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जाणेलो प्रयोजनवान कह्यो, तोपण ते कांई वस्तुभूत नथी. एटले के व्यवहारनय कांई कार्यकारी नथी. जाणवानी अपेक्षाए प्रयोजनवान कह्यो पण त्यां लक्ष राखवुं एम नथी. अंतरमां चैतन्यमां जवुं, त्यां व्यवहार कांई रहेतो नथी.
‘व्यवहरणनयः’ जे व्यवहारनय छे ते ‘यद्यति’ जो के ‘इह प्राक्–पदव्यां’ ज्यां सुधी शुद्ध स्वरूपनी प्राप्ति न थई होय त्यांसुधी पहेली पदवीमां ‘निहित– पदानां’ जेमणे पग मांडेलो छे एवा पुरुषोने ‘हन्त’ अरेरे! ‘हस्तावलंब स्यात्’ हस्तावलंब तुल्य कह्यो छे. शुं कह्युं? पहेली पदवीमां एटले जे त्रिकाळ शुद्ध अखंड एक चैतन्यभाव तेनी द्रष्टि थतां सम्यग्दर्शन थयुं, तेनो अनुभव थयो पण पूर्ण चारित्र अने पूर्णज्ञान केवळज्ञाननी प्राप्ति थई नथी एवी दशामां शुद्धता अने अशुद्धताना अंशोरूप व्यवहार होय छे. गुणस्थान आदि व्यवहारनय (निश्चय द्रष्टिमां) अभूतार्थ एटले आश्रय करवा लायक नहीं होवा छतां आत्मानो अनुभव थया पछी पण ए व्यवहार होय छे. तेने हस्तावलंब तुल्य कही जाणेलो प्रयोजनवान छे. बस, आटली वात छे.
हस्तावलंबन तुल्य कह्यो ने? एटले जेम माणस निसरणी उपर चढे छे त्यारे निसरणीना कठेडा उपर हाथनो टेको लई चढे छे. त्यां हस्तावलंबन मात्र निमित्त छे. (चढे छे तो पोते), तेम अहीं जीव पण आत्मानो जे शुद्ध चैतन्यघनस्वभाव तेना आश्रये चढे छे, पण पूर्णता न थाय त्यां लगी अपूर्णता छे. ते पर्यायगत अपूर्णताना भेदोने यथास्थित जाणवा ते हस्तावलंब समान छे. ते निमित्त छे. (पूर्णता तो ‘शुद्ध’ नो पूर्ण आश्रय थतां थशे.).
बनारसीदासे हस्तावलंबनो अर्थ एम कर्यो छे के-जेम कोई पहाड उपरथी पडतो होय तेनो हाथ मजबुत पकडी पडतो रोकी राखे. आ निमित्तनुं कथन छे. परमअध्यात्मतरंगिणीमां एवो भाव प्रगट कर्यो छे के - ‘खेद छे के आवो भाव आवे छे. अमारुं चाले तो व्यवहारनो आश्रय न लईए, पण शुं थाय? अपूर्णता छे एटले आव्या वगर रहेतो नथी.’ कळश-टीकाकारे एम अर्थ कर्यो छे के-‘जो के व्यवहारनय हस्तावलंब छे, तोपण कांई नथी, ‘नोंध’ (ज्ञान, समज) करतां जूठो छे.
सम्यग्दर्शन थया पहेलां जे व्यवहारनी वात १२मी गाथाना भावार्थमां हती ए व्यवहार यथार्थ नथी. निमित्त, राग अने पर्यायनी अपेक्षा विना सीधा द्रव्यना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. ए सम्यग्द्रष्टिने पूर्णता थई न होवाथी रागांश आव्या विना
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रहेतो नथी. आत्मा (गुरुनी सहाय विना) सीधो पोताने जाणे छे. अनुभवे छे, गुरुना आश्रये तो नहीं, पण गुरुए जे देशना करी अने तेथी जे परलक्षी ज्ञान थयुं ते (परलक्षी) ज्ञानना आश्रये पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी. शुद्ध ज्ञायकभाव-जे छठ्ठी गाथामां प्रमत्त-अप्रमत्तदशा रहित कह्यो छे अने ११मी गाथामां जे एकने भूतार्थ कह्यो छे ते ज्ञायकभावनो आश्रय ए एक ज उपाय छे. ए भूतार्थना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
श्रीमदे कह्युं छे ने के- “ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजिरेथी नीकळे.” भगवान दिव्य शक्तिमान-अनंत आनंद, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत स्वच्छता, ईत्यादि शक्तिओथी भरेलो भगवान आत्मा जंजिरमां एटले केदमां छे तेमांथी मुक्त थाय. रागनी एकता अने परनुं अवलंबन ए बधुं केद छे. शुं एना अवलंबने आत्मानुं ज्ञान थाय? कदी न थाय. भगवान आत्मा चैतन्यना तेजथी दिव्यपणे बिराजे छे. एने सीधो ज आश्रय करी विश्वासमां-प्रतीतिमां लेतां ज्ञान थाय, त्यारे ते दिव्य शक्तिमान छे एम जणाय.
एक भाईए प्रश्न कर्यो हतो के-तमे त्रिकाळी आत्माने कारण-परमात्मा केम कहो छो? कारण होय तो कार्य आववुं जोईए ने?
समाधानः– त्रिकाळी आत्मा, कारण-परमात्मा, कारणभगवान, स्वभावभाव, भूतार्थभाव, ज्ञायकभाव ए बधुं एकार्थवाचक छे. ए कारण तो कार्य आपे ज, पण कोने? के जेणे कारण-परमात्माने मान्यो तेने. कारण वस्तु तो छे ज, चैतन्यना तेजथी भरपूर अने अनंत अनंत शक्तिओना सामर्थ्य थी परिपूर्ण भरेलो चैतन्यसूर्य भगवान आत्मा प्रकाशमान तो छे ज, पण कोने? के जेने ज्ञाननी पर्यायमां जणायो तेने. पर्याय ज्ञायकमां भळ्या विना, पर्याय पर्यायपणे रहीने ज्ञायकनी प्रतीति करे छे. छठ्ठी गाथामां आवे छे ने के ‘ते ज (ज्ञायकभाव) समस्त अन्य द्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतो “शुद्ध” कहेवाय छे. ज्ञायकभाव तो शुद्ध ज छे, पण स्वसन्मुख थईने जे ‘शुद्ध’ नी ज्ञान अने प्रतीति करे छे तेने ते ‘शुद्ध’ छे एम जणाय छे. अरे खेद छे के जे छती चीज छे एने नथी एम कहे छे अने राग अने अल्पज्ञ पर्याय ते हुं एम जाणतो पोताने केदमां नाखी दीधो छे!
कळशटीकामां (आ श्लोकना अर्थमां) अज्ञानीने भेदथी समजाववानी वात लीधी छे. अज्ञानीने गुण-गुणीना भेदरूप कथन द्वारा आत्मानुं स्वरूप समजावे छे. जेमके जीवनुं लक्षण चेतना एम कहीने आत्मा समजावे छे.
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व्यवहारनय हस्तावलंब तुल्य कह्यो छे तोपण ‘चित्चमत्कारमात्रं परविरहितं परमं अर्थं अन्तः पश्यताम्’ जे पुरुषो चैतन्य-चमत्कारमात्र, परद्रव्योना भावोथी रहित शुद्धनयना विषयभूत परम ‘अर्थ’ने एटले ज्ञायक परमात्माने अंतरंगमां अवलोके छे, प्रत्यक्ष तेनी श्रद्धा करे छे तथा तद्रूप लीन थईने चारित्रभावने प्राप्त करे छे तेमने ‘एषः’ ए व्यवहारनय ‘किञ्चित् न’ कांई पण प्रयोजनवान नथी, एटले पछी तेमने व्यवहार होतो नथी.
आगळ ४१प गाथानी टीकामां आवे छे के- ‘अर्थथी अने तत्त्वथी जाणीने, तेना ज अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परम ब्रह्ममां सर्व उद्यमथी स्थित थशे,.. .’ तत्त्वथी अने अर्थथी जाणीने एटले तत्त्वने जाणे भले, पण अर्थ नाम पदार्थ छे जे त्रिकाळी ध्रुव एमां ठरे छे जे, ते मोक्षने प्राप्त करशे, ते परमसुखरूप परिणमशे, सुखरूप थई जशे. तत्त्व एटले पदार्थनो भाव, अर्थ एटले पदार्थ भाववान. भाववानने एना भावथी जाणीने तेना अर्थभूत पूर्णविज्ञानघन परमब्रह्ममां सर्व उद्यमथी स्थित थशे ते आत्मा साक्षात् तत्क्षण प्रगट थता एक चैतन्यरसथी भरेला स्वभावमां सुस्थित अने निराकुळ होवाने लीधे अनाकुळता- लक्षण एवा सौख्यरूपे पोते ज थई जशे. अहीं कळशमां परविरहित एटले रागादि परभावोथी भिन्न जे परम ‘अर्थ,’ चैतन्यचमत्कारमात्र ध्रुव स्वभावभाव-ज्ञायकभाव पदार्थ तेने ‘अन्तः पश्यतां’ -जेओ अंतरंगमां अवलोके छे, तद्रूप लीन थईने पूर्ण वीतरागताने प्राप्त थाय छे, परम सौख्यरूपे परिणमे छे तेमने कोई व्यवहार रहेतो नहीं होवाथी व्यवहार प्रयोजनवान नथी एम कह्युं छे.
केटलाक लोको ‘व्यवहार कार्यकारी छे’ एनो अर्थ एम करे छे के व्यवहार कामनो छे अने आदरवा जेवो छे. तेमनो ए अर्थ (समज) बराबर नथी. व्यवहार कार्यकारी छे एटले जे ते काळे व्यवहार होय छे अने ते जाणवा लायक छे. साधकने (शुद्धनयनो) पूर्ण आश्रय नथी, पण आश्रय शरू थइ गयो छे ते काळमां पर्यायमां आवो व्यवहार होय छे, ते ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे.
शुद्ध स्वरूपनुं ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण थया बाद अशुद्धनय कांईपण प्रयोजनकारी नथी. जोयुं? व्यवहारनयने अशुद्ध कह्यो, अशुद्ध शब्द वापर्यो छे. भगवान आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप पोते छे ए तो शुद्धनयनो विषय छे. अने एनां श्रद्धा-ज्ञान थवा छतां पूर्णता नथी एने वचमां व्यवहार आवे छे एने अशुद्धनय कह्यो छे. १६मी गाथामां आवे छे के दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय उपर लक्ष जवुं ते मेचक छे,
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मलिनता छे, व्यवहार छे. अभेदमांथी भेदना लक्षे जवुं ए पण मलिनता छे. सातमी गाथामां आवे छे के आत्मामां दर्शन, ज्ञानना भेद पडे छे ए अशुद्धनय छे. त्रिकाळीनी अपेक्षाए भेदने अशुद्ध कह्यो छे. अर्थकारे विशेष स्पष्ट करवा ‘अशुद्ध’ शब्द वापरीने व्यवहारने अशुद्धनय कह्यो अने त्रिकाळीने शुद्ध कह्यो छे.
हवे पछीना श्लोकमां निश्चय सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे छेः-
भाई! आत्मा तो अनादि-अनंत सच्चिदानंदस्वरूप छे. तेनो निर्णय कर्या विना जीव अनंतकाळथी चोरासी लाख योनिमां जन्म-मरणरूप परिभ्रमण वडे महादुःखी छे. राजा, रंक, देव वगेरे बधा दुःखी छे. राजा हो के देव हो, हजु पण वस्तुनुं भान (ज्ञान-श्रद्धान) नहीं करे तो कागडा, कूतरा, वगेरे अवतार करी दुःखी थशे. मिथ्यात्वनुं सेवन करनारा प्रायः तिर्यंचमां जन्मवाना छे. मिथ्यात्व छे ते आडोडाई छे, वास्तविक तत्त्वथी विपरीत श्रद्धा छे. जुओ, मनुष्य छे ते (सीधा) ऊभा छे, त्यारे गाय, भेंसनां शरीर आडां छे. आडोडाई करी तेथी आडा शरीरनो संयोग छे. शास्त्रमां मिथ्यात्वीने पशु कह्या छे. आ (छठ्ठा) कळशमां दुःख टळी सुख केम प्राप्त थाय, सम्यग्दर्शन केम प्राप्त थाय, एनी वात करी छे. सम्यग्दर्शन एटले साची प्रतीति. धर्मनी शरूआत सम्यग्दर्शनथी थाय छे.
शुं कहे छे? ‘अस्य आत्मनः’ आ आत्माने एटले आ प्रत्यक्ष विद्यमान आत्माने ‘यह इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् दर्शनम्’ अन्य द्रव्योथी जुदो देखवो (श्रद्धवो), ‘एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम्’ एने ज निश्चयथी सम्यग्दर्शन कहीए छीए. आमां त्रण न्याय आव्या (१) स्वद्रव्य छे (२) एनाथी अनेरा (भिन्न) द्रव्यो छे. अने (३) रागादि छे. त्यां पोताथी भिन्न जे अनेरा द्रव्यो अने रागादि भाव छे तेनाथी पृथक् थईने-भिन्न पडीने एक निज आत्मद्रव्यनो अनुभव करवो ए ज सम्यग्दर्शन छे. बीजामां, रागमां भेळवीने देखवो एम नहीं, ए मान्यता तो अज्ञान अने मिथ्यात्व छे. अहीं तो कहे छे के जे त्रिकाळी ज्ञायकभाव सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा ते एकने ज देखवो-अनुभववो, तेनी सम्यक्प्रतीति करवी ए सम्यग्दर्शन छे.
हवे कहे छे केवो छे ते आत्मा? तो ‘व्याप्तुः’ एटले पोताना गुण-पर्यायोमां व्यापनारो छे. अहीं आत्मा छे ते पोताना गुणो जे ज्ञान, दर्शन, आनंद वगेरे छे ते अनंत गुणोमां, तथा ते अनंत गुणोनी वर्तमान अवस्थाओ -विकारी के अविकारी - एमां
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व्यापनारो छे; आत्मा परमां व्यापेलो नथी एम कहेवुं छे. पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायमां व्यापीने पोतानुं अस्तित्व छे, परमां नहीं. हवे द्रव्य-गुण-पर्यायथी व्याप्त छे जे आत्मा, ते सम्यग्दर्शननो विषय नथी. अहीं तो आत्मा पोताना गुण-पर्यायोमां व्यापे छे एटलुं अस्तित्व सिद्ध करवुं छे.
वळी ते केवो छे? ‘शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य’ शुद्धनयथी एकपणामां निश्चित करवामां आव्यो छे. आत्मा पोताना ज्ञान, दर्शन, आदि गुणो अने पर्यायोमां व्यापनारो होवा छतां शुद्धनयथी तेने एकपणामां नियत करवामां आव्यो छे. जेमां गुण-गुणीना के पर्यायना भेदो नथी एवो अभेद एकरूप त्रिकाळी आत्मा शुद्धनय वडे बताववामां आव्यो छे. वळी ते केवो छे? ‘पूर्ण–ज्ञान–घनस्य’ पूर्णज्ञानघन छे. जेमां पर्याय के भेदनो प्रवेश नथी एवो ज्ञानस्वरूप सर्वज्ञस्वभावी छे. अहीं ज्ञानगुणनी प्रधानताथी कथन छे. शुद्धनय आत्मवस्तुने त्रिकाळ एकरूप अभेद ज्ञायकमात्र चैतन्यघनस्वरूप देखाडे छे अने ते सम्यग्दर्शननो विषय छे. तेमां एकाग्र थतां सम्यग्दर्शन थाय छे.
‘च’ वळी ‘तावान् अयं आत्मा’ जेटलुं सम्यग्दर्शन छे तेटलो ज आ आत्मा छे. पूर्णज्ञानघन एकरूप जे आत्मा तेना आश्रये जे प्रतीति-श्रद्धा थई, सम्यग्दर्शन थयुं ते आत्मानुं परिणाम छे तेथी जेटलुं सम्यग्दर्शन छे तेटलो आत्मा छे एम कह्युं छे. सम्यग्दर्शननुं परिणाम आत्माथी भिन्न नथी.
हवे आचार्य प्रार्थना करतां कहे छे.- ‘इमाम् नवतत्त्व–सन्ततिं मुक्त्वा’ आ नवतत्त्वनी परिपाटीने छोडीने ‘अयम् आत्मा एकः अस्तु नः’ आ आत्मा एक ज अमने प्राप्त हो. अहीं नव तत्त्व कह्यां. तेमां जीव-अजीव द्रव्यो छे. दया दानना परिणाम पुण्य छे, तथा हिंसा, जूठ, चोरी आदि पाप छे. पुण्य अने पाप बंने आस्रव छे. ए नवा कर्म आववानुं कारण छे. तेने रोकनार संवर छे. विशेष शुद्धि थाय ते निर्जरा छे. तथा बंध छे ते कर्म बंधावामां निमित्त छे. परिपूर्ण शुद्धदशा थाय ते मोक्ष छे. अहीं आचार्य कहे छे के आ नवतत्त्वनी परिपाटीने छोडीने शुद्धनयनो विषय जे ध्रुव आत्मा ते अमोने प्राप्त थाओ, बीजुं कांई चाहता नथी. आ वीतरागी अवस्थानी प्रार्थना छे. कोई नयपक्ष नथी. निश्चयनयनो एकनो पक्ष छे अने बीजो पक्ष छे ज नहीं एम नथी. (एकलो निश्चयनय ज छे अने व्यवहारनय नथी एम नथी) निश्चयनो पक्ष एकांत कर्या करे तो मिथ्यात्व थशे. (व्यवहारनय विषयने जाणवामां थी पण काढी नाखे तो मिथ्यात्व थशे) अहीं तो राग अने भेद पर लक्ष जतां राग थाय छे माटे एक अभेदना अनुभवनी, वीतरागतानी प्रार्थना करी छे. आ एक ज प्राप्त थाओ एटले राग अने
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पर्यायने गौण करी आ एकनो ज अनुभव अमने हो, अमने पूर्ण वीतरागता थाओ एम प्रार्थना छे.
भगवान आत्मामां ज्ञान, दर्शन आदि अनंत गुणो छे-शक्तिओ छे. तेनी वर्तमान स्वाभाविक अवस्थाओ तथा कर्मना निमित्तथी थता दया, दान आदि वा हिंसा जूठ, आदिना भावो ते विकारी अवस्थाओ छे. ए बधा पोताना गुण- पर्यायोरूप भेदोमां आत्मा व्यापेलो छे, रहेलो छे, प्रसरेलो छे. आवो आत्मा शुद्धनयथी एकपणामां निश्चित करवामां आव्यो एटले शुद्धनयथी एक ज्ञायकमात्र आत्मा देखाडवामां आव्यो. तेने सर्व अनेरां द्रव्यो अने द्रव्योना भावोथी न्यारो देखवो, श्रद्धवो ते नियमथी सम्यग्दर्शन छे. शरीर, मन, वाणी तथा कर्म अने तेना निमित्तथी थता जे पर्यायगत रागादि भावो ते सर्वथी भिन्न अखंड एक ज्ञायकमात्रनी श्रद्धा-प्रतीति करवी ते निश्चय सम्यग्दर्शन छे.
व्यवहारनय, वस्तुने भेदरूप जोनारुं ज्ञान, आत्माने अनेकरूप बतावे छे. ए आत्माने गुणभेदवाळो, पर्यायवाळो, रागवाळो, नवतत्त्ववाळो एम कही सम्यग्दर्शनने अनेक भेदरूप कहे छे. पण ए साचुं सम्यग्दर्शन नथी, केमके त्यां व्यभिचार (दोष) आवे छे. भगवान आत्मा एकरूप चैतन्यस्वरूप छे. एमां नवतत्त्वनी शुद्ध-अशुद्ध पर्याय भेळवीने श्रद्धा करे तो ते व्यवहार समकित छे, ते राग छे. ते यथार्थ सम्यग्दर्शन नथी केमके त्यां व्यभिचारनो दोष आवे छे. एमां निश्चय सम्यग्दर्शन होवानो नियम नथी. व्यवहारथी नवतत्त्वनी श्रद्धानो विकल्प के देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो विकल्प होतां निश्चय सम्यग्दर्शन होवानो नियम नथी. शुद्धनयनी हदे पहोंचतां राग अने भेद देखाता नथी, पण निर्विकल्प अनुभव थाय छे, एकलो ज्ञायक चैतन्यमूर्ति पूर्णानंदस्वरूप भगवान आत्मा, जणाय छे. त्यां व्यभिचार नथी तेथी नियमथी ते सम्यग्दर्शन छे. नवतत्त्वनी श्रद्धा, ज्ञायकद्रव्य अने तेनी वर्तमान पर्याय सहित वस्तुनी श्रद्धा ए बधुं व्यवहार समकित छे एम व्यवहारनय समकितना अनेक भेद पाडे छे. त्यां व्यभिचार छे तेथी ते यथार्थ सम्यग्दर्शन नथी. (श्रद्धानो बाह्य विकल्प अने निर्विकल्प श्रद्धा बे जुदी जुदी चीज छे.)
केवो छे शुद्धनयनो विषयभूत ते आत्मा? पूर्णज्ञानघन छे. ज्ञाननो पिंड छे जेमां शरीर, मन, वचन, कर्मनो तो प्रवेश नथी, पण पर्यायमां जे दया, दान आदि विकल्पराग ऊठे तेनो पण प्रवेश नथी. शुद्धनयनी हदे पहोंचतां आत्मा लोकालोकने जाणवानी शक्तिवाळो सर्वज्ञस्वभावी जणाय छे. आवा आत्मानुं श्रद्धान करवुं ते सम्यग्दर्शन छे. ए
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सम्यग्दर्शन प्रगटयुं ते आत्मानुं ज परिणाम छे, आत्माथी भिन्न नथी तेथी आत्मा ज छे, अन्य कांई नथी.
हवे झीणो न्याय आवे छे. वस्तुनुं जेवुं स्वरूप छे तेम ज्ञानने दोरी जवुं ते न्याय छे. आ तो सर्वज्ञभगवाने कहेला न्याय छे.
अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के-नय छे ते श्रुतप्रमाणनो अंश छे, तेथी शुद्धनय पण श्रुतप्रमाणनो ज अंश थयो. श्रुतप्रमाण एटले? जे ज्ञाननी पर्याय द्रव्य-गुण-पर्याय बधाने जाणे ते श्रुतज्ञानप्रमाण कहेवाय. ए प्रमाणनो एक भाग शुद्धनय छे. ते त्रिकाळी शुद्ध ध्रुव आत्माने जुए छे. तेनो बीजो भाग व्यवहारनय छे. ते वर्तमान पर्याय, रागादिने जाणे छे. जे ध्रुव, नित्यानंद ज्ञायकभाव तेने जोनार श्रुतज्ञानना अंशने शुद्धनय कहे छे. ए नय एकला शुद्ध त्रिकाळीने जुए छे तेथी शुद्धनय कहेवाय छे.
हवे श्रुतप्रमाण छे ते परोक्ष प्रमाण छे. एमां आत्मा प्रत्यक्ष न देखाय. जेम केवळज्ञानमां आत्मा प्रत्यक्ष जणाय एम श्रुतज्ञानमां प्रत्यक्ष न जणाय. श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण छे कारण के त्यां वस्तुने सर्वज्ञना आगमना वचनथी जाणी छे. वस्तु जे छे भगवान आत्मा ए तो अरूपी छे, तेमां रूप, रस, गंध, वर्ण नथी. ते तो अनंत गुणोनो पिंड चैतन्यघन अरूपी छे. ए वस्तुने सर्वज्ञना आगमना वचनथी जाणी छे. पांचमी गाथामां आव्युं हतुं ने के आगमनी उपासनाथी निजविभव प्रगटयो छे. एटले आगमना वचनोथी आत्मा पूर्ण शुद्ध वस्तु जाणी छे. त्यां आगम कोने कहेवुं? के जे त्रिकाळी आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु प्रगट सर्वज्ञदशाने प्राप्त छे एनी जे ॐकार दिव्यध्वनि नीकळी तेने आगम कहे छे. अज्ञानीए कहेलां होय ते आगम नहीं. सर्वज्ञनी वाणीने शास्त्र अथवा परमागम कहेवाय छे. वस्तु प्रत्यक्ष जोईने जाणेली नथी परंतु सर्वज्ञना आगमथी जाणी छे के आ ज्ञायक पूर्ण छे ते आ छे. श्रुतज्ञान परोक्ष केम छे ते सिद्ध करे छे. सर्वज्ञना आगमथी लक्षमां आव्युं के वस्तु अखंड आनंदरूप पूर्ण चैतन्यरूप छे. श्रीमदे कह्युं छे ने? ‘लक्ष थवाने तेहनुं, कह्यां शास्त्र सुखदायी’ गुरु पण सर्वज्ञनी वाणी अनुसार शास्त्र कहे छे.
नय छे ते श्रुतप्रमाणनो अंश छे. तेथी शुद्धनय पण श्रुतप्रमाणनो अंश थयो. श्रुतप्रमाण ते परोक्ष प्रमाण छे. तेथी आ शुद्धनय, सर्व द्रव्योथी जुदा, आत्मानी सर्व पर्यायोमां व्याप्त, पूर्ण चैतन्य केवळज्ञानरूप-सर्व लोकालोकने जाणनार, असाधारण चैतन्यधर्मने परोक्ष देखाडे छे. अहीं केवळज्ञान एटले व्यक्त पर्याय नहीं पण एकलुं ज्ञान, ज्ञान, त्रिकाळ ध्रुव ज्ञान समजवुं. जेम आत्मा त्रिकाळध्रुव छे एम एनो ज्ञानगुण
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त्रिकाळध्रुव केवळज्ञानरूप छे. ए गुण मति, श्रुत, अवधि आदि सर्व पर्यायोमां व्याप्त होय छे. पूरा द्रव्यमां अने तेनी बधी पर्यायोमां व्याप्त होय एवुं ज गुणनुं स्वरूप छे. जेम साकरनो मीठाश गुण साकरना पूरा भागमां व्याप्त छे तेम ज्ञानगुण आत्माना पूरा द्रव्यमां अने तेनी सर्व पर्यायोमां व्याप्त छे, अने ते लोकालोकने जाणवाना स्वभावरूप छे. आ तो ज्ञानगुण केवडो छे तेना अनंत महिमानी वात छे. अहीं कहे छे- शुद्धनय, सर्व द्रव्योथी जुदा, आत्मानी सर्व पर्यायोमां व्याप्त, लोकालोकने जाणवानो जेनो स्वभाव छे एवा पूर्ण चैतन्य केवळज्ञानरूप असाधारण (अन्य द्रव्योमां न होय तेवा) चैतन्यधर्मने परोक्ष देखाडे छे. एटले शुद्धनयनी द्रष्टि वडे जे त्रिकाळ ध्रुव चैतन्यपूर्ण ने देखे छे, श्रद्धे छे तेने साचुं सम्यग्दर्शन छे.
व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगमने प्रमाण करी, वाणी सत् छे एने लक्षमां लई, वाणीनुं जे वाच्य त्रिकाळ ध्रुव ज्ञायकभाव तेनुं श्रद्धान करे ए निश्चय सम्यग्दर्शन छे. ए सुखनी प्रथम कणिका छे. बाकी बधा दुःखना पंथे चढेला छे. शास्त्रोने जाणनारा ज्यांसुधी ज्ञायकनी द्रष्टि न करे त्यांसुधी दुःखना पंथमां छे मार्ग तो आ छे, भाई!
ज्यांसुधी केवळ व्यवहारनयना विषयभूत जीवादि भेदरूप तत्त्वोनुं ज श्रद्धान रहे, त्यांसुधी निश्चय सम्यग्दर्शन नथी. तेथी आचार्य कहे छे के ए नवतत्त्वोनी परिपाटीने छोडी, नयना भेदो तथा पर्यायना भेदोनुं लक्ष छोडी, शुद्धनयना विषयभूत एक अखंड ज्ञायक आत्मा ज अमने प्राप्त थाओ; बीजुं कांई चाहता नथी. आ वीतराग अवस्थानी प्रार्थना छे. पर्यायो नथी एम नथी, पण ते गौण करी तेमनुं लक्ष छोडवानी वात छे. जो पर्याय नथी एम मानवा जशे तो मिथ्यात्व थशे. आ कोई नयपक्ष नथी. जो सर्वथा नयोनो पक्षपात ज थया करे तो मिथ्यात्व ज छे.
अहीं कोई प्रश्न करे के- आत्मा चैतन्य छे, जाणन, जाणनस्वभावी छे. आटलुं चैतन्यरूप ज ज्ञानमां अनुभवमां आवे तो एटली श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे के नहीं? आवी श्रद्धावाळाने आखो आत्मा हाथ लाग्यो एम कहेवाय के नही?
समाधानः– आत्माने चैतन्यमात्र तो नास्तिक सिवाय सर्व मतवाळाओ माने छे. एम चार्वाक मत चैतन्यने मानतो नथी. बीजा बधा आत्मा चैतन्यरूप छे एम तो माने छे. जो आटली श्रद्धाने सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे तो उपर कहेला बधाने सम्यग्दर्शन सिद्ध थई जशे. जाणनार, जाणनार एम नास्तिक सिवाय तो घणा आत्माने माने छे, तो ते बधाने सम्यक्त्व सिद्ध थशे. पण एम नथी. आत्मा तो सर्वज्ञ स्वभावी छे. सर्वज्ञ स्वभाव एटले पोताना अनंतगुणो, तेनी अनंत पर्यायो, अने बधा परने (लोकालोकने)
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जाणे एवी एनी शक्ति छे. एवी सर्वज्ञशक्ति जेमने प्रगट थई छे एवा सर्वज्ञ भगवाने जेवो पूर्ण आत्मा जोयो तेवा पूर्ण आत्मानुं स्वरूप तेमनी ॐकार दिव्यध्वनिमां आव्युं. ते आत्मा केवो छे? तो पूर्णज्ञानघन छे. अहीं पूर्ण शब्द सूचक छे. पूर्ण एटले त्रणकाळ त्रणलोकना द्रव्य-गुण-पर्यायो जाणवानो एनो स्वभाव छे. एवुं जे शरीरादिथी भिन्न पूर्णज्ञानघन आत्मानुं स्वरूप छे तेनी द्रष्टिपूर्वक श्रद्धान थतां सम्यग्दर्शन थाय छे. आवुं सम्यग्दर्शन जीवे अनादिथी अनंतकाळमां प्रगट कर्युं नथी तेथी तेने चार-गतिमां मात्र रखडवानुं ज थयुं छे.
एथी अहीं कहे छे के भगवान आत्मानुं कोई अद्भूत स्वरूप छे. तेनुं पूर्णज्ञान, पूर्णआनंद, पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण स्वच्छता, पूर्ण प्रकाश आदि अनेक (अनंत) पूर्ण शक्तिओथी भरेलुं चमत्कारिक परिपूर्ण स्वरूप छे. एनी शांतिनी पर्यायने करे एवा कर्ता गुणथी पूर्ण छे, एनुं जे कार्य आनंद आदि थाय एवी कर्मशक्तिथी पूर्ण छे, जे साधन थईने निर्मळदशा प्रगट थाय एवा साधनगुणथी पूर्ण छे, जे निर्मळता आदि प्रगटे ते पोते राखे एवी संप्रदानशक्तिथी पूर्ण छे, ईत्यादि. सर्वज्ञ भगवाननी वाणीमां आत्मानुं आवुं परिपूर्ण चैतन्यघन स्वरूप कह्युं छे. एनुं यथार्थ श्रद्धान थवाथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे, त्यारे ज धर्मना पंथनी ओळखाण थाय छे.
हवे (७मा कळशमां) शुद्धनयने आधीन एटले आत्माना पूर्णस्वरूपने जोनारी जे द्रष्टि तेने आधीन भगवान आत्मा प्रगट थाय छे. केवो छे ते आत्मा? समस्त परद्रव्योथी भिन्न, झळहळ आत्मज्योति स्वरूप छे, ते प्रगट थाय छे.
‘अतः’ त्यारबाद ‘शुद्धनय–आयत्तं’ शुद्धनयने आधीन, पवित्र द्रष्टिने आधीन ‘प्रत्यग्–ज्योतिः’ जे भिन्न आत्मज्योति छे ‘तत्’ ते ‘चकास्ति’ प्रगट थाय छे. शुद्धनयने आधीन भिन्न आत्मज्योति अनुभवमां आवे छे.
केवी छे ते आत्मज्योति? ‘नव–तत्त्व–गतत्वे अपि’ के जे नवतत्त्वमां प्राप्त थवा छतां-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष एम नवतत्त्वमां व्याप्त होवा छतां- ‘एकत्वं’ पोताना एकपणाने ‘न मुञ्चति’ छोडती नथी. नवमां रहेली देखाती होवा छतां पोताना शुद्धज्ञायकभावपणे एकपणे ज रहे छे.
जेम काशीघाटनो लोटो होय अने तेमां पाणी भर्युं होय तो लोटा जेवो पाणीनो आकार देखाय छे, छतां लोटाना अने पाणीना पोतपोताना आकारो तद्न भिन्न
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छे. तेम चिदानंदज्योति, ज्ञानजळ भगवान आत्मा, ज्ञान जेनो आकार छे एवो आत्मा देहदेवळमां रहेलो छे. ते देहाकार होवा छतां देहना आकारथी तद्न जुदो छे. शरीर तो पुद्गलाकार छे, भगवान आत्मा चैतन्य-आकार छे. बंने जुदे-जुदा छे.
आत्मानी एके-एक शक्ति परिपूर्ण छे. एवी अनंत शक्तिओनो पिंड आत्मवस्तु परिपूर्ण एकस्वरूप छे. ते नवतत्त्वोमां रहेलो देखातो होवा छतां पोतानुं एकपणुं छोडतो नथी. ज्ञायक छे ते रागमां छे, द्वेषमां छे एम देखाय, शुद्धताना अंशमां देखाय, शुद्धतानी वृद्धि थाय एमां देखाय छतां ज्ञानक चैतन्यज्योति पोतानुं एकपणुं छोडती नथी. जेम अग्नि लाकडुं; छाणुं ईत्यादि आकारे भेदपणे परिणमेलो देखाय छतां अग्नि पोतानुं अग्निपणुं-उष्णपणुं छोडतो नथी, ते उष्णपणे ज कायम रहे छे. तेम भगवान आत्मा नवतत्त्वमां भेदरूप थयेलो देखाय छतां ते ज्ञायकपणाने छोडतो नथी, ज्ञायक, ज्ञायक ज्ञायक एक ज्ञायकसामान्य एकपणे ज रहे छे.
भाई! आ आत्मा क्यां अने केवडो छे ए तें जोयो नथी. ए तो पोतामां परिपूर्ण वस्तु छे. साकर अने सेकेरीन बन्नेमां मीठाश छे. पण साकरना बहु मोटा गांगडा करतां पण बहु अल्पप्रमाण सेकेरीनमां अनेकगणी मीठाश छे. तेथी वस्तुनुं कद मोटुं होय तो शक्ति वधारे एम नथी. भगवान आत्मा शरीरप्रमाण (शरीरपणे नहीं) होवा छतां पोताना ज्ञान, दर्शन आदि सामर्थ्यथी परिपूर्ण छे. अनेक अवस्थाओमां व्याप्त ते चैतन्यसामान्य एकमात्र चैतन्यपणे ज रहे छे. ए निर्मळानंद भगवान आत्मानी प्रसिद्धि करवी होय तो एना एकपणानी-सामान्यस्वभावनी द्रष्टि करवी जोईए. त्यारे ज तेनी साची प्रतीति अने साक्षात्कार थाय छे, तेने सम्यग्दर्शन कहे छे.
नवतत्त्वमां प्राप्त थयेलो आत्मा अनेकरूप देखाय छे; जो तेनुं भिन्न स्वरूप विचारवामां आवे तो ते पोतानी चैतन्य-चमत्कारमात्र ज्योतिने छोडतो नथी. जेम अग्निने छाणानो अग्नि, लाकडानो अग्नि एम कहेवाय, पण अग्नि तो अग्निपणे छे. भिन्न भिन्न ईंधनना आकारे अग्नि थयेलो होय एम भले देखाय पण ए अग्निनो ज आकार छे, लाकडा के छाणा वगेरे ईंधननो नथी. तेम आत्मा ज्ञायकस्वरूप परने जाणवा काळे अजीवने जाणे, रागने जाणे, द्वेषने जाणे, शरीरने जाणे. त्यां जाणपणे जे परिणमे ते पोते परिणमे छे, ज्ञानस्वरूप कायम रहीने परिणमे छे. परपणे- अजीवपणे, रागपणे, द्वेषपणे, शरीरपणे थईने जाणतो नथी. ज्ञान परपणे थइने परिणमे छे एम नथी, ज्ञान
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ज्ञानपणे रहीने परने जाणे छे. परने जाणतां पर-ज्ञेयाकारे ज्ञान थयुं एम कहेवाय, पण ते ज्ञानपणुं छोडीने ज्ञेयाकार थई गयुं छे एम नथी. भगवान आत्मा जे पूर्ण चैतन्यज्योति तेनुं ज्ञान ज्ञेय पदार्थोना आकारे होवा छतां ज्ञानगुणपणे ज रहे छे, परज्ञेयपणे थतुं नथी ए प्रमाणे यथार्थ जाणी पूर्ण चैतन्यस्वरूप आत्मानुं श्रद्धान करवुं ते सम्यग्दर्शन छे.
हवे सूत्रकार गाथामां कहे छे के त्रिकाळी ज्ञायकभावने, ज्ञायक, ज्ञायक,.. ज्ञायकसामान्यने शुद्धनयथी जाणवो ए सम्यग्दर्शन छे.
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आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।
ए प्रमाणे ज शुद्धनयथी जाणवुं ते सम्यक्त्व छे एम सूत्रकार गाथामां कहे छेः -
आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ते सम्यक्त्व छे. १३.
गाथार्थः– [भूतार्थेन अभिगताः] भूतार्थ नयथी जाणेल [जीवाजीवौ] जीव, अजीव [च] वळी [पुण्यपापं] पुण्य, पाप [च] तथा [आस्रवसंवरनिर्जराः] आस्रव, संवर, निर्जरा, [बन्धः] बंध [च] अने [मोक्षः] मोक्ष [सम्यक्त्वम्] -ए नव तत्त्व सम्यक्त्व छे.
टीकाः– आ जीवादि नवतत्त्वो भूतार्थनयथी जाण्ये सम्यग्दर्शन ज छे. (-ए नियम कह्यो); कारण के तीर्थनी (व्यवहारधर्मनी) प्रवृत्ति अर्थे अभूतार्थ (व्यवहार)- नयथी कहेवामां आवे छे एवां आ नव तत्त्वो- जेमनां लक्षण जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष छे-तेमनामां एकपणुं प्रगट करनार भूतार्थनयथी एकपणुं प्राप्त करी, शुद्धनयपणे स्थपायेला आत्मानी अनुभूति-के जेनुं लक्षण आत्मख्याति छे- तेनी प्राप्ति होय छे. (शुद्धनयथी नवतत्त्वने जाणवाथी आत्मानी अनुभूति थाय छे ते हेतुथी आ नियम कह्यो.) त्यां, विकारी थवा योग्य अने विकार करनार-ए बन्ने पुण्य छे, तेम ज ए बन्ने पाप छे, आस्रव थवा योग्य अने आस्रव
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करनार-ए बन्ने आस्रव छे, संवररूप थया योग्य (संवार्य) अने संवर करनार- (संवारक)-ए बन्ने संवर छे, निर्जरवा योग्य अने निर्जरा करनार-ए बन्ने निर्जरा छे, बंधावा योग्य अने बंधन करनार-ए बन्ने बंध छे अने मोक्ष थवा योग्य अने मोक्ष करनार-ए बन्ने मोक्ष छे; कारणके एकने ज पोतानी मेळे पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्षनी उपपत्ति (सिद्धि) बनती नथी. ते बन्ने जीव अने अजीव छे (अर्थात् ते बब्बेमां एक जीव छे ने बीजुं अजीव छे).
बाह्य (स्थूल) द्रष्टिथी जोईए तोः-जीव-पुद्गलना अनादि बंधपर्यायनी समीप जईने एकपणे अनुभव करतां आ नव तत्त्वो भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे, अने एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां तेओ अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे; (जीवना एकाकार स्वरूपमां तेओ नथी;) तेथी आ नव तत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक जीव ज प्रकाशमान छे. एवी रीते अंतर्द्रष्टिथी जोईए तोः- ज्ञायक भाव जीव छे अने जीवना विकारनो हेतु अजीव छे; वळी पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष-ए जेमनां लक्षण छे एवा तो केवळ जीवना विकारो छे अने पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष-ए विकारहेतुओ केवळ अजीव छे. आवां आ नव तत्त्वो, जीवद्रव्यना स्वभावने छोडीने, पोते अने पर जेमनां कारण छे एवा एक द्रव्यना पर्यायोपणे अनुभव करवामां आवतां भूतार्थ छे अने सर्व काळे अस्खलित एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करवामां आवतां तेओ अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. तेथी आ नवे तत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक जीव ज प्रकाशमान छे. एम ते, एकपणे प्रकाशतो, शुद्धनयपणे अनुभवाय छे. अने जे आ अनुभूति ते आत्मख्याति (आत्मानी ओळखाण) ज छे, ने आत्मख्याति ते सम्यग्दर्शन ज छे. आ रीते आ सर्व कथन निर्दोष छे-बाधारहित छे.
भावार्थः– आ नव तत्त्वोमां, शुद्धनय जोईए तो, जीव ज एक चैतन्य- चमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रगट थई रह्यो छे, ते सिवाय जुदां जुदां नव तत्त्वो कांई देखातां नथी. ज्यां सुधी आ रीते जीवतत्त्वनुं जाणपणुं जीवने नथी त्यां सुधी ते व्यवहारद्रष्टि छे, जुदां जुदां नव तत्त्वोने माने छे. जीव-पुद्गलना बंधपर्यायरूप द्रष्टिथी आ पदार्थो जुदा जुदा देखाय छे; पण ज्यारे शुद्धनयथी जीव-पुद्गलनुं निजस्वरूप जुदुं जुदुं जोवामां आवे त्यारे ए पुण्य, पाप आदि सात तत्त्वो कांई पण वस्तु नथी; निमित्त-नैमित्तिक भावथी थयां हतां ते निमित्त-नैमित्तिक भाव ज्यारे मटी गयो त्यारे जीव-पुद्गल जुदां जुदां होवाथी बीजी कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध थई शकती नथी. वस्तु तो द्रव्य छे ने द्रव्यनो निजभाव द्रव्यनी साथे ज रहे छे तथा निमित्त-नैमित्तिक भावनो तो अभाव ज थाय छे, माटे शुद्धनयथी
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_________________________________________________________________ जीवने जाणवाथी ज सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थई शके छे. ज्यां सुधी जुदा जुदा नव पदार्थो जाणे, शुद्धनयथी आत्माने जाणे नहि त्यां सुधी पर्यायबुद्धि छे.
अहीं, ए अर्थनुं कलशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [इति] आ रीते [चिरम् नव–तत्त्वच्छन्नम् इदम् आत्मज्योतिः] नव तत्त्वोमां घणा काळथी छुपायेली आ आत्मज्योतिने, [वर्णमाला–कलापे निमग्नं कनकम् इव] जेम वर्णोना समूहमां छूपायेला एकाकार सुवर्णने बहार काढे तेम, [उन्नीयमानं] शुद्धनयथी बहार काढी प्रगट करवामां आवी छे. [अथ] माटे हवे हे भव्य जीवो! [सततविविक्तं] हंमेशा आने अन्य द्रव्योथी तथा तेमनाथी थता नैमित्तिक भावोथी भिन्न, [एकरुपं] एकरूप [द्रश्यताम्] देखो. [प्रतिपदम् उद्योतमानम्] आ (ज्योति), पदे पदे अर्थात् पर्याये पर्याये एकरूप चित्चमत्कारमात्र उद्योतमान छे.
भावार्थः– आ आत्मा सर्व अवस्थाओमां विधविध रूपे देखातो हतो तेने शुद्धनये एक चैतन्य-चमत्कारमात्र देखाडयो छे; तेथी हवे सदा एकाकार ज अनुभव करो, पर्यायबुद्धिनो एकांत न राखो- एम श्री गुरुओनो उपदेश छे. ८.
टीकाः– हवे, जेम नव तत्त्वोमां एक जीवने ज जाणवो भूतार्थ कह्यो तेम, एकपणे प्रकाशमान आत्माना अधिगमना उपायो जे प्रमाण, नय, निक्षेप छे तेओ पण निश्चयथी अभूतार्थ छे, तेमां पण आत्मा एक ज भूतार्थ छे (कारण के ज्ञेय अने वचनना भेदोथी प्रमाणादि अनेक भेदरूप थाय छे). तेमां पहेलां, प्रमाण बे प्रकारे छे-परोक्ष अने प्रत्यक्ष. १उपात्त अने २अनुपात्त पर (पदार्थो) द्वारा प्रवर्ते ते परोक्ष छे अने केवळ आत्माथी ज प्रतिनिश्चितपणे प्रवर्ते ते प्रत्यक्ष छे. (प्रमाण ज्ञान छे. ते ज्ञान पांच _________________________________________________________________ १. उपात्त=मेळवेला. (ईंद्रिय, मन वगेरे उपात्त पर पदार्थो छे.) २. अनुपात्त=अणमेळवेला. (प्रकाश, उपदेश वगेरे अनुपात्त पर पदार्थो छे.)
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प्रकारनुं छे- मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ने केवळ. तेमां मति ने श्रुत ए बे ज्ञान परोक्ष छे, अवधि ने मनःपर्यय ए बे विकल्प-प्रत्यक्ष छे अने केवळज्ञान सकल- प्रत्यक्ष छे. तेथी ए बे प्रकारनां प्रमाण छे.) ते बन्ने प्रमाता, प्रमाण, प्रमेयना भेदने अनुभवतां तो भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; अने जेमां सर्व भेदो गौण थई गया छे एवा एक जीवना स्वभावनो अनुभव करतां तेओ अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे.
नय बे प्रकारे छे-द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक. त्यां द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तुमां द्रव्यनो मुख्यपणे अनुभव करावे ते द्रव्यार्थिक नय छे अने पर्यायनो मुख्यपणे अनुभव करावे ते पर्यायार्थिक नय छे. ते बंने नयो द्रव्य अने पर्यायनो पर्यायथी (भेदथी, क्रमथी) अनुभव करतां तो भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; अने द्रव्य तथा पर्याय ए बन्नेथी नहि आलिंगन करायेला एवा शुद्धवस्तुमात्र जीवना (चैतन्यमात्र) स्वभावनो अनुभव करतां तेओ अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे.
निक्षेप चार प्रकारे छे- नाम, स्थापना, द्रव्य ने भाव. वस्तुमां जे गुण न होय ते गुणना नामथी (व्यवहार माटे) वस्तुनी संज्ञा करवी ते नाम निक्षेप छे. ‘आ ते छे’ एम अन्य वस्तुमां अन्य वस्तुनुं प्रतिनिधित्व स्थापवुं (-प्रतिमारूप स्थापन करवुं) ते स्थापना निक्षेप छे. वर्तमानथी अन्य एटले के अतीत अथवा अनागत पर्यायथी वस्तुने वर्तमानमां कहेवी ते द्रव्य निक्षेप छे. वर्तमान पर्यायथी वस्तुने वर्तमानमां कहेवी ते भाव निक्षेप छे. ए चारेय निक्षेपोनो पोतपोताना लक्षणभेदथी (विलक्षणरूपे-जुदा जुदा रूपे) अनुभव करवामां आवतां तेओ भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; अने भिन्न लक्षणथी रहित एक पोताना चैतन्यलक्षणरूप जीवस्वभावनो अनुभव करतां ए चारेय अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. आ रीते आ प्रमाण -नय-निक्षेपोमां भूतार्थपणे एक जीव ज प्रकाशमान छे.
भावार्थः– आ प्रमाण, नय, निक्षेपोनुं विस्तारथी व्याख्यान ते विषयना ग्रंथोमांथी जाणवुं; तेमनाथी द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुनी सिद्धि थाय छे. तेओ साधक अवस्थामां तो सत्यार्थ ज छे कारण के ते ज्ञानना ज विशेषो छे. तेमना विना वस्तुने गमे तेम साधवामां आवे तो विपर्यय थई जाय छे. अवस्था अनुसार व्यवहारना अभावनी त्रण रीति छेः पहेली अवस्थामां प्रमाणादिथी यथार्थ वस्तुने जाणी ज्ञानश्रद्धाननी सिद्धि करवी; ज्ञान श्रद्धान सिद्ध थया पछी श्रद्धान माटे तो प्रमाणादिनी कांई जरूर नथी. पण हवे ए बीजी अवस्थामां प्रमाणादिना आलंबन द्वारा विशेष ज्ञान थाय छे अने राग-द्वेष-मोहकर्मना सर्वथा अभावरूप यथाख्यात चारित्र प्रगटे छे; तेथी केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. केवळज्ञान
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क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्।
किमपरमभिदध्मो धाम्नि
__________________________________________________________________ थया पछी प्रमाणादिनुं आलंबन रहेतुं नथी. त्यार पछी त्रीजी साक्षात् सिद्ध अवस्था छे त्यां पण कांई आलंबन नथी. ए रीते सिद्ध अवस्थामां प्रमाण-नय-निक्षेपोनो अभाव ज छे.
ए अर्थनो कलशरूप श्लोक कहे छेः-
श्लोकार्थः– आचार्य शुद्धनयनो अनुभव करी कहे छे के -[अस्मिन् सर्वङ्कषे धाम्नि अनुभवम् उपयाते] आ सर्व भेदोने गौण करनार जे शुद्धनयनो विषयभूत चैतन्य-चमत्कारमात्र तेजःपुंज आत्मा, तेनो अनुभव थतां [नयश्रीः न उदयति] नयोनी लक्ष्मी उदय पामती नथी, [प्रमाणं अस्तम् एति] प्रमाण अस्तने प्राप्त थाय छे [अपि च] अने [निक्षेपचक्रम् क्वचित याति, न विद्मः] निक्षेपोनो समूह क्यां जतो रहे छे ते अमे जाणता नथी. [किम् अपरम् अभिदध्मः] आथी अधिक शुं कहीए? [द्वैतम् एव न भाति] द्वैत ज प्रतिभासित थतुं नथी.
भावार्थः– भेदने अत्यंत गौण करीेने कह्युं छे के -प्रमाण, नयादि भेदनी तो वात ज शी? शुद्ध अनुभव थतां द्वैत ज भासतुं नथी, एकाकार चिन्मात्र ज देखाय छे.
अहीं विज्ञानद्वैतवादी तथा वेदांती कहे छे के- छेवट परमार्थरूप तो अद्वैतनो ज अनुभव थयो. ए ज अमारो मत छे; तमे विशेष शुं कह्युं? एनो उत्तरः- तमारा मतमां सर्वथा अद्वैत मानवामां आवे छे. जो सर्वथा अद्वैत मानवामां आवे तो बाह्य वस्तुनो अभाव ज थई जाय, अने एवो अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध छे. अमारा मतमां नयविवक्षा छे ते बाह्य वस्तुनो लोप करती नथी. ज्यारे शुद्ध अनुभवथी विकल्प मटी जाय छे त्यारे आत्मा परमानंदने पामे छे तेथी अनुभव कराववा माटे “शुद्ध अनुभवमां द्वैत भासतुं नथी” एम कह्युं छे. जो बाह्य वस्तुनो लोप करवामां आवे तो आत्मानो पण लोप थई जाय अने शून्यवादनो प्रसंग आवे. माटे तमे कहो छो ते प्रमाणे वस्तुस्वरूपनी सिद्धि थई शकती नथी, अने वस्तुस्वरूपनी यथार्थ श्रद्धा विना जे शुद्ध अनुभव
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मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम्।
विलीनसङ्कल्पविकल्पजालं
प्रकाशयन् शुद्धनयोडभ्युदेति।। १०।।
__________________________________________________________________ करवामां आवे ते पण मिथ्यारूप छे; शून्यनो प्रसंग होवाथी तमारो अनुभव पण आकाशना फूलनो अनुभव छे. ९.
आगळ शुद्धनयनो उदय थाय छे तेनी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-
श्लोकार्थः– [शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति] शुद्धनय आत्माना स्वभावने प्रगट करतो उदयरूप थाय छे. ते आत्मस्वभावने केवो प्रगट करे छे? [परभावभिन्नम्] परद्रव्य, परद्रव्यना भावो तथा परद्रव्यना निमित्तथी थता पोताना विभावो-एवा परभावोथी भिन्न प्रगट करे छे. वळी ते, [आपूर्णम] आत्मस्वभाव समस्तपणे पूर्ण छे-समस्त लोकालोकने जाणनार छे-एम प्रगट करे छे; (कारण के ज्ञानमां भेद कर्मसंयोगथी छे, शुद्धनयमां कर्म गौण छे). वळी, ते [आदि –अन्त– विमुक्तम्] आत्मस्वभावने आदि-अंतथी रहित प्रगट करे छे. (अर्थात् कोई आदिथी मांडीने जे कोईथी उत्पन्न करवामां आव्यो नथी अने कयारेय कोईथी जेनो विनाश नथी एवा पारिणामिक भावने ते प्रगट करे छे). वळी ते, [एकम्] आत्मस्वभावने एक-सर्व भेदभावोथी (द्वैतभावोथी) रहित एकाकार-प्रगट करे छे, अने [विलीन – सङ्कल्प–विकल्प–जालं] जेमां समस्त संकल्प-विकल्पना समूहो विलय थई गया छे एवो प्रगट करे छे. (द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्योमां पोतानी कल्पना करवी तेने संकल्प कहे छे अने ज्ञेयोना भेदथी ज्ञानमां भेद मालूम थवो तेने विकल्प कहे छे.) आवो शुद्धनय प्रकाशरूप थाय छे. १०.
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मथाळुंः– ए प्रमाणे ज शुद्धनयथी जाणवुं ते सम्यक्त्व छे. एटले के त्रिकाळी ज्ञायकभावने ज्ञायक, ज्ञायक...ज्ञायकसामान्यपणे जाणवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे एम सूत्रकार गाथा (१३) मां कहे छे.
‘भूतार्थेन अभिगताः’ भूतार्थनयथी जाणेल-एटले के छती-विद्यमान जे वस्तु त्रिकाळ छे तेने जाणनारा नयथी जाणेल ‘जीवा–जीवौ’ जीव, अजीव ‘च’ वळी ‘पुण्यपापं’ पुण्य अने पाप ‘च’ तथा ‘आस्रवसंवरनिर्जराः’ आस्रव, संवर, निर्जरा, ‘बन्धः’ बंध ‘च’ अने ‘मोक्षः’ मोक्ष ‘सम्यक्त्वम्’–ए नवतत्त्व सम्यक्त्व छे. एटले ए नवतत्त्वमांथी एक त्रिकाळीने जुदो तारवीने ए जाणनार, जाणनार जाणनारमात्र एकने ज द्रष्टिमां लेवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. एने आत्मा छे तेवो बराबर मान्यो, जाण्यो अने अनुभव्यो कहेवाय.
भाई! आ तो अभ्यास होय तो समजाय एवुं छे. मेट्रिक, बी. ए., एल. एल. बी. वगेरे अभ्यासमां केटलोय वखत गाळे. संस्कृतना अभ्यासमां वरसो गाळे पण ए कांई काम आवे नहीं. अहीं तो आत्मा ज्ञायकपणे जे त्रिकाळ छे तेना संस्कार नाखवा, अनुभव करवो ए अभ्यास सार्थक छे.
आ जीवादि नवतत्त्वो-जीव, अजीव, पुण्य, पाप आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष छे. तेमां जीव अने अजीव बे पदार्थ छे. जीव छे, शरीर, कर्म आदि अजीव छे, कर्मना निमित्तना संबंधमां पुण्य-पाप अने आस्रव अने बंध थाय छे तथा संवर,
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निर्जरा अने मोक्ष निमित्तना (कर्मना) अभावमां थाय छे. पण आ नवे तत्त्वोमां निमित्तनी अपेक्षा आवे छे. ते अपेक्षा छोडी दईने एकलो ज्ञायक, ज्ञायकभाव जे पूर्णज्ञानघन छे एनी द्रष्टि करवी, एनो स्वीकार करवो, सत्कार करवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. आ सिवाय देव-शास्त्र-गुरुने मानवा के नवतत्त्वने भेदथी मानवा ते कांई सम्यग्दर्शन नथी. आ सम्यक् अनेकांत छे.
अने चारित्र? आत्मा अतीन्द्रिय आनंदमूर्ति छे. एनुं भान थईने एमां विशेष विशेष लीनता-रमणता थतां जे प्रचुर आनंदनुं वेदन थाय ते चारित्रदशा छे. प्रथम जेने सम्यग्दर्शन होय तेने विशेष स्थिरता थाय ते चारित्र छे. सम्यग्दर्शन न होय अने पाधरा (सीधा) व्रत लईने बेसी जाय ए तो बधां एकडा विनानां मींडां छे. ए बधुं मिथ्यात्वनी भूमिका छे.
आ जीवादि नवतत्त्वो भूतार्थनयथी जाण्ये सम्यग्दर्शन ज छे -ए नियम छे. जे नवतत्त्वो छे तेमां त्रणलोकना नाथ भगवान आत्मा चैतन्यहीरलो बिराजमान छे. जेम हीराने अनेक पासा छे तेम आ चैतन्यहीरलाने गुणरूप अनंत पासा छे. ए अनंत पासा (गुण) स्वयं परिपूर्ण छे तथा वस्तुमां अभेद एकरूप पडेला छे. आवी अनंतगुणमंडित अभेद एकरूप वस्तु जे चैतन्यघनस्वरूप आत्मा तेने भूतार्थनय वडे जाणवी ते नियमथी सम्यग्दर्शन छे. अहीं शुद्धनयने भूतार्थनय कह्यो छे. अथवा त्रिकाळी वस्तु ए ज शुद्धनय छे. आ वात ११मी गाथामां आवी गई छे.
अहाहा...! जेने जाण्ये अनंत जन्म-मरणनो अंत आवी जाय, पूर्ण अनंत अतीन्द्रिय-आनंदनी प्राप्ति थाय एटले मुक्ति थाय ए कारण केवुं होय? बापु! (ए साधारण न होय.) ए तो पूर्ण स्वरूप छे जेमां न राग छे, न भेद छे, न पर्यायनो प्रवेश छे. एवी झळहळ चैतन्यज्योतिस्वरूप अभेद एकरूप ज्ञायक वस्तुमां द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे, ते निश्चय छे. आ तो मुद्रानी मूळ रकमनी वात छे.
घराकनो हिसाब करे त्यारे कहे-रकमनुं व्याज तो आप्युं, पण मूळ रकम? मूळ रकम तो लाव. एम अनादिनी पुण्यनी क्रिया करीकरीने मरी गयो, पण मूळ रकम शुं छे ए तो जो. मूळ मुदनी रकम तो चैतन्यज्योत पूर्णज्ञानघन नवतत्त्वमां पर्यायपणे परिणमेली देखावा छतां जे ज्ञायकपणे एकरूप छे ते छे. एने जाण्ये, मान्ये सम्यक् कहेतां सत्यदर्शन छे. जेवुं एनुं पूर्ण सत् स्वरूप छे तेवी ज तेनी प्रतीति थवी तेने सत्यदर्शन कहे छे.भाई! धर्मनी शरूआत अहींथी थाय छे. एना विना लाखो- करोडोनां दान करे, मंदिरो बनावे के उपवास करीने मरी जाय तोपण ए बधुं थोथेथोथां छे. तो शुं ए बधुं
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न करवुं? कोण करे? मंदिरादि बधुं एना कारणे थाय छे. (शुभभावने कारणे नहीं) पण ए शुभभाव आवे छे, ए होय छे, बस एटलुं ज. तथापि ए शुभभाव ते धर्म नथी; ए तो संसार छे, रखडवानो भाव छे. पुण्य पोते रखडाउ छे, एनाथी रखडवुं केम मटे? ए पुण्यभाव-शुभभाव संसार छे.
जेनुं स्वरूप केवळी पण पूरुं कही शक्या नहीं एवो तुं कोण अने केवडो छुं? भाई, आ वाणी तो जड छे ए चैतन्यनुं स्वरूप केटलुं कहे? ए अरूपी चैतन्यघन भगवान वाणीमां केटलो आवे? ईशारा आवे, भाई! अहीं पूर्णज्ञानघन शब्द वापरीने आचार्ये एक गुण पूर्ण छे अने एवा अनंतगुणनो एकरूप पूर्णज्ञानघन प्रभु आत्मा छे एम दर्शाव्युं छे. एने ज्ञानमां लईने-वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञेय बनावीने प्रतीति करवी ए सम्यग्दर्शन छे. ए धर्मनुं मूळ छे. जेम मूळ विना, डाळी ने पांदडां, फळ आदि होतां नथी तेम सम्यग्दर्शनरूप मूळ विना चारित्र के व्रत, तप होता नथी.
अहाहा...! जीवादि नवतत्त्वो भूतार्थनयथी जाण्ये सम्यग्दर्शन ज छे ए नियम कह्यो. वस्तुस्थितिनो आ नियम छे. हवे तेनुं कारण समजावतां कहे छे-तीर्थनी व्यवहारधर्मनी प्रवृत्ति अर्थे अभूतार्थनयथी जीव-अजीव आदि नवतत्त्वो कहेवामां आवे छे. ते आ प्रमाणेः जीव-एक समयनी जीवनी पर्याय ते अहीं जीव कहे छे; अजीव-अजीवनुं जे ज्ञान थाय छे तेने अहीं अजीव कहे छे; पुण्य-दया, दान, व्रत, पूजा, भक्ति आदिनो भाव ते पुण्यभाव छे; पाप-हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील, भोग आदि भाव, आ रळवा-कमावानो, दुकान चलाववानो, दवा-ईन्जेकशन देवानो भाव, ते पापभाव छे; ए पुण्य अने पाप बन्ने भाव ते आस्रव छे. आ एटले मर्यादाथी अने स्रववुं एटले आववुं. मर्यादाथी कर्मनुं आववुं ते आस्रव छे. जेम वहाणमां छिद्र होय तो एने लईने पाणी अंदर आवे तेम आत्मामां पुण्य-पापना भाव थाय तो एना संबंधमां नवां (कर्मनां) आवरण आवे ते आस्रव छे; संवर-आत्मा शुद्धस्वरूपे पूर्ण छे; पूर्ण शुद्धना आश्रये शुद्धिनो अंश प्रगटे ते संवर छे; निर्जरा -संवरपूर्वक अशुद्धतानुं खरवुं, कर्मनुं गळवुं अने शुद्धतानुं वधवुं ए त्रणेय निर्जरा छे; बंध-दया दान आदि जे विकल्प ऊठे तेमां अटकवुं ते बंध छे; मोक्ष वस्तु ज्ञायकस्वरूप अबंध छे. तेमां पूर्ण स्थिरता थतां पूर्ण निर्मळ दशा, पूर्ण शुद्धता, पूर्ण वीतरागता प्रगट थवी एनुं नाम मोक्ष छे. जेवुं पूर्णानंद स्वरूप छे तेवो पूर्ण आनंद प्रगट थई जवो ते मोक्ष छे.
कोईने एम थाय के आ बधुं शुं छे? नवुं नथी, बापु! तने नवुं लागे छे. केमके तारी चीज एकरूप शुं अने ए चीजनी आ दशाओ शुं ए कोई दिवस तें