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अहीं आ सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी वात नथी. आ तो द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप आखो जीव पदार्थ केवो छे ते सिद्ध कर्युं छे. पछी जीवनुं स्वसमय-परसमयरूप परिणमन स्पष्ट कर्युं छे.
जीव नामना पदार्थनुं प्रथम सात बोलथी वर्णन कर्युं छे.
(१) जीव पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप छे. टीकामां उत्पाद-व्यय-
थाय छे. अनादिथी जीव सत्तारूप पदार्थ छे.
(२) दर्शन-ज्ञानमयी चेतनास्वरूप छे. दर्शन-ज्ञानना परिणमननी वात लीधी छे. (३) अनंतधर्मस्वरूप द्रव्य छे. द्रव्य होवाथी वस्तु छे. (४) गुणपर्यायवाळो छे. जीव नामनी वस्तु गुणपर्यायवाळी छे. (प) तेनुं स्व-परप्रकाशकज्ञान अनेकाकाररूप एक छे. जोयुं? ज्ञानमां अनंतने
(६) वळी ते जीव पदार्थ आकाश आदिथी भिन्न असाधारण चैतन्य-
(७) अन्य द्रव्यो साथे एक क्षेत्रमां रहेवा छतां पोताना स्वरूपने छोडतो
नथी-पररूपे थतो नथी. आवो जीव नामनो पदार्थ समय छे.
हवे सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमन तथा मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमनना स्वरूपने स्पष्ट करे छे.
जे शुद्धचैतन्यप्राणथी त्रिकाळ जीवे ते शुद्ध जीव छे. क्षयोपशमभावरूप अशुद्धभावप्राण अने परद्रव्यरूप ईन्द्रियादि प्राणोने द्रष्टिमांथी छोडी, त्रिकाळ शुद्ध जीवनी द्रष्टि-रुचि, एनुं ज ज्ञान अने एमां ज एकपणे रमणता करवी ए सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे. ए आत्मानो सद्भूतव्यवहारप्राण छे. ए स्वसमय छे. एने धर्मरूप परिणमन कहे छे. आ धर्मकथा छे, भाई! आ सिवाय बधी विकथा छे. आकरी वात लागे पण वस्तुस्वरूप जेम छे तेम छे.
आत्मा आत्मापणे परिणम्यो, स्वभावपणे परिणम्यो ते स्वसमय छे. आ स्वसमय ए परिणमनरूप छे, सद्भूत व्यवहार छे. दर्शनज्ञानस्वभाव ए त्रिकाळ उपयोग छे. उपयोग ते आत्मा छे ने? आवो त्रिकाळ उपयोगरूप जे स्वभाव एनी हयातीरूप जे शुद्ध आत्मतत्त्व तेनी रुचि, ज्ञान अने रमणता ए सम्यक्रत्नत्रयरूप धर्म छे. ते वडे जीव धर्मात्मा छे, धर्मी छे, आ स्वसमय छे.
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अने परस्वभावरूप-मोहरागद्वेषरूप थईने रहे ते परसमय छे. अर्थात् पोताना शुद्ध त्रिकाळी स्वरूपथी च्युत थईने पुण्य-पाप वा रागद्वेषने एकपणे एककाळे जाणतो अने परिणमतो जे आत्मा ते अनात्मा, अधर्मी तथा परसमय छे एम जाणवामां आवे छे.
एकपणे स्वस्वरूपे परिणमे ते स्वसमय अने अन्यपणे-रागादिपणे परिणमे ते परसमय छे. एक जीवने आ प्रमाणे द्विविधपणुं छे, ते अशोभारूप छे.
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अथैतद्बाध्यते–
बंधकहा
हवे, समयना द्विविधपणामां आचार्य बाधा बतावे छेः-
एकत्वनिश्चिय–गत समय सर्वत्र सुंदर लोकमां;
तेथी बने विखवादिनी बंधनकथा एकत्वमां.
गाथार्थः– [एकत्वनिश्चयगतः] एकत्वनिश्चयने प्राप्त जे [समयः] समय छे ते [लोके] लोकमां [सर्वत्र] बधेय [सुन्दरः] सुंदर छे [तेन] तेथी [एकत्वे] एकत्वमां [बंधकथा] बीजाना साथे बंधनी कथा [विसंवादिनी] विसंवाद-विरोध करनारी [भवति] छे.
टीकाः– अहीं ‘समय’ शब्दथी’ सामान्यपणे सर्व पदार्थ कहेवामां आवे छे. कारण के व्युत्पत्ति प्रमाणे ‘समयते’ एटले एकीभावे (एकत्वपूर्वक) पोताना गुणपर्यायोने प्राप्त थई जे परिणमन करे ते समय छे. तेथी धर्म-अधर्म-आकाश- काळ-पुद्गल-जीवद्रव्यस्वरूप लोकमां सर्वत्र जे कोई जेटला जेटला पदार्थो छे ते बधाय निश्चयथी (नक्की) एकत्वनिश्चयने प्राप्त होवाथी ज सुंदरता पामे छे, कारण के अन्य प्रकारे तेमां सर्वसंकर आदि दोषो आवी पडे. केवा छे ते सर्व पदार्थो? पोताना द्रव्यमां अंतर्मग्न रहेल पोताना अनंत धर्मोना चक्रने (समूहने) चुंबे छे-स्पर्शे छे तोपण जेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी, अत्यंत निकट एकक्षेत्रावगाहरूपे रह्या छे तोपण जेओ सदाकाळ पोताना स्वरूपथी पडता नथी, पररूपे नहि परिणमवाने लीधे अनंत व्यक्तिता नाश पामती नथी माटे जेओ टंकोत्कीर्ण जेवा (शाश्वत) स्थित रहे छे अने समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्यना हेतुपणाथी जेओ हंमेशा विश्वने उपकार करे छे- टकावी राखे छे. आ प्रमाणे सर्व पदार्थोनुं भिन्न भिन्न एकपणुं सिद्ध थवाथी जीव नामना समयने बंधकथाथी ज विसंवादनी
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आपत्ति आवे छे; तो पछी बंध जेनुं मूळ छे एवुं जे पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित थवुं, ते जेनुं मूळ छे एवुं परसमयपणुं, तेनाथी उत्पन्न थतुं (परसमय-स्वसमयरूप) द्विविधपणुं तेने (जीव नामना समयने) क्यांथी होय? माटे समयनुं एकपणुं होवुं ज सिद्ध थाय छे.
भावार्थः– निश्चयथी सर्व पदार्थ पोतपोताना स्वभावमां स्थित रह्ये ज शोभा पामे छे. परंतु जीव नामना पदार्थनी अनादि काळथी पुद्गलकर्म साथे निमित्तरूप बंधअवस्था छे; ते बंधावस्थाथी आ जीवमां विसंवाद खडो थाय छे तेथी ते शोभा पामतो नथी. माटे वास्तविक रीते विचारवामां आवे तो एकपणुं ज सुंदर छे; तेनाथी आ जीव शोभा पामे छे.
हवे समयना द्विविधपणामां आचार्यदेव बाधा बतावे छे. आ गाथानुं मथाळुं छे. (पर्यायमां) एकपणुं (स्वसमयपणुं) न थतां द्विविधपणुं थवुं ते विसंवाद- असत्यपणुं छे एम कहे छे.
एकत्वनिश्चयने प्राप्त जे समय छे ते लोकमां बधे सुंदर छे. जयसेन आचार्यदेवे एकेन्द्रियथी मांडी बधा जीवो एक द्रव्यपणे (द्रव्ये एकपणे) होवाथी सुंदर छे एम सामान्यपणे कह्युं छे. अहीं कहे छे के एकत्वनिश्चयने प्राप्त-अर्थात् भगवान शुद्धस्वभावी चैतन्यघन प्रभु जे निज शुद्धात्मा एना एकत्वमां परिणमे एटले के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्यायपणे परिणमे ते समय छे अने ते बधे सुंदर छे. तेथी एकत्वमां बीजानी साथे बंधनी कथा, निमित्तना संबंधनी कथा कहेवी ते विसंवाद छे, असत्य छे. विसंवाद एटले असत्य एम जयसेनाचार्ये अर्थ कर्यो छे.
भगवान आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु, एनी साथे एकत्व परिणमन ते सुंदर छे- शोभास्पद छे. वस्तु सुंदर छे, अने तेनुं परिणमन पण सुंदर छे; केमके सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्ररूप परिणमनमां वस्तु जेवी सुंदर छे तेवी ख्यालमां आवे छे. एकलो आत्मा जे त्रिकाळद्रव्य छे ते त्रणे काळ सुंदर छे, भले एकेन्द्रियमां- निगोदमां होय तो पण सुंदर छे. अहीं तो एथी विशेष कहे छे के जे सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रना परिणाममां आत्माना सुंदरपणाना स्वरूपनी हयातीनुं भान थयुं ते पण सुंदर छे, सत्य छे. वस्तु श्रद्धा-ज्ञानमां आवतां सुंदरतानी परिणति थई त्यारे तेने सुंदर कहेवामां आवे छे, एने ज सत्यार्थ कहेवामां आवे छे. त्रिकाळ, ध्रुव आत्मा सत्यार्थ तो छे ज, पण ए सत्यार्थने प्रतीति अने ज्ञानमां लीधां त्यारे तेने सत्यार्थ कहेवामां आवे छे.
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आ वस्तुना एकत्वमां बीजानी साथे अर्थात् कर्मना निमित्तथी थता विकारो- दया दान, व्रत, भक्ति, पूजा आदि शुभ के हिंसा, जूठ आदि अशुभभाव-साथे एकत्वपणानी बंधकथा-बंधभाव विसंवाद ऊभो करे छे, तेथी ते असत्य छे. अबंधस्वभावी भगवान आत्मानी साथे बंधभावनुं एकत्व ते असत्य छे, दुःख उत्पन्न करनारुं छे तेथी असुंदर छे एम कहे छे. द्रव्यना एकपणामां जे स्वगुणपर्यायरूप स्वभावपरिणमन कह्युं छे एमां कर्मना निमित्तथी जे अशुद्ध परिणमन थाय ते परसमयपणुं छे, ते असत्य छे अने बाधा-आपत्ति उत्पन्न करनारुं छे.
आत्मा पोताना स्वभावगुणपर्यायपणे परिणमे छे स्वसमय अर्थात् एकत्वनिश्चयगत ते स्वसमय छे. अने विभावपणे परिणमे अर्थात् कर्मपुद्गलना प्रदेशोमां (स्थित थई) परिणमे ते परसमय छे. परसमयपणुं ए द्विविधपणुं उत्पन्न करे छे. स्वसमय अने परसमय ए बेमां परस्पर विरोध छे. स्वसमयनुं परिणमन छे तेमां विभावनुं परिणमन थवुं ते विरोध छे, केमके तेमां स्वनिश्चयगत रह्यो नहीं. ध्रुवपणे (सुंदर) रह्यो, पण परिणमनमां स्वगुणपर्यायपणे (सुंदर) रह्यो नहीं, अने विकाररूप (विरोधरूप) परिणमन थई गयुं. पुद्गलकर्मना निमित्ते थता विकारी परिणमनमां द्विविधपणुं -बाधापणुं बताव्युं, पोताना स्वभावमां स्थिति थतां स्वसमयपणुं -सुंदरपणुं कह्युं.
प्रवचन नंबर ८–१०, तारीख ६–१२–७प थी ८–१२–७प
एकत्वनिश्चियने प्राप्त जे समय नामनो पदार्थ छे ते पोताना गुणपर्यायपणे परिणमे-अभेद-रत्नत्रयपणे परिणमे ते लोकमां बधे सुंदर छे. द्रव्यार्थिकनयनो विषय एवो जे ध्रुव आत्मा तेना लक्षे जे परिणमन थयुं ते पर्याय छे, तेने अहीं आत्मा कहेवामां आव्यो छे. अहीं स्वपर्यायरूप परिणमनने आत्मा कह्यो छे. सम्यग्दर्शननो विषय जे त्रिकाळी, ध्रुव आत्मा एनी अहीं वात नथी. एकत्वनिश्चयगत कहेतां द्रव्य जे पोते ध्रुव तेमां एकत्व पणे परिणमे अर्थात् पोताना स्वगुणपर्यायपणे परिणमे तेने स्वसमय कहेवामां आव्यो छे अने ते लोकमां सर्वत्र सुंदर छे.
परना संबंधथी परिणमन थाय ते बाधारूप छे. ते सत्य नथी. जयसेनाचार्यदेवे तेने असत्यार्थ कह्युं छे. एकत्वमां बीजा साथेना संबंधनी कथा विसंवादिनी छे, विरोध उत्पन्न करनारी छे. वस्तु पोते ध्रुव आत्मा छे. तेना आश्रये शुद्ध गुणपर्यायपणे परिणमे ते स्वसमय छे. आवुं स्वसमयनुं परिणमन छोडीने निमित्ताधीन थई परिणमे ते द्विविधविरोधपणुं उत्पन्न करनारुं छे.
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आ गाथा गंभीर छे, भाई? जयसेन आचार्यदेवनी टीकामां ‘एकत्व- निश्चयगत’ना त्रण अर्थ कर्या छे. (१) एकेन्द्रियादि बधा पदार्थोमां (जीव) द्रव्य छे ते सुंदर छे. (२) एकत्वनिश्चयगत एटले पोताना स्वगुणनी पर्यायपणे परिणमे ते सुंदर छे. (अहीं बीजा बोलमां विकारी अने अविकारी बधी पर्यायोपणे परिणमे तेनी वात छे). (३) एकत्वनिश्चयगत कहेतां अभेदरत्नत्रयपणे शुद्ध परिणमे ते सुंदर छे, सत्य छे.
एकेन्द्रियादिमां द्रव्य छे ते सुंदर ज छे, पण ते बेसे कोने? कहे छे के जेने अभेदरत्नत्रयनुं परिणमन थयुं छे एवा ज्ञानीने बधा सुंदर छे एम बेसे छे. अज्ञानीने क्यां खबर छे? अहीं ‘समय’मां भेद पाडवा नथी, पण ‘स्वसमय’ अने ‘परसमय’ एम परिणतिना बे भेद पडे छे. ‘समय’ तो समय ज छे. पोताना ध्रुव आत्मानी साथे एकत्वपणे परिणमन थाय ते ‘स्वसमय’ छे, अने ध्रुव साथे एकत्वपणुं छोडी राग साथे एकत्वपणे परिणमे ते ‘परसमय’ छे. आ बेपणुं ज असत्य छे. (यथार्थ द्रष्टिथी) एमां बेपणुं केम होई शके?
घणी ऊंडी चीज छे, भाई! ध्येय तो जे त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छे ए ज छे, तेमां कोई प्रश्न ज नथी. पण ए ध्रुव साथे एकत्व थईने शुद्ध परिणमे ते ‘स्वसमय’ अने ध्रुवने छोडी दई राग-विकारने आधीन थई मिथ्या परिणमे ते ‘परसमय’ छे. ते द्विविधपणुं छे, ते विरोध छे. त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य ते निश्चय अने तेना लक्षे जे शुद्ध परिणमन थयुं ते व्यवहार-सद्भूत व्यवहार. आ सद्भूत परिणमन जे छे ते समय- आत्मा एम अहीं कह्युं छे. कर्ता-कर्म अधिकार, गाथा ७१ (टीका) मां आ वात लीधी छे. त्यां कह्युं छे-“आ जगतमां वस्तु छे ते (पोताना) स्वभावमात्र ज छे, अने ‘स्व’नुं भवन ते स्व-भाव छे; माटे निश्चयथी ज्ञाननुं थवुं-परिणमवुं ते आत्मा छे अने क्रोघादिनुं थवुं-परिणमवुं ते क्रोधादि छे.” जुओ, वस्तु तो त्रिकाळ ध्रुव छे, परंतु परना कर्तापणाथी-विभावथी जुदुं बतावी जे वस्तुनुं स्वभावरूप परिणमन तेने अहीं आत्मा कह्यो छे.
कर्मना निमित्तथी रागादिनुं परिणमन थाय ते आत्मा नहीं एम सिद्ध कर्युं छे. दया, दान, व्रत, आदिना विकल्पपणे परिणमवुं ते जीवनुं परिणमन नथी. ध्रुवने ध्येय बनावी, निर्मळपणे परिणमे ते ‘स्व-आत्मा’ अने कर्मसंबंधे विकारपणे परिणमे ते ‘पर-आत्मा’. स्वभावपणे परिणमवुं ते जीवनुं कर्म छे, विभावपणे परिणमवुं ते जीवनुं कर्म नहीं, ते बाधा छे, आपत्ति छे.
नियमसार गाथा प० मां एम कह्युं छे के निर्मळ पर्याय पण परद्रव्य छे. मूळ गाथामां आचार्य श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे स्वयं आम कह्युं छे. विकारी पर्याय तो परद्रव्य छे, पण
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निर्मळ पर्यायने पण परद्रव्य कहेवामां आवी छे. मोक्षमार्गनी जे निर्मळ पर्याय प्रगटी ते परद्रव्य छे. पर्याय छे ने? तेथी ते परद्रव्य कही छे. त्यां द्रष्टिनुं ध्येय एकमात्र ध्रुव द्रव्य बताववुं छे एटले निर्मळ पर्यायने परद्रव्य कही दीधी छे; ते स्वद्रव्य नहीं, कारण के निर्मळ पर्याय पण आश्रय करवा लायक नथी. सम्यग्दर्शननो विषय तो एकलो ध्रुव, ध्रुव, ध्रुव त्रिकाळी छे. तेमां निर्मल पर्यायने पण साथे भेळवे तो द्रष्टि एकदम विपरीत थई जाय. मोक्षमार्गनी पर्यायने परद्रव्य कही, केमके तेमांथी नवी पर्याय आवती नथी. जेम परद्रव्यमांथी नवी पर्याय आवती नथी, एम मोक्षमार्गनी पर्यायमांथी पण बीजी नवी पर्याय आवती नथी. आ अपेक्षाए निर्मळ पर्यायने परद्रव्य कही छे. छतां अहीं तो परिणमननी अपेक्षा छे एटले निर्मळ पर्यायने स्व- आत्मा, स्वसमय कहेल छे.
अहा! श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के में जिनेश्वरदेवना उपदेशने बराबर जाणीने पूर्वापर विरोध रहित जे छे ते वात अहीं मूकी छे. अहीं एक वात अने बीजे बीजी एम विरोध नथी. अपेक्षाथी समजे तो समजाय अने विरोध रहे नहीं एवी वात छे.
नियमसारना टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेवे त्यां एम कह्युं छे के जे आ टीका थई एनो करनारो हुं नथी. गणधरोथी रचायेली टीका एना करनारा अमे ते मंदबुद्धि कोण? तेथी खरेखर आ टीका तो गणधरदेवथी चाली आवे छे. एमां कह्युं छे के कारण परमात्मा-जे ध्रुव वस्तु छे ते एक ज मोक्षमार्गनो हेतु छे. तेनी जे मोक्षमार्गरूप निर्मळ पर्याय प्रगटी ते परद्रव्य छे. पर्याय छे माटे परद्रव्य छे. द्रष्टिना विषयमां पर्यायने नाखे ते तो महा विपरीत द्रष्टि थई जाय छे.
अहाहा...! शुं शास्त्रो छे! समयसार, नियमसारमां गजब वातो करी छे. भाई, भगवाननी गादीए बेसीने जे वात चाले त्यारे तो भगवान कहे छे एम अंदरथी आवे छे. नियमसारमां द्रष्टिनो विषय जे ध्रुवद्रव्य तेनी अपेक्षाए निर्मळ पर्यायने परद्रव्य कही, अने अहीं समयसारमां परिणमन अपेक्षाए निर्मळ पर्यायने स्व-आत्मा कह्यो.
अहीं ‘समय’ शब्दथी सामान्यपणे सर्व पदार्थ कहेवामां आवे छे, कारण के व्युत्पत्ति प्रमाणे ‘समयते’ एटले एकीभावे पोताना गुणपर्यायोने प्राप्त थई जे परिणमन करे ते समय छे. तेथी धर्म-अधर्म-आकाश-काळ-पुद्गल-जीवद्रव्यस्वरूप लोकमां सर्वत्र जे कोई जेटला पदार्थो छे ते बधाय निश्चयथी एकत्वनिश्चयने प्राप्त होवाथी ज सुंदरता पामे छे कारण के अन्य प्रकारे तेमां संकर, व्यतिकर आदि सर्व दोषो आवी पडे.
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लोकमां रहेला सघळां पदार्थो एकत्वनिश्चयने प्राप्त होवाथी एटले के पोतामां रहेला पोताना स्वरूपने प्राप्त थता होवाथी सुंदरता शुद्धता पामे छे. ते कोई द्रव्योमां परनी अपेक्षा नथी. जीव अने पुद्गल बन्ने विभावपणे परिणमे छे छतां तेमना विभाव परिणमनमां परनी अपेक्षा नथी, स्वयं विभावपणे परिणमे छे. बीजा चार द्रव्योमां विभाव नथी, स्वभाव परिणमन छे. आ रीते सर्व द्रव्योनुं समयपणुं सिद्ध कर्युं.
अन्य प्रकारे माने तो एमां सर्व संकर आदि दोषो आवी पडे छे. ‘सर्वेषाम् युगपत् प्राप्ति स संकरः।’ बधा जड, चेतन द्रव्यो मळीने एक थई जाय ए संकर दोष छे. तथा ‘परस्पर विषयगमनं’ ते व्यतिकर दोष छे. चेतन जडमां अने जड चेतनमां आवे ते व्यतिकर दोष छे. ‘आलाप पद्धति’ मां आठ दोषोनुं वर्णन आवे छे. आ न्यायनो विषय छे. अहीं कहे छे के लोकमां छ द्रव्यो एकत्वनिश्चयगत होवाथी तेमने आ दोषो लागु पडता नथी. अन्यथा मानवा जतां दोषोनी आपत्ति आवे छे. वस्तुमां दोष नथी. विपरीत मान्यतामां दोष छे.
वीतराग मार्ग अने तेनुं स्वरूप शुं छे तेनी वात चाले छे. केवळी परमात्मा जिनेश्वरदेव ए ज एक साचा देव छे. जगतमां देव होय तो आ एक ज छे. तेओ पोतानी दिव्यशक्ति केवळज्ञान द्वारा बधुं जाणे छे. लोकालोक जाणे छे. तेमनुं कहेलुं आ तत्त्व छे. तेने आचार्य भगवंतो आडतिया थईने बतावे छे.
बधां द्रव्यो एकत्वनिश्चयने प्राप्त होवाथी सुंदरता पामे छे. अन्य प्रकारे एमां संकरादि दोष आवी पडे छे, एटले के चैतन्यस्वरूप परमात्मा पोते स्वाधीन एकरूप न रहेतां बीजामां भळी जाय अर्थात् बे थईने एक थई जाय ईत्यादि दोष आवी पडे छे. द्रव्य पोते पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायपणे स्वतंत्र न रहे, परपणे थई जाय, परमां भळी जाय ईत्यादि आपत्ति आवी पडे छे.
अरे! पोते आत्मा छे एनी एने क्यां किंमत छे? एने तो धूळनी (पैसानी), पुण्यनी, भणतरनी अने कांतो क्षयोपशमरूप ज्ञाननी (विद्वतानी) किंमत भासे छे. पण ए बधुं तो पर छे.
हवे कहे छे केवा छे ते पदार्थो? ‘पोताना द्रव्यमां अंतर्मग्न रहेला पोताना अनंतधर्मोना चक्रने चुंबे छे-स्पर्शे छे तोपण जेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी’. परमाणु हो के आत्मा हो, आकाश हो के काळ हो, दरेक द्रव्य पोताना अनंत गुणसमूहने चुंबे छे. द्रव्य पोताना गुणपर्यायोने अडे छे, पण परने अडतुं नथी. पोताना
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द्रव्यमां अंतर्मग्न अस्तित्व, वस्तुत्व आदि गुणो -धर्मो अने तेमनी अवस्थाओने स्पर्शे छे, पण परना गुण-पर्यायोने स्पर्शतुं नथी. प्रवचनसार गाथा १७२ (टीका) मां अलिंग-ग्रहणना बोलमां तो एम आवे छे के द्रव्य पोताना गुणोना भेदने स्पर्शतुं नथी. त्यां अपेक्षा जुदी छे. त्यां तो एकला अभेदने सिद्ध करवो छे. भगवान आत्मा एकरूप ध्रुव जे द्रष्टिनो विषय छे ते गुणभेदने स्पर्शतो नथी, आलिंगन करतो नथी एम त्यां कह्युं छे. त्यां द्रव्यना अंदर अंदर बे अंश वच्चेनी वात छे. ज्यारे अहीं तो द्रव्य परने स्पर्शतुं नथी एवी छ द्रव्योनी मर्यादा सिद्ध करवानी वात छे. आ तो अलौकिक मार्ग छे, भाई!
पहेलां कह्युं के समयमां स्वसमय अने परसमय एम जे द्विविधपणुं आवे छे ते विसंवाद उपजावे छे. माटे तेनो (बे-पणानो) निषेध छे. (त्यां राग आत्मानुं स्वरूप नथी एम बताववुं हतुं)
नयचक्रमां कह्युं छे के प्रमाणमां पर्यायनो निषेध आवतो नथी माटे प्रमाण पूज्य नथी. एकलो स्वभाव ध्रुव अखंडानंद प्रभु द्रव्य ते निश्चयनयनो विषय छे. (तेमां पर्याय निषिद्ध छे) माटे निश्चयनय ते पूज्य छे.
त्यारे अहीं तो कहे छे के स्वपणे पोतानुं परिणमन करे ते स्वसमय छे -ते आत्मा छे. जे अपेक्षाथी वात करी होय ते अपेक्षा बराबर समजवी जोईए.
सर्व पदार्थो पोताना अंतर्मग्न अनंत धर्मोना समूहने चुंबे छे, स्पर्शे छे, अडे छे, आलिंगन करे छे तोपण तेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी. अहाहा...! एक द्रव्य बीजा द्रव्यने स्पर्श करतुं नथी. आत्मा कर्मने स्पर्शतो नथी, कर्म आत्माने स्पर्शतुं नथी. एक परमाणु बीजा परमाणुने स्पर्शतो नथी. एकप्रदेशी परमाणुमां आकाश जे अनंत प्रदेशी सर्वव्यापी छे तेमां जेटला (अनंत) गुणोनी संख्या छे एटला ज गुणोनी संख्या छे. ते परमाणु द्रव्य पोताना अनंतधर्मोना चक्रने चुंबे छे तोपण ते बीजा परमाणुने स्पर्श करतो नथी. रूपी रूपीने स्पर्शतुं नथी; कारण के एकबीजानो एकबीजामां अभाव छे. अभावमां भावनुं स्पर्शवुं केम बने? तेओ (द्रव्यो) परस्पर स्पर्शता नथी एटले के एक परमाणु बीजा परमाणुने, परमाणु आकाशने, आकाश परमाणुने, परमाणु आत्माने, आत्मा परमाणुने, आत्मा आकाशने, आकाश आत्माने परस्पर अडता नथी. आकाश नामनो पदार्थ छे. तेमां अनंत परमाणु रह्या छे, त्यां ज निगोदना अनंत जीवो पडया छे, पण कहे छे के कोई कोईने अडता नथी. एक निगोदनो जीव बीजा जीवने स्पर्शतो नथी. आ तो गजब वात छे, भाई!
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तेथी कर्म जीवने हेरान करे छे ए वात ऊडी जाय छे. “अपनेको आप भूलके हैरान हो गया.” ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानने रोके एम कथन शास्त्रमां आवे तेने पकडी पाडे. पण अहीं कहे छे के ज्ञानावरणीय कर्म अने आत्मा एकबीजाने स्पर्श करता नथी. माटे कोई कहेतुं होय के कर्मथी ज्ञान रोकाय तो ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी.
शास्त्रमां कोई ठेकाणे परस्पर विरुद्ध कथन आवे तो त्यां विधविध प्रयोजन सिद्ध करवा विवक्षाभेद होय छे, विरुद्ध तो कांई होतुं नथी. एक आचार्यनो मत ते ज अनंत आचार्योनो मत छे. मुनि हो के समकिती-बधा दिगंबर संतोनो एक प्रवाहमां एक ज मत होय छे.
अहा! पोते ज्ञाननो समुद्र छे. समजवुं, समजवुं, समजवुं, ए एना ज्ञाननो स्वभाव छे. कई अपेक्षानुं कथन छे ते बराबर समजातां गमे तेटलां पडखांथी कहेवामां आवे छतां एमां एने विरोध न आवे.
एक निगोदना शरीरमां अनंत जीव छे. एक एक जीवने तेजस अने कार्माण एम बब्बे शरीर होय छे. परंतु ते एक जीव बीजा जीवने अडतो नथी. तथा जीव शरीरने पण अडतो नथी. जुओ, परथी पृथकता. (आवी दरेक द्रव्यनी स्वतंत्रता जिनेश्वरना मार्गमां बताववामां आवी छे) वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. परिचय न होय एटले झीणुं पडे, पण बराबर समजवा जेवुं छे.
एक सिद्ध परमात्मा छे तेना पेटमां (क्षेत्रमां) अनंता बीजा सिद्ध छे. छतां एक सिद्ध बीजा अनंता सिद्धोने अडता नथी परस्पर स्पर्श करता नथी. एकदम भेद करीने समजाव्युं छे. दरेक द्रव्य स्वयंसिद्ध पोते पोतामां परिणमी रह्युं छे. परने अने एने कांई संबंध नथी.
जुओ, आ आंगळीमां अनंत परमाणुओ छे. तेओ एकबीजाने स्पर्शता नथी, केमके एकबीजा वच्चे तद्न अभाव छे, अन्यत्व छे. एकद्रव्यमां द्रव्य, गुण, पर्याय त्रण वच्चे परस्पर अन्यत्वनी वात शास्त्रमां (प्रवचनसारमां) आवे छे. त्यां अपेक्षा जुदी छे. त्यां तो अतद्भावरूप अन्यत्व कह्युं छे. द्रव्य, गुण, पर्यायमां त्यां क्षेत्रभिन्नता नथी, अतद्भाव छे, एक छे ते अन्य नथी एवो भाव छे. पण अहीं तो द्रव्य-द्रव्य वच्चे अभावरूप अन्यत्व छे एनी वात छे.
तत्त्वार्थसूत्रमां आवे छे के स्पर्शादि ईन्द्रियो वस्तुने स्पर्शीने तेनुं ज्ञान करे छे. पण अहीं कहे छे के एम छे नहीं. ईन्द्रिय छे ते स्पर्श विना ज जाणे छे. ईन्द्रिय अने वस्तु
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परस्पर स्पर्शतां ज नथी, पण परस्पर सन्निकट छे, नजीक छे एटले स्पर्शे छे एम कहेवामां आवे छे.
हवे क्षेत्रथी वात करे छे. ‘अत्यंत’ निकट एकक्षेत्रावगाहरूपे रह्या छे तोपण जेओ सदाकाळ पोताना स्वरूपथी पडता नथी, ज्यां आकाशनो एक प्रदेश छे त्यां अनंत आत्मा छे. (एक आत्माना असंख्यातमा भागना प्रदेशो एवा अनंत आत्माना असंख्यातमा भागना प्रदेशो आकाशना एक प्रदेशे छे). अत्यंत निकट एकक्षेत्रे आत्मा रह्यो होवा छतां आकाशने आत्मा अडतो नथी. ज्यां आकाश छे त्यां आत्मा छे, आत्मा छे त्यां आकाश छे, तोपण आत्मा पोतानुं क्षेत्र छोडीने आकाशना क्षेत्रमां जतो नथी, अने आकाश पोतानुं क्षेत्र छोडी आत्मामां आवतुं नथी. आकाशना एक प्रदेशे अनंत जीव, अनंत परमाणु, धर्म, अधर्म, काळाणु, बधां अत्यंत निकट रहेला छे. तोपण तेओ सदाकाळ पोताना स्वरूपथी पडता नथी. दरेक द्रव्य पोतपोताना स्वरूपमां ज रहे छे. एक ज क्षेत्रमां भेगा होवा छतां भिन्न रहे छे. पररूपे नहीं परिणमवाना कारणे अनंत व्यक्तिओ नाश पामती नथी. जेटली चीज संख्यामां छे तेटली संख्यामां कायम रहे छे. अनंत प्रगटता नाश पामती नथी एटले अनंत वस्तु अनंतपणे पोतानी रहे छे. जेटलां द्रव्यो छे तेमां एक पण द्रव्यनो नाश थतो नथी. बधां द्रव्यो टंकोत्कीर्ण जेवां छे तेवां स्थित रहे छे, टांकणाथी कोतरीने बनाव्यां होय तेवां शाश्वतरूपे रहे छे.
प्रवचनसार (गाथा ६७) मां आवे छे के विषयो शुं करे? शरीर, वाणी, मन, सारो आहार ईत्यादि तने शुं करे? ए कांई जीवने विकार उपजावे छे? विषयो तो अकिंचित्कर छे. ए तने अडता नथी, तुं एने अडतो नथी. विषयो जीवने राग उपजावे छे एम छे ज नहीं. राग तो जीव पोते करे छे तो थाय छे. सुंवाळा माखण जेवा कोमळ बाळकना शरीरने शुं आत्मा चुंबन करे छे? अहीं ना पाडे छे. अहीं तो कहे छे के होठ एने अडतोय नथी, अने एथी तने राग थाय छे एमेय नथी. राग तो तुं स्वयं करे तो थाय छे. आवी वात छे, भाई!
वळी ‘समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्यना हेतुपणाथी जेओ हंमेशा विश्वने उपकार करे छे-टकावी राखे छे.’ समस्त विरुद्ध कार्य एटले के द्रव्यनी पर्यायमां जे उत्पाद, व्यय छे ते परस्पर विरुद्ध छे. धवलमां आवे छे के एक समयनी पर्यायमां उत्पाद-व्यय, उपजवुं अने विणसवुं एम बे थाय छे ते विरुद्ध छे जे समये द्रव्यनी वर्तमान पर्याय उत्पन्न थाय ते ज समये पूर्वनी पर्यायनो व्यय थाय छे. उत्पाद ते भावरूप छे अने व्यय ते अभावरूप छे. तेथी उत्पाद -व्ययने विरुद्ध कहेवामां आवे छे. एम
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होवा छतां गुण गुणपणे त्रिकाळ कायम रहे छे तेथी ते अविरुद्ध छे. आवुं विरुद्ध- अविरुद्ध वस्तुनुं स्वरूप ज छे.
आत्मामां विरुद्धधर्मत्व नामनी एक शक्ति छे. आ त्रिकाळ शक्तिनी वात छे जे वडे आत्मामां तद्रूपमयपणुं अने अतद्रूपमयपणुं होय छे. एटले के आत्मा स्वपणाने छोडे नहीं अने परपणाने ग्रहे नहीं एवी शक्ति छे. पण अहीं ते वात नथी.
अहीं तो एक समयमां पर्यायमां जे उत्पाद-व्यय छे ते परस्पर विरुद्धभाव छे एम कह्युं छे. अने गुण कायम रहे ते अविरुद्धभाव छे. आम विरुद्ध अने अविरुद्ध कार्य एटले अनंत द्रव्योना उत्पाद-व्ययरूप विरुद्धभाव अने गुणरूप अविरुद्धभाव; ए बन्नेना हेतुपणाथी तेओ हंमेशा विश्वने उपकार करे छे. एटले के द्रव्यना गुणपर्यायरूप स्वरूपवडे विश्वना समस्त पदार्थो जेम छे तेम टकी रहे छे. अहा! विश्वमां अनादिथी दरेक वस्तु एम ने एम टकी रही छे. ‘उत्पादव्ययध्रुवयुक्तं सत्’ ते सत् अनादिथी एम ने एम टकी रह्युं छे. (उत्पादव्ययरूप पर्यायथी समये समये बदलता समस्त पदार्थो पोताना स्वरूपे टकी रह्या छे).
आ प्रमाणे सर्व पदार्थोनुं भिन्न भिन्न एकपणुं सिद्ध थवाथी जीव नामना समयने बंधनी कथाथी विसंवादनी आपत्ति आवे छे. हवे अहीं जीवनी विशेष वात करे छे. जीव नामना समयने कर्मना निमित्तथी विभावभावरूप बंधभावथी विसंवाद खडो थाय छे, आपत्ति आवी पडे छे. एकडे एक अने बगडे बे. बे थया एटले बगडयुं. बे थया त्यां बंध थयो. एक स्वभावभाव अने एक विभावभाव एम बे थया ए बंधकथाथी-बंधभावथी विसंवादनी आपत्ति आवे छे. बंध जेनुं मूळ छे एवुं जे पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित थवुं एटले के विभाव-रागद्वेष-तेमां स्थित थवुं ते परसमयपणुं छे. एक समयमां आत्मामां विभावनुं उत्पन्न थवुं ते परसमयपणुं छे. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्माने स्वभावथी विरुद्ध रागनुं उत्पन्न थवुं ते द्विविधपणुं छे. आनंदस्वरूप भगवान आत्मा विभावमां आवी पडे ते दुःखरूप छे, तेथी ते सुंदर नथी. शोभास्पद नथी.
भगवाने आ जगतमां छ द्रव्यो जोयां छे. ते छये द्रव्यो पोतपोतामां छे; पण जीव नामना समयने बंधकथाथी ज एटले के कर्मना -निमित्तना संबंधना भावथी ज अर्थात् दुःखरूप भावथी होवाथी विसंवाद आवे छे, एटले के असत्यपणुं ऊभुं थाय छे.
आत्मा ज्ञानानंद स्वरूप समय छे. तेने कर्मना निमित्तना संबंधनी अपेक्षा आवतां परिणमनमां विकार उत्पन्न थाय छे- ए ज विसंवाद छे अने दुःख उत्पन्न करनार छे.
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समयनुं (आत्मानुं) एकपणुं ऊभुं छे, छतां ते एकपणामां ऊभा न रहेतां (तेमां सन्मुख न थतां) कर्मना प्रदेशमां स्थित थाय छे एटले के रागद्वेषमां एकपणुं करे छे ते परसमयपणुं छे, अने ते ज विसंवाद छे, दुःख छे, अनंत संसारनुं मूळ छे. भाई! ए दुःखना घेरावामां घेरावानुं छे. भले एम माने के अमे सुखी छीए, पण ए तो तेनो मूढभाव छे.
स्वसमयपणे परिणमे ए तो सुंदर छे. पण एना ठेकाणे परसमयपणे परिणमन थयुं त्यां ज एकमां बीजी वात ऊभी थई. एक जीव नामनो समय, तेने स्वसमयरूप-परसमयरूप द्विविधपणुं केम होय? न ज होय. बेपणुं अनादिथी पोते ऊभुं कर्युं छे. पोताना आत्माने छोडीने, शुभराग के अशुभराग साथे एकत्वपणुं कर्युं ए बेपणुं छे. ए परसमय छे अने पोताना शुद्ध आत्मा साथे एकत्वपणे निर्मळ परिणमे ते स्वसमय छे, ते सुंदर छे.
जगतमां बधा पदार्थो भिन्न भिन्नपणे पोताना स्वरूपे रह्या छे. त्यारे भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु शुद्ध छे तेने वळी आ बंधपणुं शुं? माटे (खरेखर तो) समयनुं एकपणुं होवुं ज सिद्ध थाय छे. रागपणे परिणमवुं अने एमां टकवुं एवुं जे परसमयपणुं ए विसंवाद छे, झघडो छे. तेमां जीवनी शोभा, सुंदरता नथी.
निश्चयथी सर्व पदार्थो पोतपोताना स्वभावमां स्थित रह्ये ज शोभा पामे छे. परंतु जीव नामना पदार्थनी अनादि काळथी पुद्गलकर्म साथे निमित्तरूप बंधअवस्था छे. बीजी चीज साथे निमित्तरूपे अवस्था थवी ते बंधअवस्था छे. ते बंधअवस्थाथी जीवमां विसंवाद खडो थाय छे, असत्यार्थपणुं उत्पन्न थाय छे. आत्माने राग साथे एकत्व थतां, आत्मानुं एकपणुं के सुखपणुं उत्पन्न थतुं नथी; पण दुःखपणुं उत्पन्न थाय छे. तेथी ते शोभा पामतुं नथी. माटे वास्तविकपणे विचारवामां आवे तो एकपणुं ज सुंदर छे, एकमां एकत्व थवुं ए ज सुंदर छे. ध्रुवस्वरूप भगवान आत्मा-एमां पर्यायने वाळतां आनंदनी दशा उत्पन्न थाय छे ते आत्मानी शोभा छे. एथी ऊलटुं रागमां एकत्व थवुं ते आत्मानी अशोभा अने दुःखरूप दशा छे.
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अथैतदसुलभत्वेन विभाव्यते
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण
हवे ते एकत्वनी असुलभता बतावे छेः-
परथी जुदा एकत्वनी उपलब्धि केवळ
गाथार्थः– [सर्वस्य अपि] सर्व लोकने [कामभोगबन्धकथा] कामभोगसंबंधी बंधनी कथा तो [श्रुतपरिचितानुभूता] सांभळवामां आवी गई छे, परिचयमां आवी गई छे अने अनुभवमां पण आवी गई छे तेथी सुलभ छे; पण [विभक्तस्य] भिन्न आत्मानुं [एकत्वस्य उपलम्भः] एकपणुं होवुं कदी सांभळ्युं नथी, परिचयमां आव्युं नथी अने अनुभवमां आव्युं नथी तेथी [केवलं] एक ते [न सुलभः] सुलभ नथी.
टीकाः– आ समस्त जीवलोकने, कामभोगसंबंधी कथा एकपणाथी विरुद्ध होवाथी अत्यंत विसंवादी छे (आत्मानुं अत्यंत बूरुं करनारी छे) तोपण, पूर्वे अनंत वार परिचयमां आवी छे अने अनंत वार अनुभवमां पण आवी चूकी छे. केवो छे जीवलोक? जे संसाररूपी चक्रना मध्यमां स्थित छे, निरंतरपणे द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव अने भावरूप अनंत परावर्तोने लीधे जेने भ्रमण प्राप्त थयुं छे, समस्त विश्वने एकछत्र राज्यथी वश करनार मोटुं मोहरूपी भूत जेनी पासे बळदनी जेम भार वहेवडावे छे, जोरथी फाटी नीकळेला तृष्णारूपी रोगना दाहथी जेने अंतरंगमां पीडा प्रगट थई छे, आकळो बनी बनीने मृगजळ जेवा विषयग्रामने (ईन्द्रियविषयोना समूहने) जे घेरो घाले छे अने जे परस्पर आचार्यपणुं पण करे छे (अर्थात् बीजाने कही ते प्रमाणे अंगीकार करावे छे). तेथी
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कामभोगनीकथा तो सौने सुलभ (सुखे प्राप्त) छे. पण निर्मळ भेदज्ञानरूप प्रकाशथी स्पष्ट भिन्न देखवामां आवे छे एवुं मात्र आ भिन्न आत्मानुं एकपणुं ज-जे सदा प्रगटपणे अंतरंगमां प्रकाशमान छे तोपण कषायचक्र (-कषायसमूह) साथे एकरूप जेवुं करवामां आवतुं होवाथी अत्यंत तिरोभाव पाम्युं छे (-ढंकाई रह्युं छे) ते - पोतामां अनात्मज्ञपणुं होवाथी (-पोते आत्माने नहि जाणतो होवाथी) अने बीजा आत्माने जाणनाराओनी संगति-सेवा नहि करी होवाथी, नथी पूर्वे कदी सांभळवामां आव्युं, नथी पूर्वे कदी परिचयमां आव्युं अने नथी पूर्वे कदी अनुभवमां आव्युं. तेथी भिन्न आत्मानुं एकपणुं सुलभ नथी. भावार्थः– आ लोकमां सर्व जीवो संसाररूपी चक्र पर चडी पांच परावर्तनरूप भ्रमण करे छे. त्यां तेमने मोहकर्मना उदयरूप पिशाच धोंसरे जोडे छे, तेथी तेओ विषयोनी तृष्णारूप दाहथी पीडित थाय छे अने ते दाहनो ईलाज ईन्द्रियोना रूपादि विषयोने जाणीने ते पर दोडे छे; तथा परस्पर पण विषयोनो ज उपदेश करे छे. ए रीते काम (विषयोनी ईच्छा) तथा भोग (तेमने भोगववुं) -ए बेनी कथा तो अनंत वार सांभळी, परिचयमां लीधी अने अनुभवी तेथी सुलभ छे. पण सर्व परद्रव्योथी भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप पोताना आत्मानी कथानुं ज्ञान पोताने तो पोताथी कदी थयुं नही, अने जेमने ते ज्ञान थयुं हतुं तेमनी सेवा कदी करी नहि; तेथी तेनी कथा (वात) न कदी सांभळी, न तेनो परिचय कर्यो के न तेनो अनुभव थयो. माटे तेनी प्राप्ति सुलभ नथी, दुर्लभ छे. ध्रुवस्वरूप नित्यानंद प्रभु जे भगवान आत्मा तेमां एकत्व थवुं ए सुलभ नथी, केम के अनंतकाळथी कर्युं नथी; माटे असुलभछे एटले के दुर्लभ छे एम हवे गाथामां कहे छे. अरे! माणसने न समजाय ए मनमांथी काढी नाखवुं जोईए, कारणके आत्मा-एकलो समजणनो पिंड छे. न समजाय एवी लायकातवाळो नथी, समजे एवी लायकातवाळो छे. माटे बुद्धि थोडी, अने अमे न समजी शकीए ए वात काढी नाखवी आमां बुद्धिनुं काम झाझुं नथी, परंतु यथार्थ रुचिनुं काम छे.
प्रवचन नंबर १०–१२, तारीख ८–१२–७प थी १०–१२–७प
सर्व लोकने कामभोगसंबंधी बंधनी कथा तो सांभळवामां आवी गई छे, परिचयमां आवी गई छे अने अनुभवमां पण आवी गई छे. जयसेन आचार्यदेवे काम, भोग अने बंध एम त्रणेनी कथा सांभळवामां आवी गई छे एम लीधुं छे. काम एटले ईच्छा अने भोग एटले ईच्छानुं भोगववुं ते; एवा कामभोगनी कथा एटले के एवा भाव संबंधी बंधनी कथा तो अनंतवार सांभळवामां आवी गई छे. अहा! अनंतवार सांभळी छे.
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जयसेन आचार्यदेवे स्पर्शन्द्रिय अने रसना-ईन्द्रिय ए बेना विषयसेवनने ‘काम’ मां गण्या छे अने ध्राणेन्द्रिय, चक्षुरिंद्रिय अने कर्णेन्द्रिय ए त्रणना विषयोने भोगमां लीधा छे. (आ पांचेमां अंदरना भावनी वात छे). आवी कामभोगनी कथा जीवने वारंवार सांभळवामां अने परिचयमां आवी गई छे. रागनी -विकल्पनी जीवने आदत पडी गई छे, अर्थात् रागनो अनुभव, रागनुं वेदवुं अनंतवार कर्युं छे तेथी ते एने सुलभ छे.
अरेरे! मनुष्यपणुं एने अनंतवार मळ्युं छे, ए कांई पहेलुवहेलुं नथी. जीव तो अनादिअनंत छे ने? एटले अनंतकाळमां मनुष्यपणुं तो अनंतवार मळ्युं छे. एमां कोईकवार तो दया, दान, पूजा आदिना शुभरागनी अने कोईकवार हिंसा, जूठ, चोरी आदिना अशुभरागनी-एम पुण्य-पापना भावोनी एने आदत पडी गई छे. एटले कहे छे के रागभावनुं थवुं अने रागभावनुं भोगववुं ए तो अनंतवार श्रवणमां, परिचयमां अने अनुभवमां आवी चूकयुं छे, तेथी ते सुलभ छे.
परंतु, अरे! रागथी भिन्न भगवान आत्मानुं एकत्वपणुं एणे कदी सांभळ्युं नथी. एटले के रागथी भिन्न पडी निर्मळ पर्यायथी अंदर ज्ञायकनी द्रष्टि करवी एवुं कदीय सांभळ्युं नथी. आत्मा, सच्चिदानंद प्रभु रागथी भिन्न छे, ते रागना लक्षे जणाय नहीं. पण रागनी भिन्न पडेली निर्मळ दशामां शुद्ध आत्मा जणाय छे एवी वात कदीय सांभळी नथी, पछी परिचयमां अने अनुभवमां तो क्यांथी आवी होय!
भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव नग्न दिगंबर भावलिंगी मुनि हता. आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनुं प्रचुर स्वसंवेदन करता हता. ते महाविदेहमां सीमंधर भगवान पासे गया हता. सीमंधर एटले स्वरूपनी पूर्णतानी सीमा धरनारा ‘सीमंधर नाथ’. तेमनी पासे ते साक्षात् सदेहे गया हता. त्यां केवळी अने श्रुतकेवळीनी वाणी सांभळी, तेमणे आ शास्त्रो बनाव्यां छे. तेओ कहे छे के- भिन्न आत्मानुं एकपणुं एटले के परथी भिन्न रागथी भिन्न अने स्वभावथी अभिन्न एवुं एकपणुं एणे अनंतकाळमां कदीय सांभळ्युं नथी. मुनिराज पद्मनंदीए कह्युं छे ने के-
निश्चितं स
अध्यात्मनी (रागथी भिन्न आत्मानी) वार्ता पण जे जीवे प्रसन्न चित्तथी - रुचि लावीने सांभळी छे ते भविष्यमां मोक्षनुं भाजन थाय छे. अहीं कहे छे के ध्रुवस्वरूप भगवान आत्मामां एकपणुं मानी एकाग्र थवुं ए एणे कदी सांभळ्युं नथी. रागनुं अने
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परनुं लक्ष छोडी ध्रुवस्वभावमां लक्ष करवुं, शुद्धात्मामां एकपणारूप परिणमन करवुं एवी वात कदी सांभळी नथी तेथी परिचयमां अने अनुभवमां पण आवी नथी, तेथी ते एकनी प्राप्ति सुलभ नथी.
आवा एक ध्रुवस्वभावने द्रष्टिनो विषय न मानतां द्रव्य-पर्याय बेने द्रष्टिनो विषय माने छे ते भूल छे. (द्रष्टिनो विषय तो एक त्रिकाळ ध्रुव द्रव्य छे) नियमसारमां कह्युं छे के अंतःतत्त्वस्वरूप भगवान आत्मा अने बहिःतत्त्व एवी निर्मळ पर्याय ए बेनी मान्यता (श्रद्धान) ए व्यवहार समकित छे. बेने विषय करे ए राग छे. (तेथी जीवने राग ज उत्पन्न थाय) व्यवहार समकित ए रागरूप परिणाम छे. बेपणुं जेनो विषय छे ते राग छे अने एकपणुं (निज ध्रुवस्वभाव) ते सम्यक्दर्शननो विषय छे. अहीं कहे छे के आवी एकपणारूप परिणमननी वात अनंतकाळमां सांभळी ज नथी तेथी ते सुलभ नथी.
आ समस्त जीवलोकने, कामभोगसंबंधी कथा एकपणाथी विरुद्ध होवाथी अत्यंत विसंवादी छे तोपण, पूर्वे अनंतवार सांभळवामां आवी छे, अनंतवार परिचयमां आवी छे अने अनंतवार अनुभवमां पण आवी चूकी छे. अहीं समस्त जीवलोक लीधो छे. एमां एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय सुधीनां बधां ज संसारी प्राणीओ आवी गयां. ए बधा जीवोए, काम कहेतां शुभाशुभ ईच्छानुं थवुं अने भोग कहेतां एनुं भोगववुं-ए संबंधी वात-जे एकपणाथी विरुद्ध छे अने आत्मानुं अत्यंत बूरुं करनारी छे तोपण अनंतवार सांभळी छे. अहीं सर्व जीवलोकमां पृथ्वी, जळ, अग्नि, वायु, वनस्पतिकाय एम सघळा एकेन्द्रिय जीवो पण एमां आवी गया.
बटाटानी एक राई जेटली कटकीमां निगोदना जीवोनां असंख्य औदारिक शरीर छे, एकेक शरीरमां अनंत निगोदना जीव छे. कहे छे के आ निगोदना जीवोए पण रागनी एकतानी वात (कामभोगनी वात) अनंत वार सांभळी छे. पण एमने तो कानेय नथी तो केम करी सांभळी छे? भाई, ए विकल्पने अनुभवे छे ने? एकेन्द्रियादि जीवो कर्णेन्द्रिय न होवा छतां अनंतकाळथी राग वेदे छे. राग साथे एकता अनुभवे छे तेथी बंधकथा सांभळी छे एम कहेवामां आवे छे. अनादिथी केटलाक जीवो एवाछे के जे निगोदमां पडया छे अने कदी बहार नीकळ्या नथी अने नीकळशे नहीं; एवा जीवोए पण रागना एकत्वनी वात सांभळी छे एटले के रागनो अनुभव एकत्वपणे करी रह्या छे अने तेनो ज परिचय छे.
अहा! आ रागना एकत्वनी बंधकथा विसंवादी छे, जीवनुं अत्यंत बूरुं करनारी छे, अकथ्य दुःखो आपनारी छे. राग विकल्प छे-पुण्यनो के पापनो. एने करवो
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अने भोगववो ए जीवने अत्यंत दुःखदायक छे, केमके एकपणाथी विरुद्ध छे. अरेरे! तो पण अनादिकाळथी जीवने तेनी ज वात अनंतवार सांभळवामां आवी छे. भगवान आत्मा ध्रुव चैतन्य अने आनंदस्वरूप छे, अने ईन्द्रियो तरफना वलणनो भाव ए कामभोगसंबंधी कथा छे, -मात्र दुःखनी कथा छे. ए पूर्वे अनंतवार सांभळवामां आवी छे, परिचयमां आवी छे अने अनुभवमां आवी गई छे. परंतु रागथी भिन्न भगवान ध्रुव त्रिकाळ छे एनुं लक्ष करीने वेदन थवुं जोईए ते वेदन एने कदी आव्युं नथी.
हवे विशेष कहे छे के केवो छे आ जीवलोक? ‘संसाररूपी चक्रना मध्यमां स्थित छे.’ जेम घंटीना बे पडनी वच्चे जे दाणो होय ते पीसाई जाय छे तेम आ समस्त जीवलोक अनादिथी संसाररूपी चक्र कहेतां पुण्य अने पाप एम बे भावरूप चक्रनी मध्यमां पीसाई रह्यो छे, दुःखी दुःखी थई रह्यो छे.
वळी तेने ‘निरंतरपणे द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव अने भावरूप अनंत भ्रमण प्राप्त थयुं छे.’ निरंतरपणे विकारमां स्थित होवाथी तेने पांच परावर्तनरूप भ्रमण अनादिथी छे. द्रव्यपरावर्तन कहेतां आ जगतमां जे अनंत अनंत पुद्गल परमाणुओ छे तेनो संबंध एने अनंतवार थई चूक्यो छे. आ शरीरनां रजकणो माटी (पुद्गल) छे, अने आ पैसा, धन, भवन ईत्यादि (कर्म नोकर्म) पण धूळ (पुद्गल) नां रजकणो छे, कहे छे के ए बधा पुद्गलो अनंतवार संबंधमां आवी गया छे. आ धनसंपत्ति, रूपाळुं शरीर, भवन ईत्यादिनो संबंध ए कांई नवुं नथी, अपूर्व नथी; एकमात्र शुद्ध आत्मानी अनुभूति ए ज अपूर्व छे. एवाय अनंत पुद्गलो छे जे जीवना संबंधमां आव्या नथी, छतां तेनुं लक्ष राग उपर छे तेथी अनंत परावर्तनमां बधाय पुद्गलथी संबंधनी लायकातवाळो जीव छे एम कह्युं छे.
वळी जीव निरंतरपणे अनंत क्षेत्रपरावर्तन करी चूक्यो छे. चौद ब्रह्मांडनुं क्षेत्र छे. तेमां दरेक प्रदेशमां अनंतवार जन्म्यो अने मर्यो छे. अनादिनी चीज छे ने? तेथी दरेक क्षेत्रे अनंत वार परिभ्रमण करी चूक्यो छे. भावपाहुडमां आवे छे के हजारो राणीओ छोडी, नग्न दिगंबर मुनिपणुं धारण कर्युं, अगियार अंग अने नव पूर्व भणी गयो, परंतु आनंदनो नाथ त्रिकाळी भगवान जे आत्मा तेनी द्रष्टि अने अनुभव करवां जोईए ते न कर्या. एवां द्रव्यलिंग धारण करी मुनिपणां लईने पण दरेक प्रदेशे अनंतवार जन्म- मरण करी चूक्यो छे. ज्यां सिद्ध भगवान बिराजे छे त्यां पण अनंतवार जन्म्यो, मर्यो छे; कोई क्षेत्र बाकी नथी. आम जीवे अनंत क्षेत्रपरावर्तन कर्यां छे.
वळी जीवे निरंतरपणे अनंत काळपरावर्तन कर्यां छे. काळचक्रना उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी एम बे भाग छे. ते दरेक दश कोडाकोडी सागरोपम छे. एक सागर असंख्य
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अबज वर्षोनो थाय छे. आ उत्सर्पिणी, अवसर्पिणीकाळना दरेकना प्रथम समयथी मांडी क्रमशः दरेक समयमां जीवे जन्म, मरण कर्यां छे. आम एक एक समये जन्म- मरण करतां अनंतवार जन्म्यो अने मर्यो छे. अहा! पण आत्मज्ञान अने आत्मदर्शन शुं छे तेनी वात कदी सांभळी नथी.
पैसा, संपत्ति वगेरे अनंतवार आव्या अने गया. आ मोटा शराफ, वकील अने डोकटरना धंधानी वात ए तो दुःखनी, पीडानी कथा छे. भाई! तें तारी वात सांभळी नथी. सर्वज्ञ परमेश्वर जेने आत्मा कहे छे तेनी वात कदी सांभळी नथी, ए परम आनंदनो नाथ छे; प्रभु! अतीन्द्रिय आनंदनो कंद आत्मा छे. जेम सकरकंद छे, एनी लाल छालनुं लक्ष छोडी दो तो ए एकली मीठाशनो पिंड छे. तेम आ भगवान आत्मा छे. पुण्य अने पाप ए लाल छाल जेवा छे. ए पुण्य-पाप विनानो आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो कंद छे. आ सांभळ्युं नथी कोई दिवस. जे सांभळवानुं छे ते न सांभळ्युं अने जे सांभळवानुं नथी ते सांभळ्युं. अहा! रूपिया क्यां एना छे, छतां रूपिया मारा छे ए मान्यता मूढनी छे. जड छे ते जीवना क्यांथी थाय? जड छे एने आपे कोण? राखे कोण? अने एनी रक्षा करे कोण? एनुं आववुं, जवुं ए आपमेळे एनाथी छे. ए जडनी रक्षा जडथी थाय छे. एमां आत्मा शुं करे? आवी वात कदीय सांभळी नहीं. तेथी प्रतिसमय जन्म-मरण सहित अनंत काळमां दुःखथी ज रखडी रह्यो छे.
वळी जीव निरंतरपणे अनंत भवपरावर्तन करी चूक्यो छे. मनुष्य, नारकी, देव अने तिर्यंचना भवो अनंतवार थई चूकया छे. राजा, महाराजा, शेठ अने करोडपतिना भव अनंतवार मळ्या छे, भाई! पण ए बधा भिखारानी जेम हमणां पण दुःखी छे, केमके एमने आत्माना आनंदनी खबर नथी. भगवान सर्वज्ञदेवे अनंत अनंत आनंद अने शांतिथी भरेलो भगवान आत्मा अनंत ज्ञानलक्ष्मीनो भंडार कह्यो छे. पण प्रभु! तने तारी लक्ष्मीनी खबर नथी अने बहार दोडादोडी करी दुःखी थई रह्यो छे. अहा! दुनिया मूर्ख छे, आत्माने समज्या विना मूर्ख छे. राग अने पुण्यनी क्रिया मारी एम माननारा सौ मूर्ख छे. अरे! अनंत अनंत अनाकुळ आनंदनी मूर्ति भगवान आत्मा छे एनी खबर न मळे, अने आ करो ने ते करो, एम पुण्य-पाप करवानी वात अनादिथी सांभळी सांभळी, अनंत भवनां कष्ट सह्यां छे, भाई! निगोदनां दुःखोनी कथा तो कोण कही शके? आ रागकथा, बंधकथा आत्मानुं अत्यंत बूरुं करनारी छे. वळी जीवने अनंत भावपरावर्तन थयां छे. शुभ अने अशुभ भावरूपी भावपरावर्तन अनंतवार थई गयां छे. दया, दान, व्रत, तप, पूजा, भक्ति आदि शुभभाव जीवे अनंतवार कर्या छे. एकेन्द्रियने पण शुभभाव होय छे. आम दया, अहिंसा आदिना
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शुभभाव अने रळवुं, कमावुं, परिग्रह राखवो, अने विषयवासना आदि पापभावोनुं परावर्तन जीवे अनंत वार कर्युं छे. आवा पंचपरावर्तनरूप अनंत परावर्तोने लीधे जीवने चार गतिमां परिभ्रमण थयुं छे. तेथी संसारचक्रना चक्रावामां पीसाई रह्यो छे, दुःखी थई रह्यो छे.
हवे कहे छे के समस्त विश्वने एकछत्र राज्यथी वश करनार मोटुं मोहरूपी भूत तेनी पासे बळदनी जेम भार वहेवडावे छे. जेनुं राज्य होय तेनो सिक्को (चलण) ते राज्यमां चाले छे. अहीं परमात्मा कहे छे के अकेन्द्रियथी मांडीने बधा संसारी अज्ञानी जीवोमां मिथ्यात्वरूपी विपरीत मान्यतानो सिक्को चाले छे. मिथ्यात्वनुं एकछत्र राज्य विश्वमां चाली रह्युं छे. हजारो राणी छोडीने नग्न दिगंबर साधु थयो, पण अंतरमां शुद्ध ज्ञानने ग्रह्युं नहीं. मिथ्या अभिमान करीने भ्रमणाने वश थयो. एकछत्र राज्यथी वश करनार विपरीत श्रद्धा अर्थात् परमां सावधानीरूप मोटा मोहना भूतने आधीन थयो. आ मोहनुं भूत तेनी पासे बळदनी जेम भार वहेवडावे छे.
नवो आखलो होय ते गाडानी धूंसरी नीचे जलदी आवे नहीं, एने पलोटवो पडे; पण अभ्यास थई गया पछी बळद होय ते झट दईने धूंसरी नीचे दाखल थई जाय छे. तेम जीवने अनादिनो अभ्यास-आदत थई गयेल छे. अमारे बैरांछोकरां पाळवां जोईए, अमारे व्यवहार पाळवो जोईए, धंधामां ध्यान राखवुं जोईए एम निरंतर परसन्मुख थई रागद्वेष कर्या करे छे. आनंदस्वरूप भगवान आत्मा प्रत्ये रुचि करवाने बदले अनेक प्रकारना पुण्य-पापना भावोमां रोकाई बळदनी जेम भार उपाडे छे, राग-द्वेषनो बोजो उपाडे छे. वीतरागी संतो तेने करुणा करी मार्ग बतावे छे.
पुण्य-पापना विकल्पोनी एकतामां बळदनी जेम मजूरी करे छे. पांच- पचीसलाख रूपिया (धूळ) होय, तेने मेळववानी, साचववानी, अने आपवा-लेवानी ए बधी मजूरी छे. मोहरूपी भूत आ बधी मजूरी करावे छे. पाप करीने स्त्री-पुत्रने पोषे, छोकरा-छोकरी परणावे ईत्यादि. भाइ! आ तो वीतरागी संतोनी वात. ते जगतने जाहेर करे छे के आ मोहरूपी भूत जगत पासे बळदनी जेम भार वहेवडावे छे.
वळी तेने जोरथी फाटी नीकळेला तृष्णारूपी रोगना दाहथी अंतरंगमां पीडा प्रगट थई छे, तेथी आकळो बनीने मृगजळ जेवा विषयग्रामने घेरो घाले छे. मोहवश, वस्तुना स्वरूपनी भ्रमणाने लीधे, आ जोईए अने ते जोईए एम तृष्णारूपी रोग तेने थयो छे. आ तृष्णारूपी रोगथी ते अत्यंत पीडित छे. आ पीडानो दाह तेने बाळे छे. बळतरानो