Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 11 of 210

 

PDF/HTML Page 201 of 4199
single page version

सांभळ्‌युं नथी. आ छे तो घरनी वात, पण एणे परघरनी ज आजसुधी मांडी छे. संसारनी वातोमां जाणे डाह्यानो (चतुरनो) दीकरो! पण अरेरे! खेद छे के तुं कोण छुं अने केवडो छुं एनी खबर नथी.

हवे कहे छे- आ नवतत्त्वनी जे भेदरूप दशाओ तेमनामां एकपणुं प्रगट करनार भूतार्थनयथी एकपणुं प्राप्त करीने शुद्धनयपणे स्थपायेला आत्मानी अनुभूति -के जेनुं लक्षण आत्मख्याति छे-तेनी प्राप्ति होय छे. ल्यो, जुओ. नवतत्त्वरूप भेदोना विकल्पमां रागनी आडमां जे त्रिकाळी एकरूप आत्मज्योति ढंकाएली छे तेने भूतार्थनय वडे एकपणे प्रगट करवामां आवतां, तेमां एकमां द्रष्टि करीने आत्मप्रसिद्धि जेनुं लक्षण छे ते आत्मानुभूति प्रगट थई जाय छे. नवतत्त्वमां आत्मा प्रसिद्ध न हतो, द्रव्य जे ज्ञायक शाश्वत चैतन्यमूर्ति छे अने पर्याय सहित जोतां प्रसिद्ध नहोतो थतो ते एकरूप चैतन्यने जोतां चैतन्यनो प्रकाश आत्मख्याति प्रसिद्ध थाय छे; प्राप्त थाय छे.

नवना भेदने जोतां नव भेद छे खरा. (पहेलां कहेवाई गयुं के तीर्थनी प्रवृत्ति अर्थे ते भेदो व्यवहारथी कहेला छे) पण ए आश्रय करवा लायक नथी, केमके नवतत्त्वना भेदना ज्ञानमां रोकावाथी रागनी उत्पत्तिनी प्रसिद्धि थाय छे, अनात्मानी प्रसिद्धि थाय छे. परंतु आ नव भेदोमां भूतार्थनय एकपणुं प्रगट करे छे, एकला ज्ञायकभावने देखाडे छे. आ एक त्रिकाळी ज्ञायकभावनी सन्मुख थईने जाणवाथी एकपणुं प्राप्त थाय छे, आनंदनी अनुभूति द्वारा आत्मा प्रसिद्ध थाय छे. (तेथी भूतार्थनयथी नवतत्त्वने जाणवाथी सम्यग्दर्शन ज छे ए नियम कह्यो छे.)

हवे नवतत्त्व उपस्थित केम थयां ते कहे छे. त्यां विकारी थवा योग्य अने विकार करनार-ए बन्ने पुण्य छे, तेम ज ए बन्ने पाप छे. विकारी थवा योग्य एटले जीवनी पर्यायमां विकार थवा योग्य छे. पर्यायमां विकार थवा योग्य जीवनी दशा छे. अने विकार करनार एटले अहीं कर्म जे निमित्त छे एने विकार करनार छे एम कह्युं छे. विकार थवा योग्य पर्याय तो पोताना उपादानथी थई छे, उपादानपणे करनार पोते छे; एमां कर्मनुं निमित्त छे. विकारी थवा योग्य एम कहीने जीवनी पर्यायनी लायकात बतावी छे, द्रव्यस्वभाव तो एवो नथी वर्तमान पर्याय ते विकार थवा योग्य अने एमां कर्म निमित्त ते विकार करनार ए बन्ने पुण्य छे. विकारी थवा योग्य छे ते भावपुण्य अने कर्मनुं जे निमित्त छे ते द्रव्य-पुण्य-एम बन्ने पुण्य छे. ए ज प्रमाणे विकारी थवा योग्य जे जीवनी पर्याय ते भावपाप अने कर्मनुं जे निमित्त ते द्रव्यपाप-एम बन्ने पाप छे. द्रव्यपापए, भावपाप थवामां निमित्त छे. वस्तुस्वभाव पोते पुण्य-पापने करनार नथी. शुभभाव


PDF/HTML Page 202 of 4199
single page version

थवा लायक जीव (पर्याय) अने एनो करनार कर्मनो उदय ते अजीव छे तेने द्रव्यपुण्य कहीए. एवी रीते हिंसा जूठ, चोरी आदि भावपाप थवा लायक तो जीव छे, पर्यायमां एवी लायकात छे अने कर्मनुं जे निमित्त छे तेने द्रव्यपाप कहीए.

मोहकर्मनो जे उदय छे ए तो पाप ज छे. घातीकर्मनो उदय जे छे एतो एकलो पापरूप ज छे. छतां अहीं पुण्यभावपणे परिणम्यो छे तेने भावपुण्य जीव कह्यो अने कर्मनो उदय (घातीकर्मनो) जे अजीव छे तेने द्रव्य-पुण्य कह्यो. शातानो उदय छे ए पुण्यभावमां निमित्त न थाय. ए तो अघाती छे. एनो उदय तो संयोग आपे. (अघाती कर्म संयोगमां निमित्त थाय, पुण्य-पापमां निमित्त न थाय) पण घातीकर्मनो उदय जे छे एने अहीं भावपुण्यनी अपेक्षाए द्रव्यपुण्य कह्यो छे. घातीकर्मनो उदय मंद होय के तीव्र, ए छे तो पाप ज. कर्मनो उदय भले तीव्र होय, अहीं रागनी मंदतारूप पुण्यभाव करे तो कर्मना उदयने द्रव्य-पुण्य (मंद उदय) कहेवाय छे. कर्मनो उदय मंद छे माटे अहीं शुभभाव थयो एम नथी. अहीं एम नथी लीधुं के शुभभावनो उदय होय तो द्रव्य-पुण्य. जीवना पुण्यभावने जे निमित्त छे एने द्रव्य-पुण्य कह्युं छे. जीव पोताना शुभभावने लायक छे ते जीव-पुण्य-भावपुण्य अने एमां जे कर्म निमित्त छे ते द्रव्य-पुण्य, अजीव-पुण्य कह्युं छे. (अजीव पुण्य जीवना पुण्यभावमां निमित्त छे, ते पुण्यभाव करावतुं नथी.)

चाहे एकेन्द्रियमां हो के पंचेन्द्रियनी पर्यायमां भगवान आत्मा जे द्रव्यस्वभाव छे ए तो एकलो शुद्ध त्रिकाळ छे. अने ए ज्ञायक ज उपादेय छे. हवे अहीं कहे छे के द्रव्य त्रिकाळ शुद्ध होवा छतां एनी पर्यायमां पुण्य, पाप, आस्रव अने बंध एवो बे भाग ऊभा केम थाय छे? वस्तु एक अने नव भेद जे हेय छे ते ऊभा केम थाय छे?

आत्मवस्तु द्रव्यस्वभावथी शुद्ध चैतन्यरूप आनंदघन छे. ते एकने नव न होई शके. पण जेने ए द्रष्टिमां आव्यो नथी, अनुभवमां आव्यो नथी एने पर्यायमां विकार छे. पर्यायमां बीजानो संग-संबंध थवाथी तेने नव ऊभा थाय छे. द्रव्यमां तो कोई एवी शक्ति (गुण) नथी जे विकार करे. जो गुण एवो होय तो विकार टळे नहीं. त्यारे कोई कहे के पर्यायमां विकार थाय छे ने? समाधान एम छे के पर्यायबुद्धिवाळाने पर्यायनी योग्यताथी थाय छे, द्रव्यबुद्धिवाळाने नहीं. द्रव्यबुद्धिवाळाने एनो निषेध थई गयो छे, एतो ज्ञाता थई गयो छे. बापु! जरा धीरजथी समजवुं जोईए; आ तो सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरनो अलौकिक मार्ग छे. एनो व्यवहार पण अलौकिक रीते छे. अत्यारे आ व्यवहार सिद्ध कर्यो छे. व्यवहारनयथी ए (नवतत्त्वो) भूतार्थ छे, पण ए आश्रय करवा लायक नथी; केमके एना आश्रये समकित थतुं नथी.


PDF/HTML Page 203 of 4199
single page version

हवे कहे छे-आस्रव थवा योग्य अने आस्रव करनार-ए बन्ने आस्रव छे. पुण्य-पापना भावपणे थवा लायक जीवनी पर्याय ए भाव-आस्रव अने तेमां कर्मनुं जे निमित्त ते द्रव्य-आस्रव. ए द्रव्य-आस्रवने अहीं करनार कह्यो छे. नवां कर्म आवे ते द्रव्य-आस्रव ए वात अहीं नथी. आ तो पूर्वनां जूनां कर्म जे निमित्त थाय तेने द्रव्य-आस्रव कह्यो छे. ए बन्ने आस्रव छे-एक भाव-आस्रव अने बीजो द्रव्य- आस्रव. संवर थवा योग्य संवार्य ए जीवनी पर्याय छे. ते भाव-संवर छे. संवर करनार संवारक ए निमित्त छे. संवरनी सामे जेटलो कर्मनो उदय नथी (अभावरूप छे) एने द्रव्य-संवर कहे छे. ए बन्ने संवर छे-एक भाव-संवर अने बीजो द्रव्य- संवर. निर्जरवा योग्य अने निर्जरा करनार-बन्ने निर्जरा छे. निर्जरवा योग्य अशुद्धता अने थवा योग्य शुद्धता ए जीवनी पर्याय छे. ए भाव-निर्जरा छे. निर्जरा करनार(द्रव्य-कर्मनुं खरी जवुं) ए निमित्त छे-ए द्रव्य-निर्जरा छे. ए बन्ने निर्जरा छे. बंधावा योग्य अने बंधन करनार-ए बन्ने बंध छे. बंधावा योग्य जीव (पर्याय) छे. रागद्वेष, मिथ्यात्व, विषयवासना-एमां अटकवा योग्य, बंधावा योग्य लायकात जीवनी पर्यायनी छे, ते भावबंध छे. सामे पूर्वकर्मनुं निमित्त छे ए बंधन करनार छे. नवो बंध थाय एनी वात अहीं नथी. आ तो पूर्व कर्म जे निमित्त थाय छे एने अहीं द्रव्यबंध कह्यो छे. भगवान आत्मा तो अबद्ध-स्पृष्ट छे, पण एनी पर्यायमां बंधयोग्य लायकात छे ते (जीव) भावबंध छे अने बंधन करनार कर्म- निमित्त छे ते द्रव्यबंध छे. आम ए बन्ने बंध छे. मोक्ष थवा योग्य अने मोक्ष करनार-ए बन्ने मोक्ष छे. मोक्ष थवा योग्य जीवनी पर्याय छे. जीवनी पर्यायमां मोक्ष थवानी लायकात छे. त्रिकाळी चीज छे ए तो मोक्षस्वरूप ज छे. मोक्ष थवा योग्य जीवनी पर्याय ते भावमोक्ष छे. अने सर्व कर्मना अभावरूप निमित्त ते मोक्ष करनार द्रव्य-मोक्ष छे. आम ए बन्ने मोक्ष छे. हवे कहे छे- एकने ज पोतानी मेळे एटले के पोतानी एकपणानी अपेक्षाए पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षनी उत्पत्ति बनती नथी. निमित्त- नैमित्तिक संबंधनी अपेक्षा विना एकने नव साबित थता नथी. एकने पर्यायमां बीजानुं निमित्त छे. एनाथी आ नव भेदो ऊभा थाय छे. ते बन्नेमां एक जीव अने बीजुं अजीव छे. हवे बाह्य (स्थूल) द्रष्टिथी जोईए तोः- जीव-पुद्गलना अनादि बंधपर्यायनी समीप जईने एटले के पर्यायद्रष्टि करीने आ योग्यता अने आ निमित्त ए बेने एकपणे


PDF/HTML Page 204 of 4199
single page version

अनुभव करतां आ नवतत्त्वो साचां छे. पर्यायबुद्धिथी जोतां भूतार्थ छे. व्यवहारनये नवतत्त्वो छे; पण ए सम्यग्दर्शननो विषय नथी. वेदांत कहे छे पर्याय नथी, तो एम नथी. नवना भेदनी पर्याय छे. व्यवहारनये, पर्यायबुद्धि करीने एनी सन्मुख जोई एकपणे अनुभव करतां नवतत्त्वो भूतार्थ छे, रागनी पर्याय अने निमित्तनी पर्याय बन्नेने एकपणे अनुभवतां नवतत्त्वना भेदो सत्यार्थ छे.

अने एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने एटले के एक ज्ञायकमात्र द्रव्यस्वभावनो आश्रय लईने अर्थात् ते एकने एकपणे अनुभव करतां ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे, जीवना एकाकार स्वरूपमां ए नवतत्त्वो नथी. एकरूप अभेद ज्ञायकभाव, एकाकार सच्चिदानंदस्वभावमां अनेक प्रकारना भेदो नथी. अहो! आ तो शब्दे शब्द मंत्र छे. आ धर्म केम थाय एनी वात चाले छे. आ व्यवहारनये नव छे एनुं तात्पर्य शुं? के ए नवनुं लक्ष छोडीने एक स्वभावनुं लक्ष करवुं ए तात्पर्य छे. ए नवना लक्षे धर्म न थाय, पण राग अने अधर्म थाय अने अखंड एक त्रिकाळी ज्ञायकना आश्रये अर्थात् ते एकने एकपणे अनुभवतां सम्यग्दर्शन थाय, धर्म थाय.

भगवान आत्मा, एकलो चैतन्य जे पर्यायनी आडमां, नवतत्त्वनी आडमां दूर हतो ते एकज्ञायक भावनी समीप जईने ते एकने एकपणे अनुभवतां तेमां नवभेदो जणाता नथी तेथी ते नव अभूतार्थ छे. तेथी आ नवतत्त्वोमां भूतार्थनयथी जोतां एक जीव ज प्रकाशमान छे, एक ज्ञायकभाव ज प्रकाशमान छे.

एवी रीते अंतर्द्रष्टिथी जोईए तोः- ज्ञायकभाव जीव छे अने जीवना विकारनो हेतु अजीव छे. विकार एटले विशेष कार्य- जीवनी पर्याय. अहीं विकार एटले दोष एम अर्थ नथी, पण विशेष कार्य एम समजवुं. वळी पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष -ए जेमनां लक्षण छे एवा तो केवळ जीवना विकारो छे, जीवनी पर्यायो छे. अने पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष-ए विकारहेतुओ केवळ अजीव छे. आवा आ नवतत्त्वो एटले जीवना विकारो जेना अजीव-हेतुओ, छे ए नवतत्त्वो, जीवद्रव्यना स्वभावने छोडीने, पोते अने पर जेमनां कारण छे-पोते उपादान कारण अने पर निमित्त कारण छे-एवा एक द्रव्यना पर्यायोपणे अनुभव करवामां आवतां भूतार्थ छे. पर्यायो पर्यायअपेक्षाए छे. व्यवहारनय छे. व्यवहारनयनो विषय पर्यायो छे. ए जाणवा लायक छे, पण आश्रय करवा योग्य नथी.

जीवद्रव्यनो स्वभाव सर्वकाळे अस्खलित छे. पर्याय छे ए तो बदलतो - पलटतो प्रवाह छे. त्रिकाळी ज्ञायक चैतन्य छे ए तो त्रिकाळ ध्रुव, ध्रुव, ध्रुव अस्खलित जेमां


PDF/HTML Page 205 of 4199
single page version

वधघट नथी, ओछुं-अधिक नथी एवो एकरूप छे. पर्याय छे ए तो भिन्नभिन्न योग्यताथी थाय छे, स्वभाव एकसद्रश, नित्य, ध्रुव रहे छे. आवा चित्सामान्य अभेद एकरूप स्वभावनी समीप जईने अनुभव करवामां आवतां ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे, जूठा छे. व्यवहारनये नव साचा छे, पण स्वभावना अनुभवनी द्रष्टिमां नवे असत्यार्थ छे. आवो सम्यक् अनेकांतमार्ग छे, भाई. एक अपेक्षाए व्यवहारनयथी नवतत्त्वो साचां कह्यां, तो एक अपेक्षाए त्रिकाळ ध्रुव द्रव्यनी द्रष्टिमां ते जणातां नथी, अनुभवातां नथी तेथी असत्यार्थ जूठां कह्यां. ज्यां जे अपेक्षा होय त्यां ते अपेक्षा बराबर जाणवी जोईए.

तेथी आ नवतत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक जीव ज प्रकाशमान छे. नवतत्त्वोमां सत्द्रष्टिथी-द्रव्यद्रष्टिथी जोतां ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायक, एक जीव ज प्रकाशमान छे. एम ते एकपणे प्रकाशतो शुद्धनयपणे अनुभवाय छे. ए एकपणानो अनुभव थतां आत्मा त्रिकाळ ‘शुद्ध’ आवो छे एम आत्म-प्रसिद्धि थाय छे. त्यारे जे आ अनुभूति थई ते आत्मख्याति ज छे अने आत्मख्याति ते सम्यग्दर्शन ज छे. आ रीते सर्व कथन निर्दोष ज छे, बाधा रहित छे. अहाहा! आ एकरूप चैतन्यघनस्वभावनी अनुभूति ते आत्मख्याति आत्मानी ओळखाण, अने आत्मख्याति ते सम्यग्दर्शन ज छे.

* गाथा –१३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

नवतत्त्वोमां, शुद्धनयथी जोईए तो, जीव ज एक चैतन्य-चमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रगट थई रह्यो छे. अहाहा! पर्यायमां नवतत्त्वोना भेदरूप परिणमन होवा छतां, जेमां वस्तुनी स्थिति प्रकाशमान छे एवा शुद्धनयथी जोतां एकलो ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायक, शुद्ध प्रत्यक्ष छे, नवतत्त्वो कांई जुदां जुदां देखातां नथी.

ज्यां सुधी आ रीते एटले शुद्धनयनी द्रष्टि वडे जीवतत्त्वनुं जाणपणुं नथी त्यां सुधी ते व्यवहारद्रष्टि छे. मात्र पर्यायने, भेदने ज माने ए भेदद्रष्टि-व्यवहारद्रष्टि छे. ते आ जीव छे, पर्याय छे, आस्रव छे, पुण्य छे ईत्यादि जुदां जुदां नवतत्त्वने ज माने छे तेथी मिथ्याद्रष्टि छे. जीव-पुद्गलना बंधरूप अवस्थाद्रष्टिथी जोतां आ पदार्थो जुदा जुदा देखाय छे. अर्थात् पर्यायद्रष्टिथी जोतां आ जीव छे, पुण्य छे, पाप छे एम भिन्न भिन्न देखाय छे. पण ज्यारे शुद्धनयथी जीव-पुद्गलनुं निजस्वरूप-एटले के एक ज्ञायक आत्मानुं शुद्ध स्वरूप अने एकला पुद्गलनुं भिन्न स्वरूप-एम निजस्वरूप भिन्न भिन्न जोवामां आवे त्यारे ए पुण्य, पाप आदि नवतत्त्व कांई वस्तु नथी; केमके एकलो ज्ञायकभाव भिन्न अने पुद्गल पण भिन्न एम जोतां ए नव त्यां देखाता नथी.


PDF/HTML Page 206 of 4199
single page version

ज्ञायकभाव द्रष्टिमां आवतां निमित्तनुं लक्ष छूटी गयुं, अने निमित्तथी थता भावोनुं पण लक्ष छूटी गयुं. एटले एकलो ज्ञायकभाव नजरमां आवतां नवभेद बधा जूठा छे. अंतरमां भगवान ज्ञायकभाव ध्रुव चैतन्यघनने जोतां निमित्त-नैमित्तिकभाव रहेता नथी, कारण के आ बाजु अंतरमां जोतां निमित्त रहेतुं नथी. (निमित्तनुं लक्ष छूटी जाय छे) अने निमित्तनी अपेक्षावाळा भाव पण थता नथी. वस्तु वस्तुमां रही जाय छे. पुण्य, पाप, आस्रव, बंध ए जीवनी पर्यायमां थता नैमित्तिक भाव छे, एमां निमित्त-कर्मना सद्भावनी अपेक्षा आवे छे. अने संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए नैमित्तिकभावमां निमित्तकर्मना अभावनी अपेक्षा आवे छे. हवे सहज आत्मस्वरूप पूर्णानंदनो नाथ जे भगवान आत्मा एने जोतां आ नवभेद देखाता नथी, रहेता नथी, एटले निमित्त-नैमित्तिकभाव मटी जाय छे. त्यारे जीव-पुद्गल जुदां जुदां होवाथी बीजी कोई वस्तु सिद्ध थई शकती नथी. पुद्गल पुद्गलरूपे अने ज्ञायक ज्ञायकरूपे भिन्न भिन्न थई जाय छे.

नवने जोनारी भेदद्रष्टि एतो अनादिनी मिथ्याद्रष्टि छे. पर्यायना भेदनी रुचिमां तो आखुं द्रव्य ढंकाई गयुं छे. हवे भेद परथी नजर हठावी, एक त्रिकाळी ज्ञायकभावने जोतां जीव-पुद्गलना संबंधे जे भेदवाळी पर्याय हती ए रहेती नथी, केमके ज्ञायक ध्रुव चैतन्यप्रकाशनी द्रष्टि करतां निमित्त-नैमित्तिकभावनो अभाव थई जाय छे. एकला ज्ञायकने जोतां चैतन्यस्वरूप जे रागनी रुचिमां ढंकाई गयुं हतुं ते प्रगट थाय छे. एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. नवमांथी एकलो जाणक, जाणक, जाणक- एवा ध्रुव स्वभावने भिन्न तारवी अनुभववो ए सम्यग्दर्शन छे. आ सिवाय लाखो करोडो रूपिया खर्चे अने मंदिरो बनावे, देवशास्त्रगुरुने बहारथी माने के नवतत्त्वने भेदरूप माने-ए बधुं थोथेथोथां छे, सम्यग्दर्शन नथी.

कळशटीकामां तो त्यां सुधी कह्युं छे के-‘नवतत्त्वरूप वस्तुनो अनुभव मिथ्यात्व छे.’ नवतत्त्वरूपे तो आत्मा अनादिथी परिणम्यो छे. अनादिथी मिथ्याद्रष्टि जीवने संवर, निर्जरा, मोक्ष साचां नथी. अपेक्षित संवर, निर्जरा, मोक्ष कह्या छे. मिथ्यात्वमां पण अमुक प्रकृतिओ बंधाती नथी ए अपेक्षाए अबंध गण्यो छे. तथा जेटले अंशे आस्रव आदिनी बीजी प्रकृतिओ आवती नथी ए अपेक्षाए संवर गण्यो छे. संवर एटले साचो संवर एम नहीं.

आवा नवतत्त्वरूप वस्तुने अनुभवतां मिथ्यात्व छे; माटे शुद्धनयथी जीवने जाणवाथी ज सम्यग्दर्शननी प्राप्ति छे. ल्यो, आ एकांत कह्युं. ए सम्यक् एकांत छे, सम्यक् एकांत. अंतरमां ढळे छे त्यारे एने अनेकांतनुं साचुं ज्ञान थाय छे. नवतत्त्वोमांथी एक ज्ञायक


PDF/HTML Page 207 of 4199
single page version

तत्त्वने भिन्न तारवी अनुभवे त्यारे नवनुं ज्ञान यथार्थ थयुं कहेवाय. पर्यायथी भेदरूप वस्तुने जाणे तो अनेकांत थाय एम नथी. पर्याय छे, नवना भेद छे-ए वात तो बराबर छे, परंतु एनो आश्रय लेवो, एने जाणवा, मानवा एतो मिथ्यादर्शन छे. श्रीमदे कह्युं छे के -‘अनेकांत पण सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी.’

एकेन्द्रियथी मांडी पंचेन्द्रिय सुधीनी बधी पर्यायोमां पण वस्तु-द्रव्य तो ज्ञायकपणे ज छे. शुं ए द्रव्य कांई एकेन्द्रियनी पर्यायपणे थयुं छे? एम ए द्रव्य शुं आस्रवनी पर्यायपणे थयुं छे? एम बंधभावपणे द्रव्य थयुं छे? अहाहा...! ए तो ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायकरूपे ज अनादि एकरूप रह्युं छे. एकेन्द्रिय, बे ईन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ए कांई वास्तविक जीव नथी; अंदर जे ज्ञायकभाव छे ते जीव छे.

ज्यां सुधी जुदा जुदा नव पदार्थो जाणे,आ पुण्य, आ पाप, आ संवर, आ निर्जरा, एम वस्तुने भेदरूप जाणे; पण शुद्धनयथी आत्माने जाणे नहीं त्यांसुधी पर्यायबुद्धि छे, द्रव्यबुद्धि नथी. एक शुद्धनयथी आत्मवस्तुने जाण्या विना कदी सम्यग्दर्शन थाय नहीं.

शुद्धनयथी जीवने जाणवाथी ज समकित छे, अन्यथा नहीं. पर्यायथी वस्तुने जुए तो सम्यग्दर्शन थाय नहीं. द्रव्य साथे पर्यायने भेळवीने जुए तो पण समकित थई शके नहीं. द्रव्यद्रष्टिथी ज्यांसुधी आत्माने देखे नहीं त्यांसुधी पर्यायबुद्धि छे. नियमसारनी गाथा प नी टीकामां आवे छे के -अंतःतत्त्वरूप परमात्मतत्त्व अने बहिःतत्त्वनो कोई अंश भेळवीने श्रद्धा करवी ए व्यवहार समकित छे. अंतःतत्त्व एटले पूर्णस्वरूप शुद्ध जीव वस्तु अने बहिःतत्त्व एटले पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष ए बे भेदोवाळा तत्त्वो-एनी श्रद्धा ए व्यवहार समकित छे. व्यवहार समकित एटले ज राग, विकल्प. व्यवहार समकित ए रागनी पर्याय छे, शुद्ध समकित छे ज नहीं. ए तो आरोपथी (समकित) छे निश्चय वीतरागी पर्याय ते निश्चय समकित, अने श्रद्धानो विकल्प-राग ते व्यवहार समकित छे.

* कळश ८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इति’ आ रीते ‘चिरम् नवतत्त्वच्छन्नम् इदम् आत्मज्योतिः’ अनादिकाळथी नवतत्त्वमां छुपायेली आ आत्मज्योति -जोयुं? नवना भेदनी रुचिमां आखो ज्ञायकभाव चैतन्यज्योतिस्वरूप अनंतकाळथी ढंकाई गयो छे. पर्यायबुद्धि वडे जेने पर्यायनी ज हयातीनो स्वीकार छे एने निज त्रिकाळी शुद्धात्मानो नकार छे, तेने शुद्धात्मा अनादिथी


PDF/HTML Page 208 of 4199
single page version

ढंकाएलो छे. त्यां कंचन, कामिनी अने कुटुंब तो कयांय बहार रही गयां-अजीवमां रही गयां. फक्त नवतत्वरूप भेदोना प्रेमनी आडमां आखो अभेद आत्मा ढंकाई गयो छे एम कहे छे.

भेदनी बुद्धि के रागनी बुद्धि ए ज पर्यायबुद्धि छे. मिथ्याद्रष्टिने मुख्य गुणोनी निर्मळ पर्याय तो छे ज नहीं. अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व गुणनी पर्यायो निर्मळ छे; पण (सामान्यपणे) अंश जे पर्याय एनी प्रीतिमां आखो अंशी जे आत्मा त्रिकाळी शुद्ध लुप्त थई गयो छे. अरे! अनादिथी नवतत्त्वना भेदरूप वस्तुना अनुभवथी जीव मिथ्याद्रष्टि थई रह्यो छे. ए नवतत्त्वोमां संवर, निर्जरा, मोक्ष ए साचां नथी. (अपेक्षित छे). ज्ञायकभावनी द्रष्टि थतां ए साचा संवरादि प्रगट थाय छे अने त्यारे पर्यायबुद्धि रहेती ज नथी, होती ज नथी. (ज्ञायकभावनी द्रष्टि पर्यायबुद्धिना अभावपूर्वक होय छे) बापु! तुं जेनी रुचिमां होईश त्यां रहीश. अनंतकाळ रहेवुं तो छे ने? जो पर्यायबुद्धिनी रुचिमां होईश तो मिथ्यात्वमां रहीने चार गतिमां रखडीश. तथा जो द्रव्य-द्रष्टि-ज्ञायकनी द्रष्टिमां होईश तो निर्मळ परिणमन थतां संसारथी मुक्त थई निर्मळतामां रहीश. भाई! आ कांई वाद- विवादथी पार पडे एम नथी, आ तो सहजनो धंधो छे.

हवे कहे छे-‘वर्णमाला–कलापे निमग्नं कनकम् इव’ जेम वर्णोना समूहमां छुपायेल एकाकार सुवर्णने बहार काढे-एटले जुदा जुदा रंगभेदमां एकाकार सोनुं तो पडयुं ज छे तेने अग्निनी आंच आपी बहार काढे छे. आंच आपतां तेर-वलुं, चौद- वलुं. पंदर-वलुं एम वर्णभेद पडे एमां एकरूप एकाकार सुवर्ण पडयुं छे एने बहार काढे तेम ‘उन्नीयमानम्’ नवतत्त्वमां छुपायेली आत्मज्योति शुद्धनयथी बहार काढी प्रगट करवामां आवी छे. अहाहा...! ‘ज्ञान ते आत्मा’ ए जे अनुमान थाय ए पण विकल्प छे, भेद छे. पण ए विकल्पथी रहित एकलो ज्ञायकभाव शुद्धनयथी बहार काढी प्रगट करवामां आव्यो छे. ‘अथ’ माटे हे भव्यजीवो! ‘सततविवक्तं’ निरंतर आ चैतन्यज्योतिने अन्यद्रव्योथी तथा तेमनाथी थता पुण्य, पाप आदि नैमित्तिक भावोथी भिन्न ‘एकरूपं’ एकरूप ‘द्रश्यताम्’ देखो. सर्व प्रकारे एकरूपने अनुभवो. नवतत्त्वमां आ एकरूप ज्ञायक ज सर्वस्व छे, ए एक ज सम्यग्दर्शननो विषय छे. ते एकरूप ज्ञायकने छे, चारित्र तो पछी होय. तेथी कहे छे आ एकरूप आत्माने ज देखो-अनुभवो. ‘प्रतिपदम् उद्योतमानम्’ आ ज्योति पदे पदे अर्थात् पर्याये पर्याये एकरूप चित्चमत्कारमात्र प्रकाशमान छे. अरेरे! आवी वात


PDF/HTML Page 209 of 4199
single page version

सांभळवा पण न मळे ए शुं करे? क्यां जाय? निराधार, अशरण थईने चारगतिमां रखडया करे. अहीं शरणनी चीज शुं छे ए दर्शावतां कहे छे-प्रतिक्षण पर्याये पर्याये आ चैतन्य तो भिन्न प्रकाशमान-उद्योतमान छे.

* कळश ८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ आत्मा सर्व अवस्थाओमां विधविध रूपे देखातो हतो, भिन्न भिन्न पर्यायमां भिन्न भिन्न देखातो हतो; तेने शुद्धनये एक चैतन्यचमत्कारमात्र देखाडयो छे. ए वस्तुए सम्यक्दर्शननो विषय, आ एकरूप शुद्ध चैतन्यरूप आत्माना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे; देव-गुरु-शास्त्रना आश्रये के शुभरागना आश्रये के उघाडरूप क्षयोपशमना आश्रये सम्यग्दर्शन थतुं नथी. तेथी हवे सदा एकाकार ज्ञायकभावनो ज अनुभव करो, पर्यायबुद्धिनो एकांत न राखो. पर्यायनो एकांत अनुभव मिथ्यात्व छे. तेथी पर्यायबुद्धि छोडो. एम बहारमां अने अंतरमां नग्न एवा दिगंबर संतो- कुंदकुंदाचार्य, अमृतचंद्राचार्य आदि गुरुओनो उपदेश छे.

गाथा–१३ः (चालु) आगळनी टीका परनुं प्रवचन

नवतत्त्वोमां एक जीवने ज जाणवो भूतार्थ कह्यो. नवतत्त्वोमां जेटला भेदो छे ते सर्व दूर करी अभेद एक ज्ञायकभावने ज भूतार्थ कह्यो; केमके एक भूतार्थना ज आश्रये सम्यग्दर्शन थाय छे. आवी वस्तुस्थिति छे.

जेम नवतत्त्वोमां एक जीवने ज जाणवो भूतार्थ कह्यो तेम, एकपणे- ज्ञायकभावपणे प्रकाशमान आत्माना अधिगमना उपायो जे प्रमाण, नय, निक्षेप छे तेओ पण निश्चयथी अभूतार्थ छे, तेमां पण आत्मा एक ज भूतार्थ छे. एकपणे प्रकाशमान आत्माना अधिगमनो एटले जाणवानो वास्तविक उपाय तो ज्ञाननी पर्यायमां (भावश्रुत ज्ञानमां) एक अखंड ध्रुव ज्ञायकभावने जाणवो-अनुभववो ए छे. पण भगवान सर्वज्ञदेवे कहेली तत्त्ववस्तुने, परमतमां कहेला तत्त्वथी भिन्न जाणवा, निश्चित करवा (सविकल्प दशामां) जे प्रमाण, नय अने निक्षेप छे ते अधिगमना उपायो कह्या छे. छतां ए बधा विकल्पो छे. एना आश्रये वस्तुतत्त्वनो अनुभव प्राप्त थतो नथी. तेथी अंतरंग प्रकाशमान स्वरूपना अनुभवनी अपेक्षा ए सर्व निश्चयथी अभूतार्थ छे, जूठा छे. प्रमाण, नय, निक्षेपना भेदो जे प्रथम विकल्पकाळमां होय छे ते व्यवहारथी सत्य छे, पण अंतर अनुभवद्रष्टिमां ए बधा अभूतार्थ छे; केमके आवा विकल्पोथी आत्मा जणाय एवो नथी पण निर्विकल्प अनुभवथी ज जणाय एम छे. सहज आत्मस्वरूप ए स्वाभाविक सहज-


PDF/HTML Page 210 of 4199
single page version

द्रष्टिथी ज जणाय एवुं छे. प्रमाणादिना विकल्पथी नहीं. तेथी प्रमाणादि विकल्पोमां पण आत्मा एक ज प्रकाशमान छे.

हवे कहे छे- ज्ञेय अने वचनोना भेदथी प्रमाण आदि अनेक भेदरूप थाय छे. ज्ञेयना प्रकारः नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव वगेरे. ज्ञानना पण अनेक प्रकार छे- निश्चय, व्यवहार आदि. तेमां पहेलां प्रमाण बे प्रकारे छेः एक परोक्ष अने बीजुं प्रत्यक्ष. उपात्त अने अनुपात्त बे परद्वारो वडे प्रवर्ते ते परोक्ष छे. उपात्त एटले इन्द्रिय, मन वगेरे पर पदार्थो जे मेळवेला छे, अनुपात्त एटले प्रकाश, उपदेश वगेरे अणमेळवेला पर पदार्थो. ते बन्ने परद्वारोथी जणाय ते परोक्ष छे. जुओ, सर्वज्ञनी वाणी, आगमप्रमाण ए परोक्ष छे. अने केवळ आत्माथी ज प्रतिनिश्चितपणे प्रवर्ते, जेमां मन, इन्द्रिय आदि के उपदेश आदिनो संबंध नथी एवा आत्माना आश्रये ज सीधुं प्रवर्ते ते प्रत्यक्ष छे.

प्रमाणज्ञान पांच प्रकारे छेः मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्यय अने केवळज्ञान. तेमां मति अने श्रुतज्ञान बे परोक्ष छे, अवधि अने मनःपर्ययज्ञान ए बे विकल-प्रत्यक्ष छे अने केवळज्ञान सकल प्रत्यक्ष छे. आ रीते प्रत्यक्ष अने परोक्ष एम बे प्रकारनां प्रमाण छे. ते बन्ने, प्रमाता-जाणनार, प्रमाण-ज्ञान, प्रमेय-जाणवा लायक वस्तु-ए भेदोने अनुभवतां भूतार्थ छे. व्यवहारथी ए विकल्पो छे ए अपेक्षाए सत्यार्थ छे, पण ए कांई सम्यग्दर्शननो विषय नथी.

अने जेमां सर्व भेदो गौण थई गया छे, जेमां प्रमाणादिना भेदोनुं लक्ष अस्त थई गयुं छे एवा एक जीवना स्वभावनो अनुभव करतां तेओ अभूतार्थ छे. अनंत अनंत आनंद, ज्ञान, शांति, प्रभुता, इश्वरता आदि जेनुं एक स्वरूप छे एवा एकरूप चैतन्यनो अनुभव करतां ते प्रमाणना भेदो असत्यार्थ छे.

लोको कहे छे-रागनी मंदता करतां करतां अनुभव थाय. व्यवहार साधन अने निश्चय साध्य-एटले के कषायनी मंदता ए व्यवहार साधन होय तो निश्चय आवे. पण आ तद्न जूठी वात छे. अहीं तो कहे छे के प्रमाणना भेदो उपर ज्यांसुधी लक्ष छे त्यांसुधी सम्यग्दर्शननो विषय जे एकरूप आत्मा ते अनुभवमां आवतो नथी. जीवने क्रोध, मान, माया, लोभवाळो जाणवो ए तो पर्यायबुद्धि छे ज, पण तेने मति, श्रुत आदि पर्यायना (प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रमाणना) भेदवाळो जाणवो ए पण पर्यायबुद्धि छे, मिथ्याद्रष्टि छे.

भगवाने कहेलो जे आत्मा एने जाणवा माटे आ उपायो कह्या ते (प्रथम अवस्थामां) साचा छे, केमके बीजा अन्यमतीओ आत्माने अनेक प्रकारे कल्पना करीने


PDF/HTML Page 211 of 4199
single page version

कहे छे. अन्यमतीओ कहे छे तेनाथी भिन्न आत्मानो यथार्थ निर्णय करवा आ उपायो कह्या छे ते बराबर छे. परंतु ए द्वारा आत्मा जणाय एम नथी. विकल्प द्वारा जाणतां केवळज्ञाननुं प्रत्यक्षपणुं ख्यालमां आवे, केवळज्ञान एक समयमां त्रण-काळ त्रण लोकने प्रत्यक्ष जाणे एवो निर्णय आवे, तथा अवधि, मनःपर्यय देश प्रत्यक्ष छे एम विकल्पथी नक्की थाय, परंतु ए तो बधो भेदनो पक्ष छे. भगवान आत्मा अखंड एकरूप चिदानंदघनना एकपणाना अनुभवमां आ भेदनुं आलंबन नथी. आवी वात छे, बहु झीणी, भाई. आ तो वीतरागनो मार्ग वीतरागी पर्यायरूप उत्पन्न थतो भाव छे, अने ते पूर्णवीतराग चैतन्य स्वभावना आश्रये उत्पन्न थाय छे. तेथी तो कहे छे के अखंड एक वीतरागमूर्ति पूर्ण चैतन्यभगवाननो अनुभव करतां आ प्रमाणना भेदो अभूतार्थ छे. अहाहा...! आ तो अंतरनी लक्ष्मी (चैतन्यलक्ष्मी) प्राप्त करवाना उपायनी वात छे, बहारनी धूळथी शुं प्रयोजन? हवे नय संबंधी कहे छे. नय बे प्रकारे छेः द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक. जे नय द्रव्यनुं लक्ष करे एने द्रव्यार्थिक नय कहीए अने जे नय पर्यायनुं लक्ष करे एने पर्यायार्थिक नय कहीए. द्रव्य जेनुं प्रयोजन छे ए द्रव्यार्थिक अने पर्याय जेनुं प्रयोजन छे ए पर्यायार्थिक. त्यां द्रव्य-पर्याय वस्तुमां द्रव्यनो मुख्यपणे अनुभव करावे एटले द्रव्यने मुख्यपणे जणावे ते द्रव्यार्थिकनय छे. अहीं अनुभव एटले सम्यग्दर्शन ए वात नथी. (विकल्पपूर्वक जाणवाना अर्थमां अनुभव शब्द छे) अने पर्यायनो मुख्यपणे अनुभव करावे एटले पर्यायनुं मुख्यपणे ज्ञान करावे ते पर्यायार्थिक नय छे. भूतार्थनो अनुभव ते सम्यग्दर्शन छे. त्यां जे भूतार्थने मुख्य कह्यो ते कोई रीते कयारेय गौण न थाय. भूतार्थ जे त्रिकाळी एकरूप ज्ञायकभाव जेना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय ते तो मुख्य ज छे, हंमेशां मुख्य छे. अहीं जाणवामां मुख्य, गौण थाय ए बीजी वात छे. आमां वळी पर्याय पण मुख्यपणे आवे छे. परंतु अनुभवमां (अनुभवना विषयमां) पर्याय कदी मुख्य होई शके नहीं. शुं कीधुं? जे भूतार्थ त्रिकाळी चीज छे, पुण्य-पापना विकल्प विनानी, एक समयनी पर्याय विनानी, ते नित्य सत्य छे, अने जे पर्याय छे एने गौण करीने असत्य कही छे. पर्याय कदीय मुख्य थाय एम बने नहीं. पण अहीं जे बन्नेने मुख्य कह्यां छे ते जाणवा माटे कह्यां छे. (जाणवानी अपेक्षाए छे.) ते बन्ने नयो द्रव्य अने पर्यायनो पर्यायथी (भेदथी, क्रमथी) अनुभव करतां एटले के द्रव्य अने पर्यायना भेदथी-क्रमथी जाणवामां आवे तो ए भूतार्थ छे. पर्यायलक्षे


PDF/HTML Page 212 of 4199
single page version

ए बन्ने भूतार्थ छे. आगळ कह्युं के भूतार्थ एक छे. अहीं कहे छे बन्ने भूतार्थ छे. द्रव्य अने पर्यायनो पर्यायथी अनुभव करतां बंने भूतार्थ छे. बे छे ए रीते बेनुं ज्ञान करावे छे. ते बेनी अपेक्षाए बेपणानुं ज्ञान अने बेपणुं सत् छे एटलुं. ए आश्रय करवा लायक छे एम नहीं.

११ मी गाथामां एम कह्युं के-भूतार्थ छे ते शुद्धनय छे अने पर्याय छे ते अभूतार्थ छे. पर्याय जे असत्य छे ते कोई काळे सत्य थाय नहीं. पण पर्याय पर्याय तरीके सत्य छे, त्रिकाळनी अपेक्षाथी असत्य छे. एक अपेक्षाथी त्रिकाळ आत्माने भूतार्थ कहे अने वळी एक अपेक्षाथी द्रव्य अने पर्याय बेयने भेदथी, क्रमथी जाणवुं ए भूतार्थ छे एम कहे, त्यां अपेक्षा बराबर समजवी जोइए द्रव्यने मुख्य करी द्रव्यने जाणवामां आवे त्यां पर्याय गौण छे, अने पर्यायने मुख्य करी पर्यायनुं ज्ञान करवामां आवे त्यारे द्रव्य गौण छे. आ तो बे नयपक्ष छे, भेदरूप विकल्पो छे. ए छे ए अपेक्षाए बन्ने भूतार्थ छे. आश्रय करवा लायक भूतार्थ ए वात अहीं नथी. अहीं तो द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक एवा बे नयो छे, ए ‘छे’ ए अपेक्षाए बन्नेने भूतार्थ कह्या. जेना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय ए भूतार्थ ते आ नहीं. अहो! दिगंबर संतोए गजब काम कर्यां छे.

हवे कहे छे-द्रव्य अने पर्याय ए बन्नेथी नहि आलिंगन करायेला-एटले के द्रव्यार्थिकनये द्रव्यने मुख्य करी जाणवुं तथा पर्यायार्थिकनये पर्यायने मुख्य करी जाणवुं- एवा बन्ने भेदपक्षथी नहि स्पर्शायेला अथवा बन्ने प्रकारना विकल्पोथी रहित एवा शुद्धवस्तुमात्र त्रिकाळी एकरूप शुद्ध चैतन्यभावनो अनुभव करतां तेओ अभूतार्थ छे, ते बन्ने नयना भेदो असत्यार्थ छे, जूठा छे.

घडीकमां साचा अने घडीकमां खोटा? भाई जे अपेक्षा होय ते बराबर समजवी जोईए. व्यवहार व्यवहारनी अपेक्षाए नथी? पर्याय पर्यायपणे नथी? पर्याय नथी तो द्रव्य एकलुं रही जाय. तो एकांत थई जाय. पर्याय पर्यायपणे छे. ते शुद्धजीववस्तुमां नथी. एवा शुद्धजीववस्तुनो अनुभव थाय छे तो पर्यायमां. पर्याय वस्तुथी भिन्न रही आखी वस्तुने जाणी ले छे. पर्याय द्रव्यमां-शुद्धजीववस्तुमां नथी, पण पर्यायमां आखुं द्रव्य जणाई जाय छे.

द्रव्य जे वस्तुमात्र अखंड छे ए त्रिकाळी सत् छे. पण ए सत्ने जाणनारी पर्याय छे ने? वेदांत एम कहे छे आत्मा ‘कूटस्थ’ छे. तो ए कूटस्थने जाण्युं कोणे? कूटस्थ कूटस्थने जाणे? अहीं आत्मा छे ध्रुव कूटस्थ. ध्रुव ए कूटस्थ छे. पण जाण्युं कोणे? तो पर्याये. अनित्य पर्याय ते नित्यने जाणे छे, अने ते पर्याय द्रव्यने अडया विना नित्यने जाणे


PDF/HTML Page 213 of 4199
single page version

छे. आवी वात छे. एक वात फरे तो आखी वात फरी जाय छे. वेदांत एक ज कहे छे. पण एक छे एनो निर्णय कोणे कर्यो? पर्याये. तो पर्याय छे के नहीं? पर्याय छे, पण ते आश्रय करवा लायक नथी. आश्रय करनार तो पर्याय छे.

अहीं कहे छे चैतन्यमात्र एकरूप स्वभावनो अनुभव करतां एटले चैतन्यमात्र-वस्तुनुं पर्यायमां वेदन करतां अर्थात् आनंदनुं वेदन पर्यायमां आवतां ए प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण अने नयना विकल्पो-ए बधुं जूठुं छे. [आगळ (नयोना भेदोनी चर्चामां) जे ‘अनुभव’ शब्द हतो एमां तो जाणवानी अपेक्षा हती.] भेदथी जोतां ए साचा छे, पण अभेदमां भेद देखाता नथी एथी ते असत्यार्थ छे. अभेदमां भेद देखाय तो अभेद रहे नहीं. भेदना लक्षे ज भेद देखाय.

पहेलां प्रमाणनी वात करी, पछी नयनी करी हवे निक्षेप संबंधी कहे छे. निक्षेपना चार भेद छेः नाम, स्थापना द्रव्य अने भाव.

वस्तुमां जे गुण न होय ते गुणना नामथी व्यवहारे संज्ञा करवी ते नाम निक्षेप छे. जेमके कोईनुं नाम महावीर राखवामां आवे ए नाम निक्षेप छे. ‘आ ते छे’ एम अन्य वस्तुनुं अन्य वस्तुमां प्रतिनिधित्व स्थापित करवुं-प्रतिमारूप स्थापना करवुं ते स्थापना निक्षेप छे. वर्तमानथी अन्य एटले के अतीत अथवा अनागत पर्यायथी वस्तुने वर्तमानमां कहेवी ते द्रव्य निक्षेप छे. भविष्यमां तीर्थंकर थवाना होय तेने वर्तमानमां तीर्थंकर कहेवा ते द्रव्य निक्षेप छे. चोवीस भगवान थई गया. ए तो हमणां सिद्धपणे छे. छतां ‘लोगस्स’ मां चोवीस तीर्थंकरनी स्तुति जे कहेवामां आवे छे ते द्रव्य निक्षेप छे. वर्तमान पर्यायथी वस्तुने वर्तमानमां कहेवी ते भाव निक्षेप छे. जेमके वर्तमानमां कोई जीवने केवलज्ञान अने परमात्मदशा छे एने ए रीते वर्तमानमां जाणवुं ए भाव निक्षेप छे.

ए चारेय निक्षेपोनो पोतपोताना लक्षणभेदथी अनुभव (ज्ञान) करवामां आवतां तेओ भूतार्थ छे. ज्ञाननी अपेक्षाए ए चारेय प्रकारनुं ज्ञान करवुं ए बराबर छे; पण वस्तुस्थितिए नहीं; भिन्न एटले के जे नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव ए चार लक्षणोथी रहित एक पोताना चैतन्यलक्षणरूप जीवस्वभावनो अनुभव करतां ए चारेय अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे, जूठा छे. नाम, स्थापनादि ए तो ज्ञेयना भेदो छे. ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञेयनो भेद मालूम पडवो ए विकल्प छे, राग छे. पर्यायमां ए चार निक्षेपोने जाणवा ए अपेक्षाए ए चार छे, पण चैतन्यलक्षणरूप निज एकरूप ज्ञायकभावनो अनुभव करतां चारेय जूठा छे.


PDF/HTML Page 214 of 4199
single page version

आ रीते भूतार्थ-सत्यार्थ द्रष्टिथी जोईए तो प्रमाण-नय-निक्षेपोमां एक जीव ज प्रकाशमान छे. त्रिकाळी एकरूप ज्ञायकभाव ज आत्मा छे. एवा आत्मानी द्रष्टि अने अनुभव करवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे अने त्यांथी धर्मनी शरूआत थाय छे.

* गाथा–१३ः (चालु) भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आ प्रमाण-प्रत्यक्ष अने परोक्ष, नय-द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक, तथा निक्षेपनाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव-आ त्रणेनुं विस्तारथी व्याख्यान ते विषयना ग्रंथोमांथी जाणवुं. तेमनाथी द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तुनी सिद्धि थाय छे. शुं कहे छे? द्रव्य नाम वस्तु अने पर्याय नाम अवस्था-हालत. आदि-अंत विनानी त्रिकाळ ध्रुव अविनाशी चीज आत्मवस्तु एने द्रव्य कहे छे. एनी बदलती दशा-मति, श्रुत आदिने पर्याय कहे छे. आवी द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तु छे. वेदांत एकला द्रव्यने-कूटस्थने ज माने छे, बौद्ध एकली पर्यायने ज माने छे. भगवान सर्वज्ञे द्रव्य पर्यायस्वरूप वस्तुने जाणी छे अने एवी ज कही छे. आवी द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुने प्रथम अवस्थामां सिद्ध करवा माटे ए प्रमाण, नय, निक्षेप बराबर छे. (होय छे) एनाथी वस्तुनी सिद्धि थाय छे. आ सम्यग्ज्ञाननी वात नथी. (आम जाणवाथी सम्यग्ज्ञान थाय एम कहेवुं नथी.) ज्ञानना विशेष भेद छे एटलुं. साधक अवस्थामां तेओ सत्यार्थ ज छे. त्रिकाळी ज्ञायकभाव ए द्रव्य छे, एक समयनी पर्याय ए भेद छे एम साधवुं ए व्यवहारथी सत्यार्थ छे, केमके ज्ञानना ए विशेषो छे, एना विना वस्तुने साधवामां आवे तो विपरीतता थई जाय. एनाथी वस्तुनी यथार्थ सिद्धि थाय छे, अन्यथा विपरीतता थई जाय छे.

हवे कहे छे अवस्था अनुसार व्यवहारना अभावनी पण रीत छेः- प्रथम अवस्थामां प्रमाण, नय, निक्षेपथी यथार्थ वस्तुने जाणी ज्ञान-श्रद्धाननी सिद्धि करवी. शुं कहे छे? प्रथम प्रमाण-नय-निक्षेप द्वारा वस्तुने साधीने यथार्थ निर्णय करवो के वस्तु-आत्मा त्रिकाळ एकरूप अखंड चैतन्यघनस्वरूप छे. एनां ज्ञान-श्रद्धान (विकल्परूप) करवां व्यवहारनी वात छे.

ज्ञान-श्रद्धान सिद्ध थया पछी चैतन्यमूर्ति भगवान ज्ञायकदेव-जे चैतन्यना नूरना तेजनुं पूर एवा आत्मानुं ज्ञान करवुं. अहीं ज्ञाननी पर्यायमां पूर्ण शुद्धजीववस्तुनुं ज्ञान थवुं एने ज्ञान करवुं एम कह्युं छे. पर्यायमां त्रिकाळी आत्मानुं ज्ञान थवुं एने आत्मज्ञान-सम्यग्ज्ञान कहे छे. पहेलां प्रमाण, नय, निक्षेपथी वस्तुने यथार्थ जाणी ज्ञान-श्रद्धान करवुं एम कह्युं हतुं ए तो व्यवहारथी मन वडे विकल्पमां निर्णय करवानी वात हती. अहीं तो वस्तुतत्त्वना अंतर अनुभवपूर्वक सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञाननी वात करी छे.


PDF/HTML Page 215 of 4199
single page version

शरीर, मन, वाणी ए तो माटी-जड-धूळ छे. ए कोई आत्मा नथी. अंदर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कर्म छे ए पण जड-धूळ छे. वळी दया, दान, पूजा, भक्ति वगेरे जे शुभभाव थाय छे ते पुण्य-राग छे, तथा हिंसा, जूठ, चोरी, भोग, विषय-वासना ए पाप-राग छे. आ पुण्य-पापना रागथी भिन्न अंदर जे त्रिकाळ ध्रुव आत्मवस्तु चैतन्यरूप छे एने वर्तमान ज्ञाननी पर्यायमां लक्षमां लेवी एने ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) कहेवामां आवे छे.

नियमसारमां गाथा त्रणमां आवे छे के-‘परद्रव्यने अवलंब्या विना निःशेषपणे अंतर्मुख योगशक्तिमांथी उपादेय एवुं जे निज परमतत्त्वनुं परिज्ञान ते ज्ञान छे.’ परिज्ञान कहेतां समस्त प्रकारे ज्ञान थवुं-जेवो आत्मा पूर्ण-परिपूर्ण छे एवुं ज्ञान थवुं एनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे. शास्त्रनुं भणतर-ज्ञान ए कांई ज्ञान नथी.

ज्ञान-श्रद्धान सिद्ध थया पछी श्रद्धान माटे प्रमाणादिनी कोई आवश्यकता नथी. पछी प्रमाण, नय, निक्षेपथी वस्तुस्वरूप सिद्ध करवानुं रहेतुं नथी. अनुभवमां आवी गयुं के आत्मा पूर्णानंदस्वरूप छे एटले एनां सम्यग्ज्ञान अने प्रतीति थई गयां. हवे ए पूर्णस्वरूपमां स्थिरता करवानुं ज बाकी छे.

परंतु हवे ए बीजी अवस्थामां प्रमाणादिना आलंबनथी विशेषज्ञान थाय छे अने राग-द्वेष-मोहकर्मना सर्वथा अभावरूप यथाख्यात चारित्र प्रगटे छे. एटले के ज्ञान-श्रद्धान सिद्ध थया पछी ज्यांसुधी पूर्ण चारित्र प्रगट न थाय त्यांसुधी नय- निक्षेपथी जाणवुं होय छे. नय-निक्षेपथी चारित्रना स्वरूपनुं ज्ञान थवुं (विकल्प ऊठे ते) ए व्यवहार चारित्र छे. अने अंदर ज्ञानस्वरूपमां अतीन्द्रिय आनंदरूप स्थिरता थवी ए निश्चयचारित्र छे. देहनी क्रिया ए तो जड-पुद्गलनी क्रिया छे, ए कांई चारित्र नथी. अंदर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अने अपरिग्रह एवा पांच महाव्रतना विकल्प ऊठवा ए पण रागभाव छे. एनाथी रहित परिपूर्ण आनंदमूर्ति भगवान आत्मामां निर्विकल्प स्थिरता थवी ए चारित्र छे. आम नय-निक्षेपथी चारित्रनुं स्वरूप जाणी आनंदनो नाथ परिपूर्ण भगवान आत्मा जे ज्ञान-श्रद्धानमां लीधो छे तेमां चरवुं, रमवुं, स्थिर थवुं ए निश्चयचारित्र छे. त्रिकाळीमां लीन थवुं, पण ज्ञान-श्रद्धानमां लीन थवुं एम कह्युं नथी; केमके ए तो पर्याय छे.

(क्रमशः) त्रिकाळी भगवान आत्मामां परिपूर्ण लीनता करवाथी राग-द्वेष- मोहनो सर्वथा अभाव थाय छे अने यथाख्यात चारित्र प्रगट थाय छे. जेवी स्वरूपस्थिति छे तेवी पर्यायमां प्रगट थाय छे; तेथी केवळज्ञान प्रगट थाय छे. केवळज्ञान थया पछी प्रमाण


PDF/HTML Page 216 of 4199
single page version

आदिनुं आलंबन रहेतुं नथी. त्यारपछी ‘णमो सिद्धाणं’-सिद्ध अवस्था प्रगट थाय छे, त्यां पण कोई आलंबन नथी. ए प्रमाणे सिद्ध अवस्थामां प्रमाण-नय-निक्षेपनो अभाव ज छे.

हवे ए अर्थनो कलशरूप श्लोक कहे छे.

* कळश–९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

आचार्य शुद्धनयनो अनुभव करी कहे छे एटले के पूर्णानंदस्वरूप भगवान आत्मानां श्रद्धान, ज्ञान अने लीनता करी कहे छे के-‘अस्मिन् सर्वङ्कषे धाम्नि अनुभवम् उपयाते’ आ सर्व भेदोने गौण करनार जे शुद्धनयनो विषयभूत चैतन्यचमत्कारमात्र तेजःपुंज आत्मा, तेनो अनुभव थतां ‘नयश्रीः न उदयति’ नयोनी लक्ष्मी उदय पामती नथी.

शुं कहे छे? शुद्धनय जे ज्ञाननी पर्याय छे एनो विषय त्रिकाळी वस्तु शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र तेजःपुंज छे. भगवान आत्मा त्रणकाळ त्रणलोकने जाणी शके एवी शक्तिथी परिपूर्ण चैतन्यचमत्कार वस्तु प्रकाशमान ज्ञानज्योतिस्वरूप छे. शुद्धनय, सर्व-भेदोने-नवतत्त्वना भेदोने गौण करी एटले अजीव जे जड छे तेनुं लक्ष छोडी, अंदर पुण्य-पाप जे थाय छे तेनुं लक्ष छोडी, तथा संवर, निर्जरा, मोक्ष जे (ध्रुवनी अपेक्षा) बहिःतत्त्व छे एनुं पण लक्ष छोडी एक त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र वस्तु आत्माने देखे छे. अज्ञानीने दया, दानादि रागना, नवतत्त्वना भेदोना प्रेमनी आडमां चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मा देखातो नथी. परंतु शुद्धनय ए सर्व भेदोने गौण करी अनंत शक्तिसंपन्न त्रिकाळी शुद्ध जीववस्तुने देखे छे, अनुभवे छे. तेनो अनुभव थतां, तेने अनुसरीने वेदन थतां नयोनी लक्ष्मी उदय पामती नथी.

तेनो अनुभव थतां-कोनो? शुद्धनयना विषयभूत, ध्यानना ध्येयभूत जे चैतन्यचमत्कारमात्र वस्तु ध्रुव छे तेनो. अहाहा...! ध्याननुं ध्येय जे पूर्णात्मा- आनंदकंद चैतन्यचमत्कार तेनो अनुभव थतां नयोनी लक्ष्मी उदय पामती नथी, एटले आ द्रव्यार्थिक नये द्रव्य छे अने पर्यायार्थिकनये पर्याय छे एवा नयविकल्पो उत्पन्न थता नथी.

कोई कहे आवो धर्म ते कई जातनो? आ ते शुं जैनधर्म छे? शुं सर्वज्ञ परमेश्वरे आवुं कह्युं हशे? अत्यारसुधी तो ब्रह्मचर्य पाळवुं, लीलोतरी न खावी, कंदमूळ न खावां, दया पाळवी इत्यादिने धर्म मानता हता.


PDF/HTML Page 217 of 4199
single page version

भाई, परना ग्रहण-त्याग आत्मामां छे नहीं. परनो त्याग कर्यो एम मानवुं ए मिथ्यात्व छे में बधुं छोडी दीधुं एवुं अभिमान (मान्यता) ए पण मिथ्यात्व छे. अने एवा लोकोने त्यागी माने ए बधा मिथ्याद्रष्टि छे. केमके परवस्तुने आत्माए ग्रही नथी तो छोडे कयांथी? पर चीज-शरीर, मन, वाणी, स्त्री, पुत्र, संपत्ति, देश इत्यादिनुं ग्रहण कर्युं होय तो त्याग होय. पण एनुं ग्रहण कर्युं ज नथी ने. हा, पर्यायमां विकारने अज्ञानभाव वडे ग्रहण कीधो छे. एनो त्याग ए पण कथनमात्र छे. रागना त्यागनो कर्ता मानवो ए व्यवहार कथनमात्र छे. परमार्थे रागनो कर्ता आत्मा नथी. समयसार गाथा ३४ मां आवे छे के-परमार्थे परभावना त्यागनो कर्ता आत्मा नथी. आत्मा तो चैतन्यचमत्कार-मात्र तेजःपुंज छे. तेमां राग छे अने एने छोडवो एवुं छे नहीं. राग परवस्तु छे, तेथी रागने छोडवो ए पण नथी. बहु झीणुं पडे एटले कहे आ तो निश्चयनी वातो छे, पण आ तो वस्तुस्वरूपनो भगवाननो कहेलो मार्ग छे.

भगवाननी वाणी सांभळवा एकावतारी इन्द्रो आवे छे. सौधर्म-देवलोक छे ने? तेनां ३२ लाख विमान होय छे. एक एक विमानमां असंख्य देव छे. एनो स्वामी शक्रेन्द्र एकावतारी होय छे. ते एक भव करी मोक्ष जशे. अने एनी हजारो इंद्राणी पैकी जे मुख्य पटराणी छे ते पण एकावतारी होय छे. ते पण त्यांथी नीकळी मनुष्य थईने मोक्ष जशे. अहाहा...! ते ज्यारे समोसरणमां दिव्यध्वनि सांभळता हशे, गणधरो, मुनिवरो सांभळता हशे ते दिव्यध्वनि-जिनवाणी केवी हशे? दया पाळो एवी वात तो कुंभारे य कहे छे. अहीं तो परमेश्वरनी वाणी अनुसार कहे छे के परनी दया तो आत्मा पाळी शकतो नथी, परंतु परनी दयानो जे विकल्प ऊठे छे ते राग छे, ए आत्मानी हिंसा छे. तथा परनी दया पाळी शकुं छुं ए मान्यता मिथ्यात्व छे.

आवो मार्ग छे, भगवान! बधा आत्मा स्वभावे भगवान छे. एवा भगवान आत्मानो अनुभव थतां अनेक प्रकारना नयविकल्पो उत्पन्न थता नथी, तथा ‘प्रमाणं अस्तं एति’ प्रमाण अस्त थई जाय छे. केवळज्ञान प्रत्यक्ष अने मति-श्रुतज्ञान परोक्ष छे एवा विकल्प अस्त पामी जाय छे. ‘अपि च’ अने ‘निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः’ निक्षेपोनो समूह कयां जतो रहे छे ए अमे जाणता नथी. आत्मानुभवमां नाम, स्थापनादि निक्षेपोना विकल्पो नाश पामी जाय छे. ‘किम् अपरम् अभिदध्मः’ आथी अधिक शुं कहीए? ‘द्वैतम् एव न भाति’ द्वैत ज भासतुं नथी. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यघन परम सामान्यस्वभाव जीववस्तुनो अनुभव थतां बेपणुं ज भासतुं नथी. गुण-गुणीनो भेद तो दूर रहो, पण आ अनुभवनी पर्याय अने जेने अनुभवे-जाणे ते आ त्रिकाळी शुद्ध


PDF/HTML Page 218 of 4199
single page version

आत्मा-एम बेपणुं ज भासतुं नथी. अनुभवमां एकपणे जे चीजनो अनुभव छे ते ज भासे छे. घणुं सूक्ष्म, भाई. (उपयोग सूक्ष्म करे तो समजाय एम छे.)

* कळश–९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

भेदनेअत्यंत गौण करीने कह्युं छे के-प्रमाण-नयादि भेदनी तो वात ज शी? भेदने गौण करवो एटले आ पर्याय छे, आ द्रव्य छे-एम भेदनुं लक्ष छोडी देवुं. पर्याय नथी एम पर्यायनो अभाव करीने लक्ष छोडी देवुं एम नहीं, पण पर्यायने गौण करीने-पेटामां राखीने एनुं लक्ष छोडी देवानी वात छे.

भगवान आत्मा नित्य, ध्रुव, आदि-अंत विनानी, परमपारिणामिकभावरूप, अखंड अभेद वस्तु छे, त्रिकाळ शुद्ध छे. एने वर्तमान हालतथी जोवामां आवे तो पर्याय छे. पर्याय कहो, हालत कहो, दशा कहो, अंश कहो, अवस्था कहो बधुं एकार्थ छे. परंतु शुद्धचैतन्यघन शाश्वत एक ज्ञायकभावनी द्रष्टि थतां पर्यायनो भेद गौण थई जाय छे. द्रव्यने विषय तो पर्याय करे छे, पण तेमां पर्यायभेद गौण थई जाय छे. वर्तमान पर्याय त्रिकाळीमां द्रष्टि करी झूके त्यां अभेद एकरूप आत्मानो अनुभव थाय छे. ए सम्यग्दर्शन छे.

भाई! तारे सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं होय तो पर्यायमात्रने गौण करी असत्यार्थ कर. नियमसार गाथा प०मां निर्मळ पर्यायने परद्रव्य कही छे, गौण करीने असत्यार्थ कही छे; केमके जेम परद्रव्यमांथी नवी पर्याय आवती नथी एवी रीते पर्यायमांथी नवी पर्याय आवती नथी. अहीं कहे छे-शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी जे आत्मा एनो अनुभव थतां द्वैत ज प्रतिभासतुं नथी, प्रमाण, नय, निक्षेपनी तो वात ज शुं? एकाकार चिन्मात्र ज देखाय छे.

आ समज्या विना व्रत, तप अने भक्ति आदि बधुं वर विनानी जान जेवुं छे. आत्मा ‘वर’ जे मुख्य चीज छे तेने छोडी लोको क्रियाकांडमां चढी गया छे. ए क्रियाकांडमां बहारथी बीजा करतां विशेष देखाय तो ओ हो हो एम एने महिमा थई जाय छे. पण प्रभु! एकवार सत्य शुं छे ए सांभळ तो खरो. आ वीतरागनो मार्ग तो लोको माने छे एनाथी जुदो अलौकिक छे. कोईनी साथे एनी मेळवणी थई शके तेम नथी. भगवान सर्वज्ञ एम फरमावे छे के आ अखंड आनंदस्वरूप चैतन्यघन जे वस्तु एमां द्रव्यकर्म अने राग तो नथी पण जे वर्तमान पर्याय वस्तुनो अनुभव करे छे ते पर्याय पण वस्तु-द्रव्यमां नथी. पर्यायमां त्रिकाळीनो अनुभव थाय तोपण पर्यायमां द्रव्य आवतुं नथी पण (त्रिकाळी) द्रव्यनुं ज्ञान आवे छे. आवी अपूर्व वात छे, भाई! आवी एकरूप


PDF/HTML Page 219 of 4199
single page version

चैतन्यवस्तुनो अनुभव थतां कोई भेद जणातो नथी, एकाकार चिन्मात्र ज देखाय छे. एकांत थई गयुं ने? सम्यक्अनुभवमां एकांत ज जणाय छे. एने सम्यग्दर्शन अने धर्म कहेवामां आवे छे.

अहीं विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदांती कहे छे के-अंते तो परमार्थरूप अद्वैतनो ज अनुभव थयो. अमे तो अद्वैत कहीए ज छीए. तमारामां पण अद्वैत आव्युं. तमे कह्युं ने के-‘अनुभवमां द्वैत ज भासतुं नथी’-द्वैत कांई छे ज नहीं. ए ज अमारो मत छे. वेदांत कहे छे के एक ज आत्मा सर्वव्यापक अभेद छे. विज्ञान-अद्वैतवादी पण एवुं कहे छे. आ रीते अज्ञानी प्रश्न करे छे के नय, निक्षेपनी बहु लांबीलांबी वात करीने तमे विशेष शुं कह्युं? तेनो उत्तरः–

तमारा मतमां सर्वथा अद्वैत-एटले बे नहीं, एक ज मानवामां आवे छे. अज्ञानीना मत प्रमाणे सर्वथा अद्वैत मानवामां आवे तो पर एवी बाह्य वस्तुनो अभाव ज थई जाय. आत्मा राग, आदि जे परज्ञेयने जाणे छे ते सर्व चीजनो अभाव थई जाय. पण एवो अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध छे. अमारा मतमां नयविवक्षा छे, अपेक्षाथी कथन छे. ते बाह्यवस्तुनो लोप करती नथी. बाह्य चीज बाह्य चीजमां तो छे, ते आत्मामां नथी. राग रागपणे छे, पर्याय पण पर्यायपणे छे. कोई बाह्य वस्तु अभावरूप नथी. अमारे त्यां तो नयविवक्षा छे. निश्चयनयना विषयनो अनुभव थतां द्वैत देखातुं नथी एम छे. एम कहेवाथी बाह्य चीज, राग, पर्याय नथी एम नथी. शुद्ध द्रव्य अनुभवमां आवतां विकल्प मटी जाय छे एटलुं ज प्रयोजन छे. पूर्णानंदनो नाथ जे शुद्ध ज्ञायकभाव एना तरफना झूकावथी ज्यारे अनुभव थाय छे त्यारे भेदनो विकल्प मटी जाय छे. भेद वस्तु जगतमां नथी एम नथी.

वेदांत एक ज सर्वव्यापक कहे छे, पण एम नथी. अनंत आत्मा (संख्याए) छे. एकेएक आत्मा (असंख्यात प्रदेशी) शरीर-प्रमाण छे. आत्मा (क्षेत्रथी) सर्वव्यापक नथी. एक आत्मामां अनंत गुणो छे अने ते अनंत गुणोमां एक समयमां अनंत पर्यायो थाय छे. आ बधानी सत्ता (होवापणुं) राखीने अभेदना अनुभवमां एनो (पर सत्ता अने भेदनो) विकल्प मटी जाय छे एम वात छे. वस्तु मटी जाय छे एम नहीं.

अरेरे! जैनदर्शन शुं छे एने यथार्थ समज्या विना जैनमां पण कोई लोकोने वेदांतनी श्रद्धा होय छे. जैनदर्शनमां तो परमानंदस्वरूप, अतीन्द्रियआनंदनुं धाम, शुद्ध-चेतनामात्रवस्तु जे छे तेमां एकाग्र थतां भेदनो विकल्प मटी जाय छे अने व्यक्त परमा-


PDF/HTML Page 220 of 4199
single page version

नंदनी प्राप्ति थाय छे, एनुं नाम अद्वैत कह्युं छे. अद्वैत एटले बधुं एक छे एम नहीं. आ रीते अनुभव कराववा माटे एम कह्युं के ‘शुद्ध अनुभवमां द्वैत भासतुं नथी.’ पंडितजी अहीं खुलासो करे छे के-जो बाह्य वस्तुओनो लोप करवामां आवे तो आत्मानो ज लोप थई जशे. आत्मा वस्तु दर्शन-ज्ञानस्वभाव छे. तेनी एक एक समयनी पर्याय प्रगट थाय छे. आत्मानी ज्ञाननी पर्यायमां आखा लोकालोकने जाणवानी ताकात छे. हवे जो बाह्यवस्तु-लोकालोक न होय तो तेने जाणनारी ज्ञाननी पर्याय पण न होय, अने जो पर्याय न होय तो जेनी ए पर्याय छे एवी अनंत पर्यायोनो पिंड आत्मा ज न होय. तेथी जो लोकालोकने न मानवामां आवे तो पोतानो ज लोप थई जाय, अने ए प्रमाणे शून्यवादनो प्रसंग आवे. आत्मानी श्रुतज्ञाननी पर्यायमां पण परोक्षपणे लोकालोकने जाणवानी ताकात छे. जो लोकालोकने न माने तो तेने जाणनार पोतानी पर्यायने पण न मानी, आवी अनंती पर्यायनो आधार जे ज्ञानगुण ते पण न मान्यो अने तो अनंत गुणनो पिंड जे आत्मा पोते छे तेने पण न मान्यो. आम सर्व शून्यवादनो प्रसंग आवी जाय. माटे तमो कहो छो ते प्रमाणे वस्तुनी सिद्धि थई शकती नथी. तमे अद्वैत ज कहो छो, बीजुं कांई छे ज नहीं एम कहो छो. द्रव्य एकलुं छे अने पर्याय पण नथी तो द्रव्य छे एनो निर्णय करवावाळुं कोण छे? जे अनित्य पर्याय छे ते नित्य (वस्तु)नो निर्णय करे छे. जो तमे एकलुं नित्यने मानशो तो ते माननारी-निर्णय करनारी पर्यायनो नाश थई जशे. ते प्रसंगमां नित्यनो पण अभाव ज थई जशे. आम वस्तु द्रव्य-पर्याय स्वरूप छे, तेमां ध्रुव नित्यानंदस्वरूप जे ज्ञायकभाव द्रव्य तेमां द्रष्टि करतां एकलो अभेदनो, निर्विकल्प आनंदनो अनुभव थाय छे. आवा अभेद आत्मानो अनुभव कांई विशेष (झाझुं) ज्ञान होय तो ज थाय एम नथी. नरकमां पडेलो नारकी जीव, आठ वर्षनी बाळकी तथा तिर्यंच पण अनुभवपूर्वक समकित पामे छे. अढीद्वीप ज्यां मनुष्यो छे त्यां पण तिर्यंचो छे अने अढीद्वीप बहार असंख्य द्वीप-समुद्रमां असंख्य तिर्यंचो छे जे पांचमा गुणस्थानवाळां छे. एमां शुं छे? आत्मा छे ने? एक त्रिकाळ ध्रुव आत्मानी द्रष्टि थवी जोईए. अनादिथी जीव एक समयनी पर्यायमां (भेदमां) रमे छे. (एने ज जुए छे) पर्यायनी पाछळ आखुं ध्रुव द्रव्य पडयुं छे एने जोतो नथी. जेम सोनानी कुंडल, कडुं, वींटी आदि पर्यायनी पाछळ पूरुं सोनुं पडयुं छे के नहीं? एम एक समयनी प्रगट ज्ञाननी जे पर्याय छे ए पर्यायनी पाछळ एकरूप परमात्मतत्त्वरूप पूर्ण ज्ञायकदळ पडयुं छे. ते अनंतगुण-मंडित छे. पण गुण-गुणीना भेद पर नजर करवाथी विकल्प राग ऊठे