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ओट एम वृद्धि अने हानिना प्रकारो समुद्रमां थाय छे ए सत्य छे. पूनमना दिवसे समुद्रमां भरती आवे छे. समुद्र अने चंद्रने एवो निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे. आम- वर्तमान भेदद्रष्टिथी जोतां वृद्धि-हानि सत्यार्थ छे, तोपण नित्यस्थिर एवा समुद्रस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अनियतपणुं अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. वृद्धि-हानिने गौण करीने नित्य-स्थिर समुद्रस्वभावने जोतां अनियतपणुं जूठुं छे. समुद्रनुं मध्यबिंदुं ज्यां छे त्यां एकरूप स्थिर स्वभावे समुद्र छे. ए नित्य-स्थिर स्वभावमां वृद्धि-हानि छे नहीं. आ द्रष्टांत थयुं.
सिद्धांतः– एवी रीते आत्माने, वृद्धि-हानिरूप पर्यायभेदोथी जोवामां आवे तो अनियतपणुं-ओछुं-अधिकपणुं छे. ज्ञाननी पर्यायमां ओछुं, अधिक ज्ञान थाय छे. कोईवार नवपूर्वनी लब्धि प्रगटे एवी ज्ञाननी पर्याय थाय छे तो वळी कोईवार अक्षरना अनंतमा भागे पर्यायमां उघाड देखाय छे. डुंगळी, लसण, मूळा आदि कंदमूळमां निगोदना जीवो छे. एक राई जेटली कटकीमां असंख्यात शरीर छे. एक एक शरीरमां आज सुधी जेटला सिद्ध थया एना करतां अनंतगुणा जीव छे. छ मास अने आठ समयमां ६०८ जीव मोक्षे जाय छे. एम आजसुधी अनंतकाळमां अनंत जीवो सिद्ध थया छे. ए अनंत सिद्धोथी अनंतगुणा निगोद जीव छे. निगोदना जीवोनी पर्यायमां अक्षरना अनंतमा भागनो विकास छे. तेमांथी कोई जीव बहार नीकळी मनुष्य थई द्रव्यलिंगी साधु थाय अने पर्यायमां नवपूर्वनी लब्धि प्रगट पण करे. आम आत्माने वृद्धि-हानिरूप पर्यायभेदोथी जोतां अनियतपणुं सत्यार्थ छे. व्यवहारनयथी पर्यायमां वृद्धि-हानि छे ए सत्य छे.
तोपण नित्य-स्थिर (निश्चल), उत्पाद-व्ययरहित ध्रुव आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां अनियतपणुं अभूतार्थ छे. आत्मस्वभावमां वृद्धि-हानि नथी, उत्पाद-व्ययमां वृद्धि-हानि भले हो. पर्यायमां केवलज्ञान थाय तोपण ध्रुवस्वभावमां कांई ओछप न आवे अने निगोदमां अक्षरना अनंतमा भागे क्षयोपशम थई जाय एटले नित्य-स्वभाव, ध्रुवस्वभावमां कांई वधी जाय एम नथी. पर्यायमां हीनाधिकता हो, वस्तु तो जेवी छे तेवी ध्रुव ध्रुव ध्रुवस्वभाव ज रहे छे.
अहाहा...! विषय तो ए चाले छे के आत्मानी ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदिनी पर्यायमां एकपणुं नथी, वृद्धि-हानि थाय छे. पर्यायना लक्षे जोतां ए वृद्धि-हानि सत्यार्थ छे. सत्यार्थनो अर्थ ‘छे.’ हवे पर्यायना लक्षे त्रिकाळी आत्मा अनुभवमां आवतो नथी, दूर रहे छे. तथा आत्मानां सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान तो त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकभावनो अनुभव करतां थाय छे. तेथी ध्रुव, निश्चल नित्यानंदस्वभाव भगवान आत्मानी समीप जईने-
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एटले पर्यायगत हीनाधिकपणानुं लक्ष छोडीने अने ध्रुव ज्ञायकभाव एकनुं लक्ष करीने-अनुभव करतां अनियतपणुं जूठुं छे, हीनाधिकपणुं कांई नथी; मात्र ध्रुव, ध्रुव वस्तुनो अनुभव छे. ए सम्यग्दर्शन छे, धर्म छे. स्वभावनी समीप जईने अनुभव करवो कहो, मुख्यनो अनुभव करवो कहो के अधिक स्वभावनो अनुभव करवो कहो- ए बधुं एकार्थवाचक छे. समयसार गाथा ३१ मां इन्द्रियोथी अधिक (भिन्न) आत्मस्वभावनो अनुभव करवानुं कह्युं, गाथा ११ मां त्रिकाळ स्वभावने मुख्य करीने एनो अनुभव करवानुं कह्युं अने अहीं स्वभावनी समीप जईने अनुभव करवानुं कह्युं. ए त्रणेय एकार्थवाची छे.
त्रिकाळी ज्ञायकभाव पर्यायथी अधिक छे. एटले पर्यायथी भिन्न छे. एवा ज्ञायकभावनी समीप जईने तेमां ज द्रष्टि करतां पर्याय लक्षमां रही नहीं अर्थात् अनुभवमां आवी नहीं माटे अनियतपणुं असत्यार्थ थई गयुं. पर्यायमां हीनाधिकता थाय छे ए अपेक्षाए अवस्थाविशेष आत्मानी अंदर छे, बीजा पदार्थमां-जडमां नथी. पण ते अंतर्मुख वस्तुमां द्रष्टि करवाथी हीनाधिकपणुं असत्यार्थ थई जाय छे. आम मुख्य-गौणनी वात छे.
भाई! लक्ष्मी-पैसो ए तो पूर्वनां पुण्य होय तो ढगला थई जाय छे, एमां कोई पुरुषार्थ करवो पडतो नथी. तथा महेनतथी ए मळे छे एम नथी. ज्यारे धर्म तो पुरुषार्थथी प्राप्त थाय छे. धर्म प्राप्त करवा माटे पोते पुरुषार्थ करवो जोईए.
चोथो बोलः– जेम सुवर्णनो, चीकणापणुं, पीळापणुं, भारेपणुं आदि गुणरूप भेदोथी अनुभव करतां विशेषपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे. सोनामां पीळाश, चीकाश, वजन आदि छे ने? भेदद्रष्टिथी जोतां सुवर्णमां ए पीळाश, चीकाश, वजन आदि छे ए सत्यार्थ छे, तोपण जेमां सर्व विशेषो विलय थई गया छे एवा सुवर्णस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां विशेषपणुं अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. सुवर्ण, सुवर्ण, सुवर्ण एम एकला सुवर्णनी ज द्रष्टि करतां शुं चीकाश, पीळाश, आदि देखाय छे? एकरूप सामान्य सुवर्णनी द्रष्टिमां चीकाशादि सर्व विशेषो विलय थई जाय छे. द्रष्टिमां एकलुं सामान्य सुवर्ण आव्युं त्यां पीळाशादि भेदो अस्त थई जाय छे, ए भेदो द्रष्टिमांथी छूटी जाय छे. आ द्रष्टांत थयुं.
सिद्धांतः– एवी रीते आत्मानो, ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप भेदोथी अनुभव करतां विशेषपणुं भूतार्थ छे.-सत्यार्थ छे. शुं कहे छे? ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणरूप भेदोथी जोतां आवुं विशेषपणुं आत्मामां छे. पुद्गलादि बीजा कोई द्रव्यमां एवा भेदो नथी ए अपेक्षाए सत्यार्थ छे. (परमाणु आदिमां ज्ञान, दर्शन नथी) तोपण जेमां
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सर्व विशेषो विलय थई गया छे. एवा आत्मस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां विशेषपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे प्रवचनसार गाथा १७२ ना अलिंगग्रहणना अढारमा बोलमां आवे छे के आत्मा गुणभेदने स्पर्शतो नथी. ‘लिंग एटले के गुण एवुं जे ग्रहण एटले के अर्थावबोध (पदार्थज्ञान) ते जेने नथी ते अलिंगग्रहण छे.’ अहीं ज्ञानगुणनी मुख्यताथी वात करी छे, परंतु बधा गुणभेद एमां लई लेवा. त्रिकाळीमां कोई गुणभेद छे नहीं. एक सामान्य ज्ञायकभाव- चैतन्यस्वभाव उपर द्रष्टि पडतां गुणभेद अस्त थई जाय छे, असत्यार्थ थई जाय छे. आत्मस्वभावनी समीप जईने एटले के भूतार्थ स्वभावने मुख्य करीने एनो आश्रय करवामां आवे अने गुणभेदने गौण करवामां आवे तो ज्ञान, दर्शन आदि भेदो अभूतार्थ छे. सोनामां भेद अपेक्षाए चीकाश, वजन आदि भेदो छे. पण भेदने जोतां ज्ञानमां अंश जणाय छे, आखी सुवर्ण-वस्तु द्रष्टिमां आवती नथी. अने आखी वस्तु द्रष्टिमां आव्या विना सुवर्णनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी.
सोनीने त्यां कोई सोनानो दागीनो वेचवा लई जाय तो सोनी घाटनी किंमत चूकवतो नथी, केमके घाट एने मन कांई नथी. एना ज्ञानमां तो सोनानी किंमत छे. एवी रीते ज्ञानीना ज्ञानमां पर्यायविशेष के गुणविशेष कांई नथी. गाथा ७ मां आवे छे के ज्ञानीने ज्ञान, दर्शन आदि भेदो नथी. तो प्रश्न ऊठे के ते भेद शुं जडमां छे? ना, जडमां नथी. ज्ञान, दर्शन आदि छे तो आत्मामां, पण ज्ञानीने भेद उपर लक्ष नथी; केमके गुणभेदनी द्रष्टि करतां सामान्य त्रिकाळ ध्रुव आखी आत्मवस्तु अनुभवमां आवती नथी, आखी वस्तुनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी. तेथी ज्ञानीने एक ज्ञायकभाव ज मुख्य छे, एने एनी ज किंमत छे. तेथी द्रव्यद्रष्टि थतां गुणभेद कांई नथी, असत्यार्थ छे.
ज्ञानपर्याय ज्यांसुधी पर अने राग तरफ झूके छे त्यांसुधी द्रव्यनुं ज्ञान नथी, त्यांसुधी परनुं अने रागनुं ज्ञान छे. परंतु ते पर तरफनो झुकाव छोडीने द्रव्य सन्मुख थई तेना आश्रये पर्याय उत्पन्न थाय छे तेमां आखा द्रव्यनुं-पूर्ण द्रव्यनुं ज्ञान थई जाय छे. आत्मा जेवो पूर्ण छे तेवुं पर्यायमां एनुं ज्ञानथवुं ते परिज्ञान-परिपूर्ण आत्मानुं ज्ञान छे. एने आत्मज्ञान अने सम्यग्ज्ञान कहेवामां आवे छे. एकला शास्त्रनुं, रागनुं, पर्यायनुं, के गुणभेदनुं ज्ञान ते ज्ञान ज नथी. (ए तो अज्ञान छे). परिपूर्णनी प्रतीति ते सम्यग्दर्शन अने परिपूर्णमां स्थिरता ते चारित्र छे. सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानमां स्थिरता ए चारित्र एम नहीं, ए तो पर्यायो छे. परिज्ञान ए पर्याय छे. ए पर्यायमां आत्मा जेवो परिपूर्ण छे एने ज्ञेय बनावीने एनुं ज्ञान आवे, परंतु आखो आत्मा पर्यायमां आवतो नथी.
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भाई! आ तो केवळज्ञानीना केडायतीनी वाणी छे. केवळीना विरह भूलावे एवी वात छे. जगतनां भाग्य के समयसार जेवुं शास्त्र रही गयुं, आवी वाणी भरतक्षेत्रमां रही गई. अहो! जैनदर्शन कोई अद्भुत अलौकिक छे. तेमां मूळस्वरूप-निश्चयस्वरूप तो यथार्थ छे ज के जे बीजे कयांय नथी, पण पर्याय के जे व्यवहार छे एनुं स्वरूप पण जैनदर्शनमां जेवुं बताव्युं छे एवुं बीजे कयांय नथी, एकेक भेदोनुं ज्ञान करावी पछी एनो निषेध करे छे. समयसार गाथा प० थी पप मां “भिन्नभिन्न शुभभाव छे, गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि भेदो छे, पण ए अनुभूतिथी भिन्न छे”-एम केवळज्ञानमां जे व्यवहार जणायो ए व्यवहारनुं ज्ञान करावी त्रिकाळीनी द्रष्टिमां एनो निषेध करे छे.
आम छे, भाई! सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननो विषय बहु सूक्ष्म छे. एनो पत्तो लागी गयो तो खलास. एना संसारनो अंत आवी जशे, पछी भले वर्तमानमां चारित्र न होय. दर्शन पाहुडमां आवे छे के-सिज्झंति य चरियभट्टा दंसणभट्टा न सिज्झंति– चारित्रथी भ्रष्ट तो मुक्तिने पामे छे, पण सम्यग्दर्शनथी भ्रष्ट जीव मुक्ति पामतो नथी. सम्यग्दर्शन छे पण जेने चारित्र नथी ते श्रद्धानना बळे ते स्वरूपमां रमणता करी मोक्षने पामशे. परंतु जेने श्रद्धा ज नथी ए स्थिरता शामां करशे? एने आत्मानी स्थिरता बनी शकती नथी. अहाहा...! आत्मानो एकरूप स्वभाव-ज्ञायक, ज्ञायक, ज्ञायक एवो जे अनादि-अनंत ध्रुव, ध्रुव चैतन्यभावनो एकसद्रश प्रवाह (पर्यायरूप नहीं) छे ते व्यवहारनयना आलंबनथी (भेदना लक्षे) प्राप्त थतो नथी. स्वामी-कार्तिकेयानुप्रेक्षामां पण पंडित श्रीजयचंदजीए ज्यां अर्थ कर्यो छे त्यां (गाथा ३११-३१२मां) आ वात लीधी छे के आत्माने दया, दान, भक्ति आदिना रागथी तथा मति, श्रुत आदि पर्यायथी तो अनादिथी जाण्यो छे. पण राग अने पर्यायने जाणतां एकरूप स्वभाव जाणवामां आवतो नथी. तेथी ए पर्यायोमां (भेदोमां) भेदने गौण करीने अभेदरूप अनंत एकभावरूप चैतन्यने ग्रहण करी वस्तुनुं-द्रव्यनुं ज्ञान कराव्युं छे. भाई! आत्मानी आवी यथार्थ समजण विना जे कांई क्रियाकांड करे ते व्यर्थ छे, एकडा विनानां मींडां छे.
पांचमो बोलः– जेम जळनो, अग्नि जेनुं निमित्त छे एवी उष्णता साथे संयुक्तपणारूप-तप्तपणारूप अवस्थाथी अनुभव करतां (जळने) उष्णपणारूप संयुक्तपणुं
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भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे. शुं कहे छे? जळ तो स्वभावथी ठंडुं छे, पण पोतानी योग्यता अने अग्निना निमित्तथी पर्यायमां उष्ण थाय छे. उष्णता पोतानी पर्यायमां पोताथी छे, अग्नि तो निमित्तमात्र छे. पाणीनी उष्ण अवस्था अग्निथी थई छे एम नथी. उष्ण अवस्था थवानी ते समये जन्मक्षण छे तो थई छे. प्रवचनसार गाथा १०२ टीकामां आवो पाठ छे. हवे पर्यायद्रष्टिथी जोतां जळमां उष्णपणुं छे ते सत्य छे. अवस्थाथी जोतां जळने उष्णता साथे संयुक्तपणुं छे ते भूतार्थ छे, तोपण एकांतशीतळतारूप जळस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां (उष्णता साथे) संयुक्तपणुं अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे. पाणीनो स्वभाव तो एकांत शीतळ छे. अवस्थामां उष्णपणुं छे ते काळे पण पाणीनो स्वभाव शीतळ ज छे. एवा जळना त्रिकाळ स्वभावनी सन्मुख थईने जोवामां आवे तो उष्णपणुं असत्यार्थ छे-अभूतार्थ छे.
सिद्धांतः– एवी रीते आत्मानो, कर्म जेनुं निमित्त छे एवा मोह साथे संयुक्तपणारूप अवस्थाथी अनुभव करतां संयुक्तपणुं भूतार्थ छे-सत्यार्थ छे. शुं कहे छे? भगवान आत्मानी पर्यायमां जेटलो कर्मनो संबंध पामीने विकार उत्पन्न थाय छे ए वर्तमान पर्यायनी द्रष्टिथी जोतां सत्यार्थ छे. वेदांतनी जेम राग अने पर्याय नथी एम नहीं. तोपण जे पोते एकांत बोधरूप (ज्ञानरूप) छे एवा जीवस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां एटले के जीवस्वभावमां अंदर ऊंडा ऊतरतां संयुक्तपणुं अभूतार्थ छे. अहाहा! भगवान तारी चीज एकांत बोधरूप छे. भाषा जुओ. पोते एकांत ज्ञानस्वरूप छे. कोई ईश्वरे आत्माने ज्ञानस्वरूप बनाव्यो छे एम नथी. ज्ञानस्वभाव ए आत्मानुं सहज रूप छे. अग्निना निमित्ते पाणी पर्यायमां उष्ण थयुं छे त्यारे पण पाणीनो शीतळतारूप स्वभाव तो अंदर पडेलो ज छे. तेम भगवान आत्माने वर्तमान पर्यायमां कर्मना संबंधथी विकारी दुःखरूप दशा छे, त्यारे पण आत्मानो सहज आनंद, बोधरूप स्वभाव अंदर पडेलो ज छे. एवा स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां एटले वर्तमान विकारी दशाने गौण करी एक ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करतां आनंदनो अनुभव थाय छे ए अपेक्षाए दुःखरूप- संयुक्तपणारूप दशा असत्यार्थ छे, जूठी छे. बहु झीणी वात, भाई!
मूळ वात ज अत्यारे तो आखी गुलांट खाई गई छे, भूलाई गई छे. पूजा करो, भक्ति करो, दान करो, मंदिर बंधावो एटले कल्याण थई जशे एवुं बधुं संप्रदायमां चाले छे. मंदिर बंधाववामां मंदकषाय होय तोपण ते शुभभाव छे, बंधन छे. बनारसीदासे सिद्धांतमांथी काढी समयसार नाटक मोक्षद्वारमां कह्युं छे के छठ्ठे-सातमे गुणस्थाने झूलता भावलिंगी संतने के जेने त्रण कषायनो अभाव छे अने प्रचुर आनंदनुं स्वसंवेदन पर्यायमां वर्ते छे तेने पण जे शुभभावरूप महाव्रतनो विकल्प ऊठे छे ए ‘जगपंथ’ छे.
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परमादी जगकौं धुकै, अपरमादी सिव ओर.’ ४०
अहाहा...! अंतरमां जेने आनंदनो अनुभव वर्ते छे, जेने परद्रव्यनुं कर्तापणुं तो दूर रहो, रागनुं कर्तापणुं पण छूटी गयुं छे एवा निर्ग्रंथ मुनिने पर्यायमां जे महाव्रतनो शुभराग आवे छे ते ‘जगपंथ’ छे.
कुंदकुंदाचार्यदेव स्वयं पुण्य-पाप अधिकारमां फरमावे छे के पुण्य छे ए संसारमां दाखल करे छे, एने भलुं केम कहेवाय? ज्यांसुधी पर्यायमां पूर्ण वीतरागता प्रगटी नथी त्यांसुधी अशुभथी बचवा शुभराग आवे, परंतु श्रद्धामां साधकने ए हेय छे, केमके ए ‘जगपंथ’ छे. मुनिने पण जेटलो शुभराग आवे छे ए प्रमाद छे अने संसारनुं कारण छे. भाई एकांत बोधस्वरूप जे ज्ञायकभाव ते एकना लक्ष विना जे कोई परना लक्षे राग उत्पन्न थाय छे ए ‘जगपंथ’ छे, पछी भले ए शुभराग भगवाननी भक्ति के स्मरणनो हो के महाव्रत संबंधी हो. कायरनां तो काळजां कंपी ऊठे एवी आ वात छे. श्रीमदे कह्युं छे ने केः-
औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ.’
अंतरमां भगवान आत्मा शक्तिए मोक्षस्वरूपे बिराजे छे. एवा निजस्वभावनो आश्रय करतां जेटली वीतरागता-निर्मळ दशा उत्पन्न थाय ए मोक्षपंथ छे. अंतरस्वभावना आश्रयमां जे अप्रमत्तभाव उत्पन्न थाय ते शिवमार्ग- मुक्तिमार्ग छे. तथा जे पंचपरमेष्ठीमां भळेला छे, ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ एम जेमने गणधरदेवना नमस्कार पहोंचे छे तेवा भावलिंगी मुनि होय एमने पण जेटला पर तरफना लक्षे शुभराग उत्पन्न थाय छे ए जगपंथ-संसारपंथ छे. आकरी वात छे, भाई! लोकोए धर्म शुं छे ए कदी सांभळ्युं नथी.
शास्त्रमां पांच पांडवोनुं द्रष्टांत आवे छे. पांचे पांडवो शेत्रुंजा पर्वत उपर ध्यानमां ऊभा छे. त्यां दुर्योधननो भाणेज आवीने तेमने लोढाना धगधगता दागीना शरीर पर पहेरावे छे. पांचे पांडवो आत्म-अनुभवी छठ्ठे-सातमे गुणस्थाने झूलता भावलिंगी संतो छे. एमांथी युधिष्ठिर, भीम अने अर्जुन तो स्वरूपमां मग्न थई केवळज्ञान पामी मोक्षे गया. परंतु नकुल अने सहदेवने एवो शुभ विकल्प आव्यो के मोटाभाईने शुं थतुं हशे? केमके तेओ सहोदर अने साधर्मी छे एटले आवो विकल्प बे भाईओने आव्यो. तो तेना फळमां सर्वार्थसिद्धिना देवनुं त्रेत्रीश सागरनी स्थितिवाळुं आयुष्य बंधाई गयुं. तेत्रीस सागर सुधी
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केवळज्ञानथी दूर थई गया, अने त्यारपछी पण मनुष्य थईने मोक्षे जशे. भाई! वीतराग परमेश्वरनो मार्ग कोई जुदी चीज छे. निर्ग्रंथ मुनिराजने बीजा धर्मात्मा उपर लक्ष गयुं एना फळमां केवळज्ञानथी दूर थई, तेत्रीस सागरोपमनुं सर्वार्थसिद्धिना आयुष्यनुं बंधन थयुं. एक सागरमां दश क्रोडाकोडी पल्योपम जाय, अने एक पल्योपमना असंख्य भागमां असंख्य अबजवर्ष थाय.
प्रश्नः– आ शुं बहु मोटो दंड नथी? काकडीना चोरने शुं फांसीनी सजा नथी.?
उत्तरः– ना. ए शुभभावनुं फळ ज संसार छे.
त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव सर्वज्ञ परमात्मा भावलिंगी संतने एम कहे छे के तारी दशा अंतर अवलंबनथी जेटली निर्मळ थई ए मोक्षपंथ छे, अने दशामां जेटलो परलक्षी पांच महाव्रतनो, २८ मूळगुणना पालननो राग उत्पन्न थाय छे ए जगपंथ छे, संसार छे. लोको स्त्री, कुटुंब-परिवारने संसार माने छे, पण खरेखर ए संसार नथी. ए तो बधी पर चीज छे आत्मानो संसार बहारमां नहीं, पण अंदर एनी दशामां जे मिथ्या श्रद्धा, राग अने द्वेष छे, ते छे. जो स्त्री, पुत्र, परिवार आदि संसार होय तो मरण थतां ए सघळां तो छूटी जाय छे तो शुं ए संसारथी छूटी गयो? ना. ए बधां संसार नथी. ‘संसरणम् इति संसारः’ भगवान एम कहे छे के तारी चीज जे चिदानंदघन छे एमांथी खसी तुं जेटलो मिथ्यात्व, राग अने द्वेषमां आव्यो ए संसार छे.
अतीन्द्रिय आनंदरूप अनुभवथी छूटी भावलिंगी संत छठ्ठे गुणस्थाने आवे छे ए प्रमाद छे. विकल्प जे ऊठे छे ते आळस छे. भाई! तुं स्वरूपनी साची श्रद्धा तो कर. श्रद्धामां गोटाळा हशे तो तारा आरा नहीं आवे, संसारमां रखडवानुं ज थशे. पागल-मोह-घेली दुनिया गमे ते कहे, एनां सर्टिफिकेट काममां नहीं आवे.
भगवान त्रिलोकीनाथ दिव्यध्वनि द्वारा इन्द्रो अने गणधरोनी वचमां एम कहेता हता के भगवान आत्मा पोते एकांत बोधरूप, सहज, अनाकुळ आनंदस्वरूप, वीतराग-स्वभावी छे. एवा आत्मानो आश्रय लेतां जे निर्विकल्प वीतरागी पर्याय उत्पन्न थाय, ते शिवपंथ छे, अने परना लक्षे जेटलो राग थाय ते प्रमाद छे, अनुभवमां शिथिलता छे. एटलो शिवपंथ दूर छे.
मृगनी नाभिमां कस्तुरी छे एनी एने खबर नथी. तेनी सुवास बहारथी आवे छे एम जाणी ए ज्यां छे त्यां जोतो नथी. पण बहार शोधे छे. एम अज्ञानी जीव जाणे ज्ञान अने आनंद परमांथी आवे छे एम बहार शोधे छे, परंतु ज्यां छे, त्यां अंदर
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पोतामां जोतो नथी तेथी चतुर्गतिभ्रमणरूप संसार छे. अहीं कहे छे के आत्मा पोते एकांत ज्ञानरूप, आनंदरूप, सहज स्वभाव छे. ए स्वभावने मुख्य करी तेनो आश्रय करवाथी रागादि साथे संयुक्तपणुं अभूतार्थ-असत्यार्थ थई जाय छे अने ते धर्म छे, मुक्तिमार्ग छे.
आत्मा पांच प्रकारथी अनेकरूप देखाय छे. (१) अनादिकाळथी कर्मपुद्गलना संबंधथी बंधायेलो कर्मपुद्गलना स्पर्शवाळो देखाय छे. (२) कर्मना निमित्तथी थता नर-नारकादि पर्यायोमां भिन्न भिन्न गतिरूपे देखाय छे. घडीकमां मनुष्य तो घडीकमां देव इत्यादि भिन्न भिन्न गतिपणे देखाय छे. ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हता. एने ९६ हजार राणीओ, ९६ क्रोड पायदळ, ९६ क्रोड गाम, ७२ हजार नगर, अने हीराना तो घरे पलंग हता; पण आयुष्य पूरुं थयुं अने बीजी क्षणे सातमी रौरव नरकमां गयो. अत्यारे सातमी नरकमां छे. भगवान कहे छे के मिथ्याश्रद्धानुं घूंटण अने अनंतानुबंधी कषायने ७०० वर्ष सेवीने तेत्रीस सागरोपमना आयुष्ये सातमी नरके छे. सातसो वर्षना जेटला श्वास थाय तेमां एक श्वासना कल्पित सुखना फळमां ११ लाख ९६ हजार नवसोपंचोतेर पल्योपमनुं दुःख त्यां भोगवशे. भाई! आ तो भगवानना मार्गनी गणतरी पण जुदी जातनी छे. आ रीते कर्मना निमित्तमां थवावाळी नर, नारकादि भिन्न भिन्न पर्यायोमां आत्मा देखाय छे. वर्तमानमां समर्थ राजा होय अने बीजी ज क्षणे नरकमां जन्मे. आवुं अनंतवार थई गयुं छे. (३) शक्तिना अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटे पण छे, वधे पण छे. ज्ञानादि पर्यायोमां हीनाधिकता थाय छे. पर्यायमां हीनाधिकता थवी ए पर्यायनो स्वभाव छे, तेथी नित्य-नियत एकरूप देखातो नथी. (४) वळी ते दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुणोथी विशेषरूप देखाय छे. बीजा द्रव्योमां नथी एवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणभेद विशेष अपेक्षाए आत्मामां छे. एकरूप सामान्य स्वभावमां ए नथी. (प) कर्मना निमित्तथी थता मोह-राग-द्वेष आदि परिणामो सहित ते सुखदुःखरूप देखाय छे. आ सौ अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनयनो विषय छे. भाषा जुओ. अशुद्धद्रव्यार्थिक केम कह्युं? पर्यायमां अशुद्धता थई छे ए अपेक्षाए अशुद्ध अने पोतामां पोताथी थई छे अने परथी नहि ए अपेक्षाए द्रव्यार्थिक कह्युं छे. त्रिकाळ आनंदरूप जे पोते एनी पर्यायमां जे अशुद्धता छे ए द्रव्यनुं पोतानुं पर्यायरूप परिणमन छे. ए पोतामां छे, बीजा द्रव्यमां नथी अने बीजा द्रव्यथी पण नथी.
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अशुद्ध द्रव्य-द्रव्य तो अशुद्ध कदी होतुं ज नथी. पण पर्यायमां आ द्रव्य अशुद्ध ए अपेक्षाए अशुद्धद्रव्यार्थिकनय कह्युं. परमां नहि अने परथी नहि ए बताववा अशुद्धद्रव्यार्थिक नय कह्युं छे. तारी सत्तामां-पर्यायमां आ पांचे भावो छे ए अपेक्षाए द्रव्यने अशुद्धद्रव्यार्थिक कहीने व्यवहारनयनो विषय कह्यो. व्यवहारनयनो विषय एटले पर्यायनो विषय. अशुद्धद्रव्यार्थिकनय कहो, व्यवहारनय कहो के पर्यायार्थिकनय कहो-ए बधुं एकार्थवाचक छे. अशुद्धता तो पर्यायमां छे पण अहीं अशुद्धद्रव्यार्थिक केम लीधुं? द्रव्य पोते तो त्रिकाळ शुद्ध ज छे. पण द्रव्यनी पर्याय पोताथी पोतामां अशुद्ध थई छे, कर्मथी के कर्ममां अशुद्ध पर्याय थई नथी एम सिद्ध करवा द्रव्यने अशुद्धद्रव्यार्थिक कह्युं छे.
पर्यायमां द्रव्य अशुद्ध थयुं छे ए पर्यायद्रष्टिथी सत्यार्थ छे. परंतु आत्मानो एक स्वभाव आ नयथी ग्रहण थतो नथी. अने त्रिकाळी एकरूप स्वभाव द्रष्टिमां आव्या विना आत्मज्ञान थतुं नथी. अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पर्यायनी सत्ताने बतावे छे, पण एनाथी एकरूप स्वभावभाव चिदानंदमूर्ति ज्ञायकभाव नजरमां आवतो नथी. अने ज्ञायकने जाण्या विना अखंड एक आत्मानुं ज्ञान केम थाय? पांच प्रकारमां तो आत्मा अनेकरूपे देखाय छे. पण वस्तु तो अंदर अखंड एकरूप त्रिकाळ छे. भगवान आत्मा ज्ञान अने आनंदस्वभावथी भरपूर भरेली गोदाम छे. एवा आत्मानुं भेदद्रष्टि-अंशद्रष्टि-पर्यायद्रष्टिथी ज्ञान थतुं नथी. माटे व्यवहारनयथी प्रतिपक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय अर्थात् निश्चयनयने मुख्य करी आत्माना एकस्वभावने ज्ञानमां ग्रहण करी, एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्मानो भाव लई मात्र ज्ञान, ज्ञान, ज्ञाननो पिंड, झळहळ ज्योति, एकरूप आखुं चैतन्यबिंब तेने शुद्धनयनी द्रष्टिथी सर्व परद्रव्योथी भिन्न, सर्व पर्यायोमां एकाकार, हानिवृद्धिथी रहित, विशेषोथी रहित अने नैमित्तिकभावोथी रहित जोवामां आवे तो पांचे भावोथी जे अनेकरूपपणुं छे ते अभूतार्थ छे-असत्यार्थ छे. अंदर जे पूर्णानंदस्वरूप, ज्ञानघन, ध्रुव ज्ञायकभाव छे एमां द्रष्टि करी आश्रय करतां आ पांच पर्यायरूप भावो जूठा थई जाय छे.
बापु! आ तो जन्म-मरण जेनाथी मटे एनी वात छे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे मोक्षपाहुड गाथा १६मां एम कह्युं छे के-“परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सग्गई होई” -जेटलुं लक्ष परद्रव्य उपर जशे एटलो राग उत्पन्न थशे, अने एना फळमां चार गति मळशे. सिद्धगति नहीं मळे. भाई, त्रणलोकना नाथ पण तारी अपेक्षाए परद्रव्य छे. एना लक्षथी राग ज उत्पन्न थशे, एनाथी पुण्यबंध थशे अने एथी स्वर्गादि मळशे. पण ए बधी दुर्गति छे. मनुष्यमां पैसावाळा थाय ए पण दुर्गति छे. अने स्वद्रव्यना आलंबनथी सुगति-सिद्धदशा प्राप्त थाय छे. बे शब्दोमां तो आखो सिद्धांत मूकी दीधो छे. आ तो अजर-अमर प्याला छे.
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अहीं एम जाणवुं के वस्तुनुं स्वरूप अनंतधर्मात्मक छे, ते स्याद्वादथी यथार्थ सिद्ध थाय छे. आत्मा अनंतधर्मस्वरूप छे. आत्मामां गुणो अने पर्यायो ए बधा आत्माए धारी राखेला भाव होवाथी ए आत्माना धर्म छे. पर्यायमां शुद्धता के अशुद्धता छे ते पर्याये धारी राखेल छे तेथी धर्म छे. एमां ज्ञान, दर्शन, आनंद आदि अनंत धर्मो तो स्वाभाविक छे. अने पर्यायमां जे पुण्य-पाप आदि छे ते कर्मना संयोगथी थाय छे अने एनाथी आत्माने संसारनी प्रवृत्ति थाय छे. राग-द्वेषादि तीव्र होय तो नरक के तिर्यंचादिमां जाय छे अने मंद होय तो देव के मनुष्य थाय छे. ए बधी संसारनी प्रवृत्ति छे. ते संबंधी जे सुखदुःख आदि थाय छे तेने आत्मा भोगवे छे. खरेखर तो नरक के स्वर्गमां कयांय सुख नथी पण तेनी कल्पना करीने आत्मा सुखदुःख भोगवे छे. मनुष्य करतां स्वर्गमां घणी अनुकूळ सामग्री छे. पण एना पर लक्ष जतां पापभाव थाय छे अने ए दुःखरूप ज छे. स्वर्गना जीवो पण दुःखी ज छे. वर्तमान पर्यायमात्रने ज जोवी, रागादिने जोवा ए आ आत्माने अनादि अज्ञानथी पर्यायबुद्धि छे. तेने अनादि-अनंत एक आत्मानुं ज्ञान नथी.
भगवान आत्मा छे, छे, छे-एम त्रिकाळ ध्रुव, ध्रुव, ध्रुव-एकसद्रश प्रवाह अनादि-अनंत छे. आवा एकरूप आत्मानुं ज्ञान पर्यायबुद्धिवाळा अज्ञानी जीवोने होतुं नथी. ते बतावनार सर्वज्ञनुं आगम छे. जैनमत सिवायना अन्यमतमां सर्वज्ञ ज नथी. तेथी एमां आवुं वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप बतावनार पण कोई नथी. सर्वज्ञ परमेश्वरे अंतरमां जे पूर्ण ‘ज्ञ’ स्वभाव-सर्वज्ञस्वभाव पडयो छे एना पूर्ण अवलंबनथी सर्वज्ञ पर्याय प्रगट करी. अने एवा सर्वज्ञ परमात्मानी वाणी ए आगम छे. तेमां शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी ए बताव्युं छे के आत्मानो एक असाधारण (बीजामां नथी एवो) चैतन्यभाव छे ते अखंड छे, नित्य छे, अनादिनिधन छे. एने जाणवाथी पर्यायबुद्धिनो पक्षपात मटी जाय छे. पर्याय छे खरी, पण हुं पर्याय जेटलो ज छुं एवो पक्षपात छूटी जाय छे. पर्यायनो नाश थई जाय छे एम नहीं, पण हुं अखंड एक ज्ञायकभाव छुं एम द्रष्टि थतां पोताने वर्तमान रागादि पर्याय जेटलो मान्यो छे ए पक्षपात मटी जाय छे.
शरीर, कर्म आदि परद्रव्योथी, तेमना भावोथी अने निमित्तथी थता पोताना विभावोथी पोताना आत्माने भिन्न जाणी एकरूप ज्ञायकभावनो जीव अनुभव करे त्यारे परद्रव्यना भावोरूप परिणमतो नथी. आत्मामां बे भाग पडे छे. एक ध्रुव, ध्रुव एक ज्ञायकभाव ते द्रव्य अने बीजी वर्तमान पर्याय. जेमां रागद्वेषादि भावो थाय छे. एमां पर्यायद्रष्टि ए व्यवहारद्रष्टि-मिथ्याद्रष्टि छे. ए पर्यायनी द्रष्टि छोडीने एनाथी प्रतिपक्ष
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शुद्धनयनो जे विषय एकरूप चैतन्यमात्र अनंत अनंत गुणोनो पिंड आनंदकंद भगवान आत्मा छे ए एकनी द्रष्टि थतां पर्यायमां परना संबंधथी जे रागादि उत्पन्न थाय छे ए रूपे ते परिणमतो नथी. अरागी ज्ञायकभावनी द्रष्टि थतां पर्यायमां शुद्धता प्रगट थाय छे. अने अशुद्धता नाश पामे छे. अने तेथी कर्म बंधातां नथी अने संसारनी निवृत्ति थई जाय छे. स्वभावमां प्रवृत्ति पुष्ट थतां विकारी परिणमनथी निवृत्ति थई जाय छे अने आत्मा एकलो सिद्ध भगवान थई जाय छे.
अहा! बहारथी क्रिया करता होय एने एम लागे के आ तो कोई एल.एल.बी. नी ऊंची वातो छे, पण एम नथी. आ तो पहेला एकडानी वात छे. जैनधर्म एणे सांभळ्यो नथी. जैनधर्म ए कोई क्रियाकांड के संप्रदाय नथी. वस्तुना स्वभावनी द्रष्टि करीने अज्ञान अने रागद्वेषने जीतवां एनुं नाम जैनधर्म छे.
माटे पर्यायार्थिकरूप व्यवहारने गौण करी असत्यार्थ कह्यो छे, जुओ, भाषा केवी लीधी छे? व्यवहारने गौण करीने, अभाव करीने एम लीधुं नथी. पर्याय नथी एम नथी, पण ए द्रष्टिनो विषय नथी. तथा शुद्ध निश्चयनयने सत्यार्थ कही तेनुं आलंबन कराव्युं छे. शुद्धनयनो विषय जे त्रिकाळी शुद्ध आत्मा तेनुं ज आलंबन लेवानुं कह्युं छे. भगवाननी मूर्तिनुं आलंबन ए तो परनुं आलंबन छे. अहीं तो त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकभावना आलंबननी वात छे.
परवस्तु अने आत्माने तो कांई संबंध ज नथी. भाई! तारी पर्यायनुं पण लक्ष करवा जेवुं नथी तो परद्रव्यनुं लक्ष करवानुं तो कयां रह्युं? प्रवचनसार चरणानुयोग अधिकारमां आचार्यदेवे लीधुं छे के ज्यारे कोई जीव आत्मज्ञानपूर्वक वैराग्य प्रगट थवाथी दीक्षा लेवा तैयार थाय छे त्यारे ते कुटुंबीजनो पासे रजा लेवा जाय छे. पिता पासे जईने एम कहे छे के-‘आ पुरुषना शरीरना जनकना आत्मा! आ पुरुषनो आत्मा तमाराथी जनित नथी. हवे हुं मारी निर्मळ पर्यायनो जनक जे अनादि-अनंत त्रिकाळी द्रव्य तेनी पासे जवा मागुं छुं, मने रजा आपो.’ एवी ज रीते स्त्री पासे जईने एम कहे छे के-‘आ पुरुषना शरीरनी रमणीना आत्मा! आ पुरुषना आत्माने तुं रमाडती नथी. हवे हुं अनादि-अनंत त्रिकाळ अनुभूतिस्वरूप जे मारी स्त्री एनी पासे जवा मागुं छुं.’ हे माता-पिता! मारी चीज जे मारी पासे छे एनी पासे हुं जवा मागुं छुं. बहारमां जे विकल्पो ऊठे छे ते पण मारी चीज नथी, तो पर द्रव्योनी साथे तो मारे संबंध ज केवो?’ आत्माने परद्रव्य साथे कोई संबंध छे ज नहीं.
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हवे आगळ कहे छे के-वस्तुस्वरूपनी प्राप्ति थया पछी तेनुं (शुद्धनयनुं) पण आलंबन रहेतुं नथी. पर्यायमां ज्यांसुधी पूर्णता प्रगटे नहीं त्यांसुधी द्रव्य तरफ झुकाव करवानो रहे छे. द्रव्य प्रति झुकावथी ज्यां पर्यायमां पूर्णता प्रगटी जाय पछी द्रव्यनुं आलंबन करवानुं रहेतुं नथी.
पर्यायार्थिक नयने गौण करी असत्यार्थ कह्यो छे अने शुद्धनयने सत्यार्थ कही तेनुं आलंबन कराव्युं छे. पूर्ण प्राप्ति थई गया पछी तेनुं पण आलंबन रहेतुं नथी. पूर्ण दशामां तो भेदाभेदनुं ज्ञान थया करे छे. आ कथनथी एम न समजवुं के शुद्धनयने सत्यार्थ कह्यो तेथी अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ छे. पर्यायमां राग अने दुःख छे ए जूठुं छे एम नथी. ए तो द्रष्टिना विषयने मुख्य करीने, पर्यायने गौण करीने जूठी कही छे. अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ज छे एम मानवाथी वेदांतमतवाळा जेओ संसारने सर्वथा अवस्तु माने छे तेमनो सर्वथा एकांत पक्ष आवी जशे, अने तेथी मिथ्यात्व आवी जशे. वेदांत आत्माने सर्वव्यापक माने छे अने पर्यायमां भेद अने अनेकताने स्वीकारतो ज नथी. ए मतवाळा संसारने अवस्तु माने छे. एवी मान्यतापूर्वक शुद्धनयनुं आलंबन पण वेदांतीओनी जेम मिथ्याद्रष्टिपणुं लावशे. माटे सर्व नयोना कथंचित् रीते सत्यार्थपणाना श्रद्धानथी ज सम्यग्द्रष्टि थई शकाय छे.
पर्यायनयथी आत्माने जे कर्मनो संबंध, राग, अनेकता तथा गुणभेद छे ते सत्य छे, ते अवस्तु नथी; परंतु तेना लक्षे सम्यग्दर्शनादि प्रयोजननी सिद्धि थती नथी. सम्यग्दर्शनना प्रयोजननी सिद्धि तो एकमात्र अभेद, अखंड, एकरूप त्रिकाळी ज्ञायकनुं लक्ष करी आश्रय करवाथी थाय छे. तेथी ज दिगंबर संतोए प्रयोजननी- सम्यग्दर्शन आदिनी सिद्धि हेतु त्रिकाळीने मुख्य करी, निश्चय कही सत्यार्थ कही तेनुं आलंबन कराव्युं छे. तथा पर्यायने गौण करी, व्यवहार कही असत्यार्थ कही तेनुं लक्ष छोडाव्युं छे. त्रिकाळी शुद्ध आत्मा ज सम्यग्दर्शननो विषय अने ध्येय छे. आम छतां पर्याय छे ज नहीं एम मानीने द्रव्यनो आश्रय करवा जाय तो ते बनतो नथी, केमके द्रव्यनो आश्रय तो पर्याय करे छे. माटे पर्याय नथी एम मानतां आश्रय करवावाळुं कोई रहेतुं नथी. अने तो पछी जेनो आश्रय करवो छे ए द्रव्यवस्तु पण द्रष्टिमां आवती नथी.
आनंदघनजी एक ठेकाणे लखे छे केः-
सुगुरा होय
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गगनमंडळमां आत्मा शरीरथी, कर्मथी अने वर्तमान पर्यायथी भिन्न अधबीच-अद्धर रहेलो छे. ए आखा आत्मामां अमृत भर्युं छे. अंदरमां अतीन्द्रिय आनंदथी भरेलो अमृतनो सागर छे. जेने माथे सुगुरु छे, जेने सुगुरुनी देशना प्राप्त थई छे के-सत्यार्थ चीजवस्तु आत्मा अनाकुळ अतीन्द्रिय सुखथी भरचक भरेलो छे, ते एमां अंतर्मुख द्रष्टि करी सुखामृतनुं पान भरीभरीने करे छे. परंतु जे अज्ञानी छे ते बहारमां-धन, पैसा, स्त्री, आबरूमां सुख शोधे छे तेनी प्यास बुझाती नथी. ते दुःखी ज रहे छे.
भाई! आत्मा वीतरागस्वरूप ज छे. चारित्रनी अपेक्षाए वीतरागस्वरूप, आनंदनी अपेक्षाए पूर्णआनंदस्वरूप, ज्ञाननी अपेक्षाए पूर्णज्ञानस्वरूप, श्रद्धानी अपेक्षाए पूर्णश्रद्धास्वरूप, प्रभुतानी अपेक्षाए पूर्णईश्वरस्वरूप आत्मा छे. आवा भेदो भेद अपेक्षाए सत्य छे. छतां ए भेदोनुं लक्ष करवाथी राग उत्पन्न थाय छे. ए बधी पर्यायद्रष्टि छे. पर्यायद्रष्टि ज्यांसुधी छे त्यांसुधी पूर्ण आत्मानो अनुभव थतो नथी. माटे पर्याय परथी द्रष्टि उठावी लई पूर्णानंदनी सत्तानुं-एक अखंड अभेद वस्तुनुं अवलंबन लई अतीन्द्रिय आनंद प्रगट कर. आ सम्यग्दर्शननी रीत छे.
आ रीते स्याद्वादने समजी जिनमतनुं सेवन करवुं. मुख्य गौण कथन सांभळी सर्वथा एकांत पक्ष न पकडवो. पर्यायने असत्यार्थ कही तो ए छे ज नहीं एम न मानवुं. स्याद्वादने समजी एटले पर्यायने गौण करीने असत्य अने द्रव्यने मुख्य करीने तेने सत्य कह्युं छे एम समजी जिनमतमां कहेला एक वीतरागस्वरूप त्रिकाळी आत्मानुं सेवन करवुं. पर्याय छे ज नहीं एवी मान्यता ए जिनमत नथी, तथा पर्यायनो आश्रय करवो ए पण जिनमत नथी. ए तो मिथ्यात्व छे.
आ गाथासूत्रनुं व्याख्यान करतां टीकाकार आचार्ये पण कह्युं छे के आत्मा व्यवहारनयनी द्रष्टिमां जे बद्धस्पृष्टादिरूप देखाय छे ते ए द्रष्टिमां तो सत्यार्थ ज छे, परंतु शुद्धनयनी द्रष्टिमां बद्धस्पृष्टादिपणुं असत्यार्थ छे. केमके अभेदमां पर्यायनो भेद नथी तथा अभेदनी द्रष्टि करतां भेद देखातो नथी. तेथी अभेदनो अनुभव कराववा माटे पर्यायने गौण करीने असत्यार्थ कही छे.
वळी अहीं एम जाणवुं के आ नय छे ते श्रुतज्ञानप्रमाणनो अंश छे. शुद्धनय हो के व्यवहारनय, ए श्रुतज्ञान प्रमाणनो अंश छे. त्रिकाळ ज्ञानगुण जेनुं लक्षण छे एवा द्रव्यनो अनुभव करीने जे भावश्रुतज्ञान प्रगट थयुं ए प्रमाणज्ञान छे. ए अवयवी छे अने नय तेना अवयव छे. भावश्रुतप्रमाणज्ञान ए ज्ञाननी वर्तमान अवस्था छे अने एनो
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एक भाग ते नय छे. श्रुतज्ञान वस्तुने एटले के त्रिकाळी द्रव्यने परोक्ष जणावे छे. जेवी रीते सर्वज्ञ परमात्मा पूर्ण आत्माने प्रत्यक्ष देखे छे एम श्रुतज्ञानमां आत्मा प्रत्यक्ष देखातो नथी. शास्त्रोमां बे अपेक्षाए श्रुतज्ञानने पण प्रत्यक्ष कह्युं छे. (१) अनुभूतिमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो ए रीते स्वादना वेदननी अपेक्षाए प्रत्यक्ष कह्युं छे. (२) श्रुतज्ञान वडे ज्ञायकने जाणतां एमां राग के निमित्तनी अपेक्षा आवती नथी ए अपेक्षाए पण श्रुतज्ञानने प्रत्यक्ष कह्युं छे. (भावश्रुतज्ञान सीधुं राग के निमित्तनी अपेक्षा विना स्वने जाणे छे). शुद्धनयनो विषय जे पूर्ण आत्मा एने श्रुतज्ञान सर्वज्ञना आगम अनुसार पूर्ण जाणे छे. श्रुतज्ञानमां पूर्णने प्रत्यक्ष करीने देखे एम होतुं नथी. आम श्रुतज्ञान वस्तुने परोक्ष जणावे छे. तेम नय पण वस्तुने परोक्ष ज जणावे छे. श्रुतज्ञान परोक्ष छे, तो नय पण परोक्ष ज छे.
शुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषयभूत आत्मा बद्ध-स्पृष्ट आदि पांच भावोथी रहित चैतन्यशक्तिमात्र छे. ए शक्ति तो आत्मामां परोक्ष छे ज. आत्मामां ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान एवा सामर्थ्यरूप चैतन्यस्वभाव परोक्ष छे. वळी तेनी व्यक्ति (शक्तिमांथी प्रगट थवारूप व्यक्तता) कर्मसंयोगथी मति-श्रुतादि ज्ञानरूप छे. (मति-श्रुतादि ज्ञानमां कर्मनुं निमित्त छे) ते कथंचित् अनुभवगोचर होवाथी प्रत्यक्षरूप पण कहेवाय छे. आत्मा वस्तु, ज्ञान शक्तिमान गुण, एनी मति-श्रुत आदि प्रगट व्यक्तता त्रणे आवी गयां. एमां सत्नुं सत्त्व भगवान आत्मा, चैतन्यशक्तिमात्र स्वभाव (गुण) परोक्ष छे. अने एवा द्रव्यनुं आलंबन लेवाथी शक्तिमांथी मति-श्रुतादि पर्याय प्रगट थई ए व्यक्त छे. पहेलां कह्युं के शुद्धनयनो विषय परोक्ष छे, ए तो त्रिकाळीनी वात करी. हवे ए त्रिकाळी ध्येयमां एकाग्र थईने जे मति, श्रुत पर्याय प्रगटी ए कथंचित् ज्ञान-गम्य-ज्ञान ज्ञानने सीधुं परनी मदद विना जाणे छे ए अपेक्षाए प्रत्यक्षरूप पण कहेवाय छे.
अने संपूर्ण जे केवळज्ञान ते जोके छद्मस्थने प्रत्यक्ष नथी तोपण आ शुद्धनय आत्माना केवळज्ञानरूपने परोक्ष जणावे छे. शुं कह्युं? केवळज्ञान पर्याय प्रगट नथी, पण आ शुद्धनय बतावे छे के आ सम्यग्ज्ञान प्रगट थयुं छे ते वधीने केवळज्ञान थशे. धवलमां ए पाठ छे के-मतिज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे. परोक्षज्ञानमां ए प्रतीतिमां आवी गयुं छे के आ मति-श्रुतादि पर्याय वधीने केवळज्ञान थशे ज. जयधवलमां पण लीधुं छे के-केवळज्ञान अवयवी छे अने मति, श्रुत एना अवयवो छे. अवयवथी अवयवी जाणवामां आवे छे. थांभलानी एक हांस जोतां जेम आखा थांभलानो निर्णय थई जाय छे तेम आत्मामां मति-श्रुत अवयव प्रगट थतां एमां केवळज्ञानरूप अवयवीनी प्रतीति थई जाय
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छे. छद्मस्थने केवळज्ञान नथी, पण शुद्धनय परोक्षपणे एम बतावे छे के आ वर्तमान वर्ततुं ज्ञान पूर्ण थशे ए केवळज्ञान छे. श्रीमदे पण लीधुं छे ने के-श्रद्धा अपेक्षाए केवळज्ञान वर्ते छे, विचारदशाए केवळज्ञान थयुं छे, इच्छादशाए केवळज्ञान थयुं छे. इच्छा-भावना एनी ज छे ए अपेक्षाए केवळज्ञान थयुं छे एम कह्युं. उपरोक्त न्याये ते परोक्ष छे. आवो सर्वज्ञनो (स्याद्वाद) मार्ग छे.
मति-श्रुतज्ञान ए सर्वज्ञपदनी प्राप्तिनो उपाय छे. मति-श्रुत ए साधक छे अने केवळज्ञान साध्य छे. अष्टपाहुडमां चारित्रप्राभृतनी चोथी गाथामां तो मोक्षमार्गनी-ज्ञान-दर्शन-चारित्रनी पर्यायने ‘अक्षय-अमेय’ कही छे. समयसारमां मति-श्रुतज्ञान ए ‘उपाय’ छे अने केवळज्ञान-मोक्ष ए ‘उपेय’ छे. एम कह्युं छे. ‘उपायना’ ज्ञानमां ‘उपेय’ नी प्रतीति आवी जाय छे. नवतत्त्वनी प्रतीतिमां मोक्षनी प्रतीति आवे छे के नहीं? नवतत्त्वनी अभेद श्रद्धामां मोक्षनी श्रद्धा आवी जाय छे. तत्त्वार्थसूत्रमां जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष-एकवचनमां लीधुं छे. जेवुं शक्तिमां ज्ञान पूर्ण छे एवी आ मति-श्रुत पर्याय पूर्ण थई जशे एवी परोक्ष प्रतीति श्रुतज्ञानमां आवे छे.
हवे कहे छे-ज्यांसुधी आ नयने (शुद्धनयने) जीव जाणे नहीं त्यांसुधी आत्माना पूर्ण स्वरूपनुं ज्ञान-श्रद्धान थतुं नथी. शुद्धनयनो विषय अखंड, एक पूर्ण श्रद्धा-ज्ञानस्वरूप आत्मा छे. आवा आत्मामां झूकीने पर्याय ज्यांसुधी तेने जाणे नहीं त्यांसुधी तेनां श्रद्धा-ज्ञान थतां नथी. तेथी श्री गुरुए आ शुद्धनयने प्रगट करी उपदेश कर्यो छे के बद्ध-स्पृष्ट आदि पांच भावोथी रहित पूर्णज्ञानघन आत्माने जाणी (अंतर्मुख थईने जाणी) श्रद्धान करवुं, पर्यायबुद्धि न रहेवुं. संतो प्रसिद्ध करीने कहे छे के पूर्णज्ञान-घनस्वरूप आत्मानी द्रष्टि-श्रद्धा करो. आ शुद्धनय अखंड, एक, त्रिकाळी, ध्रुव, परमस्वभाव ज्ञायकभावने देखाडे छे. तेनी अंतर्मुख थई श्रद्धा करो.
अहीं कोई एवो प्रश्न करे के-एवो आत्मा प्रत्यक्ष तो देखातो नथी अने विना देख्ये श्रद्धान करवुं ते जूठुं श्रद्धान छे. तेनो उत्तरः-
देखेलानुं ज श्रद्धान करवुं ए तो नास्तिक मत छे. जिनमतमां-सर्वज्ञना शास्त्रमां तो प्रत्यक्ष अने परोक्ष बन्ने प्रमाण मानवामां आव्यां छे. तेमां आगम- प्रमाण परोक्ष छे. तेनो भेद शुद्धनय छे, प्रमाणथी अनुमान-ज्ञानमां परिपूर्ण ध्रुव आत्माने जाणी शुद्धनयनी द्रष्टिथी शुद्ध आत्मानुं श्रद्धान करवुं. भावश्रुतज्ञान परोक्ष छे, केमके एमां आत्माना असंख्यात प्रदेश अने अनंत गुण प्रत्यक्ष जणाता नथी. आ रीते ज्ञाननी
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पर्यायमां अखंड, अभेद, पूर्ण आत्मा जे ज्ञेय छे एनुं ज्ञान करीने श्रद्धान करवुं. केवळ व्यवहार-प्रत्यक्षनो ज एकांत न करवो. अमने प्रत्यक्ष देखाय तो ज मानीए एम एकांत न करवो.
हवे शुद्धनयने मुख्य करी कळशरूप काव्य कहे छेः-
अमृतचंद्राचार्यदेव जगतना जीवोने उद्देशीने कहे छेः- ‘जगत् तम् एव सम्यक्स्वभावम् अनुभवतु’ जगतना प्राणीओ ए सम्यक् स्वभावनो अनुभव करो- एटले पर्यायमां एनो साक्षात्कार करो, एनुं वेदन करो. सम्यक् एम एक शब्दमां तो बार अंगनो सार मूकी दीधो छे. एक ठेकाणे स्तुतिकार भगवाननी स्तुति करतां कहे छेः -
निजसत्ताए शुद्ध, सहुने
नाथ! आप आखा जगतने निजसत्ताए-पोताना होवापणे शुद्ध देखी रह्या छो. प्रत्येक आत्मा शुद्ध परिपूर्ण भगवानमयी छे एम आपना ज्ञानमां देखी रह्या छो.
अहाहा...! भाई, भगवाने जोयुं छे के तुं अंदर परिपूर्ण शुद्ध छो ने! तने अपूर्ण अने विपरीत मानतो ए तारुं अपमान छे. (अनादर छे) जेम कोई अबजपतिने निर्धन कहेवो ए एनुं अपमान छे तेम भगवान पूर्णानंदना नाथने दरिद्री मानवो ए एनुं अपमान छे. अहीं कहे छे के अंदर त्रिकाळ ध्रुव ज्ञानानंदस्वभावी अखंड एकस्वभाव आत्मा छे तेनो अनुभव करो, एनी सन्मुख ज्ञान अने द्रष्टि करीने वेदन करो. आवा सत्यस्वभावनी प्रतीतिने सम्यग्दर्शन कहे छे. ए सम्यग्दर्शनमां अतीन्द्रिय आनंदनो अंशे स्वाद आवे छे एने अनुभव कहे छे. आनंदनुं वेदन ए अनुभवनी महोर-छाप-मुद्रा-ट्रेडमार्क छे. समयसार गाथा प नी टीकामां आवे छे के-जेम डुंगरमांथी पाणी झरे एम मारो आनंदकंद डुंगर आत्मा छे एमां द्रष्टि पडतां मने निरंतर आनंद झरे छे. एवा आनंद झरता प्रचुर स्वसंवेदनथी मारा निजविभवनो जन्म छे. अनुभव आनंदना वेदन सहित ज होय छे.
भगवान आत्मा ज्ञान, आनंद एम अनंत गुणोथी परिपूर्ण छे. आचार्य कहे छे के-एवा आत्मानो साक्षात्कार करो, तेथी अतीन्द्रिय आनंद थशे. आत्माने छोडीने
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बहारमां-स्त्री, पुत्र के आबरूमां-कयांय सुख नथी. ए बधां तो दुःखनां बाह्य निमित्तो छे. बनारसीदासे समयसारनाटकमां कह्युं छेः-
अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोख सरूप.”
आनंदनो नाथ चैतन्यप्रभु जे आत्मा तेनी सन्मुख थतां जे अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आव्यो ते रत्नचिंतामणि छे, ए आनंदरसनो कूवो छे, मोक्षनो उपाय अने पूर्णानंदनी प्राप्तिरूप मोक्ष छे. अहाहा...! अनुभव मोक्षस्वरूप छे. द्रव्य तो त्रिकाळ मुक्तस्वरूप ज छे. एनो अंश जे पर्यायमां द्रव्यना आलंबनथी प्रगटे ए पण मुक्तस्वरूप छे. वळी पर्यायमां द्रव्यनी जे द्रष्टि थाय छे द्रष्टिमां पण द्रव्य मुक्तस्वरूप ज भासे छे.
हवे कहे छे के आ सम्यक्स्वभावनो जगत अनुभव करो के ‘यत्र’ ज्यां ‘अमी बद्धस्पृष्टभावादयः’ आ बद्धस्पृष्टादि भावो ‘एत्य स्फुटं उपरि तरन्तः अपि’ स्पष्टपणे ते स्वभावना उपर तरे छे. आ बद्धस्पृष्टादि पांचे भावो स्पष्टपणे त्रिकाळ ध्रुव, ध्रुव पूर्णज्ञायकभावनी उपर उपर तरे छे तोपण ‘प्रतिष्ठाम् न हि विदधति’ तेमां प्रतिष्ठा पामता नथी, अंदर प्रवेश पामता नथी. कर्मना संबंधरूप बंधभाव, अनेरी अनेरी गतिरूप भाव, ज्ञाननी हीनाधिक दशा के रागादि भावो-ए पर्यायभावो ज्ञायकभावनी उपर उपर रहे छे, अंदर प्रवेश पामता नथी. जेम पाणीना दळनी उपर तेल नाखवामां आवे तो तेल उपर उपर ज रहे छे, अंदर प्रवेश पामतुं नथी, तेलनी चीकाश अंदर जती नथी तेवी रीते अनादि-अनंत सहज विज्ञानघनस्वभावमां दया- दान-पूजा-भक्तिनो राग तो प्रवेश पामतो नथी पण ए रागने जाणनारी ज्ञाननी क्षयोपशमरूप अनियत अवस्था पण अंदरमां प्रवेश पामती नथी. कारण के द्रव्यस्वभाव तो नित्य छे, एकरूप छे अने आ भावो अनित्य अने अनेकरूप छे. आत्मतत्त्व नित्य, ध्रुव, चिदानंदघनस्वभावी, चैतन्यदळ छे. एमां अगियार अंगनो क्षयोपशम हो के अनुभवनी पर्याय हो, ए सर्व उपर उपर रहे छे, अंदर प्रवेश पामती नथी. भाई! आ द्रव्यस्वभावमां पर्यायनी हीनाधिकता प्रवेश न पामे तो स्त्री, पुत्रादि केम पामे? द्रष्टिमां आवा स्वभावनो महिमा आववो जोईए. पोतानो महिमा आव्या विना पर्यायमां जे रागनो महिमा आवे छे ते आत्मजीवननो घात करे छे. ए ज मिथ्यात्व छे.
अहीं प्रश्न थाय छे के-रागनी पर्याय व्यय पामीने अंदर ध्रुवमां भळी जाय छे ने? समाधानः– ना, बिलकुल भळती नथी. रागनो नाश थाय छे त्यारे ते अंदर पारिणामिकभावरूप थई जाय छे. आत्मामां जे वर्तमान राग थाय ते बीजा समये नाश
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पामी जाय छे. ते योग्यतारूपे पारिणामिकभावरूप थई जाय छे. पण एम नथी के ते अशुद्धतारूपे द्रव्यमां भळीने रहे छे. पर्यायनी अशुद्धता द्रव्यमां जती नथी. तेवी ज रीते क्षायोपशमिकभाव हो के क्षायिकभावनी पर्याय हो, तेनी स्थिति पण एक समय छे. बीजे समये तेनो व्यय थतां ते पारिणामिकभावरूप थई जाय छे.
आ द्रव्यस्वभाव ‘समन्तात् द्योतमानम्’ सर्व अवस्थाओमां प्रकाशमान छे. औदयिक भाव हो, उपशम हो, क्षयोपशमभाव हो के क्षायिकभाव हो-ए बधी पर्यायोमां सामान्य एक ध्रुवस्वभाव, ज्ञायकभाव, कायम, त्रिकाळ प्रकाशमान छे. पूर्णानंदनो नाथ प्रभु एनी दरेक पर्यायमां ध्रुव, ध्रुव, ध्रुवपणे प्रकाशमान रहे छे. एवा शुद्धस्वभावनो ‘अपगतमोहीभूय’ मोहरहित थईने जगत अनुभव करो. हे जगतना जीवो, मिथ्यात्वरूपी मोहने छोडीने एक ज्ञायकभावनो अनुभव करो; बार अंगनो आ सार छे.
भगवान! तारी पासे आखो आत्मा पडयो छे ने? पासे क्यां? तुं ज ए छे. पर्याय पासे कहेवामां आवे छे. पर्याय ए तुं नथी. पर्यायबुद्धि-अंशबुद्धि-व्यवहारबुद्धि ए तो अज्ञान छे. प्रवचनसार गाथा ९३ मां ‘पज्जयमूढा हि परसमया’ एम कह्यु छे. एक समयनी पर्यायमां मूढ छे ए मिथ्याद्रष्टि छे. स्वरूप जे पूर्ण छे एनो आदर छोडी एक समयनी पर्यायमां दया, दान, व्रत आदिना विकल्पोनो आदर ए मिथ्यात्व छे. ए मिथ्यात्वरूप अज्ञान छे तो जीवनी पर्याय, पण एमां मोहकर्मनो उदय निमित्त छे. (मोहकर्मे करावी नथी) पर्यायमां गमे तेटलो ज्ञाननो उघाड के रागनी मंदता होय, पण एनी रुचि-प्रेम जे छे ए मिथ्यात्व छे. आचार्य कहे छे के मोहकर्मना उदयना निमित्तथी उत्पन्न मिथ्यात्वरूप मोहनो त्याग करीने, पर्यायनी रुचि मटाडीने, पर्यायनी पाछळ जे अखंड एक पूर्ण ध्रुव चैतन्यस्वभाव आत्मा प्रकाशमान रहेलो छे, तेनुं लक्ष करी तेनो अनुभव करो. एम करतां सम्यग्दर्शन छे.
अहाहा...! अतीन्द्रियना आनंदस्वरूप आत्मानी रुचि थतां ईन्द्रना ईन्द्रासनना भोग सडेला कूतरा अने बिलाडा जेवा (अरुचिकर) लागे छे. ज्ञानीने पण ज्यांसधी पूर्ण वीतरागता पर्यायमां प्रगटे नहिं त्यांसुधी शुभ-अशुभ बन्ने राग आवे छे. गृहस्थाश्रममां स्त्री वगेरे अनेक भोगो तेने होय छे; पण ते काळा नाग जेवा, उपसर्ग समान लागे छे. एने एमां होंश, उत्साह नथी. शांतिनाथ, कुंथुनाथ अरनाथ तीर्थंकर हता, साथे चक्रवर्ती पण हता. ९६ हजार राणीओ हती. पण ते प्रत्येना भोगने (रागने) झेर समजता हता. समयसार मोक्ष-अधिकारमां पुण्यभावने झेरनो घडो कह्यो छे.
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भगवान आत्मा अमृतकुंभ छे. आ तो माखण-माखणनी वातो छे. कह्युं छे ने-
‘गगनमंडलमें गौआ विहानी, वसुधा दूध जमाया, माखन था सो विरला रे पाया, ये जगत छास भरमाया... संतो अबधु सो जोगी रे मिला, हीनपदका रे करे निवेडा, ऐसो जोगी गुरु मेरा!’
भाई! आ तो समोसरणमां जगद्गुरु भगवानना मुखेथी नीकळेली सार वात छे. जेनां भाग्य होय तेने सांभळवा मळे. बाकी लोकोने तो पुण्यभाव-शुभभावनी रुचि, पैसा, स्त्री आदिनो प्रेम होवाथी आ वात कठण पडे छे. पण शुं थाय? ज्यां परमस्वभाव ध्रुव चैतन्यभावनी आगळ क्षायिकभाव ए पण अपरमभाव छे (अप्रतिष्ठित छे) त्यां पछी रागनी तो वात ज शी? (रागनी-शुभरागनी कोई प्रतिष्ठा नथी).
अहीं एम उपदेश छे के शुद्धनयना विषयरूप त्रिकाळी आत्मा-पर्यायरहित शुद्धात्मानो अनुभव करो. आनंदकंदमां झूलनारा, वनवासी, नग्न दिगंबर मुनिओ अने आचार्योनो आ उपदेश छे. अने ए ज भगवाननो उपदेश छे. मुनिओ तो जंगलमां रहेता होय छे. क्यारेक भोजन माटे गाममां आवे छे. ए मुनिओ क्यारेक विकल्प ऊठे तो वनमां ताडपत्र उपर शास्त्र लखे छे. त्यां ने त्यां ताडपत्र मूकीने पोते तो बीजे चाल्या जाय छे. कोई गृहस्थने ख्याल होय के मुनि शास्त्र लखी गया छे तो ते लई ले छे. आखुं समयसार आ रीते बन्युं छे. अहाहा...! लखवानुं पण जेने अभिमान नथी अने लखवाना विकल्पना पण जे स्वामी थता नथी एवा मुनि भगवंतोनो आ उपदेश छे के एक शुद्धात्मानो अनुभव करो.
हवे ए ज अर्थनुं कळशरूप काव्य फरीने कहे छे जेमां एम कहे छे के आवो अनुभव कर्ये आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान थाय छेः-
‘यदि’ जो ‘कः अपि सुधीः’ कोई सुबुद्धि कहेतां सम्यग्द्रष्टि जीव ‘भूतम् भान्तम् अभूतम् एव बन्धं’ भूतकाळमां वीती गयेला, वर्तमानमां वर्तता अने भविष्यमां प्रगट थवा योग्य -एम त्रणे काळना पुण्य अने पापना भावोने पोताना आत्माथी ‘रभसात्’
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तत्काळ-शीघ्र ‘निर्भिद्य’ भिन्न करीने (जाणीने) -जुओ, अहीं शुं कहे छे? रागथी के पैसा खर्चवाथी धर्म थाय एवी मान्यतावाळानुं धर्ममां कोई स्थान नथी एम कहे छे. थेलामां कडवुं करियातुं भर्युं होय अने उपर नाम लखे साकर तेथी कांई करियातुं साकर न थइ जाय. एम परनी क्रिया अने रागनी क्रिया करे अने नाम धर्मनुं आपे तो ए कांई धर्म न थई जाय. ए तो मिथ्याश्रद्धान छे. सम्यग्द्रष्टि शुभाशुभ बन्ने भावने पोतानाथी भिन्न जाणे छे. ए बन्ने प्रकारना विकल्पोने तत्काळ आत्माथी भिन्न जाणीने तथा ‘मोहं’ ते कर्मना उदयना निमित्तथी थयेल मिथ्यात्व (अज्ञान) ने ‘हठात्’ पोताना बळथी (पुरुषार्थथी) ‘व्याहत्य’ रोकीने-एटले शुभभावथी धर्म थशे एवी मिथ्या मान्यताने पोताना स्वभावना पुरुषार्थ वडे रोकीने -नाश करीने ‘अन्तः’ अंतरंगमां पूर्णानंदनो नाथ छे एनो ‘किल अहो कलयति’ अभ्यास करे- देखे-अनुभव करे, साक्षात्कार करे तो ‘अयम् आत्मा’ आ आत्मा ‘आत्मानुभव–एक गम्य–महिमा’ पोताना अनुभवथी ज जणावायोग्य जेनो प्रगट महिमा छे एवो - देव-गुरु-शास्त्रथी के तेमनी भक्तिना रागथी नहीं, पण पोताना अंतरअनुभवथी ज जणावायोग्य छे एवो- ‘व्यक्तः’ व्यक्त छे. व्यक्त एटले प्रगट छे. एक समयनी पर्यायथी रहित त्रिकाळी वस्तु आत्मा पोतानी अपेक्षाए अनुभवगम्य छे तेथी व्यक्त छे. एक समयनी ज्ञान-वीर्य आदिनी प्रगट-व्यक्त पर्यायनी अपेक्षाए त्रिकाळी वस्तु आत्मा अव्यक्त कही छे. वळी ‘ध्रुवं’ भगवान आत्मा कोईथी चळे नहीं तेवो निश्चल छे, ‘शाश्वतः’ शाश्वत कहेतां उत्पत्ति-विनाशरहित छे. शरीर, कर्म तथा पुण्य-पापना भावथी भिन्न आत्मानो अंतरंगमां अनुभव करे तो आत्मा प्रगटरूप, निश्चल अने शाश्वतरूपे रहेलो छे. वळी ‘नित्यं कर्मकलङ्क–पङ्क–विकल’ नित्य कर्म-कलंक-कर्दमथी रहित छे. द्रव्यस्वभाव, ध्रुवस्वभाव तो अनादि-अनंत कर्मकलंकथी रहित अंदरमां पोते ‘स्वयं देवः’ स्तुति करवा योग्य देव ‘आस्ते’ बिराजमान छे.
आ जे भगवान थई गया तेमनी के स्वर्गना देवनी वात नथी. आ तो पोते स्वयं देव छे एनी वात छे. देहदेवळमां देहथी भिन्न पवित्र महाचैतन्यसत्ता अंदर परमात्मस्वरूपे नित्य बिराजमान छे. परमात्मस्वरूपे न होय तो प्रगट थाय कयांथी? आत्मा स्वयं परमात्मस्वरूप देव छे. पण अरे! ‘नजरनी आळसे रे, नयणे न नीरख्या हरि.’ -नजरनी आळसमां अंदर आखो भगवान छे ते देखातो नथी, अंदरनुं निधान देखातुं नथी. नजरने (पर्याय उपरथी खसेडी) अंतरमां वाळीने अनुभव करे तो आत्मदेवनां दर्शन थया विना रहे नहीं. चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने आवो आत्मा अनुभवमां आवे छे. पांचमे श्रावक अने छठ्ठे-सातमे झूलनारा संतनी (मुनिराजनी) वात तो अलौकिक छे.