Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 14.

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छे. जे राग उत्पन्न थाय छे ए दुःखनुं कारण छे, दुःख ज छे. तेथी भेदने गौण करी भगवान सर्वज्ञदेवे जेवो आत्मा जोयो छे ते शुद्ध चैतन्यघन आनंददळमां द्रष्टि करवी जोईए. तेथी सम्यग्दर्शनरूप धर्म थाय छे.

वस्तु जेवी अनंतगुणरूप अने एक समयनी पर्यायरूप के जेमां लोकालोक जाणवानी शक्ति छे एवी वस्तुस्वरूपनी यथार्थ श्रद्धा विना अनुभव करवामां आवे ते मिथ्यात्व छे. वस्तुस्वरूपनी यथार्थ श्रद्धा विना घणा वेदांती एम कहे छे के अमे शुद्ध अद्वैतनो अनुभव करीए छीए पण ए अनुभव ज नथी.

भगवाने अनंत आत्मा, एनाथी अनंतगुणा परमाणु, असंख्य कालाणु, एक धर्मास्ति, एक अधर्मास्ति अने एक आकाश एवां छ द्रव्यो जोयां छे. अने ए बधां द्रव्योने जाणवावाळी पर्याय पण छे. ए पर्यायथी भिन्न आखुं आत्मदळ पडयुं छे. पर्यायथी आवा चैतन्यदळनी द्रष्टि करतां विकल्प तूटी जाय छे, राग रहेतो नथी. त्यारे निर्विकल्पदशामां शुद्ध अद्वैतनो अनुभव थाय छे, अने त्यारे प्रगट परम आनंद प्राप्त थाय छे. एने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कहेवामां आवे छे.

हुं शुद्ध छुं, हुं शुद्ध छुं एम कह्या करे पण शुद्ध चीज शुं छे अने कई रीते छे ए जाण्या विना शुद्ध अनुभव साचो नथी, ए तो मिथ्यात्व छे. सर्वथा अद्वैतवादीने शून्यनो प्रसंग होवाथी उलटी श्रद्धामां जे रागनो अनुभव थयो ए तो आकाशना फूलना अनुभव जेवो अनुभव थयो. आकाशमां जेम फूल नथी तेम एने वस्तुनो अनुभव नथी.

ज्ञानमां प्रथम एवो निर्णय करे के हुं तो अनंतगुणनो पिंड चैतन्यमात्र वस्तु छुं. आ निर्णय करनारी तो पर्याय छे, पण ते पर्याय एम जाणे छे के-हुं तो त्रिकाळी ध्रुव छुं. समयसार गाथा ३२०नी जयसेनाचार्यनी टीकामां आवे छे केः पर्याय एवो निर्णय करे छे के-सकळ निरावरण, अखंड-खंड नहीं, एक-भेद नहीं, प्रत्यक्ष-परोक्ष नहीं प्रतिभासमय-जाणवामां आवे छे एवो, अविनश्वर, नित्य ध्रुव शुद्धपारिणामिक- परमभावलक्षण, निजपरमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं. पर्याय एम जाणे छे के हुं आ छुं, हुं पर्याय छुं एम जाणती नथी. निर्णय-कार्य पर्यायमां थाय छे, ध्रुवमां नहीं. ध्रुव तो त्रिकाळ-निरावरण कारणरूप छे, तेने कारणपरमात्मा कहे छे.

भाई! परमात्मस्वरूप भगवान आत्मानो मार्ग तो कोई अलौकिक छे. ते वस्तुद्रष्टि विना अनंतकाळमां पण प्राप्त थयो नहीं. अगियार अंगनुं ज्ञान कर्युं, नव पूर्वनी लब्धि प्रगटी, अने शुकल लेश्या-चामडी उतारीने खार छांटे तोपण आंखनो खूणो लाल थाय


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नहीं-एवा शुकल लेश्याना मंदकषायना परिणाम थया, तथा तेना फळमां स्वर्गे गयो. पण एमां शुं थयुं? जन्म-मरण मटयां नहीं. स्वर्गनो भव हो के नरकनो-चारेय गति दुर्गति छे, एक सिद्धपद सुगति छे. भगवान आत्मानी यथार्थ द्रष्टि करी सिद्धपदनी साधना प्रगट करवी जोईए.

हवे शुद्धनयनो उदय थाय छे, एनी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-

* कळश–१०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘शुद्धनयः आत्मस्वभावम् प्रकाशयन् अभ्युदेति’ शुद्धनय आत्माना स्वभावने प्रगट करतो उदयरूप थाय छे. ज्ञाननी जे पर्याय त्रिकाळी ध्रुवने विषय करे तेने शुद्धनय कहे छे. विषय अने विषयी एवो भेद काढी नाखीने गाथा ११मां त्रिकाळी ध्रुव वस्तुने ज शुद्धनय कह्यो छे. ‘भूयत्थो देसिदो दु सुद्धनओ. एक समयनी पर्याय सिवायनी आखी चीज जे सत्यार्थ अनादि-अनंत शुद्ध अखंड द्रव्य छे ते शुद्धनय छे- एम कुंदकुंदाचार्य देव कहे छे. अध्यात्ममां नय-विषयी अने एनो विषय-द्रव्य एटलो भेद पण काढी नाखवामां आवे छे. त्रिकाळीने सत्यार्थ कहीने पर्यायने गौण करीने असत्यार्थ कही. पर्याय अने परनुं लक्ष छोडाववा माटे पर्याय होवा छतां एने गौण करीने व्यवहार कही. परवस्तु जे व्यवहार छे ए स्वनी अपेक्षाए असत् छे. स्वद्रव्यनी अपेक्षाए परवस्तु अद्रव्य छे. एवी रीते त्रिकाळीनी अपेक्षाए पर्यायने गौण करीने असत्-असत्या कहेवामां आवी छे. भाई! आ तो केवळी परमात्मानी कहेली वात छे. नियमसार गाथा ८ नी टीकामां कह्युं छे के-“परमागम भव्योए कर्णरूपी अंजलिथी पीवा योग्य अमृत छे.” आ तो अमृतना प्याला छे; जेनां भाग्य होय तेने सांभळवा मळे. वर्तमानमां बहु ज गरबड छे. सत्य वातने निश्चयाभास कहे छे. कहे छे के व्यवहारने मानता नथी. परंतु कोण कहे छे के व्यवहार नथी? व्यवहार छे, परद्रव्य छे, राग छे, पर्याय छे. परंतु सम्यग्दर्शन अने ज्ञाननी प्राप्ति कराववाना प्रयोजननी सिद्धि अर्थे त्रिकाळी द्रव्यने सत्य कह्युं अने पर्यायने गौण करी व्यवहार कही असत्य कही छे. वेदांतमां आ द्रव्य अने आ पर्याय एवुं कयां छे? आ गौण करवुं एवुं कयां छे? बधी जूठी वात छे. वेदांतमां निश्चयनी वातो बहु करे पण पर्याय अनित्य छे एम वात आवे त्यां भडके. जैनमां पण व्रत करवां, तप करवुं, उपवास करवा एम वात आवे तो समजे, पण अध्यात्मनी वात आवे तो चमके के हें!

भगवान! एकवार सांभळ तो खरो. जे पर्यायने स्पर्शती नथी एवी तारी चीज अंदर परमात्मस्वरूपे पडी छे. प्रवचनसार गाथा १७२ ना अलिंगग्रहणना १९ मा बोलमां


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आ वात लीधी छे के-‘आत्मा पर्यायविशेषथी नहि आलिंगित एवुं शुद्ध द्रव्य छे.’ उपरांत समयसार गाथा ४९ ना अव्यक्तना पांचमा बोलमां पण आवे छे के- ‘व्यक्तपणुं अने अव्यक्तपणुं भेळां मिश्रितरूपे तेने प्रतिभासवा छतां पण ते व्यक्तपणाने स्पर्शतो नथी माटे अव्यक्त छे.’ अहीं कहे छे के आवो जे आत्मा शुद्ध ज्ञायकभाव परम-पारिणामिकस्वभाव तेने प्रगट करतो शुद्धनय उदयरूप थाय छे.

ते (शुद्धनय) आत्मस्वभावने केवो प्रगट करे छे?-‘परभावभिन्नम्’ परद्रव्य, परद्रव्यना भावो तथा परद्रव्यना निमित्तथी थता पोताना विभावो-एवा परभावोथी भिन्न प्रगट करे छे. जोयुं? ‘पोताना विभावो’ एम शब्द लीधो छे. परद्रव्यना निमित्तथी थतां नैमित्तिक विभावभावो ए कोई निमित्तथी थया नथी निमित्त तो निमित्तमां छे अने पोतानी पर्याय पोतामां थाय छे पंचास्तिकाय गाथा ६२ मां आवे छे के-विकार थवामां परकारकनी अपेक्षा नथी. निश्चयथी विकार परनी अपेक्षा विना थाय छे. अहीं जे कह्युं के ‘परद्रव्यना निमित्तथी थवावाळा’ ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे. बाकी निश्चयथी विकार थाय छे पोतामां पोतानी अपेक्षाथी, परकारकनी एमां अपेक्षा छे ज नहि. परद्रव्यना निमित्तना संबंधे पोतामां योग्यताथी पर्याय थाय छे. पर्याय थाय छे पोताथी, परथी नहीं. ए विकारी पर्यायथी पण आत्मा भिन्न छे. अहीं त्रण वात कही परद्रव्य जे शरीर, मन, वचन, कर्म आदि, परद्रव्यना भाव एटले कर्मना उदयादि तथा परद्रव्यना निमित्तथी थता पोताना विभावभावो जे विकारादि-ते सर्व परभावोथी भिन्न आत्माने शुद्धनय प्रगट करे छे.

कोई प्रश्न करे के ‘एवा परभावोथी’ एम कह्युं एमां पर्याय (वर्तमान) आवे के नहीं? समाधान एम छे के-पर्याय छे तो द्रव्यथी भिन्न, पण ए वात अहीं नथी. त्रिकाळीने विषय करनारी पर्याय, कर्म, कर्मनो भाव अने विभावथी भिन्न पडीने अंतरमां द्रव्य तरफ झुके छे-त्यारे ए पर्याय आत्मस्वभावने परभावोथी भिन्न प्रगट करे छे.

वळी ते, ‘आपूर्णम्’ आत्मस्वभाव समस्तपणे पूर्ण छे एम प्रगट करे छे. ज्ञानथी पूर्ण, दर्शनथी पूर्ण, आनंदथी पूर्ण, शांतिथी पूर्ण, स्वच्छताथी पूर्ण, प्रभुताथी पूर्ण, कर्ताथी पूर्ण, कर्मथी पूर्ण इत्यादि समस्त अनंत शक्तिओथी आत्मस्वभाव परिपूर्ण छे.

त्रण लोकमां (संख्याए) अनंत जीव छे. एनाथी अनंतगुणा परमाणु छे. एनाथी अनंतगुणा त्रणकाळना समयो छे. एनाथी अनंतगुणा आकाशना प्रदेशो छे.


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एनाथी अनंतगुणा एक जीवमां गुण छे. आ बधा गुण पूर्ण छे. अने आवा अनंत गुण-शक्तिओथी परिपूर्ण आत्मद्रव्य छे. शुद्धनय आवा पूर्णशक्तिओथी मंडित जे समस्त लोकालोकने जाणवाना सामर्थ्यवाळो आत्मस्वभाव छे तेने प्रगट करे छे. ज्ञानमां जे भेद पडे छे ए तो कर्मसंयोगथी छे. शुं कह्युं? आ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवळज्ञानए जे पर्यायना भेदो छे ए तो कर्मना निमित्तनी अपेक्षाथी छे. वस्तुमां (ज्ञान-स्वभावमां) भेद नथी. शुद्धनयमां कर्म अने कर्मनी अपेक्षा गौण छे. शुद्धनय तो एकमात्र पूर्ण स्वभावने प्रगट करे छे. भाई! आ चीजने समजवी ए कोई अलौकिक पुरुषार्थ छे.

वळी ते, ‘आदि–अन्त–विमुक्तम्’ आत्मस्वभावने आदिअंतथी रहित प्रगट करे छे. वस्तु त्रिकाळी पूर्णस्वरूप भगवान आत्मा छे. ए आदि-अंतविमुक्त छे. जेवो आत्मा आदि-अंत रहित छे तेवो स्वभाव पण आदि-अंत रहित छे. ‘छे’ एनी आदि शुं? ‘छे’ एनो अंत शुं? ‘छे’ एमां अपूर्णता शुं? ‘छे’ एमां विकार शुं? चीज छे ते ज्यारे नजर नाखे त्यारे चीज छे. शुद्धनय, कोई आदिथी मांडीने जे कोईथी उत्पन्न करवामां आव्यो नथी अने कयारेय कोईथी जेनो विनाश नथी एवा पारिणामिकभावने प्रगट करे छे. पारिणामिक एटले जेमां निमित्तना सद्भाव के अभावनी अपेक्षा नथी एवो सहजस्वभाव. एकलो परम पारिणामिकस्वभाव- भावरस ज्ञानरस, आनंदरस, शांतरस, वीतरागरस एवा अनंतरसनुं जे अनादि- अनंत एकरूप तेने प्रगट करे छे. परमाणु जे पर्यायविनानुं (द्रव्य) छे तेने पण पारिणामिकभाव कहे छे. अहीं तो जीवना ज्ञायक-भावरूप पारिणामिकनी वात छे. पर्याय रहित द्रव्य ए परमपारिणामिकभाव छे. तेने शुद्धनय प्रगट करे छे.

वळी ते, ‘एकम्’ आत्मस्वभावने एक एटले सर्व भेदभावोथी रहित एकाकार प्रगट करे छे. आत्मा अने पर्याय एवा द्वैतभावथी रहित अभेद एकाकार प्रगट करे छे. कोईने लागे के वेदांत जेवुं तो नथी थई जतुं ने? भाई, वेदांतमां द्रव्य, गुण अने पर्याय छे ज कयां? अहीं तो शुद्धनय एकरूप चैतन्यप्रकाशनो पुंज जे परमस्वभावभाव तेने प्रगट करे छे एम वात छे.

अने ‘विलान सङ्कल्प–विकल्प–जालं’ जेमां समस्त संकल्प-विकल्पना समूहो विलय थई गया छे एवो प्रगट करे छे. द्रव्यकर्म-जड, भावकर्म-विकार, नोकर्म-शरीरादि पुद्गल द्रव्योमां मारापणानी कल्पना करवी एने संकल्प कहे छे, ए मिथ्यात्व छे.


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शुभरागना विकल्पने पण पोतानो मानवो ए मिथ्यात्व छे. पुण्य-पापना भावने शास्त्रमां पुद्गलना कह्या छे, कारण के एमां चेतननो-ज्ञाननो अंश नथी. राग चैतन्यना अभावरूप छे, तेमां चैतन्यना नूरनो अंश पण नथी. दया, दान, भक्ति, पूजा इत्यादि विकल्पमां भगवान चैतन्यनी जाति नथी, तेथी पुद्गलना कह्या छे.

अने ज्ञेयोना भेदथी ज्ञानमां भेद मालूम पडवो तेने विकल्प कहे छे. ज्ञेयना भेदथी ज्ञानमां भेद मालूम पडे छे ए अनंतानुबंधीनो विकल्प छे. अनेकने जाणवारूप पर्याय तो थई छे पोताथी अने खरेखर तो ज्ञान एकरूपे रहीने पोताने जाणे छे. एकपणामां अनंतपणुं-खंडपणुं थई जाय छे एम नथी; छतां ज्ञेयना भेदथी ज्ञानमां खंड-भेद मालूम पडवो ए विकल्प छे. आवा संकल्पविकल्पथी भगवान आत्मा भिन्न छे. सम्यग्दर्शन थतां अर्थात् पूर्णस्वरूपनो अनुभव थतां संकल्प-विकल्प नाश पामी जाय छे. आवा आत्मस्वभावने प्रगट करतो शुद्धनय उदय पामे छे.



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गाथा–१४
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं।
अविसेसमसंजुत्तं तं
सुद्धणयं वियाणीहि।।
१४।।

यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतम्।
अविशेषमसंयुक्तं तं
शुद्धनयं विजानीहि।। १४।।

ए शुद्धनयने गाथासूत्रथी कहे छेः-

अबद्धस्पृष्ट, अनन्य ने जे नियत देखे आत्मने,
अविशेष, अणसंयुक्त,
तेने शुद्धनय तुं जाणजे. १४.

गाथार्थः– [यः] जे नय [आत्मानम्] आत्माने [अबद्धस्पृष्टम्] बंध रहित ने परना स्पर्श रहित, [अनन्यकं] अन्यपणा रहित, [नियतम्] चळाचळता रहित, [अविशेषम्] विशेष रहित, [असंयुक्तं] अन्यना संयोग रहित-एवा पांच भावरूप [पश्यति] देखे छे [तं] तेने, हे शिष्य! तुं [शुद्धनयं] शुद्धनय [विजानीहि] जाण.

टीकाः– निश्चयथी अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त- एवा आत्मानी जे अनुभूति ते शुद्धनय छे, अने ए अनुभूति आत्मा ज छे; ए रीते आत्मा एक ज प्रकाशमान छे. (शुद्धनय कहो या आत्मानी अनुभूति कहो या आत्मा कहो-एक ज छे, जुदां नथी.) अहीं शिष्य पूछे छे के जेवो उपर कह्यो तेवा आत्मानी अनुभूति केम थई शके? तेनुं समाधानः-बद्धस्पृष्टत्व आदि भावो अभूतार्थ होवाथी ए अनुभूति थई शके छे. आ वातने द्रष्टांतथी प्रगट करवामां आवे छेः-

जेम कमलिनीनुं पत्र जळमां डूबेलुं होय तेनो जळथी स्पर्शावारूप अवस्थाथी अनुभव करतां जळथी स्पर्शावापणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे, तोपण जळथी जराय नहि


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स्पर्शावायोग्य एवा कमलिनी-पत्रना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां जळथी स्पर्शावापणुं अभूतार्थ-छे असत्यार्थ छे; एवी रीते अनादि काळथी बंधायेला आत्मानो, पुद्गलकर्मथी बंधावा-स्पर्शावारूप अवस्थाथी अनुभव करतां बद्धस्पृष्टपणुं भूतार्थ छे- सत्यार्थ छे, तोपण पुद्गलथी जराय नहि स्पर्शावायोग्य एवा आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां बद्धस्पृष्टपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे. वळी, जेम माटीनो, कमंडळ, घडो, झारी, रामपात्र आदि पर्यायोथी अनुभव करतां अन्यपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे, तोपण सर्वतः अस्खलित (-सर्व पर्यायभेदोथी जराय भेदरूप नहि थता एवा) एक माटीना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अन्यपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे; एवी रीते आत्मानो, नारक आदि पर्यायोथी अनुभव करतां (पर्यायोना बीजा-बीजापणारूप) अन्यपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे, तोपण सर्वतः अस्खलित (सर्व पर्यायभेदोथी जराय भेदरूप नहि थता एवा) एक चैतन्याकार आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अन्यपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे. जेम समुद्रनो, वृद्धिहानिरूप अवस्थाथी अनुभव करतां अनियतपणुं (अनिश्चितपणुं) भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे, तोपण नित्य-स्थिर एवा समुद्रस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अनियतपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे; एवी रीते आत्मानो, वृद्धिहानिरूप पर्यायभेदोथी अनुभव करतां अनियतपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे, तोपण नित्य-स्थिर (निश्चल) एवा आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अनियतपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे. जेम सुवर्णनो, चीकणापणुं, पीळापणुं, भारेपणुं आदि गुणरूप भेदोथी अनुभव करतां विशेषपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे. तोपण जेमां सर्व विशेषो विलय थई गया छे एवा सुवर्णस्वभावथी समीप जईने अनुभव करतां विशेषपणुं अभूतार्थ छे- असत्यार्थ छे; एवी रीते आत्मानो, ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप भेदोथी अनुभव करतां विशेषपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे, तोपण जेमां सर्व विशेषो विलय थई गया छे एवा आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां विशेषपणुं अभूतार्थ छे- असत्यार्थ छे. जेम जळनो, अग्नि जेनुं निमित्त छे एवी उष्णता साथे संयुक्तपणारूप- तप्तपणारूप-अवस्थाथी अनुभव करतां (जळने) उष्णपणारूप संयुक्तपणुं भूतार्थ छे- सत्यार्थ छे, तोपण एकांत शीतळतारूप जळस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां (उष्णता साथे) संयुक्तपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे; एवी रीते आत्मानो, कर्म जेनुं निमित्त छे एवा मोह साथे संयुक्तपणारूप अवस्थाथी अनुभव करतां संयुक्तपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे,


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तोपण जे पोते एकांत बोधरूप (ज्ञानरूप) छे एवा जीवस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां संयुक्तपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे. भावार्थः– आत्मा पांच प्रकारथी अनेकरूप देखाय छेः (१) अनादि काळथी कर्मपुद्गलना संबंधथी बंधायेलो कर्मपुद्गलना स्पर्शवाळो देखाय छे, (२) कर्मना निमित्तथी थता नर, नारक आदि पर्यायोमां भिन्न भिन्न स्वरूपे देखाय छे, (३) शक्तिना अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटे पण छे, वधे पण छे-ए वस्तुनो स्वभाव छे तेथी ते नित्य-नियत एकरूप देखातो नथी, (४) वळी ते दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुणोथी विशेषरूप देखाय छे अने (प) कर्मना निमित्तथी थता मोह, राग, द्वेष आदि परिणामो सहित ते सुखदुःखरूप देखाय छे. आ सौ अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप व्यवहार नयनो विषय छे. ए द्रष्टि (अपेक्षा)थी जोवामां आवे तो ए सर्व सत्यार्थ छे. परंतु आत्मानो एक स्वभाव आ नयथी ग्रहण नथी थतो, अने एक स्वभावने जाण्या विना यथार्थ आत्माने केम जाणी शकाय? आ कारणे बीजा नयने-तेना प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिक नयने-ग्रहण करी, एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्मानो भाव लई, तेने शुद्धनयनी द्रष्टिथी सर्व परद्रव्योथी भिन्न, सर्व पर्यायोमां एकाकार, हानिवृद्धिथी रहित, विशेषोथी रहित अने नैमित्तिक भावोथी रहित जोवामां आवे तो सर्व (पांच) भावोथी जे अनेकप्रकारपणुं छे ते अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे.

अहीं एम जाणवुं के वस्तुनुं स्वरूप अनंत धर्मात्मक छे, ते स्याद्वादथी यथार्थ सिद्ध थाय छे. आत्मा पण अनंत धर्मवाळो छे. तेना केटलाक धर्मो तो स्वाभाविक छे अने केटलाक पुद्गलना संयोगथी थाय छे. जे कर्मना संयोगथी थाय छे, तेमनाथी तो आत्माने संसारनी प्रवृत्ति थाय छे अने ते संबंधी सुखदुःख आदि थाय छे तेमने भोगवे छे. ए, आ आत्माने अनादि अज्ञानथी पर्यायबुद्धि छे; अनादिअनंत एक आत्मानुं ज्ञान तेने नथी, ते बतावनार सर्वज्ञनुं आगम छे. तेमां शुद्धद्रव्यार्थिक नयथी ए बताव्युं छे के आत्मानो एक असाधारण चैतन्यभाव छे ते अखंड छे, नित्य छे, अनादिनिधन छे. तेने जाणवाथी पर्यायबुद्धिनो पक्षपात मटी जाय छे. परद्रव्योथी, तेमना भावोथी अने तेमना निमित्तथी थता पोताना विभावोथी पोताना आत्माने भिन्न जाणी तेनो अनुभव जीव करे त्यारे परद्रव्यना भावोरूप परिणमतो नथी; तेथी कर्म बंधातां नथी. अने संसारथी निवृत्ति थई जाय छे. माटे पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयने गौण करी अभूतार्थ (असत्यार्थ) कह्यो छे अने शुद्धनिश्चयनयने सत्यार्थ कही तेनुं आलंबन दीधुं छे. वस्तुस्वरूपनी प्राप्ति थया पछी तेनुं पण आलंबन रहेतुं नथी. आ कथनथी एम न समजी लेवुं के शुद्धनयने सत्यार्थ कह्यो तेथी अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ज छे. एम मानवाथी वेदांतमतवाळा जेओ संसारने सर्वथा अवस्तु माने छे


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(मालिनी)
न हि
विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी
स्फुटमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम्।

__________________________________________________________________ तेमनो सर्वथा एकांत पक्ष आवी जशे अने तेथी मिथ्यात्व आवी जशे, ए रीते ए शुद्धनयनुं आलंबन पण वेदांतीओनी जेम मिथ्याद्रष्टिपणुं लावशे. माटे सर्व नयोना कथंचित् रीते सत्यार्थपणानुं श्रद्धान करवाथी ज सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे. आ रीते स्याद्वादने समजी जिनमतनुं सेवन करवुं, मुख्य-गौण कथन सांभळी सर्वथा एकांत पक्ष न पकडवो. आ गाथासूत्रनुं व्याख्यान करतां टीकाकार आचार्ये पण कह्युं छे के आत्मा व्यवहारनयनी द्रष्टिमां जे बद्धस्पृष्ट आदि रूपे देखाय छे ते ए द्रष्टिमां तो सत्यार्थ ज छे परंतु शुद्धनयनी द्रष्टिमां बद्धस्पृष्टादिपणुं असत्यार्थ छे. आ कथनमां टीकाकार आचार्ये स्याद्वाद बताव्यो छे एम जाणवुं.

वळी, अहीं एम जाणवुं के आ नय छे ते श्रुतज्ञान-प्रमाणनो अंश छे; श्रुतज्ञान वस्तुने परोक्ष जणावे छे; तेथी आ नय पण परोक्ष ज जणावे छे. शुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषयभूत, बद्धस्पृष्ट आदि पांच भावोथी रहित आत्मा चैतन्यशक्तिमात्र छे. ते शक्ति तो आत्मामां परोक्ष छे ज. वळी तेनी व्यक्ति कर्मसंयोगथी मति-श्रुतादि ज्ञानरूप छे ते कंथचित् अनुभवगोचर होवाथी प्रत्यक्षरूप पण कहेवाय छे, अने संपूर्णज्ञान जे केवळज्ञान ते जोके छद्मस्थने प्रत्यक्ष नथी तोपण आ शुद्धनय आत्माना केवळज्ञानरूपने परोक्ष जणावे छे. ज्यां सुधी आ नयने जीव जाणे नहि त्यां सुधी आत्माना पूर्ण रूपनुं ज्ञान-श्रद्धान थतुं नथी. तेथी श्री गुरुए आ शुद्धनयने प्रगट करी उपदेश कर्यो के बद्धस्पृष्ट आदि पांच भावोथी रहित पूर्णज्ञानघनस्वभाव आत्माने जाणी श्रद्धान करवुं, पर्यायबुद्धि न रहेवुं. अहीं कोई एवो प्रश्न करे के-एवो आत्मा प्रत्यक्ष तो देखातो नथी अने विना देख्ये श्रद्धान करवुं ते जूठुं श्रद्धान छे. तेनो उत्तरः-देखेलानुं ज श्रद्धान करवुं ए तो नास्तिक मत छे. जिनमतमां तो प्रत्यक्ष अने परोक्ष-बन्ने प्रमाण मानवामां आव्यां छे. तेमां आगमप्रमाण परोक्ष छे. तेनो भेद शुद्धनय छे. आ शुद्धनयनी द्रष्टिथी शुद्ध आत्मानुं श्रद्धान करवुं, केवळ व्यवहार-प्रत्यक्षनो ज एकांत न करवो. अहीं, आ शुद्धनयने मुख्य करी कलशरूप काव्य कहे छेः- श्लोकार्थः– [जगत् तम् एव सम्यक्स्वभावम् अनुभवतु] जगतना प्राणीओ ए सम्यक् स्वभावनो अनुभव करो के [यत्र] ज्यां [अमी बद्धस्पृष्टभावादयः] बद्धस्पृष्ट


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अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात्
जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम्।।
११।।

(शार्दूलविक्रीडित)
भूतं भान्तमभूतमेव
रभसान्निर्भिद्य बन्धं सुधी
र्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्।
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा
व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः।। १२।।

__________________________________________________________________ आदि भावो [एत्य स्फुटम् उपरि तरन्तः अपि] स्पष्टपणे ते स्वभावना उपर तरे छे तोपण [प्रतिठाम् न हि विदधति] (तेमां) प्रतिष्ठा पामता नथी, कारण के द्रव्यस्वभाव तो नित्य छे, एकरूप छे अने आ भावो अनित्य छे, अनेकरूप छे; पर्यायो द्रव्यस्वभावमां प्रवेश करता नथी, उपर ज रहे छे. [समन्तात् द्योतमानं] शुद्ध स्वभाव सर्व अवस्थाओमां प्रकाशमान छे. [अपगतमोहीभूय] एवा शुद्ध स्वभावनो, मोह रहित थईने जगत अनुभव करो; कारण के मोहकर्मना उदयथी उत्पन्न मिथ्यात्वरूप अज्ञान ज्यांसुधी रहे छे त्यां सुधी ए अनुभव यथार्थ थतो नथी.

भावार्थः– शुद्धनयना विषयरूप आत्मानो अनुभव करो एम उपदेश छे. ११.

हवे, ए ज अर्थनुं कलशरूप काव्य फरीने कहे छे जेमां एम कहे छे के आवो अनुभव कर्ये आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान थाय छेः-

श्लोकार्थः– [यदि] जो [कः अपि सुधीः] कोई सुबुद्धि (सम्यग्द्रष्टि) [भूतं भान्तम् अभूतम् एव बधिं] भूत, वर्तमान अने भावि एवा त्रणे काळनां कर्मोना बंधने पोताना आत्माथी [रभसात्] तत्काळ-शीघ्र [निर्भिद्य] भिन्न करीने तथा [मोहं] ते कर्मना उदयना निमित्तथी थयेल मिथ्यात्व (अज्ञान)ने [हठात्] पोताना बळथी (पुरुषार्थथी) [व्याहत्य] रोकीने अथवा नाश करीने [अन्तः] अंतरंगमां [किल अहो कलयति] अभ्यास करे-देखे तो [अयम् आत्मा] आ आत्मा [आत्म– अनुभव–एक–गम्य–महिमा] पोताना अनुभवथी ज जणावायोग्य जेनो प्रगट महिमा छे एवो [व्यक्तः] व्यक्त (अनुभवगोचर), [ध्रुवं] निश्चल, [शाश्वतः] शाश्वत, [नित्यं कर्म–कलङ्क–पङ्क–विकलः] नित्य कर्मकलंक-कर्दमथी रहित-[स्वयं देवः] एवो पोते स्तुति करवा योग्य देव [आते] विराजमान छे.


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(वसंततिलका)
आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या
ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्ध्वा।
आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्प
मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात्।।
१३।।

__________________________________________________________________

भावार्थः– शुद्धनयनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो सर्व कर्मोथी रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरंगमां पोते विराजी रह्यो छे. आ प्राणी-पर्यायबुद्धि बहिरात्मा-तेने बहार ढूंढे छे ते मोटुं अज्ञान छे. १२.

हवे, शुद्धनयना विषयभूत आत्मानी अनुभूति छे ते ज ज्ञाननी अनुभूति छे एम आगळनी गाथानी सूचनाना अर्थरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [इति] ए रीते [या शुद्धनयात्मिका आत्म–अनुभूतिः] जे पूर्वकथित शुद्धनयस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे [इयम् एव किल ज्ञान–अनुभूतिः] ते ज खरेखर ज्ञाननी अनुभूति छे [इति बुद्ध्वा] एम जाणीने तथा [आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य] आत्मामां आत्माने निश्चळ स्थापीने, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध–घनः अस्ति] ‘सदा सर्व तरफ एक ज्ञानघन आत्मा छे’ एम देखवुं.

भावार्थः– पहेलां सम्यग्दर्शनने प्रधान करी कह्युं हतुं; हवे ज्ञानने मुख्य करी कहे छे के आ शुद्धनयना विषयस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे ते ज सम्यग्ज्ञान छे. १३.






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प्रवचन नंबरः दिनांकः प्रवचन नंबरः दिनांकः
४२ ११-१-७६ ४७ १६-१-७६
४३ १२-१-७६ ४८ १७-१-७६
४४ १३-१-७६ ४९ १८-१-७६ अने
४प १४-१-७६ प० १९-१-७६
४६ १प-१-७६
* समयसार गाथा–१४ *

हवे शुद्धनयने गाथासुत्रथी कहे छेः-

केवो जीव जाणवाथी जीव जाण्यो कहेवाय ए वात करे छे. खरेखर भगवान आत्मा अबद्ध छे, राग अने कर्मना संबंध विनानी चीज छे. (ज्ञाननी) पर्यायमां रागनी साथे निमित्त नैमित्तिक संबंध ए तो व्यवहार छे, परंतु रागनो कर्मनी साथे जे निमित्त-नैमित्तिक संबंध ए पण असद्भूत व्यवहार छे. आत्मा अबद्ध कहेतां राग अने कर्मना संबंध विनानी त्रिकाळी चीज छे एनी अंतर्द्रष्टि करवी ए सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. एवा आत्माने जाणे त्यारे आत्माने जाण्यो एम खरेखर कहेवामां आवे छे.

* गाथा–१४ः गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

यः जे नय आत्मानम् आत्माने अबद्धस्पृष्टम् बंधरहित अने परना स्पर्शरहित, अनन्यकं अन्यपणा रहित, नियतम् चळाचळता रहित, अविशेषम् विशेष रहित, असंयुक्तम् अन्यना संयोग रहित-एवा पांचभावरूप पश्यति देखे छे तं तेने, हे शिष्य! तुं शुद्धनयं शुद्धनय विजानिहि जाण.

जुओ, निश्चयनय-शुद्धनय आत्माने अबद्धस्पृष्ट जुए छे, बंधरहित अने परना स्पर्शरहित जुए छे. अबद्धस्पृष्टने अबद्धस्पृष्ट स्वभाव देखतो नथी. अबद्धस्पृष्ट ए तो त्रिकाळी वस्तु छे. एवा त्रिकाळी वस्तु तरफ निर्मळ ज्ञाननी पर्याय झूके छे त्यारे अबद्धस्पृष्टनो अनुभव थाय छे. एने शुद्धोपयोग कहे छे. त्रिलोकनाथ जिनेन्द्रदेवनुं जिनशासन ए शुद्धोपयोग छे. ए शुद्धोपयोग आत्माने अबद्धस्पृष्ट एटले बंधरहित अने परना स्पर्शरहित, अन्यपणा रहित नाम अनेरी नरनारकादि गति रहित, चळाचळता रहित कहेतां वृद्धि-हानि रहित, विशेष रहित एटले गुण-गुणीना भेद रहित


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अने अन्यना संयोग रहित एटले कर्म अने कर्मना निमित्ते जे विकार, दुःख थाय छे एनाथी रहित एम पांच भावोथी रहित देखे छे. पांच भावोथी रहित एम कह्युं ने? एनो अर्थ ज एम थयो के एवा पांच भावो छे. पण एनाथी रहित जे आत्माने देखे छे एने हे शिष्य! तुं शुद्धनय जाण. कुंदकुंदाचार्य शिष्यने आदेश करी कहे छे के आ अबद्धस्पृष्ट आदि जे पांच भावो सहित जे एकरूप शुद्धवस्तु ते शुद्धना अनुभवने तुं शुद्धनय जाण. आ पांच भावो समजाववामां क्रम पडे छे, अनुभवमां क्रम नथी. वस्तुनुं स्वरूप अर्थात् जिनशासननो आत्मा आवो कहेवामां आवे छे. * गाथा–१४ टीका उपरनुं प्रवचन *

निश्चयथी आ ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा अबद्धस्पृष्ट छे. अबद्ध कहेतां राग अने कर्मना बंधथी रहित छे. तथा अस्पृष्ट कहेतां जे विस्रसा परमाणुओ (कर्म बंधावाने योग्य परमाणुओ जे एक-क्षेत्रावगाही छे) तेना स्पर्शथी रहित छे. वळी ते अनन्य छे. अनेरी अनेरी जे नर-नारकादि पर्यायो तेथी रहित छे. वळी ते नियत छे. ज्ञान अने बीजा अनंत गुणोनी पर्यायोमां हीनाधिकपणुं थाय छे ए अनियत छे. एनाथी रहित भगवान आत्मा नियत छे. ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि गुणोना जे विशेषो-भेदो ए द्रव्य सामान्यमां नथी तेथी अविशेष छे. तथा कर्मना निमित्तथी जे विकारी शुभाशुभभावो पर्यायमां उत्पन्न थाय छे एनाथी भगवान आत्मा असंयुक्त छे, संबंध रहित छे.

आवा अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त आत्मानी जे अनुभूति ते शुद्धनय छे. जोयुं? आत्मानी अनुभूति ते शुद्धनय छे. सामान्य, एक ध्रुव चैतन्यस्वरूपने अनुसरीने शांति अने आनंदनो जे अनुभव थयो ए शुद्धनय छे. एक त्रिकाळीनुं लक्ष करतां पर्यायमां जे द्रव्य त्रिकाळी जणायुं ते शुद्धनय छे. अने ए अनुभूति आत्मा ज छे. आत्मानुं परिणाम होवाथी अनुभूति ए आत्मा ज छे. आत्माना आनंदनुं वेदन आव्युं ए आत्मा ज छे. शुद्धनय कहो, आत्मानुभूति कहो के आत्मा कहो ए बधुं एक ज छे, जुदां नथी. अभेदथी अनुभूति अने अनुभूतिनो विषय आत्मा एक कह्यां छे. आ रीते आत्मा एक ज प्रकाशमान छे, रागादि अनात्मा प्रकाशमान थता नथी.

एक बाजु गाथा ३८ मां एम कह्युं के खरेखर तो पर्याय विनानो जे त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव तेने आत्मा कहीए. आत्मा एक त्रिकाळी ज्ञायकभाव छे एम अनेक स्थळे आवे छे. पण एनी अनुभूति ज्ञानमां थई त्यारे ख्यालमां आव्युं के आत्मा त्रिकाळी


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ज्ञायक छे; आ अनुभूतिने शुद्धनय कह्यो छे. गाथा ६ मां एम कह्युं के-ज्ञायकभाव छे ते शुभाशुभभावना स्वभावरूपे थतो नथी. शुभाशुभभाव अचेतन छे, अने ज्ञायक छे ते चेतन-ज्ञानरसरूप छे, ते कदीय अचेतनरूप थतो नथी तेथी ते प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी. प्रमत्त-अप्रमत्त जे संयोगजनित पर्यायो छे तेथी ज्ञायक भिन्न छे. पहेला गुणस्थानथी छठ्ठा गुणस्थान सुधी प्रमत्त अने सातमाथी चौदमा गुणस्थान सुधी अप्रमत्त गुणस्थानो छे. बन्नेमांथी कोई ज्ञायकमां नथी. आ द्रव्यद्रष्टिनो विषय छे. पण अहीं तो जे ज्ञाननी पर्यायमां आत्मानी-ज्ञायकनी अनुभूति थई के आत्मा आवो अबद्धस्पृष्ट छे तेने शुद्धनय कह्यो छे. आ अनुभूति आत्मा ज छे. रागादि ते आत्मा नथी. वळी गाथा ६ मां आवे छे के-ते ज (ज्ञायक) अन्यद्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतो ‘शुद्ध’ कहेवाय छे. एटले परद्रव्योनुं लक्षछोडी एक निज ज्ञायकनुं लक्ष करतां जे शुद्धता प्रगट थाय ते शुद्धतामां आ ‘शुद्ध’ छे एवुं भान थाय छे. एवुं भान थया विना, जाण्या विना ‘शुद्ध’ छे एम केवी रीते कहेवाय? त्रिकाळी शुद्ध छे एने जाण्या विना त्रिकाळी शुद्ध कयांथी आव्यो? आ त्रिकाळी शुद्धने जाणनारी जे पर्याय (ज्ञाननी) तेने शुद्धनय कहे छे. आस्रव अधिकारमां आवे छे के शुद्धनयनी पूर्णता केवळज्ञान थतां थाय छे. एटले के पूर्ण केवळज्ञान ज्यारे प्रगट थाय त्यारे शुद्धनयनो आश्रय करवानो रहेतो नथी ते अपेक्षाए शुद्धनयनी पूर्णता थई गई एम कहेवामां आव्युं छे. त्यारे अहीं तो ज्ञायकने विषय करनारी पर्यायने अनुभूति अथवा शुद्धनय कहे छे अने ते आत्माना ज परिणाम छे तेथी अनुभूति आत्मा ज छे एम कह्युं छे. एक बाजु कहे के अनुभूतिना परिणाम आत्माथी भिन्न नथी अने वळी बीजे ठेकाणे एम कहे के केवळज्ञाननी पर्याय पण आत्माथी भिन्न छे, बहिःतत्त्व छे. अंतःतत्त्व एक आत्मा ज्ञायक छे. अपेक्षा शुं छे ते बराबर जाणवुं जोईए. केवळज्ञानने बहिःतत्त्व कह्युं त्यां तो केवळज्ञान पर्याय छे अने तेना आश्रये धर्म थतो नथी-पर्यायमांथी नवी पर्याय न आवे पण एक ज्ञायकभावना आश्रये ज धर्म प्रगट थाय छे ए वात बतावी छे. अहाहा...! शुद्धनयनो विषय तो द्रव्य एकलुं ज छे. पण द्रव्यनुं लक्ष करवाथी परिणति शुद्ध प्रगट थई जाय छे त्यारे प्रमाणज्ञान थई जाय छे. त्यां कोई प्रश्न करे के निश्चयनय तो एकला त्रिकाळीने जाणे छे अने प्रमाण तो त्रिकाळी अने पर्याय बन्नेने एक काळमां जाणे छे तो शुद्ध कोण? (पूज्य कोण?) निश्चयनय के प्रमाण? उत्तरः


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निश्चयनय. केमके प्रमाणमां पर्यायनो निषेध आवतो नथी. निश्चयनयमां पर्यायनो निषेध आवे छे. तेथी निश्चयनय शुद्ध छे. (पूज्य छे). (निश्चयनय एकने ज विषय करे छे अने एक छे ते ज शुद्ध छे).

११ मी गाथामां ‘भूदत्थो देसिदो दु सुद्धनओ’ एम कह्युं त्यां जे त्रिकाळी ज्ञानानंद एकरूप वस्तु आत्मा तेने सत्यार्थ कही शुद्धनय कह्यो. नय अने नयना विषयनो भेद त्यां काढी नाखीने त्रिकाळीने शुद्धनय कह्यो छे. अहीं कहे छे के एवी सत्यार्थ अबद्धस्पृष्ट त्रिकाळी जे चीज तेनी अनुभूति ते शुद्धनय छे. त्रिकाळी सत्यार्थ वस्तुमां झूकीने एकाग्र थतां जे अनुभूति थाय छे ए अनुभूतिमां त्रिकाळीनो यथार्थ निर्णय थाय छे अने ते शुद्धनय छे.

सविकल्प निर्णय प्रथम होय छे. १३ मी गाथामां आव्युं ने के अज्ञानीना (वेदांतादिना) अभिप्रायथी भिन्न भगवाने जेवुं वस्तुतत्त्व कह्युं छे तेवुं सिद्ध करवा प्रथम नय, निक्षेप, प्रमाणथी विकल्पपूर्वक निर्णय करे छे पण ए कोई वास्तविक निर्णय नथी. वस्तुतत्त्वनो अनुभव करीने निर्णय करवो अने ए निर्विकल्प अनुभूतिमां वस्तु आ ज्ञायक शुद्ध छे एवो भास थई जवो एने यथार्थ निर्णय अने शुद्धनय कहे छे.

वेदांत कहे छे एवो शुद्ध आत्मा छे नहीं. आ तो शुद्ध छे एवो पर्यायमां अनुभव थवो एने शुद्ध कहे छे. वेदांत तो पर्यायने मानतो ज नथी. वेदांत साथे जैनधर्मने कोई मेळ नथी.

वळी कोई एम कहे छे के कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसारने वेदांतना ढांचामां ढाळी दीधुं छे. एवा लोकोने कांई खबर ज नथी. वेदांत ए कोई चीज छे? वेदांतमां द्रव्य, गुण, पर्याय क्यां छे? भाई! आ तो सर्वज्ञदेव वीतरागनी वाणी छे. आवी वात बीजे छे ज कयां? अहाहा...! आत्मा अनंत गुणनो पिंड त्रिकाळी ध्रुव शुद्ध छे अने एवा शुद्ध एनी अनुभूति थवी ए शुद्धनयछे. आ अनुभूति ए आत्मा ज छे. आवी वात बीजे कयांय नथी.

ए अनुभूति आत्मा ज छे. एने शुद्धनय कहो, आत्मा कहो ए बधुं एक ज छे, अलग नथी. अहीं अलग नथी ए आखी चीजनी अपेक्षाए वात छे. निश्चयथी अनुभूति ए तो द्रव्यनुं परिणाम छे, द्रव्य नथी. ए द्रव्यथी भिन्न छे. परंतु जेवुं द्रव्य त्रिकाळ शुद्ध छे तेवी शुद्धनी जे अनुभूति थई ते अनुभूति आत्मानी जातनी ज छे तेथी आत्मा ज छे एम कह्युं छे. जेम राग भिन्न चीज छे तेम अनुभूति भिन्न नथी तेथी


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आत्मा ज छे. भाई! आ तो जिनेन्द्रनो मार्ग एटले आत्मानो मार्ग. आत्मा जिनस्वरूप ज छे. कह्युं छे ने के- ‘जिन सोही है आत्मा,

अन्य सोही है कर्म;
ए ही वचन से समज ले, जिनप्रवचनका मर्म.’

शिष्ये एटलुं तो लक्षमां लीधुं के अबद्ध-स्पृष्ट एवा भूतार्थने आत्मा कहे छे. तथा एवा आत्मानी अनुभूतिने धर्म कहे छे. हवे शिष्य पूछे के एवा आत्मानी अनुभूति केम थाय? एवो आत्मा तो अमारा देखवामां आवतो नथी तो अनुभव केम थाय? अमारी नजरमां तो बद्धस्पृष्टत्वादि भावो आवे छे तो एनो अनुभव केम थाय? एनुं समाधानः– शिष्यना प्रश्नने समजीने गुरु समाधान करे छे के बद्धस्पृष्टत्वादि भावो अभूतार्थ होवाथी अनुभूति थई शके छे. बद्धस्पृष्टत्वादि भावो त्रिकाळ रहेवावाळी चीज नथी, बदली जाय छे, तेथी अभूतार्थ छे. ए कारणे एनाथी भिन्न अनुभूति थई शके छे. कर्मनो संबंध अने रागादिनो संबंध जे छे ए कायम रहेवावाळी चीज नथी, अभूतार्थ छे. माटे भूतार्थनो आश्रय करवाथी अभूतार्थनो नाश थई जाय छे. प्रश्नः– जे छे एने अभूतार्थ-असत्यार्थ केम कह्या? वर्तमान पर्याय तरीके सत्य छे, पण त्रिकाळ ध्रुवमां ए नथी. तथा बदली जाय छे तेथी कायम रहेवावाळा नथी माटे गौण करीने व्यवहार कहीने असत्यार्थ कह्या छे. भूतार्थ त्रिकाळी चीज भगवान आत्मानो आश्रय करतां ए अभूतार्थ छे एटले एनो नाश थई जाय छे. व्यवहारे व्यवहार छे, परंतु भूतार्थनुं लक्ष थतां ए छूटी जाय छे ए अपेक्षाथी अभूतार्थ कहेवामां आवे छे. बद्धस्पृष्टत्वादि भावो अभूतार्थ होवाथी अनुभूति थई शके छे ए वातने हवे द्रष्टांतथी प्रगट करे छेः- जेवी रीते कमलिनीनुं पत्र जळमां डूबेलुं होय तेनो जळथी स्पर्शावारूप अवस्थाथी अनुभव करतां जळथी स्पर्शावापणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे. अवस्थाद्रष्टिथी जोईए तो पाणीमां डूबेलुं कमलिनीनुं पत्र पाणी साथे व्यवहारथी संबंधमां छे ए सत्य छे. पाणीना संबंधमां कमलिनीनुं पत्र छे ज नहीं एम नथी. जळमां डूबेलुं छे एवी अवस्थाथी जोतां जळ अने कमलिनी-पत्रनो संबंध भूतार्थ छे, तोपण जळथी जराय नहि स्पर्शावायोग्य एवा कमलिनी-पत्रना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां जळथी स्पर्शावापणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे. कमलिनीना पत्रनी रूंवाटी ज एवी सुंवाळी होय छे के पाणी तेने अडतुं-स्पर्शतुं ज नथी. कमलिनी-पत्रना स्वभावनी


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समीप जईने एटले के एना स्वभावनुं लक्ष करीने जोवामां आवे तो जळथी स्पर्शावापणुं जूठुं छे. कमलिनीपत्रने जळ साथे बिलकुल स्पर्श नथी. पाणीमां डूबेलुं भले होय, छतां ते काळे पण स्वभावथी ज कमलिनीपत्र पाणीने स्पर्शतुं नथी. तेथी जळना संबंधनुं लक्ष छोडी कमलिनीपत्रना स्वभावनुं लक्ष करवामां आवे तो तेनुं जळथी स्पर्शावापणुं अभूतार्थ छे, जूठुं छे.

आवो वीतरागनो मार्ग छे. दर्शनशुद्धि विना गमे तेटलां व्रत, तप, नियम पाळे, नग्नदशा धारण करे तोपण आत्माना धर्मनो किंचित् लाभ थाय नहीं. सौ प्रथम दर्शन-शुद्धि प्रगट करवी ए मुख्य छे. ए दर्शनशुद्धि केम थाय ए कमलिनीना द्रष्टांतथी समजावे छे. अवस्थाद्रष्टिथी जुओ तो कमलिनी-पत्र जळमां डूबेलुं छे जळने स्पर्श्युं छे. जळमां डूबेलुं छे ते काळे पण स्वभावने जोतां एटलुं (एटलो संबंध) पण नथी. आ द्रष्टांत थयुं.

हवे सिद्धांतः-एवी रीते अनादि काळथी बंधायेला आत्मानो, पुद्गलकर्मथी बंधावा-स्पर्शावारूप अवस्थाथी अनुभव करतां बद्ध-स्पृष्टपणुं भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे. निमित्त-नैमित्तिक संबंधरूप अवस्थाथी ज्ञान करवामां आवे तो बद्धस्पृष्टपणुं सत्य छे, पर्यायथी नथी एम नहीं. आत्मानी वर्तमान पर्यायमां रागनो अने कर्मनो संबंध व्यवहारथी छे. भगवान आत्माने अनादि कर्मरूप अवस्थाथी जुओ तो भिन्न-भिन्न अवस्थाओ एमां छे. तोपण पुद्गलथी जराय नहि स्पर्शावायोग्य एवा आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां बद्ध-स्पृष्टपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे. द्रव्य-स्वभावनी द्रष्टिथी जोईए तो आत्मा पुद्गलथी किंचित्मात्र स्पर्शायेलो नथी. अवस्थाद्रष्टि छोडीने आत्माना एक त्रिकाळी स्वभावनुं लक्ष करतां, पर्यायनी रुचिमां स्वभावथी दूर हतो ते स्वभावनी समीप थयो. ए स्वभावनी समीप थईने अनुभव करतां बद्ध-स्पृष्टपणुं जूठुं छे. आमां धर्म शुं आव्यो? तो अवस्थाद्रष्टि छोडीने त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टि करी तेमां एकाग्र थतां भूतार्थनो अनुभव थाय छे अने ते सम्यग्दर्शन छे, धर्म छे.

आ धर्म छे, भाई! बाकी दया पाळो, व्रत करो, उपवास करो इत्यादि धूळेय नथी. ए तो बधो राग छे.

प्रश्न क्रियाकांडथी ज्ञानकांड थाय छे ने? प्रचंड कर्मकांड वडे अखंड ज्ञानकांड थाय छे एवुं जे शास्त्रमां (प्रवचनसारमां) आवे छे ए तो निमित्तनुं व्यवहारनयनुं कथन छे.


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अवस्थाद्रष्टिथी जुओ तो कर्मनो संबंध छे अनेते जाणवा लायक छे. सर्वथा बंध छे ए मान्यता द्रष्टिनी विपरीतता छे. पर्यायमां संबंध छे, परंतु पर्यायथी अधिक एवा त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकभाव उपर द्रष्टि देतां पर्यायद्रष्टिनो संबंध असत्यार्थ थई जाय छे. (एक चोकडीनो अनंतानुबंधीनो अभाव थई जाय छे) थोडो संबंध छे एनो पण त्रिकाळीमां तो अभाव ज छे. द्रष्टिमां तो एकसाथे अभाव थयो छे, थोडो संबंध पर्यायमां छे ए पछी व्यवहारथी गौणपणे जाणवामां आवे छे. सम्यग्दर्शन थतां अनंतानुबंधी कर्मनो अभाव थई जाय छे. बीजा जे कर्मनो संबंध पर्यायमां छे ते वस्तुना स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां जूठो छे. वस्तु जे त्रिकाळ निरावरण निर्लेप, ज्ञान-ज्ञान-ज्ञाननो पुंज पडी छे एनी द्रष्टि करतां पर्यायभाव गौण थई असत्यार्थ थई जाय छे. द्रव्यस्वभाव साथे कर्मनो संबंध केवो?

भाई! रत्नकरंडश्रावकाचारमां स्वामी समंतभद्राचार्ये एम कह्युं छे के वस्तुनुं ज्ञान न्यूनता, अधिकता अने विपरीतता रहित यथार्थ होय ते सत्य छे, ते सम्यग्ज्ञान छे अने ते सम्यग्दर्शन सहित होय छे. खाली शास्त्रनुं भणतर ते सम्यग्ज्ञान नथी.

भगवान आत्मा पूर्ण, पूर्णस्वरूपे अंदरमां छे. अत्यारे ज छे, हमणां अहीं अंदर पडयो छे. जेम लींडीपीपरमां ६४ पहोरी-६४ पैसा-१६ आना एटले पूर्ण रूपियो-पूर्ण तीखाश शक्तिरूपे छे ते व्यक्तरूपे पूर्ण प्रगट थाय छे. प्राप्तनी प्राप्ति थाय छे. एवी रीते भगवान आत्मा पूर्णस्वरूप, मोक्षस्वरूप छे. शास्त्रमां आवे छे ने के ‘तुं छो मोक्षस्वरूप.’ एवा त्रिकाळ स्वभाव उपर लक्ष देतां वर्तमान अवस्था गौण थई जाय छे-असत्यार्थ थई जाय छे. भले थोडी अशुद्धता होय, पण ते वस्तुमां नथी.

बीजो बोलः– वळी जेम माटीने कमंडळ, घडो, झारी, रामपात्र आदि पर्यायोथी अनुभव करतां अन्य-अन्यपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे. माटीने अवस्थाद्रष्टिथी जुओ तो भिन्न भिन्न आकारो जेमके प्याला, वाटका, आदि सत्य छे. माटीने भिन्न भिन्न पर्यायथी जोवी ए अशुद्धनय, व्यवहारनय छे. ए मलिनपणुं छे. प्रवचनसारमां ४७ नयना अधिकारमां आवे छे के माटीने पर्यायथी जोवी ए अशुद्धनय छे. परंतु सर्वतः अस्खलित एक माटीना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अन्यपणुं अभूतार्थ छे. एकली माटी, माटी, माटी जोतां भिन्न भिन्न अवस्थाओ एमां नथी, अभूतार्थ छे-एटले एमां देखाती नथी. आ द्रष्टांत छे.

सिद्धांतः–एवी रीते नर-नारकादि पर्यायथी अनुभवतां-आ नारकी छे, आ मनुष्य छे, आ देव छे, आ एकेन्द्रिय छे, आ पंचेन्द्रिय छे, इत्यादि अवस्थाथी


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वर्तमानमां जोतां अन्य-अन्य गतिरूप अवस्थाओ छे. अंदरमां आत्मानी मनुष्यपणानी, नारकीपणानी आदि योग्यतारूप पर्याय छे. बहारमां मनुष्य के नारकीनो देह देखाय छे एनी वात नथी. ए तो जड माटी छे, ए कांई मनुष्यादि पर्याय नथी. वर्तमान अवस्थाथी जोवामां आवे तो गति आदिना भिन्न-भिन्न- अन्य-अन्य भाव सत्यार्थ छे पण एमां अखंड आत्मा न आव्यो. खंड-अंश-पर्याय आवी. तेथी ते व्यवहारनय छे.

व्यवहारनयथी नरक, मनुष्य, देव, तिर्यंचपणुं इत्यादि पर्यायमां छे, तोपण सर्वतः अस्खलित एटले सर्व पर्यायभेदोमां जराय भेदपणे नहि थवारूप एवा चैतन्याकार आत्मस्वभावने जोतां नरक, मनुष्य के पंचेन्द्रियादिनी जे योग्यताओ पर्यायमां छे ते सर्व योग्यताओ अभूतार्थ छे. ते अन्य-अन्य पर्यायोथी ज्ञायकभाव भेदरूप थतो नथी. पर्यायमां त्रिकाळी आवतो ज नथी.

माटीनां वासण कहेवां ए व्यवहार छे. माटी माटीरूप छे ए निश्चय छे. एकरूप माटी, माटीने जुओ तो ए भेदरूप अवस्थाने स्पर्शती नथी. भगवान आत्माने कर्मना संबंधमां नारकी, पशु, एकेन्द्रियादि भिन्न-भिन्न गति छे ए व्यवहार छे. अवस्थानी द्रष्टिथी जोतां ए सत्य छे, तोपण चैतन्याकार एक ध्रुव ज्ञायकभावनी द्रष्टि करतां ए पर्यायभेदो कांई नथी. त्रिकाळीभाव भेदोने स्पर्शतो नथी. एकरूप स्वभावमां भेदो कांई नथी.

भाई! आ तो वीतराग मार्ग! अनंतकाळमां अनंतवार द्रव्यलिंगी नग्न दिगंबर मुनि थईने नवमी ग्रैवेयक गयो पण आत्मज्ञान विना लेशपण सुख पाम्यो नहीं. अहीं कहे छे भगवान आत्मा-ज्ञायकभाव-एक चैतन्यरसस्वभाव कदीय भेदरूप थयो ज नथी. जेम सूर्यनो प्रकाश अंधकाररूपे थतो नथी तेम भगवान ज्ञान- प्रकाशपुंज कदीय पुण्य-पाप जे अंधकार अने अचेतनरूप छे ते रूपे थतो नथी. एथी विशेष वात अहीं कहे छे के ज्ञायक-ज्ञायक-ज्ञायक एक चैतन्याकार स्वरूप आत्मा गति आदि कोई पर्यायोथी किंचित्मात्र भेदरूप थतो नथी.

अहीं एम कहे छे के त्रिलोकीनाथ भगवान सत् वस्तु ए माझा (मर्यादा-हद) न मूके. ए भेदमां के पर्यायमां आवे नहीं. अनादिनी एक समयनी पर्याय उपर द्रष्टि छे त्यांसुधी आत्मभगवान दूर छे. पर्यायद्रष्टि छोडी त्रिकाळीमां जुए तो आत्मस्वभाव समीप थई जाय अने त्यारे पर्यायभेद असत्यार्थ थई जाय छे. अभेदनी द्रष्टिमां भेद देखातो नथी एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. अहो! आ पंचम आरामां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे तीर्थंकर जेवां अने अमृतचंद्राचार्यदेवे गणधर जेवां काम कर्यां छे.


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जेवी रीते स्वचेतननी अपेक्षाए बीजा चेतन अने जड असत् छे. भले ए पोत-पोतानी अपेक्षाए सत् होय. आ आत्मानी अपेक्षाए अरिहंत अने सिद्ध परमात्मा पण अनात्मा (आ आत्मा नहि) छे. एवी रीते अंदरमां त्रिकाळीनी अपेक्षाए पर्याय असत् छे. पर्यायनी अपेक्षाए पर्याय सत् छे.

अहीं कोई एम कहे के-तो पछी पर्यायनी अपेक्षाए द्रव्य असत्-एम खरुं के नहीं? पर्यायनी अपेक्षाए द्रव्य अभूतार्थ अने द्रव्यनी अपेक्षाए पर्याय अभूतार्थ ए तो जाणवानी अपेक्षाए वात छे. आश्रय करवानी अपेक्षाए तो द्रव्य ज एक त्रिकाळ सत् रहे छे अने ए ज भूतार्थ छे. आश्रय करवा माटे कदीय पर्याय सत् अने भूतार्थ होय नहीं.

अहीं ‘पर्यायथी अनुभव करतां’ एम ज्यां आवे त्यां ‘अनुभव करतां’ एटले ‘ज्ञान करतां’ अने ‘द्रव्यनो अनुभव करतां’ एम आवे त्यां ‘द्रव्यनो आश्रय करीने’ एम अर्थ छे. द्रव्यस्वभाव सर्वतः अस्खलित छे. त्रिकाळी ज्ञायकभाव अभेद एकरूप वस्तु कदीय अनेकरूपमां जतो नथी, पर्यायने स्पर्शतो नथी. द्रव्य पर्यायने आलिंगन करतुं नथी. प्रवचनसार १७२ गाथानी टीकामां अलिंगग्रहणना १९मा बोलमां आवे छे के लिंग नाम पर्यायने द्रव्य स्पर्शतुं नथी; केमके स्पर्श करे तो एक थई जाय. त्रिकाळीनी अपेक्षा अनेरी अनेरी गति अभूतार्थ छे, एनी हयाती ज नथी. प्रश्नः– एकांत थई जाय छे ने? उत्तरः– त्रिकाळीनुं ज्ञान सम्यक् एकांत छे.

प्रश्नः– शुं एकांत पण सम्यक् होय?

उत्तरः– हा, ‘एक’ चैतन्यस्वभाव सम्यक् एकांत छे. सम्यक् एकांत विना

अनेकांतनुं साचुं ज्ञान थतुं नथी.

भाई! आ तो सर्वज्ञ परमेश्वरनी दिव्यध्वनिमां कहेलो मार्ग छे. लोकोने सांभळवा न मळे एटले शुं थाय? बिचारा क्रियाकांडमां रच्यापच्या रहे अने एम ने एम काळ पूरो थई जाय. वळी महिमा पण एनो करे के आने आ त्याग छे अने आने ते त्याग छे. पण अरे! द्रष्टिमां आखा आत्मानो त्याग थई जाय छे एनी खबर न मळे. त्रीजो बोलः– जेम समुद्रनो, वृद्धि-हानिरूप अवस्थाथी अनुभव करतां अनियतपणुं (अनिश्चितपणुं) भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे. पर्यायथी जोवामां आवे तो भरती अने