Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 5-6.

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उपाय करवा ते ईन्द्रियोना विषयो तरफ झुकाव करे छे. तृष्णारूपी रोगनी पीडा सहन नहीं थवाथी ते आकळ-विकळ बनी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अने शब्द एवा विषयो तरफ झूके छे, विषयोमां ज झंपलावे छे. परंतु अरेरे! आ विषयो तो मृगजळ जेवा छे.

जेम खारी जमीनमां सूर्यनां किरणो पडे तो ते पाणी जेवुं देखाय पाणी छे नहीं, मात्र देखाय छे. तेम पंचेन्द्रियना विषयो रम्य छे नहीं, मात्र देखाय छे. तेथी आ विषयो तो मृगजळ जेवा छे, देखावमात्र रम्य छे. आ जाणी लउं, आ खाई लउं, आ सांभळी लउं, आ भोगवी लउं, स्त्री, मकान ईत्यादि भोगवी लउं एम एकसाथे विषयोना समूहमां कूदी पडे छे. अहा! सित्तेर, सित्तेर वर्षना आयुष्य वीती गयां तेमां राग-द्वेष, पुण्य-पापना विकल्पोनी मजूरी ज एणे करी छे. करोडपति अने अबजोपति मोटा तृष्णारूपी रोगना दाहने शमाववा मृगजळ जेवा विषयोने सेवे छे, पण तेमां क्यांय सुख मळे एम नथी. मफतनो मिथ्या फांफां ज मारे छे.

वळी ते जीवो परस्पर आचार्यपणुं पण करे छे. एटले के बीजाने कही ते प्रमाणे अंगीकार करावे छे. आचार्यपणुं करे छे एटले एकबीजाने समजावे छे, शिखामण आपे छे के आपणे आम करवुं जोईए, तेम करवुं जोईए, छोकरांने भणाववां जोईए, मोटां करवा जोईए, परणाववां जोईए. व्यवहारमां तो बधुं करवुं जोईए ने? धर्म तो वृद्धावस्थामां करशुं हमणां तो आपणी फरज बजाववी जोईए, ईत्यादि परस्पर आचार्यपणुं करे छे. आवा जीवलोकने मिथ्यात्वरूपी भ्रमणा थई रही छे. जेम वंटोळियामां तणखलुं ऊडीने क्यां जई पडशे तेनी खबर नथी तेम आ संसारमां रखडता जीवो मरीने कागडे, कूतरे,.. . क्यां चाल्या जशे? अरे! चोराशीना अवतार करी-करीने जीवो दुःखी दुःखी थई रह्या छे, दुःखमां पीलाई रह्या छे.

अंदर आनंदनो नाथ पोते छलोछल सुखथी भरेलो छे तेनी सामे नजर कोई दिवस करी नहीं. आनंदना निधान प्रभु परमात्मानी सामे नजर न करतां ईच्छा अने ईच्छानुं भोगववुं एम कामभोगनी कथा अनंतवार सांभळी, परिचयमां लीधी अने अनुभवमां पण लीधी. तेथी आ कामभोग बंधनी कथा सौने सुलभ छे एटले के सौने सहेलाईथी प्राप्त थाय तेवी छे.

कामभोगनी कथा कहेतां विषयो संबंधी रागनी अने रागना भोगववानी कथा अनंतवार सांभळी छे. विषयभोग लेवो ते एकलो कामभोग नथी. जीव स्त्रीना शरीरने भोगवतो नथी. शरीर तो हाड, मांस, चामडां छे. ए तो अजीव छे, जड छे. एने ते ईष्ट गणीने राग करे छे. ते रागने अनुभवे छे, भोगवे छे, शरीरने नहीं. एम मेसुब, पाक वगेरे


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जीव खातो (भोगवतो) नथी, ए क्रिया तो जडनी छे. ए उपर लक्ष जाय एटले रागने भोगवे छे. जडने शुं भोगवे? आत्मा तो अरूपी छे, रूपीने ते कई रीते भोगवे? अरे! कोई दिवस सांभळ्‌युं नथी. जेम कूतरो सूकुं हाडकुं चावे ने दाढमां लोही नीकळे. त्यां एने एम थाय के हाडकामांथी लोही आवे छे. तेम अज्ञानी देह, वाणी, लाडुं, दाळ, भात खाय त्यां एना रागनो स्वाद जणाय छे, पण ते एम माने के देह, वाणी आदिमांथी स्वाद आवे छे. एने खबर नथी के शुं भोगवाय छे. आंधळे आंधळो हाल्यो जाय छे. एणे कदी आत्मानी वात सांभळी ज नथी.

अरे! आ सांभळवानी जे ईच्छा छे ए पण विषय छे. त्यां एनी प्रीतिमां रोकाई जाय छे ए पण विषय छे. भाई! ऊंडी वात छे. आ तो अध्यात्मनी कथा छे. बापु! जीवनी भूल शुं छे अने ए केम थाय छे ए बतावे छे. एकेन्द्रियथी मांडीने पंचेन्द्रिय सुधीना जीवो-देवो, शेठिया, करोडपतिओ, जे बधा धूळना (संपत्तिना) धणी कहेवाय छे ते बधाए रागनी वातो सांभळी छे अने रागने भोगवी रह्या छे. तेथी ते तो ए सौने सुलभ छे. परंतु रागथी भिन्न सहज शुद्ध आत्मानुं एकपणुं सुलभ नथी.

निर्मळ भेदज्ञानरूप प्रकाशथी स्पष्ट भिन्न देखवामां आवे छे एवुं आ भिन्न आत्मानुं एकपणुं ज सुलभ नथी. जुओ, रागथी भिन्न अने परलक्षी ज्ञानथी पण भिन्न अने पोताथी अभिन्न एवा आत्मानुं एकपणुं, निर्मळ भेदज्ञानरूप प्रकाशथी स्पष्ट भिन्न देखवामां आवे छे. जीवे परलक्षी ज्ञान पण अनंत वार कर्युं छे. अगियार अंग अने नवपूर्वनुं ज्ञान छे ए पण परलक्षी ज्ञान छे, एनाथी आत्मानुं एकपणुं भिन्न देखातुं नथी. राग अने परनुं लक्ष छोडी स्वद्रव्यना ध्येय अने लक्षे जे भेदज्ञान थाय ए भेदज्ञानथी आत्मानुं एकपणुं देखवामां आवे छे. जेम प्रकाशमां ज चीज स्पष्ट देखाय तेम भेदज्ञानप्रकाशमां ज आत्मवस्तु स्पष्टपणे भिन्न देखाय छे. निर्मळ भेदज्ञानप्रकाश वडे आत्मानुं एकपणुं स्पष्ट देखवुं ए मुदनी वात छे, भाई! बाकी दया पाळो, भक्ति करो, व्रत करो ईत्यादि बधां थोथां छे.

अहो! मात्र आ भिन्न आत्मानुं एकपणुं स्वभावथी ज सदा प्रगटपणे अंतरंगमां प्रकाशमान छे, ते भेदज्ञानप्रकाशथी देखाय छे. आनंदनो नाथ चैतन्यचमत्कार प्रभु अंदरमां प्रकाशमान छे तेने भेदज्ञानप्रकाशथी जोवा कदी दरकार करी नथी. आवुं अंदरमां चकचकाट करती आत्मवस्तुनुं एकपणुं कषायचक्र साथे एकरूप जेवुुं करवामां आवतुं होवाथी अत्यंत तिरोभाव पाम्युं छे, ढंकाई गयुं छे. दया. दान, भक्ति आदि शुभ विकल्पो अने हिंसादि अशुभ विकल्पोमां एकरूप थतां (मानतां) भगवान आत्मानुं एकपणुं ढंकाई गयुं छे.


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अहाहा! भेदज्ञानप्रकाशथी स्पष्ट देखवामां आवे छे एवी अंतरंगमां चकचकाट करती ज्ञानरूपी प्रकाशनी मूर्ति असंख्य प्रकारना शुभाशुभ विकल्पो साथे एकरूप जेवी मानवामां आवतां ढंकाई गई छे, रागनी एकत्वबुद्धि आडे ए नजरमां आवती नथी.

रागना विकल्पो अने परलक्षी ज्ञान ए ज जाणे मारी चीज छे एवी मान्यताने आडे ज्ञायक प्रकाशमान चैतन्यज्योति ढंकाई गई छे. पोतामां अनात्मज्ञपणुं होवाथी अर्थात् पोताने आत्माना ज्ञाननो अभाव होवाथी अंदर प्रकाशमान चैतन्यचमत्कार वस्तु पडी छे तेने कदीय जाणी के अनुभवी नथी. पोते आत्मानुं एकपणुं नहीं जाणतो होवाथी तथा आत्माने जाणनारा संतो-ज्ञानीओनी संगति-सेवा नहीं करी होवाथी भिन्न आत्मानुं एकपणुं कदी सांभळ्‌युं नथी, परिचयमां आव्युं नथी अने तेथी अनुभवमां पण आव्युं नथी. आत्मज्ञ संतोए रागथी अने परलक्षी ज्ञानथी भिन्न आत्मानुं एकपणुं कह्युं, पण ते एणे मान्युं नहीं तेथी तेमनी संगति-सेवा करी नहीं एम कह्युं छे. गुरुए जेवो आत्मा कह्यो तेवो मान्यो नहीं, परंतु बाह्य प्रवृत्तिमां जीव रोकाई गयो. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति ईत्यादिना शुभरागमां धर्म मानीने रोकाई गयो.

भाई! लोको माने छे तेनाथी मार्ग तद्न जुदो छे. सम्यग्दर्शन अने तेनो विषय जेनाथी जन्म-मरणनो अंत आवे ए वात तद्न जुदी छे. दिगंबर संतोए अने केवळीओए ते कही छे, तेणे सांभळी पण छे, परंतु मानी नथी तेथी संगति- सेवा कर्यां नहीं एम कहे छे. सांभळवा तो मळ्‌युं छे केमके समोसरणमां अनंत वार गयो छे. समोसरणमां एटले त्रणलोकना नाथ देवाधिदेव अरिहंत परमात्मानी धर्मसभामां, ज्यां ईन्द्रो अने एकावतारी पुरुषो, वाघ अने सिंह आदि बेठा होय छे त्यां अनंत वार गयो छे. पण केवळी आगळ रही गयो कोरो, केमके केवळी भगवाने जेवो शुद्धात्मा भिन्न बताव्यो तेवो मान्यो नहीं. भगवाननी दिव्यध्वनिनो सार जे शुद्धात्मा ते अभिप्रायमां लीधो नहीं. मात्र द्रव्यक्रियानो अभिप्राय पकडी द्रव्यसंयम पाळवामां मग्न थयो. एवो द्रव्यसंयम पाळी अनंतवार नवमी ग्रैवेयकनो देव थयो. छ-ढाळामां आवे छे ने केः-

मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ.

द्रव्यसंयम पाळवानो भाव तो शुभभाव हतो, तेथी स्वर्गनो ऋद्धिधारी देव थयो पण त्यांथी पाछो पटकायो. बाह्य संयम भले पाळ्‌यो, पण आत्मज्ञान विना जरापण सुख पाम्यो नहीं, भवभ्रमणथी छूटयो नहीं.


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* भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ लोकमां सर्व मिथ्याद्रष्टि जीवो-एकेन्द्रियथी मांडीने पंचेन्द्रिय सुधीना जीवोसंसाररूपी चक्र पर चढी पांच परावर्तनरूप भ्रमण करे छे. अनादिथी पुण्य- पापरूपी भावकर्ममां भींसाई रह्या छे. अनंत परावर्तनमां आ शरीरादिना पुद्गलो अनेकवार संयोगमां आवी गया छे. दरेक क्षेत्रे अनंतवार जन्मीने मरी चूक्यो छे. दरेक काळमां अनंत जन्म-मरण कर्यां छे. एवी रीते दरेक भवमां अनंतवार परिभ्रमण कर्युं छे. एवी रीते शुभाशुभ भाव पण अनंतवार जीव करी चूक्यो छे. आ पांच परावर्तनरूप भ्रमणमां तेने मोहकर्मना उदयरूप पिशाच-भूतडुं धोंसरे जोडे छे. ऊलटी मान्यतारूप भूतडाए तेने रागनी एकतारूप संसारना धोंसरे जोडी दीधो छे. बायडीनुं करवुं, छोकरानुं करवुं, देशनुं करवुं, शरीरनुं करवुं एम मिथ्यात्व वडे, पोतानो छतो स्वभाव नहीं जाणवाथी, रागना एकत्वरूप धोंसरे जोडायो छे. तेथी ते विषयोनी तृष्णाना दाहथी पीडित थई रह्यो छे. तृष्णाना दाहनी बळतराथी बळी रह्यो छे. आ सांभळवुं, जोवुं, सूंघवुं, चाखवुं, स्पर्शवुं एवा पंचेन्द्रियोना विषयोनी तृष्णारूप अग्निथी अंदर बळी रह्यो छे. ते दाहनो ईलाज ईन्द्रियोना विषयो-रूप आदि विषयो- छे एम जाणी पोताना उपयोगने ते तरफ जोडे छे. ते पंचेन्द्रियोना विषयोने घेरो घाले छे. ते विषयोने जाणवा अने भोगववामां मग्न बने छे. तथा परस्पर उपदेश पण विषयोनो ज करे छे. आपणे आ करवुं जोईए, आम कर्या विना कांई चाले? आपणे हजु संसारी छीए. एम एकबीजा परस्पर रागनो ज उपदेश करे छे. परंतु कोइ अंतरस्वभावमां जवानी वात करतुं नथी. विषयभोगनी अने रागनी कथा मांहोमांहे अज्ञानी जीवो करे छे. एक जीव कहे अने बीजो सांभळी कहे के -‘हा बराबर छे.’ आम विषयोनी ईच्छा अने विषयोने भोगववुं एवी काम अने भोगनी कथा तो जीवोए अनंतवार सांभळी छे, परिचयमां लीधी छे अने अनुभवी छे तेथी सुलभ छे.

पण परद्रव्योथी भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप पोताना आत्मानुं ज्ञान कदी थयुं नथी. चैतन्यचमत्कार वस्तु पोते आत्मा छे एनुं ज्ञान पोते अनंतकाळमां कर्युं नथी; अने जेमने ए ज्ञान थयुं हतुं एवा पुरुषोनी सेवा कदी करी नथी. एटले के संतोए कह्युं ते सांभळ्‌युं पण अंदरमां मान्युं नथी. मान्युं नहीं तेथी खरेखर सांभळ्‌युं ज नथी. आ रीते निज परमात्मस्वरूप आत्मानी कथा न कदी सांभळी, न परिचय कर्यो के न तेनो अनुभव कर्याे. तेथी चैतन्यचमत्कारस्वरूप भगवान आत्मानी प्राप्ति सुलभ नथी. राजपाट अने देवपद एवुं तो अनंतवार मळ्‌युं, परंतु निज शुद्धात्मानी प्राप्ति थवी सुलभ नथी अर्थात् दुर्लभ छे.

***

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जीव–अजीव अधिकार

*
गाथा–प

अत एवैतदुपदर्श्यते–

तं एयतविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण।
जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छंल ण घेत्तव्वं।।
५।।

तमेकत्वविभक्तं दर्शयेऽहमात्मनः स्वविभवेन।
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम्।। ५।।

हवे आचार्य कहे छे के, तेथी ज जीवोने ते भिन्न आत्मानुं एकत्व अमे दर्शावीए छीएः-

दर्शावुं एक विभक्त ए, आत्मा तणा निज विभवथी;
दर्शावुं तो करजो प्रमाण, न दोष ग्रह स्खलना यदि. प.

गाथार्थः– [तम्] ते [एकत्वविभक्तं] एकत्वविभक्त आत्माने [अहं] हुं [आत्मनः] आत्माना [स्वविभवेन] निज वैभव वडे [दर्शये] देखाडुं छुं; [यदि] जो हुं [दर्शयेयं] देखाडुं तो [प्रमाणं] प्रमाण (स्वीकार) करवुं अने [स्खलेयं] जो कोई ठेकाणे चूकी जाउं तो [छलं] छळ [न] [गृहीतव्यम्] ग्रहण करवुं.

टीकाः– आचार्य कहे छे के जे कांई मारा आत्मानो निजवैभव छे ते सर्वथी हुं आ एकत्व-विभक्त आत्माने दर्शावीश एवो में व्यवसाय (उद्यम, निर्णय) कर्यो छे. केवो छे मारा आत्मानो निजविभव? आ लोकमां प्रगट समस्त वस्तुओनो प्रकाश करनार अने ‘स्यात्’ पदनी मुद्रावाळो जे शब्दब्रह्म-अर्हंतना परमागम-तेनी उपासनाथी जेनो जन्म छे. (‘स्यात्’ नो अर्थ ‘कथंचित्’ छे एटले के ‘कोई प्रकारथी कहेवुं’. परमागमने शब्दब्रह्म कह्यां तेनुं कारणः अर्हंतना परमागममां सामान्य धर्मो- वचनगोचर सर्व धर्मो-नां नाम आवे छे; अने वचनथी अगोचर जे कोई विशेष धर्मो छे तेमनुं


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अनुमान कराववामां आवे छे; ए रीते ते सर्व वस्तुओना प्रकाशक छे माटे सर्वव्यापी कहेवामां आवे छे, अने तेथी तेमने शब्दब्रह्म कहे छे.) वळी ते निजविभव केवो छे? समस्त जे विपक्ष-अन्यवादीओथी ग्रहण करवामां आवेल सर्वथा एकांतरूप नयपक्ष- तेमना निराकरणमां समर्थ जे अतिनिस्तुष निर्बाध युक्ति तेना अवलंबनथी जेनो जन्म छे. वळी ते केवो छे? निर्मळविज्ञानघन जे आत्मा तेमां अंतर्निमग्न परमगुरु- सर्वज्ञदेव अने अपरगुरु-गणधरादिकथी मांडीने अमारा गुरु पर्यंत, तेमनाथी प्रसादरूपे अपायेल जे शुद्धात्मतत्त्वनो अनुग्रहपूर्वक उपदेश, तेनाथी जेनो जन्म छे. वळी ते केवो छे? निरंतर झरतो-आस्वादमां आवतो, सुंदर जे आनंद तेनी छापवाळुं जे प्रचुरसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन, तेनाथी जेनो जन्म छे. एम जे जे प्रकारे मारा ज्ञाननो विभव छे ते समस्त विभवथी दर्शावुं छुं. जो दर्शावुं तो स्वयमेव (पोते ज) पोताना अनुभव-प्रत्यक्षथी परीक्षा करी प्रमाण करवुं; जो क्यांय अक्षर, मात्रा, अलंकार, युक्ति आदि प्रकरणोमां चूकी जाउं तो छल (दोष) ग्रहण करवामां सावधान न थवुं. शास्त्रसमुद्रनां प्रकरण बहु छे माटे अहीं स्वसंवेदनरूप अर्थ प्रधान छे; तेथी अर्थनी परीक्षा करवी.

भावार्थः– आचार्य आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परापर गुरुनो उपदेश अने स्वसंवेदन-ए चार प्रकारे उत्पन्न थयेल पोताना ज्ञानना विभवथी एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मानुं स्वरूप देखाडे छे. तेने सांभळनारा हे श्रोताओ! पोताना स्वसंवेदन-प्रत्यक्षथी प्रमाण करो; क्यांय कोई प्रकरणमां भूलुं तो एटलो दोष ग्रहण न करवो एम कह्युं छे. अहीं पोतानो अनुभव प्रधान छे; तेनाथी शुद्ध स्वरूपनो निश्चय करो-एम कहेवानो आशय छे.

हवे आचार्य कहे छे के तेथी ज जीवोने ते भिन्न आत्मानुं एकत्व अमे दर्शावीए छीए.

प्रवचन नंबर १२–१४, तारीख ११–१२–७प थी १३–१२–७प

* गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

ते एकत्वविभक्त आत्माने हुं आत्माना निजवैभव वडे देखाडुं छुं; जो हुं देखाडुं तो प्रमाण करवुं अने जो कोई ठेकाणे चूकी जाउं तो छळ न ग्रहण करवुं.

भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के परथी भिन्न अने स्वथी एकत्वरूप एवा आनंदमूर्ति भगवान आत्माने निजवैभव वडे देखाडुं छुं. जो हुं देखाडुं अर्थात् देखाडवामां आवे तो स्वानुभवथी परीक्षा करीने प्रमाण करवुं. मात्र उपर-उपरथी हा पाडजे एम कह्युं नथी, पण स्वसंवेदनज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव करी प्रमाण करजे एम कह्युं छे. आ आत्मा


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पूर्णानंदनो नाथ स्वभावथी एकत्वपणे छे, रागथी विभक्त छे. तेने तुं स्वसंवेदनज्ञाननी पर्याय द्वारा जाण. ‘स्वसंवेदनज्ञानेन परीक्ष्य’ एम कह्युं एनो अर्थ ए छे के जे द्रव्यस्वभाव छे तेने स्वसंवेदनज्ञानथी अनुभव करी परीक्षा वडे प्रमाण करजे, अमे कहीए छीए एटलामात्रथी नहीं.

आ तो त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवनो पंथ छे. सो ईंद्रोना पूज्नीय वीतराग सर्वज्ञदेवनी दिव्यध्वनिमां आ एकत्वविभक्त आत्मानुं स्वरूप आव्युं हतुं. ए अमे प्रत्यक्ष अनुभवीने कहीए छीए. अमारा आत्मामां (पर्यायमां) एनो साक्षात्कार थयो छे. आत्मा आवो ज छे एम अमे जाण्युं छे. भगवाने कह्युं छे माटे कहीए छीए एम नहीं, पण स्वसंवेदन-अनुभवथी आत्माने अमे जाण्यो छे. ए अमे तने बतावीए छीए, माटे तुं अनुभव करीने प्रमाण करजे, स्वीकार करजे.

पूर्णानंदनो नाथ अभेद वस्तु छे. एनो स्वीकार ते पर्याय छे. पर्याय तेनो स्वीकार करे छे के आ निज परमात्मा छे. समयसार गाथा ३२०मां (आचार्य जयसेननी टीकामां) आवे छे के पर्याय एम जाणे छे के- ‘सकळनिरावरण अखंड एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकपरमभावलक्षण निज परमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं.’ आम वस्तुनो यथार्थ स्वीकार तेना स्वसंवेदनज्ञान वडे ज थाय छे.

वळी कहे छे के जो कोई ठेकाणे चूकी जाउं तो छळ न ग्रहण करवुं. अनुभवमां तो चूक नथी. पण भाषामां, छंदमां के व्याकरणमां क्यांक ओछुं-वत्तुं आवी जाय तो छलं ण घेत्तव्वं– छळ ग्रहण न करीश. अमे जे कहेवा मागीए छीए ते भावने ध्यानमां राखी बराबर पकडजे, शब्दने न पकडीश. वस्तुनो निर्णय करवामां स्वसंवेदन प्रधान छे, तेथी भगवान पूर्णानंदनो नाथ स्वसंवेदनमां आवे ए रीते तुं प्रमाण करजे.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

आचार्य कहे छे के जे कांई मारा आत्मानो निजवैभव छे ते सर्वथी हुुं आ एकत्वविभक्त आत्माने दर्शावीश. आ बैरां-छोकरां, पैसा-मकान, धन-दोलत ए आत्मानो वैभव नथी. अंदर पुण्य-पापना विकारी भाव थाय ए पण आत्मानो वैभव नथी. त्रिकाळ ध्रुव ज्ञायकना अवलंबने मारी निर्मळ पर्यायमां मने जे वीतरागता प्रगट थई छे ए मारो निजवैभव छे. ते मारा अनुभवना सर्व वैभवथी हुं आ स्वभावथी एकत्व अने विभावथी विभक्त एवो भगवान आत्मा दर्शावीश एवो में व्यवसाय कर्यो छे, उद्यम कर्यो छे, निश्चय कर्यो छे.


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‘मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी,
मंगलं कुंदकुंदार्यो, जैन धर्मोऽस्तु मंगल.’

अहीं मंगलाचरणमां प्रथम तीर्थंकरदेव, बीजा गणधरदेव अने तरत ज त्रीजा स्थाने श्री कुंदकुंदाचार्यदेव छे. तेओ कहे छे के मने मारा आत्मानो निजवैभव प्रगटयो छे. ए सर्व वैभव वडे में स्वथी एकत्व अने परथी भिन्न आत्माने बताववानो निश्चय कर्यो छे.

केवो छे मारा आत्मानो निजवैभव? आ लोकमां प्रगट समस्त वस्तुओनो प्रकाश करनार अने ‘स्यात्’ पदनी मुद्रावाळो जे शब्दब्रह्म-अर्हंतनां परमागम-तेनी उपासनाथी जेनो जन्म छे. शरूआत करतां पोताने जे निजवैभव प्रगटयो तेमां निमित्त कोण हतुं ए कहे छे. त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेव अर्हंत परमात्माए ॐध्वनि- दिव्यध्वनि द्वारा जे उपदेश कर्यो ते अनुसार परमागमनी रचना थई. ते परमागमनी उपासनाथी-सेवा करवाथी मने आत्म-वैभव प्रगट थयो छे. भगवाननी वाणीने शब्दब्रह्म कहे छे केमके ब्रह्मस्वरूप जे पूर्णानंदनो नाथ आत्मा तेने बतावनारो छे. वळी ते ‘स्यात्’ पदनी मुद्रावाळो छे अने लोकमां प्रगट समस्त वस्तुओनो प्रकाश करनार छे. परमागमने शब्दब्रह्म कह्यां तेनुं कारणः अर्हंतना परमागममां सामान्य धर्मो-वचनगोचर सर्व धर्मोनां नाम आवे छे. अस्तित्व, वस्तुत्व, ज्ञान, दर्शन, आनंद ईत्यादि धर्मोनां नाम आवे छे. अने वचनथी अगोचर जे कोई विशेषधर्मो छे तेमनुं अनुमान कराववामां आवे छे. ए रीते ते सर्व वस्तुओना स्वरूपना प्रकाशक छे माटे सर्वव्यापी कहेवामां आवे छे, अने तेथी भगवाननां परमागमने शब्दब्रह्म कहेवामां आवे छे.

स्यात् पदनी मुद्रावाळो शब्दब्रह्म छे. स्यात् एटले कथंचित्-एटले के कोई अपेक्षाथी कहेवुं ते. भगवाननी वाणी अनेकांत वस्तुनुं कोई अपेक्षाथी कथन करे छे. तेने स्यात्-पदनी मुद्रा कहेवाय छे. भगवान सर्वने जाणे माटे ते सर्वव्यापी कहेवाय छे. अने वाणी सर्व तत्त्वने कहेनारी छे तेथी तेने शब्दब्रह्म कहेवामां आवे छे. आचार्य कहे छे मने जे निजवैभव प्रगट थयो एमां आ शब्दब्रह्मरूपी परमागम निमित्त छे. एटले के अज्ञानी अन्यवादीओनी वाणी एमां निमित्त होई शके नही.

वळी ते निजवैभव केवो छे? समस्त जे विपक्ष-अन्यवादीओथी ग्रहण करवामां आवेल सर्वथा एकांतरूप नयपक्ष-तेमना निराकरणमां समर्थ जे अति निस्तुष निर्बाध युक्ति तेना अवलंबनथी जेनो जन्म छे.


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सर्वथा एकांतरूप जे नयपक्ष तेना निराकरणमां समर्थ जे अति निस्तुष निर्बाध युक्ति-एटले के फोतरां विनानी मालवाळी जे पुष्ट अने सफळ युक्ति तेना अवलंबनथी मने निजवैभव प्रगट थयो छे. सम्यक् युक्ति वडे एकांतपक्षनुं खंडन करी तेनुं निराकरण करी नाख्युं छे. तथा सर्वज्ञदेवनी वाणीमां जे वीतरागमार्ग कह्यो छे ते अमे ग्रहण करी लीधो छे.

कुंदकुंदाचार्यना समयथी सो वर्ष पहेलां श्वेतांबरमत नीकळी चूकेलो. दिगंबर सनातन मतमांथी जुदा पडी नवो श्वेतांबरमत शरू करेलो. हमणां केटलाक समन्वयनी वातो करे छे, पण समन्वय कोनी साथे करवो? भाई! अमारे कोई साथे वेर-विरोध नथी. सौ भगवान आत्मा छे. अमने तो सत्त्वेषु मैत्री छे, पण पर्यायमां जे भूल छे ते बराबर जाणवी जोईए. निर्बाध युक्तिना अवलंबनथी अमे एकांतवादी अन्यमतनुं निराकरण करी नाख्युं छे. एटले के एकांतवाद ते सत्यमार्ग नथी, कल्पित छे एम नक्की करी अमे यथार्थ अनेकांतरूप वीतरागमार्गने धारण कर्यो छे. आ रीते अमने निजवैभव प्रगट थयो छे.

वळी ते केवो छे? निर्मळ विज्ञानघन जे आत्मा तेमां अंतर्निमग्न परमगुरु सर्वज्ञदेव अने अपरगुरु-गणधरादिकथी मांडी अमारा गुरु पर्यंत, -तेमनाथी प्रसादरूपे अपायेल जे शुद्धात्मतत्त्वनो अनुग्रहपूर्वक उपदेश तथा पूर्वाचार्यो अनुसार जे उपदेश, तेनाथी जेनो जन्म छे.

सर्वज्ञदेव विज्ञानघन ध्रुव जे आत्मा तेमां अंतर्निमग्न छे. भगवान गणधरदेव तथा अमारा गुरु पण पोताना विज्ञानघन ध्रुव आत्मामां अंतर्निमग्न हता. चैतन्यप्रकाशना नूरनुं पूर एवो जे भगवान आत्मा तेमां अंतर्निमग्न एवा देव अने गुरुए प्रसादरूपे शुद्धात्मतत्त्वनो अनुग्रहपूर्वक जे उपदेश आप्यो एनाथी आ अमारा निजवैभवनो जन्म थयो छे.

अहाहा...! शुं टीका छे! सर्वज्ञथी मांडी अमारा गुरु पर्यंत सघळा शुद्ध विज्ञानघनस्वरूप आत्मामां अंतर्निमग्न एटले विशेष निमग्न हता. अमने एनुं ज्ञान थयुं छे, अने एनुं भान वर्ते छे. बीजाने सम्यग्दर्शन थाय तेनी खबर न पडे एम कोई कहे छे ए वात बराबर नथी. विज्ञानघन आत्मामां अमारा गुरु अंतर्निमग्न हता एम कुंदकुंदाचार्यदेव अहीं जगत समक्ष जाहेर करे छे. कहे छे. अमने यथार्थ निमित्तनुं बराबर ज्ञान थयुं छे. ते आत्मज्ञानी गुरुना प्रसादरूप उपदेशना निमित्ते अमारा निजवैभवनो जन्म थयो छे.


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भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव भरतक्षेत्रमां बे हजार वर्ष पूर्व थई गया. तेओ सदेहे महाविदेहमां सीमंधर भगवानना समोसरणमां गया हता. महाविदेहमां सीमंधरनाथ अरिहंतपदे विराजे छे. तेमनो पांचसो धनुष्यनो देह अने क्रोडपूर्वनुं आयुष्य छे. त्यां भगवाननी वाणी हंमेशा छूटे छे. त्यां सं. ४९मां कुंदकुंदाचार्य साक्षात् गया हता, आठ दिवस रह्या हता. त्यां भगवाननी वाणी सांभळीने भरतमां पधार्या. अहीं आवीने आ शास्त्रो बनाव्यां. तेमां समयसारनी रचना करतां तेओ कहे छे के हुं एकत्वविभक्त आत्मा बतावीश. परथी पृथक् अने स्वथी एकत्व एवो भगवान आत्मा मारा निजवैभवथी बतावीश.

अंदर आत्मा सत् चिदानंद प्रभु सिद्ध समान बिराजे छे. समयसार नाटकमां आवे छेः-

चेतनरूप
अनूप अमूरत, सिद्ध समान सदा पद मेरौ,
मोह महातम आतमअंग, कियो परसंग महातम घेरौ.

आत्मा चैतन्यरूप आनंदघन छे. आत्मा शरीर, मन, वाणीथी तो भिन्न छे, पण पर्यायमां दया, दान, भक्ति आदिना विकल्प ऊठे छे एनाथी पण भिन्न छे अने पोताना स्वभावथी अभिन्न छे. एवा आत्मामां अंतर्निमग्न थतां जे अनुभव प्रगट थाय ते सम्यग्दर्शनादि धर्म छे. आचार्यदेव कहे छे के परथी भिन्न आत्मानो मने अनुभव थयो छे. आनंदनो मने स्वाद आव्यो छे. आत्मा अनाकुळ शांत आनंदरसनो पिंड तेमां निमग्न थतां मने अतीन्द्रिय आनंदनुं संवेदन थयुं छे. आवा मारा निजवैभवथी हुं एकत्वविभक्त आत्मा बतावुं छुं. ते तुं रागथी पृथक् थई पोताना आनंदघनस्वरूपनो अनुभव करीने प्रमाण करजे. तो धर्म थशे. समजाणुं कांई?

अरे! अनंतकाळथी चोरासीना अवतार करतां करतां नवमी ग्रैवेयकना भव पण अनंत कर्या. अनंतवार नग्न दिगंबर मुनि थयो. बार बार महिनाना उपवास आदि क्रियाकांड करीने नवमी ग्रैवेयक गयो. परंतु अंतर अनुभवपूर्वक वस्तुतत्त्वने प्रमाण कर्युं नहीं. रागनी क्रियाथी मारी चीज भिन्न छे एवुं भान कर्युं नहीं. तेथी आनंदनो स्वाद आव्यो नहीं. भवचक्र ऊभुं ज रह्युं.

सवारमां प्रश्न ऊठयो हतो केे बारमा गुणस्थान सुधी अशुद्धनय छे. तो अशुद्धनयना स्थानमां शुद्धोपयोगरूप धर्म क्यांथी आव्यो? शुद्धनयनी पूर्णता केवळज्ञान थतां थाय छे. आ संबंधमां श्री प्रवचनसारमांनी गाथा १८ नी जयसेन आचार्यनी टीकामां त्रण बोलथी खुलासो आवे छे.


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१. ‘शुद्धात्म अवलंबनत्वात्।’ त्रिकाळी ज्ञायकस्वरूप जे ध्रुव तेना अवलंबनथी शुद्धोपयोगरूप धर्म पर्यायमां प्रगट थाय छे.

२. ‘शुद्ध ध्येयत्वात्’ अशुद्धनय भले बारमा गुणस्थान सुधी हो, पूर्ण शुद्धता भले हजी न हो, पण ज्यां पूर्णानंद शुद्धने ध्येय बनावी पर्याय प्रगटी त्यां शुद्धोपयोगरूप धर्म होय छे.

३. ‘शुद्ध साधकत्वात्।’ शुद्ध उपयोग जे त्रिकाळ छे- तेने साधन करतां पर्यायमां शुद्धोपयोगरूप धर्म प्रगट थाय छे. बारमा गुणस्थानथी नीचे अशुद्धनयनुं स्थान छे तोपण शुद्ध नुं आलंबन, शुद्धनुं ध्येय, अने शुद्धनुं साधकपणुं होवाथी शुद्धोपयोगरूप वीतरागी पर्याय प्रगट थाय छे-अर्थात् त्यां होय छे. सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र ए वीतरागी पर्याय छे अने ए ज धर्म छे. वीतरागी पर्यायनुं नाम जैनधर्म छे धर्म कोई वाडो के संप्रदाय नथी. वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. अरे! अनंतकाळमां सम्यग्दर्शन अने एनुं ध्येय शुं ते लक्षमां लीधुं नथी.

आचार्य देव कहे छे शुद्ध चैतन्यघन आ माने द्रष्टिमां लई तेने ध्येय अने साधन बनावतां अमने शुद्धोपयोगरूप धर्म थयो छे. पर्यायमां निराकुळ शांति अने आनंद जे प्रगटयां छे ते अमारो निजवैभव छे. एवा मारा निजवैभवथी हुं आत्मा बतावुं छुं ते तुं अनुभव करीने प्रमाण करजे.

वळी ते केवो छे? तो कहे छे-निरंतर-झरतो- आस्वादमां आवतो, सुंदर जे आनंद तेनी छापवाळुं जे प्रचुरसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन, तेनाथी जेनो जन्म छे. आचार्य कहे छे-अहा! आत्मा अनाकुळ आनंदरसथी भरेलो छे. तेमां एकाग्र थतां सुंदर आनंदनो स्वाद आवे छे. जेम डुंगरमांथी पाणी झरे तेम आत्मामां एकाग्र थतां अतीन्द्रिय आनंद झरे छे. आबाल-गोपाळ सर्वमां अंदर पूर्णानंदनो नाथ भगवान आत्मा बिराजे छे. तेनी द्रष्टि करतां पर्यायमां आनंद झरे छे. तेनुं नाम धर्म छे.

अज्ञानी जीवो मोसंबी वगेरेनो स्वाद लईए छीए एम कहे छे ने? ए स्वाद तो जड छे. जडनो स्वाद तो आत्मामां आवतो ज नथी, पण तेना उपर लक्ष करीने रागनो स्वाद ले छे. ए अधर्मनो स्वाद छे. अज्ञानी शब्द, रस, गंध, वर्ण, स्पर्शनुं लक्ष करीने विषयने हुं भोगवुं छुं एम माने छे, पण ए परने भोगवतो ज नथी. ते काळे रागने उत्पन्न करे छे अने रागने भोगवे छे. विषयोनो आनंद तो रागरूप छे अने रागनो अनुभव ते झेरनो अनुभव छे कुंदकुंदाचार्य मोक्ष अधिकारमां (गाथा ३०६)


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शुभरागने विषकुंभ एटले के झेरनो घडो कह्यो छे. अशुभथी बचवा शुभराग आवे खरो, पण ए सर्व हेय छे.

अहो! देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवनी वाणी झीलीने भगवानना आडतिया थईने कुंदकुंदाचार्य जाहेर करे छे के भगवाननो माल आ छे. अमने जे धर्म के चारित्र प्रगटयुं ते शुं चीज छे? कहे छे के निरंतर झरतो-आस्वादमां आवतो एवो सुंदर जे आनंद तेनी छापवाळुं प्रचुरसंवेदनस्वरूप जे संवेदन ते अमारो निजवैभव एटले के चारित्र छे. अहो! धर्मनी मुद्रा शुं? तो जेम चलणी नोट पर मुद्रा मुख्य छे तेम सुंदर आनंद-अतीन्द्रिय आनंद ए धर्मनी मुद्रा छे अने ए मुख्य छे. अहो! अतीन्द्रिय आनंदमां झूलतां दिगंबर संतोए कहेलो वीतरागमार्ग अपूर्व छे. तेमनां रचेलां आ शास्त्रो ते परमागम छे.

सम्यग्दर्शनमां रागथी भिन्न अने स्वभावथी अभिन्न एवा एकत्वविभक्त आत्मानी द्रष्टि होय छे. त्यां पण अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद अल्प प्रमाणमां होय छे. चोथा गुणस्थानमां सुंदर आनंदनो स्वाद अल्प आवे छे तो पांचमा गुणस्थानवर्ती श्रावकने ते विशेष आवे छे. तेना करतां मुनिओने तो प्रचुर स्वसंवेदन होय छे एटले प्रचुर आनंद होय छे. आचार्य कहे छे आवा प्रचुर आनंदनी मुद्रावाळुं जे चारित्र-धर्म ते वडे अमारा निजवैभवनो जन्म छे.

एम जे जे प्रकारे मारा ज्ञानने विभव छे ते समस्त विभवथी दर्शावुं छुं. जो दर्शावुं तो स्वयमेव पोताना अनुभव-प्रत्यक्षथी परीक्षा करी प्रमाण करवुं. आचार्यदेव जिज्ञासु श्रोताने कहे छे के पुण्य-पापना भावोथी भिन्न अने पोताना स्वरूपचैतन्यथी अभिन्न एवा एकत्वविभक्त आत्माने हुं सर्व वैभवथी बतावुं छुं ते तुं प्रत्यक्ष अनुभव करीने प्रमाण करजे. अमे कहीए छीए माटे नहीं, पण अंतरमां जे ‘शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन, स्वयंज्योति, सुखधाम’ एवो आत्मा बिराजे छे तेनो स्वानुभव प्रत्यक्षथी निश्चय करजे, तेथी तने सुख थशे, मोक्ष थशे. समयसार नाटकमां कह्युं ने-

अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप,
अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोखस्वरूप.

अमारो वैभव तो अमारी पासे रह्यो. तेथी तुं रागादिथी भिन्न पडी स्वयं पोते ज शांति अने आनंदनुं प्रत्यक्ष वेदन करी प्रमाण करजे. तेथी तने धर्म थशे. आठ वर्षनी बालिका पण अंतरमां भान करी आवो अनुभव करी शके छे.


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धर्म ए तो आत्म-अनुभवनी चीज छे, भाई! कोई जीव प्रभावनामां करोडो रूपिया खर्चे, लाखोनां मंदिरो बंधावे माटे तेने धर्म थई जाय एम नथी. ते काळे राग मंद करे तो शुभभाव थतां पुण्यबंध थाय, पण धर्म न थाय. मंदिर बनवानी क्रिया तो परमाणुथी बने छे, ते आत्मा करी शकतो नथी. हा, आत्मा आ करी शके के -पुण्य-पापथी भिन्न पडी अंतर अनुभव वडे अनाकुळ शांति अने आनंद उत्पन्न करी शके, अने ए ज निश्चयधर्म छे. व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे ए वात पण जूठ्ठी छे. अरे! आवुं सांभळवा पण न मळे ते अंदर अनुभव क्यारे करे? धर्म बहु दुर्लभ चीज छे, भाई! क्रियाकांड तो अनंतवार कर्या तेथी ए तो सुलभ छे, पण रागथी भिन्न पडी चैतन्यमूर्ति आनंदस्वरूपमां आरूढ थवुं महा दुर्लभ छे.

हवे कहे छे- जो क्यांयअक्षर, मात्रा, अलंकार, युक्ति आदि प्रकरणोमां चूकी जाउं तो छल (दोष) ग्रहण करवामां सावधान न थवुं. शास्त्रसमूद्रनां प्रकरण बहु छे माटे अहीं स्वसंवेदनरूप अर्थ प्रधान छे; तेथी अर्थनी परीक्षा करवी.

अमे तो स्वानुभवनी वात बतावीए छीए. तेमां कोई व्याकरणना शब्दादिमां भूल थई जाय अने तुं व्याकरणनो निष्णात हो, अने तारा लक्षमां आवी जाय के आ भूल छे तो तुं त्यां रोकाईश नहीं. शास्त्रना बहिर्लक्षी ज्ञान अने पंडिताई साथे अनुभवने कांई संबंध नथी. शास्त्रनी पंडिताई जुदी चीज छे अने स्वसंवेदनज्ञान जुदी चीज छे. आ भूल छे, भूल छे एम पंडिताईना गर्वथी अटकी जईश तो तारुं बूरुं थशे. अहीं तो भगवान आत्मा अनादिकाळथी जे पुण्य-पापनुं ज वेदन करे छे ते मिथ्यात्वभाव छे तेना स्थाने स्वसंवेदन करी स्वरूपनो अनुभव करवो तेनी मुख्यता अने प्रधानता छे. बनारसीदासे समयसार नाटकमां कह्युं छे-

वस्तु विचारत
ध्यावतैं, मन पावे विश्राम;
रस स्वादत सुख उपजै, अनुभव ताको नाम.

अहा! वस्तु आत्मा जे अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ छे तेनो विचार करी ध्यावतां मन अनेक विकल्पोना कोलाहलथी विश्राम पामे, शांत थई जाय अने त्यारे अतीन्द्रिय आनंदना रसनो स्वाद आवे तेने आत्म-अनुभव कहे छे, ते सम्यग्दर्शन छे, धर्म छे. आवा अनुभवथी वस्तुनो निश्चय करवानी प्रधानता छे, शास्त्रना बहिर्लक्षी ज्ञाननुं अहीं काम नथी.

अहो! आचार्य अमृतचंद्रे टीकामां अमृत रेलाव्यां छे. आवी अनुभव-अमृतनी अद्भुत वात सांभळे नहीं, स्वाध्याय करे नहीं, अने धर्म थशे एम मानी बाह्य


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क्रियाकांडनो व्यवहार करे, पण तेथी भवभ्रमण मटे नहीं. भाई! धर्मनो पंथ- अनुभवनो पंथ जगतथी कांई जुदो छे.

* भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आचार्यदेव कहे छे के अमे आगमनुं सेवन कर्युं छे. भगवान सर्वज्ञदेवथी परंपराए चाली आवेली जे जिनवाणी तेनी सेवा करवाथी अमने ज्ञानविभव प्रगट थयो छे. बीजी रीते कहीए तो अमने सम्यग्दर्शनादि पामवामां परंपरा सर्वज्ञदेवनी वाणीनुं निमित्त छे. अज्ञानीनी वाणीना निमित्तथी सम्यग्दर्शन थाय एम कदीय बनतुं नथी. अन्य संप्रदायनां आगम ए वीतरागनी वाणी नथी. आवी वातथी कोईने दुःख थाय पण सत्य वस्तु आ छे. सर्वज्ञथी परंपरा सनातन सत्य दिगंबर पंथ चाल्यो आवे छे ते ज सत्य छे. सम्यग्दर्शनमां निर्गरंथ दिगंबर गुरुनी ज वाणी निमित्त बने छे. कोई प्रत्ये वेर-विरोधनी आ वात नथी परंतु जे द्रष्टि विपरीत होय तेनुं ज्ञान यथार्थ करवुं जोईए.

हवे कहे छे अमे युक्तिनुं अवलंबन लीधुं छे. तेथी वीतरागदेव शुं कहे छे अने विरोधी अन्यवादीओ शुं कहे छे तेनो युक्तिना अवलंबनथी निर्धार कर्यो छे. सत्य शुं छे तेनो युक्ति द्वारा अमे साचो निर्णय कर्यो छे.

त्रीजी वातः परंपरा गुरुनो उपदेश अमने मळ्‌यो छे. सर्वज्ञदेव परमगुरु अने गणधरादिक अपरगुरु-तेमना प्रसादरूप उपदेशना निमित्ते अमारो आत्मवैभव अमने प्रगट थयो छे.

चोथी वातः अमने अतीन्द्रिय आनंदनी छापवाळुं प्रचुर स्वसंवेदन थवाथी, ज्ञायक जे ध्रुवस्वरूप तेना प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ज्ञानविभव प्रगट थयो छे.

एम चार प्रकारे उत्पन्न थयेल पोताना ज्ञानना वैभवथी हुं एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मानुं स्वरूप देखाडुं छुं; तेने हे श्रोताओ! पोताना स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी प्रमाण करजो. क्यांय कोई प्रकरणमां भूलुं तो दोष ग्रहण न करशो. अहीं अनुभवनी प्रधानता छे. तेना वडे शुद्धस्वरूपनो निश्चय करो एम आशय छे.


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जीव–अजीव अधिकार
गाथा–६

कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चित्–

ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णादो जा सो दु सो चेव।।
६।।

नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः।
एवं भणन्ति शुद्धं ज्ञातो यः स
तु स चैव।। ६।।

हवे प्रश्न ऊपजे छे के एवो शुद्ध आत्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए? ए प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-

नथी अप्रमत्त के प्रमत्त नथी जे एक ज्ञायक भाव छे,
ए रीत ‘शुद्ध’ कथाय, ने जे ज्ञात ते तो ते ज छे. ६

गाथार्थः– [यः तु] जे [ज्ञायकः भावः] ज्ञायक भाव छे ते [अप्रमत्तः अपि] अप्रमत्त पण [न भवति] नथी अने [न प्रमत्तः] प्रमत्त पण नथी, - [एवं] रीते [शुद्धं] एने शुद्ध [भणन्ति] कहे छे; [च यः] वळी जे [ज्ञातः] ज्ञायक पणे जणायो [सः तु] ते तो [सः एव] ते ज छे, बीजो कोई नथी.

टीकाः– जे पोते पोताथी ज सिद्ध होवाथी (कोईथी उत्पन्न थयो नहि होवाथी) अनादि सत्तारूप छे, कदी विनाश पामतो नहि होवाथी अनंत छे, नित्यउद्योतरूप होवाथी क्षणिक नथी अने स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति छे एवो जे ज्ञायक एक ‘भाव’ छे, ते संसारनी अवस्थामां अनादि बंधपर्यायनी निरूपणताथी (अपेक्षाथी) क्षीरनीरनी जेम कर्मपुद्गलो साथे एकरूप होवा छतां, द्रव्यना स्वभावनी अपेक्षाथी जोवामां आवे तो दुरंत कषायचक्रना उदयनी (-कषायसमूहना अपार उदयोनी) विचित्रताना वशे प्रवर्तता जे पुण्य-पापने उत्पन्न करनार समस्त अनेकरूप शुभ-अशुभ भावो तेमना स्वभावे


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परिणमतो नथी (ज्ञायक भावथी जड भावरूप थतो नथी) तेथी प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी; ते ज समस्त अन्यद्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतो ‘शुद्ध’ कहेवाय छे.

वळी दाह्यना (- बळवायोग्य पदार्थना) आकारे थवाथी अग्निने दहन कहेवाय छे तोपण दाह्यकृत अशुद्धता तेने नथी, तेवी रीते ज्ञेयाकार थवाथी ते ‘भाव’ ने ज्ञायकपणुं प्रसिद्ध छे तोपण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी; कारण के ज्ञेयाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे जे जणायो ते स्वरूप-प्रकाशननी (स्वरूपने जाणवानी) अवस्थामां पण, दीवानी जेम, कर्ता-कर्मनुं अनन्यपणुं होवाथी ज्ञायक ज छे-पोते जाणनारो माटे पोते कर्ता अने पोताने जाण्यो माटे पोते ज कर्म. (जेम दीपक घटपटादिने प्रकाशित करवानी अवस्थामांय दीपक छे अने पोताने- पोतानी ज्योतिरूप शिखाने-प्रकाशवानी अवस्थामां पण दीपक ज छे, अन्य कांई नथी; तेम ज्ञायकनुं समजवुं)

भावार्थः– अशुद्धपणुं परद्रव्यना संयोगथी आवे छे. त्यां मूळ द्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप थतुं ज नथी, मात्र परद्रव्यना निमित्तथी अवस्था मलिन थई जाय छे. द्रव्य- द्रष्टिथी तो द्रव्य जे छे ते ज छे अने पर्याय (अवस्था)-द्रष्टिथी जोवामां आवे तो मलिन ज देखाय छे. ए रीते आत्मानो स्वभाव ज्ञायकपणुं मात्र छे, अने तेनी अवस्था पुद्गलकर्मना निमित्तथी रागादिरूप मलिन छे ते पर्याय छे. पर्यायनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो ते मलिन ज देखाय छे अने द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे, कांई जडपणुं थयुं नथी. अहीं द्रव्यद्रष्टिने प्रधान करी कह्युं छे. जे प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद छे ते तो परद्रव्यना संयोगजनित पर्याय छे. ए अशुद्धता द्रव्यद्रष्टिमां गौण छे, व्यवहार छे, अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे, उपचार छे. द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे, अभेद छे, निश्चय छे, भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे, परमार्थ छे. माटे आत्मा ज्ञायक ज छे; तेमां भेद नथी तेथी ते प्रमत-अप्रमत्त नथी. ‘ज्ञायक’ एवुं नाम पण तेने ज्ञेयने जाणवाथी आपवामां आवे छे; कारण के ज्ञेयनुं प्रतिबिंब ज्यारे झळके छे त्यारे ज्ञानमां तेवुं ज अनुभवाय छे. तोपण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी कारण के जेवुं ज्ञेय ज्ञानमां प्रतिभासित थयुं तेवो ज्ञायकनो ज अनुभव करतां ज्ञायक ज छे. ‘आ हुं जाणनारो छुं ते हुं ज छुं, अन्य कोई नथी’-एवो पोताने पोतानो अभेदरूप अनुभव थयो त्यारे ए जाणवारूप क्रियानो कर्ता पोते ज अने जेने जाण्युं ते कर्म पण पोते ज छे. एवो एक ज्ञानकपणा मात्र पोते शुद्ध छे.-आ शुद्धनयनो विषय छे. अन्य परसंयोगजनित भेदो छे ते बधा भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय छे. अशुद्धद्रव्यार्थिकनय पण शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां पर्यायार्थिक ज छे तेथी व्यवहारनय ज छे एम आशय जाणवो.


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अहीं एम पण जाणवुं के जिनमतनुं कथन स्याद्वादरूप छे तेथी अशुद्धनयने सर्वथा असत्यार्थ न मानवो; कारण के स्याद्वाद प्रमाणे शुद्धता अने अशुद्धता-बन्ने वस्तुना धर्म छे अने वस्तुधर्म छे ते वस्तुनुं सत्त्व छे; अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी थाय छे ए ज फेर छे. अशुद्धनयने अहीं हेय कह्यो छे कारण के अशुद्धनयनो विषय संसार छे अने संसारमां आत्मा कलेश भोगवे छे; ज्यारे पोते परद्रव्यथी भिन्न थाय त्यारे संसार मटे अने त्यारे कलेश मटे. ए रीते दुःख मटाडवाने शुद्धनयनो उपदेश प्रधान छे. अशुद्धनयने असत्यार्थ कहेवाथी एम न समजवुं के आकाशना फूलनी जेम ते वस्तुधर्म सर्वथा ज नथी. एम सर्वथा एकांत समजवाथी मिथ्यात्व आवे छे; माटे स्याद्वादनुं शरण लई शुद्धनयनुं आलंबन करवुं जोईए. स्वरूपनी प्राप्ति थया पछी शुद्धनयनुं पण आलंबन नथी रहेतुं. जे वस्तुस्वरूप छे ते छे- ए प्रमाणद्रष्टि छे. एनुं फळ वीतरागता छे. आ प्रमाणे निश्चय करवो योग्य छे.

अहीं, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नथी एम कह्युं छे त्यां ‘प्रमत्त-अप्रमत्त’ एटले शुं? गुणस्थाननी परिपाटीमां छठ्ठा गुणस्थान सुधी तो प्रमत्त कहेवाय छे अने सातमाथी मांडीने अप्रमत्त कहेवाय छे. परंतु ए सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनी कथनीमां छे; शुद्धनयथी आत्मा ज्ञायक ज छे.

शिष्यनो प्रश्न छे के एवो शुद्धात्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए? शिष्यने अंतरमां जिज्ञासा थई छे के परथी भिन्न अने स्वभावथी अभिन्न एवो शुद्धात्मा कोण छे जेने जाणवाथी जन्म-मरण मटे अने भवभ्रमण नाश थईने मोक्ष थाय. आवी अंतरनी चीज जाणवानो जेने प्रश्न थयो छे तेने उत्तररूपे गाथासूत्र कहे छे.

प्रवचन नंबर, १४–१७ तारीख १३–१२–७प थी १६–१२–७प

* गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

जे ज्ञायकभाव छे ते अप्रमत्त पण नथी अने प्रमत्त पण नथी, -ए रीते एने शुद्ध कहे छे; वळी जे ज्ञायकपणे जणायो ते तो ते ज छे, बीजो कोई नथी.

ज्ञायकभाव जे त्रिकाळ एकरूप स्वभावभावरूप छे तेने अहीं परम पारिणामिकभाव न कहेतां ज्ञायकभाव कह्यो तेनुं कारण ए छे के पारिणामिकभाव तो सर्व द्रव्योमां छे; ज्यारे जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं, एवो जे सामान्य ज्ञायकभाव ते एक जीवद्रव्यमां ज छे. ते ज्ञायकभाव अप्रमत्त नथी के प्रमत्त पण नथी. अर्थात् चौदेय गुणस्थाननी पर्यायो एमां नथी.


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प्रमत्त अने अप्रमत्त ए तो पर्यायना भेदो छे अने ते अशुद्धनयनो विषय छे. पहेलेथी छ गुणस्थान पर्यंतनी पर्यायो प्रमत्त छे अने सातमेथी चौद गुणस्थान पर्यंतनी पर्यायो ते अप्रमत्त छे. आमां हवे कई पर्यायो बाकी रही गई? भगवान आत्मा आ सघळी अप्रमत्त अने प्रमत्त एवी पर्यायोना भेदथी रहित शुद्धनयस्वरूप एक ज्ञायकभाव छे. आगळ अगियारमी गाथामां एने ज भूतार्थ कहेलो छे. अहो! जे द्रष्टिनो विषय छे अर्थात् सम्यग्दर्शननो विषय छे ते आ ज्ञायकभाव अप्रमत्त नथी अने प्रमत्त पण नथी; ए रीते एने शुद्ध कहेवाय छे.

वळी जे ज्ञायकपणे जणायो ते तो ते ज छे, बीजो कोई नथी. अहीं ज्ञायकने जाणनार पर्यायनी वात करी. ज्ञायकने जाणनारी पर्याय ज्ञायकनी पोतानी ज छे, ए पर्यायनो कर्ता पोते ज छे. ज्ञाननी पर्याय ते अन्य ज्ञेयनुं कार्य छे वा निमित्तनुं कार्य छे एम नथी. पोते ज्ञायकभाव जे पर्यायमां जणायो तेमां भले-ज्ञेयनुं ज्ञान होय, पण ए ज्ञान ज्ञेयनुं कार्य नथी, पोतानुं कार्य छे.

अहाहा...!! भगवान, तुं अनादिअनंत नित्यानंदस्वरूप एक पूर्ण ज्ञायकभाव छुं जेमां पर्यायनो-भेदनो अभाव छे. तेथी तुं शुद्ध छे-एम कहेवाय छे. एटले परद्रव्य अने तेना भावो तथा कर्मना उदयादिनुं लक्ष छोडी ज्यां द्रष्टि त्रिकाळी ज्ञायकभाव उपर गई के परिणति शुद्ध थई. ए शुद्ध परिणमनमां ज्ञायक शुद्ध छे एम जणायुं एने शुद्ध छे एम कहे छे, खाली शुद्ध छे, शुद्ध छे एम कहेवामात्र नथी. आ ज्ञायकभावने जाणवो, अनुभववो ए सर्व सिद्धांतनो सार छे. दोलतरामजीए कह्युं छे ने केः-

लाख बातकी बात यहै, निश्चय उर लावो;
तोडी सकल जग–दंद–फंद, निज आतम ध्यावो.

अरे! भगवान, तें तारी जातने जाणी नहीं! भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यनो आ संदेश छे के भगवान आत्मा नित्यध्रुव, त्रिकाळ एकरूप, परम पारिणामिकभावरूप ज्ञायकरूप छे, शुद्ध छे, पवित्र छे, प्रगट छे. पण कोने? के परनुं लक्ष छोडी जेणे अंतरसन्मुख थई एक आ ज्ञायकभावनी सेवा-उपासना करी तेने पर्यायमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान तथा चारित्रनो अंश प्रगट थयो. त्यारे तेने ज्ञायकभाव परमशुद्ध छे एम जणायुं. तेने ज्ञायक शुद्ध छे एम कहेवामां आवे छे. ज्ञायकभावनी द्रष्टि थतां जे शुद्धता प्रगटी एने ए शुद्धतामां स्वनुं अने परनुं ज्ञान परिणमनरूप थयुं. ए ज्ञान परनुं-निमित्तनुं के ज्ञेयनुं कार्य छे एम नथी. पोताना ज्ञाननी पर्याय जे परिणमी तेनो कर्ता पोते छे अने जे पर्याय परिणमी ते एनुं पोतानुं कार्य छे.


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अहो! आ छठ्ठी गाथा अलौकिक छे. आ तो छठ्ठीना अफर लेख. लौकिकमां छठ्ठीना लेख कहेवाय छे. कहे छे बाळक जन्म्या पछी छठ्ठे दिवसे विधाता भाग्य-लेख लखवा आवे छे. त्यां कागळ वगेरे मूके छे. परंतु त्यां तो कागळ एवो ने एवो कोरो रहे छे, केमके त्यां कोई विधाता नथी. पण आ भगवान चिदानंदनो नाथ पोते जे पर्यायमां जणायो ते निश्चय विधाता छे. तेणे आ लेख लख्यो के हवे आ आत्माने अल्पकाळमां मुक्ति छे. ज्ञायकनी सन्मुख थतां ज्यां ज्ञायक शुद्ध जणायो त्यां मुक्ति- लेख निश्चित लखाई जाय छे एवी अलौकिक वात आ गाथामां छे.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

जे पोते पोताथी ज सिद्ध होवाथी अनादि सत्तारूप छे. ज्ञायकभाव ध्रुव पोते पोताथी ज होवापणे छे. कोई ईश्वरे एने उत्पन्न कर्यो छे एम नथी. तेथी अनादि सत्तारूप छे. एटले एने अनादिथी होवापणुं छे, एनुं होवापणुं कांई नवुं नथी. प्रभु सतरूप अनादि सत्तावाळो छे ए भूतकाळनी अपेक्षाथी वात करी. वळी, कदी विनाश पामतो नथी माटे अनंत छे. ए भविष्यकाळनी अपेक्षाथी वात करी. भविष्यमां पण निरंतर ध्रुवस्वरूपे रहेशे. एनो भविष्यमां नाश थशे एम कदीय बनवुं संभवित नथी तेथी अनंत छे. आम आदि-अंत रहित ध्रुव ज्ञायकभाव अनादि-अनंत सत्तारूप छे. आ पर्याय विनाना ध्रुवनी वात छे हों; पर्याय तो विनाशिक छे. केवळज्ञाननी क्षायिक पर्याय होय तोपण ते एक समयनी पर्याय छे तेथी विनाशिक छे. आ तो त्रिकाळी ज्ञायकभाव जे चैतन्यप्रकाशना नूरना पूरथी भरेलो भगवान आत्मा छे ते अनादि- अनंत अविनाशी चीज छे.

हवे वर्तमाननी वात करे छे-के ‘नित्यउद्योतरूप होवाथी क्षणिक नथी.’ एटले वर्तमानमां छे एवो ने एवो त्रिकाळ छे. वर्तमान-वर्तमानपणे पोते कायम रहेनारो त्रिकाळ छे. ‘अने स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति छे.’ अहाहा...! परनी अपेक्षा राख्या विना पोते पोताने ज्ञानमां स्पष्ट प्रत्यक्ष जणाय एवी चैतन्यज्योति पोते छे. प्रवचनसार गाथा १७२नी टीकामां अलिंगग्रहणना छठ्ठा बोलमां आवे छे के आत्मा पोताना स्वभाव वडे जणाय एवो प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. सर्वत्र आ शैलीथी ज वात छे. भगवान आत्मा मति-श्रुत-ज्ञानमां पोताथी प्रत्यक्ष जणाय एवी चैतन्यज्योति छे, परोक्ष रहे के ढंकाएलो रहे एवो आत्मा छे ज नहीं. अहा! ज्ञायकदेव जेने ज्ञानमां बेठो एनी अहीं वात छे.

‘एवो जे ज्ञायक एक ‘भाव’ छे.’ जुओ भाषा! ज्ञायक एक भाव छे कहेतां एकस्वरूप छे. उपशमभाव, क्षायिकभाव आदि पर्यायभावो तो अनेक छे. आ तो त्रिकाळ एकरूप, सद्रश-सद्रश, सामान्य ज्ञायक ते पोते एक भाव छे. गंजीफानी रमतमां जेम


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हुकमनो एक्को होय छे ने? तेम आ ज्ञायक हुकमनो एक्को सर्वोपरि छे, सदाय एनी जीत छे.

अहा! शुं आचार्यदेवनी कथनी! शुं एनुं वाच्य! भगवान आत्मा ज्ञायक एक भाव छे. ते संसारनी अवस्थामां अनादि बंधपर्यायनी निरूपणाथी क्षीरनीरनी जेम कर्मपुद्गलो साथे एकरूप छे. आ पर्यायनी वात छे. संसारनी अवस्थामां अनादि बंधपर्यायनी अपेक्षाथी कर्मपुद्गलो साथे दूध अने पाणीनी जेम एकक्षेत्रावगाह संबंध छे. खरेखर दूध दूघपणे अने पाणी पाणीपणे छे. तेम ज्ञायक ते ज्ञायकपणे अने कर्मपुद्गलो पुद्गलपणे छे. पण बन्ने वच्चे एक समयनी पर्याय पूरतो निमित्त- नैमित्तिक संबंध छे.

आ रीते कर्मपुद्गलो साथे एकरूप छे छतां द्रव्यना स्वभावनी अपेक्षाथी जोवामां आवे तो दुरंत कषायचक्रना उदयनी विचित्रताना वशे प्रवर्तता जे पुण्य- पापने उत्पन्न करनार समस्त अनेकरूप शुभ-अशुभ भावो तेमना स्वभावे परिणमतो नथी. कषायचक्रनुं मटवुं बहुं कठण छे. ते कषायसमूहना उदयनी विचित्रताने आ जीव वश थाय छे. कर्मनो उदय एने वश करे छे एम नथी, पोते उदयने वश थाय छे. तेथी प्रवर्तता जे पुण्य अने पापना जड रजकणोना बंधने उत्पन्न करनार अनेक शुभ-अशुभभावो ते रूपे आत्मा परिणमतो नथी. द्रव्यना स्वभावनी अपेक्षाथी जोईए तो ज्ञायक जे एक भाव छे ते पुण्य-पापना कारणरूप जे अनेक शुभाशुभभावो छे तेना स्वभावे परिणमतो ज नथी, केमके शुभाशुभभावमां ज्ञायकपणुं नथी. शुभ-अशुभ भाव ए रागादिरूप अचेतन छे, तेमां ज्ञाननो अंश नथी. रागादि पोताने जाणता नथी अने परने पण जाणता नथी.

जुओ, केटलो खुलासो कर्यो छे? समस्त अनेकरूप जे शुभ-अशुभभावो ते रूपे ज्ञायक कदी थतो नथी. शुभ-अशुभभावो तो एकेन्द्रिय जीवमां, निगोदना जीवमां पण थाय छे. पण ज्ञायकमूर्ति आत्मा चैतन्यना नूरनुं पूर ते अचेतन शुभ-अशुभभावरूप केम थाय? भाई! तारी ध्रुव वस्तु अनादिअनंत एवी ने एवी पडी छे, एकरूप छे. शुभ-अशुभभावो तो अनेकरूप छे. पंचमहाव्रतना परिणाम, दया, दानना परिणाम, विषय-कषायना परिणाम ईत्यादि अनेक शुभ-अशुभभावोना स्वरूपे ज्ञायक शुद्धद्रव्य कदी थतुं नथी.

अरे! आ तो अंतरनी निजघरनी वात लोकोए सांभळवानी दरकार करी नथी. अंदरमां ज्ञायक जे चैतन्यना नूरनुं पूर भर्युं छे ते कदीय शुभाशुभभावरूप थतुं नथी अने तेथी कहे छे के आत्मा प्रमत्त नथी अने अप्रमत्त पण नथी. आवो ज्ञायक एक भाव ते सम्यग्दर्शननुं ध्येय अने विषय छे आत्मा शरीर, मन, वाणी अने जड कर्मपणे तो थतो नथी, पण पुण्य अने पापने उत्पन्न करनार शुभ-अशुभभावपणे पण थतो नथी एवी