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पहेलां एम कह्युं हतुं के व्यवहारने अंगीकार न करवो. पण जो ते परमार्थनो कहेनार छे तो एवा व्यवहारने केम अंगीकार न करवो? ज्ञान ते आत्मा एवो भेद करनार व्यवहार परमार्थरूप आत्मानुं प्रतिपादन करे छे तो पछी तेने केम अंगीकार न करवो? आवो शिष्यनो प्रश्न छे. तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-
प्रवचन नंबर २४–२९, तारीख २४–१२–७प थी २९–१२–७प
आ गाथा बहु ऊंची छे. माल, माल भर्यो छे. वीतराग परमेश्वरनो मार्ग जे जैन दर्शन तेनो आ अगियारमी गाथा प्राण छे. बहु शांति अने धीरजथी समजवा जेवी आ गाथा छे. अनंतकाळमां सत्य शुं छे ते सांभळवा मळ्युं नथी अने कदाच सांभळवा मळ्युं तो ते समजवानो प्रयत्न कर्यो नहीं तेथी तेनी श्रद्धा थई नथी. आ सत्यनुं स्वरूप अहीं बताव्युं छे. भगवाननी वाणीमां जे वात आवी तेनो सार आ गाथामां भर्यो छे.
व्यवहारनय अभूतार्थ छे, अने शुद्धनय भूतार्थ छे एम ऋषीश्वरोए दर्शाव्युं छे. त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरदेव अने साधुओना अग्रेसर गौतम आदि गणधरोए एम कह्युं छे के व्यवहारनय अभूतार्थ एटले असत्य छे, जूठो छे अने निश्चयनय भूतार्थ एटले सत्य, साचो छे.
जे जीव भूतार्थनो आश्रय करे छे ते जीव निश्चयथी सम्यग्द्रष्टि छे. त्रिकाळी पूर्ण आनंदस्वरूप जे ज्ञायकभाव, छतो पदार्थ, शाश्वत चीज आत्मा छे ते भूतार्थ छे. जे जीव तेनो आश्रय करे एटले के तेनी सन्मुख थाय ते निश्चयथी सम्यग्द्रष्टि छे. कर्म, राग, गुण-गुणीना भेद ए सघळो व्यवहार छे. ते असत्यार्थ छे, जूठो छे केमके कर्म, राग अने गुणभेद ए त्रिकाळी वस्तुमां नथी. ध्रुव वस्तु जे अनादि-अनंत असंयोगी, शाश्वत, भूतार्थ वस्तु-जेमां संयोग, राग, पर्याय के गुणभेद नथी.-एवा अभेदनी द्रष्टि करवी, आश्रय करवो ए सम्यग्दर्शन छे.
आ तो प्रथम दरज्जानो धर्म, जे सम्यग्दर्शन ते कोने कहेवाय तेनी वात चाले छे. अंदर आत्मा त्रिकाळी एकरूप अभेद ज्ञायक छे तेनो द्रष्टिमां ज्यां सुधी स्वीकार आवे नहीं त्यां सुधी सम्यग्दर्शन नथी. जैन कुळमां जन्म्यो माटे जैन एवी अहीं वात नथी. अनंतगुणोनो अभेद पिंड एक ध्रुव आत्मानो आश्रय लई एनी प्रतीति करे ते सम्यग्दर्शन छे. ते जैनधर्म छे. जैनधर्म कोई वाडानी चीज नथी, ए तो वस्तुनुं स्वरूप छे.
आत्माने तेनी सन्मुख थईने जाणवो तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. अज्ञानीओए जेवो आत्मा कल्प्यो होय तेनी अहीं वात नथी. वेदांतीओए जेवो सर्वव्यापक मान्यो
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ते आत्मानी वात पण नथी. अहीं तो सर्वज्ञ परमेश्वरे जे प्रत्यक्ष जोयो, जाण्यो अने दिव्यध्वनिमां कह्यो ए त्रिकाळी सत् चैतन्यस्वरूप परमब्रह्मस्वरूप आनंदकंद आत्मा भूतार्थ छे. अने तेनो आश्रय करतां जे निर्विकल्प अनुभव थाय ते धर्मनुं पहेलुं पगथियुं सम्यग्दर्शन छे. कोईने एम लागे के पर्याय स्वतंत्र छे अने वळी ज्ञायकनो आश्रय करे ते शुं छे? तो कहे छे के वर्तमान पर्याय स्वतंत्रपणे कर्ता थईने रागनुं लक्ष छोडी अंतरमां स्वभाव-सन्मुख थईने, ज्ञायक पूर्णानंद तरफ वळे, ढळे तेने आश्रय करे छे एम कहेवामां आवे छे. द्रव्यनी प्राप्ति थाय छे ते पर्यायमां थाय छे. अनादिथी पर्याय रागनी प्राप्तिमां पडी छे, ए मिथ्यात्व छे. त्यां जे ज्ञाननी पर्याय अंतर वळीने अंदर ज्ञायकनी सन्मुख थाय, सत् पूर्णानंदनी तरफ ढळे ते आत्मानी प्राप्ति छे, ते सम्यग्दर्शन छे. अहा! जिनेश्वरदेवनो मार्ग ए ज दिगंबर जैनधर्म छे. एमां आवी सत्य न्याययुक्त वात छे, अन्यत्र कयांय नथी. भाई, कोईने रुचे न रुचे ए जुदी वात छे. त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ परमेश्वरना मुखथी जे दिव्यध्वनि छूटी एमां एम आव्युं के-अखंड एक अभेद सामान्य ध्रुव जे वस्तु, वर्तमान पर्यायने बाद करतां जे रहे ते अभेद वस्तु-ते भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे. ते ज द्रष्टिनो विषय छे. अने एनो आश्रय करवाथी एटले एनी सन्मुख ढळवाथी जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे. भूतार्थनो आश्रय पर्याय ले छे एटले पर्याय भूतार्थ तरफ ढळे छे एम अर्थ छे. आश्रय कहो, आलंबन कहो बधुं एकार्थ छे. केटलाकने एम थाय के जैन धर्मनो मार्ग आवो हशे? दया पाळवी, भक्ति करवी, व्रत करवां ए बधुं शुं धर्म नहीं? भाई, परनी दया कोण पाळी शके छे? पर द्रव्य तो स्वतंत्र छे. पर द्रव्यनी अवस्था तेना पोताना कारणे जे थवानी होय छे ते थाय छे. ते शुं तुं करी दे छे? परनी अवस्था तुं करे एम छे ज नहीं. ‘दया धर्मनुं मूळ छे, पाप मूळ अभिमान-’ एम आवे छे ने? पण कोनी दया? भाई! भगवाने कहेली वीतरागी दयानुं स्वरूप जुदुं छे. परनुं लक्ष छोडी वर्तमान पर्याय त्रिकाळी भूतार्थ सत् निज ज्ञायकना आश्रये जे वीतराग दशा प्रगट करे तेने भगवान अहिंसा कहे छे. ते साची दया छे. धर्मनुं स्वरूप बहु सूक्ष्म छे. लोकोने सत्य वात सांभळवा ज मळी नथी. ध्रुव त्रिकाळी सत् सामान्य ज्ञायक वस्तु ते परमार्थ छे. तेनो अनादर करीने वर्तमान पर्यायनो के रागनो आदर करवो ए ज जीवनी हिंसा छे. पोते हयात छे तेनो नकार करवो ए ज हिंसा छे, अने तेनो अंतरमां स्वीकार करवो तेनुं नाम अहिंसा छे, दया छे, धर्म छे.
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अनादिथी तें तारी हिंसा ज करी छे. तो हवे वस्तु, ध्रुव, अभेद, सामान्य ज्ञायकभावरूप छे तेनो आश्रय करी, अंतरमां स्वीकार करी, सम्यग्दर्शनादि धर्म प्रगट करवो जोईए. आ सिवाय जेटला बाह्य क्रियाकांड छे ते सघळा चारगतिमां रखडवाना मार्गछे.
आत्मा अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशांति, अनंत प्रभुता, अनंत स्वच्छता, एम अनंत अनंत भावस्वरूपे अनंत शक्तिओथी संपन्न परमार्थ वस्तु छे. तेनी सन्मुख थई तेनो आश्रय करतां सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे.
श्रीमद् राजचंद्र आत्मसिद्धिमां कहे छे-
बीजुं कहीए केटलुं, कर विचार तो पाम.
आत्मा शुद्ध कहेतां पवित्र छे. बुद्ध एटले ज्ञानस्वरूप छे. चैतन्यघन कहेतां असंख्यप्रदेशी छे. सर्वज्ञ सिवाय बीजे कयांय, आत्मा असंख्यप्रदेशी छे एवी वात नथी. आत्मा स्वयंज्योति छे, एटले स्वयं सिद्ध वस्तु छे. कोईए उत्पन्न करी होय के कोईथी नाश पामे एवी चीज नथी. ते सुखधाम छे, एटले आनंदनुं-अतीन्द्रिय आनंदनुं धाम छे. आवो आत्मा अभेद एकरूप भूतार्थ वस्तु छे. तेने ‘कर विचार तो पाम’-एटले के ज्ञाननी पर्यायमां स्वसंवेदन वडे आवा ज्ञायकने लक्षमां ले तो तेनी प्राप्ति थाय. अमारी पासेथी कांइ मळे तेम नथी. पोताना अनंत गुणोमां व्यापेलुं अभेद, अखंड, जे ध्रुवतत्त्व, एनी द्रष्टि करवी ए निश्चय सम्यग्दर्शन छे. आ सिवाय बहारना क्रियाकांडमां-रागमां धर्म मानी प्रवर्ते ते मिथ्याद्रष्टि छे.
व्यवहारनय बधोय अभूतार्थ होवाथी अविद्यमान, असत्य, अभूत अर्थने प्रगट करे छे. व्यवहारनय अविद्यमान अर्थने प्रगट करे छे. जे वस्तुना स्वरूपमां नथी तेने व्यवहारनय प्रगट करे छे माटे ते अभूतार्थ छे. अभेद वस्तुमां भेद नथी छतां एवा अविद्यमान अर्थने व्यवहारनय प्रगट करे छे.
ज्ञानमां जणाय तेवो बुद्धिपूर्वकनो राग तथा ज्ञानमां न जणाय एवो अबुद्धिपूर्वकनो राग-एवा रागना बन्ने प्रकार वस्तुमां नथी. तेम ज रागने जाणनारुं ज्ञान ते वस्तुमां नथी. अने ज्ञान ते आत्मा-एवो भेद पण अभेद वस्तुमां नथी. आम व्यवहारनय अविद्यमान अर्थने प्रगट करे छे, तेथी ते अभूतार्थ छे. बीजी रीते कहीए तो द्रव्य अभेद
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अखंड वस्तु छे, तेमां भेद के राग नथी. तेने व्यवहारनय प्रगट करतो होवाथी तेने अभूतार्थ कह्यो छे.
अभूत अर्थने प्रगट करे छे एवो व्यवहारनय चार प्रकारे छे. (१) उपचरित असद्भूत व्यवहारनय (२) अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय (३) उपचरित सद्भूत व्यवहारनय (४) अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय.
आत्मानी पर्यायमां जे राग छे ते मूळ सत्रूप वस्तुमां नथी तेथी असद्भूत छे. भेद पाडयो तेथी व्यवहार छे अने ज्ञानमां स्थूळपणे जणाय छे तेथी उपचरित छे. आ रीते रागने आत्मानो कहेवो ते उपचरित असद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे. जे सूक्ष्म रागनो अंश वर्तमान ज्ञानमां जणातो नथी, पकडातो नथी ते अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे.
आत्मा अखंड ज्ञानस्वरूप छे. तेमां आत्मानुं ज्ञान रागने जाणे, परने जाणे एम कहेतां-ते ज्ञान पोतानुं होवाथी सद्भूत, त्रिकाळीमां भेद पाडयो माटे व्यवहार अने ज्ञान पोतानुं होवा छतां परने जाणे छे एम कहेवुं ते उपचार छे. आ रीते रागनुं ज्ञान एम कहेवुं (अर्थात् ज्ञान रागने जाणे छे एम कहेवुं) ते उपचरित सद्भूत व्यवहारनय छे.
ज्ञान ते आत्मा एम भेद पाडीने कथन करवुं ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहार छे. ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहेतां भेद पडयो ते व्यवहार पण ते भेद आत्माने बतावे छे माटे ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय छे.
भगवान आत्मा अभेद एकरूप वस्तु छे. ते भूतार्थ छे. व्यवहारना उपरोक्त चारेय प्रकार त्रिकाळी ज्ञायकमां नहीं होवाथी असत्यार्थ छे, जूठा छे. वळी ध्रुव आत्मा अने वर्तमान पर्याय बन्नेने साथे लईए तो ते पण व्यवहारनय-अशुद्धनयनो विषय थई जाय छे. तेथी ते पण अभूतार्थ-असत्यार्थ छे. सर्वज्ञ परमेश्वर जिनेश्वरनी वाणीमां जे आव्युं ते कुंदकुंदाचार्यदेव अहीं जाहेर करे छे. कहे छे-त्रिकाळी चीज ज्ञायक जे छे ते मुख्य छे, सत्य छे, भूतार्थ छे. तेमां ‘ज्ञान ते आत्मा’ एवो जे भेद पडयो ते गौण छे, अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे.
अरे! आ भरतक्षेत्रमां भगवानना विरह पडया. धर्मना स्वरूपमां पाछळथी अज्ञानीओए अनेक प्रकारे फेरफार करी नाख्यो. कोई कहे छे के मूर्ति माने तो धर्म थाय, तो
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कोई कहे छे मूर्ति न माने तो धर्म थाय. अहीं कहे छे के भगवाननी मूर्ति छे. तेने माने ते शुभराग छे, धर्म नथी. आ शुभराग छे ते असत्यार्थ छे एम कह्युं छे. दया पाळे, लाखोनुं दान करे, भगवाननी भक्ति करे, ए तो शुभभाव छे, तेथी पुण्य बंधाय, धर्म न थाय धर्म जुदी चीज छे, भाई! जिनेन्द्रनो मार्ग लौकिक मार्ग साथे मेळ खाय तेवो नथी.
आ अगियारमी गाथा जैनदर्शननो प्राण छे. प्राण वडे जीव जीवे छे. जेम प्राण विनानां मडदां कहेवाय तेम आ गाथाना रहस्यने न समजे तेने सम्यग्दर्शन न थाय. ते जीवो पण प्राण विनानां मडदां जेवा छे. अखंड वस्तुमां भेद पाडीने जाणवुं के ‘आ ज्ञान ते आत्मा’ ए व्यवहार असत्यार्थ छे. व्यवहारनय सघळो (चारेय प्रकारनो) असत्यार्थ छे. आ तो जन्म-मरणना अंत आवे एवी अलौकिक धर्मकथा छे. तेने धीरजथी, शांतिथी, ध्यान दईने सांभळवी जोईए. आ सघळो व्यवहार असत्यार्थ कहीने निषेध्यो छे, छोडाव्यो छे; केमके तेना आश्रयथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
भगवान आत्मा अमृत-सागरथी भरेलो छे. ते अभेद, एकरूप पूर्णानंद वस्तु भूतार्थ छे. तेने व्यवहारनय अन्य रीते प्रगट करे छे. पर्यायमां जे रागादि छे ते आत्माना छे, रागने जाणे ते आत्मा छे, अने आ ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम अनेक प्रकारे अभूत अर्थने प्रगट करे छे. आ चारेय प्रकारनो व्यवहार अभूतार्थ होवाथी एटले के तेनो विषय सत्य नहि होवाथी अर्थात् एनो विषय असत्य होवाथी अर्थात् जे नथी तेवा अविद्यमान अर्थने प्रगट करतो होवाथी जूठो कही, तेनुं लक्ष करवानुं छोडाव्युं छे. तेथी व्यवहार छे एम जाणवा माटे छे, पण आदरवा योग्य नथी, आश्रय करवा लायक नथी.
अहो! अरिहंतदेवनी ॐध्वनि जे नीकळी तेनो सार-सार लई श्रीकुंदकुंदाचार्यदेवे परमागमनी आ गाथामां भरी दीधो छे. एक समयमां अभेद, अखंड, निर्मळानंद जे आत्मवस्तु छे ते भूतार्थ एटले छतो-छतो-छतो विद्यमान पदार्थ सत्य छे. तेनो आश्रय करवाथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने वीतरागी शांतिनी प्राप्तिना प्रयोजननी सिद्धि थाय छे तेथी ते मुख्य छे. अने सघळो जे व्यवहार छे ते असत्यार्थ छे. तेना आश्रये प्रयोजननी सिद्धि थती नथी तेथी ते गौण छे, लक्ष करवा योग्य के आश्रय करवा योग्य नथी. भाइ! जैनधर्म तो कोई अलौकिक चीज छे. कह्युं छे ने के-
जुओ, आ जिनप्रवचन एटले भगवान जिनेश्वरदेवनी दिव्यध्वनिनो मर्म कहेतां सार आटलो छे के-जिनस्वरूप आत्मा छे, एटले आत्मा वीतराग स्वभाव छे, ते भूतार्थ
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छे-तेथी मुख्य छे. बाकी बधुं कर्म एटले रागादि छे, ते व्यवहार छे, अभूतार्थ छे तेथी गौण छे, असत्यार्थ छे. अहीं मुख्यनुं प्रयोजन सिद्ध करवा व्यवहारने गौण करीने ते नथी एम कहेवामां आव्युं छे. हवे शुद्धनयनी वात करे छे.
शुद्धनय एक ज भूतार्थ होवाथी विद्यमान, सत्य, भूत अर्थने प्रगट करे छे. शुद्धनय एटले त्रिकाळी चीज पोते शुद्धनय छे. तेमां ज्ञान ते आत्मा, पर्याय ते आत्मा, ए बधा भेद अभूतार्थ छे, अविद्यमान छे. भाषा जुओ. शुद्धनय एक ज भूतार्थ एटले साचो छे. शुद्धनय ए एक वात, अने एक ज भूतार्थ छे ए बीजी वात. आशय एम छे के शुद्धनय एक ज छे, तेना बे भेद नथी. निश्चयनयना बे भेद छे एम जयसेनाचार्यनी टीकामां आवे छे. ए तो परथी भिन्ननुं ज्ञान कराववा माटे राग जीवनी पर्यायमां थाय छे तेने निश्चयनयनो विषय कह्यो छे. ए तो जाणवा माटे वात करी छे. अपेक्षा समजवी जोईए. खरेखर तो (आश्रय करवानी अपेक्षाए तो) शुद्धनय एक ज छे. तेना बे भेद छे ज नहीं.
पंचाध्यायी जे न्यायनो ग्रंथ छे एमां तो एम कह्युं छे के जे निश्चयना बे भेद पाडे ते सर्वज्ञनी आज्ञाथी बहार छे ते ज वात अहीं कहे छे के त्रिकाळी भगवान आत्मा ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव, अखंड, एकरूप, भूतार्थ, छती वस्तु, ते पोते शुद्धनय अथवा तेने जाणनार जे शुद्धनय, ते एक ज छे. तेना बे भेद नथी. पर्याय सहित के राग सहित आत्माने जाणवो ते निश्चय, ते वात अहीं नथी. (ए अशुद्ध-निश्चय तो व्यवहार छे) अहीं तो त्रिकाळी एकरूप शुद्ध ज्ञायकभाव, चैतन्यघन द्रव्य जे अनाकुळ समाधि अने आनंदनुं धाम भगवान पूर्ण छे, ए ज एक सत्यार्थ छे. राग विनानो तो खरो पण जे एक समयनी पर्याय विनानो, त्रिकाळी, ध्रुव ज्ञायकभाव छे ते एक ज सत्यार्थ छे अने तेने जाणनारो शुद्धनय ते पण एक ज छे, तेना बे भेद नथी.
गाथामां बीजुं पद छे- “भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ.” तेमां कहे छे के जे त्रिकाळी चीज छे भूतार्थ ए ज शुद्धनय छे. मूळ गाथामां एम कह्युं छे के त्रिकाळी सत्यार्थ प्रभु पूर्णानंद ध्रुव चीज छे ते शुद्धनय छे. शुद्धनयनो विषय छे एम भेद पाडीने न कह्युं; त्रिकाळी शुद्ध ध्रुव सामान्य छे तो शुद्धनयनो विषय, पण शुद्धनयनो विषय अने तेने विषय करनार एवो भेद काढी नाखीने त्रिकाळी चीज, अभेद, अखंड, सामान्य वस्तु ते शुद्धनय छे एम कह्युं छे.
वस्तुनी द्रष्टि अने एनो विषय जे शुद्ध वस्तु-ए शुं छे ते जाण्या विना सम्यग्दर्शन न थाय. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एम शुद्धपणे पर्यायमां परिणमे. ते पर्याय पण
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अशुद्धनयनो विषय छे. ए अशुद्धनय व्यवहारमां जाय छे. अशुद्धनय अने शुद्धनय एवा बे भेद वस्तुमां नथी. अशुद्धनय कहो, व्यवहार कहो के उपचार कहो, ए बधुं एकार्थ छे. शुद्धनय एक ज भूतार्थ होवाथी विद्यमान, सत्य, भूत अर्थने प्रगट करे छे. अहीं वस्तु त्रिकाळ सिद्ध करवी छे. ज्ञान ते आत्मा एवा भेदने व्यवहार एटले जूठो कही त्रिकाळी वस्तुमांथी काढी नाख्यो. पर्याय छे ते एक समयनुं सत् छे, ए त्रिकाळी ध्रुव सत् नथी. एनो आश्रय लेवाथी धर्म प्रगट थतो नथी. माटे एक त्रिकाळी भावने ज विद्यमान, भूतार्थ, सत्यार्थ कहेलो छे. आत्मामां बे प्रकार-एक पर्याय अने बीजो ध्रुव. तत्त्वार्थसूत्रमां कह्युं छे ने के उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत्– एमां पर्याय उत्पाद-व्ययरूप छे. एक समयमां उत्पन्न थई, बीजे समये व्यय थाय, ते पर्याय छे. अने त्रिकाळ एकरूप रहे ते ध्रुव छे. अहीं एक समयनी उत्पाद-व्ययरूप पर्यायनुं लक्ष छोडाववा तेने व्यवहार कही, असत्यार्थ-जूठी कही. अने त्रिकाळी ध्रुव एक ज विद्यमान छतो पदार्थ छे एम कही, तेनी द्रष्टि करावी छे. अहो! समयसार ए अद्भुत शास्त्र छे. आ बे लीटीमां घणुं-घणुं रहस्य भर्युं छे. शुद्धनय एक ज साचा अर्थने प्रगट करे छे. त्रिकाळ विद्यमान तत्त्व भगवान आत्मा, एक समयनी पर्याय विनानो, अविनाशी, अविचळ, ध्रुव, चैतन्यसूर्य तेने शुद्धनय प्रगट करे छे. द्रष्टिनो विषय आ एकमात्र विद्यमान ज्ञायक तत्त्व छे. गाथामां कह्युं छे ने “भूदत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो” भूतार्थना आश्रये जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे. ‘खलु’ नो अर्थ निश्चय कर्यो छे. जयसेन आचार्ये प्रगट त्रिकाळी भगवाननो जे आश्रय ले तेने निश्चयथी सम्यग्दर्शन थाय छे तेम कह्युं छे. अहा! जेवुं अंदर पूर्ण सत्य स्वरूप पडयुं छे, तेनो अनुभव करीने प्रतीति करे तेने निश्चयथी सम्यग्दर्शन थाय छे. आ जैनधर्म छे. अरे! लोकोए नवा नवा वाडा बांधी, जैनधर्मनुं मूळतत्त्व आखुं पींखी नाख्युं छे. हवे, आ वात द्रष्टांतथी बतावे छे. जेम प्रबळ कादवना मळवाथी जेनो सहज एक निर्मळभाव तिरोभूत थई गयो छे एवा जळनो अनुभव करनारा पुरुषो-जळ अने कादवनो विवेक नहि करनारा घणा तो, तेने (जळने) मलिन ज अनुभवे छे. जुओ, पाणीनो तो सहज एकरूप निर्मळ स्वभाव छे. परंतु प्रबळ कादवना मळवाथी ते ढंकाई गयो छे. त्यां पाणी अने कादवनी जुदाईनो विवेक नहीं करनारा घणा लोको तो पाणीने मलिन ज अनुभवे छे एटले के तेओ मलिन (मेल-संयुक्त) पाणीने ज पीए छे. पण केटलाक पोताना हाथथी नाखेला कतकफळ-(निर्मळी औषधि)ना पडवामात्रथी उपजेला जळ-कादवना विवेकपणाथी, पोताना पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत करवामां आवेला सहज एक निर्मळभावपणानेलीधे तेने (जळने) निर्मळ ज अनुभवे छे.
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कतकफळ ए ‘निर्मळी’ नामनी औषधि छे. मलिन पाणीमां पोताना हाथथी एटले पोते ज कतकफळ नाखी थोडा लोको शुद्ध पाणीने अनुभवे छे. कतकफळ नाखतां वेंत ज-पडवामात्रथी जळ-कादवनो विवेक प्रगट थाय छे. एटले के कादव नीचे बेसी जाय छे अने पाणी निर्मळ थई जाय छे. आ रीते पोताना पुरुषार्थ वडे पाणीनो सहज एकरूप निर्मळभाव आविर्भूत करवामां आवे छे. कादवना कारणे पाणीनुं निर्मळपणुं ढंकाई गयुं हतुं ते ‘निर्मळी’ना पडवामात्रथी प्रगट थाय छे. आम केटलाक एटले कोई थोडा लोको कादवने जळथी भिन्न करी निर्मळ जळने पीए छे. अहा! आचार्यदेवे करुणा करी केवुं सरळ करीने समजाव्युं छे! पाणीने निर्मळ करे छे तेथी ते औषधिने ‘निर्मळी’ कहे छे. आ तो द्रष्टांत थयुं. हवे सिद्धांत कहे छे.
एवी रीते प्रबळ कर्मना मळवाथी जेनो सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत थई गयो छे एवा आत्मानो अनुभव करनार पुरुषो-आत्मा अने कर्मनो विवेक नहीं करनारा, व्यवहारथी विमोहित हृदयवाळा तो, तेने (आत्माने) जेमां भावोनुं विश्वरूपपणुं प्रगट छे एवो अनुभवे छे.
अहीं कर्म एटले जड पुद्गलकर्मनी वात नथी. पण ते कर्मना निमित्ते जीवनी अवस्थामां थता जे मिथ्यात्व-राग-द्वेषना मलिनभाव तेने अज्ञानी जीव अनुभवे छे एनी वात छे. जडकर्म तो अजीव छे, तेनो अनुभव होई शके नहीं प्रबळ कर्मना मळवाथी एटले पुण्य-पापना जे विकल्पो तेने अनुभववाथी सहज एकरूप निर्मळ ज्ञायकभाव ढंकाई गयो छे. जे शुभाशुभ राग थाय ते हुं एवा मिथ्यात्व अने राग- द्वेषना अनुभवनी आडमां आखो निर्मळानंद ज्ञायकभाव ढंकाई गयो छे, नजरमां आवतो नथी. दया, दान तथा काम-क्रोधादि मलिन वृत्तिओना अनुभवमां एकरूप ज्ञायक द्रष्टिमां आवतो नथी, जणातो नथी एम कह्युं छे. बाकी तो सच्चिदानंदस्वरूप ज्ञायकभाव तो जे छे ते छे, प्रगट ज छे. तिरोभूत थई जाय अने आविर्भूत थाय एवुं ज्ञायकभावमां छे ज नहीं. रागादिना अनुभवमां ज्ञायक नजरमां आवतो नथी तेथी ढंकाई गयो एम कहेवाय छे. अने ज्ञायकना आश्रयमां तेनो अनुभव थाय छे त्यारे ते प्रगट थयो एम कहेवाय छे.
हवे आवा रागादिसंयुक्त आत्मानो अनुभव करनारा, रागादि कर्म अने आत्मानी जुदाई-भिन्नतानो विवेक नहीं करवाथी व्यवहारमां विमोहित रहे छे. शुभाशुभभावो ते हुं एम मूर्च्छित थयेला छे तेथी तेओ जेमां भावोनुं अनेकरूपपणुं प्रगट छे अर्थात् पर्यायमां जे अनेक प्रकारना मलिन विकारी भावो उत्पन्न थाय छे तेने पोतापणे अनुभवे छे.
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पण भूतार्थदर्शीओ (शुद्धनयने देखनाराओ) पोतानी बुद्धिथी नाखेला शुद्धनय अनुसार बोध थवामात्रथी उपजेला आत्म-कर्मना विवेकपणाथी, पोताना पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत करवामां आवेला सहज एक ज्ञायकभावपणाने लीधे तेने (आत्माने) जेमां एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान छे एवो अनुभवे छे.
त्रिकाळी एक अभेद ज्ञायक वस्तुने देखनारा भूतार्थदर्शीओने पोतानी ज्ञानपर्यायने ज्ञायक सन्मुख करतावेंत ज बोध एटले सम्यग्ज्ञान थवाथी आत्मा अने कर्म जे रागादि तेमनी जुदाई-भिन्नतानो विवेक उत्पन्न थाय छे. आम आत्मा अने रागादिनुं भेदज्ञान थवाथी तेओ रागथी भिन्न पडी पोताना पुरुषार्थ द्वारा अखंड एकरूप निर्मळ ज्ञायकभावनो आश्रय करी जेमां एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान छे एवा शुद्ध आत्माने अनुभवे छे.
पहेलां कह्युं हतुं के व्यवहारमां विमोहित पर्यायबुद्धि जीवोने रागादिनी मूर्च्छामां एकरूप ज्ञायकभाव ढंकाई गयो छे, तेथी पर्यायमां अनेकरूप मलिनता अनुभवे छे. हवे कहे छे-राग अने आत्मा बन्नेनुं भेदविज्ञान करी ध्रुव त्रिकाळी परमानंदस्वरूप परमात्मानो पुरुषार्थ वडे आश्रय करनार भूतार्थदर्शीओने ते चैतन्यसूर्य ज्ञायकबिंब आविर्भूत थाय छे, प्रगट थाय छे अने तेथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान आदि शुद्ध पर्याय उत्पन्न थाय छे.
अहीं चारेय प्रकारना व्यवहारने गौण करी, असत्य कही तेनी द्रष्टि छोडावी छे. अने एकरूप ज्ञायकने मुख्य करी तेने सत्यार्थ कही तेनी द्रष्टि करावी छे. आवा ज्ञायकनो अनुभव पोताना पुरुषार्थ द्वारा थाय छे. पुरुषार्थ विना मळी जाय एवी आ चीज नथी. भूतार्थदर्शीओ एक ज्ञायकभावनो आश्रय लई, एक ज्ञायकभाव जेमां प्रकाशमान छे एवा शुद्ध आत्माने अनुभवे छे. अने ते धर्म छे. अनुभव ते पर्याय छे अने चैतन्यदळ, अनंतगुणोनुं अभेददळ, जे ज्ञायक आत्मा ते एनुं ध्येय छे.
शरीरनो, रागनो अने एक समयनी पर्यायनो जेने प्रेम छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. तेने राग अने आत्मानी जुदाईनो विवेक नथी. ते व्यवहारमां विमोहित छे. जेने शरीरनो मोह छे ते हाड-चामडामां मोहित छे, जेने बाह्य संपत्ति अने पुण्यना ठाठनो मोह छे ते जडमां मोहित छे अने जेओ रागद्वेषादिनो ज अनुभव करे छे ते पण पर्यायमूढ छे. रागादि तो अंधकार छे, केमके ते जड छे, तेमां चैतन्यना नूरनो अंश नथी. तेथी जे रागादिने अनुभवे छे ते मात्र अंधकारने अनुभवे छे. तेने निर्मळानंद ज्ञायक तिरोभूत थाय छे. अरे! आम जीव पोताना एकरूप स्वभावने भूली अनेकरूप मोह-राग-द्वेषना अनुभवथी चारगतिरूप संसारमां अनंतकाळथी रखडी रह्यो छे.
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अहीं शुद्धनय कतकफळना स्थाने छे. पाणी अने कादवने जेम कतकफळ जुदां करे छे. तेम शुद्धनय अनुसार वस्तु जे त्रिकाळी अखंड एकरूप ज्ञायकभाव छे तेमां द्रष्टि करतां, तेनो अनुभव करतां पर्यायमांथी मलिन पुण्य-पापना भाव जुदा पडी जाय छे. पुण्य-पापना भाव आत्मानी शांति दाझतां थाय छे. पद्मनंदी पंचविंशतिकामां दान अधिकारमां द्रष्टांत आवे छे के तारी शांति दाझीने कषायमंदताना परिणाम थया. एना फळरूपे आ बाह्य सामग्री मळी. तेने जो तुं एकलो भोगवीश अने धर्मप्रभावना अर्थे तेनो उपयोग नहीं करे तो तुं कागडाथी पण जाय तेवो छे. केमके पथ्थरनी कूंडीमां दाझेला उकडीआ नाख्या होय ते कागडो ‘का, का, का’ एम पुकारीने बीजा कागडाओने पण बोलावीने खाय छे, एकलो खातो नथी. अहीं तो एम कहेवुं छे के आवा पुण्य-पापना भावोनो अनुभव ते मिथ्यादर्शन छे अने शुद्धनय वडे ते पुण्य-पापनी मलिनता जुदी पडी जाय छे. तेथी जेओ शुद्धनयनो आश्रय करे छे तेओ ज सम्यक् अवलोकन करता होवाथी सम्यग्द्रष्टि छे, पण बीजा सम्यग्द्रष्टि नथी. शुद्धनयनो आश्रय करे छे एटले के त्रिकाळी अभेद एकरूप ज्ञायकनो जेओ आश्रय करे छे तेओ ज वस्तुना स्वरूपने सम्यक् प्रकारे जुए छे, अनुभवे छे अने तेथी तेओ ज सम्यग्द्रष्टि छे. परंतु बीजा जेओ अशुद्धनयनो सर्वथा आश्रय करे छे तेओ सम्यग्द्रष्टि नथी. जेओ रागनो, भेदनो, एक समयनी पर्यायनो आश्रय करे छे तेओ सम्यग्द्रष्टि नथी एटले मिथ्याद्रष्टि ज छे. माटे कर्मथी भिन्न आत्माना देखनाराओए व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी. रागथी तथा पर्यायथी पण भिन्न एवो पोतानो ज्ञानानंदमूर्ति भगवान छे एम जेमने द्रष्टि थई छे तेमणे व्यवहारनय अनुसरवा योग्य एटले आश्रय करवा योग्य नथी. रागनुं, भेदनुं के पर्यायनुं यथास्थित ज्ञान भले हो, पण तेनो अनुभव के आश्रय करवा योग्य नथी. * भावार्थ उपरनुं प्रवचन *
अहीं व्यवहारनयने अभूतार्थ अने शुद्धनयने भूतार्थ कह्यो छे. जेनो विषय विद्यमान न होय तेने अभूतार्थ कहे छे. व्यवहारनयने अभूतार्थ कहेवानो आशय एवो छे के-शुद्धनयनो विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य छे, तेनी द्रष्टिमां भेद देखातो नथी; माटे तेनी द्रष्टिमां भेद अविद्यमान, असत्यार्थ ज कहेवो जोईए. जुओ, शुद्धनयने अहीं भूतार्थ कह्यो छे. अतीन्द्रिय आनंदनो पिंड एवो जे ज्ञायकभाव एने ज सत्य कह्यो छे. पर द्रव्यनी तो अहीं वात नथी. शरीर, मन, वाणी, देव, गुरु, शास्त्र, इत्यादि पर तो परमां रह्या. अहीं तो एक त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव अने
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बीजो वर्तमान पर्यायभाव एम आत्मामां बे प्रकार छे; तेमां त्रिकाळी द्रव्यस्वभाव सत्य छे अने पर्यायभाव असत्य छे एम कह्युं छे. जेनो विषय हयाती धरावतो न होय ते असत्य छे. व्यवहारनयनो विषय विद्यमान नथी माटे ते असत्य छे, अभूतार्थ छे. अनादिथी आ जीव दुःखना पंथे एटले के रागना अने पर्यायना पंथे दोराई रह्यो छे. अनंतकाळमां ते मोटो शेठ थयो होय, के राजा थयो होय के स्वर्गनो देव थयो होय के दिगंबर द्रव्यलिंगी साधु थयो होय, तेणे त्रिकाळी चीज सत्यार्थ द्रव्यस्वभावनो कदीय स्वीकार कर्यो नथी, अने पर्याय छे, राग छे, भेद छे एम मान्युं छे अर्थात् एनो स्वीकार कर्यो छे. तेने सुखना पंथे चढाववा अहीं कहे छे के त्रिकाळी वस्तु ज्ञायक ते सत्य छे अने पर्याय छे ते असत्य छे. आम कहीने भूतार्थ द्रव्यस्वभावनो आश्रय कराववा मागे छे, केमके भूतार्थ स्वभावनी द्रष्टि थतां संसार रहेतो नथी. व्यवहारनयने अभूतार्थ कहेवानो आशय शुं? तो कहे छे के शुद्धनयनो विषय अभेद एकाकाररूपे नित्य द्रव्य छे, तेनी द्रष्टिमां भेद देखातो नथी. अहाहा-! पंडित जयचंद्रजीए शुं स्पष्टीकरण कर्युं छे! शुद्धनयनुं ध्येय अभेद एकाकार छे. तेनी द्रष्टिमां आ ज्ञान, आनंद इत्यादि गुणो अने आ आत्मा गुणी एवा भेद देखाता नथी. दया, दान, व्रत, तप, पूजा, भक्ति इत्यादि पर्यायना विकल्पो अभेदनी द्रष्टिमां जणाता नथी, बहार ज रही जाय छे. आवो स्वभाव अने स्वभाववान अभेद एकाकार छे, तेनो स्वीकार करी आश्रय करतां सम्यग्दर्शनादि प्रगट थाय छे अने ते धर्म छे. आ सिवाय बीजो कोई मार्ग नथी. भाई! व्रत-तप आदिना विकल्पमां रोकाई अने ते विकल्पनो कर्ता थई तें अनादिथी मिथ्यात्वनुं ज सेवन कर्युं छे. तथा समोसरणमां बिराजमान अरिहंतदेवनी मणि-रत्नथी आरती उतारी, कल्पवृक्षना फूलथी अनंतवार पूजा करी छे, पण सत्यार्थ द्रव्यस्वभावनो स्वीकार कर्यो नहीं तेथी तने अद्यापि सम्यग्दर्शनादि लेश पण धर्म थयो नथी. लोकोए मूळ वात सांभळी नथी तेथी अभूतार्थ एवा व्यवहारमां रोकाई गया छे. अहीं कहे छे त्रिकाळी अभेदनी द्रष्टिमां भेद जणातो नथी, तेथी तेनी द्रष्टिमां भेद अविद्यमान असत्यार्थ ज कहेवो जोईए. हवे कहे छे-एम न समजवुं के भेदरूप कांई वस्तु ज नथी. द्रव्यमां गुण छे ज नहि, पर्याय छे ज नहि, भेद छे ज नहि-एम नथी. आत्मामां अनंत गुणो छे, ते बधा निर्मळ छे. वळी कोई एम माने के एकाकार द्रव्य ज छे अने पर्याय नथी तो एम नथी. द्रष्टिना विषयमां गुणोनो भेद नथी; पण अंदर वस्तुमां अनंतगुणो छे. भेद सर्वथा कांई वस्तु नथी एम मानवामां आवे तो तो जेम वेदांतमतवाळाओ भेदरूप अनित्यने देखी
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अवस्तु मायास्वरूप कहे छे अने सर्वव्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्मने वस्तु कहे छे एवुं ठरे अने तेथी सर्वथा एकांत शुद्धनयना पक्षरूप मिथ्याद्रष्टिनो ज प्रसंग आवे.
वेदांतवाळा जेम एक ज आत्मा सर्वव्यापी माने छे-एम आ वात नथी. केटलाकने आ निश्चयनी व्याख्या वेदांत जेवी लागे छे, पण वेदांत पर्यायने कयां माने छे? अनेक गुणो कयां माने छे? अनेक आत्मा कयां माने छे? एनी तो तर्कथी कल्पीने मानी लीधेली वात छे. आ वातने अने वेदांतने कोई मेळ नथी. आ तो सर्वज्ञकथित सूक्ष्म न्याययुक्त वात छे.
भगवान जिनेश्वरदेवे केवळज्ञानथी आत्मा जेवो प्रत्यक्ष जोयो तेवो कह्यो छे. जेना मतमां सर्वज्ञनो स्वीकार नथी तेमां सत्यार्थ वस्तु होई शके नहीं. सर्वज्ञना स्वीकार विना आत्मा सर्वज्ञस्वभाव छे एवी द्रष्टि होती नथी. वस्तुतः आत्मा सर्वज्ञस्वभाव छे तो पर्यायमां सर्वज्ञता प्रगट थाय छे.
आ जैननी मूळवात निश्चयनी ज्यां बहार आवी त्यां लोकोने वेदांत जेवुं लागे छे. क्रियाकांडनी वात आवे तो कहे छे के आ जैननी वात छे. आवुं कहेनारा अने माननारा जैनधर्मना मूळ रहस्यने जाणता ज नथी. अनंत तीर्थंकर परमेश्वरो थई गया. तेओ आ सत्यार्थ वस्तुने अनुभवीने मुक्ति पाम्या छे. अने जगत समक्ष ए ज वात जाहेर करी छे.
पर्याय सम्यग्दर्शननो विषय नथी, परंतु त्रिकाळ ध्रुव ज्ञायकने विषय करनार पर्याय छे. तेने न माने ते सांख्यमती छे. आत्मा शरीर प्रमाण छे, तेने वेदांतमतवाळा (क्षेत्रथी) सर्वव्यापक माने छे. तेओ बधुं मळीने वस्तु एक कहे छे, एक शुद्ध ब्रह्मने ज वस्तु कहे छे, पण वस्तु अनेक छे. वळी वस्तुमां गुणो छे एम मानता नथी. वस्तु सर्वथा नित्य कहे छे, अनित्य पर्यायने मानता नथी. आम सर्वथा पर्याय आदिने मायास्वरूप असत्य कहेतां वेदांतमत थई जाय. तेथी सर्वथा एकांत शुद्धनयना पक्षरूप मिथ्यात्वनो प्रसंग आवे. माटे सर्वथा एकांत न मानवुं. कथंचित् अशुद्धता छे, भेदो छे, पर्याय छे एम अपेक्षाथी बराबर समजवुं.
हवे कहे छे-माटे अहीं एम समजवुं के जिनवाणी स्याद्वादरूप छे, प्रयोजनवश नयने मुख्य-गौण करीने कहे छे. जुओ, शुद्धनयने सत्य कह्यो अने पर्यायने असत्य, अविद्यमान कही ते शा माटे एनो खुलासो करे छे. कहे छे के जिनवाणी स्याद्वादरूप- एटले अपेक्षाथी कथन करनारी छे. जेथी ज्यां जे अपेक्षा होय, त्यां ते समजवी जोईए.
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प्रयोजनवश शुद्धनयने मुख्य करी सत्यार्थ कह्यो छे अने व्यवहारने गौण करी असत्य कह्यो छे. त्रिकाळी अभेद शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टि करतां जीवने सम्यग्दर्शन थाय छे. आवा प्रयोजनने सिद्ध करवा त्रिकाळी द्रव्यने अभेद कहीने भूतार्थ कह्युं छे. अने पर्यायनुं लक्ष छोडाववा तेने गौण करी असत्यार्थ कही छे. आत्मा अभेद त्रिकाळी ध्रुव छे. तेनी द्रष्टि करतां भेद देखातो नथी. अने भेदद्रष्टिमां निर्विकल्पता थती नथी. माटे प्रयोजनवश भेदने गौण करी असत्यार्थ कहेलो छे. अनंतकाळमां जन्म-मरणनो अंत करवाना बीजरूप सम्यग्दर्शन जीवने थयुं नथी. एवा सम्यग्दर्शननी प्राप्तिनुं अहीं प्रयोजन सिद्ध करवुं छे. तेथी शुद्ध ज्ञायकने मुख्य करी सत्यार्थ कह्यो छे. अने पर्याय तथा भेदने गौण करी व्यवहार कही तेने असत्यार्थ कह्यो छे.
हवे नयने मुख्य-गौण करी कथन करवानुं कारण शुं ते विस्तारथी कहे छे. प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी ज छे, अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. जीवने अनादिथी पर्यायबुद्धि चाली आवे छे. अंदर आनंदनो नाथ त्रिकाळी भगवान पोते बिराजे छे तेने द्रष्टिमां कदीय लीधो नथी. अने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष, पुण्यनो पक्ष, रागनो पक्ष, पर्यायनो पक्ष तथा वर्तमान मति-श्रुतज्ञाननी पर्यायनो पक्ष प्राणीओने अनादिकाळथी छे.
वळी व्यवहारनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. ‘आपणे संसारी छीए, कांई वीतराग तो नथी; वळी व्रत, तप, पूजा, भक्ति, दान इत्यादि व्यवहार धर्म छे, धर्मनां अंग छे. एटले आपणे ते व्यवहारधर्मनुं पालन करवुं जोईए. व्यवहार कांई छोडी देवाय? व्यवहार करतां करतां निश्चयधर्म प्रगटे.’ आम परस्पर मोटा भागना संसारी प्राणीओ रागना पक्षनो उपदेश आपता होय छे.
वळी कोई एम पण कहेता होय छे-‘पर्याय छे, तेनुं ज्ञान करवुं जोईए ने? पर्याय जाणवी जोईए, पर्यायने विषय बनाववो जोईए, अन्यथा एकांत थई जाय. पर्याय पण वस्तु छे, अवस्तु नथी एम शास्त्रमां पण कह्युं छे. कार्य तो पर्यायमां थाय छे ने? पर्याय विना कांई कार्य थाय? आम पर्यायनो पक्ष करी परस्पर व्यवहारना पक्ष रूप उपदेश करीने मिथ्यात्व पुष्ट करी रह्या होय छे.
अहीं बे वात करी. एक तो भेदनो पक्ष, व्यवहारनो पक्ष जीवने अनादिकालीन छे. अने बीजुं व्यवहारनो उपदेश पण प्राणीओ बहुधा परस्पर करे छे. हवे त्रीजी वात करे छे. वळी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब (सहायक) जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार ज छे. भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणीमां व्यवहारनो
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उपदेश शुद्धनयनुं निमित्त जाणी घणो कर्यो छे. भाषा जुओ! व्यवहारनो उपदेश घणो कर्यो छे पण एनुं फळ संसार ज छे. जेम दादरो चढनार कठेडो पकडीने उपर चढे छे तेम शुद्धनयने हस्तावलंब जाणी जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश घणो छे, पण व्यवहारनुं फळ संसार ज छे. त्रिकाळी ज्ञायकनो आश्रय लेवाना काळमां व्यवहार निमित्त होय छे तेथी निमित्तनुं ज्ञान कराववा शास्त्रमां व्यवहारनां घणां कथनो होय छे. जेमके शास्त्रमां आवे छे के प्रचंड कर्मकांडथी ज्ञानकांड थाय छे. त्यां प्रचंडकर्मकांड ए तो शुभराग छे अने एनुं फळ तो बंध छे, संसार छे. परंतु ज्ञानकांड थवाना काळमां ते सहकारी निमित्त छे एम जाणी व्यवहारथी एम कथन करवामां आव्युं छे.
ए प्रमाणे पद्मनंदी पंचविंशतिकामां आवे छे के मुनिवरोने आहारदान आपे तेणे मोक्षमार्ग आप्यो. आहार आपवानो भाव तो शुभराग छे, परंतु मोक्षमार्गमां स्थित मुनिओने शरीरनी स्थितिमां आहार निमित्त देखीने व्यवहारथी आ कथन कर्युं छे. साक्षात् तीर्थंकरदेव छद्मस्थ दशामां होय तेमने आहार आपवानो भाव आवे तेनाथी पुण्य बंधाय, धर्म न थाय, मुक्ति न थाय.
श्रावकोए देवपूजा, गुरुपास्ति इत्यादि प्रतिदिन करवां जोईए तथा दया दान आदि पुण्यकार्य करवां जोईए एवुं पद्मनंदी पंचविंशतिकामां खूब आवे छे. ए तो श्रावकने पोतानी भूमिकामां सहकारी एवा पुण्यना भावो एने आवता होय छे तथा एवा भावो द्वारा ते अशुभनो निषेध करतो होय छे एम जणाववा ए प्रमाणे व्यवहारनो उपदेश छे. बाकी पुण्यनुं पण फळ बंध छे, संसार छे, मोक्ष नथी.
शास्त्रमां एम पण आवे छे के व्यवहार साधक अने निश्चय साध्य छे. आ व्यवहारनयनुं वचन छे. व्यवहार एटले राग साधक अने निश्चिय एटले वस्तु त्रिकाळ साध्य-एम कदी होई शके नहीं. पण आ तो यथार्थ सहकारी निमित्तनां ज्ञान करावनारां व्यवहारनां वचन छे, ते यथार्थ समजवां जोईए. समयसार गाथा सोळमां कह्युं छे के साधु पुरुषे दर्शन, ज्ञान, चारित्र सेववा योग्य छे.’ त्यां पर्यायने सेववानी वात करी छे ए व्यवहारथी उपदेश छे. सेवन तो एक ध्रुव भूतार्थ ज्ञायकनुं ज करवानुं छे, पण लोको समजे एटला माटे भेदथी व्यवहार द्वारा समजाव्युं छे. पण व्यवहार नयनो आश्रय करवा जाय तो तेनुं फळ तो संसार ज छे एम यथार्थ जाणवुं.
हवे कहे छे-शुद्धनयनो पक्ष तो कदी आव्यो नथी अने एनो उपदेश पण विरल छे-कयांक कयांक छे. हुं एक अखंड नित्यानंद ध्रुवस्वरूप भगवान छुं एवो अंतरमां शुद्धनयनो पक्ष कदीय आव्यो नथी. अनंतकाळमां अनंतवार हजारो राणीओ अने राजपाट
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छोडी नग्न दिगंबर मुनि थयो, पण अंतरमां चिदानंद चैतन्यमूर्ति भगवान जे पोते बिराजे छे तेनो पक्ष न लीधो, तेनुं लक्ष करी आश्रय न कर्यो. महाव्रतादि क्रियाकांडना फळमां अनंतवार स्वर्गमां गयो पण आत्मद्रष्टि विना त्यांथी पाछो नरक, तिर्यंच आदि नीची गतिमां गयो. आम अनादिथी जन्म-मरण कर्यां पण तेनो अंत आवे एवुं कांई कर्युं नहीं. धंधो करवो, वेपार करवो, कमावुं, परिवारनुं पालन करवुं, छोकरां परणाववां इत्यादि अनेकरूप पापना-हिंसाना भाव सेवी एना फळमां दुःखी थईने रखडयो ए तो ठीक; पण शुद्धनयना आश्रय विना अनंतवार शुभभाव करी पुण्यबंधन करी चार गतिमां रखडयो छे. अरे! नरक, निगोदनी वेदनानी शी वात? पण ते भूली गयो छे, भाई!
भाई, अनंत अनंत चोरासीना अवतारमां तुं अनेकवार अबजोपति शेठ थयो, स्वर्गनो देव थयो अने सातमी नरकनो नारकी पण थयो ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीनी शास्त्रमां वात आवे छे. ते छ खंडनो स्वामी हतो, छन्नु हजार राणीओ हती. सोळ हजार देवो एनी सेवामां रहेता. रत्न-मणि अने हीराना पलंगमां ए पोढतो. एना वेभवनी शी वात! ते ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आयुस्थिति पूरी थतां सातमी रौरव नरके उपज्यो. अहीं सातसो वर्षनुं आयुष्य हतुं. अहींथी मरीने त्यां नरकमां ३३ सागरोपम आयुष्यनी स्थितिमां उपज्यो. एक श्वासना मिथ्यात्वनी प्रधानतापूर्वकना अशुभना फळमां अगियार लाख छप्पन हजार पल्योपमनुं नरकनुं दुःख त्यां प्राप्त थयुं. अहा! नरकनी अकथ्य वेदनानुं कथन केम करवुं?
आम शुद्धनयनो पक्ष नहीं थवाथी जीव अनंतकाळथी दुःखी थई रह्यो छे. शुद्धनयनो उपदेश पण देनार कोई नथी. व्रत करो, दया पाळो-एम व्यवहारनो उपदेश तो ठामठाम देनारा छे, पण त्रिकाळी ध्रुव चैतन्य एकमात्रना आलंबनथी धर्म थाय छे एम उपदेश करनार कयांक छे, कदाचित् कोई यथार्थ उपदेशदाता मळ्या पण खरा; तो तेमनी वात अंतरमां ग्रहण करी नहीं अने तेथी भवभ्रमण मटयुं नहीं.
आवा भवभ्रमणना दुःखथी मुक्त थवा उपकारी श्री गुरुए शुद्धनयनुं फळ मोक्ष जाणीने एनो उपदेश प्रधानताथी आप्यो छे के-‘शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे, एनो आश्रय करवाथी सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे.’ जुओ, विदेहक्षेत्रमां साक्षात् अरिहंत परमात्मा बिराजे छे. त्यां ॐध्वनिना धोध वरसे छे. ए दिव्यवाणी सांभळवा स्वर्गना इन्द्रो आवे छे. पहेला देवलोकने सौधर्म देवलोक कहेवाय छे. तेमां बत्रीस लाख विमान छे. एकेक विमानमां असंख्य देवो छे. ते बत्रीस लाख विमानोनो स्वामी सौधर्म इन्द्र छे. ते सम्यग्द्रष्टि छे. तेनी इन्द्राणी शची छे. ते पण समकिती छे. बन्ने एक भव करी मोक्ष
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जवाना छे. तेओ जे दिव्यध्वनि सांभळवामां आवे छे तेनो सार-सार लई भगवान कुंदकुंदाचार्ये हृदयमां परम करुणा धरी अहीं उपदेश कर्यो छे के शुद्धनय भूतार्थ छे, तेना आश्रये जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे. भगवान कुंदकुंदाचार्य शुद्धनयनुं फळ जे मोक्षमार्ग ते जाणता-अनुभवता हता तेथी भव्य जीवोना उपकार हेतुथी शुद्धनयनो उपदेश प्रधानताथी कर्यो छे.
अहाहा...! आचार्यदेव कहे छे के एकवार तुं द्रष्टि फेरवी नाख. एक समयनी पर्याय उपर, अने भेद उपर अनादिनी द्रष्टि छे. तेने त्यांथी खसेडी लई अखंड एकरूप त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यसामान्य पर द्रष्टि स्थिर कर. तेथी तने सम्यग्दर्शन आदि धर्म प्रगट थशे. तने भव-भ्रमणना दुःखथी मुक्ति थई अनंत सुखस्वरूप एवो मोक्ष थशे. अहो! आवो विरल उपदेश आपी आचार्यदेवे जगतनो महान उपकार कर्यो छे. आत्मा त्रिकाळी सत् ज्ञायक-ज्ञायक-ज्ञायक, ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव अखंड एकरूप वस्तु छे ते भूतार्थ छे, तेना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे अने तेना ज आश्रये जन्म-मरण मटे छे, मोक्षना भणकारा वागे छे.
शुद्धनयने एटले त्रिकाळी ध्रुवने जाण्या विना ज्यांसुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे एटले के शुभरागना कर्मकांडमां मग्न छे, भेदमां मग्न छे के पर्यायमां मग्न छे त्यांसुधी आत्माना श्रद्धानरूप निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट थतुं नथी. त्रिकाळी शुद्ध आत्मतत्त्वने ओळखी तेमां मग्न थवुं ए ज मुख्य कर्तव्य छे.
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हवे, “ए व्यवहारनय पण कोई कोईने कोई वखते प्रयोजनवान छे, सर्वथा निषेध करवायोग्य नथी; तेथी तेनो उपदेश छे” एम कहे छेः-
गाथार्थः– [परमभावदर्शिभिः] जे शुद्धनय सुधी पहोंची श्रद्धावान थया तथा पूर्ण ज्ञान-चारित्रवान थई गया तेमने तो [शुद्धादेशः] शुद्ध (आत्मा)नो उपदेश (आज्ञा) करनार [शुद्धः] शुद्धनय [ज्ञातव्यः] जाणवायोग्य छे; [पुनः] वळी [ये तु] जे जीवो [अपरमे भावे] अपरमभावे-अर्थात् श्रद्धा तथा ज्ञान-चारित्रना पूर्ण भावने नथी पहोंची शकया, साधक अवस्थामां ज-[स्थिताः] स्थित छे तेओ [व्यवहारदेशिताः] व्यवहार द्वारा उपदेश करवायोग्य छे.
टीकाः– जे पुरुषो छेल्ला पाकथी ऊतरेला शुद्ध सुवर्ण समान (वस्तुना) उत्कृष्ट भावने अनुभवे छे तेमने प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकोनी परंपराथी पच्यमान (पकाववामां आवता) अशुद्ध सुवर्ण समान जे अनुत्कृष्ट (मध्यम) भाव तेनो अनुभव नथी होतो; तेथी, शुद्धद्रव्यने कहेनार होवाथी जेणे अचलित अखंड एकस्वभावरूप एक भाव प्रगट कर्यो छे एवो शुद्धनय ज, सौथी उपरनी एक प्रतिवर्णिका (सुवर्णना वर्ण) समान होवाथी, जाणेलो प्रयोजनवान छे. परंतु जे पुरुषो प्रथम, द्वितीय आदि अनेक
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पाकोनी परंपराथी पच्यमान अशुद्ध सुवर्ण समान जे (वस्तुनो) अनुत्कृष्ट (मध्यम) भाव तेने अनुभवे छे तेमने छेल्ला पाकथी ऊतरेला शुद्ध सुवर्ण समान उत्कृष्ट भावनो अनुभव नथी होतो; तेथी, अशुद्ध द्रव्यने कहेनार होवाथी जेणे जुदा जुदा एक एक भावस्वरूप अनेक भावो देखाडया छे एवो व्यवहारनय, विचित्र (अनेक) वर्णमाळा समान होवाथी, जाणेलो ते काळे प्रयोजनवान छे. ए रीते पोतपोताना समयमां बन्ने नयो कार्यकारी छे; कारण के तीर्थ अने तीर्थना फळनी एवी ज व्यवस्थिति छे. (जेनाथी तराय ते तीर्थं छे; एवो व्यवहारधर्म छे. पार थवुं ते व्यवहारधर्मनुं फळ छे; अथवा पोताना स्वरूपने पामवुं ते तीर्थफळ छे.) बीजी जग्याए पण कह्युं छे केः-
[अर्थः– आचार्य कहे छे के हे भव्य जीवो! जो तमे जिनमतने प्रवर्ताववा चाहता हो तो व्यवहार अने निश्चय-ए बन्ने नयोने न छोडो; कारण के व्यवहारनय विना तो तीर्थ-व्यवहारमार्गनो नाथ थई जशे अने निश्चयनय विना तत्त्व (वस्तु) नो नाश थई जशे.]
भावार्थः– लोकमां सोनाना सोळ वाल प्रसिद्ध छे. पंदर-वला सुधी तेमां चूरी आदि परसंयोगनी कालिमा रहे छे तेथी अशुद्ध कहेवाय छे; अने ताप देतां देतां छेल्ला तापथी ऊतरे त्यारे सोळ-वलुं शुद्ध सुवर्ण कहेवाय छे. जे जीवोने सोळ-वला सोनानुं ज्ञान, श्रद्धान तथा प्राप्ति थई तेमने पंदर-वला सुधीनुं कांई प्रयोजनवान नथी अने जेमने सोळ-वला शुद्ध सोनानी प्राप्ति नथी थई तेमने त्यां सुधी पंदर- वला सुधीनुं पण प्रयोजनवान छे. एवी रीते आ जीव नामनो पदार्थ छे ते पुद्गलना संयोगथी अशुद्ध अनेकरूप थई रह्यो छे. तेना, सर्व परद्रव्योथी भिन्न, एक ज्ञायकपणामात्रनुं ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्ति-ए त्रणे जेमने थई गयां तेमने तो पुद्गलसंयोगजनित अनेकरूपणाने कहेनारो अशुद्धनय कांई प्रयोजनवान (कोई मतलबनो) नथी; पण ज्यां सुधी शुद्ध भावनी प्राप्ति नथी थई त्यां सुधी जेटलुं अशुद्धनयनुं कथन छे तेटलुं यथापदवी प्रयोजनवाळुं छे. ज्यां सुधी यथार्थ ज्ञान-श्रद्धाननी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शननी प्राप्ति न थइ होय त्यां सुधी तो जेमनाथी यथार्थ उपदेश मळे छे एवां जिनवचनोनुं सांभळवुं, धारण करवुं तथा जिनवचनोने कहेनारा श्री जिन-गुरुनी भक्ति, जिनबिंबना दर्शन ईत्यादि व्यवहारमार्गमां प्रवृत्त थवुं प्रयोजनवान छे; अने जेमने श्रद्धान-ज्ञान तो थयां छे पण
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जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः।
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै–
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव।। ४।।
_________________________________________________________________ साक्षात् प्राप्ति नथी थई तेमने पूर्वकथित कार्य, परद्रव्यनुं आलंबन छोडवारूप अणुव्रतमहाव्रतनुं ग्रहण, समिति, गुप्ति, पंच परमेष्ठीना ध्यानरूप प्रवर्तन, ए प्रमाणे प्रवर्तनाराओनी संगति करवी अने विशेष जाणवा माटे शास्त्रोनो अभ्यास करवो ईत्यादि व्यवहारमार्गमां पोते प्रवर्तवुं अने बीजाने प्रवर्ताववुं-एवो व्यवहारनयनो उपदेश अंगीकार करवो प्रयोजनवान छे. *व्यवहारनयने कथंचित् असत्यार्थ कहेवामां आव्यो छे; पण जो कोई तेने सर्व असत्यार्थ जाणी छोडी दे तो शुभोपयोगरूप व्यवहार छोडे अने शुद्धोपयोगनी साक्षात् प्राप्ति तो थई नथी, तेथी उलटो अशुभोपयोगमां ज आवी, भ्रष्ट थई, गमे तेम स्वेच्छारूप प्रवर्ते तो नरकादि गति तथा परंपरा निगोदने प्राप्त थई संसारमां ज भ्रमण करे. माटे शुद्धनयनो विषय जे साक्षात् शुद्ध आत्मा तेनी प्राप्ति ज्यां सुधी न थाय त्यां सुधी व्यवहार पण प्रयोजनवान छे-एवो स्याद्वादमतमां श्री गुरुओनो उपदेश छे.
ए अर्थनुं कलशरूप काव्य टीकाकार कहे छेः-
श्लोकार्थः– [उभय नच–विरोध–ध्वंसिनि] निश्चय अने व्यवहार ए बे नयोने विषयना भेदथी परस्पर विरोध छे; ए विरोधने नाश करनारुं [स्यात्–पद अंके] ‘स्यात्’ पदथी चिह्नित [जिनवचसि] जे जिन भगवाननुं वचन (वाणी) तेमां [ये रमन्ते] जे पुरुषो रमे छे (-प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करे छे) [ते] ते पुरुषो [स्वयं] पोतानी मेळे (अन्य कारण विना) [वान्तमोहाः] मिथ्यात्वकर्मना उदयनुं वमन करीने [उच्चः परं ज्योत्तिः समयसारं] आ अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्माने [सपदि] तुरंत [ईक्षन्ते एव] देखे ज छे. केवो छे समयसाररूप शुद्ध आत्मा? [अनवम्] नवीन _________________________________________________________________ *व्यवहारनयना उपदेशथी एम न समजवुं के आत्मा परद्रव्यनी क्रिया करी शके छे, पण एम समजवुं
के आत्मा शुभ भावो करवाथी शुद्धताने पामे छे, परंतु एम समजवुं के साधक दशामां भूमिका
अनुसार शुभ भावो आव्या विना रहेता नथी.
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मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः।
तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किञ्चित।। ५।।
__________________________________________________________________ उत्पन्न थयो नथी, पहेलां कर्मथी आच्छादित हतो ते प्रगट व्यक्तिरूप थई गयो छे. वळी केवो छे? [अनय–पक्ष–अक्षुप्णम्] सर्वथा एकांतरूप कुनयना पक्षथी खंडित थतो नथी, निर्बाध छे.
भावार्थः– जिनवचन (वाणी) स्याद्वादरूप छे. ज्यां बे नयोने विषयनो विरोध छे-जेम केः जे सत्रूप होय ते असत्-रूप न होय, एक होय ते अनेक न होय, नित्य होय ते अनित्य न होय, भेदरूप होय ते अभेदरूप न होय, शुद्ध होय ते अशुद्ध न होय ईत्यादि नयोना विषयोमां विरोध छे-त्यां जिनवचन कथंचित् विवक्षाथी सत्-असत्रूप, एक-अनेकरूप, नित्य-अनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध- अशुद्धरूप जे रीते विद्यमान वस्तु छे ते रीते कहीने विरोध मटाडी दे छे, जूठी कल्पना करतुं नथी. ते जिनवचन द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक-ए बे नयोमां, प्रयोजनवश शुद्धद्रव्यार्थिक नयने मुख्य करीने तेने निश्चय कहे छे अने अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिकनयने गौण करी तेने व्यवहार कहे छे.-आवा जिनवचनमां जे पुरुष रमण करे छे ते आ शुद्ध आत्माने यथार्थ पामे छे; अन्य सर्वथा -एकांती सांख्यादिक ए आत्माने पामता नथी, कारण के वस्तु सर्वथा एकांत पक्षनो विषय नथी तोपण तेओ एक ज धर्मने ग्रहण करी वस्तुनी असत्य कल्पना करे छे-जे असत्यार्थ छे, बाधा सहित मिथ्याद्रष्टि छे. ४.
आ रीते बार गाथाओमां पीठिका (भूमिका) छे.
हवे आचार्य शुद्धनयने प्रधान करी निश्चय सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे छे. अशुद्धनयनी (व्यवहारनयनी) प्रधानतामां जीवादि तत्त्वोना श्रद्धानने सम्यक्त्व कह्युं छे तो अहीं ए जीवादि तत्त्वोने शुद्धनय वडे जाणवाथी सम्यक्त्व थाय छे एम कहे छे. त्यां टीकाकार एनी सूचनारूपे त्रण श्लोक कहे छे; तेमां पहेलां श्लोकमां एम कहे छे के व्यवहारनयने कथंचित् प्रयोजनवान कह्यो तोपण ते कांई वस्तुभूत नथीः-