Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 8-11.

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करी उपदेश छे. अभेदद्रष्टिमां भेदने गौण कहेवाथी ज अभेद सारी रीते मालूम पडी शके छे. तेथी भेदने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो छे. अहीं भेदने गौण करीने एटले अभाव करीने एम नहीं, पण भेदने अमुख्य राखीने एटले के भेदनुं लक्ष छोडीने तेने व्यवहार कह्यो छे. व्यवहार कहो के असत्यार्थ कहो; पर्यायने गौण करीने असत्यार्थ कही छे, अभाव करीने नहीं.

अहीं एवो अभिप्राय छे के भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा थती नथी. अनंत गुणोनो धरनार धर्मी एवो जे अभेद आत्मा तेमां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रभुता, स्वच्छता एवा अनंत गुणोना भेद जो लक्षमां लेवा जशे तो राग उत्पन्न थशे, सम्यग्दर्शन नहीं थाय. नव तत्त्वना भेद पाडवा ए वात तो दूर रही पण गुण अने गुणीनो भेद पाडवा जाय त्यां पण निर्विकल्प दशा थती नथी. वस्तु अने एनी शक्तिओ एवो ज भेद ते द्रष्टिनो विषय नथी. द्रष्टिनो विषय तो अभेद, अखंड, एक ज्ञायक छे. द्रष्टि पोते पर्याय छे पण पर्याय ते द्रष्टिनुं ध्येय नथी.

प्रश्नः– वर्तमान पर्याय तेमां (द्रष्टिना विषयमां) भेळववी के नहीं?

उत्तरः– वर्तमान पर्याय भिन्न रहीने द्रव्यनी प्रतीति करे छे. ते एमां भळे कयांथी? पर्याय भिन्न रहे छे, ते द्रव्यमां भळती नथी, एक थती नथी.

अने सरागीने विकल्प रह्या करे छे. भेदने जाणवुं ए कांई रागनुं कारण नथी. केवळी भगवान भेद-अभेद सर्वने जाणे छे. अरिहंत परमात्मा द्रव्य-गुण-पर्याय, भेद-अभेद, लोक-अलोक सर्वने जाणे छे. माटे भेदने जाणवो ए रागनुं कारण नथी. पण सरागीने भेद जाणतां विकल्प उत्पन्न थाय छे. रागी जीवने भेद जाणतां राग उत्पन्न थाय छे. तेथी अनंत गुणोनो अभेद पिंड भगवान आत्मा अने अनंतगुण एम भेद पाडी द्रष्टि करतां राग थाय तेथी पुण्यबंध थाय पण सम्यग्दर्शननी अबंध पर्याय न थाय. सरागीने भेदनुं लक्ष करतां विकल्प थाय पण निर्विकल्प दशा न थाय. केवळी भगवान तो भेदाभेदरूप समग्र लोकालोकने जाणे पण तेमने राग थतो नथी, केमके तेओ वीतराग छे. परंतु रागी प्राणीने भेदनी द्रष्टि थतां राग थया विना रहेतो नथी.

आत्मा वस्तु अरूपी चिद्घन छे, तेमां आ भाव अने आ भाववान एम बे भाग पाडीने वस्तुने जोवा जाय तो रागी जीव छे तेथी तेने राग थशे. माटे ज्यां सुधी रागादिक मटे नहीं त्यां सुधी भेदने गौण करी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे. गुणीमां गुण नथी एम नथी, पण भेदने गौण करी अभेदनुं लक्ष करवानुं प्रयोजन छे.


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रागीने भेदना लक्षे राग थाय अने एमां धर्म माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. अहीं कहे छे के राग मटे नहीं त्यां सुधी भेदने गौण करीने एटले भेदनुं लक्ष छोडी दईने अभेद एकरूप ज्ञायकनुं लक्ष करवुं. तेथी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव थाय छे, अने ते धर्म छे.

जेम गुणीमां गुण छे, ने गुणभेदने गौण कह्यो तेम कोई एम कहे के गुणीमां पर्याय छे अर्थात् द्रव्यमां पर्याय छे अने तेने गौण करी तो ते बराबर नथी. पर्यायमां पर्यायने गौण करी छे. पर्याय तो द्रव्यथी भिन्न छे. पर्याय द्रव्यमां नथी. पर्याय भिन्न रहीने द्रव्यने विषय करे छे, द्रव्यमां पर्याय नथी. वस्तुमां गुण छे पण तेनुं लक्ष छोडाववा गुणभेदने गौण करीने अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आवे छे. तेम वस्तुमां पर्याय पण छे एम कोई कहे तो ते बराबर नथी. पर्याय तो पर्यायमां छे. पर्यायने गौण करी एटले के द्रव्यमां पर्याय छे. पण गौण करी एम कोई कहे तो एम नथी. भाई! आ चोखवट बराबर समजवी जोईए.

जेनां महाभाग्य होय तेना काने पडे एवी आ वात छे. राग मटे नहीं त्यांसुधी भेदने गौण करी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे. वीतराग थया बाद भेदाभेदरूप वस्तुनो ज्ञाता थई जाय छे. वीतराग थया पछी सर्वज्ञ भगवान भेद-अभेद सर्वने जाणे छे त्यां विकल्प नथी. सर्वज्ञ वीतराग दशा थई पछी भेदने गौण करीने अभेदने जाणवुं एवुं रहेतुं नथी. केवळी भगवान तो भेद-अभेद बन्नेने एकसाथे जाणे छे. त्यां पछी नयनुं आलंबन नथी. एटले के भेदने गौण करी द्रव्य जे अभेदपूर्ण ते तरफ ढळवुं एम त्यां रहेतुं नथी. ज्यां सुधी राग रहे, द्रव्यनुं पूर्ण आलंबन न होय त्यांसुधी नयनुं आलंबन छे. परंतु राग छूटी जतां पूर्ण वीतराग थया बाद एने अभेद तरफ ढळवुं एम नयनुं आलंबन रहेतुं नथी.

आ तो सर्वज्ञ परमेश्वर वीतरागनो अपूर्व मार्ग छे. साधारण माणसो जे मानीने बेठा छे के छ कायनी दया पाळवी ए धर्म तो एवी आ वात नथी. परनी दया तो कोई पाळी शकतुं नथी. अहीं तो सर्वज्ञदेवनुं फरमान छे के तारी दया तुं पाळ. एटले के जेवडो तुं छे, जेवो तुं छे, तेवडो अने तेवो तुं तने मान. त्यारे तें तारी दया पाळी कहेवाय. अने जेवडो जेम छे तेम पोताने न मानतां बीजी रीते मानीश तो तारी तें हिंसा ज करी छे.

निर्मळ पर्याय बहिर्तत्त्व छे, ए अंतःतत्त्व नथी. तेने गौण करी द्रव्यस्वभावनो आश्रय लेतां निर्विकल्प अनुभव थाय ते धर्म छे. शुद्ध पर्याय द्रव्यनुं लक्ष करे छे. अशुद्धनुं लक्ष छोडी पर्याय त्रिकाळी द्रव्यनी द्रष्टि करे छे.


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अशुद्धताथी छूटवानुं कहो छो तो निर्मळ पर्यायथी छूटवानुं केम कहेता नथी? तो कहे छे के निर्मळ पर्याय तो द्रव्य उपर लक्ष करे छे. (निर्मळ पर्याय, पर्याय उपर लक्ष करती ज नथी.)

पर्याय आ बाजु द्रव्य जे अभेद छे ते तरफ ढळी ते अपेक्षाए ए अभेद कहेवाय. बाकी पर्याय तो द्रव्यथी भिन्न रहे छे. अभेदमां पर्याय कयां छे? पर्याय तो भिन्न रही अभेदनी द्रष्टि करे छे. ते निश्चयद्रष्टि छे. द्रव्यमां पर्याय भेळवी दे तो व्यवहार थई जाय, भेदद्रष्टि थई जाय. पर्याय तो पर्यायमां रहे छे माटे अपेक्षा समजवी जोईए. द्रष्टिफेरे अज्ञानीने फेर लागे पण आ सत्य कहेवाय छे.

वीतराग थया पछी नयनुं आलंबन रहेतुं नथी. त्यारे समयसारना आस्रव अधिकारमां बे जग्याए एम आवे छे के केवळज्ञान थतां साक्षात् शुद्धनय छे ते केवी रीते छे? ए तो द्रव्यनो आश्रय पूर्ण थई गयो ए अपेक्षाए छे. शुद्धनयनो विषय तो ध्रुव त्रिकाळी द्रव्य एक ज छे पण हवे केवळज्ञान थतां द्रव्यनो आश्रय लेवानो रह्यो नहीं ते अपेक्षाए कह्युं छे. खरेखर तो केवळज्ञान कांई शुद्धनयनो विषय नथी, ए तो सद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे. केवळज्ञानीने तो नय ज कयां छे? छतां केवळज्ञान थतां शुद्धनय पूर्ण थाय छे एम जे कह्युं छे ए तो शुद्धात्मानुं आलंबन पूर्ण थतां हवे आलंबन लेवानुं रहेतुं नथी ते अपेक्षाए कथन छे. तेथी अहीं कहे छे के वीतराग थया बाद नयनुं आलंबन ज रहेतुं नथी.

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जीव–अजीव अधिकार
गाथा–८

तर्हि परमार्थ एवैका वक्तव्य इति चेत्–

जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं।।
८।।

यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम्।
तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम्।।
८।।

हवे फरी ए प्रश्न ऊठे छे के जो एम छे तो एक परमार्थनो ज उपदेश करवो जोईए; व्यवहार शा माटे कहो छो? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-

भाषा अनार्य विना न समजावी शकाय अनार्यने,
व्यवहार विण परमार्थनो उपदेश एम अशक्य छे. ८.

गाथार्थः– [यथा] जेम [अनार्यः] अनार्य (म्लेच्छ) जनने [अनार्यभाषां विना तु] अनार्यभाषा विना [ग्राहयितुम] कांई पण वस्तुनुं स्वरूप ग्रहण कराववा [न अपि शक्यः] कोई समर्थ नथी [तथा] तेम [व्यवहारेण विना] व्यवहार विना [परमार्थोपदेशनम्] परमार्थनो उपदेश करवा [अशक्यम्] कोई समर्थ नथी.

टीकाः– जेम कोई म्लेच्छने कोई ब्राह्मण ‘स्वस्ति’ एवो शब्द कहे छे त्यारे ते म्लेच्छ ए शब्दना वाच्यवाचक संबंधना ज्ञानथी रहित होवाथी कांई पण न समजतां ब्राह्मण सामे मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे, पण ज्यारे ब्राह्मणनी भाषा अने म्लेच्छनी भाषा-ए बन्नेनो अर्थ जाणनार अन्य कोई पुरुष अथवा ते ज ब्राह्मण म्लेच्छभाषा बोलीने तेने समजावे छे के ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ “तारुं अविनाशी


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कल्याण थाओ” एवो छे. त्यारे तुरत ज उत्पन्न थता अत्यंत आनंदमय आंसुओथी जेनां नेत्रो भराई जाय छे एवो ते म्लेच्छ ए ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ समजी जाय छे; एवी रीते व्यवहारीजन पण ‘आत्मा’ एवो शब्द कहेवामां आवतां जेवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ छे ते अर्थना ज्ञानथी रहित होवाथी कांई पण न समजतां मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे, पण ज्यारे व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथने चलावनार सारथी समान अन्य कोई आचार्य अथवा तो ‘आत्मा’ शब्द कहेनार पोते ज व्यवहारमार्गमां रहीने “दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हमेशां प्राप्त होय ते आत्मा छे” एवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ समजावे छे त्यारे तुरत ज उत्पन्न थता अत्यंत आनंदथी जेना हृदयमां सुंदर बोधतरंगो (ज्ञानतरंगो) ऊछळे छे एवो ते व्यवहारीजन ते ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ सुंदर रीते समजी जाय छे ए रीते जगत म्लेच्छना स्थाने होवाथी, अने व्यवहारनय पण म्लेच्छभाषाना स्थाने होवाने लीधे परमार्थनो प्रतिपादक (कहेनार) होवाथी व्यवहारनय स्थापन करवायोग्य छे; तेम ज ब्राह्मणे म्लेच्छ न थवुं-ए वचनथी ते (व्यवहारनय) अनुसरवा योग्य नथी.

भावार्थः– लोको शुद्धनयने जाणता नथी कारण के शुद्धनयनो विषय अभेद एकरूप वस्तु छे; तेओ अशुद्धनयने ज जाणे छे केम के तेनो विषय भेदरूप अनेकप्रकार छे; तेथी तेओ व्यवहार द्वारा ज परमार्थने समजी शके छे. आ कारणे व्यवहारनयने परमार्थनो कहेनार जाणी तेनो उपदेश करवामां आवे छे. अहीं एम न समजवुं के व्यवहारनुं आलंबन करावे छे पण अहीं तो व्यवहारनुं आलंबन छोडावी परमार्थे पहोंचाडे छे एम समजवुं.

गाथा ७मां एम कह्युं के आत्मा चिद्घन वस्तु छे. एमां शरीर, मन, वाणी, कर्म तो छे ज नहि, पण कर्मना संगे जे शुभ-अशुभ भावो थाय ए मलिनता, अशुद्धता पण एना स्वरूपमां नथी. ए तो ठीक, पण ज्ञानघन आत्मामां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद, प्रभुता, स्वच्छता एवी अनंत शक्तिओ छे, छतां आ शक्तिओना भेद अभेद आत्मामां नथी. गुण अने गुणी परमार्थे अभेद छे, भेदरूपे नथी.

आम होवा छतां शिष्यने समजाववा माटे अभेदमां नाममात्र भेद पाडीने ज्ञान ते आत्मा, दर्शन ते आत्मा, चारित्र ते आत्मा एम उपदेश करवामां आवे छे. तोपण भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प सम्यग्दर्शन थतुं नथी. माटे भेदने गौण करीने अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव करवो एम उपदेश करवामां आव्यो छे.

त्यारे शिष्यने प्रश्न थाय छे के-जो एम छे तो एक परमार्थनो ज उपदेश करवो जोईए; व्यवहार शा माटे कहो छो? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः


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प्रवचन नंबर २०–२२, तारीख २०–१२–७प थी २२–१२–७प

* गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

जेम अनार्य (म्लेच्छ) जनने अनार्यभाषा विना कांई पण वस्तुनुं स्वरूप ग्रहण कराववा कोई समर्थ नथी तेम व्यवहार विना परमार्थनो उपदेश करवा कोई समर्थ नथी.

अनार्यने समजाववुं होय त्यारे एनी भाषामां समजावाय. अनार्यभाषा विना एने वस्तुनुं स्वरूप न समजावी शकाय. तेम अज्ञानीने समजाववो होय त्यारे भेद पाडया विना परमार्थ वस्तुने समजावी शकाय नहीं. आत्मा, आत्मा, आत्मा एम कहीए, पण भेद पाडीने व्यवहारथी समजावीए नहीं के ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने प्राप्त छे ते आत्मा’ त्यां लगी अज्ञानी कांई समजी शके नहीं. तेथी भेद पाडीने परमार्थ वस्तु समजाववामां व्यवहार आवे खरो, पण ते आदरणीय नथी.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

जेम कोई म्लेच्छने कोई ब्राह्मण ‘स्वस्ति’ एवो शब्द कहे छे त्यारे ते म्लेच्छ ए शब्दना वाच्य-वाचक संबंधना ज्ञानथी रहित होवाथी कांईपण समजतो नथी. वाच्य पदार्थ अने तेना वाचक शब्दो ए बन्नेना संबंधनुं ज्ञान न होवाथी म्लेच्छ कांईपण समजतो नथी. जेम ‘साकर’ पदार्थ वाच्य छे अने ‘साकर’ शब्द तेनो वाचक छे. तेम ‘स्वस्ति’ एटले ‘तारुं अविनाशी कल्याण थाओ’ ए वाच्य छे अने ‘स्वस्ति’ शब्द एनुं वाचक छे. पण आ वाच्य-वाचक संबंधनुं ज्ञान न होवाथी कांईपण न समजतां आ शुं कहे छे?-एम ते म्लेच्छ ब्राह्मण सामे मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे.

पण ज्यारे ब्राह्मणनी भाषा अने म्लेच्छनी भाषा बन्नेनो अर्थ जाणनार अन्य कोई पुरुष अथवा ते ज ब्राह्मण म्लेच्छभाषा बोली तेने समजावे छे के ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ “तारुं अविनाशी कल्याण थाओ”-एवो छे त्यारे तुरत ज उत्पन्न थतां अत्यंत आनंदमय आंसुओथी जेनां नेत्रो भराई जाय छे एवो ते म्लेच्छ ए ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ समजी जाय छे. अहा! आवो आ ब्राह्मणनो आशीर्वाद छे एम ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ बराबर समजवाथी तेनी आंखो हर्षनां आंसुओथी भराई जाय छे. आ द्रष्टांत थयुं, हवे सिद्धांत कहे छे.

एवी रीते व्यवहारीजन पण ‘आत्मा’ एवो शब्द कहेवामां आवतां जेवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ छे ते अर्थना ज्ञानथी रहित होवाथी कांईपण न समजतां मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे. अहीं म्लेच्छना स्थाने व्यवहारीजन लीधो छे.


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व्यवहारीजन ‘आत्मा’ एवो शब्द सांभळतां कांईपण समजतो नथी. केमके ‘आत्मा’ शुं पदार्थ छे एनुं एने ज्ञान नथी. तेथी आ शुं कहे छे-शुं बके छे एम अनादरथी नहीं, पण शुं कहे छे-एवी समजवानी जिज्ञासाथी मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे. ‘आत्मा’ सत्य शुं छे? भगवाननुं कहेलुं तत्त्व शुं छे? ए सांभळवानी लायकातथी कहेनारनी सामे आंखो फाडीने टगटग जुए छे.

पण ज्यारे व्यवहार-परमार्थमार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथने चलावनार सारथि समान अन्य कोई आचार्य अथवा ‘आत्मा’ शब्द कहेनार पोते ज व्यवहारमार्गमां रहीने “दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हंमेशां प्राप्त होय ते आत्मा छे” एवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ समजावे छे, त्यारे तुरत ज उत्पन्न थता अत्यंत आनंदथी जेना हृदयमां सुंदर बोध-तरंगो (ज्ञानतरंगो) ऊछळे छे; एवो ते व्यवहारीजन ते ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ सुंदर समजी जाय छे.

जुओ, अहीं सम्यग्ज्ञानरूपी महारथने चलावनार सारथि समान आचार्य व्यवहार-परमार्थमार्गमां स्थित छे. निश्चय वस्तु आत्मा स्वरूपथी जे छे ते छे ते परमार्थ छे अने तेने भेद करीने समजाववी ते व्यवहार छे. अहीं अन्य आचार्य के ‘आत्मा’ शब्द कहेनार पोते ज व्यवहारमार्गमां रहीने एटले विकल्पथी भेद पाडीने शिष्यने समजावे छे. वस्तु तो अभेद एकरूप छे पण शिष्यने समजाववुं होय त्यारे भेद पाडीने समजाववुं पडे छे, केमके बीजो तो कोई उपाय नथी. तेथी अखंड, अभेद आत्मामां नाममात्र भेद उपजावी शिष्यने समजावे छे के ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने हंमेशां प्राप्त होय ते आत्मा.’ अहीं दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवा आत्माना त्रण असाधारण मुख्य धर्मोनुं लक्ष करी भेद पाडीने समजाव्युं छे. शरीर के पुण्य-पापना भावने प्राप्त होय ते आत्मा एम लीधुं नथी, पण दर्शन-ज्ञान-चारित्रने प्राप्त होय ते आत्मा एम व्यवहारथी भेद पाडीने समजावे छे.

अहाहा...! मुनिराज आचार्य दिगंबर संत छे. एमणे शिष्यने कह्युं- ‘आत्मा.’ पण शिष्य कांई समज्यो नहीं. एटले वस्तु आत्मा छे तो अंदरमां अनंतगुणने प्राप्त अभेद, परंतु एना मुख्य धर्मोने लक्ष करी ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने हंमेशां प्राप्त होय ते आत्मा’ एम भेद करीने शिष्यने समजावे छे. रागने प्राप्त थाय ते आत्मा के शरीरने प्राप्त थाय ते आत्मा एम छे नहीं. आटलो भेद पाडवो पडे ए कांई उपाय तो नथी; पण थाय शुं? भेद आदरणीय नथी, आदरणीय तो एक परमार्थ वस्तु अभेद आत्मा ज छे. अतति गच्छति इति आत्मा एम द्रव्यसंग्रहमां आवे छे. अहीं ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने प्राप्त होय ते आत्मा’ एम भेद पाडीने आचार्य परमार्थ समजावे छे.


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त्यारे तुरत ज शिष्यने परमार्थ वस्तु आत्मा उपर द्रष्टि जतां अतीन्द्रिय आनंद प्रगट थाय छे. एना हृदयमां सुंदर बोधतरंगो ऊछळे छे. आत्मा ज्ञानानंदनो दरियो छे. तेमां द्रष्टि थतां अंतरमां आनंद सहित ज्ञानतरंगो ऊछळे छे. जुओ, धर्म रोकडियो छे. ज्यां सम्यग्दर्शन थाय के तरत ज अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. त्यारे ते ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ बराबर समजी जाय छे.

अहा! विदेहक्षेत्रमां भगवान सीमंधरनाथ बिराजे छे. तेमनी वाणी अत्यारे पण नीकळे छे. त्यां श्री कुंदकुंदाचार्य सदेहे गया हता. त्यां जईने आव्या अने भगवाननो दिव्य संदेशो पात्र जीवो माटे लाव्या. कहे छे के गुणना भेद वस्तुमां नथी. छतां परमार्थने समजाववा माटे भेद पाडीने कह्युं के-देखे ते आत्मा, जाणे ते आत्मा, अंतरमां स्थिर थाय ते आत्मा. आम सांभळतां ज पात्र जीवने एकरूप वस्तु जे अभेद चैतन्य तेना उपर द्रष्टि जतां सम्यग्दर्शन थाय छे. साथे अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे. अनादिनो पुण्य-पापना विकारीभावनो आकुळतारूप स्वाद हतो, ते हवे सम्यग्दर्शन थतां अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थाय छे. कर्मचेतनानो स्वाद मटी, ज्ञानचेतनानो निराकुळ सुखनो स्वाद आवे छे.

अहाहा...! सम्यग्दर्शन कोई अपूर्व वस्तु छे. एक सेकंड आवुं सम्यग्दर्शन थाय त्यां द्रष्टि अपेक्षाए मोक्ष थई गयो. आत्मा पोते मोक्षस्वरूप परमात्मस्वरूप बिराजे छे. एनी द्रष्टि अने अनुभव थतां पर्यायमां परमात्मपद प्रगट थाय छे. देव-गुरु- शास्त्रने माने, नव तत्त्वना भेद जाणे ए कांई सम्यग्दर्शन नथी. सम्यग्दर्शन तो आत्मानी प्रतीतिरूप छे, सूक्ष्म पर्याय छे. आनंदना स्वाद उपरथी ज्ञानीने तेनो ख्याल आवे छे. पहेलुं सम्यग्दर्शन थाय, पछी स्वरूपमां विशेष एकाग्र थई स्थिर थाय ते सम्यक्चारित्र छे. सम्यग्दर्शन विनानां व्रत, तप, चारित्र ए बधां एकडा विनानां मींडां छे.

सम्यग्दर्शन थतां अनुभव थाय तेनी महोर-छाप शुं? तो कहे छे आनंदनो स्वाद आवे ते सम्यग्दर्शननी महोर-छाप छे. परथी लक्ष हठावी, दया, दानना जे विकल्प राग छे त्यांथी लक्ष हठावी, दर्शन-गुण-चारित्रना गुणभेदनुं लक्ष छोडी ज्यां अभेदस्वभावमां लक्ष जाय त्यां अनुभव प्रगट थाय छे, तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. ए सम्यग्दर्शन थतां सुंदर आनंद सहित ज्ञानतरंगो ऊछळे छे. त्यारे ‘आत्मा’ एनो यथार्थ अर्थ सुंदर रीते समजाय छे.

भाई! आ इन्द्रियोना विषयोनां सुख ए तो झेरना स्वाद छे. अमे करोडपति, अबजोपति अने पैसा अमारा छे एम जे ममता करे छे ते झेरना प्याला पीए छे. स्त्रीना


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भोगमां-हाड-चामडाना भोगमां सुख माने पण ए तो रागना स्वाद छे, झेरना स्वाद छे. अहीं तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते आत्मा एम भेद पाडी परमार्थ वस्तु समजावतां ज्यां अभेद त्रिकाळी ज्ञायकनो स्वीकार अने सत्कार थयो के तुरत ज अंतरमां आनंदना स्वाद सहित सुंदर बोधतरंगो ऊछळे छे. सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे. आनुं नाम धर्म छे. अहो! अमृतचंद्राचार्यदेवे अद्भुत टीका करी छे. आवी टीका भरतक्षेत्रमां बीजे कयांय नथी.

हवे कहे छे-ए रीते जगत म्लेच्छना स्थाने होवाथी, अने व्यवहारनय पण म्लेच्छभाषाना स्थाने होवाने लीधे परमार्थनो प्रतिपादक होवाथी व्यवहारनय स्थापन करवा योग्य छे; तेम ज ब्राह्मणे म्लेच्छ न थवुं-ए वचनथी ते अनुसरवा योग्य नथी. जेम म्लेच्छभाषा द्वारा म्लेच्छने समजाववुं ए तो योग्य छे पण तेथी ब्राह्मणे म्लेच्छ न थवुं जोईए, तेम व्यवहारनय परमार्थनो प्रतिपादक होवाथी स्थापन करवा योग्य छे, पण व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी. अनुसरण करवा योग्य तो एकमात्र त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायक ज छे.

* भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. ते सम्यग्दर्शन केम थाय एनी वात चाले छे. लोको शुद्धनयने जाणता नथी. अरे! अन्य संप्रदायमां तो शुद्धनय एवो शब्द पण नथी. शुद्धनय कोने कहेवाय? शुद्धनय एटले त्रिकाळी ज्ञायकने जाणनार सम्यग्ज्ञाननो अंश. अभेद एकरूप त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यवस्तु, छतो पदार्थ, शाश्वत पदार्थ जे आत्मा ते शुद्धनयनो विषय छे. अर्थात् आ आत्मा जे अनंत अनंत बेहद शक्तिओनो पिंड अभेद एकरूप वस्तु छे तेनुं जे लक्ष करे-ज्ञान करे तेने शुद्धनय कहे छे. एवा शुद्धनयने लोको जाणता नथी, केमके शुद्धनयनो विषय जे अभेद एकरूप वस्तु आत्मा तेनो तेमने प्रत्यक्षरूप अनुभव नथी.

जेम लाख मींडां लखो पण आगळ एकडो न होय तो केटली संख्या बने? कोई संख्या न बने. एकडा विनानां लाख मींडांनी कांई किंमत नथी, तेम सम्यग्दर्शन विना व्रत करे, तप करे, सामायिक करे, पण ए बधुं थोथेथोथां छे. ए क्रियाओमां राग मंद होय तो पुण्य बंधाय, धर्म न थाय.

आ तो भगवानना कहेला मंत्रो छे. अज्ञानमां सूतेलाने जगाडवा माटे छे. जीवे व्रत, तप, भक्ति, पूजा, दान, इत्यादि अनंतवार कर्यां छे, केमके ते अनंतवार स्वर्गमां गयो छे. ए स्वर्गमां कांई पाप करीने न जाय. एणे मनुष्यना भव कर्या सौथी ओछा, पण तेय अनंत. एनाथी नरकना भव असंख्यातगुणा अनंत कर्या. एक मनुष्यना भव


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सामे असंख्यात नरकना भव. भाई! भूली गयो तुं, पण अहीं तो भगवानना ज्ञानमां आवेली, शास्त्रमां कहेली वात कहेवाय छे. नरकना भवथी असंख्यातगुणा अनंत देवना भव कर्या. अहीं कहेवानो आशय एम छे के अनंतकाळमां आवा जे अनंत देवना भव कर्या ते कांई पापथी थोडा कर्या छे? व्रत, तप, आदि पुण्य अनंतवार कर्यां, पण शुद्धनय अने तेनो विषय जे त्रिकाळ, एकरूप, ध्रुव आत्मा तेने जाण्यो नहीं तेथी सम्यग्दर्शनादि धर्म थयो नहीं. तेथी आवुं भवभ्रमणनुं दुःख ऊभुं रह्युं छे. भवभ्रमणमां देवना भव करतां अनंतगुणा निगोदसहित तिर्यंचना भव थया छे. एक सम्यग्दर्शन विना जीवने संसारमां अनंत भव-परिभ्रमणनी अकथ्य वेदना भोगववी पडी छे. अहो! आ तो सर्वज्ञ परमात्माए एक समयमां जे आत्मा जोयो अने कह्यो ते केवो छे अने तेनो अनुभव केम थाय एनी वात चाले छे. अज्ञानीओ समज्या विना जे आत्मा, आत्मा कहे छे तेनी वात नथी. वेदांतवाळा सर्वव्यापी जे आत्मा माने छे तेनी पण वात नथी. अहीं तो अभेद एकरूपसत् वस्तु जे अनंतगुणोनो पिंड, नित्य ध्रुव सामान्य वस्तु छे ते आत्मा छे. तेने लोको जाणता नथी. आवा अभेद आत्मामां भेद नहीं होवा छतां ‘आ जाणे ते आत्मा, आ देखे ते आत्मा’ एवो भेद पाडी आत्मानुं परमार्थस्वरूप समजाववुं ते अशुद्धनय छे, व्यवहारनय छे. अनादिथी लोको अशुद्धनयने ज जाणे छे, भेदरूप वस्तुने ज जाणे छे. तेथी अभेद एकरूप वस्तुमां भेद उपजावीने एने समजाववामां आवे त्यारे ज परमार्थने समजी शके छे. शुद्धनयनो विषय अभेद एकरूप वस्तु छे, ज्यारे अशुद्धनयनो विषय भेदरूप अनेक प्रकार छे. अभेद एकरूप वस्तुमां व्यवहार द्वारा भेद पाडीने समजाववाथी तेओ परमार्थने समजी शके छे. आ कारणे व्यवहारनयने परमार्थनो कहेनार जाणी तेनो उपदेश करवामां आवे छे. व्यवहार द्वारा भेदनुं कथन ए निश्चयवस्तुने जाणवा माटे छे. ‘आ जाणे-देखे ते आत्मा’ एम भेद द्वारा परमार्थवस्तु अभेदनो अनुभव कराववानुं ज प्रयोजन छे. अहीं एम न समजवुं के व्यवहारनुं आलंबन करावे छे. भेद पाडीने अभेद समजाव्युं छे. पण भेदनुं आलंबन न लेवुं. ‘आ ज्ञान ते आत्मा’ एम भेद पाडीने अभेदनी द्रष्टि करावी छे. त्यां गुण-गुणीना भेदरूप व्यवहारनो आश्रय न करवो. आत्मामां परवस्तु नथी, दया, दाननो राग नथी, पण ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवा अनंतगुणो तेमां अभेदपणे छे. त्यां परमार्थवस्तु समजाववा माटे भेद पाडीने उपदेश छे. अभेदमां भेद कहेवो ते व्यवहारनय छे. माटे ते आश्रय करवा योग्य नथी. तेनुं आलंबन न लेवुं. भेद छोडीने द्रव्यस्वभाव एक त्रिकाळी ध्रुवनो आश्रय करवो ए सम्यग्दर्शन छे.


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ज्ञान-दर्शन-चारित्रना भेद जाणीने अभेदनी द्रष्टि करवी ते धर्म छे. भेद अभेदने बतावे छे, पण भेद द्रष्टिनो विषय नथी. तेथी अहीं व्यवहारनुं आलंबन छोडावी परमार्थे पहोंचाडे छे एम समजवुं.

अभेदने बताववा व्यवहार कह्यो, पण व्यवहार आश्रय लेवा माटे नथी. अहीं तो व्यवहारनुं आलंबन छोडावी परमार्थनो आश्रय कराव्यो छे. त्रिकाळी ध्रुव वस्तुनुं आलंबन कराववा माटे भेदथी उपदेश छे. तेथी भेदनुं लक्ष छोडी अखंड आनंदकंद अभेद चैतन्य सामान्य वस्तु जे आत्मा छे तेनो एकनो ज आश्रय करवो ते धर्म छे एम जाणी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव करवो, पण भेदमां अटकवुं नहीं.

* *

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जीव–अजीव अधिकार
गाथा–९–१०

कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत्–

जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं।
तं
सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा।। ९।।
जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा।
णाणं
अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हो।। १०।। जुम्मं।।

यो हि श्रुतेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम्।
तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति
लोकप्रदीपकराः।।
९।।
यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुर्जिनाः।
ज्ञानमात्मा सर्व यस्माच्छ्रुतकेवली तस्मात्।।
१०।। युग्मम्।

श्रुतथी खरे जे शुद्ध केवळ जाणतो आ आत्मने,
लोकप्रदीपकरा ऋषि श्रुतकेवळी
तेने कहे. ९
श्रुतज्ञान सौ
जाणे, जिनो श्रुतकेवळी तेने कहे;
सौ ज्ञान आत्मा होईने श्रुतकेवळी तेथी ठरे. १०.

हवे, ए प्रश्न उत्पन्न थाय छे के व्यवहारनय परमार्थनो प्रतिपादक केवी रीते छे? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-

गाथार्थः– [यः] जे जीव [हि] निश्चयथी [श्रुतेन तु] श्रुतज्ञानवडे [इमं] आ अनुभवगोचर [केवलं शुद्धम्] केवळ एक शुद्ध [आत्मानम्] आत्माने [अभि–


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गच्छति] सन्मुख थई जाणे छे [तं] तेने [लोकप्रदीपकराः] लोकने प्रगट जाणनारा [ऋषयः] ऋषीश्वरो [श्रुतकेवलिनम्] श्रुतकेवळी [भणन्ति] कहे छे; [यः] जे जीव [सर्वं] सर्व [श्रुतज्ञानं] श्रुतज्ञानने [जानाति] जाणे छे [तम्] तेने [जिनाः] जिनदेवो [श्रुतकेवलिनं] श्रुतकेवळी [आहुः] कहे छे, [यस्मात्] कारण के [ज्ञानम् सर्वं] ज्ञान बधुं [आत्मा] आत्मा ज छे [तस्मात्] तेथी [श्रुतकेवली] (ते जीव) श्रुतकेवळी छे.

टीकाः– प्रथम, “जे श्रुतथी केवळ शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” ते तो परमार्थ छे; अने “जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” ते व्यवहार छे. अहीं बे पक्ष लई परीक्षा करीए छीएः-उपर कहेलुं सर्व ज्ञान आत्मा छे के अनात्मा? जो अनात्मानो पक्ष लेवामां आवे तो ते बराबर नथी कारण के समस्त जे जडरूप अनात्मा आकाशादि पांच द्रव्यो छे तेमनुं ज्ञान साथे तादात्म्य बनतुं ज नथी (केम के तेमनामां ज्ञानसिद्ध ज नथी). तेथी अन्य पक्षनो अभाव होवाथी ज्ञान आत्मा ज छे ए पक्ष सिद्ध थाय छे. माटे श्रुतज्ञान पण आत्मा ज छे. आम थवाथी ‘जे आत्माने जाणेछे ते श्रुतकेवळी छे’ एम ज आवे छे; अने ते तो परमार्थ ज छे. आ रीते ज्ञान अने ज्ञानीना भेदथी कहेनारो जे व्यवहार तेनाथी पण परमार्थमात्र ज कहेवामां आवे छे. तेनाथी भिन्न अधिक कांई कहेवामां आवतुं नथी. वळी ‘जे श्रुतथी केवळ शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” एवा परमार्थनुं प्रतिपादन करवुं अशकय होवाथी, “जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” एवो व्यवहार परमार्थना प्रतिपादकपणाथी पोताने द्रढपणे स्थापित करे छे.

भावार्थः– जे शास्त्रज्ञानथी अभेदरूप ज्ञायकमात्र शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे ए तो परमार्थ (निश्चय कथन) छे. वळी जे सर्व शास्त्रज्ञानने जाणे छे तेणे पण ज्ञानने जाणवाथी आत्माने ज जाण्यो कारण के ज्ञान छे ते आत्मा ज छे; तेथी ज्ञान-ज्ञानीनो भेद कहेनारो जे व्यवहार तेणे पण परमार्थ ज कह्यो. अन्य कांई न कह्युं. वळी परमार्थनो विषय तो कथंचित् वचनगोचर पण नथी तेथी व्यवहारनय ज आत्माने प्रगटपणे कहे छे एम जाणवुं.

हवे ए प्रश्न उत्पन्न थाय छे के व्यवहारनय परमार्थनो प्रतिपादक केवी रीते छे? एटले के अखंड अभेद जे आत्मा तेमां नाममात्रथी भेद पाडीने कहेवुं के-आ श्रद्धे ते आत्मा, देखे ते आत्मा, जाणे ते आत्मा, एकाग्र थाय ते आत्मा-तेमां व्यवहार परमार्थनो प्रतिपादक केवी रीते छे? वस्तु अभेद छे, तेमां भेद पाडीने कथन करवुं ते व्यवहार छे; एवो व्यवहार निश्चयने बतावे छे ते केवी रीते? आ प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-


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प्रवचन नंबर २३–२४, तारीख २३–१२–७प थी २४–१२–७प

* गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

जे जीव निश्चयथी श्रुतज्ञानवडे आ अनुभवगोचर केवळ एक शुद्ध आत्माने सन्मुख थई जाणे छे तेने लोकने प्रगट जाणनारा ऋषीश्वरो श्रुतकेवळी कहे छे. जुओ, कहे छे-अंतरना भावश्रुतज्ञान द्वारा पोताना आत्माने प्रत्यक्ष वेदे तेने लोकने जाणनार ऋषीश्वरो श्रुतकेवळी कहे छे.

त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेवनी वाणीमां जे आव्युं ते संतोए अनुभवीने कह्युं छे. भाई! एकवार तुं सांभळ. भावश्रुतज्ञान एटले जेमां रागनी के निमित्तथी अपेक्षा नथी एवुं जे स्वने वेदनारुं अरूपी निर्विकल्प ज्ञान तेना द्वारा अखंड एकरूप केवळ शुद्धात्माने अनुभवे, जाणे तेने भावश्रुतकेवळी कहेवामां आवे छे.

अहाहा...! आ आत्मा अखंड, एकरूप, शुद्ध, सामान्य, ध्रुव अनुभवगोचर वस्तु छे. तेनी सन्मुख थई तेने स्वसंवेदनज्ञान द्वारा जे प्रत्यक्ष जाणे-अनुभवे ते सम्यग्द्रष्टि जीव छे. तेने केवळी भगवान अने ऋषीश्वरो भावश्रुतकेवळी कहे छे. आ मुदनी रकमनी वात छे. अरे! जिनेश्वरदेवनो मार्ग लोकोए लौकिक जेवो करी नाख्यो छे. परंतु भगवाननी वाणी अनुसार बार अंगनी रचना थई. ते अनुसार दिगंबर संतोए शास्त्र रच्यां छे. तेमां ज्ञानप्रवाद नामनुं एक शास्त्र छे. तेनो आ एक भाग छे. तेमां कहे छे के अंदर आखुं ज्ञायकनुं दळ जे अनंत अनंत बेहद ज्ञान, आनंद, इत्यादि अनंत गुणोथी भरेलुं अभेद छे तेनी सन्मुख पोतानी ज्ञानपर्यायने करीने जे अनुभवगम्य निजस्वरूपने जाणे-अनुभवे छे ते भावश्रुतकेवळी छे.

भाई! आ तो अध्यात्मनी वात छे, धर्मकथा छे. तेने फरीफरीने कहेवाथी पुनरुक्तिदोष न जाणवो. केमके वारंवार कहेवामां आवे त्यारे वास्तविक तत्त्व ज्ञानमां आवे एवी वात छे.

हवे बीजी रीते कहे छे के-जे जीव सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे तेने जिनदेवो श्रुतकेवळी कहे छे. जे जीव ज्ञाननी पर्यायमां बधा ज्ञेयोने जाणे छे, -छ द्रव्यो तेना गुणो, पर्यायो एम बधा ज्ञेयोने जाणे छे तेने व्यवहार श्रुतकेवळी कहे छे. आत्माने जाणे ए वात अहीं नथी लीधी, ए तो पहेलां निश्चय श्रुतकेवळीमां आवी गई. अहीं तो एक समयनी ज्ञाननी पर्याय जेमां सर्वश्रुतज्ञान एटले बार अंग अने चौद पूर्वनुं जे ज्ञान-ते जाणवामां आवे तेने जिनदेवो व्यवहार श्रुतकेवळी कहे छे. एने श्रुतकेवळी केम कह्यो? कारण के ज्ञान बधुं आत्मा ज छे. ए ज्ञान ज्ञेयोनुं नथी, पण ए ज्ञान आत्मानुं छे.


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भावश्रुत द्वारा अंतर आत्माने जाणे ए तो परमार्थ श्रुतकेवळी छे. परंतु ज्ञाननी पर्याय बीजुं बधुं जाणे, सर्व श्रुत जाणे, बार अंग जाणे, छ द्रव्य अने तेमना गुणपर्यायोने जाणे एम समस्त परने जाणे तेथी व्यवहार श्रुतकेवळी कहे छे. ज्ञाननी पर्यायमां सर्व ज्ञेयो जणाय ए ज्ञाननी पर्याय ज्ञेयनी नथी, परंतु आत्मानी ज छे. ए जाणनारी ज्ञानपर्याय ते आत्मा-एम भेद पडयो ते व्यवहार छे.

ज्ञाननी पर्यायमां पर ज्ञेयो जणाय भले, पण ए ज्ञानपर्यायनो संबंध कोनी साथे छे? ए ज्ञेयनुं ज्ञान छे के ज्ञातानुं? तो कहे छे के सर्वश्रुतने जाणनारुं ज्ञान ज्ञातानुं छे, आत्मानुं छे. ते ज्ञाननी पर्यायने आत्मा साथे तादात्मय छे. ते ज्ञान आत्माने बतावे छे-तेथी ते भेदरूप व्यवहार छे. व्यवहार परमार्थनो प्रतिपादक छे. तेथी सर्व श्रुतज्ञानने जाणे ते व्यवहार श्रुतकेवळी छे.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

प्रथम “जे श्रुतथी केवळ शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” ते तो परमार्थ छे. टीकामां कह्युं छे के प्रथम श्रुतथी एटले भावश्रुतथी-के जे भावश्रुत राग विनानुं, निमित्त विनानुं, मनना पण संबंध विनानुं छे तेनाथी केवळ अखंड एक शुद्धात्माने जाणे ते श्रुतकेवळी छे ए तो परमार्थ छे, निश्चय छे, यथार्थ छे.

अने “जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे”-ते व्यवहार छे. सर्व श्रुतज्ञानने जाणे एटले पर पदार्थनुं बधुं ज्ञान पोतानी पर्यायमां जाणे ते श्रुतकेवळी छे-ए व्यवहार छे. भावश्रुतथी जे प्रत्यक्ष एक शुद्धात्माने जाणे ते श्रुतकेवळी ए निश्चय अने जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे ते श्रुतकेवळी ए व्यवहार. आ तो जन्म-मरण मटाडवानी, भवना अंतनी वात छे. जे ज्ञाननी पर्यायमां बीजुं बधुं जणायुं ए ज्ञानपर्याय ज्ञेयनी छे के आत्मानी? ए ज्ञान ज्ञेयनुं नथी पण ए ज्ञान आत्मा साथे संबंध धरावे छे. एटले सर्वने जाणनारुं ए ज्ञान आत्मा ज छे. आ ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम भेद पडतो होवाथी व्यवहार छे.

अहीं बे पक्ष लई परीक्षा करीए छीएः-उपर कहेलुं सर्व ज्ञान आत्मा छे के अनात्मा? जो अनात्मानो पक्ष लेवामां आवे तो ते बराबर नथी, कारण के समस्त जे जडरूप अनात्मा आकाशादि पांच द्रव्यो छे तेमनुं ज्ञान साथे तादात्म्य बनतुं ज नथी.

आकाशादि पांच द्रव्यो जड छे. तेमनी साथे ज्ञाननी पर्यायनो तादात्म्य संबंध नथी. ए ज्ञाननी पर्यायने आत्मा साथे तादात्म्य छे. ज्ञाननी पर्याय देव-गुरु-शास्त्रने जाणे,


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अरिहंतनी वाणीने जाणे, पण ए ज्ञाननी पर्याय देव-गुरु-शास्त्रनी के अरिहंतनी वाणीनी नथी. ए ज्ञाननी पर्याय तो आत्माथी तादात्म्य संबंधे छे तेथी आत्मानी छे. ज्ञाननी पर्याय सर्व परने जाणे छतां ते सर्व परनी छे ज नहीं केमके पर साथे तेने तादात्म्य संबंध नथी. सर्वज्ञेयने जाणे छतां ज्ञान ज्ञेयनुं नथी, ज्ञान आत्मानुं ज छे.

दिगंबर मुनिवरो अंतरमां निर्लेप हता, तेओ तो मुख्यपणे अतीन्द्रिय आनंदना वेदनमां लीन रहेता हता. तेमनी आ टीका अने उपदेश छे. कोई कहे आवो उपदेश! दया पाळो, जीवोने बचावो, अभयदान दो, एम कहो ने! बापु दान कोण दे, कोने दे? तने खबर नथी. आत्मामां कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण एम षट्कारक गुण छे. एमां एक संप्रदान नामनो गुण छे. ए संप्रदान गुणनुं कार्य शुं? निर्मळ वीतरागी पर्याय पोते पोताने दे अने पोते ज ले. आने निश्चयदान कहेवामां आवे छे. पूर्णानंदनो नाथ जे अखंड अभेद एक आत्मा तेने स्वसंवेदनज्ञान वडे जाणतां अने तेमां एकाग्र थतां जे अतीन्द्रिय आनंद प्रगटे ते आनंदनुं दान देनार पोते अने लेनार पण पोते एने निश्चयदान कहे छे, ते धर्म छे. बाकी दया पाळवानो भाव के मुनिराजने आहारदान देवानो भाव के अभयदाननो विकल्प ए शुभराग छे, धर्म नथी. अने हुं दया पाळी शकुं, दान दई शकुं एवी मान्यता ए मिथ्यात्व छे.

अहीं बे वात करी छे. एक तो भावश्रुत एटले स्वसंवेदनज्ञान वडे जे प्रत्यक्ष सीधो आत्माने जाणे ते श्रुतकेवळी छे ते परमार्थ छे, निश्चय छे. बीजी वात एम करी के जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे ते श्रुतकेवळी छे ते व्यवहार छे.

अरीसामां सामे कोलसा, नाळियेर वगेरे जे चीज होय ते बराबर देखाय. जे देखाय छे ते कोलसा वगेरे नथी पण ए तो अरीसानी अवस्था छे. एम आत्माना ज्ञाननी अवस्थामां पर ज्ञेयपदार्थो जणाय, पण जे जणाय छे ते पर ज्ञेयो नथी पण ए तो आत्माना ज्ञाननी अवस्था छे. तेथी जे ज्ञेयोने जाणती ज्ञाननी पर्याय ते ज्ञेयोनी नथी पण आत्मानी छे. ते पर्याय एम जणावे छे के ‘आ ज्ञान ते आत्मा छे,’ आ जाणे छे ते आत्मा छे. आवो जे भेद पडयो ते व्यवहार छे अने परमार्थनो प्रतिपादक छे एटले के ते व्यवहार निश्चयने बतावे छे.

नानी उंमरमां वांचवामां एम आवतुं के ‘केवळी आगळ रही गयो कोरो.’ एटले के आ आत्मा केवळी भगवान पासे समोसरणमां अनंतवार गयो, पण एवो ने एवो कोरो रही गयो. पोतानुं वास्तविक स्वरूप शुं छे ते अनंतकाळमां पण जाण्युं नहीं.


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तेने अहीं समजावे छे के-भाई, आ मार्ग जुदो छे. जेने आवो मार्ग द्रष्टिमां बेसी जाय तेनुं कल्याण थई जाय एवी वात छे. अहीं कहे छे के जे ज्ञाननी पर्यायमां बार अंग जणाय, द्रव्य-गुण-पर्याय जणाय, बधा पर जणाय, ए ज्ञान ज्ञेयरूप नथी पण आत्मरूप छे. ए ज्ञान अनात्मरूप ज्ञेयनुं नथी पण आत्मानुं ज छे. तेथी अन्यपक्षनो अभाव होवाथी ज्ञान आत्मा ज छे ए वात सिद्ध थाय छे. ‘ज्ञाननी पर्याय ते आत्मा’ ए व्यवहार छे अने ते व्यवहार परमार्थ आत्माने बतावे छे.

दया, दान आदि कषायमंदताना परिणामने ज्ञान जाणे छे, त्यां कषायमंदता छे माटे ज्ञान तेने जाणे छे एम नथी. कषायमंदतानुं ज्ञान थयुं त्यां ज्ञाननी पर्यायने एनी साथे संबंध नथी. कषाय तो अचेतन छे अने ज्ञान चेतन छे. माटे ज्ञाननी पर्यायने कषायमंदता साथे संबंध नथी. कषायमंदता कर्ता अने ज्ञान तेनुं कर्म, एम नथी. ज्ञाननी पर्याय ए आत्मानुं कर्म छे अने ते आत्माने बतावे छे. तेथी आ ‘ज्ञान ते आत्मा’ एटलो जे व्यवहार करवामां आवे छे ते परमार्थने ज बतावे छे.

माटे श्रुतज्ञान पण आत्मा ज छे. आम थवाथी ‘जे आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे’ एम ज आवे छे; अने ते तो परमार्थ ज छे. आ रीते ज्ञान अने ज्ञानीना भेदथी कहेनारो जे व्यवहार तेनाथी पण परमार्थमात्र ज कहेवामां आवे छे. ‘ज्ञान ते आत्मा छे’ आम भेदथी कहेनारो व्यवहार परमार्थमात्र आत्मा ज बतावे छे, तेनाथी भिन्न अधिक कांई बतावतो नथी.

हवे कहे छे-वळी “जे श्रुतथी केवळ शुद्धात्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” एवा परमार्थनुं प्रतिपादन करवुं अशकय छे. अनंतशक्तिनो पिंड ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्मा अखंड एकरूप परमार्थ वस्तु छे. ते अनुभवगम्य छे. तेनुं कथन करवुं शी रीते? तेने भावश्रुतज्ञानथी पकडी अनुभवे ए पण परमार्थ छे, सत्य छे. ए तो निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान छे. परंतु ए परमार्थ अनुभवनुं कथन करवुं केवी रीते? एवा परमार्थनुं कथन करवुं अशकय छे तेथी “जे सर्व श्रुतज्ञानने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे” एवो भेदरूप व्यवहार करवामां आवे छे अने ते व्यवहार परमार्थनो प्रतिपादक छे माटे पोताने द्रढपणे स्थापित करे छे.

जे ज्ञाननी पर्याय सर्वश्रुतने जाणे ते आत्मा छे. ते ज्ञान त्रिकाळी ज्ञायकने जणावे छे. परमार्थनुं कथन करवुं अशकय छे तेथी द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान जे छे-ते ज्ञान द्वारा आत्माने जाणे ते श्रुतकेवळी छे एम भेद पाडी समजाववामां आवे ए व्यवहार छे. आम परमार्थने कहेनारो व्यवहार छे खरो, पण व्यवहार अनुसरवा योग्य नथी. त्रिकाळी ज्ञायक एकनुं ज अनुसरण करवुं ते परमार्थ छे.


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दया, दान, व्रत, भक्ति आदि परिणाम ते शुभराग छे, ते धर्म नथी, धर्मनुं कारण पण नथी. वळी आ दया पाळे ते आत्मा, भक्ति करे ते आत्मा एम पण नथी. ए तो रागनी क्रिया छे, ते आत्मा नहीं, अहीं कहे छे के ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम जाणवुं ए व्यवहार छे. ते व्यवहारनुं लक्ष छोडी दई त्रिकाळी अखंडनी द्रष्टि करवी ते परमार्थ छे, सत्य छे. सर्व श्रुतज्ञानने जाणे ते श्रुतकेवळी छे एवो व्यवहार परमार्थना प्रतिपादकपणाने लीधे द्रढपणे स्थापित छे. ए रीते व्यवहार छे खरो, पण व्यवहारथी निश्चय थाय एम नथी. व्यवहार जे परमार्थ वस्तुने बतावे ते परमार्थ एक ज आदरणीय छे एम जाणी, व्यवहारनो आश्रय छोडी एक परमार्थनो ज अनुभव करवो. * भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जे शास्त्रज्ञानथी अभेदरूप ज्ञायकमात्र शुद्ध आत्माने जाणे छे ते श्रुतकेवळी छे

ए तो परमार्थ छे, निश्चय छे. अहीं शास्त्रज्ञानथी कह्युं त्यां भावश्रुतज्ञान जाणवुं. वळी जे सर्व शास्त्रज्ञानने जाणे छे तेणे पण ज्ञानने जाणवाथी आत्माने ज जाण्यो, केमके ज्ञान छे ते आत्मा ज छे; तेथी ज्ञान-ज्ञानीनो भेद कहेनारो जे व्यवहार तेणे पण परमार्थ ज कह्यो, अन्य कांइ न कह्युं. आत्मा ज्ञायकस्वरूप प्रभु छे. व्यवहारे पण ते ज्ञायकने ज जाणवानुं कह्युं, परमार्थने जाणवानुं कह्युं. त्रिकाळीने पर्यायथी जाणवो. जाणनार पोते पर्याय छे, केमके कार्य तो पर्यायमां थाय छे. आ रीते व्यवहारे पण एक ध्रुवस्वभावने जाणवानुं कह्युं छे, बीजुं कांई कह्युं नथी. अहा! वीतराग जैन परमेश्वरे कहेला मार्गनी कथनशैली तो जुओ! जगत पासे आ धर्मनी वात बीजी रीते मूकाई छे. अन्य मार्ग जैनमार्ग तरीके मूकायो छे. पण ए जैनमार्ग नथी. दिगंबर संतोए जे बताव्यो ते ज साचो जैन वीतराग मार्ग छे. अहो! दिगंबर संतोए मार्गने न्याय अने युक्तिथी अति स्पष्ट समजाव्यो छे. परमार्थनो विषय तो कथंचित् वचनगोचर पण नथी तेथी व्यवहारनय ज आत्माने प्रगटपणे कहे छे एम जाणवुं. पूर्णानंदनो नाथ, अखंड, एक, अभेद वस्तु ते अनुभवनी चीज छे, तेने वचन द्वारा केवी रीते कहेवी? तेथी व्यवहारनय ज आत्माने प्रगटपणे स्पष्ट कहे छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एवो भेद पाडी व्यवहारनय ज आत्माने जणावे छे. आवो मार्ग यथार्थ जाणे नहीं तेनुं मनुष्यपणुं एकडा विनानां मींडांनी जेम निरर्थक छे, निष्फळ छे. माटे आवुं वस्तुस्वरूप यथार्थ समजी परमार्थनो विषय जे अभेद, एक, शुद्ध आत्मा तेने द्रष्टिमां लेवो ते सम्यग्दर्शन छे, मोक्षमहेलनुं प्रथम पगथियुं छे.


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जीव–अजीव अधिकार
गाथा–११

कुतो व्यवहारनयो नानुसर्तव्य इति चेत्–

ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।।
११।।

व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः।
भूतार्थमाश्रितः
खलु सम्यग्द्रष्टिर्भवति जीवः।। ११।।

व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे;
भूतार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे. ११

हवे वळी एवो प्रश्न ऊठे छे के-पहेलां एम कह्युं हतुं के व्यवहारने अंगीकार न करवो, पण जो ते परमार्थनो कहेनार छे तो एवा व्यवहारने केम अंगीकार न करवो? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-

गाथार्थः– [व्यवहारः] व्यवहारनय [अभूतार्थः] अभूतार्थ छे [तु] अने [शुद्धनयः] शुद्धनय [भूतार्थः] भूतार्थ छे एम [दर्शितः] ऋषीश्वरोए दर्शाव्युं छे; [जीवः] जे जीव [भूतार्थ] भूतार्थनो [आश्रितः] आश्रय करे छे ते जीव [खलु] निश्चयथी [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [भवति] छे.

टीकाः– व्यवहारनय बधोय अभूतार्थ होवाथी अविद्यमान, असत्य, अभूत अर्थने प्रगट करे छे; शुद्धनय एक ज भूतार्थ होवाथी विद्यमान, सत्य, भूत अर्थने प्रगट करे छे. आ वात द्रष्टांतथी बतावीए छीएः-जेम प्रबळ कादवना मळवाथी जेनो सहज एक निर्मळभाव तिरोभूत (आच्छादित) थई गयो छे एवा जळनो अनुभव करनारा पुरुषो-जळ अने कादवनो विवेक नहि करनारा घणा तो, तेने (जळने) मलिन ज अनुभवे छे; पण केटलाक पोताना हाथथी नाखेला कतकफळ-(निर्मळी औषधि)ना पडवामात्रथी ऊपजेला


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जळ-कादवना विवेकपणाथी पोताना पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत करवामां आवेला सहज एक निर्मळभावपणाने लीधे, तेने (जळने) निर्मळ ज अनुभवे छे; एवी रीते प्रबळ कर्मना मळवाथी जेनो सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत थई गयो छे एवा आत्मानो अनुभव करनार पुरुषो-आत्मा अने कर्मनो विवेक नहि करनारा, व्यवहारथी विमोहित हृदयवाळाओ तो, तेने (आत्माने) जेमां भावोनुं विश्वरूपपणुं (अनेकरूपपणुं) प्रगट छे एवो अनुभवे छे; पण भूतार्थदर्शीओ (शुद्धनयने देखनाराओ) पोतानी बुद्धिथी नाखेला शुद्धनय अनुसार बोध थवामात्रथी ऊपजेला आत्म-कर्मना विवेकपणाथी, पोताना पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत करवामां आवेला सहज एक ज्ञायकभावपणाने लीधे तेने (आत्माने) जेमां एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान छे एवो अनुभवे छे. अहीं, शुद्धनय कतकफळना स्थाने छे तेथी जेओ शुद्धनयनो आश्रय करे छे तेओ ज सम्यक् अवलोकन करता (होवाथी) सम्यग्द्रष्टि छे पण बीजा (जेओ अशुद्धनयनो सर्वथा आश्रय करे छे तेओ) सम्यग्द्रष्टि नथी. माटे कर्मथी भिन्न आत्माना देखनाराओए व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी.

भावार्थः– अहीं व्यवहारनयने अभूतार्थ अने शुद्धनयने भूतार्थ कह्यो छे. जेनो विषय विद्यमान न होय, असत्यार्थ होय, तेने अभूतार्थ कहे छे. व्यवहारनयने अभूतार्थ कहेवानो आशय एवो छे के-शुद्धनयनो विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य छे, तेनी द्रष्टिमां भेद देखातो नथी; माटे तेनी द्रष्टिमां अविद्यमान, असत्यार्थ ज कहेवो जोईए. एम न समजवुं के भेदरूप कांई वस्तु ज नथी. जो एम मानवामां आवे तो तो जेम वेदांत-मतवाळाओ भेदरूप अनित्यने देखी अवस्तु मायास्वरूप कहे छे अने सर्वव्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्मने वस्तु कहे छे एवुं ठरे अने तेथी सर्वथा एकांत शुद्धनयना पक्षरूप मिथ्याद्रष्टिनो ज प्रसंग आवे. माटे अहीं एम समजवुं के जिनवाणी स्याद्वादरूप छे, प्रयोजनवश नयने मुख्य-गौण करीने कहे छे. प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब (सहायक) जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे. शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने एनो उपदेश पण विरल छे-कयांक कयांक छे. तेथी उपकारी श्री गुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो उपदेश प्रधानताथी (मुख्यताथी) दीधो छे के-‘शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे; एने जाण्या विना ज्यां सुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यां सुधी आत्माना ज्ञानश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व थई शकतुं नथी.” एम आशय जाणवो.