Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 7.

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ज्ञायकज्योति छे. आवी शुद्ध सत्तानो अंतरमां स्वीकार थवो ए अलौकिक वात छे. आ हुं एक ज्ञायक शुद्ध छुं एम अंतर-सन्मुख थई जेणे ज्ञायकने जाण्यो-अनुभव्यो तेने मुक्तिनां कहेण मळी गयां एवो आ छठ्ठीनो लेख छे. नियमसारमां शुद्धभाव-अधिकारमां एम कह्युं छे के औदयिक आदि चार भावो त्रिकाळी स्वरूपमां नथी. शुभ-अशुभभाव जे औदयिक भाव छे तेरूप ज्ञायक परिणमतो नथी केमके ते अचेतन छे ए वात तो ठीक. पण क्षयोपशम, क्षायिकभाव तो ज्ञायकने प्रसिद्ध करनारी ज्ञाननी पर्यायो छे, छतां ते भाव वस्तुमां नथी. आवी सूक्ष्म वात छे. त्रिकाळी द्रव्यने जाणनारी जे ज्ञाननी पर्याय ते ज्ञायकमां नथी. गजब वात छे ने! अहा! ईन्द्रो अने गणधरोनी उपस्थितिमां देवाधिदेव त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्रदेवनी दिव्यध्वनिमां आ अलौकिक वात आवती हशे त्यारे सांभळनारा केवा नाची ऊठता हशे! नियमसारमां जे औपशमिकादि भावोने अगोचर आत्मा कह्यो ते चार भावो पर्यायस्वरूप छे अने तेथी तेमना आश्रये आत्मा जणाय एवो नथी. ध्रुव, नित्यानंदस्वरूप आत्मा पोताना आश्रये ज जणाय एवो छे. आवो त्रिकाळ शुद्ध आत्मा ज द्रष्टिनो-नजरनो विषय छे. ते सम्यग्द्रष्टिने ज गम्य छे, गोचर छे. एक तरफ गोचर कहे; ने वळी अगोचर पण कहे बन्ने वात यथार्थ छे. ज्यां जे अपेक्षा होय ते बराबर समजावी जोईए. अहाहा...! द्रव्यस्वभाव, पदार्थस्वभाव, तत्त्वस्वभाव के वस्तुस्वभाव जे चैतन्यभाव तेने तेना निज स्वरूपथी जोईए तो पुण्य-पापने उत्पन्न करनार जे समस्त अनेक शुभ-अशुभभाव तेरूप कदीय परिणमतो नथी. अहिंसा, सत्य, दया- दान, व्रत, तप, भक्ति-पूजा ईत्यादि शुभराग ते शुभभाव छे. हिंसा, जूठ चोरी, विषय-वासना ईत्यादि अशुभराग ते अशुभ भाव छे. आ बन्ने भाव जड अने मलिन छे. अहीं कहे छे के निर्मळानंद चैतन्य प्रभु आत्मा कदीय शुभ-अशुभभावपणे जडरूप के मलिनतारूप थयो नथी, तेथी प्रमत्त पण नथी के अप्रमत्त पण नथी. टीकामां प्रमत्त शब्द पहेलो लीधो छे. गाथामां अप्रमत्त-प्रमत्त एम लीधुं छे. ए तो शब्दयोजना छे. गाथा तो पद्यरूप छे ने? एटले पद्यरचनामां अप्रमत्त-प्रमत्त लीधुं छे. आ तो वस्तुना स्वरूपनी वात छे. जैनशासन ए तो वस्तुनुं स्वरूप छे. जैन एटले अंदर जे आ ध्रुव ज्ञायकभाव बिराजे छे जे कदीय रागरूप-जडरूप मलिनतारूप थतो नथी एवा ज्ञायकनी सन्मुख थईने एने ज्ञान अने द्रष्टिमां ले तेने जैन कहे छे. जैन कोई वाडो के वेश नथी, ए तो वस्तुस्वरूप छे. धर्मना बहाने बहारमां हो-हा करे, पुण्यनी क्रियाओ करे, रथ-वरघोडा काढे, पण ए बधो तो राग छे, अने राग ते आत्मा नथी तथा आत्मा


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कदीय रागरूप नथी. ज्ञायकमां रागनो अभाव छे अने रागमां ज्ञायकनो अभाव छे. आम होवा छतां अज्ञानीओ कहे छे के शुभभाव करतां करतां धर्म थाय ए मोटी अचरजनी वात छे. अचेतनभाव करतां करतां चेतन केम प्रगटे? राग करतां करतां वीतरागता केम थाय? एम कदीय बने नहीं. तेथी आत्मा जे एक ज्ञायकभाव छे ते प्रमत्त-अप्रमत्तना भेदरूप नथी एम न्याय कह्यो. हवे एने ‘शुद्ध’ केम कहेवो एनी वात करे छे.

ते ज समस्त अन्य द्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतो ‘शुद्ध’ कहेवाय छे.

अहीं अन्यद्रव्यो एटले कर्मनो उदय अने एनो भाव एम लेवुं. अहीं रागनी वात नथी. जीवने कर्मनो उदय अने एना भाव उपर अनादिथी लक्ष छे. कर्मना उदयने वश थई पोते अटके छे, माटे पुद्गलकर्म अने एना भावनुं लक्ष छोडी एक ज्ञायकभावनुं लक्ष करवानी वात छे.

परभावना त्रण प्रकार छे. एक कर्मनो भाव ते परभाव छे. रागादि जे विकार थाय ते परभाव छे अने जे निर्मळ पर्याय थाय ते पण स्वभावनी अपेक्षाए परभाव छे. अहीं तो जडकर्म अने एनो भाव एने परद्रव्यनो भाव कह्यो छे. चैतन्यदेव ज्ञायक तेने परभावथी भिन्नपणे सेवतां-उपासतां ते ‘शुद्ध’ छे एम कह्युं छे. एटले निमित्तनुं लक्ष छोडी ज्ञायक उपर लक्ष कर्युं त्यारे एणे ज्ञायकनी उपासना करी, त्यारे एने ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञायक जणायो. एने ते ‘शुद्ध’ छे एम कहेवामां आवे छे. जेने जणायो नथी एने ‘शुद्ध’ छे ए क्यांथी आव्युं? अहा! नित्य जे ध्रुवस्वभाव छे त्यां अंदर लक्ष जतां शुद्धता उत्पन्न थाय त्यारे एणे द्रव्यनी सेवा करी अने तेने ज्ञायक ‘शुद्ध’ छे एम जणायुं. अंदर लक्ष गया विना ‘शुद्ध’ छे एम कहे पण तेनो कांई अर्थ नथी.

अहा! भगवान आत्मा चैतन्यरसकंद छे. एवो आत्मा कदी जोयो-जाण्यो नहीं अने तेनी वात सांभळवानी परवा करी नहीं. दुनियाना डहापण डोळ्‌यां, बहारमां कारखानां धंधा-वेपार आदिनी धमालमां रोकाई गयो. पण भाई! ए तो पागलपणुं छे. आ तो देवाधिदेव तीर्थंकरदेवनां कहेण आव्यां के जाणक स्वभाव एवो ज्ञायक अजाण (जड) स्वभाव एवा कर्मपुद्गलरूप अने एना भावरूप केम थाय? अहा! चैतन्यसूर्यनो प्रकाशए कर्म अने रागना अंधारारूप केम थाय? अहो! आत्मा एवो ने एवो चैतन्यरसना तत्त्वथी भरेलो छे. तेने परथी -कर्मथी-निमित्तथी भिन्न पडी उपासवामां आवतां एटले ज्ञायकनो पर्यायमां स्वीकार करतां ए ‘शुद्ध’ छे एम जाणवामां आवे छे, अने तेने सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्मनुं पहेलुं पगथियुं कहेवामां आवे छे. वळी शुद्धनयना विषयभूत ते एकनो ज उग्र आश्रय-सेवन करतां विशेष-विशेष शुद्धतारूप रत्नत्रयधर्म प्रगट थाय छे.


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आगळ अगियारमी गाथामां तो ज्ञायकने शुद्धनय कह्यो छे, अने ए एकना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे तेथी शुद्धनय ए ज एक आदरणीय छे. आत्मानो आश्रय लईने जे शुद्ध परिणमन थयुं एने शुद्धनय थयो एम पण कहेवामां आवे छे. एटले के शुद्धनयनो आश्रय लईने जे पर्याय थई ते पर्यायमां ‘शुद्ध’ नुं भान थयुं माटे तेने शुद्धनय कह्यो छे. परिणमन ते शुद्धनय, परिणमनमां जे ध्रुव लक्षमां आव्यो तेने पण शुद्धनय कहे छे. समयसार आस्रव अधिकार कळश १२० मां आवे छे के शुद्धनयनो आश्रय करीने जेओ सदाय एकाग्रतानो अभ्यास करे छे तेओ बंधरहित एवा समयना सारने देखे छे-अनुभवे छे. हुं केवळज्ञानस्वरूप शुद्ध छुं एवुं जे आत्मद्रव्यनुं परिणमन ते शुद्धनय. एनो अर्थ एम छे के त्रिकाळी वस्तु जे छे ते जे ज्ञानमां ख्यालमां आवी तेने शुद्धनय कह्यो. साक्षात् शुद्धनय तो केवळज्ञान थये थाय छे. केवळज्ञान थतां चैतन्यनो आश्रय संपूर्ण पूरो थई गयो ए अपेक्षाए केवळज्ञानने साक्षात् शुद्धनय कहेलो छे. वळी शुद्धनयस्वरूप द्रव्यस्वभावमां केवळज्ञाननी पर्यायनो अभाव छे. तथा पर्याय होवाथी केवळज्ञानने सद्भूत व्यवहारनयनो विषय कह्यो छे. तेथी ज्यां जे अपेक्षा होय त्यां ते बराबर समजवी जोईए. जीव अनादिथी कर्मना उदयने वश थई परिणमतां रागादिनुं सेवन करतो हतो. तेथी संसार हतो. अहीं ज्ञायकने लक्षमां लई ते एकने ज उपासवामां आवतां, तेने रागादि संसार छूटी जतां, शुद्ध कहेवामां आवे छे. उत्पाद-व्यय, रहित जे एकरूप ज्ञायकभाव तेना लक्षे जे निर्मळ परिणमन थयुं तेमां आत्मा शुद्ध प्रतिभास्यो तेने ‘शुद्ध’ कहेवामां आवे छे. आ प्रमाणे त्रण पदोनी व्याख्या थई. हवे चोथुं पद छे णादो जो सो दु सो चेव। दाह्य एटले बळवा योग्य पदार्थना आकारे थवाथी अग्निने दहन कहेवाय छे. छाणां, लाकडां वगेरेने दाह्य कहेवाय छे. अग्नि तेना आकारे थाय छे तेथी अग्निने दहन कहेवाय छे. तोपण दाह्यकृत अशुद्धता तेने नथी. बळवा योग्य पदार्थना आकारे अग्नि थयो ए पोते पोताना परिणमननी लायकातथी थयो छे. तेना आकारे परिणम्यो माटे अग्नि पराधीन छे एम नथी. छाणाना आकारे अग्नि परिणम्यो तेथी तेने अशुद्धता नथी. स्वयं अग्नि तेवा आकाररूपे परिणम्यो छे. दाह्यना आकारे परिणमतो अग्नि दाह्यना कारणे नहीं, पण स्वयं पोताना कारणे तेवा आकारे परिणमे छे. आतो द्रष्टांत थयुं, हवे सिद्धांत कहे छे. ज्ञेयाकार थवाथी ते ‘भाव’ ने ज्ञायकपणुं प्रसिद्ध छे. जेवो राग होय, पुण्य- पापना भाव होय तेने ते स्वरूपे ज ज्ञान जाणे, शरीर, मन, वाणी, राग, आदि ज्ञानमां जणाय ते काळे ज्ञान ज्ञेयाकारे परिणमे छे, छतां ज्ञेयना ज्ञेयाकार थाय छे एवी पराधीनता


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नथी. जाणनार ज्ञेयाकारोना ज्ञानपणे परिणमे तेथी तेने ज्ञायकपणुं प्रसिद्ध छे, तोपण ज्ञेय पदार्थोना कारणे ज्ञान परिणम्युं छे एम नथी. ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी. परना कारणे ज्ञान ज्ञेयाकाररूप थाय छे एम नथी, परंतु पोतानी परिणमनयोग्यताथी पोतानो ज्ञानआकार पोताथी थयो छे.

आवुं वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप समजे नहीं अने सामायिक करे, प्रौषध करे, प्रतिक्रमण करे, उपवासादि करे, पण तेथी शुं? अहीं तो कहे छे के ज्ञायक, जे ज्ञेयो पर छे तेनो जाणनार छे, परज्ञेयो जेवा होय ते आकारे ज्ञाननुं परिणमन थाय छे; तो परनी अपेक्षाथी ज्ञाननुं परिणमन अशुद्ध थयुं के नहीं? तो कहे छे ना, केमके रागादि ज्ञेयाकारनी अवस्थामां ज्ञायकपणे जे जणायो ते स्वरूपप्रकाशननी अवस्थामां पण ज्ञायक ज छे. जेम दाह्यकृत अशुद्धता अग्निने नथी तेम ज्ञेयकृत अशुद्धता ज्ञानने नथी. ज्ञायकभावना लक्षे जे ज्ञाननुं परिणमन थयुं तेमां स्वनुं ज्ञान थयुं अने जे ज्ञेय छे, तेनुं ज्ञान थयुं, ते पोताना कारणे थयुं छे. जे ज्ञेयाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे जणायो ते पोताना स्वरूपने जाणवानी अवस्थामां पण दीवानी जेम, कर्ता कर्मनुं अनन्यपणुं होवाथी, ज्ञायक ज छे. पोते जाणनारो माटे पोते कर्ता अने पोताने ज जाण्यो माटे पोते ज कर्म. ज्ञेयने जाण्युं ज नथी, पण ज्ञेयाकार थयेला पोताना ज्ञानने जाण्युं छे. अहाहा...! वस्तु तो सत्, सहज अने सरळ छे, पण एनो अभ्यास नहीं एटले कठण पडे छे, शुं थाय?

द्रष्टांतः जेम दीपक घट-पटने प्रकाशित करवानी अवस्थामांय दीपक छे अने पोताने -पोतानी ज्योतिरूप शिखाने -प्रकाशवानी अवस्थामां पण दीपक ज छे. दीवो घट-पटादिने प्रकाशे त्यारे पण दीवारूप छे, घट-पटादिरूप थतो नथी; अने पोतानी ज्योतिरूप शिखाने प्रकाशे त्यारे पण दीवो दीवो ज छे, अन्य कांई नथी; तेम ज्ञायकनुं पण समजवुं.

ज्ञायक घटपटादि के रागादि ज्ञेयाकारोने जाणवानी अवस्थामां पण ज्ञायक ज छे अने पोताने जाणवानी अवस्थामां पण ज्ञायक ज छे घट-पटादि के रागादिने जाणवाना काळे पण ज्ञाननी पर्याय ज्ञानरूप ज छे, घट-पटादि अन्यरूप नथी. तथा पोतानी पर्यायने जाणवाना काळे पण ज्ञाननी पर्याय ज्ञानरूप ज छे, अन्यरूप नथी.

मार्ग घणो सूक्ष्म छे. भाई! अनादिना शल्य पडया छे तेथी आवी वात समजवी कठण पडे. परंतु आ समज्या विना जन्म-मरणनो अंत आवे एम नथी. भाई! प्रयत्न करीने पण आ समजवुं पडशे.


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ज्ञायक ज्ञानरूपे परिणमे छे, ते ज्ञेयाकारे परिणमे छे एम छे ज नहीं. आ ज्ञायक रूपी दीवो दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, ईत्यादि परिणाम जे ज्ञेय छे तेने जाणवाना काळे पण ज्ञानरूपे रहीने ज जाणे छे, अन्य ज्ञेयरूप थतो नथी. ज्ञेयोनुं ज्ञान ते ज्ञाननी अवस्था छे, ज्ञेयनी नथी. ज्ञाननी पर्याय ज्ञेयना जाणनपणे थई माटे तेने ज्ञेयकृत अशुद्धता नथी. साक्षात् तीर्थंकर भगवान सामे होय अने ते जाणवाना आकारे ज्ञाननुं परिणमन थाय तो ते ज्ञेयना कारणे थयुं एम नथी. ते काळे ज्ञाननुं परिणमन स्वतंत्र पोताथी ज छे, परने लईने थयुं नथी. भगवानने जाणवाना काळे पण भगवान जणाया छे एम नथी पण खरेखर तत्संबंधी पोतानुं ज्ञान जणायुं छे आत्मा जाणनार छे ते जाणे छे, ते परने जाणे छे के नहीं? तो कहे छे के परने जाणवाना काळे पण स्वनुं परिणमन-ज्ञाननुं परिणमन पोताथी थयुं छे, परना कारण नहीं. आ शास्त्रना शब्दो जे ज्ञेय छे ए ज्ञेयना आकारे ज्ञान थाय छे पण ते ज्ञेय छे माटे ज्ञाननुं अहीं परिणमन थयुं छे एम त्रणकाळमां नथी. ते वखते ज्ञानना परिणमननी लायकातथी अर्थात् ज्ञेयनुं ज्ञान थवानी पोतानी लायकातथी ज्ञान थयुं छे. ज्ञान ज्ञेयना आकारे परिणमे छे ते ज्ञाननी पर्यायनी पोतानी लायकातथी परिणमे छे, ज्ञेय छे माटे परिणमे छे एम नथी. हवे सुगम भाषामां भावार्थ कहे छे. * भावार्थ उपरनुं प्रवचन * आत्मामां अशुद्धपणुं परद्रव्यना संयोगथी आवे छे. त्यां मूळद्रव्य तो अन्यद्रव्यरूप थतुं ज नथी, मात्र परद्रव्यना निमित्तथी अवस्था मलिन थई जाय छे. जुओ आत्मामां पुण्य-पापनी मलिन दशा ए कर्मना निमित्तथी आवे छे. दया, दान, भक्ति, पूजा ईत्यादि विकल्पो ए राग छे, मलिनता छे अने ए परद्रव्य जे कर्मनो उदय तेना संयोगथी आवे छे. पण तेथी मूळद्रव्य जे ज्ञायकभाव छे ते रागादिरूप मलिन थई जतुं नथी. ए तो निर्मळानंद, चिदानंद भगवान जेवो छे तेवो त्रिकाळ ज्ञायकस्वरूपे रहे छे. द्रव्यद्रष्टिथी तो द्रव्य जे छे ते ज छे, अने पर्यायद्रष्टिथी जोवामां आवे तो मलिन ज देखाय छे. ए रीते आत्मानो स्वभाव ज्ञायकपणुं मात्र छे, अने तेनी अवस्था पुद्गलकर्मना निमित्तथी रागादिरूप मलिन छे. पंडित जयचंद्रजीए बहु सारुं स्पष्टीकरण कर्युं छे के पर्यायद्रष्टिथी जुओ तो ते मलिन ज देखाय छे. अने द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे, कांइ जडपणुं थयुं नथी. अहीं द्रव्यद्रष्टिने प्रधान करी कह्युं छे, पर्यायमां जे प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद छे ते तो परद्रव्यना संयोगजनित पर्याय छे. अहीं मलिन पर्याय जे प्रमादना भाव ए तो परद्रव्यसंयोगजनित छे पण एना अभावथी जे अप्रमत्तदशा थाय तेने पण परद्रव्यना


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संयोगजनित कही छे. पर निमित्तना सद्भाव अने अभावनी अपेक्षा आवे छे एटले प्रमत्त-अप्रमत्त बधी पर्यायोने संयोगजनित कहीने ए ज्ञायकभाव-स्वभावभावमां नथी एम कह्युं छे.

नियमसारमां औदयिकादि चार भावने आवरणसंयुक्त कह्या छे. त्यां औदयिकभावमां कर्मना उदयना निमित्तनी अपेक्षा आवे छे माटे ते आवरणवाळो छे ए तो ठीक पण उपशम, क्षयोपशम अने क्षायिकभाव तो निरावरण छे छतां निमित्तना अभावनी अपेक्षा आवती होवाथी चारेय भावोने आवरणसंयुक्त कही दीधा छे.

पंडितजीए बहु सरस स्पष्ट कर्युं छे के निमित्तना सद्भाववाळी प्रमत्त दशा अने निमित्तना अभाववाळी अप्रमत्त दशा ए बन्ने संयोगजनित छे अने तेथी नित्यानंद, ध्रुव, प्रभु ज्ञायकमां ए पर्याय-भेदो नथी. भाई! आ समज्या विना जन्म-मरणना फेरा मटे एम नथी. प्रमत्त-अप्रमत्तनी अवस्थाओ आत्मामां नथी. अशुद्धता, द्रव्यद्रष्टिमां गौण छे. अहीं प्रमत्त-अप्रमत्त बन्ने अवस्थाओने अशुद्धतामां नाखी दीधी, केमके बन्ने संयोगजनित छे. आ चौदेय गुणस्थानोनी पर्यायो अशुद्धनयनो विषय छे. अहीं द्रव्यद्रष्टिमां चौदेय गुणस्थानोने अशुद्ध कही गौण करी व्यवहार, अभूतार्थ, असत्यार्थ, उपचार छे एम कहेल छे. चौदेय गुणस्थानो अभावरूप छे तेथी असत्यार्थ छे एम नथी, पण द्रव्यद्रष्टिमां ते गौण छे, लक्षमां लेवा योग्य नथी अने त्रिकाळी द्रव्यमां ए अवस्थाओ नथी तेथी असत्यार्थ-अभूतार्थ कहेल छे. द्रव्यमां तो अशुद्धता छे ज नहीं, पर्यायमां छे ते द्रव्यद्रष्टिमां गौण थई जाय छे.

आ छठ्ठी गाथा बहु सूक्ष्म छे. समयसारनो सार जे ज्ञायक तेनी शरूआत त्यांथी थाय छे. न्यालभाईए द्रव्यद्रष्टिप्रकाशमां लीधुं छे के -आखा समयसारमां छठ्ठी गाथामां सम्यग्दर्शननो खास विषय जे ध्रुव ते आवी गयो छे. छठ्ठी गाथामां सर्वोत्कृष्ट वात आवी छे. हुं प्रमत्त नहीं, अप्रमत्त पण नहीं; कई पर्याय बाकी रही? अहाहा...! द्रष्टिनो विषय जे ज्ञायकबिंब तेमां कोई पर्यायो छे ज नहीं.

वस्तुस्वभावनी द्रष्टिथी जोईए तो स्वभाव त्रिकाळ शुद्ध छे, द्रव्य द्रव्यरूप ज छे. एनी वर्तमान अवस्था परद्रव्यना निमित्ते अशुद्ध थई छे, पण ए गौण छे. आत्मामां बे प्रकारः एक त्रिकाळी स्वभावभाव अने एक वर्तमान पर्यायभाव. त्यां त्रिकाळी स्वभाव जे ज्ञायकभाव ते कदीय प्रमत्त-अप्रमत्त एवा चौद गुणस्थानना भेदरूप थयो ज नथी, निरंतर ज्ञायकपणे शुद्ध रह्यो छे. माटे वर्तमान पर्यायने गौण करी एवा शुद्ध ज्ञायकने द्रष्टिमां लेवो ते सम्यग्दर्शन अने जाणवो ते सम्यग्ज्ञान छे. आ वीतरागमार्गनी मूळ


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वात छे. द्रव्यमां तो अशुद्धता नथी, पण द्रव्यद्रष्टिमां पण अशुद्धता नथी. पर्याय उपरथी नजर खसेडी लई ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि करे नहीं अने लोको बहारनी धमालमां रोकाई जाय, व्रत करे, जात्रा करे, भक्ति आदि करे पण तेथी शुं वळे? अहीं तो कहे छे के तुं ज्ञायक महाप्रभु छो तेमां द्रष्टि एकाग्र करवी ए भक्ति छे अने ए मोक्षमार्ग छे.

वर्तमान पर्यायमां अशुद्धता छे, वस्तु पोते अशुद्धपणे थई नथी. वस्तु अशुद्ध त्रण काळमां थाय पण नहीं, केमके वस्तुमां विकार थाय एवो कोई गुण नथी. वस्तु जे आत्मा छे तेमां ज्ञान, दर्शन, आनंद, अस्तित्व, वस्तुत्व ईत्यादि अनंत अनंत गुणो छे, पण कोई गुण एवा नथी के वस्तुमां विकार करे. विकार तो पर्यायमां पर निमित्तथी उत्पन्न थाय छे. गुणमां विकार थाय एवो भाव नथी, पण परना लक्षे पर्याय विकारी थाय छे. द्रव्यद्रष्टिमां आ अशुद्धताने गौण करीने व्यवहार, असत्यार्थ, अभूतार्थ, उपचार कही छे. तेमां आशय एम छे के पर्यायनी अशुद्धतानुं लक्ष छोडावी वस्तु जे आत्मा तेनी द्रष्टि कराववी छे. वस्तुस्वभावनी मुख्यतामां पर्याय गौण- अमुख्य छे तेथी तेने व्यवहार कहीने जूठी छे, असत्यार्थ छे एम कहेल छे. असत्यार्थ कहीने उपचार छे एम कह्युं त्यां पर्यायने गौण करीने उपचार कही छे. छे तो खरी, पण तेनुं लक्ष करवा योग्य नथी तेथी द्रव्यद्रष्टिमां तेने गौण करी उपचार कहेल छे.

अहाहा...! सुखनिधान प्रभु आत्मा दुःखरूप केम परिणमे? दुःखपणे तो पर्याय परिणमी छे. ए पर्याय अशुद्ध छे अने परना लक्षे विकारी थई छे. गुण कदीय विकारी थयो नथी. त्रणलोकना नाथ जिनेन्द्रदेवनुं आ कथन छे. जैनदर्शन सिवाय बीजे क्यांय आवी वात नथी.

पर्याय जे अशुद्ध थइ छे ते द्रव्यमां नथी. कोई एम कहे के पर्याय जे शुद्ध थई ते तो द्रव्यमां छे ने? तो ते शुद्ध पर्याय पण द्रव्यमां नथी, पण एनी वात अहीं नथी केमके शुद्ध पर्याय तो द्रव्यनो आश्रय करे छे. अने जे अशुद्धता छे तेने द्रव्यद्रष्टिमां गौण करीने असत्यार्थ कहेल छे. द्रव्यद्रष्टि एटले जे पर्याय निर्मळ थई ए पर्यायनो विषय जे द्रव्य त्रिकाळी छे, ते तरफ ए वळी छे. तेमां अशुद्धता नथी एम कहेवा मागे छे. वळी पर्याय द्रव्य तरफ वळी एमां अशुद्धता गौण छे. घणा प्रकारे कथन आवे त्यां अपेक्षा बराबर समजवी जोईए.

हवे कहे छे-द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे. द्रव्यद्रष्टि एटले वस्तुस्वभावथी जोतां द्रव्य शुद्ध छे अने एनी द्रष्टि करतां जे द्रव्यद्रष्टि प्रगट थई ते पोते पण शुद्ध छे, अने शुद्ध द्रव्य ते एनुं ध्येय छे. बापु! आ तो आत्मकथा छे. जैनमां जन्म्या छतां खबर न मळे के द्रव्य


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कोने कहेवुं? एनो स्वभाव शुं? अने कया विषयनुं लक्ष छोडी कोनुं लक्ष करवुं? आ बधुं जाण्या विना धर्म न थाय भाई!

द्रष्टिनो विषय शुद्ध छे, अने द्रष्टि पण शुद्ध छे. द्रष्टिए त्रिकाळी शुद्धनी प्रतीति करी. शुद्धमां ‘शुद्ध’ जणायो. आवो वीतरागमार्ग सूक्ष्म छे भाई! आत्मा परमात्मस्वरूप शुद्ध छे. एनी द्रष्टिथी जोईए तो वस्तु शुद्ध छे. पण अहीं तो द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे एम कह्युं छे, द्रव्य शुद्ध छे एम नथी कह्युं. एनो अर्थ ए के द्रष्टि ज्यारे ‘शुद्ध’नी थाय त्यारे वस्तु शुद्ध छे एम तेणे जाण्युं कहेवाय.

अहो! धर्मसभामां एकावतारी इन्द्रो जे सांभळवा आवे छे ते आ अलौकिक वात छे. दया पाळो, व्रत पाळो एवी साधारण वात तो कुंभार पणकरतो होय छे. पण परनी दया कोई पाळी शकतुं नथी. दयानो भाव आवे ते राग छे, अशुद्धता छे. पर्यायमां अशुद्धतानो व्यय थई अने शुद्धता प्रगट थाय ए धर्म छे. शुद्ध चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि करतां अशुद्धता गौण थाय छे अने तेनो अभाव थईने शुद्धि प्रगट थतां मुक्ति थाय छे.

वळी कहे छे द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे, अभेद छे, निश्चय छे, भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे, परमार्थ छे.

द्रव्यनो स्वभाव अभेद छे. ते उपर द्रष्टि जतां द्रष्टि पण अभेद छे. त्रिकाळी द्रव्य अभेद छे, माटे तेना आश्रये प्रगटेली जे द्रष्टि ते पण अभेद छे एम कहे छे.

अहीं व्यवहार (अशुद्ध पर्याय) सामे द्रष्टि (शुद्ध पर्याय)ने निश्चय कही छे. त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिथी जोईए तो द्रव्य निश्चय सत् छे, अने एना आश्रये प्रगटेली द्रष्टि पण निश्चय छे.

वस्तु आत्मा त्रिकाळ छे ए भूतार्थ छे. आवा भूतार्थ स्वभावनी द्रष्टि थतां द्रव्यद्रष्टि पण भूतार्थ छे. पर्यायद्रष्टि अभूतार्थ छे, द्रव्यद्रष्टि भूतार्थछे.

त्रिकाळी द्रव्य-वस्तु सत्य छे. आवा सच्चिदानंदस्वरूप आत्मानी द्रष्टि करनारी द्रव्यद्रष्टि पण सत्यार्थ छे.

अगाउ पर्यायनी अशुद्धताने गौण करी उपचार कही हती. अहीं आ छेल्ला बोलमां उपचार सामे द्रव्यद्रष्टि परमार्थ छे एम कह्युं छे. वस्तु-द्रव्य पोते परमार्थ छे. त्रिकाळी ध्रुव आत्मा स्वयं परम पदार्थ छे. एनी द्रष्टि करी ए द्रष्टि पण परमार्थ छे.


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माटे कहे छे-आत्मा ज्ञायक ज छे; तेमां भेद नथी तेथी प्रमत्त-अप्रमत्त नथी. जुओ स्पष्ट करे छे के चैतन्यरसनो कंद प्रभु आत्मा एक ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायक ज छे, तेमां पर्याय नथी, प्रमत्त-अप्रमत्त अवस्थाओ नथी. अहाहा...! सम्यग्दर्शननी पर्याय ज्ञायकने विषय करे, पण ए पर्याय ज्ञायकमां नथी. ज्ञायक पर्यायना भेदरूप थतो नथी. जाणनार, जाणनार, जाणनार, ध्रुव, ध्रुव, ध्रुव एवा ज्ञायकमां कोई भेद नथी. कोई कहे के अनेकांत करो ने? के आत्मा ज्ञायक पण छे अने विकारी पण छे. तो अहीं कहे छे के आत्मा वस्तु एकांत ज्ञायक ज छे, अभेद छे तेथी प्रमत्त-अप्रमत्त नथी. अहो! कुंदकुंदाचार्यदेवे जगत समक्ष परम सत्य जाहेर कर्युं छे. हवे चोथा पदनो अर्थ करे छे. ‘ज्ञायक’ एवुं नाम पण तेने ज्ञेयने जाणवाथी आपवामां आवे छे, कारण के ज्ञेयनुं प्रतिबिंब ज्यारे झळके छे त्यारे ज्ञानमां तेवुं ज अनुभवाय छे. रागादि, विकारादि जेवा ज्ञेय छे तेवुं ज अहीं ज्ञानमां जणाय छे. तोपण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी. रागने जाणे माटे रागना कारणे ज्ञान परिणम्युं छे एम नथी. राग छे माटे अहीं तेनुं ज्ञान थयुं एम तेने अशुद्धता नथी. ज्ञाननी पर्याय पोते ज ए रीते जाणवारूप परिणमी छे. जेम अरीसो होय तेमां सामे जेवी चीज कोलसा, श्रीफळ, वगेरे होय तेवी चीज त्यां जणाय. एरूपे अरीसो परिणम्यो छे, ए अरीसानी अवस्था छे. अंदर देखाय ए कोलसा के श्रीफळ नथी. ए तो अरीसानी अवस्था देखाय छे. तेम ज्ञाननी पर्यायमां शरीरादि ज्ञेयो जणाय त्यां ज्ञाननी पर्याय ए पोतानी छे, ए शरीरादि परने लईने थई छे एम नथी; केमके जेवुं ज्ञेय ज्ञानमां प्रतिभासित थयुं तेवो ज्ञायकनो ज अनुभव करतां ज्ञायक ज छे. जाणनारो जाणनारपणे ज रह्यो छे, ज्ञेयपणे थयो ज नथी. ज्ञेय पदार्थनुं जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान पोतानुं पोताथी छे, ज्ञेयथी नथी. ‘आ हुं जाणनारो छुं ते हुं ज छुं, अन्य कोई नथी.’ ज्ञेय पदार्थनुं ज्ञान थयुं त्यां जाणनारो ते हुं छु,ं ज्ञेय ते हुं नथी. एवो पोताने पोतानो अभेदरूप अनुभव थयो त्यारे ए जाणवारूप क्रियानो कर्ता पोते ज छे अने जेने जाण्युं ते कर्म पण पोते ज छे. ज्ञाननी पर्याये त्रिकाळी द्रव्यने जाण्युं त्यारे ज्ञेयने पण भेगुं जाण्युं. ए ज्ञेयने नहीं पोतानी पर्यायने पोते जाणी छे. जाणनक्रियानो कर्ता पण पोते अने जाणनकर्म पण पोते. आवो एक ज्ञायकपणामात्र पोते शुद्ध छे. ए ‘शुद्ध’ जणायो पर्यायमां. ए रीते एने शुद्ध कहेवामां आवे छे. जणाया विना शुद्ध कोने कहेवुं? आ शुद्धनयनो विषय छे. त्रिकाळी द्रव्य जे ज्ञायकपणामात्र छे ते शुद्धनयनो विषय छे. अन्य परसंयोगजनित भेदो छे ते बधा भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय छे.


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शुद्धनयनो विषय तो पोतानो ध्रुवस्वभाव ज्ञायक छे, पण एनुं परिणमन निर्मळ थयुं तेने शुद्धनय कह्यो छे. परिणमने ध्रुवने जाण्यो, जाणवानुं कार्य आव्युं तेने शुद्धनय कह्यो. विषय तो ध्रुव छे, पण एने ध्रुव जणायो कयारे? शुद्ध परिणमन थयुं त्यारे ज ध्रुव छे एम जणायुं. एटले एने शुद्धनय कह्यो. पर्यायमां जे अशुद्धता छे ते तो परसंयोगजनित भेद छे, अने जे निर्मळ पर्याय थई तेने अभेदमां गणी लीधी. अशुद्धताने भेदमां गणीने ते अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय छे एम कह्युं. द्रव्य तो त्रिकाळ शुद्ध छे अने द्रव्यनी पर्याय विकारपणे थई छे तेथी तेने अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय कह्यो. आ अशुद्धद्रव्यार्थिक नय पण शुद्धद्रव्यनी द्रष्टिमां पर्यायार्थिक ज छे तेथी व्यवहारनय ज छे एम जाणवुं. पर्याय एम भेद पडे ते अशुद्ध छे, व्यवहार छे. शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां पर्यायार्थिकनय छे ते व्यवहारनय ज छे. अहीं आत्मा जे ध्रुववस्तु छे तेने सत्यार्थ, भूतार्थ अने परमार्थ कही अने अशुद्धनयनो विषय जे रागादि एने असत्यार्थ, अभूतार्थ अने उपचार कह्या. द्रव्यना स्वभावनुं प्रयोजन सिद्ध करवा आम कह्युं छे. ध्रुवने ध्येय बनावीने तेनो आश्रय लेतां सम्यग्दर्शनादि प्रगट थाय छे. माटे द्रव्यनी मुख्यतामां पर्यायने गौण करी तेनुं लक्ष छोडाववा तेने असत्यार्थ कह्या छे. अहीं एम पण जाणवुं के जिनमतनुं कथन स्याद्वादरूप छे, तेथी अशुद्धनयने सर्वथा असत्यार्थ न मानवो. पर्यायमां विकार छे ज नहीं, मलिनता छे ज नहीं एम न मानवुं. पर्यायमां विकार छे ते अपेक्षाए तेने सत्यार्थ जाणवुं. विकार छे, पर्याय छे ए अपेक्षाथी सत्यार्थ मानवुं. परंतु सम्यग्दर्शनना ध्येयमां द्रव्य अने पर्याय बन्ने आवी जाय छे एम न समजवुं. वस्तु जे त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यस्वभाव छे तेना आश्रये धर्मनी प्राप्ति थाय छे. पर्यायनो आश्रय करवा जाय त्यां विकल्प ऊठे छे, राग उत्पन्न थाय छे. तेथी तेने असत्यार्थ कही त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकनुं अवलंबन लेवा कह्युं छे. पण एम न मानवुं के पर्यायमां शुद्धता-अशुद्धता कांई चीज ज नथी. कारण के स्याद्वाद प्रमाणे शुद्धता अने अशुद्धता बन्ने वस्तुना धर्म छे, अने वस्तुधर्म छे ते वस्तुनुं सत्त्व छे. अशुद्धता ए पण आत्मानी पर्यायनुं सत्त्व छे. सर्वथा असत्य छे, जूठुं छे एम नथी. मार्ग सूक्ष्म अने गंभीर छे, भाई! एने अपेक्षाथी न समजे तो गोटा ऊठे एवुं छे. विकारी अवस्थाने पण जीवे धारी राखी छे. जेम द्रव्य-गुणने धारी राख्या छे तेम अशुद्धताने पण पर्यायमां जीवे धारी राखी छे. अशुद्धता छे ज नहीं एम कहे तो पर्याय ऊडी जाय छे अने अशुद्धतानो आश्रय लेवा जाय तो धर्म थतो नथी. माटे पर्यायमां अशुद्धता छे ते सत्यार्थ छे पण ते आश्रय योग्य नथी तेथी असत्यार्थ छे एम अपेक्षा यथार्थ समजवी.


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अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी थाय छे ए ज फेर छे. विकारी भाव कर्मना संयोगथी थाय छे. ते स्वभाव नथी ए अपेक्षाथी संयोगथी थाय एम कह्युं, पण ए भाव पोतामां पोताथी थाय छे. विकारीभाव छे तो जीवनुं पर्यायसत्त्व अने ते पोताना षट्कारकथी स्वतंत्रपणे पर्यायमां थाय छे. विकारनो कर्ता विकारी पर्याय, विकार ते पोतानुं कर्म, विकार पोते साधन, पोते संप्रदान, पोते अपादान अने पोते आधार. एम विकार एक समयनी पर्यायमां पोताना षट्कारकोथी उत्पन्न थाय छे. परना संयोगथी विकार थाय छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनी प्रधानताथी कथन छे, खरेखर परने लईने विकार थतो नथी.

अशुद्धनयने अहीं हेय कह्यो छे, कारणके अशुद्धनयनो विषय संसार छे अने संसारमां आत्मा क्लेश भोगवे छे. अशुद्धनयनो विषय जे संसार छे तेने जीव अनादिथी पोतानो मानी चारगतिमां रखडे छे अने संसारमां क्लेश-दुःख भोगवे छे.

त्यारे कोई एम कहे के अहीं अशुद्ध पर्यायने हेय कही छे पण जे शुद्ध पर्याय छे तेनुं शुं? तो तेनो उत्तर एम छे के नियमसारमां निर्मळ पर्यायने पण हेय कही छे. अहीं तो द्रव्य त्रिकाळी शुद्ध छे तेनी द्रष्टि कराववा अने पर्यायमां जे अशुद्धता छे तेनुं लक्ष छोडाववा अशुद्धताने असत्यार्थ कही हेय कहेवामां आवी छे. जीवने अनादिथी पर्यायद्रष्टि छे अने अशुद्धता अने पर्यायना भेदोनुं लक्ष पण अनादिनुं छे ते अहीं छोडाववानुं प्रयोजन छे.

अहाहा! ध्रुव ज्ञायकभाव भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे, निश्चय छे, परमार्थ छे; अने जे पर्यायनी अशुद्धता छे ते अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे, व्यवहार छे, उपचार छे. तेथी अशुद्धनय हेय छे केमके तेनो विषय संसार छे अने संसारमां जीव क्लेश भोगवे छे. चारेय गतिमां मिथ्या श्रद्धान अने रागद्वेषना दावानळमां संतृप्त थई जीव दुःखी- दुःखी थई रह्यो छे. पैसावाळा मोटा शेठीओ होय के राज्यना मालिक मोटा राजा- महाराजा होय ते सौ अज्ञानवश संसारमां महादुःखी छे. लोको एमने अज्ञानथी सुखी कहे, पण खरेखर ते बधा अतिशय दुःखी छे. जीव स्वर्गमां जाय तो त्यां पण तृष्णावश भारे दुःखी छे. नरक-निगोदनां दुःख तो अपरंपार छे, अकथ्य छे.

हवे कहे छे ज्यारे पोते परद्रव्यथी भिन्न थाय त्यारे संसार मटे अने त्यारे क्लेश मटे. ए रीते दुःख मटाडवाने शुद्धनयनो उपदेश प्रधान छे. परद्रव्य अने अशुद्धतानुं लक्ष छोडी, भगवान आत्मा जे आनंदनो नाथ त्रिकाळ ध्रुव ज्ञायक प्रभु छे तेनो आश्रय लेतां संसार कहेतां विकार मटे अने त्यारे क्लेश मटी सुख थाय. नरकना क्षेत्रमां अनाजनो कण नथी, पाणीनुं टीपुं नथी छतां त्यां समकिती सुखी छे. सातमी रौरव नरकना स्थानमां


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कोई जीव त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय लई सम्यग्द्रष्टि थाय छे तेथी पर्यायमां तेने सुख प्रगट थाय छे. त्रिकाळी द्रव्य आत्मा पोते सुखनिधान छे. पर्यायनी द्रष्टि छोडी ज्यां द्रव्यनी द्रष्टि करी के सुख प्रगट थाय छे. आ रीते दुःख मटे छे तेथी शुद्धनयनो उपदेश प्रधान छे. सम्यग्दर्शन पाम्या पछी शुद्धनयनो आश्रय पामी विशेष-विशेष अंतरमां लीन थतां चारित्र प्रगटे छे त्यां विशेष-विशेष सुख थाय छे. शुद्धनयनो आश्रय संपूर्ण थतां संपूर्ण वीतरागता, केवळज्ञान अने अनंत सुख प्रगट थाय छे. सुखी थवानो आ एक ज मार्ग छे. अशुद्धनयने असत्यार्थ कहेवाथी एम न समजवुं के आकाशना फुलनी जेम ते वस्तुधर्म सर्वथा ज नथी. एम सर्वथा एकांत समजवाथी मिथ्यात्व आवे छे. जेम आकाशमां फूल नथी तेम जीवनी अवस्थामां अशुद्धता छे ज नहीं एम नथी. मुख्य- गौण करीने सत्यार्थ-असत्यार्थनी व्याख्या करी छे. मुख्यने सत्य कही गौणने असत्य कहेल छे. पण पर्यायमां अशुद्धता नथी एवुं नथी. अशुद्धता पर्यायधर्मनुं सत्त्व छे. द्रव्य-गुण-पर्याय त्रणेय सत् छे, माटे अशुद्धता सर्वथा असत्यार्थ न समजवी. एम सर्वथा एकांत समजतां मिथ्यात्व रहे छे. स्वभावद्रष्टिनी मुख्यतामां विकारने असत्यार्थ कह्यो, ते पर्यायने जोतां सत्यार्थ छे. पर्यायमां जो विकार नथी तो दुःख नथी, संसार नथी. तो पछी ते टाळवानो उपाय पण केम होय? माटे पर्यायमां अशुद्धता छे एम जाणवुं, सर्वथा एकांत न मानवुं. माटे स्याद्वादनुं शरण लई शुद्धनयनुं आलंबन करवुं जोईए. पर्यायमां अशुद्धता छे तेनुं यथार्थ ज्ञान करी तेनुं लक्ष छोडवुं, अने एकमात्र ध्रुव ज्ञायकने सत्यार्थ स्वीकारी तेनो आश्रय करवो. तेथी रत्नत्रयधर्म प्रगट थाय छे. पर्यायमां अशुद्धता छे ते पोतानी ज भूलथी छे. रागपणे परिणमे ते पोतानो पर्यायधर्म छे. धर्म एटले मोक्षमार्गरूप धर्म एनी अहीं वात नथी, अशुद्धता पोतानी पर्याये धारी राखेल छे तेथी ते पर्यायधर्म छे एम कह्युं छे. आम स्याद्वादनुं शरण लई एटले ज्यां जेवी अपेक्षा छे तेनुं यथार्थ ज्ञान करी शुद्धनयनुं आलंबन करवुं. स्वरूपनी प्राप्ति थया पछी शुद्धनयनुं पण आलंबन नथी रहेतुं. एटले ज्यां पर्यायमां पूर्णस्वरूप प्रगट थई गयुं, पूर्ण वीतरागता अने केवळज्ञान प्रगट थई गयां त्यां शुद्धनयनुं आलंबन पूरुं थई गयुं. पछी आलंबन करवानुं प्रयोजन रह्युं नहीं, आलंबन पण रह्युं नहीं. जे वस्तुस्वरूप छे ते छे-ए प्रमाणद्रष्टि छे. द्रव्यनो संपूर्ण आश्रय लईने केवळज्ञान थयुं त्यां आत्मानुं प्रमाणज्ञान थई गयुं. पूर्ण वीतरागता प्रगट थई गई. आ प्रमाणे निश्चय करवो योग्य छे. अहीं (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नथी एम कह्युं छे त्यां ‘प्रमत्त-अप्रमत्त’ एटले शुं? गुणस्थाननी परिपाटीमां छठ्ठा गुणस्थान सुधी तो प्रमत्त कहेवाय छे अने


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सातमाथी मांडीने अप्रमत्त कहेवाय छे. परंतु ए सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनी कथमांनी छे; शुद्धनयथी आत्मा ज्ञायक ज छे.

आत्मा जे त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकस्वरूप छे ते एकांत सत्य छे. ते कोई अपेक्षाए असत्य न थाय. सत्य-असत्यनी अपेक्षा पर्यायमां लागु पडे. पर्याय पोताना होवापणानी अपेक्षाए सत्य छे अने त्रिकाळी ध्रुवनी द्रष्टि करतां गौण-असत्य छे. सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनो विषय छे तेथी गौण छे, असत्यार्थ छे. केमके तेनो आश्रय ले तो संसार ऊभो थाय अने त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनो आश्रय ले तो दुःख मटी जाय अने मोक्ष थाय.

शुद्धनयथी आत्मा ज्ञायक ज छे. एटले आत्मा जे एक चैतन्य-चैतन्य सामान्य एकरूप अभेद ध्रुवस्वरूप छे ते ज्ञायक ज छे. तेमां चौदेय गुणस्थानोना भेदो नथी. द्रव्य अने पर्याय ए बन्ने वस्तुमां होवा छतां आ एकरूप ज्ञायकभावमां पर्यायो नथी. मलिन, विकारी पर्यायो तो नथी पण संवर, निर्जरा अने मोक्षनी शुद्ध पर्यायो पण नथी. आवो एकरूप अभेद जे ज्ञायकभाव ए ज ध्येयरूप छे. अहीं अशुद्धनुं लक्ष छोडाव्युं तेनो अर्थ ए छे के जे निर्मळ पर्याय छे ते तो द्रव्यनो ज आश्रय ले छे. अशुद्धता छे ते पर्यायमां छे, द्रव्य-गुणमां नथी. तेथी अशुद्धताने गौण करी, निर्मळानंद, ध्रुव ज्ञायकनुं लक्ष करतां सम्यग्दर्शनादि प्रगट थाय छे अने ते धर्म छे.

भाई! आ (ज्ञायक) तो वीतराग थवानुं कारखानुं छे. कोई कहे छे के सोनगढमां सिद्ध थवानी फेक्टरी छे. वात साची छे. आ तत्त्व समजीने कोई द्रव्यनो- ध्रुवनो आश्रय ले तो जरूर सिद्धपद पामे एवी अफर आ वात छे. शुद्ध पर्याय त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय ले छे ते मार्ग छे. पर्याय ध्रुवनुं ध्यान करे छे. आगळ गाथा ३२०नी आचार्य जयसेननी टीकामां आवे छे के-‘ध्याता पुरुष एम भावे छे के जे सकळ निरावरण अखंड एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय अविनश्चर शुद्ध पारिणामिक परमभावलक्षण निज परमात्मद्रव्य ते हुं छुं.’ पर्याय एम जाणे-अनुभवे छे के त्रिकाळी द्रव्य ते हुं छुं. न्यालभाईए कह्युं छे के -‘पर्याय मारुं ध्यान करे तो करो, हुं कोनुं ध्यान करुं?’ माटे एकलो जे ज्ञायक ध्रुव भगवान छे ते एक ज द्रष्टिनो विषय आश्रय करवा योग्य छे, निर्मळ पर्याय पण आश्रय करवा योग्य नथी एम निश्चय करवो.

ॐ ॐ ॐ

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जीव–अजीव अधिकार
गाथा–७

दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत्–

ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।
ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।
७।।

व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्।
नापि
ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः।। ७।।

हवे प्रश्न थाय छे के दर्शन, ज्ञान, चारित्र-ए आत्माना धर्म कहेवामां आव्या छे, तो ए तो त्रण भेद थया, ए भेदरूप भावोथी आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे! आ प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-

चारित्र, दर्शन, ज्ञान पण व्यवहार–कथने ज्ञानीने;
चारित्र नहि, दर्शन नहि, नहि ज्ञान, ज्ञायक शुद्ध छे. ७.

गाथार्थः– [ज्ञानिनः] ज्ञानीने [चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्] चारित्र, दर्शन, ज्ञान- ए त्रण भाव [व्यवहारेण] व्यवहारथी [उपदिश्यते] कहेवामां आवे छे; निश्चयथी [ज्ञानं अपि न] ज्ञान पण नथी, [चरित्रं न] चारित्र पण नथी अने [दर्शनं न] दर्शन पण नथी; ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः शुद्धः] शुद्ध ज्ञायक ज छे.

टीकाः– आ ज्ञायक आत्माने बंधपर्यायना निमित्तथी अशुद्धपणुं तो दूर रहो, पण एने दर्शन, ज्ञान, चारित्र पण विद्यमान नथी; कारण के अनंत धर्मोवाळा एक धर्मीमां जे निष्णात नथी एवा निकटवर्ती शिष्यजनने, धर्मीने ओळखावनारा केटलाक धर्मो वडे, उपदेश करता आचार्योनो-जोके धर्म अने धर्मीनो स्वभावथी अभेद छे तोपण


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नामथी भेद उपजावी-व्यवहारमात्रथी ज एवो उपदेश छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे. परंतु परमार्थथी जोवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य पी गयुं होवाथी जे एक छे एवुं कांईक-मळी गयेला आस्वादवाळुं, अभेद, एकस्वभावी (तत्त्व)-अनुभवनारने दर्शन पण नथी, ज्ञान पण नथी, चारित्र पण नथी, एक शुद्ध ज्ञायक ज छे.

भावार्थः– आ शुद्ध आत्माने कर्मबंधना निमित्तथी अशुद्धपणुं आवे छे ए वात तो दूर ज रहो, पण तेने दर्शन, ज्ञान, चारित्रना पण भेद नथी; कारण के वस्तु अनंतधर्मरूप एकधर्मी छे. परंतु व्यवहारी जन धर्मोने ज समजे छे, धर्मीने नथी जाणता, तेथी वस्तुना कोई असाधारण धर्मोने उपदेशमां लई अभेदरूप वस्तुमां पण धर्मोना नामरूप भेदने उत्पन्न करी एवो उपदेश करवामां आवे छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे. आम अभेदमां भेद करवामां आवे छे तेथी ते व्यवहार छे. परमार्थथी विचारवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य अभेदरूपे पीने बेठुं छे तेथी तेमां भेद नथी.

अहीं कोई कहे के पर्याय पण द्रव्यना ज भेद छे, अवस्तु तो नथी; तो तेने व्यवहार केम कही शकाय? तेनुं समाधानः- ए तो खरुं छे पण अहीं द्रव्यद्रष्टिथी अभेदने प्रधान करी उपदेश छे. अभेदद्रष्टिमां भेदने गौण कहेवाथी ज अभेद सारी रीते मालूम पडी शके छे. तेथी भेदने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो छे. अहीं एवो अभिप्राय छे के भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा नथी थती अने सरागीने विकल्प रह्या करे छे; माटे ज्यां सुधी रागादिक मटे नहि त्यां सुधी भेदने गौण करी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे. वीतराग थया बाद भेदाभेदरूप वस्तुनो ज्ञाता थई जाय छे त्यां नयनुं आलंबन ज रहेतुं नथी.

हवे प्रश्न थाय छे के दर्शन, ज्ञान, चारित्र-ए आत्माना धर्म कहेवामां आव्या छे, तो ए तो त्रण भेद थया, ए भेदरूप भावोथी आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे? आ प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः

प्रवचन नंबर, १८–२० तारीख १७–१२–७प थी २०–१२–७प

* गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

ज्ञानीने चारित्र, दर्शन, ज्ञान-ए त्रण भाव व्यवहारथी कहेवामां आवे छे; निश्चयथी ज्ञान पण नथी, चारित्र पण नथी अने दर्शन पण नथी; ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ज छे.


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आ दर्शन, ज्ञान, चारित्र एम त्रण भाव ज्ञानीने नथी. शुं कहेवा मागे छे? के त्रिकाळी ज्ञायकमां आ दर्शन, आ ज्ञान, आ चारित्र एवा भेद नथी. ज्ञायक तो अखंड, अभेदरूप छे. एवा ज्ञायकमां त्रण भेद पाडे त्यां विकल्प ऊठे छे, राग थाय छे. त्रिकाळी ज्ञायक परमात्मामां निर्मळ पर्यायने पण भेगी गणे तो व्यवहार थई जाय छे; अशुद्धनय थई जाय छे. अशुद्धनय कहो, अशुद्धद्रव्यार्थिकनय कहो, पर्यायार्थिकनय कहो के व्यवहारनय कहो, -ते एकार्थवाचक छे.

आचार्य भगवाने जे अपेक्षाए जे वात करी होय ते बराबर समजवी जोईए तेमां कांईपण आघुंपाछुं करवा जाय तो विपरीत थई जशे. अहीं कहे छे के ज्ञानीने चारित्र, दर्शन, ज्ञान एम त्रण भाव व्यवहारथी कहेवामां आवे छे, एटले के ते असत्यार्थ कहेवामां आवे छे. निश्चयद्रष्टिमां आ गुण अने आ गुणी एवा भेद छे ज नहीं. ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ज छे. अहाहा...! वस्तु-आत्मा शुद्ध ज्ञायक ज छे, अभेद छे. अभेदमां दर्शन, ज्ञान, चारित्र एम गुणो छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे. गुणो छे खरा, पण गुण-भेद नथी. अभेदद्रष्टिथी जोनारने भेद देखातो ज नथी. प्रवचनसारमां अलिंगग्रहणना अढारमा बोलमां कह्युं छे के ‘आत्मा गुणविशेषथी नहि आलिंगित एवुं शुद्ध द्रव्य छे.’ कहे छे के गुणी एवो आत्मा गुणभेदने स्पर्शतो नथी, आलिंगन करतो नथी. अहाहा...! एकलो अभेद, अभेद छे. अभेदमां भेद उपजावतां-आ ज्ञान छे, दर्शन छे, चारित्र छे एम भेद उपजावतां पर्यायमां राग उत्पन्न थाय छे, सम्यग्दर्शनादि थतां नथी.

अहीं छठ्ठी गाथाथी पण हवे आगळ वात लई जाय छे. छठ्ठी गाथामां व्यवहारना त्रण प्रकारनो निषेध करीने हवे अहीं चोथा अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयनो निषेध करे छे.

११ मी गाथामां व्यवहारनयना चारेय भेदनो निषेध कर्यो छे. बधोय व्यवहार अभूतार्थ छे एम कहीने जैनदर्शननुं वास्तविक स्वरूप बताव्युं छे. असद्भूत व्यवहारना बे प्रकार-एक उपचरित असद्भूत अने बीजो अनुपचरित असद्भूत. तथा सद्भूत व्यवहारना बे भेद-एक उपचरित सद्भूत अने बीजो अनुपचरित सद्भूत. तेमां त्रण भेदोनो छठ्ठी गाथामां निषेध कर्यो छे. अने अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनो आ सातमी गाथामां निषेध करे छे.

ज्ञान ते आत्मा, दर्शन ते आत्मा, चारित्र ते आत्मा-आवा भेद ज्ञायकमां नथी. आवा भेद ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे. ज्ञायक तो ज्ञायक अभेदमात्र छे.


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आठमी गाथामां एम कह्युं के-‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हंमेशां प्राप्त होय ते आत्मा छे.’ आम भेद पाडीने समजाव्युं छे. नवमी-दशमी गाथामां एम कह्युं के ज्ञान छे ते आत्मा छे. आम भेद पाडीने कथन कर्युं ते सद्भूत व्यवहारनय छे. तेनो अहीं निषेध करीने कहे छे के आत्मा तो एक शुद्ध ज्ञायक ज छे, तेमां कोई भेद नथी.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

आ ज्ञायक आत्माने बंधपर्यायना निमित्तथी अशुद्धपणुं तो दूर रहो, पण एने दर्शन, ज्ञान, चारित्र पण विद्यमान नथी. त्रिकाळी वस्तु अभेद छे. एमां भेद कयां छे? आचार्य जयसेननी टीकामां अग्निनो दाखलो आप्यो छे. अग्निमां पाचक, प्रकाशक अने दाहक एम त्रण गुण छे. एम आत्मामां दर्शनगुण पाचक छे, ज्ञानगुण प्रकाशक छे, चारित्रगुण दाहक छे. आ त्रण भेद पाडवा ए व्यवहार छे. निश्चयथी एने दर्शन, ज्ञान, चारित्र पण विद्यमान नथी. अभेदनी हयातीमां भेदनी हयाती रहेती नथी. अहा! त्रिकाळ एक ज्ञायकभावनी द्रष्टि करतां पर्यायभेद देखातो नथी ए तो ठीक, पण अंदर गुणो छे छतां गुणभेद पण देखातो नथी.

आ मूळ चीजने जाण्या विना जन्म-मरण मटे एम नथी. एकलो अभेद ज्ञायक ते मूळचीज छे. एने पर्यायमां अनादिथी कर्मबंध छे. ते बंधपर्यायना निमित्तथी अशुद्धपणुं आवे ए तो दूर रहो, पण एमां शुद्धताना भेदो पण नथी. अशुद्धता तो नथी ज, पण भगवान ज्ञायक एकरूप वस्तुमां दर्शन-ज्ञान-चारित्र जे मोक्षनो मार्ग छे, शुद्ध छे ए पण विद्यमान नथी. सम्यग्दर्शननो विषय के निर्विकल्प ध्याननो विषय जे त्रिकाळी ध्रुव एकरूप ज्ञायक तेमां सम्यग्दर्शन आदि शुद्ध पर्यायोना भेद नथी. अहाहा...! एकला अभेद ज्ञायकमां अशुद्धता तो नथी पण दर्शन, ज्ञान, चारित्रनी पर्यायना भेदनो पण अवकाश नथी.

कह्युं ने के ज्ञायकमां ज्ञान, दर्शन, चारित्र विद्यमान नथी. विद्यमान नथी एटले अभेद द्रष्टिमां आ भेदो जणाता नथी. ते अभेदद्रष्टिना विषय नथी. भेदनुं लक्ष करवा जाय त्यां विकल्प थाय छे, राग थाय छे. भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा थती नथी. सम्यग्दर्शन ए निर्विकल्प दशा छे. ते केम प्रगट थाय एनी आ अद्भुत वात छे. आत्मा शुद्ध ज्ञायक छे. तेनी साथे ज्ञान-दर्शन-चारित्रनी शुद्ध पर्याय भेळवो तो निर्विकल्प समकित नहीं थाय. अशुद्धपणानी वात तो छोडी दो, दर्शन, ज्ञान, चारित्रनी शुद्ध पर्यायना भेद पण अखंड ज्ञायकनी द्रष्टिथी बहार रही जाय छे. अभेदद्रष्टिमां पर्यायभेद नजरमां आवतो ज नथी.


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हवे कहे छे-अनंत धर्मोवाळा एक धर्मीमां जे निष्णात नथी एवा निकटवर्ती शिष्यजनने, जो के धर्म अने धर्मीनो स्वभावथी अभेद छे तोपण नामथी भेद उपजावी-व्यवहारमात्रथी ज एवो उपदेश छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे.

आत्मा एक ज्ञायक वस्तु छे. एमां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनंत धर्मो छे. आवा अनंतधर्मोवाळा एक धर्मीमां जे निष्णात नथी, एटले के अनंतधर्मो होवा छतां अभेद एकत्वरूप धर्मीनुं जेने ज्ञान नथी, अनुभव नथी एवा निकटवर्ती शिष्यने भेद पाडी समजाववामां आवे छे. अहीं निकटवर्ती शिष्य लीधो छे. शिष्य बे प्रकारे निकट छे-क्षेत्रथी अने भावथी. एटले के पात्र थईने मुमुक्षुता प्रगट करीने जिज्ञासाथी तत्त्व समजवा समीपमां आव्यो छे. एवा शिष्यने भेद पाडी व्यवहारथी समजाववामां आवे छे. अनंतधर्मोवाळो धर्मी आत्मा एक छे, स्वभावथी अभेदरूप छे, तोपण तेने ओळखाववा माटे शिष्यने भेद पाडी समजाववुं पडे छे, केमके बीजो कोई उपाय नथी. तेथी अनंत धर्मोमांथी धर्मीने ओळखावनारा केटलाक धर्मो वडे शिष्यने उपदेश आपवामां आवे छे के ज्ञानीने ज्ञान छे, दर्शन छे, चारित्र छे. नाममात्रथी ज भेद उपजावी आचार्योए व्यवहारथी ज आवो उपदेश आप्यो छे.

जेमके सुखडना लाकडामां सुगंध छे. सुंवाळप छे, वजन छे इत्यादि नाममात्र भेद पाडी (सुखड) समजाववामां आवे छे. खरेखर तेमां एवा भेद नथी. तेम आ भगवान आत्मामां भेद नथी. ते तो अभेद एक वस्तु छे. परंतु जेने ते अभेद एक शुद्ध द्रव्यनुं ज्ञान नथी एवा पात्र शिष्यने उपदेश करनार आचार्यो कथनमात्र भेद पाडी वस्तुतत्त्व समजावे छे-के आत्मामां ज्ञान छे, दर्शन छे, चारित्र छे.

संसारमां बधा भणे छे. कोई मेट्रिक, बी. ए., एल एल.बी., एम. डी. वगेरे थाय छे ने? ए तो बधी पापनी विद्या छे. एवी विद्या तो अनंतवार प्राप्त करी छे, पण आ विद्या एकवार पण प्राप्त करी नथी. भगवान आत्मा जे अखंड एकरूप ज्ञायक छे तेने जाणवा-अनुभववानी विद्या अनंतकाळमां एकवार पण प्राप्त करी नथी. (एक वार पण ज्ञायकमां डोकियुं करे तो भवोभवनां दुःख मटी जाय).

अहाहा! आचार्योए नामथी भेद उपजावी व्यवहारथी शिष्यने उपदेश आप्यो के आत्मा दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे. परंतु परमार्थथी जोवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य पी गयुं होवाथी एकरूप, किंचित् एकमेक मळी गयेला आस्वादरूप, अभेद एकस्वभाव वस्तुनो अनुभव करनार पंडित पुरुषने दर्शन पण नथी, ज्ञान पण नथी अने चारित्र पण नथी, ते तो एक शुद्ध ज्ञायक ज छे.


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परमार्थथी एटले वस्तुद्रष्टिथी जोवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य पी गयुं होवाथी एकरूप छे. अहीं पर्याय शब्दनो अर्थ गुण करवो, केमके गुणने सहवर्ती पर्याय कहेवामां आवे छे. समयसार गाथा २९४नी टीकामां आत्मानुं स्वलक्षण बताव्युं छे त्यां गुणने सहवर्ती पर्याय कही छे, अने बदलाती दशाने क्रमवर्ती पर्याय कही छे. गुणो बधा द्रव्यमां एकसाथे रहे छे तेथी गुणने सहवर्ती पर्याय कहेल छे. आ सघळा अनंत गुणोने एक द्रव्य पीने बेठुं छे एटले ते अनंतगुणो द्रव्यमां अभेदपणे छे, कदी भेदरूप थता नथी. माटे द्रव्य एकरूप छे.

वळी ते अनंतगुणोना स्वादो एकमेक मळी गयेला अभेद छे. ज्ञाननो स्वाद, आनंदनो स्वाद, एम बधा स्वाद मळी गयेला अभेद छे. जेम उनाळामां दूधियुं करे छे ने? तेमां बदाम, चारोळी, पिस्ता इत्यादि भिन्न-भिन्न छे, छतां बधातो स्वाद एकरूप छे. एम अनंतगुणोनो स्वाद मळी गयेलो अभेद एक छे. अहा! अशुद्धतानुं लक्ष छोडी, भेदनुं पण लक्ष छोडी एकला ज्ञायक उपर द्रष्टि पडतां अभेद एक मळी गयेला आस्वादवाळुं एकस्वभावी तत्त्व अनुभवमां आवे छे.

जेने आत्मकल्याण करवुं होय, सुखी थवुं होय, जन्म-मरणथी छूटवुं होय तेणे शुं करवुं? तो कहे छे के जे एक ज्ञायकभाव अभेद वस्तु छे तेने अनुभवमां लेवो. आवा एकस्वभावी अभेद आत्मतत्त्व अनुभवनार ज्ञानी पुरुषने दर्शन पण नथी, ज्ञान पण नथी, चारित्र पण नथी. तो शुं छे? तो कहे छे के एक शुद्ध ज्ञायक ज छे. जुओ एकांत कीधुं के एक शुद्ध ज्ञायक ज छे, एकलो अभेद छे. अहाहा! एकलो चैतन्य ज्ञायकभाव, अभेदस्वभाव, एकभाव, सामान्यस्वभाव, नित्यस्वभाव, ध्रुवस्वभाव, सद्रशएकरूपस्वभाव ए ज एक सम्यग्दर्शननो विषय छे. आ तो सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरे कहेलुं अलौकिक वीतराग दर्शन छे.

* भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ शुद्ध आत्माने कर्मबंधना निमित्तथी अशुद्धपणुं आवे छे ए वात तो दूर रहो एटले के तेमां अशुद्धपणुं तो नथी पण तेमां दर्शन, ज्ञान, चारित्रना भेद पण नथी, कारण के वस्तु अनंतधर्मरूप एक धर्मी छे. वस्तु तो अभेद एक छे.

व्यवहारीजन धर्मोने ज समजे छे. धर्मीने नथी जाणतो. ज्ञान ते आत्मा, दर्शन ते आत्मा एम व्यवहारी जन धर्मोने समजे छे पण अखंड एकरूप धर्मी जे ज्ञायक तेने नथी जाणतो. तेथी वस्तुना कोई असाधारण धर्मोने उपदेशमां लई अभेद वस्तुमां पण


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धर्मोना नामरूप भेदने उत्पन्न करी उपदेश करवामां आवे छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चरित्र छे.

वस्तुमां अस्तित्व, वस्तुतत्व, द्रव्यत्व, इत्यादि साधारण धर्मो छे. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, आदि आत्माना असाधारण धर्मो छे. अभेद वस्तुमां परमार्थे भेद न होवा छतां, आ असाधारण धर्मो द्वारा कथनमात्र भेद उत्पन्न करी आचार्यो उपदेश आपे छे के आत्माने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे. जे ज्ञानी नथी एने संतो नाममात्रथी भेद पाडी समजावे छे. आम अभेदमां भेद करवामां आवे छे तेथी ते व्यवहार छे, व्यवहार छे तेथी अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. आगळ आठमी गाथामां कहेशे के व्यवहारनय स्थापन करवा योग्य छे, पण अनुसरवा योग्य नथी. एटले के व्यवहार छे खरो, भेदथी समजाववानी शैली छे खरी, पण भेद अनुसरवा लायक नथी. भेदना लक्षे अशुद्धता आवे छे, निर्विकल्पता थती नथी.

परमार्थथी विचारवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य अभेदरूपे पीने बेठुं छे तेथी तेमां भेद नथी. द्रव्य बधा भेदोने पीने बेठुं छे. वस्तु अंदर एकाकार अभेदरूपे स्थित छे, तेथी तेमां भेद नथी. भेदथी समजाववामां आवे छे ते कथनमात्र छे. आवो धर्म झीणो छे भाई! लोको बिचारा आ समजे नहीं अने सामायिक, प्रौषध, जात्रा, भक्ति आदि बाह्य क्रिया करे. पण सत्य हाथ आव्या विना चोराशीना अवतारमां रखडवानुं छे. ज्यारे अभेदद्रष्टिथी आत्माने जुए त्यारे सत्य हाथ आवे तेम छे.

त्यारे अहीं शिष्यने प्रश्न थाय छे के-पर्याय पण द्रव्यना ज भेद छे, अवस्तु तो नथी; तो तेने व्यवहार केम कही शकाय? प्रथम शिष्यनो प्रश्न बराबर समजवो जोईए. भेद जे पर्याय छे ते द्रव्यनो ज पोतानो अंश छे, अवस्तु एटले के परवस्तु तो नथी. जेम शरीर पर छे, कर्म पर छे एम पर्याय पर छे एम नथी. पर्याय तो स्वद्रव्यनो अंश छे तेथी स्ववस्तु छे, पोतानी छे, पोतामां छे, निश्चय छे. तो तेने व्यवहार केम कहेवाय? भाषा तो सादी छे, पण भाव घणो ऊंडो छे, भाई! अहो! पंडित जयचंद्रजीए केवो सरस खुलासो कर्यो छे!

तेनुं समाधानः– ए तो खरुं छे. पर्याय वस्तुनो ज भेद छे पण अहीं द्रव्यद्रष्टिथी अभेदने प्रधान करी उपदेश छे!

द्रव्य अने पर्याय बन्ने आत्मानी चीज छे. पर्याय छे ते पण वस्तु छे, अवस्तु नथी. परंतु अहीं पर्यायद्रष्टि छोडावी द्रव्यद्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे. तेथी अभेदने मुख्य