं ज्ञान करे एवुं स्व-परने प्रकाशवानुं एनुं सामर्थ्य छे. त्रणकाळ त्रणलोकने जाणवानुं सामर्थ्य एक समयनी पर्यायनुं छे, छतां एकरूपपणे रहे छे; खंड खंड नथी थतुं एम कहे छे.

अहा! आचार्योए केटली करुणा करीने स्पष्ट कर्युं छे. साधारण जीवोने ख्यालमां आवे एवी शैलीथी स्पष्ट कर्युं छे. उत्पाद-व्ययरूप बधी पर्यायो क्रमसर थाय छे. अहीं तो वस्तुने सिद्ध करे छे एटले बधी पर्यायोनी वात छे. सम्यक्दर्शन कई रीते थाय ए वात अत्यारे नथी. अहीं तो वस्तुनी सिद्धि करे छे के सर्वज्ञ- परमात्माए जोयेलुं तत्त्व आवुं छे. ए सिवाय अन्यमतीओ गमे ते प्रकारे कहे तेनो अहीं निषेध करे छे. अन्यमतवाळा कहे एवुं वस्तुस्वरूप छे ज नहीं. पोताना अने परद्रव्योना आकार-स्वरूपने प्रकाशवानुं सामर्थ्य होवाथी समस्त रूपने प्रकाशनारुं एकपणुं जेणे प्राप्त कर्युं छे एवो जीव पदार्थ ते समय छे. त्रणकाळ, त्रणलोकने ज्ञाननी पर्याय जाणे छतां ज्ञान एक आकाररूप छे एम कहे छे. आ विशेषणथी ज्ञान पोताने ज जाणे छे, परने नथी जाणतुं एम एकाकार ज माननारनो तथा पोताने नथी जाणतुं पण परने जाणे छे एम अनेकाकार ज माननारनो व्यवच्छेद थयो.

वळी ते केवो छे? अन्य द्रव्योना जे विशेष गुणो-खास गुणो, जेमके आकाशनो अवगाहन हेतुत्व, धर्मास्तिकायनो गतिहेतुत्व, अधर्मास्तिकायनो स्थितिहेतुत्व, काळनो वर्तनाहेतुत्व अने पुद्गलनो रूपीपणुं-तेमना अभावने लीधे अने असाधारण चैतन्यरूपता-स्वभावना सद्भावने लीधे आकाश, धर्म, अधर्म, काळ अने पुद्गल ए पांच द्रव्योथी जे भिन्न छे. अन्य द्रव्यना जे खास गुणो एनो आत्मामां अभाव होवाने लीधे अने असाधारण चैतन्यस्वभावना सद्भावने लीधे आकाश आदि पांच द्रव्योथी जीव भिन्न छे. आ विशेषणथी एक ब्रह्मवस्तुने ज माननारनो व्यवच्छेद थयो.

वळी ते केवो छे? अनंत अन्य द्रव्योना क्षेत्रथी भिन्न छे. ‘अनंत अन्य द्रव्यो साथे अत्यंत एकक्षेत्रावगाहरूप होवा छतां पण पोताना स्वरूपथी नहि छूटवाथी जे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप छे.’ ज्यां आत्मा छे त्यां अनंत परमाणु, आकाश, काळ, धर्म, अधर्म बधुं छे. आवो अत्यंत एकक्षेत्रावगाह होवा छतां जीव पोताना स्वरूपथी छूटतो नथी, चैतन्यस्वरूप ज पोते रहे छे. गुण अने पर्यायपणे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभाव ज रहे छे. आ विशेषणथी वस्तुस्वभावनो नियम बताव्यो. जीव अन्य द्रव्यो साथे एक ज क्षेत्रमां


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मळीने रहेवा छतां पोताना क्षेत्रथी भिन्नपणे रही पोताना चैतन्यस्वभावरूप ज रहे छे, स्वरूपथी कदीय छूटतो नथी. आवो ज वस्तुस्वभाव छे.

आम सात बोलथी जे कहेवामां आव्यो एवो जीव नामनो पदार्थ ते समय छे. सात बोलथी समय सिद्ध कर्यो छे.

-उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त सत्ताथी सहित छे. -दर्शनज्ञानस्वरूप परिणमन सहित छे. -अनंत धर्मोमां रहेला एकधर्मीपणाने लीधे तेने द्रव्यपणुं प्रगट छे. -अक्रमवर्ती अने क्रमवर्ती एवा गुणपर्यायो सहित छे. -स्व-पर स्वरूपने प्रकाशवानुं सामर्थ्य होवाथी तेने समस्त रूपने प्रकाशनारुं

एकरूपपणुं छे.

-असाधारण चैतन्य गुणना सद्भावने लीधे तथा परद्रव्योना विशेष गुणोना

अभावने लीधे पर द्रव्योथी भिन्न छे.

-अन्य द्रव्योथी अत्यंत एकक्षेत्रावगाह होवा छतां पोताना भिन्न क्षेत्रपणे

रहेतो एक टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वरूप ज रहेवानो स्वभाव छे.

अहा! ज्ञान एने कहीए जे पूर्वापर विरोध रहित वस्तुने सिद्ध करे. आगळ- पाछळ विरोध आवे तेने ज्ञान न कहेवाय.

हवे अहीं स्वसमय परसमय कई रीते छे ते समजावे छे. ‘ज्यारे आ जीव, सर्व पदार्थोना स्वभावने प्रकाशवामां समर्थ एवा केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी भेदज्ञान-ज्योतिनो उदय थवाथी, सर्व परद्रव्योथी छूटी दर्शनज्ञानस्वभावमां निश्चितप्रवृत्तिरूप आत्मतत्त्व साथे एकत्वरूपे लीन थई प्रवृत्ति करे छे त्यारे दर्शन- ज्ञान-चारित्रमां स्थित थवाथी पोताना स्वरूपने एकतारूपे एक ज वखते जाणतो तथा परिणमतो एवो ते ‘स्व-समय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे.’

सर्व पदार्थोना स्वभावने प्रकाशे ते केवळज्ञान छे. एवा केवळज्ञानने भेदज्ञानज्योति प्रगट करे छे. आ भेदज्ञानज्योतिनो उदय थतां सर्व परद्रव्योथी छूटी, दर्शनज्ञानस्वभावमां, पर्यायरहित अभेद त्रिकाळ ध्रुव, चैतन्यरूप आत्मतत्त्वमां द्रष्टि करी तेनी साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे त्यारे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित थयो एम कहेवामां आवे छे. युगपद् स्वने एकत्वपूर्वक जाणतो अने स्वमां एकत्वपणे परिणमतो ते ‘स्वसमय’ एम प्रतीत करवामां आवे छे-एटले के जाणवामां आवे छे. अहीं टीकामां जाणवाना अर्थमां प्रतीत शब्दनो प्रयोग कर्यो छे.


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पहेलां (बीजा बोलमां) जे दर्शन-ज्ञान आव्युं हतुं ते देखवा-जाणवानी वात हती. अहीं ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां’ दर्शन कहेतां सम्यक्दर्शननी वात छे. शुद्ध, अभेद चैतन्य पूर्णानंदस्वरूप भगवाननी रुचि ते सम्यक्दर्शन, तेनुं ज्ञान ते ज्ञान अने तेमां रमणता-स्थिरता ते चारित्र. ते दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित थवाथी युगपद् स्वने एकत्वपणे जाणतो अने परिणमतो-ते स्वसमय जाण एम कहे छे.

सात बोलथी जीवना स्वरूपने कही चरित्त-दर्शन-ज्ञानस्थितनी व्याख्या करतां केवलज्ञानने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योतिनी वात करी छे. सर्व परद्रव्योथी भिन्न पडी, दर्शनज्ञानस्वभावमां नियतवृत्ति-एटले त्रिकाळ जे आत्मतत्त्व तेनी साथे एकत्वपणे वर्तवापणुं छे ते भेदज्ञान छे. आवुं भेदज्ञान केवळज्ञाननी उत्पत्तिनुं कारण छे.

एक समयमां केवलज्ञान-केवलदर्शनज्योतिथी बिराजमान चैतन्यसूर्य भगवान अरिहंतदेव परमात्मा जेमनुं नाम-स्मरण करवुं पण भलुं छे-केमके गुणवाळुं नाम छे ने? -एवा भगवाने स्वसमयना स्वरूपनुं वर्णन करतां एम कह्युं छे के-जे आत्मा परथी भिन्न पडी पोताना दर्शनज्ञानस्वभावमां एकत्व पामे छे तेने तुं स्वसमय जाण, एम सर्वज्ञनी कहेली वात अहीं आचार्यदेव कहे छे.

अहा! केवी स्पष्ट व्याख्या करी छे? सत्नो ढंढेरो पीटयो छे.

पाठमां ‘जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो’– स्वसमयनी वात प्रथम करी छे. हवे परसमयनी वात करे छे. ‘ज्यारे ते, अनादि अविद्यारूपी जे केळ तेना मूळनी गांठ जेवो जे मोह तेना उदय अनुसार प्रवृत्तिना आधीनपणाथी, दर्शनज्ञानस्वभावमां निश्चितप्रवृत्तिरूप आत्मतत्त्वथी छूटी परद्रव्यना निमित्तथी उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि भावोमां एकतारूपे लीन थई प्रवर्ते छे त्यारे पुद्गलकर्मना कार्मणस्कंधरूप प्रदेशोमां स्थित थवाथी परद्रव्यने पोतानी साथे एकपणे एककाळमां जाणतो अने रागादिरूप परिणमतो एवो ते ‘परसमय’ एम प्रतीत करवामां आवे छे. आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरे जोयेल आत्मानी वात छे. अज्ञानीओ, जेओ आत्माने जोया अने जाण्या विना कहे एमनी वात नथी. दर्शनज्ञानस्वभावी आत्मा अनादि अज्ञानथी मोहमां पडी, पोताना स्वभावथी छूटी रागद्वेषने एकत्वपणे जाणतो अने एकत्वपणे परिणमतो वर्ते छे त्यारे ते पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित होवाथी एने ‘परसमय’ एम प्रतीत करवामां आवे छे एटले के ते परसमय छे एम जाणवामां आवे छे.

आ रीते जीव नामना पदार्थने स्वसमय अने परसमय एम द्विविधपणुं प्रगट थाय छे.


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स्वसमय अने परसमयनुं फरीथी थोडुं वधारे स्पष्टीकरण करवामां आवे छे. आ गाथामां जीव नामनो पदार्थ समय छे ए वात सात बोलथी प्रथम सिद्ध करी छे. हवे तेमां स्वसमय अने परसमयना परिणमननी वात करे छे. त्रणकाळ अने त्रणलोकना द्रव्यगुण-पर्यायनी स्थितिने -स्वरूपने केवळज्ञान एक समयमां प्रकाशवाने समर्थ छे. सर्व पदार्थोना गुणो, पर्यायो-द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव बधुं एक समयमां केवळज्ञान प्रकाशे छे. आवुं केवळज्ञान प्रगट करवानी अपेक्षाए साध्य छे. तेने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योति छे. आ भेदज्ञानज्योतिनो उदय रागथी भिन्न पडी स्वभावनी द्रष्टि करतां थाय छे. आवा भेदज्ञानना बळ वडे ज्यारे आ जीव दर्शनज्ञानस्वभावमां नियतवृत्तिरूप-निश्चयरमणतारूप-टकवारूप वर्ते छे, अथवा त्रिकाळ ध्रुव जे आत्मतत्त्व तेनी साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे-निश्चय रत्नत्रयरूप परिणतिथी वर्ते छे त्यारे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी स्वसमय एम जाणवामां आवे छे.

पहेलां जे समय कह्यो ते द्रव्य-गुण-पर्याय सहित आत्मा समजवो. अनादि द्रव्य-गुण-पर्यायवाळुं जीवनुं जे स्वरूप छे तेनुं सात बोलथी वर्णन कर्युं. एमांथी ध्येयरूप आत्मानी वात अहीं कहे छे. दर्शनज्ञान स्वभावे होवारूप जे आत्मतत्त्व तेनी साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे ते स्वसमय छे. ध्रुवस्वरूप भगवान आत्मा तेनी रुचि ते सम्यक्दर्शन, तेनुं ज्ञान ते ज्ञान, तेमां स्थिरता ते चारित्र. आवा रत्नत्रयपणे परिणमवुं तेने एकत्वगत थयो एम कहेवामां आवे छे. अहाहा! राग विनानो एकलो थई गयो. दया, दानना, रागविकल्पनी एकतापणे परिणमे अने जाणे ते परसमय छे. आत्मतत्त्व साथे एकत्वगतपणे वर्ते छे एटले एकपणानी श्रद्धा, एकपणानुं ज्ञान अने एकपणामां रमणतारूपे वर्ते छे, त्यारे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी स्वसमय छे. पर्याय स्थित थइ छे द्रव्यमां, पण द्रव्य पोते पर्यायमां स्थित छे एम कह्युं छे. अहीं तो परिणमनने सिद्ध करवुं छे ने? स्वसमयना परिणमननुं ध्येय तो त्रिकाळी द्रव्य छे, पण अहीं परिणमन बतावीने तेने आत्मा कहेवामां आव्यो छे. रागरूपे परिणमे ते अनात्मा छे एम सिद्ध करवुं छे.

लोको बहारमां रोकाई गया छे. एकेन्द्रियनी दया पाळवी, छ कायना जीवोनी रक्षा करवी, वगेरे. अरे! आ तो तारी पोतानी दया पाळवानी वात चाले छे, बापु! तुं ज्ञानदर्शनस्वभावनो पिंड परमात्मा छो. एवुं तारुं चैतन्य जीवन छे. निश्चयथी त्रिकाळ, एकरूप, शुद्ध, बुद्ध स्वभाव जे छे एवा प्राणथी जीवे ते जीव छे. प्रथम ‘जीवो’ शब्द छे ने? ए जीवनी व्याख्या चाले छे. एवा शुद्ध जीवने अहीं ध्येय बनावीने परिणमन


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करवानी वात छे. आ त्रिकाळी निश्चयप्राणनी वात करी. अशुद्धनिश्चयथी अशुद्धभाव क्षायोपशमिक भावप्राणथी जीवे तेने जीव कहेवामां आवे छे. अशुद्धप्राणथी जीवे छे ते अज्ञानी छे. वळी जड शरीर, ईंद्रिय, मन-वचन-काया आदिथी जीवे ए जीव छे एम कहेवुं ते असद्भूतव्यवहार नयनुं कथन छे, केमके पोते जडस्वभाव नथी छतां जडथी जीवे एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहार छे, ते असत्यार्थ छे.

अमृतचंद्राचार्ये परिशिष्टमां प्रथम ‘जीवत्वशक्ति’ कही छे. आ जीवत्वशक्ति दर्शनज्ञानस्वभावरूप शुद्धचैतन्यभावप्राणरूप छे. ते जीवनुं वास्तविक जीवतर छे. शुद्धदर्शनज्ञानस्वभावरूप जे जीवतत्त्व तेनी रुचि, ज्ञान अने रमणता थयां ते स्वसमय छे. अनादिनो पर घरमां भमतो हतो ते सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वघरमां आव्यो ते स्वसमय छे. एनाथी ऊलटुं राग-द्वेष, दया, दान, पुण्य-पाप आदि परघरमां भमे ते परसमय छे.

आ बधुं समजवुं पडशे, भाई! आबरूमां, पैसामां-धूळमां कांई नथी.

हवे परसमय कोने कहेवाय ते स्पष्ट करे छे. आत्माने अनादि अविद्या कहेतां अज्ञानथी मोह पुष्ट छे. मोहकर्म तेमां निमित्त छे. मोहकर्म जेनुं निमित्त छे एवा मोहना उदय अनुसार अनादिथी प्रवृत्ति करे छे- रागद्वेष, पुण्य-पाप दया, दान, आदि विकाररूप परिणमे छे. आ विकारी परिणमनने आधीन थयेलो ते दर्शन- ज्ञानस्वभावरूप आत्मतत्त्वथी छूटी गयो छे. स्वसमय परिणमनमां दर्शनज्ञानस्वभावमां निश्चित प्रवृत्तिरूप जे एकता होय छे ते अहीं विकारी परिणमनने आधीन थयेलो जीव दर्शन-ज्ञानस्वभावथी -निज शुद्धात्मतत्त्वथी छूटी जाय छे एम कह्युं छे. तेथी परद्रव्यना निमित्तथी उत्पन्न एवा मोह-राग-द्वेषादि भावो साथे एकीसाथे एकपणाने पामतो अने जाणतो ते पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित थवाथी परसमय छे एम जाणवामां आवे छे. पुण्य-पापना विकारीभावो साथे एकपणुं मानीने वर्ते छे ते मिथ्याद्रष्टि परसमय छे.

आम जीव नामना पदार्थने द्विविधपणुं प्रगट थाय छे जे शोभास्पद नथी. एकपणुं ज शोभास्पद छे एम आगळ सिद्ध करशे. द्विविधपणामां विसंवाद ऊभो थाय छे माटे ते सुंदर नथी एम आगळ गाथा ३ मां कहेशे.

* भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जीव नामनी वस्तुने पदार्थ कहेल छे. ‘जीव’ एवो अक्षरोनो समूह ते ‘पद’ छे. अने ते पदथी जे द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतस्वरूपपणुं निश्चित करवामां आवे ते पदार्थ छे.