Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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(शार्दूलविक्रीडित)

एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णंज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्।
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः।।
६।।

__________________________________________________________________

श्लोकार्थः– [व्यवहरण–नयः] जे व्यवहारनय छे ते [यद्यपि] जो के [इह प्राक्–पदव्यां] आ पहेली पदवीमां (ज्यां सुधी शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति न थई होय त्यां सुधी) [निहित–पदानां] जेमणे पोतानो पग मांडेलो छे एवा पुरुषोने, [हन्त] अरेरे! [हस्तावलम्बः स्यात्] हस्तावलंब तुल्य कह्यो छे, [तद्–अपि] तोपण [चित्–चमत्कार–मात्रं पर–विरहितं परमं अर्थ अन्तः पश्यतां] जे पुरुषो चैतन्यचमत्कारमात्र परद्रव्यभावोथी रहित (शुद्धनयना विषयभूत) परम ‘अर्थ’ ने अंतरंगमां अवलोके छे, तेनी श्रद्धा करे छे तथा तद्रूप लीन थई चारित्रभावने प्राप्त थाय छे. तेमने [एषः] ए व्यवहारनय [किञ्चित् न] कांईपण प्रयोजनवान नथी.

भावार्थः– शुद्ध स्वरूपनुं ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण थया बाद अशुद्धनय कांईपण प्रयोजनकारी नथी.प

हवे पछीना श्लोकमां निश्चय सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे छेः-

श्लोकार्थः– [अस्य आत्मनः] आ आत्माने [यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक दर्शनम्] अन्य द्रव्योथी जुदो देखवो (श्रद्धवो) [एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम्] ते ज नियमथी सम्यग्दर्शन छे. केवा छे आत्मा? [व्याप्तुः] पोताना गुण-पर्यायोमां व्यापनारो छे. वळी केवो छे? [शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य] शुद्धनयथी एकपणामां निश्चित करवामां आव्यो छे. वळी केवो छे? [पूर्ण–ज्ञान–घनस्य] पूर्णज्ञानघन छे. [च] वळी [तावान् अयं आत्मा] जेटलुं सम्यग्दर्शन छे तेटलो ज आ आत्मा छे. [तत्] तेथी आचार्य प्रार्थना करे छे के “[इमाम् नव–तत्त्व–सन्ततिं मुक्त्वा] नवतत्त्वनी परिपाटीने छोडी, [अयम् आत्मा एकः अस्तु नः] आ आत्मा एक ज अमने प्राप्त हो.”

भावार्थः– सर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक पोतानी अवस्थारूप गुणपर्याय- भेदोमां व्यापनारो आ आत्मा शुद्धनयथी एकपणामां निश्चित करवामां आव्यो


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--शुद्धनयथी ज्ञायकमात्र एक-आकार देखाडवामां आव्यो, तेने सर्व अन्यद्रव्यो अने अन्यद्रव्योना भावोथी न्यारो देखवो, श्रद्धवो ते नियमथी सम्यग्दर्शन छे. व्यवहारनय आत्माने अनेक भेदरूप कही सम्यग्दर्शनने अनेक भेदरूप कहे छे त्यां व्यभिचार (दोष) आवे छे, नियम रहेतो नथी. शुद्धनयनी हदे पहोंचतां व्यभिचार रहेतो नथी तेथी नियमरूप छे. केवो छे शुद्धनयनो विषयभूत आत्मा? पूर्णज्ञानघन छे -सर्व लोकालोकने जाणनार ज्ञानस्वरूप छे. एवा आत्माना श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन छे. ते कांई जुदो पदार्थ नथी-आत्माना ज परिणाम छे, तेथी आत्मा ज छे. माटे सम्यग्दर्शन छे ते आत्मा छे, अन्य नथी.

अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के नय छे ते श्रुतप्रमाणनो अंश छे तेथी शुद्धनय पण श्रुतप्रमाणनो ज अंश थयो. श्रुतप्रमाण छे ते परोक्ष प्रमाण छे कारण के वस्तुने सर्वज्ञनां आगमनां वचनथी जाणी छे; तेथी आ शुद्धनय सर्व द्रव्योथी जुदा, आत्माना सर्व पर्यायोमां व्याप्त, पूर्ण चैतन्य केवळज्ञानरूप-सर्व लोकालोकने जाणनार, असाधारण चैतन्यधर्मने परोक्ष देखाडे छे. आ व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगमने प्रमाण करी, शुद्धनये दर्शावेला पूर्ण आत्मानुं श्रद्धान करे ते श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन छे. ज्यां सुधी केवळ व्यवहारनयना विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोनुं ज श्रद्धान रहे त्यां सुधी निश्चय सम्यग्दर्शन नथी तेथी आचार्य कहे छे के ए नव तत्त्वोनी संततिने (परिपाटीने) छोडी शुद्धनयनो विषयभूत एक आत्मा ज अमने प्राप्त हो; बीजुं कांई चाहता नथी. आ वीतराग अवस्थानी प्रार्थना छे, कोई नयपक्ष नथी. जो सर्वथा नयोनो पक्षपात ज थया करे तो मिथ्यात्व ज छे.

अहीं कोई प्रश्न करे के -आत्मा चैतन्य छे एटलुं ज अनुभवमां आवे, तो एटली श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे के नहि? तेनुं समाधानः-चैतन्यमात्र तो नास्तिक सिवाय सर्व मतवाळाओ आत्माने माने छे; जो एटली ज श्रद्धाने सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे तो तो सौने सम्यक्त्व सिद्ध थई जशे. तेथी सर्वज्ञनी वाणीमां जेवुं पूर्ण आत्मानुं स्वरूप कह्युं छे तेवुं श्रद्धान थवाथी ज निश्चय सम्यक्त्व थाय छे एम समजवुं. ६.

हवे, ‘त्यार पछी शुद्धनयने आधीन, सर्व द्रव्योथी भिन्न, आत्मज्योति प्रगट थई जाय छे’ एम आ श्लोकमां टीकाकार आचार्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [अतः] त्यार बाद [शुद्धनय आयतं] शुद्धनयने आधीन [प्रत्यगज्योतिः] जे भिन्न आत्मज्योति छे [तत्] ते [चकास्ति] प्रगट थाय छे [यद्] के


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(अनुष्टुभ्)

अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्।
नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति।।
७।।

जे [नव–तत्त्व–गतत्वे–अपि] नवतत्त्वमां प्राप्त थवा छतां [एकत्वं] पोताना एकपणाने [न मुञ्चति] छोडती नथी.

भावार्थः– नवतत्त्वमां प्राप्त थयेलो आत्मा अनेकरूप देखाय छे; जो तेनुं भिन्न स्वरूप विचारवामां आवे तो ते पोतानी चैतन्य-चमत्कारमात्र ज्योतिने छोडतो नथी. ७.


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२९ २९-१२-७प ३३ २-१२-७६
३० ३०-१२-७प ३४ ३-१२-७६
३१ ३१-१२-७प ३प ४-१२-७६ अने
३२ १-१-७६ ३६ प-१-७६

ः समयसार गाथा १२ नो उपोद्धातः

गाथा ११ मां एम कह्युं के व्यवहारनय असत्यार्थ छे अने निश्चयनय सत्यार्थ छे. आ आत्मा जे वस्तु छे ते द्रव्य, गुण, पर्याय एम त्रणे मळीने आखुं सत् छे. तेमां अनंतगुणनो पिंड ते द्रव्य, गुण एटले शक्ति अने पर्याय कहेतां अवस्था. आ त्रणे थईने सत्नुं पूर्णरूप छे ए त्रण थईने एक सत्तानी अपेक्षाए बीजा पर पदार्थोने असत् कहेवामां आवे छे. बीजी रीते कहीए तो ‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तम् सत्’ तेमां उत्पाद-व्यय ते पर्याय छे, द्रव्य (अने गुण) त्रिकाळ छे. आ त्रण थईने एक सत् छे. तेनी अपेक्षाए बीजा पर पदार्थो असत् छे. आत्मा बीजामां नहीं अने बीजा पदार्थो आत्मामां नहीं ए अपेक्षाए बीजा पदार्थोने असत् कही व्यवहार कह्यो छे.

हवे अहीं एम कहे छे के- द्रव्यअनंतगुणोथी अभेद एक वस्तु छे, एवुं पर्याय विनानुं त्रिकाळी ध्रुव अखंड एक अभेद पूर्ण द्रव्य जे वस्तु ते सत् छे अने तेनी अपेक्षाए एक समयनी पर्याय ते असत् छे.

त्यारे प्रश्न एम थाय छे के पर्याय जे छे तेने असत् केम कही? तेनो खुलासो एम छे के प्रयोजनवश मुख्य-गौण करीने आम कहेवामां आव्युं छे. पर्याय पर्यायपणे तो छे; एक द्रव्यमां जेम बीजी चीज सर्वथा नथी तेम आ पर्याय सर्वथा नथी एम नथी. जेम बीजी चीज आत्मामां छे ज नहीं तेम पर्यायना स्वरूपनुं न समजवुं. पर्याय पर्यायपणे तो सत् छे. परंतु भगवान पूर्णानंद-स्वरूप जेने द्रव्य कहीए, जे अखंड एक ज्ञायकभावमात्र परमपारिणामिकस्वभावभावरूप छे तेनो आश्रय करतां सम्यग्दर्शनादि धर्म प्रगट थाय छे. धर्म प्रगट करवानुं आ प्रयोजन सिद्ध करवा त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यने मुख्य करीने तेने निश्चय कही सत्यार्थ कहेल छे. ज्यारे वर्तमान पर्यायना आश्रये सम्यग्दर्शनादि धर्म प्रगट थतो नथी, पण रागादि विकल्प थाय छे तेथी पर्यायनो आश्रय छोडाववा तेने गौण करीने व्यवहार कही असत्यार्थ कहेल छे. पर्यायने गौण करीने एटले


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के तेने पेटामां राखीने, द्रव्यमां भेळवीने नहीं; पर्याय पर्यायमां छे एम राखीने एनी मुख्यता न करतां, तळेटीमां राखीने तेने असत्यार्थ कहेवामां आवेल छे.

भगवान पूर्णानंद स्वरूप जेने द्रव्य कहीए, जेने ज्ञायक कहीए, जेने परम पारिणामिक स्वभावभाव कहीए तेने मुख्य करी निश्चय कही सत्य कहेवामां आवेल छे. आम शा माटे कह्युं? के त्रिकाळी सत्यार्थ वस्तुना आश्रये सम्यक्दर्शन प्रगट थाय छे अने बीजी कोई रीते सम्यक्दर्शन प्रगट थतुं नथी. आवा भूतार्थ, अभेद एकरूप द्रव्यमां द्रष्टि जाय-द्रष्टि प्रसरे त्यारे तेने सम्यक्दर्शन थाय छे. त्यांथी धर्मनी शरूआत थाय छे. आ तो हजु सम्यक्दर्शननी प्राप्तिनुं प्रयोजन सिद्ध करवानी वात चाले छे, चारित्र तो क्यांय रह्युं. आ कोई अलौकिक अने अपूर्व चीज छे भाई!

आ रीते पर्यायने गौण करीने गाथा ११मां कथंचित् असत्य कही तो पर्याय छे के नहीं, एनुं अस्तित्व छे के नहीं एनुं गाथा १२ मां ज्ञान करावे छे.

अनादिकाळथी जीवने मिथ्यात्वभावना कारणे रागनुं वेदन अने रागनो स्वाद हतो. तेने कोई प्रकारे द्रष्टिनो विषय जे पूर्णानंदस्वरूप भगवान आत्मा एनुं भान थतां, एनो प्रत्यक्ष अनुभव थतां सम्यग्दर्शन सहित अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो ए तो निश्चय थयो. त्यारे ते धर्मनी शरूआत थतां साधक बन्यो. आवा साधक आत्माने पूर्णशुद्धतारूप परमात्मदशा प्राप्त न थाय-स्वनो पूर्ण आश्रय न थाय त्यां सुधी पर्यायमां क्रमशः शुद्धि वधे छे, अशुद्धि घटे छे-एवुं कांई रहे छे के नहीं? आम व्यवहारनुं ११ मी गाथा पछी आ १२ मी गाथामां स्पष्ट ज्ञान करावे छे. पूर्णदशाने प्राप्त परमात्माने कांईक शुद्धता अने कांईक अशुद्धता एवुं होतुं नथी. एने तो संपूर्ण शुद्धता प्रगट थई गई छे एटले व्यवहार होतो नथी. परंतु नीचली दशामां एटले के जघन्यदशाथी-सम्यग्दर्शनथी जे आगळ चाल्यो छे, एटले के श्रद्धाथी आगळ जेने आत्म-एकाग्रता क्रमशः वधती चाली छे, पण पूर्णदशा-उत्कृष्टदशा थई नथी एवा मध्यमभावने अनुभवता साधकने शुद्धतानी साथे महाव्रत आदिना विकल्पो पण छे ते जाणेला प्रयोजनवान छे एम हवे कहे छे.

गाथा १२नी उत्थानिकाः (प्रवचन)

हवे “ए व्यवहारनय पण कोई कोईने, कोई वखते प्रयोजनवान छे, सर्वथा निषेध करवा योग्य नथी; तेथी तेनो उपदेश छे.” ११ मी गाथामां निश्चयनय आश्रय करवानी अपेक्षाए आदरेलो प्रयोजनवान कह्यो. हवे व्यवहारनय पण कोई कोईने एटले


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के जे जघन्यपूर्वक मध्यमदशामां वर्ते छे तेने साधकदशाना काळमां प्रयोजनवान छे; अर्थात् साधक-अवस्थामां शुद्धताना अंशो पूर्ण नथी अने कांईक अशुद्धता छे एने जाणेली प्रयोजनवान छे. पर्यायगत शुद्धता-अशुद्धता छे ए व्यवहार छे, एने जाणवुं के आटलुं छे एनुं नाम व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे; आदरेलो प्रयोजनवान छे एम नथी. आदरेलो प्रयोजनवान तो एकमात्र त्रिकाळी शुद्ध निश्चय ज छे. त्रिकाळी शुद्ध निश्चयनो आश्रय लईने सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने स्वरूपनी स्थिरताना अंशरूप स्वरूपाचरण थयुं. परंतु संपूर्ण निर्विकल्प वीतरागदशा प्रगट न थई होय त्यांलगी साधकदशामां साधकने महाव्रतादिना विकल्पो छे, ते व्यवहार छे. ते साधकअवस्थामां जाणेलो प्रयोजनवान छे; आ एनो सार छे. ‘व्यवहारनय पण प्रयोजनवान छे’ तेनी व्याख्या आ एक ज छे के जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो नहीं. कथनशैली गमे ते आवे पण अर्थ तो आ ज छे के त्रिकाळी निश्चय आदरेलो प्रयोजनवान छे अने आ राग जे व्यवहार छे ते जाणेलो प्रयोजनवान छे.

११मी गाथा जैनदर्शननो प्राण छे. तेनी साथे आ १२मी गाथामां व्यवहार जोडयो छे. साधकनी पर्यायमां शुद्धता साथे महाव्रतना, अणुव्रतना, भक्ति आदिना विकल्पो होय छे, ए नथी एम नहीं. ‘नथी’ एम कह्युं हतुं ए तो गौण करीने कह्युं हतुं. साधकदशामां जीवने कांईक शुद्धता अने कांईक अशुद्धता पर्यायमां छे. व्रत, भक्ति आदिनो शुभराग छे. पण ए शुभराग निश्चयनुं कारण नथी, तेम पर्यायमां राग नथी एम पण नहीं ते शुभराग आदि जाणवा योग्य छे एटलुं ज; माटे तो कहे छे के सर्वथा निषेध करवा योग्य नथी. जुओ, जेम परद्रव्य जीवमां नथी, एम राग पर्यायमां सर्वथा नथी एम तो नथी. कथंचित् नथी अने कथंचित् छे; त्रिकाळी ध्रुव द्रव्यमां नथी ते अपेक्षाए ‘नथी’ अने एने ज वर्तमाननी अपेक्षाए ‘छे’ एम कहे छे. ए ‘छे’ ते जाणेलो प्रयोजनवान छे एम कहे छे.

गाथार्थ उपरनुं प्रवचनः गाथा १२

‘परमभावदर्शिभिः’ जे शुद्धनय सुधी पहोंची श्रद्धावान थया छे तथा पूर्ण ज्ञान-चारित्रवान थई गया तेमने तो शुद्ध (आत्मा) नो उपदेश (आज्ञा) करनार शुद्धनय जाणवा योग्य छे.’ जुओ, शुद्धनयनो आश्रय (शुद्धनयना विषयनो आश्रय)तो समकितीने होय छे अहीं तो शुद्धनय (केवळज्ञान थतां) पूर्ण थइ गयो छे, तेनो आश्रय करवानो हवे रह्यो नथी ए अपेक्षाए अहीं वात करी छे. जे शुद्धनय सुधी पहोंची श्रद्धावान थया एटले के जे समकिती थया तथा पूर्णज्ञान जे केवळज्ञान तेने प्राप्त थया तथा


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चारित्रनी संपूर्ण स्थिरताने पाम्या तेमने तो शुद्धनयनो विषय जे शुद्ध आत्मा तेनो आश्रय करवानो रह्यो नहीं. तेमने तो शुद्धनय जाणवा योग्य छे एटले के एनुं फळ जे कृतकृत्यपणुं आव्युं तेनुं केवळज्ञानमां जाणपणुं थयुं. पूर्ण निर्विकल्पदशा जेने थई गई, ते तेने मात्र जाणे छे, अधूरी दशानो राग तेने नथी तेथी व्यवहार पण रहेतो नथी. एम तो निर्विकल्प ध्यानमां बे मोक्षमार्ग कह्या छे. द्रव्यसंग्रह गाथा ४७मां आवे छे- दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णिमया” त्रिकाळी ध्रुवना आश्रये जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र थाय ए निश्चय मोक्षमार्ग अने अंदरमां निर्विकल्प ध्यानमां बुद्धिपूर्वक राग तो नथी पण जे अबुद्धिपूर्वक राग कह्यो छे. एने आरोपित करी व्यवहार मोक्षमार्ग कह्यो. आम निर्विकल्प ध्यानमां मुनिराजने एकलो निश्चय छे अने व्यवहार नथी एम तो नथी. त्यां व्यवहार पण कह्यो छे अहीं तो ध्याननुं फळ जे संपूर्ण निर्विकल्पता थई छे एवा केवळज्ञानीने व्यवहार रहेतो नथी; केमके पूर्ण दशामां कोई राग रहेतो नथी पण संपूर्ण वीतरागता छे. जे पूर्ण दशा थई एने मात्र जाणे छे. ‘वळी जे जीवो अपरमभावे स्थित छे-अर्थात् श्रद्धा तथा ज्ञान-चारित्रना पूर्ण भावने नथी पहोंची शक्या, साधक अवस्थामां ज स्थित छे, तेओ व्यवहार द्वारा उपदेश करवा योग्य छे.’ सम्यग्दर्शन थयुं छे, पण सम्यग्ज्ञान-चारित्र पूर्ण थयां नथी, सर्वज्ञतानी प्रतीति थई छे पण सर्वज्ञपद प्रगट थयुं नथी एवी साधकदशामां जे स्थित छे तेओ व्यवहारदेशिताः एटले व्यवहार द्वारा उपदेश करवा योग्य छे. शब्द तो छे व्यवहारदेशिताः, पण एनो वाच्यार्थ तो एम छे के ते काळे जेटलो कांई व्यवहार छे ते जाणवा योग्य छे. प्रतिसमय साधकने शुद्धता वधे छे, अशुद्धता घटे छे. जे जे समयनी, जेटली शुद्धता-अशुद्धता छे तेने जेम छे तेम ते ते समये जाणवी ते प्रयोजनवान छे. आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरनो मार्ग छे, भाई! आ कांई कथा-वार्ता नथी. दिगंबर संतो तो केवळीना केडायतो छे. केवळीना पेट खोलीने वात करी छे. जुओ, आ मुनिओ आनंदमां मस्त छे. ते दशामां विकल्प ऊठे छे अने शास्त्र शास्त्रना कारणे लखाई जाय छे. त्यारे कहे छे के शास्त्र लखवानो विकल्प तो छे के नहीं? पूर्णता तो आ काळे नथी, तेथी विकल्प छे. अनेक प्रकारना विकल्पना अंशो आवे छे. ते (विकल्पो) पाठमां तो एम छे के व्यवहारदेसिदा एटले के उपदेश करवा योग्य छे. पण एनो आशय एम नथी. आ तो कथनशैली छे. एनो अर्थ तो पर्यायमां शुद्धता साथे जे कांईक अशुद्धता पण छे तेने जाणवी ते प्रयोजनवान छे. शुं कह्युं? जाणवुं ते प्रयोजनवान छे. जाणीने शुं करवुं? अशुद्धता छोडवा योग्य हेय छे एम जाणी त्रिकाळी ध्रुवने उपादेय करी हेय


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(राग) ने छोडवुं. व्यवहारनय अने व्यवहारनयनो विषय छे, ते जे ते काळे साधकदशामां जाणे तो प्रयोजनवान छे; उपादेय तो मात्र शुद्ध निश्चय ज छे.

वस्तु जे अखंड एक ज्ञायकभाव छे ते परिपूर्ण छे, कृतकृत्य छे. एने करवानुं कांई छे नहीं. पण एनी द्रष्टि करनार साधकने ज्यांसुधी पर्यायमां कृतकृत्य पूर्णदशा प्रगट न थाय त्यांसुधी स्थिरता करवानी छे अने अस्थिरता छोडवानी छे. आ एने करवानुं छे माटे तेने व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे-एम कहेवा मागे छे. ज्ञायकनी द्रष्टिपूर्वक पर्यायमां परिपूर्ण कृतकृत्य थई गयेल परमात्माने स्थिरता वधारवानुं अने अस्थिरता मटाडवानुं एवुं कांई रहेतुं नथी माटे तेमने व्यवहार होतो नथी.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

लोकमां सोळ-वलुं सोनुं प्रसिद्ध छे. सोनुं ज्यांसुधी चौद-वलुं के पंदर-वलुं होय छे त्यांसुधी तेमां चुरी आदि मलिनता अर्थात् अशुद्धता होय छे. तेवा अशुद्ध सोनाने अग्निनी आंच आपतां आपतां क्रमे क्रमे शुद्ध थई संपूर्ण सोळ-वलुं शुद्ध थई जाय छे. जेमने छेल्ला पाकथी ऊतरेलुं सोळ-वलुं सोनुं प्राप्त थई गयुं छे एमने तो चौद-वलुं, पंदर-वलुं आदि अशुद्ध दशाओ जाणवा जेवी रही नथी; पण जेमने सोळ-वला सोनानुं प्रयोजन छे, पण हजु प्राप्त थयुं नथी तेमने सोनानी चौद-वला अने पंदर- वलानी दशाओ जाणवी प्रयोजनभूत छे. सोळ-वलुं सोनुं प्राप्त थई गया पछी तेनाथी नीचेनी दशाओ जाणवानी रहेती नथी.

ए प्रमाणे जे जीवने केवळज्ञाननी पूर्ण दशा प्राप्त थई गई छे एने तो त्रिकाळी स्वभावनो आश्रय करवानो रह्यो नथी, कारण के तेने शुद्धनय पूर्ण थई गयो छे. आस्रव अधिकारमां आवे छे के केवळज्ञान प्रगट थतां शुद्धनय पूर्ण थई जाय छे. तेथी जेणे पर्यायमां उत्कृष्ट अचलित अखंड एकस्वभावरूप एक भाव प्रगट कर्यो छे अर्थात् पर्यायमां जेणे पूर्णदशा प्रगट करी छे तेने तो शुद्धनय ज सौथी उपरनी एक भूमिका समान होवाथी पूर्ण छे; अने ते जाणेलो प्रयोजनवान छे. अहीं जाणेलो प्रयोजनवान छे एटले जे पूर्णदशा प्रगट थई गई तेने बस जाणे छे. एक बाजु एम कहे छे के केवळज्ञाननी पर्याय पण सद्भूत व्यवहार छे, अने अहीं एम कह्युं के केवळज्ञान थतां शुद्धनय पूर्ण थई गयो? ए तो केवळज्ञान थतां शुद्धनयनो आश्रय लेवानो बाकी रह्यो नहीं ए अपेक्षाए कथन छे. ज्यां जे अपेक्षाथी कथन कर्युं होय ते अपेक्षा बराबर समजवी जोईए.


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हवे कहे छे- परंतु जे पुरुषो प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकोनी परंपराथी पच्यमान अशुद्ध सुवर्ण समान अनुत्कृष्ट मध्यमभावने अनुभवे छे-एटले के जेओने निज शुद्धात्मानी द्रष्टिपूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं छे, कांईक चारित्र पण प्रगट थयुं छे, पण पूर्ण चारित्र तथा केवळज्ञान नथी तेथी मध्यमभाव वर्ते छे-एवा पुरुषोने अशुद्ध द्रव्यने कहेनारो होवाथी जेणे जुदा जुदा एक एक भावस्वरूप अनेक भावो देखाडया छे एवो व्यवहारनय ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे. अहीं द्रव्यने अशुद्ध कह्युं एनो आशय एम छे के (१) पर्यायमां पूर्ण शुद्धता नथी तेथी रागादि अशुद्धता पण छे अने (२) पर्यायगत अशुद्धता स्वयं द्रव्यनी छे, परने लईने अशुद्धता के शुद्धता थई छे एम नथी. जुदा जुदा एक एक भावस्वरूप अनेक भावो देखाडया छे एटले पहेला समये जे शुद्धि प्रगटी ते करतां बीजा समये विशेष, त्रीजा समये एनाथीय विशेष एम वधती जाय छे अने साथे साथे अशुद्धि प्रतिसमय क्रमशः घटती जाय छे. आ प्रमाणे शुद्धता-अशुद्धताना अंशो अनेक प्रकारना छे ए देखाडनार व्यवहार ते ते काळे साधकदशामां जाणेलो प्रयोजनवान छे.

द्रष्टिनो विषय जे आत्मा त्रिकाळ ध्रुव एकरूप शुद्ध छे ते निश्चय छे, सत्यार्थ छे. तेनी अपेक्षाए पर्यायने गौण करीने व्यवहार कहीने गाथा ११मां असत्यार्थ कही छे. परंतु अहीं तेनुं अस्तिपणुं स्थापे छे. व्यवहारनयथी द्रष्टिए व्यवहारनय अने एनो विषय छे. एटले शुं? जेम अशुद्ध सोनाने अग्निनी आंच आपतां सोनुं संपूर्ण सोळवलुं शुद्ध न थाय त्यां सुधी अनेक रंगभेद उत्पन्न थाय छे, तेम आत्मामां पूर्ण वीतरागता प्रगट न थाय त्यां सुधी तेनी अवस्थाओ जे भिन्न भिन्न शुद्धता- अशुद्धताना अंशो सहित होय छे-ते व्यवहार छे ते जाणवा योग्य छे, आदरवा योग्य नहीं. त्रिकाळी शुद्ध निश्चय ए एक ज आदरणीय छे. बन्ने आदरणीय होय तो बे नय न थाय. तेथी त्रिकाळी ध्रुव सत्स्वरूप ए आदरणीय छे एम जाणवुं अने व्यवहारनय हेय छे एम जाणवुं ए प्रयोजनवान छे.

भाई! आ तो अंतरनो मार्ग ऊंडा रहस्यथी भरेलो छे. एने समजवा माटे घणी पात्रता अने होंश केळववी जोईए. नियमसारमां कह्युं छे के संवर, निर्जरा, मोक्षनी पर्याय एक समयनी छे, नाशवान छे, तेथी हेय छे. पण अहीं तो एम कह्युं के पर्याय भले नाशवान अने हेय छे, पण ए जाणवा लायक छे. ए व्यवहारनयनो विषय छे. नय छे तो एनो विषय पण छे. निश्चयना काळमां निश्चयने उपादेय जाणवो एटले के द्रव्यने अभेद अनुभववुं ते कार्यकारी छे. तेम व्यवहारना काळमां व्यवहारने हेयपणे जाणवो ए प्रयोजनभूतछे. आ प्रमाणे बन्ने नयो कार्यकारी समजवा.


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हवे एनुं कारण आपे छे-के तीर्थ अने तीर्थना फळनी एवी ज व्यवस्थिति छे. जेनाथी तराय ए तीर्थ छे. अंतरमां मोक्षमार्गनी पर्याय छे ते तीर्थ छे केमके एनाथी तराय छे. त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकभावनी द्रष्टि, ज्ञान अने रमणतास्वरूप जे रत्नत्रयनी पर्याय ए तीर्थ छे. एनाथी संसार तराय छे. रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गनी जे निर्मळ पर्याय ते व्यवहार छे. ए पर्याय छे ने? तेथी तेने व्यवहारधर्म कह्यो छे. शुभराग ए व्यवहारधर्म ए वात अहीं नथी. त्रिकाळी द्रव्य जे निष्क्रिय छे ते निश्चय. तेनी अपेक्षाए मोक्षमार्गनी निर्मळ पर्याय ते व्यवहार छे. द्रव्य ते निश्चयनयनो विषय अने पर्याय ते व्यवहारनयनो विषय छे. कहे छे के जो व्यवहारनय न होय तो तेना विषयभूत तीर्थ अने तीर्थनुं फळ क्यां गयुं? पर्याय क्यां गई? तेथी मोक्षनो मार्ग ते तीर्थ छे, पार थवुं ते तीर्थनुं फळ छे. पूर्ण केवळज्ञान पामवुं ए मोक्षमार्गनुं फळ छे. केवळज्ञान पण पर्याय छे ने? पर्यायने न मानो तो मोक्षमार्ग रहेतो नथी, अने मोक्षमार्गनुं फळ जे केवळज्ञान अने सिद्धपद ते पण रहेतां नथी, केमके ए पर्याय छे. पर्याय छे ते व्यवहार छे. माटे तीर्थ अने तीर्थफळनी एवी ज व्यवस्थिति छे ते यथार्थ जाणवी. व्यवहारधर्म ते तरवानो उपाय छे तेथी कोई अहीं एम कहे के पुण्यभाव जे शुभराग ते वडे तराय छे तो तेनी वात जूठी छे. शुभराग ए तो बंधनुं कारण छे, ए तो असद्भूत व्यवहार छे. अहीं तो सद्भूत व्यवहारनी वात छे. त्रिकाळी ज्ञायकभावनो आश्रय लईने जे निर्मळ पर्याय प्रगटे ते सद्भूतव्यवहार छे, ते मोक्षमार्ग छे, अने तेनुं फळ जे केवळज्ञान ए सद्भूत पूर्णदशा थई ते छे. बीजी जग्याए कह्युं केः- जइ जिणमयं एवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह।

एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।।

आचार्य कहे छे के हे भव्य जीवो! जो तमे जिनमतने प्रवर्ताववा चाहता हो तो व्यवहार अने निश्चय- ए बन्ने नयोने न छोडो; कारण के व्यवहारनय विना तो तीर्थं-व्यवहारमार्गनो नाश थई जशे अने निश्चयनय विना तत्त्व (वस्तु) नो नाश थई जशे. जिनमतने एटले के वीतराग अभिप्रायने प्रवर्ताववा ईच्छता हो तो व्यवहार अने निश्चय बन्ने नयोने न छोडो. व्यवहार नथी एम न कहो. व्यवहार छे. पण त्यां (गाथा ११मां) असत्य कह्यो हतो ने? ए तो त्रिकाळ ध्रुव निश्चयनी विवक्षामां गौण करीने असत्य कह्यो हतो. बाकी व्यवहार छे, मोक्षनो मार्ग छे. व्यवहारनय न मानो तो तीर्थनो


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नाश थई जशे. चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं आदि चौद गुणस्थानो जे व्यवहारनयना विषय छे, ते छे मोक्षनो उपाय जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे ते (व्यवहार) छे. चौद गुणस्थान द्रव्यमां नथी, पण पर्यायमां नथी एम जो कहो तो तीर्थनो नाश थई जशे. अने तेथी तीर्थनुं फळ जे मोक्ष अने सिद्धपद तेनो पण अभाव थई जशे. एम थतां जीवना संसारी अने सिद्ध एवा जे बे भाग पडे छे ए व्यवहार पण रहेशे नही.

बहु गंभीर अर्थ छे, भाई! भाषा तो जुओ. अहीं मोक्षमार्गनी पर्यायने तीर्थ कह्युं अने वस्तु जे छे तेने तत्त्व कह्युं छे. त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यघन जे वस्तु ते निश्चय छे. ते वस्तुने जो न मानो तो तत्त्वनो नाश थई जशे. अने तत्त्वना अभावमां, तत्त्वना आश्रये उत्पन्न थतुं जे मोक्षमार्गरूप तीर्थ ते पण रहेशे नही. आम निश्चय वस्तुने न मानतां तत्त्वनो अने तीर्थनो बन्नेनो नाश थई जशे माटे वस्तुस्वरूप जेवुं छे तेवुं यथार्थ मानवुं.

ज्यांसुधी पूर्णता थई नथी त्यांसुधी निश्चय अने व्यवहार बन्ने होय छे. पूर्णता थई गई एटले पोते पोतमां पूर्ण स्थिर थई गयो त्यां सघळुं प्रयोजन सिद्ध थई गयुं प्रमाण थई गयुं, तीर्थफळ आवी गयुं.

भाई! अशुभथी बचाव शुभराग आवे खरो, पण ए कांई मूळमार्ग एटले के मोक्षमार्ग नथी. त्यारे कोई शुभराग अने तेनां निमित्त अरहंतादिने मूळथी उडाडे तो एम पण नथी. प्रतिमा, मंदिर, वगेरे छे पण ए शुभरागनां निमित्त छे, एनो आश्रय करतां धर्म नथी. धर्म तो एकमात्र त्रिकाळी चैतन्यभगवान पूर्णानंदना आश्रय विना बीजी कोई रीते न थाय. वस्तु तो अखंड पूर्ण कृतकृत्य छे. करवुं ए पर्यायमां आव्युं. मोक्षमार्ग करवो छे, थाय छे, ए व्यवहार थयो.

* भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

लोकमां सोळवलुं सोनुं प्रसिद्ध छे; पंदरवला सुधी सोनामां चुरी, तांबानो भाग वगेरे रहे छे. ए सोनाने ताप आपतां पूर्ण शुद्ध थई जाय एने सोळवलुं सोनुं कहे छे. पंदरवला सुधी सोनुं अशुद्ध छे. जे जीवोने सोनानां पूर्ण ज्ञान, श्रद्धान अने प्राप्ति थई गयां तेमने पंदरवलानुं कांई प्रयोजन नथी. पूर्ण शुद्ध थई गयुं ने? अने जेमने सोळवला शुद्ध सोनानी प्राप्ति थई नथी त्यांसुधी तेमने पंदरवला सुधीनुं सोनुं जाणवा जेवुं छे. ए जाणवुं प्रयोजनभूत छे.

एवी रीते जीव नामनो पदार्थ छे ते पुद्गलना संयोगथी पर्यायमां अशुद्ध अनेकरूप थई रह्यो छे. त्यां जेमने सर्व परद्रव्योथी भिन्न ज्ञायकभावमात्र जे चैतन्यसूर्य


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पूर्णस्वरूप छे तेनां श्रद्धा, ज्ञान अने आचरणरूप प्राप्ति थईने पूर्णदशा प्राप्त थई गई छे एमने तो पुद्गलसंयोगजनित अनेकरूपपणाने कहेनारो अशुद्धनय कांई प्रयोजननो के मतलबनो नथी, केमके अशुद्धता छे ज नही. पण ज्यांसुधी पूर्ण शुद्ध स्वभावनी प्राप्ति थई नथी त्यांसुधी जेटलुं अशुद्धनयनुं कथन छे तेटलुं यथापदवी जाणवा माटे प्रयोजनवान छे. केटलाक लोको आमांथी एम अर्थ काढे छे के १२मी गाथामां व्यवहार करवो एम कह्युं छे. पण खरेखर एम छे ज नहीं. अहीं तो जणाव्युं छे के ए काळे आवो व्यवहार होय छे. सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थई छे, पण पूर्णदशा थई नथी एने आवो व्यवहार वच्चे आव्या विना रहेतो नथी.

ज्यांसुधी यथार्थ ज्ञान-श्रद्धाननी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थई न होय त्यांसुधी तो जेनाथी यथार्थ उपदेश मळे छे एवां जिनवचनो सांभळवां. आवो भाव सम्यग्दर्शन थवा पहेलां होय छे एनी वात छे. अहीं ‘यथार्थ उपदेश एना’ पर वजन छे. आम ज्यां त्यांथी कहे छे के दान करो, व्रत करो, तो समकित थशे अने धर्म थशे तो ए जिनवचन नथी, यथार्थ उपदेश नथी. आ उपदेश सांभळवा लायक नथी. जेमां सम्यग्दर्शनादि वीतरागतानुं प्रयोजन प्रगट होय ते यथार्थ उपदेश छे. पंचास्तिकायमां शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे एम कह्युं छे. तथा आत्मावलोकन शास्त्रमां आवे छे के- मुनिओ वारंवार (मुहुर्मुहुः) वीतरागभावनो उपदेश आपे छे. एटले निमित्त, राग अने पर्यायथी लक्ष फेरवी त्रिकाळी ज्ञायकभावनुं लक्ष करो जेथी सम्यग्दर्शनादि वीतरागतारूप धर्म थाय. आवो उपदेश ते यथार्थ उपदेश छे, केमके वीतरागभाव एकमात्र स्वद्रव्यना ज आश्रये थाय छे.

वळी जेमनाथी उपदेश मळे एम न कहेतां जेमनाथी यथार्थ उपदेश मळे एम भाषा वापरी छे. एमां पण भाव छे. अहीं उपदेश संभळावनार गुरु पण वीतरागी सत्पुरुष ज होवा जोईए. ज्यां त्यां माथां फोडे तो मिथ्यात्वनी ज पुष्टि थाय छे. तेथी यथार्थ उपदेशदातानो पण निर्णय करवानी जवाबदारी छे. जे सत्पुरुषना वचनो वीतरागतानी पुष्टि करे तेमनां ज वचनो सांभळवा योग्य छे. एवा सत्पुरुष पण शोधी काढवा पडशे. श्रीमदे कह्युं छे ने के ‘सत्पुरुषने शोध’. उपदेश अने उपदेशक बन्ने वीतरागतानां पोषक होवां जोईए. जुओ, निमित्त पण यथायोग्य होय छे. वीतरागनां वचनो तो एवां होय छे के ते एकदम आत्मानो आश्रय करावी परनो आश्रय छोडावे छे.

जिनवचनो सांभळवां, गुरुनां वचनो सांभळवां ए छे तो शुभ विकल्प. पण जे ते काळे आवो विकल्प होय छे. अहीं सम्यग्दर्शन पामवा माटे जिनवचन सांभळवुं एम


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कह्युं, पण ते सांभळवामात्रथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे एम नथी. ११ मी गाथामां एम कह्युं के भूतार्थना आश्रये एटले त्रिकाळी ध्रुव निज ज्ञायकभावना आश्रये सम्यग्दर्शनादि धर्म थाय छे, सांभळवाथी नहीं, निमित्तथी नहीं. अरेरे! क्षणे क्षणे निमित्तना अने रागना प्रेममां आ अनाकुळस्वभावी आत्मानो आनंद लूंटाई जाय छे!

मोक्षमार्गप्रकाशकना आठमा अधिकारमां आवे छे के -‘हवे मिथ्याद्रष्टि जीवोनेे मोक्षमार्गनो उपदेश आपी तेमनो उपकार करवो ए ज उत्तम उपकार छे श्री तीर्थंकरगणधरादि पण एवो ज उपकार करे छे, माटे आ शास्त्रमां पण तेमना ज उपदेशानुसार उपदेश आपीए छीए.’ एक बाजु एम कहे के कोई, कोई अन्यनो उपकार करी शकतुं नथी अने अहीं मोक्षमार्गनो उपदेश आपी उपकार करवानुं कह्युं छे ते केवी रीते छे? अरे भाई! आ तो निमित्तनी अपेक्षाथी कथन छे. ज्यारे यथायोग्य निमित्तनुं ज्ञान कराववुं होय त्यारे आवा कथनो आवे छे. जेम हरणनी नाभिमां कस्तुरी छे एनी एने किंमत नथी. एम भगवान आत्मा आनंदनुं दळ छे. पोताना अनंत सामर्थ्यनी अज्ञानीने किंमत नथी. एनी शक्तिओ एटले गुणो-ज्ञान, दर्शन, आनंद, शांति, स्वच्छता वगेरे छे. आ शक्तिओनुं माप नथी. जे स्वभाव होय एनुं माप शुं? अमाप ज्ञान, अमाप दर्शन, अमाप स्वच्छता एम अनंत शक्तिओ भरेली छे. पोते पूर्ण ईश्वर छे. आवो भगवान पूर्ण आनंदस्वरूप छे. एमां जाने! एमां प्रवेशी ऊंडो ऊतरी जाने! सम्यग्दर्शन पामता पहेलां आवो एनो व्यवहार (भाव) होय छे. निश्चय प्रगटे तेने ए व्यवहार कहेवाय छे, अन्यथा नहीं. त्रिकाळी, ध्रुव द्रव्यना आश्रये धर्म प्रगट थाय छे एवां जिनवचन ते सांभळे छे. सांभळवाथी समकित थाय एम नहीं पण समकितसन्मुख जीवने आवा ज जिनवचनना उपदेशनुं निमित्त होय छे. अहा! जीव पोते मिथ्याश्रद्धान वडे अनंत अनंत जन्म मरण करी अनादिथी संसारमां परिभ्रमण करी कह्यो छे. कषायनी मंदताथी धर्म थाय, निमित्त सारुं होय तो पोतानुं कार्य थाय, ज्ञाननो क्षयोपशम विशेष होय तो आत्मदर्शन थाय वगेरे अनेक शल्यो संसार वधवाना कारण छे. ए सघळा मिथ्याश्रद्धानने दूर करी जन्म-मरणनो अंत करावनारां जिनवचनो ते जेमनाथी यथार्थ उपदेश मळे तेमनी पासे बराबर सांभळे छे.

आगळ कळश ४ मां आवे छे के -‘जिनवचसि रमन्ते,’ आवो अर्थ कळश टीकाकारे कर्यो छे के- भाई! वाणी तो जड पुद्गल छे. ते जडमां रमवुं ते शुं? तो जिनवचनमां तो भगवान पूर्णानंदनो नाथ त्रिकाळी शुद्ध जीव वस्तु उपादेय कही छे तेने


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पकडीने रमे एटले तेमां एकाग्रता करे एम वात कही छे. पर्याय, राग के निमित्त ते उपादेय नथी. वळी जिनवचनो तो निश्चय अने व्यवहार बन्ने छे. बन्ने मां रमवुं ते शुं? तो कहे छे बंने उपादेय होई शके ज नही. पण दिव्यध्वनि ए जे शुद्ध जीव वस्तुने उपादेय कही छे तेमां सावधानपणे रुचि-श्रद्धा-प्रतीति करे-प्रत्यक्ष अनुभव करे तेने जिनवचनमां रमवुं कहे छे.

वळी केवुं छे जिनवचन? तो निश्चय अने व्यवहार बंनेना विरोधने मटाडनारुं छे. निश्चय अने व्यवहार बन्ने जिनवचनो छे. परंतु निश्चय अने व्यवहारने परस्पर विषयनो विरोध छे. तथा निश्चयनुं फळ मोक्ष अने व्यवहारनुं फळ संसार छे. हस्तावलंब जाणी जिनवचनमां व्यवहारनो घणो उपदेश छे, पण तेनुं फळ संसार कह्युं छे. तो बंनेमां रमे शी रीते? जिनवचनमां प्रयोजनवश व्यवहारने गौण करी तथा निश्चयने मुख्य करी शुद्ध जीव वस्तु उपादेय कही छे. ते एकमां ज एकाग्र थवुं एने रमवुं एम कह्युं छे अने ते ज यथार्थ उपदेश छे.

हवे कहे छे-ए जिनवचनो सांभळीने धारण करवां, धारी राखवां, एक कानथी सांभळी बीजा काने काढी नाखवां एम नहीं. १४मी गाथामां आवे छे के आत्मा अबद्ध, अस्पृष्ट, आदि पांच भाववाळो छे; त्यां शिष्य पूछे छे के -‘आ अबद्ध, अस्पृष्ट आदि भाववाळा आत्मानो अनुभव केम थई शके? आनो अर्थ एम के शिष्ये प्रथम धारी राख्युं हतुं के आत्मा अबद्ध अपृस्ष्ट आदि स्वभाववाळो छे तथा एने ओळखी अनुभव करतां जिनशासन छे. तेथी तो एने प्रश्न थयो के आवा आत्मानो अनुभव केम थई शके? त्यां आचार्येखुलासो कर्यो छे के भाई! राग छे, पुण्य छे, पर्याय छे. पण ए बद्ध-स्पृष्टादि भावो अभूतार्थ छे, कायम रहे एवी चीज नथी तेथी अनुभव थई शके छे. आम जिज्ञासु पात्र जीव समकित थता पहेलां उपदेश बराबर धारी राखतो होय छे तेनी अहीं वात करी छे.

आगळ कहे छे- तथा जिनवचनोने कहेनारा श्री जिनगुरुनी भक्ति, जिनबिंबनां दर्शन ईत्यादि व्यवहारमार्गमां प्रवृत्त थवुं प्रयोजनवान छे. अहीं जिनवचनोने कहेनार जिनगुरुनी भक्ति वगेरेनो भाव समकित थया पहेलां आवे छे एनी वात करी छे. पण भक्ति करे तेथी समकित थाय एम नथी. भक्तिना फळमां सम्यग्दर्शन थाय के नहीं? ना. समवसरणमां त्रणलोकना नाथ बिराजमान होय छे, तेमनी भक्ति अनंतवार करी. अरे! एनी भक्तिना भावथी सम्यक्त्व न पमाय ए तो ठीक, एनी भक्तिने जाणनार ज्ञाननो जे सूक्ष्म अंश छे तेना आश्रये पण समकित न थाय. प्रभु! आ तो आखो


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संसारी उखाडी नाखे, भवना अंत आवे अने मोक्षनी तैयारी थाय एनी वात चाले छे. जिनवचन, जिनगुरु प्रत्ये जे लक्ष थाय छे ए तो राग छे, ए कांई समकित नथी. छतां समकित थतां पहेलां आवो ज व्यवहार होय छे. वळी जिनबिंबना दर्शननो पण भाव होय छे. समोसरणमां वीतराग अरिहंत परमात्मा होय छे. एवी ज वीतरागी मूर्ति होय एने जिनबिंब कहीए. अन्य आभूषणादियुक्त मूर्ति ते जिनबिंब नथी. भगवान तो नग्न-दिगंबर वीतरागस्वरूप होय छे. तेवी ज नग्न-दिगंबर वीतरागी मूर्ति ते जिनबिंब छे. आवा जिनबिंबना दर्शन, भक्ति, पूजा ईत्यादि बाह्य व्यवहार प्रवर्तननो भाव समकित थया पहेलां होय छे पण एनाथी निश्चय समकित थाय नहीं. निश्चय सम्यक्त्व तो एकमात्र अखंड एक ज्ञायकभावनुं अवलंबन थतां ज थाय छे. व्यवहारमार्गमां प्रवृत्त थवुं प्रयोजनवान छे एम कह्युं त्यां ते शुभभावोनी प्रवृत्तिथी सम्यग्दर्शननो लाभ थाय छे एम आशय नथी पण सम्यग्दर्शन थतां पहेलां आवा शुभभावो होय छे एम सिद्ध कर्युं छे. हवे जेमने श्रद्धा-ज्ञान तो थयां छे, पण साक्षात् प्राप्ति थई नथी एवा जीवने पूर्वकथित भावो जेवा के जिनवचनो सांभळवां, धारवां, गुरुभक्ति, जिनबिंबदर्शन ईत्यादि होय छे. खरेखर तो सम्यग्दर्शन थया पछी ज उक्त भावो व्यवहार नामने पामे छे. सम्यग्द्रष्टिने ज साचा नय-निक्षेप होय छे. अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिने नय-निक्षेप होता नथी. अज्ञानीना शुभभावो तो व्यवहाराभास छे. अहीं कहे छे के सम्यग्दर्शन थया पछी ज्यांसुधी पूर्णतानी प्राप्ति न थाय त्यांसुधी आवा भावो होय छे; पण आवा भावोथी निश्चय पामे-एम नथी. आ तो आवा शुभ विकल्पो होय छे तेम दर्शाववुं छे. वळी परद्रव्यनुं आलंबन छोडवारूप अणुव्रत-महाव्रतनुं ग्रहण, समिति, गुप्ति, पंचपरमेष्ठीना ध्यानरूप प्रवर्तन, अने ए रीते प्रवर्तनाराओनी संगति करवी ईत्यादि भावो होय छे. अहीं आलंबन छोडवा माटे एम कह्युं छे. परद्रव्य तो छूटा पडया छे, छोडवाना क्यां छे? परद्रव्यनुं आलंबन छोडवा माटे एटले तेना तरफनुं लक्ष छोडवा माटे एम समजवुं. तीव्र कषायना भावनी निवृत्ति अर्थे आवा अणुव्रत-महाव्रतादिना शुभ विकल्प होय छे. परद्रव्यनुं ग्रहवुं अने छोडवुं ए तो आत्माने छे ज नहीं. खरेखर तो आत्माए रागनो नाश कर्यो एक कहेवुं ए पण कथनना मात्र छे. रागनो नाश करवो ए एना स्वरूपमां छे ज नहीं. ए स्वरूपमां स्थिर थई जाय छे त्यारे राग उत्पन्न थतो नथी. एने रागनो नाश र्क्यो एम व्यवहारथी कहेवाय छे. जोईने चालवुं, विचारीने बोलवुं, निर्दोष आहार लेवो ईत्यादि शुभ विकल्पनो- ईर्योभाषाएषणा आदि समितिना पालननो व्यवहार होय छे. अशुभथी बचवा मन-


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वचन-कायाना शुभयोगरूप प्रवृत्ति होय छे. अरहंतादि पंचपरमेष्ठीना ध्यानरूप प्रवर्तन तथा ए रीते प्रवर्तनाराओनी संगतिनो शुभभाव होय छे.

तथा विशेष जाणवा माटे शास्त्रोना अभ्यास करवानो पण भाव होय छे. कळशटीकामां १३ मा कळशमां कह्युं छे के -“कोई जाणशे के द्वादशांगज्ञान कोई अपूर्व लब्धि छे. तेनुं समाधान आम छे के द्वादशांगज्ञान पण विकल्प छे. तेमां पण एम कह्युं छे के शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग छे. तेथी शुद्धात्मानुभूति थतां शास्त्र भणवानी कांई अटक (बंधन) नथी.” सांभळवानो, वांचवानो, शास्त्रना अभ्यासनो, उपदेश आदिनो विकल्प आवे, पण ते वडे शुद्धता वधे छे एम नथी. आ शुभभावो आवे छे एम प्रवर्तवुं एनो अर्थ ए के एने यथास्थित जाणवा. आठमी गाथामां आवे छे के -ज्यारे व्यवहार-परमार्थना मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथने चलावनार सारथी समान अन्य कोई आचार्य अथवा तो ‘आत्मा’ शब्द कहेनार पोते ज व्यवहारमार्गमां रहीने “दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हंमेशा प्राप्त होय ते आत्मा छे” एम भेद पाडीने समजावे छे. व्यवहारमां आवीने समजावे छे के दर्शन-ज्ञान- चारित्रने हंमेशा प्राप्त होय ते आत्मा. आवो व्यवहारनो उपदेश अंगीकार करवो प्रयोजनवान छे. पण व्यवहारनयना उपदेशमां एम न समजवुं के आत्मा परद्रव्यनी क्रिया करी शके छे. वळी एम पण न समजवुं के शुभभाव करवाथी आत्मा शुद्धताने पामे छे. परंतु एम समजवुं के साधकनी अवस्थामां भूमिकानुसार आवा शुभभावो आव्या विना रहेता नथी.

व्यवहारनयने कंथचित् असत्यार्थ कहेवामां आव्यो छे. ११ मी गाथामां व्यवहारने अभूतार्थ-असत्यार्थ कह्यो छे ने? ए तो गौण करीने असत्यार्थ कह्यो छे. शुं शुभभाव आदि नथी? छे. अहीं असद्भूत व्यवहारनी वात छे. तेने असत्यार्थ कह्यो छे तेथी कोई तेने सर्वथा असत्यार्थ मानीने छोडी दे, शुभोपयोगरूप व्यवहारने जूठो जाणीने छोडी दे, अने शुद्धोपयोगनी साक्षात् प्राप्ति तो थई नथी, तेथी तो पोते अशुभोपयोगमां आवी जशे, नीचे ऊतरी जशे. हिंसा, जूठ आदि तथा भोग आदि अशुभमां भ्रष्ट थई गमे तेम स्वच्छंदे प्रवर्तशे तो नरकादि गतिने अने परंपराए निगोदने प्राप्त थई संसारमां ज परिभ्रमण करशे. शुद्धोपयोगनी प्राप्ति थाय अने व्यवहारने छोडे ए तो बराबर छे. खरेखर तो शुद्धोपयोगरूप वीतरागदशा थई जाय त्यां व्यवहार स्वयं छूटी जाय छे, छोडवो पडतो नथी.

ज्यां सुधी शुद्धनयनो आश्रय रहे छे त्यां सुधी पूर्णतानी प्राप्ति नथी एटले के केवळज्ञान नथी. त्यां सुधी व्यवहार आवे ते जाणेलो प्रयोजनवान छे. नीचली दशामां आवो


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व्यवहार होय छे एवो स्याद्वादमतमां गुरुओनो उपदेश छे. व्यवहारने कथंचित् असत्यार्थ कह्यो पण ते मार्गमां आव्या विना रहेतो नथी; तेम व्यवहारथी निश्चय थाय एम पण नथी. आवो गुरुओनो उपदेश छे ते यथार्थ अवधारवो.

हवे ए अर्थनुं (चोथा) कळशरूप काव्य टीकाकार कहे छेः

* कळश –४ श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘उभयनयविरोधध्वंसिनि’- निश्चय अने व्यवहार ए बे नयने विषयना भेदथी परस्पर विरोध छे. निश्चयनयनो विषय अभेद छे, व्यवहारनयनो विषय भेद छे. बे विरुद्ध थया ने? निश्चयनय पूर्णानंदस्वरूप एक अखंड अभेद आत्माने विषय बनावे छे, अने व्यवहारनय वर्तमान पर्याय, राग आदि भेदने विषय बनावे छे. आम बन्नेना विषयमां फेर छे. निश्चयनो विषय द्रव्य छे, व्यवहारनो विषय पर्याय छे. एटले बे नयोने परस्पर विरोध छे. आ नयोना विरोधने नाश करनार ‘स्यात्पदांके’ -एटले स्यात्पदथी चिह्नित जिनवचन छे. ‘स्यात्’ एटले कथंचित् अर्थात् कोई एक अपेक्षाए. जिनवचनमां प्रयोजनवश द्रव्यार्थिकनयने मुख्य करीने एने निश्चय कहे छे. अने पर्यायार्थिक वा अशुद्धद्रव्यार्थिकनयने गौण करीने व्यवहार कहे छे. पर्याय जे अशुद्धता छे ते द्रव्यनी ज अशुद्धता छे तेथी पर्यायार्थिकनयने अशुद्धद्रव्यार्थिक कह्यो छे. जुओ, त्रिकाळ, ध्रुव अखंड एक ज्ञायकभावने मुख्य करी निश्चय कहीने सत्यार्थ कहे छे अने पर्यायने गौण करीने व्यवहार कही असत्यार्थ कहे छे. आम, जिनवचन स्यात्पद वडे बन्ने नयोना विरोध मटाडे छे.

कळशटीकाकारे अर्थ कर्यो छे के - जिनवाणीमां -दिव्यध्वनिमां त्रिकाळ शुद्ध जीववस्तु चैतन्यमूर्ति उपादेय कही छे. एमां स्यात्पद आवी जाय छे. आवा स्याद्वादमुद्रित जिनवचनमां जे पुरुषो रमे छेः ‘जिनवचसि रमन्ते ये’ अहीं जिनवचनमां रमवुं एनो अर्थ एम छे के जिनवाणीमां जे शुद्ध जीववस्तु ज्ञायकभाव उपादेय कह्यो छे तेमां सावधानपणे एकाग्र थवुं, ते ज्ञायकभावनुं प्रत्यक्ष वेदन करवुं. जीवने रागनुं अने विकारनुं वेदन तो अनादिथी छे अने ते वडे ए दुःखी छे. हवे ए दुःखथी छोडाववा विकारनी -रागनी पर्यायने गौणकरी एटले एना परथी लक्ष हठावी लई भगवान आत्मा सच्चिदानंद, एक, अखंड, जे ज्ञायकभाव तेमां द्रष्टि करी, तेनो प्रत्यक्ष अनुभव करवो, तेमां एकाग्रता अने स्थिरता करवी. आ ज सुखनो मार्ग छे. एटले जे पुरुषो जिनवचनमां रमे छे अर्थात् शुद्ध एक ज्ञायकभावने उपादेय करी प्रचुर प्रीति सहित तेमां एकाग्रतानो वारंवार अभ्यास करे छे, ‘ते स्वयं वांतमोहः’ अहाहा! ते पुरुषो पोतानी मेळे, अन्य कारण विना मिथ्यात्वकर्मनुं वमन करे छे. तेमने मिथ्यात्वभाव रहेतो नथी, ऊडी जाय छे.


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शुं भाषा वापरी छे! ‘वान्तमोहाः’ एटले मिथ्यात्वनुं वमन थई जाय छे एटले हवे ते फरीने आवशे नही. आवो ज भाव गाथा ३८नी टीकाना अंतमां आवे छे. के -‘निज रसथी ज मोहने उखाडीने, फरी अंकुर न उपजे एवो नाश करीने, महान ज्ञानप्रकाश मने प्रगट थयो छे.’ प्रवचनसारनी गाथा ९२ नी टीकामां पण कह्युं छे के- ‘अने ते (बहिर्मोहद्रष्टि) तो आगमकौशल्य तथा आत्मज्ञान वडे हणाई गई होवाथी हवे मने फरीथी उत्पन्न थवानी नथी.’ एटले के आत्माना अंतर अभ्यास वडे जे मिथ्यात्वनो नाश थयो छे ते फरीथी थवानो नथी.

नियमसारमां आवे छे के बे नयोना आश्रये सर्वस्व कहेवानी जिनवाणीमां पद्धति छे. तेमां स्याद्वाद समजीने जे निश्चयमां रमे छे एटले के त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकभावनी द्रष्टि करी तेमां रमणता करे छे ते मिथ्यात्वनुं वमन करीने ‘उच्चैः परम ज्योतिः समयसारं’ आ अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान समयसार एटले शुद्धात्माने‘सपदि ईक्षन्ते एव’ तरत देखे ज छे, एटले तेनो प्रत्यक्ष अनुभव करे छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.

जेमां एकाग्र थतां प्रत्यक्षपणे वेदाय छे-जणाय छे ए शुद्धात्मा केवो छे? अनादि वस्तु छे, नवी नथी. पर्यायमां तो वेदन थतां भान थयुं पण वस्तु तो अनादिनी छे. ‘अनवम्’ एटले (ज्ञायकभाव) नवो उत्पन्न थयो नथी, अनादि छे. पहेलां कर्मथी आच्छादित हतो एटले के पर्यायबुद्धिथी रागादिनी रुचिनी आडमां ज्ञायकभाव ढंकाई गयो हतो ए प्रगट व्यक्तरूप थई गयोे. शक्तिरूपे-स्वभावरूपे तो हतो ज, पण पर्याय अने रागादिना प्रेममां ए जणातो न हतो ते शुद्ध चैतन्यघन स्वभावनी रुचि अने एकाग्रता थतां व्यक्तरूप प्रगट थई गयो, ज्ञानमां जणाई गयो. वळी केवो छे? ‘अनय–पक्षअक्षुण्णम’ एटले सर्वथा एकांतरूप कुनयना पक्षथी खंडित थतो नथी. वेदांतादि कहे छे के द्रव्य एकांत कूटस्थ छे, परिणमनशील नथी. तो केटलाक एकली पर्यायने ज माने छे. एटले जे एम माने छे के एकांत द्रव्य ज छे, पर्याय नथी तथा पर्याय छे, द्रव्य नथी ते बधा कुनयने माननारा छे. तेमना कुनयोथी वस्तु खंडित थती नथी, ते तो जेवी छे तेवी अक्षुण्ण रहे छे. कोई आत्माने सर्वव्यापी कहे, कोई शरीरव्यापी कहे, ईत्यादि एकांत कुनयो छे. परंतु ते सघळा कुनयोथी ते खंडित थतो नथी, ए तो निर्बाध छे.

* कळश ४ ना भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जिनवचन एटले वीतरागदेवनी वाणी स्याद्वादरूप छे. स्यात् कहेतां कोई एक अपेक्षाए, वाद कहेतां कथन, जिनवचन जे अपेक्षाए होय ते अपेक्षा बराबर समजवी


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जोईए. हवे बे नयोमां परस्पर विषयनो विरोध छे. निश्चयथी व्यवहारने विरोध छे अने व्यवहारथी निश्चयने. तेथी बन्ने नय आदरणीय केम थई शके? जेमके द्रव्य सत् ए असत्रूप न होय एम लोकोने लागे छे, पण एम नथी. स्याद्वाद तेनुं समाधान करी नाखे छे के जे स्वथी सत् छे ते परथी असत् छे. द्रव्यथी सत् छे, पर्यायथी असत् छे. वळी एक होय ते अनेक केम होय? तो कहे छे होय. वस्तु तरीके एक छे, पर्याय तरीके, गुणभेद तरीके अनंत छे. नित्य होय ते अनित्य केम होय? तो कहे छे वस्तु कायम टकनारी छे ते अपेक्षाए नित्य छे, अने बदलती पर्याय अपेक्षाए अनित्य छे. तेम त्रिकाळी द्रव्यनी अपेक्षाए अभेद छे, अने पर्याय अने रागनी अपेक्षाए भेद छे. तथा शुद्ध होय ते अशुद्ध केम होय? तो त्रिकाळी द्रव्यनी अपेक्षाए शुद्ध छे, पर्यायनी अपेक्षाए अशुद्ध छे. आ स्याद्वाद छे. अहीं प्रश्न थाय के द्रव्य शुद्ध छे तो पर्यायमां अशुद्धता आवी कयांथी? समाधान एम छे के पर्यायमां अशुद्धतानो धर्म छे, एवी योग्यता छे. अशुद्धता कर्मने लईने आवी नथी, अशुद्धता पर्यायनो धर्म छे.

ईत्यादि नयोना विषयोमां विरोध छे, जेम सत् होय ते असत् न होय, एकमां अनेक न होय, ईत्यादि त्यां भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणी कथंचित् विवक्षाथी एटले कोई अपेक्षाए कहेवानी शैलीथी कथन करीने बे नयो सिद्ध करे छे तथा वस्तु सत्-असत्रूप, एक-अनेकरूप, नित्य-अनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जे रीते विद्यमान-हयात छे ते रीते कहीने विरोध मटाडी दे छे आम जिनवचन स्याद्वाद वडे वस्तुने जेम छे तेम सिद्ध करे छे, जूठी कल्पना करतुं नथी. वस्तुमां जे होय एनी वात करे छे, जे नथी एनी वात करतुं नथी. पहेलां (अज्ञान दशामां) एम निर्णय हतो के हुं रागादिस्वरूपज (अशुद्ध) छुं. पछी स्वभावनुं भान थतां एम निर्णय थयो के ‘हुं शुद्ध छुं’. ए पर्यायमां ‘शुद्ध’ नो अनुभव थाय छे, निर्णय थाय छे. आम स्याद्वाद वस्तु जे रीते शुद्ध अशुद्ध आदि छे ते रीते अविरोधपणे साधे छे.

हवे आत्माने सम्यग्दर्शन थाय ए प्रयोजन छे. आ प्रयोजन साधवा माटे शुद्ध द्रव्यार्थिकनयने एटले शुद्ध त्रिकाळी ज्ञायकभावने मुख्य करीने निश्चय कहे छे. तथा अशुद्ध द्रव्यार्थिकरूपे पर्यायार्थिकनयने गौण करीने व्यवहार कहे छे. द्रव्य पर्यायमां अशुद्धपणे परिणमेलुं छे तेथी अशुद्धद्रव्य कह्युं छे. एटले प्रमाणनुं जे द्रव्य छे ते अशुद्ध छे. ते अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयनो एटले पर्यायार्थिक नयनो विषय छे. तेने गौण करी व्यवहार कहे छे. (निश्चयनी द्रष्टिमां) व्यवहारनुं स्वरूप ज अभावरूप छे, अने निश्चयनुं स्वरूप भाव छे. एटले अशुद्धद्रव्यार्थिकनयने गौण करी, पेटामां राखी व्यवहार कह्यो छे. हवे व्यवहार उपरथी द्रष्टि हठावी लई, जे पुरुष पोतानी द्रष्टि, जिनवाणीमां


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उपादेय कही छे जे शुद्ध जीववस्तु त्रिकाळी ज्ञायकभाव तेमां स्थापीने अभ्यास करी रमे छे (एटले तेमां एकाग्र थई क्रिडा करे छे) ते शुद्ध आत्माने यथार्थ पामे छे. तेने शुद्धात्मानो प्रत्यक्ष अनुभव थाय छे. वस्तु तो शुद्ध छे, पण तेनी द्रष्टि करतां ‘शुद्ध छे’ एवो अनुभव यथार्थ थाय छे. अहो! भारतना लोकोनां महाभाग्य छे के केवळीना विरह भुलावे एवुं आ समयसार शास्त्र रचाई गयुं छे.

वीतरागनो मार्ग कोई अलौकिक छे, भाई! एना यथार्थ ज्ञान विना श्रद्धा थाय नहीं. अने यथार्थ श्रद्धा विना सम्यग्दर्शनादि अनुभव थाय नही. लोको बहारथी हो-हा करे, प्रभावना करे अने एमां धर्म माने पण प्रभावना ते बहार थती हशे के अंदर पर्यायमां? प्रभावना पोतानुं लक्ष करतां पोतानी पर्यायमां थाय छे.

पुरुष शब्दनो अर्थ आत्मा समजवो. रमण शब्दना बे अर्थ छे. रमण करे छे एटले आक्रमे छे. परम अध्यात्मतरंगिणीमां ‘रमन्ते’ एटले क्रीडा करे छे, वस्तुमां एकाग्र थईने क्रीडा करे छे एम लीधुं छे. ज्ञानी बहार क्रीडा करवा जता नथी.

आम तो आत्मा, आत्मा कहेनारा घणा छे. वेदांतादिवाळा बहु कहे छे के अमने आत्मानो अनुभव छे, साक्षात्कार छे. पण ए बधी ठेकाणा वगरनी वातो छे. जिनवचनमां वस्तुने मुख्य-गौण करीने सिद्ध करी छे. वस्तु विद्यमान छे, तेमां, जिनवाणीमां कहेलां त्रिकाळ स्वभावमां द्रष्टि करतां जे शुद्ध छे ते (यथार्थपणे) शुद्धने पामे छे. परंतु सर्वथा एकांत कहेनारा सांख्य, बौद्ध, वेदांतादि वस्तुनी स्थितिने नहीं जाणनार आत्माने प्राप्त करता नथी, एटले के तेमने शुद्ध आत्मानो अनुभव थतो नथी. कारण के वस्तु सर्वथा एकांत पक्षनो विषय नथी. वेदांत एक ज धर्मने ग्रहण करी सर्वथा नित्य छे एम कहे छे, ने बौद्ध अनेक कहे छे. एम वस्तुनी असत्य कल्पना करे छे, तेथी असत्यार्थ छे, बाधा सहित मिथ्या द्रष्टि छे. परंतु वस्तु जेवी छे तेवी मर्यादा जाणनारी द्रष्टि ज सम्यक् छे.

आ रीते बार गाथाओमां पीठिका (भूमिका) कही.

हवे आचार्य शुद्धनयने प्रधान करी, शुद्धनयने मुख्य करी निश्चय सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे छे. अशुद्धनयनी (व्यवहारनयनी) प्रधानतामां जीवादि तत्त्वोना भेदवाळी श्रद्धाने सम्यक्त्व कह्युं छे. अहीं जीवादि तत्त्वोने शुद्धनय वडे जाणवाथी समकित थाय छे एम कहे छे.

हवे १३ मी गाथानी शरूआत करता पहेलां एनी सूचनारूपे त्रण श्लोक कहे छे त्यां पहेला श्लोकमां एम कहेशे के -व्यवहारनयने कथंचित् प्रयोजनवान कह्यो- एटले