Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 15 ; Part 2; Introduction; Contents.

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* कळश १२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

शुद्धनयनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो सर्व कर्मोथी रहित, अविनाशी चैतन्यमात्र देव अंतरंगमां पोते विराजी रह्यो छे. ज्ञानीओ कहे छे अत्यारे -हमणां ज शुद्धनयथी आत्माने जोवामां आवे तो ज्ञानस्वभावमात्र आत्मा-ज्ञान, शांति, आनंद, स्वच्छता, प्रभुता एवी अनंत शक्तिओनी दिव्यताने धारण करनार देव अंतरंगमां विराजी रह्यो छे. आ तीर्थंकरदेवनी वात नथी. आ तो तीर्थंकरगोत्र जे भावथी बंधाय ए भाव पण जेमां नथी एवा त्रिकाळी शुद्ध आत्मदेवनी वात छे. तीर्थंकरगोत्र जे भावथी बंधाय ए भाव धर्म नथी, ए बंधभाव छे. जे भावथी बंधन पडे ते धर्म नहीं. सीधी स्वतंत्र छे. त्रणे कडक भाषामां कहीए तो ए अधर्म छे. जगतथी जुदी वात छे. माने न माने, जगत काळ परमार्थनो मार्ग तो एक ज छे. चैतन्यनो पुंज चिदानंदघन अनंतशक्तिनो सागर आत्मा स्तुति करवा लायक स्वयं देव छे. वर्तमान अवस्थानी जेने द्रष्टि छे एवो अज्ञानी पर्यायबुद्धि बहिरात्मा जीव एने बहार ढूंढे छे ए मोटुं अज्ञान छे.

पंडित बनारसीदासजी गृहस्थ हता, महा ज्ञानी हता, वस्तुस्थितिना जाणकार हता. एमणे समयसार नाटकना बंधद्वारमां आ अंगे सुंदर वात लखी छे. कहे छेः-

केई उदास रहैं
प्रभु कारन, केई कहैं उठी जांहि कहीं कै,
केई प्रनाम करैं गढि मूरति, केई पहार चढैं चढि छींकै,
केई कहैं असमांनके ऊपरि,
केई कहैं प्रभु हेठि जमींकै,
मेरो धनी नहि दूर दिसन्तर, मोहिमैं है मोहि सूझत नीकैं. ४८

आत्माने जाणवा माटे अर्थात् ईश्वरनी खोज करवा माटे कोई तो त्यागी बनी गया छे, कोई बीजा क्षेत्रमां यात्रा आदि माटे जाय छे, कोई प्रतिमा बनावीने नमस्कार, पूजन करे छे, कोई डोळीमां बेसीने पर्वत उपर चढे छे, कोई कहे छे ईश्वर आकाशमां छे, अने कोई कहे छे के पाताळमां छे. परंतु पंडितजी कहे छे के मारो प्रभु माराथी दूर नथी, मारामां ज छे, अने मने सारी पेठे अनुभवमां आवे छे.

चैतन्यचमत्कार अविनाशी आत्मदेव अंतरंगमां विराजमान छे. एने अज्ञानी शत्रुंजय, गिरनार अने सम्मेदशिखरमां मळी जशे एम बहार शोधे छे. जाणे प्रतिमाना पूजनथी मळी जशे एम मानी पूजा आदि करे छे. पण ए तो बहारना (पर) भगवान छे. ए क्यां तारो भगवान छे? तारो भगवान तो सच्चिदानंद प्रभु अंतरंगमां


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विराजे छे. त्यां जो. बहारना भगवान उपरनुं लक्ष ए तो शुभराग छे. अशुभनी निवृत्ति माटे ते आवे छे. पण ए कांई धर्म नथी. मार्ग आवो छे, भाई!

हवे शुद्धनयना विषयभूत आत्मानी अनुभूति ते ज ज्ञाननी अनुभूति छे एम १पमी गाथानी सूचनाना अर्थरूप काव्य कहे छेः-

* कळश– १३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इति’ ए रीते ‘या शुद्धनयात्मिका आत्म–अनुभूतिः’ जे पूर्वकथित शुद्धनयस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे. ‘इयम् एव किल ज्ञान–अनुभूतिः’ ते ज खरेखर ज्ञाननी अनुभूति छे. जुओ, शुद्धनयस्वरूप आत्मा एम कह्युं छे. नय अने नयना विषयने अभेद करीने वात करी छे. शुद्धनयना विषयरूप आत्मा एम भेदथी कह्युं नथी. अहाहा...! त्रिकाळ शुद्धचैतन्यघन अतीन्द्रिय आनंदनो कंद प्रभु आत्मा ए ज शुद्धनय छे. एवा शुद्धनयस्वरूप आत्मानो अनुभव ए ज ज्ञाननो अनुभव छे. आत्मानो अनुभव के ज्ञाननो अनुभव ए बे जुदी चीज नथी. सर्वज्ञ स्वभावी आत्माना ज्ञाननो अनुभव ए ज आत्म-द्रव्यनो अनुभव छे अने आत्मद्रव्यनो अनुभव ए ज ज्ञाननो अनुभव छे. गाथा १४ मां सम्यग्दर्शननी प्रधानताथी कथन कर्युं छे. गाथा १प मां सम्यग्ज्ञाननी प्रधानताथी कथन छे. आत्मानो-गुणीनो अनुभव, ज्ञाननो अनुभव, सम्यग्दर्शन अने जैनशासन बधुं एक ज छे. ‘इति बुद्ध्वा’ एम जाणीने, आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकंपम् निवेश्य’ आत्माने आत्मामां- पोताना स्वरूपमां निश्चल स्थापीने ‘नित्यम् समन्तात् एकः अवबोधघनः अस्ति’ सदा सर्व तरफ एक ज्ञानघन आत्मा छे एम देखवुं, अनुभववुं एनुं नाम जैनधर्म अने मोक्षमार्ग छे.

भावार्थः– १४ मी गाथामां सम्यग्दर्शनने प्रधान करीने कह्युं हतुं. हवे ज्ञानने मुख्य करीने कहे छे के शुद्धनयना विषयस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे ए ज सम्यग्ज्ञान छे.

हवे, आ अर्थरूप गाथा कहे छे.




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जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं।
अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं।।
१५।।

यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम्।
अपदेशसान्तमध्यं पश्यति जिनशासनं
सर्वम्।। १५।।

हवे, आ अर्थरूप गाथा कहे छेः-

अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जे अविशेष देखे आत्मने,
ते द्रव्य तेम ज भाव जिनशासन सकल देखे खरे. १प.

गाथार्थः– [यः] जे पुरुष [आत्मानम्] आत्माने [अबद्धस्पृष्टम्] अबद्धस्पृष्ट, [अनन्यम्] अनन्य, [अविशेषम्] अविशेष (तथा उपलक्षणथी नियत अने असंयुक्त [पश्यति] देखे छे ते [सर्वम् जिनशासनं] सर्व जिनशासनने [पश्यति] देखे छे,-के जिनशासन [अपदेशसान्तमध्यं] बाह्य द्रव्यश्रुत तेम ज अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाळुं छे.

टीकाः– जे आ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त एवा पांच भावोस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे ते निश्चयथी समस्त जिनशासननी अनुभूति छे, कारण के श्रुतज्ञान पोते आत्मा ज छे. तेथी ज्ञाननी अनुभूति ते ज आत्मानी अनुभूति छे. परंतु हवे त्यां, सामान्य ज्ञानना आविर्भाव (प्रगटपणुं) अने विशेष (ज्ञेयाकार) ज्ञानना तिरोभाव (आच्छादन) थी ज्यारे ज्ञानमात्रनो अनुभव करवामां आवे त्यारे ज्ञान प्रगट अनुभवमां आवे छे. तोपण जेओ अज्ञानी छे, ज्ञेयोमां आसक्त छे तेमने ते स्वादमां आवतुं नथी. ते प्रगट द्रष्टांतथी बतावीए छीएः _________________________________________________________________ * पाठान्तरः अपदेससुत्तमज्झं १. अपदेश= द्रव्यश्रुत; सान्त=ज्ञानरूपी भावश्रुत.


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जेम-अनेक तरेहनां शाक आदि भोजनोना संबंधथी ऊपजेल सामान्य लवणना तिरोभाव अने विशेष लवणना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं जे (सामान्यना तिरोभावरूप अने शाक आदिना स्वादभेदे भेदरूप-विशेषरूप) लवण तेनो स्वाद अज्ञानी, शाकना लोलुप मनुष्योने आवे छे पण अन्यना संबंधरहितपणाथी ऊपजेल सामान्यना आविर्भाव ने विशेषना तिरोभावथी अनुभवमां आवतुं जे एकाकार अभेदरूप लवण तेनो स्वाद आवतो नथी; वळी परमार्थथी जोवामां आवे तो तो, जे विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं (क्षाररसरूप) लवण छे ते ज सामान्यना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं (क्षाररसरूप) लवण छे. एवी रीते-अनेक प्रकारना ज्ञेयोना आकारो साथे मिश्ररूपपणाथी ऊपजेल सामान्यना तिरोभाव अने विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं जे विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान ते अज्ञानी, ज्ञेय-लुब्ध जीवोने स्वादमां आवे छे पण अन्य ज्ञेयाकारना संयोगरहितपणाथी ऊपजेल सामान्यना आविर्भाव ने विशेषना तिरोभावथी अनुभवमां आवतुं जे एकाकार अभेदरूप ज्ञान ते स्वादमां आवतुं नथी; वळी परमार्थथी विचारीए तो तो, जे ज्ञान विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवे छे ते ज ज्ञान सामान्यना आविर्भावथी अनुभवमां आवे छे. अलुब्ध ज्ञानीओने तो, जेम सैंधवनी गांगडी, अन्य द्रव्यना संयोगनो व्यवच्छेद करीने केवळ सैंधवनो ज अनुभव करवामां आवतां, सर्वतः एक क्षाररसपणाने लीधे क्षारपणे स्वादमां आवे छे तेम आत्मा पण, परद्रव्यना संयोगनो व्यवच्छेद करीने केवळ आत्मानो ज अनुभव करवामां आवतां, सर्वतः एक विज्ञानघनपणाने लीधे ज्ञानपणे स्वादमां आवे छे.

भावार्थः– अहीं आत्मानी अनुभूति ते ज ज्ञाननी अनुभूति कहेवामां आवी छे. अज्ञानीजन ज्ञेयोमां ज -ईंद्रियज्ञानना विषयोमां ज-लुब्ध थई रह्या छे; तेओ ईंद्रियज्ञानना विषयोथी अनेकाकार थयेल ज्ञानने ज ज्ञेयमात्र आस्वादे छे परंतु ज्ञेयोथी भिन्न ज्ञानमात्रनो आस्वाद नथी लेता. अने जेओ ज्ञानी छे, ज्ञेयोमां आसक्त नथी तेओ ज्ञेयोथी जुदा एकाकार ज्ञाननो ज आस्वाद ले छे, -जेम शाकोथी जुदी मीठानी कणीनो क्षारमात्र स्वाद आवे तेवी रीते आस्वाद ले छे, कारण के ज्ञान छे ते आत्मा छे अने आत्मा छे ते ज्ञान छे. आ प्रमाणे गुणी-गुणनी अभेद द्रष्टिमां आवतुं जे सर्व परद्रव्योथी जुदुं, पोताना पर्यायोमां एकरूप, निश्चळ, पोताना गुणोमां एकरूप, परनिमित्तथी उत्पन्न थयेल भावोथी भिन्न पोतानुं स्वरूप, तेनुं अनुभवन ते ज्ञाननुं अनुभवन छे, अने आ अनुभवन ते भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासननुं अनुभवन छे. शुद्धनयथी आमां कांई भेद नथी.

हवे आ ज अर्थनुं कलशरूप काव्य कहे छेः-


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(पृथ्वी)

अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहि–
र्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा।
चिदुच्छलननिर्भरं
सकलकालमालम्बते
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम्।।
१४।।

(अनुष्टुभ्)
एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः।
साध्यसाधकभावेन द्विधैकः
समुपास्यताम्।। १५।।

__________________________________________________________________

श्लोकार्थः– आचार्य कहे छे के [परमम् महः नः अस्तु] ते उत्कृष्ट तेज- प्रकाश अमने हो [यत् सकलकालम् चिद्–उच्छलन–निर्भरं] के जे तेज सदाकाळ चैतन्यना परिणमनथी भरेलुं छे, [उल्लसत्–लवण–खिल्य–लीलायितम्] जेम मीठानी कांकरी एक क्षाररसनी लीलानुं आलंबन करे छे तेम जे तेज [एक–रसम् आलम्बते] एक ज्ञानरस स्वरूपने अवलंबे छे, [अखण्डितम्] जे तेज अखंडित छे -ज्ञेयोना आकाररूपे खंडित थतुं नथी, [अनाकुलं] जे अनाकुळ छे-जेमां कर्मना निमित्तथी थता रागादिथी उत्पन्न आकुळता नथी, [अनन्तम् अन्तः बहिः ज्वलत्] जे अविनाशीपणे अंतरंगमां अने बहारमां प्रगट देदीप्यमान छे-जाणवामां आवे छे, [सहजम्] जे स्वभावथी थयुं छे -कोईए रच्युं नथी अने [सदा उद्विलासं] हंमेशा जेनो विलास उदयरूप छे-जे एकरूप प्रतिभासमान छे.

भावार्थः– आचार्ये प्रार्थना करी छे के आ ज्ञानानंदमय एकाकार स्वरूपज्योति अमने सदा प्राप्त रहो. १४.

हवे, आगळनी गाथानी सूचनारूपे श्लोक कहे छेः-

श्लोकार्थः– [एषः ज्ञानघनः आत्मा] आ (पूर्वकथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते [सिद्धिम् अभीप्सुभिः] स्वरूपनी प्राप्तिना ईच्छक पुरुषोए [साध्यसाधकभावेन] साध्यसाधकभावना भेदथी [द्विधा] बे प्रकारे, [एकः] एक ज [नित्यम् समुपास्यताम्] नित्य सेववायोग्य छे; तेनुं सेवन करो.

भावार्थः– आत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ज छे परंतु एनुं पूर्णरूप साध्य भाव छे अने अपूर्णरूप साधकभाव छे; एवा भावभेदथी बे प्रकारे एकने ज सेववो. १प.


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प१ २०-१-७६ प२ २१-१-७६
प३ २२-१-७६ प४ २३-१-७६

* समयसार गाथा –१प *

समस्त जैनशासनना रहस्यनी आ गाथा छे सर्वज्ञ परमेश्वरनो जे मार्ग छे ए ज जैनशासननो मोक्षमार्ग छे.

* गाथा –१पः गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘यः’ जे पुरुष ‘आत्मानम्’ शुद्धआनंदघन चैतन्यस्वरूप आत्माने ‘अबद्धस्पृष्टम्’ अबद्धस्पृष्ट अर्थात् कर्मनी साथे बंध अने स्पर्श रहित, ‘अनन्यम्’ अनन्य् अर्थात् मनुष्य, नरक आदि अन्य अन्य गतिथी रहित, ‘अविशेषम्’ अविशेष अर्थात् ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेद रहित सामान्य एकरूप तथा उपलक्षणथी (बे बोल आ गाथामां नथी पण १४मी गाथामां आवी गया छे) नियत एटले वृद्धिहानिरूप अवस्थाथी रहित अने असंयुक्त अर्थात् पुण्य अने पाप, सुख-दुःखरूप कल्पनाओथी रहित ‘पश्यति’ देखे छे एटले के अंतरमां अनुभवे छे ते ‘सर्वम् जिनशासनम्’ सर्व जिनशासनने ‘पश्यति’ देखे छे. समस्त जैनशासननुं रहस्य ते आत्माए जाणी लीधुं. भगवान आत्मा नित्य मुक्तस्वरूप शुभाशुभभावरहित त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यवस्तु छे. एवा आत्मानो अभ्यंतर ज्ञानथी (भावश्रुत ज्ञानथी) अनुभव करवो ए (अनुभव) शुद्धोपयोग छे. ए वीतरागी पर्याय छे अने ए ज जैनधर्म छे. राग विनानी वीतरागी दशा ते जैनशासन छे अने ए ज जैनधर्मनुं रहस्य छे.

आत्मा जे त्रिकाळी वस्तु छे ए जिनस्वरूप ज छे. जिनवरमां अने आत्मामां कांई फेर नथी. कह्युं छे नेः-

“जिन सोही है आतमा, अन्य सोही है कर्म,
यही वचनसे समज ले जिनप्रवचनका मर्म,”

प्रत्येक आत्मानो द्रव्यस्वभाव तो त्रिकाळ आवो ज एकरूप छे. जे भगवान थया ते आवा आत्मानो पूर्ण आश्रय करी पूर्ण निर्मळ पर्याय प्रगट करीने थया. शुद्धोपयोग


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वडे जिनस्वरूप भगवान आत्मामां रमणता करवी, एने जाणवो -अनुभववो एने भगवाने जैनशासन कह्युं छे. आ जैनशासन पर्यायमां छे, द्रव्यमां नहीं. आ पूर्ण जिनस्वरूप आत्माने ग्रहण करनार शुद्धोपयोग ए ज जैनशासन छे, परमेश्वरनो मार्ग छे. जेणे आवा आत्माने जाण्यो नथी एणे कांई पण जाण्युं नथी. पर्यायद्रष्टिमां आत्माने बद्धस्पृष्ट, अन्य अन्य अवस्थारूप, अनियत, भेदरूप अने रागरूपे देखे छे ए जैनशासन नथी, ए तो अजैनशासन छे. आ शेठियाओ करोडोनां दान करे, कोई भक्ति, पूजा करे, दया, व्रत पाळे ए कांई जिनशासन नथी, के जैनधर्म नथी वीतरागनी वाणी स्याद्वादरूप छे एटले कोई ठेकाणे रागने पण धर्म कह्यो छे एम नथी. (वीतरागताथी धर्म अने रागथी पण धर्म एवो स्याद्वाद नथी.) धर्मधुरंधर, धर्मना स्थंभ एवा कुंदकुंदाचार्यदेव जेमनुं मंगलाचरणमां त्रीजुं नाम आवे छे ते जे कहे छे ते एकवार पूर्वनो आग्रह छोडीने सांभळ, के अंतरमां एकरूप परमात्मतत्त्व सामान्यस्वभाव निर्लेप भगवान छे एने जाणवो, एनी प्रतीति अने रमणता करवी -एवो जे शुद्धोपयोग छे ते जैनशासन छे. आ जैनशासन अपदेशसान्तमध्यं बाह्य द्रव्यश्रुत तेम ज अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाळुं छे. जयसेनाचार्यनी टीकामां आवे छे के बाह्यद्रव्यश्रुतमां एम ज कह्युं छे के अबद्धस्पृष्ट आत्मानो अनुभव करवो ए ज जैनशासन छे. बारअंगरूप वीतरागनी वाणीनो आ ज सार छे -के शुद्धात्मानो अनुभव कर.’ द्रव्यश्रुत वाचक छे, अंदर भावश्रुतज्ञान तेनुं वाच्य छे. द्रव्यश्रुत अबद्धस्पृष्ट आत्माना स्वरूपने निरूपे छे, भावश्रुत अबद्धस्पृष्ट आत्मानो अनुभव करे छे. पंडित राजमलजीए कळश १३ मां आनो खुलासो बहु सारो कर्यो छे. शिष्ये पूछयुं- ‘आ प्रसंगे बीजो पण संशय थाय छे के कोई जाणशे के द्वादशांगज्ञान कोई अपूर्व लब्धि छे.’ तेनुं समाधानः- द्वादशांगज्ञान विकल्प छे. तेमांपण एम कह्युं छे के शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग छे. वीतरागी शुद्धात्माने अनुसरीने जे अनुभव थाय ए अनुभूति मोक्षमार्ग छे. एणे वस्तुने जाणी लीधी पछी विकल्प आवे तो शास्त्रो वांचे, पण एवा जीवने शास्त्र भणवानी कोई अटक नथी. आवो मार्ग छे, भाई! संप्रदायमां लोकोए अरे! भगवानना मार्गने पींखी नाख्यो छे. अरे! भगवानना विरह पडया, अने लोको बधा झघडामां पडी गया. कोई कहे के शुभरागथी धर्म थाय, तो वळी कोई कहे शुभराग करतां करतां धर्म थाय भारे विपरीतता. पण शुं थाय! सर्वज्ञता तो प्रगट थई नथी, अने सर्वज्ञस्वभावनो अनुभव नथी. अहीं कहे छे के सर्वज्ञस्वभावनो अनुभव जे शुद्धोपयोग ए जैनशासन छे, जैनधर्म छे. जैनधर्म कोई संप्रदाय नथी, ए तो वस्तुनुं स्वरूप छे.


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प्रवचनसारमां ४७ नयोमां अशुद्धनय अने शुद्धनयनी वात आवे छे. तेमां माटीने वासण-घटादिथी जुए ते अशुद्धनय छे अने माटीने एकली माटी-माटी- माटीसामान्य जुए ते शुद्धनय छे. तेम भगवान आत्माने ज्ञान, दर्शन, चारित्रनी पर्यायथी जोवो ते अशुद्धनय छे अने त्रिकाळ एकरूप चैतन्यसामान्यपणे जोवो ते शुद्धनय छे. आवा शुद्धनयना विषयभूत चैतन्यसामान्य त्रिकाळी द्रव्यनो अनुभव करवो तेने अहीं जैनशासन कहे छे. * गाथा –१पः टीका उपरनुं प्रवचन * जे आ अबद्धस्पृष्ट आदि पांचभावोस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे एटले के पांचभावस्वरूप आत्माने शुद्धोपयोगवडे देखे छे, जाणे छे, अनुभवे छे ए खरेखर समस्त जिनशासननो अनुभव छे. आ जैनमार्ग छे, मोक्षमार्ग छे. आमां कोई राग के व्यवहार तो आव्यो नहीं? भाई, व्यवहार के राग ए जैनशासन ज नथी. पूर्ण वीतरागता नथी त्यां सुधी साधकने राग आवे छे खरो, पण ए जैनधर्म नथी. जैनशासन एतो शुद्धोपयोगमय वीतरागी परिणति छे. सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयपरिणति ए शुद्धोपयोगमय वीतरागी परिणति छे. ए जैनधर्म, जैनशासन छे. श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां लीधुं छे के -आत्मपदार्थनुं वेदन-अनुभव -परिणति ए जैनशासन-जैनमत छे. हवे कहे छे के आ जैनशासन अर्थात् अनुभूति ते शुं छे? श्रुतज्ञान पोते आत्मा ज छे. भावश्रुतज्ञान-शुद्धोपयोगथी जे आत्मानो अनुभव थयो ए आत्मा ज छे. स्वरूपनी वीतराग स्वसंवेदनदशा-प्रत्यक्ष ज्ञाननी अनुभूति जे प्रगट थई ए आत्मा ज छे. रागादि जे छे ते आत्मा नथी, अनात्मा छे. धर्मीने पण अनुभूति पछी जे राग आवे छे ते अनात्मा छे. द्रव्यश्रुतमां आ कह्युं छे अने ए ज अनुभवमां आव्युं. माटे ज्ञाननी अनुभूति ते ज आत्मानी अनुभूति छे; केमके भावश्रुतमां जे त्रिकाळी वस्तु जणाई ते वीतरागस्वरूप छे अने एनी अनुभूति प्रगट थई ए पण वीतराग परिणति छे. भगवान आत्मा त्रिकाळ मुक्तस्वरूप ज छे. एनो पर्यायमां अनुभव थयो ए भावश्रुतज्ञान छे, शुद्धोपयोग छे. ए आत्मानी ज जात होवाथी आत्मा ज छे. अनुभूतिमां पूरा आत्मानो नमूनो आव्यो माटे ते आत्मा ज छे. तेथी द्रव्यनी अनुभूति कहो के ज्ञाननी अनुभूति कहो-एक ज चीज छे. ‘ज’ शब्द लीधो छे ने? एकांत लीधुं. सम्यक् एकांत छे. कथंचित् रागनी अनुभूति ए आत्मा एम छे नहीं. सर्वज्ञ-स्वभावी ‘ज्ञ’ स्वभावी आत्मा एकलो ज्ञानस्वभावी छे अने एनी अनुभूति ज्ञानस्वरूप ज छे. अहाहा! शुं भगवाननी वाणी! चैतन्यचमत्कार जागे एवी चमत्कारिक वाणी छे.


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परंतु हवे त्यां, सामान्य ज्ञानना आविर्भाव अने विशेष ज्ञानना तिरोभावथी ज्यारे ज्ञानमात्रनो अनुभव करवामां आवे त्यारे ज्ञान प्रगट अनुभववामां आवे छे. जुओ रागमिश्रित ज्ञेयाकार ज्ञान जे (पूर्वे) हतुं एनी रुचि छोडी दईने (पर्यायबुद्धि छोडीने) अने ज्ञायकनी रुचिनुं परिणमन करीने सामान्य ज्ञाननो पर्यायमां अनुभव करवो एने सामान्य ज्ञाननो आविर्भाव अने विशेष ज्ञाननो तिरोभाव कहे छे. आ पर्यायनी वात छे ज्ञाननी पर्यायमां एकला ज्ञान, ज्ञान, ज्ञाननुं वेदन थवुं अने शुभाशुभ ज्ञेयाकार ज्ञाननुं ढंकाई जवुं तेने सामान्य ज्ञाननो आविर्भाव अने विशेष ज्ञेयाकार ज्ञाननो तिरोभाव कहे छे. अने ए प्रमाणे ज्ञानमात्रनो अनुभव करवामां आवतां ज्ञान आनंद सहित पर्यायमां अनुभवमां आवे छे. अहीं ‘सामान्य ज्ञाननो आविर्भाव’ एटले त्रिकाळी भावनो आविर्भाव एम वात नथी. सामान्य ज्ञान एटले शुभाशुभ ज्ञेयाकार रहित एकला ज्ञाननुं पर्यायमां प्रगटपणुं. एकला ज्ञान, ज्ञान, ज्ञाननो अनुभव ए सामान्य ज्ञाननो आविर्भाव छे. ज्ञेयाकार सिवायनुं एकलुं प्रगट ज्ञान ते सामान्य ज्ञान छे. एनो विषय त्रिकाळी छे.

भाई! आ तो अध्यात्म कथनी छे. एक-एक शब्दमां गंभीरता भरी छे. आ तो समयसार अने तेमां पंदरमी गाथा! कुंदकुंदाचार्यनी वाणी समजवा माटे पण खूब पात्रता जोईए.

तोपण जेओ अज्ञानी छे, ज्ञेयोमां आसक्त छे तेमने ते स्वादमां आवतुं नथी. चैतन्यस्वरूप निज परमात्मानी जेमने रुचि नथी एवा अज्ञानी जीवो राग के जे परज्ञेय छे (राग ते ज्ञान नथी) तेमां आसक्त छे. व्रत, तप, दया, दान, पूजा, भक्ति एवा जे व्यवहार रत्नत्रयना परिणाम छे तेमां जेओ आसक्त छे, शुभाशुभ विकल्पोने जाणवामां जेओ रोकायेला छे एवा ज्ञेयलुब्ध जीवो्रने आत्माना अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो स्वाद आवतो नथी. शुभरागनी -पुण्यभावनी जेमने रुचि छे तेमने आत्माना आनंदनो स्वाद आवतो नथी.

आत्मानो वळी स्वाद केवो हशे? दाळ, भात, लाडु, मोसंबी वगेरेनो स्वाद तो होय छे! ए तो बधी जड वस्तु छे. जडनो स्वाद तो अज्ञानीने पण होतो नथी. पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायनी सत्ता छोडीने पदार्थ शुं बीजी सत्तामां मळी जाय छे? जड तो भिन्न चीज छे. अज्ञानीने वस्तु प्रत्ये जे राग छे तेनो स्वाद आवे छे, वस्तुनो नहीं. स्त्रीना विषयमां स्त्रीना शरीरने भोगवतो नथी, पण तेना प्रत्येना रागनुं वेदन-अनुभव करे छे. पैसा के आबरूमां कांई पैसानो के आबरूनो अनुभव आवतो नथी. तीखुं मरचुं


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मोढामां मूकतां तीखाशनो स्वाद आवतो नथी. परंतु तीखाश जाणतां आ ठीक छे एवी मान्यतानो जे राग उत्पन्न थाय छे ए रागनो अज्ञानी स्वाद ले छे. एवी रीते शरीरमां ताव आवे छे ए तावनो अनुभव आत्माने नथी, मात्र ए अठीक छे एवी अरुचि थतां दुःखनो अनुभव छे. वस्तु प्रत्ये रागमां आसक्त अज्ञानी जीवने रागनो स्वाद आवे छे, अने ते आकुळतामय छे, अधर्म छे. आत्मानो स्वाद तो अनाकुळ आनंदमय छे. बनारसीदासे लख्युं छेः- “वस्तु विचारत

ध्यावतैं, मन पावै विश्राम.
रस स्वादत सुख उपजै, अनुभौ याकौ नाम.”

वस्तु जे ज्ञायकस्वरूप तेने ज्ञानमां लई अंतरमां ध्यान करे छे तेने मनना विकल्पो-राग विश्राम पामे छे, हठी जाय छे. मन शांत थई जाय छे. त्यारे अतीन्द्रिय आनंदना रसनो स्वाद आवे छे. परिणाम अंतर्निमग्न थतां अनाकुळ सुखनो स्वाद आवे छे तेने अनुभव अर्थात् जैनशासन कहे छे. ज्ञेयमां आसक्त छे ते ईन्द्रियना विषयोमां आसक्त छे. जे पदार्थो ईन्द्रियो वडे जाणवामां आवे छे ते इन्द्रियना विषयो छे. देव, गुरु, शास्त्र, साक्षात् भगवान अने भगवाननी वाणी ए पण ईन्द्रियना विषयो छे. समयसार गाथा ३१ मां लीधुं छे के- ‘जीती ईन्द्रियो ज्ञानस्वभावे अधिक जाणे आत्मने’- पांच द्रव्येन्द्रियो, भावेन्द्रियो अने ईन्द्रियोना विषयभूत पदार्थो-त्रणेने ईन्द्रिय गणवामां आवी छे. ए त्रणेयने जीतीने एटले के तेमना तरफनो झुकाव-रुचिने छोडीने एनाथी अधिक अर्थात् भिन्न पोताना ज्ञानस्वभावने -अतीन्द्रिय भगवानने अनुभवे छे ते जैनशासन छे. पोताना स्वज्ञेयमां लीन छे एवी आ अनुभूति- शुद्धोपयोगरूप परिणति ते जैनशासन छे. आथी विरुद्ध अज्ञानीने परिपूर्ण जे स्वज्ञेय छे एनी अरुचि छे अने ईन्द्रियादिनुं खंडखंड जे ज्ञेयाकार ज्ञान छे एनी रुचि अने प्रीति छे. ते परज्ञेयोमां आसक्त छे अने तेथी तेने ज्ञाननो स्वाद न आवतां रागनो-आकुळतानो स्वाद आवे छे. रागनो स्वाद, रागनुं वेदन अनुभवमां आववुं ए जैनशासनथी विरुद्ध छे तेथी अधर्म छे. शुभक्रिया करवी अने ए करतां करतां धर्म थई जशे एवी मान्यता मिथ्याभाव छे तथा शुभाशुभ रागथी भिन्न अंतर आनंदकंद भगवान आत्माने ज्ञेय बनावी ज्ञायकना ज्ञाननुं वेदन करवुं ए जिनशासन छे, धर्म छे. आ वात द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छेः- ‘जेम अनेक तरेहनां शाक आदि भोजनोना संबंधथी उपजेल सामान्य लवणना तिरोभाव अने विशेष लवणना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं जे लवण तेनो स्वाद


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अज्ञानी शाकना लोलुप मनुष्योने आवे छे पण अन्यना संबंधरहितपणाथी उपजेल सामान्यना आविर्भाव अने विशेषना तिरोभावथी अनुभवमां आवतुं जे एकाकार अभेदरूप लवण तेनो स्वाद आवतो नथी. शुं कहे छे? दूधी, तुरियां, कारेलां आदि शाकमां तथा खीचडी, रोटला आदि पदार्थोमां मीठुं नाखवामां आवे छे. तो ते ते पदार्थोना संबंधथी मीठानो लवणनो स्वाद लेवामां आवतां सामान्य लवणनो स्वाद तिरोभूत एटले ढंकाई जाय छे, अने शाक खारुं छे एवी अनुभूति थाय छे. खरेखर खारुं तो लवण छे, शाक नहीं. तथा शाक आदि द्वारा भेदरूप लवणनो स्वाद आववो (जेमके शाक खारुं छे) ए विशेषनो आविर्भाव छे. शाकना लोलुपी-गृद्धिवाळा मनुष्योने लवण द्वारा लवणनो स्वाद एकाकार अभेदरूप लवणनो स्वाद (मीठुं खारुं छे एवो) आवतो नथी.

‘वळी परमार्थथी जोवामां आवे तो तो, जे विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं (क्षाररसरूप) लवण छे ते ज सामान्यना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं (क्षाररसरूप) लवण छे.’ परमार्थथी जोवामां आवे तो शाकना लोलुपी जीवोने विशेषनो आविर्भाव एटले के शाक द्वारा जे लवणनो स्वाद आवे छे (स्वाद तो ते तरफना लक्षवाळा रागनो छे पण आ तो समजाववा माटेनुं द्रष्टांत छे) ए खरेखर सामान्य लवणनुं ज विशेष छे, एनो ज भाव छे, शाकनुं खारापणुं (विशेष) नथी; अने ए विशेषपणुं शाक द्वारा आव्युं छे एम पण नथी. सामान्य लवणनो ज विशेष स्वाद छे. अज्ञानीने शाकना संयोगथी लवणनो ख्याल आवे छे ए विपरीत छे, केमके तेने मीठाना स्वभावनो ख्याल नथी आवतो आ द्रष्टांत थयुं.

सिद्धांतः– ‘एवी रीते अनेक प्रकारना ज्ञेयोना आकारो साथे मिश्ररूपपणाथी उपजेल सामान्यना तिरोभाव अने विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवतुं जे (विशेषभावरूप, भेदरूप अनेकाकाररूप) ज्ञान ते अज्ञानी ज्ञेयलुब्ध जीवोने स्वादमां आवे छे पण अन्य ज्ञेयाकारना संयोगरहितपणाथी उपजेल सामान्यना आविर्भाव अने विशेषना तिरोभावथी अनुभवमां आवतुं जे एकाकार अभेदरूप ज्ञान ते स्वादमां आवतुं नथी.’ शुं कहे छे? स्त्री, दीकरा, दीकरी, भगवान, भगवाननी वाणी, पुण्य, पाप, राग, ईत्यादि अनेक प्रकारना ज्ञेयो छे. आ ज्ञेयोना आकारो साथे मिश्ररूपपणाथी उत्पन्न सामान्यनो तिरोभाव-एटले एकला ज्ञानना अनुभवनुं ढंकाई जवुं तथा विशेषनो आविर्भाव एटले ज्ञेयता संबंधथी ज्ञाननुं प्रगट थवुं -आ वडे राग आदि द्वारा जे ज्ञेयमिश्रित ज्ञाननो अनुभव थाय ते अज्ञान छे, तेमां आत्मानो स्वाद आवतो नथी. राग द्वारा ज्ञाननो ज्ञेयाकार विशेष ए खरेखर तो सामान्य ज्ञाननी अवस्था छे, पण माने छे (भ्रमथी) के


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रागनी अवस्थाने लईने ज्ञान थयुं. आ मान्यता ए मिथ्यात्व छे अने दुःखनुं वेदन छे. पुण्य अने पापना विकल्प जे ज्ञेय छे ए उपर जेनी द्रष्टि छे, एमां जेने आसक्ति छे एने जे ज्ञेय द्वारा ज्ञाननो स्वाद आवे छे ए दुःखनो -आकुळतानो स्वाद छे. जेम अज्ञानी शाकना लोलुपीने शाकद्वारा लवणनो स्वाद आवे छे ते मिथ्या छे तेम आ ज्ञेयलुब्ध जीवोने दया, दान, आदि पुण्य अने क्रोध, मान आदि पापना विकल्पो जे परज्ञेय छे, आत्माथी भिन्न छे, ए द्वारा रागनी पर्याय अने ज्ञाननी पर्यायनो मिश्रित अनुभव थतां जे स्वाद आवे छे ए दुःखनो स्वाद छे, विपरीत छे, झेरनो स्वाद छे, केमके एमां आत्माना सामान्यज्ञाननो अनुभव ढंकाई गयो छे.

राग द्वारा ज्ञाननुं वेदन ए धर्म नथी. ज्ञाननुं ज्ञान द्वारा एकलुं वेदन ए धर्म छे. आ धर्म अने अधर्मनी व्याख्या छे. ज्ञेयाकार ज्ञाननो अनुभव करे तो मिथ्यात्व सहित दुःखनुं वेदन छे. आ शास्त्र-स्वाध्याय थाय छे ने, ए पण विकल्प छे. ए विकल्प द्वारा ज्ञाननो अनुभव थयो ए अधर्म छे. अज्ञानी जीवने रागमिश्रित ज्ञाननुं ढंकाई जवुं अने ज्ञानभावथी ज्ञान अनुभवमां आववुं एवा एकाकार ज्ञानना स्वादनो अनुभव आवतो नथी. अहाहा! आत्मा तो वीतराग स्वभावनो पटारो छे, वीतरागस्वरूप ज छे. एना तरफना झुकावथी एकला ज्ञाननो जे अनुभव आवे ते आत्मानो -अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनो स्वाद छे. ते धर्म छे.

‘वळी परमार्थथी विचारीए तो तो, जे ज्ञान विशेषना आविर्भावथी अनुभवमां आवे छे ते ज ज्ञान सामान्यना आविर्भावथी अनुभवमां आवे छे.’ ज्ञायक उपर जेनी द्रष्टि छे ए तो जाणे छे के आ ज्ञाननुं विशेष ज्ञान सामान्यमांथी आवे छे. ज्ञायक उपर द्रष्टि पडतां ज्ञाननी पर्यायनुं वेदन आवे छे. (रागनुं नहीं, रागथी नहीं) राग द्वारा ज्ञाननो अनुभव खरेखर तो सामान्यनुं विशेष छे, छतां अज्ञानी माने छे के ए रागनुं विशेष छे. ए द्रष्टिनो फेर छे. समयसार गाथा १७, १८ मां आवे छे के - आबालगोपाळ सर्वने राग, शरीर, वाणी, जे काळे देखाय छे ते काळे खरेखर ज्ञाननी पर्याय जाणवामां आवे छे, पण एवुं न मानतां मने आ जाणवामां आव्युं, राग जाणवामां आव्यो ए मान्यता विपरीत छे. एवी रीते ज्ञानपर्याय छे तो सामान्यनुं विशेष, पण ज्ञेय द्वारा ज्ञान थतां (ज्ञेयाकार ज्ञान थतां) अज्ञानीने भ्रम थई जाय छे के आ ज्ञेयनुं विशेष छे, ज्ञेयनुं ज्ञान छे. खरेखर जे ज्ञानपर्याय छे ते सामान्य ज्ञाननुं ज ज्ञान-विशेष छे, परज्ञेयनुं ज्ञान नथी, परज्ञेयथी पण नथी.


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‘अलुब्ध ज्ञानीओने तो जेम सैंधवनी गांगडी, अन्यद्रव्यना संयोगनो व्यवच्छेद करीने केवळ सैंधव नो ज अनुभव करवामां आवतां, सर्वतः एकक्षाररसपणाने लीधे क्षारपणे स्वादमां आवे छे तेम आत्मा पण, परद्रव्यना संयोगनो व्यवच्छेद करीने केवळ आत्मानो ज अनुभव करवामां आवतां, सर्वतः एक विज्ञानघनपणाने लीधे ज्ञानपणे स्वादमां आवे छे.’ जेम लवणना गांगडानो, अन्यद्रव्यना संयोगनो निषेध करीने केवळ लवणना गांगडानो अनुभव करवामां आवे तो सर्वत्र क्षाररसपणाने लीधे ते क्षारपणे स्वादमां आवे छे. लवणनो गांगडो सीधो लवण द्वारा स्वादमां आवे छे ए यथार्थ छे. एवी रीते अलुब्ध ज्ञानीओने एटले जेमने ईन्द्रियोना समस्त विषयो के जे परज्ञेयो छे एमनी आसक्ति-रुचि छूटी गई छे एवा ज्ञानीओने पोताना सिवाय अन्य समस्त परद्रव्य अने परभावनुं लक्ष छोडी दईने एक ज्ञायकमात्र चिद्घनस्वरूपनो अनुभव करतां, सर्वतः एकविज्ञानघनपणाने लीधे ते ज्ञानरूपे स्वादमां आवे छे. एकलुं ज्ञान सीधुं ज्ञानना स्वादमां आवे छे ए आनंदनुं वेदन छे. ए जैनशासन छे. एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने ज्ञाननी अनुभूति छे. एक बाजु स्वद्रव्य छे अने बीजी बाजु समस्त परद्रव्य छे. एक बाजु राम अने बीजी बाजु गाम. गाम एटले (परद्रव्यनो) समूह. पोताना सिवाय जेटलां परद्रव्यो छे ते गाममां जाय छे. परज्ञेयो-पंचेन्द्रियना विषयो -पछी ते साक्षात् भगवान, भगवाननी वाणी, देव, गुरु शास्त्र, अने शुभाशुभ राग ए सघळुं गाममां एटले परद्रव्यना समूहमां आवी जाय छे. एना तरफ लक्ष जतां राग ज उत्पन्न थाय छे. समोसरणमां साक्षात् भगवान बिराजमान होय. तेमनुं लक्ष करतां राग ज उत्पन्न थाय. ए अधर्म छे. ए कांई चैतन्यनी गति नथी. ए तो विपरीत गति छे. मोक्षपाहुडमां कह्युं छे के परदव्वादो दुग्गइ’ तेथी परद्रव्यथी उदासीन थई एक त्रिकाळी ज्ञायकभाव जे सर्वतः ज्ञानघन छे ते एकनो ज अनुभव करतां एकला (निर्भळ) ज्ञाननो स्वाद आवे छे. ए जैनदर्शन छे. ईन्द्रियोना विषयोमां राग द्वारा जे ज्ञाननो अनुभव (ज्ञेयाकार ज्ञान) ते आत्मानो स्वाद-अनुभव नथी, ए जैनशासन नथी. आत्मामां भेदना लक्षे जे राग उत्पन्न थाय ते रागनुं ज्ञान थाय छे एम मानवुं ए अज्ञान छे, मिथ्यादर्शन छे. एक ज्ञान द्वारा ज्ञाननुं वेदन ए ज सम्यक् छे, यथार्थ छे. अहो! समयसार विश्वनुं एक अजोड चक्षु छे. आ वाणी तो जुओ. सीधी एने आत्मा तरफ लई जाय छे. समयसार शास्त्र-वाणी ए वाचक छे अने पोतानामां रागादिरहित जे समयसार छे ए वाच्य छे. अत्यारे तो लोको बहारमां पडया छे. आ करो ने ते करो. कोई कहे


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अमे पुस्तक बनावीए छीए. पण पुस्तक बनाववानो जे विकल्प छे ए तो राग छे अने अमे पुस्तक बनावी शकीए छीए एवो भाव ए मिथ्यात्वभाव छे. जडने कोण बनावे? ‘क’ एवो एक अक्षर अनंत परमाणुओनो बनेलो छे. आत्मा एने करी के लखी शके ए त्रणकाळमां बनतुं नथी. अनंत द्रव्य अनंतपणे रहीने-एक एक परमाणु अने अन्य द्रव्य पोतानी अवस्थाने स्वकाळे पृथक्पणे करे छे. ‘णमो अरिहंताणं’ ए तो शब्द छे. अंदर नमन करवानो जे विकल्प उत्पन्न थाय ते राग छे. ते राग द्वारा ज्ञाननो अनुभव ए आत्मानो स्वाद नथी.

परमात्म प्रकाशमां लीधुं छे के आ जीव अनंतवार महाविदेहक्षेत्रमां जन्म्यो छे. त्यां तीर्थंकरदेव नित्य बिराजे छे, तीर्थंकरनो विरह नथी. तो त्यां समोसरणमां पण अनंतवार गयो छे. सम्यग्ज्ञानदीपिकामां लख्युं छे के जीवे पूर्वे अनंतवार प्रत्यक्ष समोसरणमां केवली भगवाननी हीराना थाळ, मणिरत्नना दीवा अने कल्पवृक्षनां पुष्पादिकथी पूजा करी छे तथा दिव्यध्वनि सांभळी छे. परमात्मप्रकाशमां पण ‘भवे भवे पूजियो’ एवो पाठ छे. पण आ तो बधो शुभराग छे. एथी धर्म मानी अनंतकाळथी रखडे छे. जगतने आ बेसवुं आकरुं छे. पण भाई! आत्माना भान विना हजारो स्त्रीओ, अने राजपाट छोडी नग्न दिगंबर साधु थयो होय तोपण दुःखी ज छे; पंचमहाव्रतना परिणाम ए सुख नथी, दुःख ज छे. समयसार नाटकमां मोक्षअधिकारमां ४० मा छंदमां त्यांसुधी लीधुं छे के भावलिंगी मुनिराजने छठ्ठे गुणस्थाने जे पंचमहाव्रतादिना विकल्प उत्पन्न थाय छे ए ‘जगपंथ’ छे. मिथ्याद्रष्टिनी तो वात ज शी करवी? त्यां तो त्यांसुधी लीधुं छे के साचा मुनिराजने पण जे वारंवार विकल्प उत्पन्न थाय छे ए अंतर-अनुभवमां शिथिलता छे, ढीलाश छे. अहीं कहे छे रागथी भिन्न भगवान ज्ञायकस्वरूप आत्मामां झुकाव थतां जे सीधुं ज्ञान ज्ञान द्वारा अनुभवमां आवे छे ते आत्मानो स्वाद छे, ते जिनशासन छे, आत्मानुभूति छे.

* गाथा –१पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

अहीं आत्मानी अनुभूतिने ज ज्ञाननी अनुभूति कही छे. अज्ञानीजन स्वज्ञेयने छोडीने अनंत परज्ञेयोमां ज अर्थात् आत्माना अतीन्द्रिय ज्ञानने छोडीने ईन्द्रियज्ञानमां ज लुब्ध थई रह्या छे. निज चैतन्यघनस्वरूप आत्मानो अनुभव नथी एवो अज्ञानी परवस्तु-परज्ञेयोमां लुब्ध छे. तेनी द्रष्टि अने रुचि रागादि पर छे. ते ईन्द्रियज्ञानना विषयोथी अने रागादिथी अनेकाकार थयेल ज्ञानने ज पोतापणे आस्वादे छे; ए मिथ्यात्व छे. देव-गुरु


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शास्त्र परद्रव्य छे. एनी श्रद्धानो विकल्प राग छे. ए राग मिथ्यात्व नथी, परंतु ए रागथी अनेकाकार-परज्ञेयाकार थयेलुं जे ज्ञान तेने पोतापणे मानवुं ए मिथ्यात्व छे. राग मिथ्यात्व नथी पण एने धर्म मानवो ए मिथ्यात्व छे. अज्ञानी दया, दान, व्रत, भक्ति आदि रागना ज्ञानने ज ज्ञेयमात्र आस्वादे छे. जेने ज्ञेयाकार ज्ञाननी द्रष्टि अने रुचि छे एने ज्ञेयोथी भिन्न ज्ञानमात्रनो आस्वाद होतो नथी. तेने अंतर्मुखद्रष्टिना अभावे रागनो-आकुळतानो ज स्वाद आवे छे.

तथा जेओ ज्ञानी छे, जेमने महाव्रतादिना रागना परिणाममां लीनता अने रुचि नथी तेओ ज्ञेयोथी भिन्न एकाकार ज्ञाननो ज आस्वाद ले छे. ते निराकुळ अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद छे. ज्ञानी ज्ञेयोमां आसक्त नथी. राग के निमित्त कोईमां एकाकार नथी. साक्षात् भगवान बिराजमान होय तोपण तेमां धर्मीने आसक्ति के एकताबुद्धि नथी. धर्मीने व्यवहाररत्नत्रयनो राग, महाव्रतादि पालननो राग होय परंतु ते एनाथी भिन्न निज चैतन्यस्वरूप जे आत्मा एने ज्ञेय बनावीने ते ज्ञानमात्र एकाकार ज्ञाननो आस्वाद करे छे. ए अनाकुळ आनंदनो स्वाद छे, ए धर्म छे. जेम शाकोथी जुदी मीठानी कणीनो क्षारमात्र स्वाद आवे तेम ज्ञानीने परज्ञेयो अने शुभाशुभभावथी भिन्न एक निज ज्ञायकमात्रना ज्ञाननो ज्ञानमात्र स्वाद आवे छे. एने निश्चय सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कहे छे. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, माटे ज्ञाननो स्वाद छे ए आत्मानो ज स्वाद छे.

ज्ञान छे ते आत्मा छे अने आत्मा छे ते ज्ञान छे. आ प्रमाणे ज्ञान ते गुण अने आत्मा गुणी एवा बेनी अभेदद्रष्टिमां आवतुं सर्व परद्रव्योथी रहित अबद्धस्पृष्ट, पोतानी पर्यायोमां एकरूप, निश्चळ अर्थात् वृद्धिहानिथी रहित, पोताना गुणोमां एकरूप अभेद तथा परनिमित्तना लक्षे उत्पन्न थयेल पुण्य-पाप, सुख-दुःखनी कल्पनाथी रहित जे निज स्वरूप तेनो अनुभव ए ज्ञाननो अनुभव छे अने ए सम्यग्ज्ञान छे, जैनधर्म छे. जैनशास्त्रो वांचे, सांभळे अने एनी धारणा करी राखे ए कांई सम्यग्ज्ञान नथी. जिनवाणी तो बाजु पर रही, अहीं तो जिनवाणी सांभळतां जे ज्ञान (विकल्प) अंदर थाय छे ए सम्यग्ज्ञान छे एम नथी. द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान ए तो विकल्प छे. परंतु अंदर भगवान चिदानंद रसकंद छे एने द्रष्टिमां लई एक एनुं ज्ञानमात्रनुं अनुभवन करवुं ए भावश्रुतज्ञान छे, ए सम्यग्ज्ञान छे, जैनशासन छे. निज स्वरूपनुं अनुभवन ते आत्मज्ञान छे. शुद्धज्ञानरूप स्वसंवेदन, ज्ञाननुं (त्रिकाळीनुं) स्वसंवेदन अनुभवन ए भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासननुं अनुभवन छे. शुद्धनयथी आमां कांई भेद नथी. अहीं त्रण वात आवी. एक तो परद्रव्य अने पर्यायथी पण भिन्न जे अखंड एक शुद्ध त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव एनुं अनुभवन


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भावश्रुतज्ञान ए ज शुद्धनय छे. शुद्धनयनो विषय जे द्रव्यसामान्य छे एनो अनुभव एने ज शुद्धनय कहे छे. अने एज जैनशासन छे. त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकमात्रनो वर्तमानमां भावश्रुतज्ञानरूप अनुभव ए जैनशासन छे केमके भावश्रुतज्ञान ए वीतरागी ज्ञान छे, वीतरागी पर्याय छे.

आत्माना अनुभव विना जीव अनंतकाळथी जन्ममरण करीने-नरक-निगोदनां अनंतानंत दुःखोने प्राप्त थयो छे. देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा के नवतत्त्वोनी भेदरूप श्रद्धा ए कांई सम्यक्त्व नथी. कळश टीकाना छठ्ठा कळशमां आवे छे के- संसार दशामां जीवद्रव्य नवतत्त्वरूपे परिणम्यो छे ते तो विभावपरिणति छे, माटे नवतत्त्वरूप वस्तुनो अनुभव मिथ्यात्व छे. ए भेदोमांथी एकरूप ज्ञायकभावने- अबद्धस्पृष्ट आत्माने ग्रहण करी अनुभव करवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. नवतत्त्वमांथी एकलो सामान्य ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान एवो आत्मा बहार काढी लेवो अने ते एकने अनुभववो ते सम्यग्दर्शन मूळ चीज छे. जेम आंबलीना झाडनां पान उपरउपरथी तोडी ले पण मूळ साबूत रहे तो ते झाड थोडा दिवसोमां फरीथी पांगरे; तेम उपरउपरथी राग मंद करे पण मूळ मिथ्यात्व-पर्यायबुद्धि साबूत रहे तो फरीथी राग पांगरे ज. तेथी तो प्रवचनसार गाथा ९३मां कह्युं छे के जेने परथी भिन्न एकरूप ज्ञायकभावनी द्रष्टि नथी अने एक समयनी पर्यायमां रागने ज पोतानो मानी रोकाई गयो छे ए पर्यायद्रष्टि मूढ छे.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश १४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

आचार्य कहे छे के- ‘परमम् महः नः अस्तु’ ज्ञान- प्रकाशनो पुंज उत्कृष्ट तेज प्रकाश अमने प्राप्त थाओ. बीजी कोई चीज अमारे जोईती नथी. व्यवहाररत्नत्रयनो राग अमारे जोईतो नथी. ए राग तो अंधकारमय छे. अमने तो ए अंधकारथी भिन्न चैतन्यप्रकाश प्राप्त हो. ‘यत् सकलकालम् चिद–उच्छलन–निर्भरं’ जे तेज सदाकाळ चैतन्यना परिणमनथी भरेलुं छे. सूर्य जेम जड प्रकाशनो पुंज छे तेम आत्मा चैतन्यप्रकाशनो पुंज छे, चैतन्य प्रकाशमय तेजथी भरेलो छे. बहारनुं आचार्यपद के बीजी के कोई चीजनी मागणी करी नथी, पण अंदरमां जे चैतन्यसूर्य प्रकाशपुंज छे ते पर्यायमां प्राप्त हो एवी ज एक भावना प्रगट करी छे.

चक्रवर्ती छ खंड साधवा जाय छे त्यां वचमां वैताढय पर्वत आवे छे. एमां गुफा आवे छे जेमां खूब ज अंधारुं होय छे. तथा मंगला अने अमंगला नामनी बे नदी आवे छे. अमंगलानो प्रवाह एवो के कोई चीज पडे तो नीचे लई जाय अने मंगलानो


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प्रवाह एवो छे के कोई चीज पडे तो बहार काढे. गुफामां बहु ज अंधारुं होय छे.
चक्रवर्ती पासे एक मणिरत्न होय छे. एने घसवाथी सूर्य जेवो प्रकाश थाय छे. आ
प्रकाशमां आखुं लश्कर त्यांथी पसार थई जाय छे. एम अहीं कहे छे के अमोने जे
चैतन्यमणिरत्न छे तेमां एकाग्रतारूप घसारो करवाथी पर्याये पर्याये ज्ञानप्रकाश प्रगट
थाय छे. ए प्रकाशमां अमे मोक्षमार्गमां चाल्या जईए छीए. आचार्यदेव निज
चैतन्यचिंतामणिरत्नमां एकाग्रताथी प्राप्त ज्ञानप्रकाशनी ज भावना करे छे, बीजुं कांई
ईच्छता नथी.
हवे कहे छे के जेवी रीते ‘उल्लसत् लवण–खिल्य लिलायितम्’ मीठानी
कांकरी एक क्षाररसनी लीलानुं आलंबन करे छे अर्थात् एकला क्षाररसना स्वभावथी
भरेली छे, तेवी रीते
‘यदेकरसम् आलम्बते’ अमारो आ आत्मा एकला ज्ञानरसथी
पूर्ण भरेलो छे. वळी ‘अखण्डितम्’ ते तेज अखंडित छे एटले रागादि ज्ञेयोना
आकारे खंडित थतुं नथी तथा ‘अनाकुलम्’ अनाकुळ छे. एमां कर्मोना निमित्तथी
उत्पन्न थता रागादिजनित आकुळता नथी. ए त्रिकाळ, अखंड, ज्ञानरूप अने अनाकुळ
आनंदस्वरूप छे.
‘ज्वलदनन्तम् अंतर्बहिः वळी ते अविनाशीपणे अंतरंगमां अने
बहारमां प्रगट देदीप्यमान छे. अंतरंग शक्तिमां ज्ञाननुं चैतन्यनुं-तेज परिपूर्ण भरेलुं
छे अने तेमां एकाग्र थतां पर्यायमां पण ज्ञानतेज प्रगट थाय छे.
सहजं ते
स्वभावथी थयुं छे. आत्माना ज्ञानस्वरूपने कोईए उपजाव्युं, रच्युं के बनाव्युं छे एम
नथी, सहज ज छे.
उद्विलासम् सदा अने हमेशां एनो विलास उदयरूप छे.
ज्ञानप्रकाश सदाय उदयरूप रहे छे. वस्तु सदाय उदयरूप छे अने जे ज्ञानप्रकाशनो
पर्यायमां उदय थाय ते पण सदाय रहे छे. त्रिकाळी चीज एकरूप प्रतिभासमान छे.
तेना आश्रये पर्यायमां अनेकतानो नाश थई एकरूपनो अनुभव थाय छे.
* कळश १४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *
आचार्य भगवाने प्रार्थना करी छे के आ ज्ञानानंदमय एकाकारस्वरूप ज्योति
अमोने सदा प्राप्त रहो. भगवान आत्मा स्वरूपथी ज ज्ञानानंदमय छे, अभेद
एकाकारस्वरूप छे. अखंड अनाकुळस्वरूप भगवान आत्मानो आश्रय लईने जे
अनुभवनी दशा प्रगट थाय ए-जेम वस्तु अविनाशी छे तेम-अविनाशी छे. एनो
पण (एक अपेक्षाए) नाश थतो नथी. अष्टपाहुडना चारित्रपाहुडनी चोथी गाथामां
सम्यग्दर्शन -ज्ञानचारित्रना परिणामने पण ‘अक्षय-अमेय’ कह्या छे. वस्तु जेवी
अक्षय-अमेय छे तेवी आ पर्याय पण अक्षय-अमेय छे. भाई! अध्यात्म सूक्ष्म छे.
एनो एकेक शब्द मंत्र छे. जेम कोईने

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सर्पनुं झेर चढयुं होय तो कलमने मंतरीने नाखे एटले सर्प एना दरमांथी बहार
नीकळीने आवे अने झेर चूसी ले छे, तेम भगवान ज्ञानस्वरूप परमात्मामां एकाकार
थई अनुभव करतां अंदरमां ज्ञानपर्याय प्रगट थाय छे ते कलम (मंत्र) छे ते कलम
मोह-राग-द्वेषरूपी झेरनो नाश करी अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंद बहार काढे छे.
* समयसार प्रवचन भाग–१ समाप्त *

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प्रवचन रत्नाकर
[भाग-२]
परम पुज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामीनां
श्री समयसार परमागम उपर अढारमी वखत थयेलां
प्रवचनो
ः प्रकाशकः
श्र कुंदकुंद कहान परमागम ट्रस्ट
मुंबइ

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क्रम गाथा/कळश प्रवचन नंबर पृष्ठांक १ कळश-१प प४ थी प७ २ गाथा-१६ पप थी प७ ३ कळश-१६ थी १८ पप थी प७ ४ कळश-१९ पप थी प७ प गाथा-१७-१८ प८ थी ६१ २४ ६ कळश-२० प८ थी ६१ २प ७ गाथा-१९ ६१-६२ ४९ ८ कळश-२१ ६१-६२ प० ९ गाथा-२० थी २२ ६२ थी ६४ ६१ १० कळश-२२ ६२ थी ६४ ६३ ११ गाथा-२३ थी २प ६४ थी ६७ ७७ १२ कळश-२३ ६४ थी ६७ ७९ १३ गाथा-२६ ६७-६८ १०० १४ कळश-२४ ६७-६८ १०० १प गाथा-२७ ६८ १०प १६ गाथा-२८ ६८ ११२ १७ गाथा-२९ ६९ ११प १८ गाथा-३० ६९ ११७ १९ कळश-२प ६९ ११७ २० कळश-२६ ६९ ११८ २१ गाथा-३१ ७० थी ७२ १२०