Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Poorvarang; Kalash: 15 ; Gatha: 16.

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प्रवचन नंबर पृष्ठांक

२२ गाथा-३२ ७२ थी ७४ १३२ २३ गाथा-३३ ७४ थी ७६ १४३ २४ कळश-२७-२८ ७४ थी ७६ १४४ २प गाथा-३४ ७७-७८ १प९ २६ गाथा-३प ७९ थी ८१ १६९ २७ कळश-२९ ७९ थी ८१ १७० २८ गाथा-३६ ८१ थी ८२ १८८ २९ कळश-३० ८१ थी ८२ १८९ ३० गाथा-३७ ८३-८४ १९९ ३१ कळश-३१ ८३-८४ २०० ३२ गाथा-३८ ८४ थी ८७ २१२ ३३ कळश-३२ ८४ थी ८७ २१३

* * *


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परमात्मने नमः।
श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत
श्री
समयसार
उपर
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां प्रवचनो
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिः।
जीव–अजीव अधिकार

हवे, आगळनी गाथानी सूचनारूपे श्लोक कहे छेः-

(अनुष्टुभ्)
एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः।
साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम्।। १५ ।।

श्लोकार्थः– [एषः ज्ञानघनः आत्मा] आ (पूर्वकथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते, [सिद्धिम् अभीप्सुभिः] स्वरूपनी प्राप्तिना ईच्छक पुरुषोए [साध्यसाधकभावेन] साध्यसाधकभावना भेदथी [द्विधा] बे प्रकारे, [एकः] एक ज [नित्यम् समुपास्यताम्] नित्य सेववायोग्य छे; तेनुं सेवन करो.

भावार्थः– आत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ज छे परंतु एनुं पूर्णरूप साध्यभाव छे अने अपूर्णरूप साधकभाव छे; एवा भावभेदथी बे प्रकारे एकने ज सेववो. १प.


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हवे आगळनी गाथानी सूचनारूपे श्लोक कहे छे. गाथा १४ मां सम्यग्दर्शननी वात हती, गाथा १प मां सम्यग्ज्ञाननी वात करी, अने गाथा १६ मां दर्शन-ज्ञान- चारित्र त्रणेय ले छे. आ कळश १६ नो उपोद्घात छे.

* कळश १पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एषः ज्ञानघनः आत्मा’ आ (पूर्वकथित) ज्ञानघनस्वरूप आत्मा छे. जेम पहेलां ‘घी’ एवां आवतां के शियाळाना दिवसोमां अंदर आंगळी तो प्रवेश न पामे परंतु तावेथो पण वळी जाय. (प्रवेश पामे नहि). एम भगवान आत्मा अंदरमां ज्ञानघन छे. तेमां शरीर, वाणी के कर्म तो प्रवेशी शक्तां नथी परंतु दया, दान आदिना विकल्पो के वर्तमान पर्याय पण एमां प्रवेश पामती नथी. एवा ज्ञानघनस्वरूप आत्माने ‘सिद्धिम् अभीप्सुभिः’ स्वरूपनी प्राप्तिना इच्छक पुरुषोए ‘साध्यसाधक भावेन् द्विधा’ साध्य- साधक भावना भेदथी बे प्रकारे, ‘एकः नित्यम् समुपास्यताम्’ एक ज नित्य सेववा योग्य छे; तेनुं सेवन करो. शुं कह्युं? ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मानी पूर्ण सिद्ध पर्याय ए साध्य छे अने वर्तमानमां स्वभावनी प्रतीति, ज्ञान अने रमणता ए साधक छे. ज्ञायकभावना (आत्मद्रव्यना) बे भेदज्ञाननी पूर्णतानो भाव ए साध्य अने अपूर्ण सम्यग्ज्ञानरूप परिणति ए साधक. वचमां दया, दान, आदि विकल्पो थाय ए कांई साधक नथी, तथा एनाथी मुक्ति पण प्राप्त थती नथी. आ रीते साध्य-साधक भावना भेदथी बे प्रकारे एक ज आत्मा नित्य सेवन करवा योग्य छे. प्रकाशनो पुंज ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा पोते ज साधक भावरूप थईने पोते ज साध्य थाय छे, वचमां कोई रागादिनी-व्यवहाररत्नत्रयना परिणामनी एने मदद नथी.

ज्ञानीनी वात सांभळीने केटलाक अज्ञानी लोको पण हवे एम कहेवा लाग्या छे के अमोने अहीं पण आत्माना लक्षे उपवासादि थाय छे. परंतु जेओ कुदेव-कुगुरु- कुशास्त्रने माने छे के जे मिथ्यात्व छे अर्थात् ज्यां सम्यग्दर्शननां ठेकाणां पण नथी त्यां आत्मानुं लक्ष कयांथी होय? जेने ज्ञान अने दर्शन पूर्ण प्राप्त थई गयां छे एवा अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा देव छे. ते सर्व दोषोथी रहित वीतराग छे. एना शरीरनी दशा एवी छे के तेमने क्षुधा, तृषा के रोग आदि दोष होता नथी. तथा साचा निर्ग्रंथ गुरु एने कहे छे के जे महाव्रतादिना विकल्पथी भिन्न पडीने त्रण कषायना अभावपूर्वक सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित चारित्रनी रमणतामां झूले छे. आवुं यथार्थ जाण्या विना भगवानने रोग आदि थाय छे एम माने तथा ज्यां साचा देव-गुरु-शास्त्रनी पण खबर नथी एने आत्माना लक्षे कोई वात (साधना) होई शके नहीं. झीणी वात छे, भाई! आ तो जन्म-मरणनो अंत करवानी वात छे.

अहीं कहे छे के आत्मा चैतन्यघन पिंड छे. एनी निर्विकल्प श्रद्धा, स्वसंवेदन


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ज्ञान अने एमां स्थिरतारूप वीतरागी चारित्र ए साधकभावे आत्मा पोते परिणमे छे अने ए त्रणेनी पूर्णतारूप जे साध्यभाव ते-रूपे पण पोते ज परिणमे छे. आ रीते बे प्रकारे पण एक ज आत्मा सदा सेववा योग्य छे, बीजुं नहीं. साधकभाव अने साध्यभाव ए बन्नेमां एकलो आत्मा ज ज्ञानरूपे परिणमे छे. वचमां जे व्यवहार- रत्नत्रय आवे छे एनुं सेवन करवुं अथवा व्यवहाररत्नत्रय सहाय करे छे एम नथी.

* कळश १पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

आत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ज छे, परंतु एनुं पूर्णरूप ते साध्यभाव छे अने अपूर्णरूप ते साधकभाव छे. शुं कह्युं? शुद्ध चैतन्य ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा साधकभावमां अने साध्यभावमां पोते ज परिणमे छे. साध्य-साधकभावना भावभेदे बे प्रकारे एकनुं सेवन करवुं. आगळ गाथामां पछी कहेशे के दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पर्यायथी अमे समजावीए छीए, परंतु सेवन एकनुं ज (आत्मानुं) करवुं.


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गाथा–१६

दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।। १६ ।।

दर्शनज्ञानचरिक्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यम्।
तानि पुनर्जानीहि क्रीण्यप्यात्मानं चैव निश्चयतः।। १६ ।।

हवे, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप साधकभाव छे एम गाथामां कहे छेः-

दर्शन, वळी नित्य ज्ञान ने चारित्र साधु सेववां;
पण ए त्रणे आत्मा ज केवळ जाण निश्चयद्रष्टिमां. १६.

गाथार्थः– [साधुना] साधु पुरुषे [दर्शनज्ञानचरिक्राणि] दर्शन, ज्ञान अने चारित्र [नित्यम्] सदा [सेवितव्यानि] सेववायोग्य छे; [पुनः] वळी [तानि क्रीणि अपि] ते त्रणेने [निश्चयतः] निश्चयनयथी [आत्मानं च एव] एक आत्मा ज [जानीहि] जाणो.

टीकाः– आ आत्मा जे भावथी साध्य तथा साधन थाय ते भावथी ज नित्य सेववायोग्य छे एम पोते इरादो राखीने बीजाओने व्यवहारथी प्रतिपादन करे छे के ‘साधु पुरुषे दर्शन, ज्ञान, चारित्र सदा सेववायोग्य छे’. पण परमार्थथी जोवामां आवे तो ए त्रणेय एक आत्मा ज छे कारण के तेओ अन्य वस्तु नथी-आत्माना ज पर्यायो छे. जेम कोई देवदत्त नामना पुरुषनां ज्ञान, श्रद्धान अने आचरण, देवदत्तना स्वभावने उल्लंघतां नहि होवाथी, (तेओ) देवदत्त ज छे-अन्य वस्तु नथी, तेम आत्मामां पण आत्मानां ज्ञान, श्रद्धान अने आचरण, आत्माना स्वभावने उल्लंघतां नहि होवाथी, (तेओ) आत्मा ज छे-अन्य वस्तु नथी. माटे एम स्वयमेव सिद्ध थाय छे के एक आत्मा ज सेवन करवा योग्य छे.

भावार्थः– दर्शन, ज्ञान, चारित्र-त्रणे आत्माना ज पर्यायो छे, कोई जुदी वस्तु नथी; तेथी साधु पुरुषोए एक आत्मानुंज सेवन करवुं ए निश्चय छे अने व्यवहारथी अन्यने पण ए ज उपदेश करवो.


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(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम्।
मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः।। १६।।
(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः।
एकोऽपि क्रिस्वभावत्वाद्वयवहारेण मेचकः।। १७ ।।
(अनुष्टुभ्)
परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः।
सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः।। १८ ।।

__________________________________________________

हवे, ए ज अर्थनो कलशरूप श्लोक कहे छेः-

श्लोकार्थः– [प्रमाणतः] प्रमाणद्रष्टिथी जोईए तो [आत्मा] आ आत्मा [समम् मेचकः अमेचकः च अपि] एकीसाथे अनेक अवस्थारूप (‘मेचक’) पण छे अने एक अवस्थारूप (‘अमेचक’) पण छे, [दर्शन–ज्ञान–चारित्रैः क्रित्वात्] कारण के एने दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी तो त्रणपणुं छे अने [स्वयम् एकत्वतः] पोताथी पोताने एकपणुं छे.

भावार्थः– प्रमाणद्रष्टिमां त्रिकाळस्वरूप वस्तु द्रव्यपर्यायरूप जोवामां आवे छे, तेथी आत्मा पण एकीसाथे एकानेकस्वरूप देखवो. १६. हवे नियविवक्षा कहे छेः- श्लोकार्थः– [एकः अपि] आत्मा एक छे तोपण [व्यवहारेण] व्यवहार- द्रष्टिथी जोईए तो [क्रिस्वभावत्वात्] त्रण-स्वभावपणाने लीधे [मेचकः] अनेकाकाररूप (‘मेचक’) छे, [दर्शन–ज्ञान–चारित्रैः क्रिभिः परिणतत्वतः] कारण के दर्शन, ज्ञान अने चारित्र-ए त्रण भावे परिणमे छे.

भावार्थः– शुद्धद्रव्यार्थिक नये आत्मा एक छे; आ नयने प्रधान करी कहेवामां आवे त्यारे पर्यायार्थिक नय गौण थयो तेथी एकने त्रणरूप परिणमतो कहेवो ते व्यवहार थयो, असत्यार्थ पण थयो. एम व्यवहारनये आत्माने दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणामोने लीधे ‘मेचक’ कहृाो छे. १७.

हवे परमार्थनयथी कहे छेः-

श्लोकार्थः– [परमार्थेन तु] शुद्ध निश्चयनयथी जोवामां आवे तो [व्यक्तज्ञातृत्व–ज्योतिषा] प्रगट ज्ञायक्ताज्योतिमात्रथी [एककः] आत्मा एकस्वरूप छे [सर्व–भावान्तर–


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(अनुष्टुभ्)
आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः।
दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा।। १९ ।।

__________________________________________________ ध्वंसि–स्वभावत्वात्] कारण के शुद्धद्रव्यार्थिक नयथी सर्व अन्यद्रव्यना स्वभावो तथा अन्यना निमित्तथी थता विभावोने दूर करवारूप तेनो स्वभाव छे, [अमेचकः] तेथी ते ‘अमेचक’ छे-शुद्ध एकाकार छे.

भावार्थः– भेदद्रष्टिने गौण करी अभेदद्रष्टिथी जोवामां आवे तो आत्मा एकाकार ज छे, ते ज अमेचक छे. १८.

आत्माने प्रमाण-नयथी मेचक, अमेचक कहृाो, ते चिंताने मटाडी जेम साध्यनी सिद्धि थाय तेम करवुं एम हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [आत्मनः] आ आत्मा [मेचक–अमेचकत्वयोः] मेचक छे-भेदरूप अनेकाकार छे तथा अमेचक छे-अभेदरूप एकाकार छे [चिन्तया एव अलं] एवी चिंताथी तो बस थाओ. [साध्यसिद्धिः] साध्य आत्मानी सिद्धि तो [दर्शन–ज्ञान– चारित्रैः] दर्शन, ज्ञान ने चारित्र-ए त्रण भावोथी ज छे, [न च अन्यथा] बीजी रीते नथी (ए नियम छे).

भावार्थः– आत्माना शुद्ध स्वभावनी साक्षात् प्राप्ति अथवा सर्वथा मोक्ष ते साध्य छे. आत्मा मेचक छे के अमेचक छे एवा विचारो ज मात्र कर्या करवाथी ते साध्य सिद्ध थतुं नथी; परंतु दर्शन अर्थात् शुद्ध स्वभावनुं अवलोकन, ज्ञान अर्थात् शुद्ध स्वभावनुं प्रत्यक्ष जाणपणुं अने चारित्र अर्थात् शुद्ध स्वभावमां स्थिरता-तेमनाथी ज साध्यनी सिद्धि थाय छे. आ ज मोक्षमार्ग छे, ते सिवाय बीजो कोई मोक्षमार्ग नथी.

व्यवहारी लोको पर्यायमां-भेदमां समजे छे तेथी अहीं ज्ञान, दर्शन, चारित्रना भेदथी समजाव्युं छे. १९.

* समयसारः गाथा १६ः उपोद्घात *

१४ मी गाथामां सम्यग्दर्शननो अधिकार अने १प मी गाथामां सम्यग्ज्ञाननो अधिकार कह्यो. हवे अहीं गाथा १६ मां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप साधकभावनी वात करे छेः-

* गाथा १६ः गाथार्थ उपरनुं प्रवचन *
साधुना साधु पुरुषे दर्शन–ज्ञानचारित्राणि दर्शन, ज्ञान अने चारित्र ‘नित्यम्’

सदा


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‘सेवितव्यानि’ सेववा योग्य छे. जुओ, साधु कोने कहीए? के जे दर्शन, ज्ञान, चारित्रनुं सेवन करे ते साधु छे. आ दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए निश्चयरत्नत्रयनी वात छे. अखंड, अभेद, एकरूप जे त्रिकाळी ज्ञायकभाव एनी द्रष्टि ए निर्विकल्प सम्यग्दर्शन, एनुं स्वसंवेदनज्ञान ए सम्यग्ज्ञान अने एमां रमणता-लीनता-आचरणरूप अनुष्ठान ए सम्यक्चारित्र. आ निश्चयरत्नत्रयनुं सेवन करे ते साधु छे. पांच महाव्रत के व्यवहार- रत्नत्रयना विकल्प ए कांई निश्चयचारित्र नथी, निश्चयधर्म नथी. ए तो राग छे, विकार छे अने तेथी सेववा योग्य नथी. आ तो वीतरागमार्गनुं कथन छे. भाई! अंतःतत्त्वस्वरूप जे शुद्धचैतन्यघन एनां श्रद्धा-ज्ञान अने शांतिरूप जे निर्विकल्प वीतरागी पर्याय एनुं सेवन करवा योग्य छे एम व्यवहारथी कथन छे. भगवान ज्ञायकस्वभाव एकलो छे. ए ज्ञायकस्वभाव एकनुं सेवन करवुं ए निश्चय छे, परमार्थ छे, वास्तविक छे. तथा उपदेशमां भेद पाडीने दर्शन, ज्ञान अने चारित्र सदा सेववा योग्य छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे. एकरूप आत्मामां दर्शन, ज्ञान अने चारित्र एम त्रण प्रकार कहेवा ए व्यवहार छे.

हवे कहे छे-वळी ‘तानि त्रीणि अपि’ ते त्रणेने ‘निश्चयतः’ निश्चयनयथी ‘आत्मानं च एव’ एक आत्मा ज ‘जानीहि’ जाणो. अखंड अभेद एकरूप जे ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा ते एकनुं सेवन करतां तेमां ए त्रणेय पर्यायो आवी जाय छे. पण त्रण पर्यायनुं लक्ष करवुं ए व्यवहारनय छे. दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो निश्चय छे (निश्चयरत्नत्रय छे), पण अखंड एक निश्चय स्वभावनी अपेक्षाए ए त्रणेय पर्याय छे अने तेथी व्यवहार छे, मलिन छे. झीणी वात, भाई! पण अलौकिक वात छे. शुं कहे छे? ए त्रणेने निश्चयनयथी एक आत्मा ज जाणो. अंतर ज्ञायकभावनी एकाग्रता थवाथी ए त्रणेय निर्मळ पर्यायो थई जाय छे परंतु ए पर्यायोनुं लक्ष करी तेमनो आश्रय करवा योग्य नथी. अहाहा! ए निश्चय मोक्षमार्गनी पर्याय आश्रय करवा लायक नथी. ए त्रण छे माटे व्यवहार छे. आ निश्चय (मोक्षमार्ग) पण व्यवहार छे. गजब वात! भगवान! आ मार्ग तो अत्यारे गायब (गूम) थई गयो. मोक्षमार्गथी विरुद्ध बहारनी बधी कडाकूट थई गई छे. अहीं तो भगवान कुंदकुंदाचार्य कहे छे-ए त्रणेयने निश्चयथी एक आत्मा ज जाणो. ल्यो, आ अंदरमां एवो आत्मा बिराजमान छे.

* गाथा १६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

“आ आत्मा जे भावथी साध्य तथा साधन थाय ते भावथी ज नित्य सेववा योग्य छे.” अहीं एम कहे छे के आ आत्मा जे भावथी साध्य एटले मोक्ष तथा साधन एटले मोक्षमार्गनी पर्याय थाय ते भावथी सेववा योग्य छे. निश्चयमोक्षमार्गनी पर्याय ए साधन छे, पण व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प ते साधन नथी. अहीं अस्तिथी कथन कर्युं एमां नास्ति आवी गई. आ आत्माने (जे भावथी) पोतानो आश्रय करवाथी पूर्ण


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साध्य (मोक्ष) प्रगट थाय छे तथा जे भावथी पोतानो आश्रय करवाथी वर्तमान साधकभाव (मोक्षमार्ग) उत्पन्न थाय छे, ते भावथी एक आत्मा ज नित्य सेववा योग्य छे. झीणी वात, भाई! पण अनंतकाळथी पोतानी जे अखंड अभेद चीज छे एनी द्रष्टि कयारेय करी ज नथी ने शास्त्र सघळां भणे पण अंतर्द्रष्टि न करे तो तेथी शुं?

शुं कहे छे? आ आत्मा जे भावथी साध्य नाम मोक्ष अने साधन नाम मोक्षोपाय थाय ते भावथी ज नित्य सेववा योग्य छे एम पोते ईरादो राखीने बीजाओने व्यवहारथी प्रतिपादन करे छे के-“साधु पुरुषे दर्शन, ज्ञान, चारित्र सदा सेववा योग्य छे.” सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणे पर्याय छे तेथी व्यवहार छे. एक आत्मा जे ज्ञायकभाव पूर्णानंदस्वरूप एकस्वभावी छे एनी सेवा करवी ए निश्चय छे, परमार्थ छे. पहेलां पण एम कह्युं के-‘आत्मा सेववो’; परंतु एवा अभेद कथनथी व्यवहारीजन समजी शक्तो नथी तेथी तेने ज्ञान-दर्शन-चारित्रना भेद पाडीने व्यवहारथी समजाव्युं के साधु पुरुषे दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं सेवन करवुं. भगवान आत्मा ते निश्चय छे अने तेनी अपेक्षाए आ दर्शन-ज्ञान-चारित्र एम त्रणपणानुं सेवन कहेवुं ए व्यवहार छे, मेचकपणुं छे (मलिनपणुं छे), अनेकपणुं छे; दर्शनस्वभाव, ज्ञानस्वभाव, चारित्रस्वभाव इत्यादि अनेकस्वभाव थई जाय छे तेथी ते व्यवहार छे. व्यवहारथी उपदेशमां आ प्रमाणे कथन आवे छे, पण आशय तो एक शुद्ध निश्चय आत्मानुं सेवन कराववानो छे.

लोको तो माने के अत्यारे पांच महाव्रत अने अठ्ठावीस मूलगुण पाळे ए साधु. पण भाई, साधुने माटे आहार बनावे अने जो ते आहार साधु ले तो ते द्रव्यलिंगी पण नथी. निश्चय तो नथी पण व्यवहारनांय ठेकाणां नथी. कोई एम कहे के निश्चय होय पछी व्यवहार गमे तेवो होय, व्यवहारनुं शुं काम छे? तो ते वात बराबर नथी. निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रवंत साधुने पांच महाव्रत तथा र८ मूळगुण आदिनो व्यवहार यथार्थपणे होय छे. साधुने माटे चोको बनावे अने साधु ते आहार ले एवुं प्राण जाय तोपण त्रणकाळमां बने नहि. लोको एम कहे छे के शरीर रहे तो प्राण टके अने तो धर्म थाय. पण एथी तो धूळेय धर्म नथी. अहीं तो कहे छे के आत्मामां रहे-टके तो धर्म थाय. भगवान शुद्ध त्रिकाळी ज्ञायकनी द्रष्टिमां रहे तो धर्म थाय भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे आ १६ मी गाथामां सोळवलुं सो टचनुं सोनुं बताव्युं छे.

पांच महाव्रत अने अठ्ठावीस मूलगुण ए चारित्र नथी पण आस्त्रव अने बंधनुं ज कारण छे. निश्चय आत्माना अनुभवरूप चारित्र होय तो आने व्यवहारचारित्रनो उपचार आवे. तेम छतां ए छे तो बंधनुं ज कारण. अहीं एनी वात नथी. अहीं तो कहे छे के आत्मा जे परिपूर्ण शुद्ध वस्तु छे ते ज साधकपणे-ज्ञानपणे परिणमे छे. अने ते साधकभावनुं परिपूर्णतामां परिणमन ते साध्य. आत्मा पोते ज अपरिपूर्ण


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साधकभावे अने परिपूर्ण साध्यपणे परिणमे छे. वचमां बाह्य व्यवहारक्रिया आवे छे तो मोक्षमार्ग थाय छे एम नथी.

साधु पुरुषे दर्शन, ज्ञान, चारित्र सदा सेववा योग्य छे एम भेद पाडीने कथन करवामां आवे छे. आठमी गाथामां कह्युं ने के दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हंमेशा प्राप्त होय ते आत्मा. एवो भेद कर्यो पण परमार्थे जोवामां आवे तो ए त्रणे एक आत्मा ज छे; केमके त्रणे पर्याय आत्माथी जुदी नथी. ए एकनुं (आत्मानुं) सेवन करवाथी (निर्मळ) पर्याय उत्पन्न थाय छे, पण त्रणनुं सेवन करवाथी (निर्मळ) पर्याय उत्पन्न थाय छे एम नथी. सूक्ष्म वात, भाई! आ तो आत्मा, बापु! एमां भगवान बिराजे छे. अंदर बधा आत्मा भगवान स्वरूप ज छे. ए एकरूप सच्चिदानंद प्रभु जेनो ज्ञायक एक स्वभाव छे ते द्रव्यनुं सेवन करवुं ए परमार्थ छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एम त्रण प्रकारे सेवन करवुं ए व्यवहारनुं कथन छे. कळश टीकाकारे आत्मा मेचकः चेतन द्रव्य जे त्रण प्रकारे थाय छे ते मेचक कहेतां मलिन छे एम कह्युं छे. सम्यग्दर्शन ज्ञान- चारित्रनी निर्मळ पर्याय ए एकना त्रण भेद थया ए मलिन छे, व्यवहार छे. पर्याय छे ने? पर्याय उपर लक्ष जाय तो राग ज थाय. अने राग मलिन ज छे ने?

नियमसारनी पांचमी गाथामां कह्युं छे के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय ए बहिःतत्त्व छे. अहीं रागनी वात तो छे ज नहि, निर्मळ पर्यायने बहिःतत्त्व कही छे. तथा अंतःतत्त्व शुद्ध परमात्मा छे. पूर्ण अंतःतत्त्वरूप ज्ञायक परमात्मा अने बहिःतत्त्वरूप निर्मळ पर्याय ए बे तत्त्वोनी श्रद्धा करवी ए व्यवहार समक्ति छे. जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष ए सात तत्त्वोनी श्रद्धा ए पण व्यवहार श्रद्धा छे. व्यवहार श्रद्धा ए कांई श्रद्धागुणनी पर्याय नथी; ए तो राग छे, विकार छे. अहीं कहे छे के जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय छे ए बहिःतत्त्व छे. ए बहिःतत्त्व उपर लक्ष जाय ए व्यवहार छे, मलिन छे, अनेकाकार छे, अनेकस्वभाव छे. जुओ, कई अपेक्षाए लीधुं? समयसार कळश टीका कळश १६ मां आवे छे के- सामान्यपणे अर्थग्राहकशक्तिनुं नाम दर्शन छे, विशेषपणे अर्थग्राहकशक्तिनुं नाम ज्ञान छे अने शुद्धत्वशक्तिनुं नाम चारित्र छे. आम शक्तिभेद करतां एक जीव त्रण प्रकारे थाय छे, तेथी मलिन कहेवानो व्यवहार छे.

एकने त्रण प्रकारे कहेवो ए व्यवहार छे अने व्यवहार छे ते असत्यार्थ छे. कळश १७ ना भावार्थमां आवे छे के शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी आत्मा एक छे, पण पर्यायार्थिक नये एकने त्रणरूप परिणमन थाय छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे, असत्यार्थ छे. अहीं त्रिकाळी, भूतार्थ द्रव्यने मुख्य करीने निश्चय कही सत्यार्थ कह्युं छे अने पर्यायमात्रने गौण करीने व्यवहार कहीने असत्यार्थ कह्यो छे.


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आ तो वीतरागनो मार्ग छे. भाई! प्रभु त्रणलोकनो नाथ सर्वज्ञ छे. एनी एक समयनी पर्यायमां सर्व लोकालोक समाई गया छे-जाणवामां आवी गया छे. आप्तमीमांसाना ४८ मां श्लोकमां स्वामी समंतभद्राचार्य कहे छे के-हे नाथ! समय एक अने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य त्रण. एक समयमां उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य आपना ज्ञानमां आव्यां-एटले सर्व द्रव्यो ज्ञानमां आव्यां अने कह्यां तेथी आप सर्वज्ञ छो एम हुं कहुं छुं. एक ‘क’ बोले एमां असंख्य समय जाय. एवा एक समयमां द्रव्यमां उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य त्रण जेणे जाण्यां तेणे आत्मा जाण्यो, अने तेने सर्व द्रव्योनुं ज्ञान थयुं. तेथी ते सर्वज्ञ छे. भाई! आ तो त्रणलोकना नाथ केवळीए एक समयमां जे जोयुं अने जे कथनमां आव्युं ए अलौकिक वातो छे. अहीं कहे छे के एक (आत्मा) ने त्रणरूप परिणमतो कहेवो ते व्यवहार थयो, असत्यार्थ पण थयो तेथी तेने मेचक-मलिन कह्यो छे. (कळश १७ भावार्थ) अहाहा! शुं अर्थ कर्यो छे जयचंद्र पंडिते! पहेलांना पंडितो वस्तुनी जेवी स्थिति छे तेवा अर्थ करता हता. पण हमणां घणी गरबड थई गई छे.

व्यवहार मोक्षमार्गनुं सेवन करवुं, रागनुं सेवन करवुं ए वात तो छे नहि. रागनुं शुं सेवन करवुं? एनो तो अभाव करवो छे. परंतु भगवान ज्ञायकस्वभावी एक चैतन्यघनस्वरूप जे आत्मा तेनी द्रष्टि, ज्ञान अने चारित्र ए निश्चयथी परमार्थ छे. ए निश्चयथी परमार्थ जे पर्याय छे तेने अहीं व्यवहार कहीने मलिन कही छे. पहेलां एनुं विकल्पमां पण यथार्थ ज्ञान तो करे, ज्यां व्यवहारे विकल्पवाळुं ज्ञान पण यथार्थ नथी त्यां सत्यज्ञान-सम्यग्ज्ञान होतुं नथी.

साधु पुरुषे त्रणनुं (दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं) सेवन करवुं एम व्यवहारथी कहेवामां आव्युं छे, “पण परमार्थथी जोवामां आवे तो ए त्रणेय एक आत्मा ज छे- कारण के तेओ अन्य वस्तु नथी पण आत्मानी ज पर्यायो छे.” भाषा जुओ. मोक्षमार्गनी पर्याय (निश्चयरत्नत्रयनी पर्याय) आत्मानी पर्याय छे, परन्तु व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प ए आत्मानी पर्याय नथी, असद्भूत छे. आ निश्चयरत्नत्रय ए सद्भूत व्यवहार छे. बनारसीदास विरचित परमार्थवचनिकामां कह्युं छे के “द्रव्य निष्क्रिय छे. सम्यग्ज्ञान (स्वसंवेदन) अने स्वरूपाचरणनी कणिका जागे त्यारे मोक्षमार्ग साचो. मोक्षमार्ग साधवो ए व्यवहार अने शुद्ध द्रव्य अक्रियारूप निश्चय छे.” निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग साधवो ए व्यवहार छे. पर्याय छे ने? तेथी. “ए प्रमाणे निश्चय-व्यवहारनुं स्वरूप सम्यग्द्रष्टि जाणे छे, पण मूढ जीव (अज्ञानी) जाणे नहि अने माने पण नहि.”

हवे द्रष्टांत आपे छेः ‘जेम कोई देवदत्त नामना पुरुषनां ज्ञान, श्रद्धान अने आचरण देवदत्तना स्वभावने उल्लंघतां नहि होवाथी (तेओ) देवदत्त ज छे अन्य वस्तु नथी. तेम आत्मामां पण आत्मानां ज्ञान, श्रद्धान अने आचरण आत्माना स्वभावने उल्लंघतां नहि


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होवाथी (तेओ) आत्मा ज छे, अन्य वस्तु नथी. माटे एम स्वयमेव सिद्ध थाय छे के एक आत्मा ज सेवन करवा योग्य छे.” मूळ पाठमां (गाथामां) दर्शन, ज्ञान, चारित्र लीधुं छे, अहीं टीकामां ज्ञान, श्रद्धान अने आचरण एम लीधुं छे केम के जाणवामां आवे त्यारे प्रतीति थाय छे. गाथा १७-१८मां आवे छे के (आत्मा) वस्तु ज्ञानपर्यायमां पूर्ण, अखंड जाणवामां आवे तो जाणीने तेनी यथार्थ प्रतीति करे. वस्तु ख्यालमां आव्या विना प्रतीति कोनी? वाह! दिगम्बर संतोनी कथनी पण केवी रहस्यमय! लोको तो बहारमां आम कर्युं अने तेम कर्युं, नग्न थई गया अने लुगडां फेरव्यां एटले माने के थई गयो मोक्षमार्ग. पण अहीं तो कहे छे के-तेथी स्वयं सिद्ध थाय छे के एक आत्मानुं ज सेवन करवाथी त्रणे पर्यायरूप भावो प्रगट थाय छे. तेथी एक आत्मा ज सेववा योग्य छे. पहेलां त्रणेने व्यवहारथी सेववा योग्य कह्या हता-ते समजाववा माटे कह्या हता. हवे कहे छे निश्चयथी एक आत्मा ज सेववा योग्य छे, त्रण नहि.

छठ्ठी गाथामां पण आवे छे के पर तरफनुं लक्ष छोडी एक निज त्रिकाळी ज्ञायकभावनी सेवा-उपासना करवी. जुओ टीकाना पहेला फकरानी छेल्ली बे लीटी-“ तेथी प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी; ते ज समस्त अन्य द्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतो शुद्ध कहेवाय छे.” अहीं अन्य द्रव्यना भावो एटले द्रव्यकर्म अने द्रव्यकर्मना उदयादिनुं लक्ष छोडी वर्तमान पर्याय एक त्रिकाळी ज्ञायकभावनुं लक्ष करी तेमां झूके ते उपासना-सेवा छे. ए पर्यायमां शुद्धनो अनुभव थाय छे के वस्तु त्रिकाळ शुद्ध छे. एम ने एम ज शुद्ध छे, शुद्ध छे एवी वात अहीं नथी. अन्य द्रव्योना भावोथी भिन्न एम पाठ छे ने? एटले ज्यारे अन्य द्रव्योना भावोथी लक्ष छूटी जाय छे त्यारे पोतानामां जे विकारीभाव हता तेनुं पण लक्ष छूटी जाय छे. अहाहा! शुं टीका छे? समयसार तो भूप छे, भूप; सर्व आगमनो सार.

भगवान आत्मा ए ज्ञायकरूप चैतन्यभाव छे, अने शुभाशुभभाव अचेतन छे. दया, दान, महाव्रतादिभाव अचेतन छे, एमां चैतन्यना तेजनो अंश नथी. जे ज्ञायकभाव छे ते शुभाशुभभावोना स्वभावे परिणमतो नथी. (ज्ञायकभावथी जडभावरूप थतो नथी) ज्ञायक ज्ञायकरूपे ज हंमेशां रहे छे. ज्यारे ज्ञायकभाव शुभाशुभभावोरूपे कदीय थतो ज नथी तो पछी ते प्रमत्त के अप्रमत्त केवी रीते थाय? न ज थाय. तेथी ते प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी, ए अहीं कह्युं के त्रिकाळी एक आत्मा ज सेववा योग्य छे. आ सम्यक् एकान्त छे. एक आत्मा सेववा योग्य छे अने बीजुं कांई (पर्याय) सेववा योग्य नथी ए रीते अनेकान्त छे, ते भगवाननो मार्ग छे. पण कथंचित् आत्मानुं सेवन करवुं अने कथंचित् पर्यायनुं सेवन करवुं एम कह्युं नथी. ते अनेकान्त नथी पण फूदडीवाद छे.

ज्ञायकभाव तो एकरूप छे. ते एकनुं सेवन करवाथी पर्याय त्रण थई जाय


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छे, अनेक स्वभावरूप थई जाय छे. दर्शन, ज्ञान अने चारित्र त्रणेयनो भिन्न भिन्न स्वभाव छे. दर्शननो प्रतीति-स्वभाव, ज्ञाननो जाणवारूप स्वभाव अने चारित्रनो शांति अने वीतरागतारूप स्वभाव छे. अहाहा! भगवान एकरूप ज्ञायकस्वभावी आत्मानी सेवा करवाथी अनेकरूप स्वभावपर्याय उत्पन्न थाय छे. आ अनेकरूप स्वभावपर्यायनी सेवा करवी ए तो व्यवहारथी उपदेश आप्यो छे. तेथी द्रष्टिमां सेववा योग्य एक आत्मा ज छे एम सिद्ध थाय छे. आ सोळमी गाथा जाणे सोळवलुं सोनुं!

१४ मी गाथामां सम्यग्दर्शननी प्रधानताथी कथन छे. १प मी गाथामां ज्ञाननी प्रधानताथी कह्युं के ज्ञाननी अनुभूति ते आत्मानुभूति ज छे. अहीं कहे छे के सम्यग्दर्शन ए आत्मानुं, ज्ञाननी अनुभूति ते आत्मानी अने एमां स्थिरता करवी ए चारित्र पण आत्मानुं. पण ए त्रण पर्याय थई, भेद थयो, त्रण प्रकारनो स्वभाव थयो, ज्यारे भगवान आत्मा तो एकरूप ज्ञायकस्वभावी छे.

प्रश्नः–तत्त्वार्थसूत्रमां एम आवे छे केसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग छे.

उत्तरः–ए निश्चय छे, पण ए पर्यायनो निश्चय छे. ए पर्यायथी कथन छे तेथी व्यवहारनयनुं कथन छे. वस्तु एकरूप ज्ञायकभाव ए निश्चय छे. सम्यग्दर्शन छे तो निश्चय पण भेद पाडीने कथन करवुं ए व्यवहार छे, प्रवचनसार गाथा २४२ मां आवे छे के- भेदथी कथन करवुं ए व्यवहार छे अने अभेदथी निश्चय. (गाथा २४२ टीका, बीजो पेरेग्राफ) “ते (संयतत्त्वरूप अथवा श्रामण्यरूप मोक्षमार्ग) भेद्रात्मक होवाथी ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग छे’ एम पर्याय प्रधान व्यवहारनयथी तेनुं प्रज्ञापन छे.” गाथा २४२ पछीना श्लोक १६ मां आवे छे के-“ए प्रमाणे प्रतिपादकना आशयने वश, एक होवा छतां पण अनेक थतो होवाथी (अर्थात् अभेद प्रधान निश्चयनयथी एक एकाग्रतारूप होवा छतां पण कहेनारना अभिप्राय अनुसार भेदप्रधान व्यवहारनयथी अनेकपणे दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपपणे थतो होवाथी) एक्ताने (एक लक्षणपणाने) तेम ज त्रिलक्षणपणाने पामेलो जे अपवर्गनो मार्ग....” जुओ एकने पामेलो ए निश्चय छे, त्रणरूप पर्यायने पामेलो ते व्यवहार छे. बन्नेने एकसाथे जाणवो ए प्रमाण छे.

अहो! कुंदकुंदाचार्यना शास्त्रोमां तो घणुं गूढ अने गंभीर सत्यनुं कथन आवे छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के श्वेतांबरनी मोळाश-ढीलपने लईने रस ढीलो पडी जाय छे ज्यारे दिगंबरनां तीव्र वचनोने लईने रहस्य समजी शकाय छे. आ तो श्रीमद्दे मीठाशथी कह्युं छे. पंडित श्री टोडरमलजीए मोक्षमार्ग प्रकाशकना पांचमा अधिकारमां साफ साफ खुलासो कर्यो छे के श्वेतांबर अने स्थानकवासी ए अजैन छे, जैन नथी.


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बधी (शास्त्रोनी) साक्षी अहीं पडी छे. आ तो जैनधर्म-वीतरागनो मार्ग छे. सर्वज्ञ वीतरागदेवे गणधर अने इन्द्रोनी वच्चे समवशरणमां जे दिव्यध्वनि करी हती ते आ छे.

हवे भावार्थमां पंडित जयचंदजी कहे छे के दर्शन, ज्ञान, चारित्र ए त्रणे आत्मानी ज पर्यायो छे, कोई जुदी वस्तु नथी. तेथी साधु पुरुषोए एक आत्मानुं ज सेवन करवुं-ए निश्चय छे. अने व्यवहारथी अन्यने ए ज उपदेश आपवो. उपदेश ए व्यवहार विकल्परूप छे.

हवे, ए ज अर्थनो कळशरूप श्लोक कहे छेः-

* कळश १६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘प्रमाणतः’ प्रमाणद्रष्टिथी जोईए तो ‘आत्मा’ आ आत्मा ‘समम्’ एकीसाथे ‘मेचकः’ अनेक अवस्थारूप एटले पर्यायना भेदरूप मेचक पण छे ‘च’ अने ‘अमेचकः अपि’ एक अवस्थारूप अभेद अमेचक पण छे. हवे एनो खुलासो कर्यो के एने ‘दर्शन–ज्ञान–चारित्रैः त्रित्वात्’ दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी तो त्रणपणुं छे ए व्यवहार छे तथा ‘स्वयम् एकत्वतः’ पोताने पोताथी एकपणुं छे ए परमार्थ छे. एकत्व एटले एकरूप त्रिकाळी स्वभाव ए एकपणुं ए निश्चय अने दर्शन-ज्ञान-चारित्र एम त्रणपणुं-अनेकपणुं ए व्यवहार. अहाहा! शैली तो जुओ. वस्तु ज्ञायकभाव एकरूप स्वभाव, अखंड ज्ञाननो पुंज-सर्वज्ञस्वभावी चीज छे. भगवान सर्वज्ञस्वभावी पदार्थ एक स्वभाव वस्तु छे एनी द्रष्टि अने एकाग्रता ए निश्चयथी एनी सेवना छे अने दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रण भेदने सेववा एम कहेवुं ए व्यवहार कथन छे. व्यवहार भेदरूप होवाथी तेने मलिन कह्यो छे. एकरूप स्वभाव निर्मळ छे अने अनेक स्वभावने- मलिन कहेवानो व्यवहार छे.

* कळश १६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

“प्रमाणद्रष्टिमां त्रिकाळस्वरूप वस्तु द्रव्यपर्यायरूप जोवामां आवे छे, तेथी आत्मा पण एकीसाथे एक-अनेकरूप देखवो.” त्रिकाळ द्रव्यपणे एक अने पर्यायपणे अनेक; दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय ए अनेक अने आत्मा (द्रव्ये) एक. ए बन्नेने प्रमाणथी एक साथे देखवुं अने जाणवुं एम कहे छे. ‘साधु पुरुषे दर्शन, ज्ञान, चारित्रने सेववां’ ए व्यवहारथी कथन छे, ए भेद कथन छे, मलिन छे, अनेक स्वभावरूप कथन छे, जाणवा लायक छे. पण एने पहेलां आत्मा एकरूप छे, एक स्वभावी छे एवुं ज्ञान थयुं एमां पर्याय त्रण थई गई. एकरूप देखवो ए निश्चय अने त्रणरूप देखवो ए व्यवहार छे. बन्नेने एकीसाथे देखवो ए प्रमाण छे.

वस्तु जे छे एमां परनी वात ज नथी. शरीर, कर्म, वाणी अने विकल्पनी तो


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अहीं वात ज नथी. भगवान शुद्ध चैतन्यघन एक ज्ञायकभाव जेने छठ्ठी गाथामां प्रमत्त- अप्रमत्त पर्याय विनानो एक ज्ञायकस्वभाव कह्यो छे एने देखवो ए तो निश्चय थयो अने तेने त्रणपणे परिणमतो जाणवो ए व्यवहार थयो. बेयने एकीसाथे जाणवो ए प्रमाण थयुं.

अहाहा! आश्रययोग्य आदरणीय तरीके एक त्रिकाळी (द्रव्य) छे, अने जाणवालायक छे ए तो व्यवहारनो विषय जे त्रणपणे परिणमे छे ते (पर्याय) छे. तेमां पण जे त्रिकाळी निश्चय एक छे तेने राखीने बीजुं पर्यायनुं ज्ञान (तेमां) भेळव्युं ते प्रमाण छे. शुं कह्युं? त्रिकाळ ज्ञायकभाव एकरूप छे ते निश्चय तथा तेनी साथे पर्यायना भेदनुं ज्ञान करवुं ते व्यवहार. ए निश्चय साथे व्यवहारनुं ज्ञान थयुं (भेळव्युं) तो प्रमाणज्ञान कहेवाय. प्रमाणज्ञानमां साथे व्यवहार आव्यो माटे निश्चय अंदर भूलाई गयो एम नथी. निश्चय तो एकरूप छे ज. निश्चय तो प्रमाणमां पहेलां आव्यो ज.

हवे नयविवक्षा कहे छेः-

* कळश १७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एकोऽपि’ आत्मा एक छे, ज्ञायकस्वभावी वस्तु भगवान आत्मा तो एक ज छे तोपण ‘व्यवहारेण’ व्यवहारद्रष्टिथी जोवामां आवे तो ‘त्रिस्वभावत्वात्’ त्रण स्वभावपणाने लीधे ‘मेचकः’ अनेकाकाररूप मेचक छे, ‘दर्शन–ज्ञान–चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः’ कारण के दर्शन ज्ञान अने चारित्र-ए त्रण भावे परिणमे छे.

भगवान आत्मा ज्ञायकस्वभावरूप एक स्वरूपे ज छे. पण तेमां त्रण प्रकारना (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवा) परिणमनरूप व्यवहारद्रष्टिथी जोईए तो अनेकाकार छे, मेचक छे. स्वभाव चिदानंद जे द्रष्टिनो-सम्यग्दर्शननो विषय छे ते तो एकरूप ज छे, तेना त्रण भेद पाडवा ए व्यवहार छे, शुभभावरूप व्यवहारनी अहीं वात ज नथी. ए तो संसार खाते छे.

अहाहा....! कहे छे के आत्माने द्रव्यथी जुओ तो आत्मा एक छे. वस्तु तरीके ज्ञायकस्वभाव एक चिद्घन निश्चयथी एक स्वरूपे ज छे. तोपण व्यवहारथी जोवामां आवे तो सम्यग्दर्शन-प्रतीति, सम्यग्ज्ञान-अवबोध-जाणवुं अने सम्यक्चारित्र-स्थिरता- विश्राम लेवो-एवा जे त्रण प्रकार छे ए मेचक छे. त्रण प्रकार जोवा ए मेल छे. आकरी वात छे. भगवान! अत्यारे तो लोको आ (शुभराग) क्रिया आदि बहारनी प्रवृत्ति करे छे पण दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी तथा वस्तुस्थितिनी तो वात ज जाणता नथी. अंदर वस्तु जे ज्ञायक छे ते आत्मा छे अने (बहार) आ शरीर, वाणी इत्यादि छे ए तो जड माटीधूळ छे; ते आत्मामां नथी अने आत्मानां नथी. कर्म जे जड छे ते आत्मामां नथी अने आत्मानां नथी. वळी पुण्य-पापना भाव, दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा वगेरेना भाव तथा काम, क्रोधादि भाव ए पण आत्मामां नथी अने आत्माना नथी.


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हवे आत्मामां रह्या अनंतगुण. ते अनंतगुणस्वरूप भगवान आत्मा ए पण एकरूप छे. अने तेना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप त्रण परिणामथी जुओ तो ए व्यवहार छे. त्रिकाळी एकरूप जुओ तो निश्चय छे, अने त्रणरूप जुओ तो व्यवहार छे. अभेदथी जुओ तो अमेचक-निर्मळ छे अने भेदथी जुओ तो मेचक-मलिन छे. एकरूप जुओ तो एकाकार छे अने त्रणरूप पर्यायथी जुओ तो अनेकाकार छे. आत्माने गुण- गुणीना भेदथी जुओ तो ए अनेकाकार छे, व्यवहार छे, मलिन छे, आश्रय करवा लायक नथी. त्रण प्रकारना दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणाम पण आश्रय करवा लायक नथी.

अहो....! आत्मा एकस्वरूपी, ज्ञायक चिद्घन चैतन्यस्वभावनो भंडार सूर्य ए एकरूप निश्चयनयनो विषय छे. ते एकरूप अभेद निर्मळ छे तोपण एनी दर्शन-ज्ञान- चारित्रनी परिणति जुओ तो व्यवहारथी द्वन्द्व छे, त्रण स्वभावरूप छे. एकरूप स्वभाव त्रण स्वभावरूप थयो ए व्यवहार छे. अहीं शुभराग ए व्यवहार ते वात नथी.

पुण्य-पाप अधिकार गाथा १४प मां कह्युं छेः-

छे कर्म अशुभ कुशील ने जाणो सुशील शुभकर्मने!
ते केम होय सुशील जे संसारमां दाखल करे?

शुभने-पुण्यने भलुं केम कहीए के जे संसारमां दाखल करे? ए भलुं नथी, सारुं नथी, (आदरणीय नथी) केमके शुभभाव ए संसार छे, मलिन छे. निश्चयथी तो पुण्यना भावने पाप कहेल छे. योगीन्दुदेवकृत योगसार गाथा ७१ मां कह्युं छे केः-

पापरूपने पाप तो जाणे जग सहु कोई,
पुण्यतत्त्व पण पाप छे कहे अनुभवी बुध कोई.

अनुभवी सम्यग्द्रष्टि तो पुण्यने पण पाप कहे छे. अहीं आचार्य महाराज कहे छे के निश्चयनयनी अपेक्षाए व्यवहाररत्नत्रय (पुण्यभाव) ए पाप छे, राग छे, मलिन छे, बंध छे, संसार छे. अहाहा....! आकरी वात, बापा! वीतरागनो मार्ग वीतरागभावथी उत्पन्न थाय छे, रागथी उत्पन्न थतो नथी.

समयसार पुण्य-पाप अधिकारमां जयसेनाचार्यनी टीका गाथा १६३ मां आवे छे केः-

[(गाथा १प४ सुधी पुण्य अधिकार पूरो करी गाथा १पप थी पाप अधिकार शरू थाय छे. त्यां) शिष्यनो प्रश्न छे के जीवादिनुं श्रद्धान इत्यादि व्यवहाररत्नत्रयनुं व्याख्यान पाप अधिकारमां केम लीधुं? तेना उत्तरमां खुलासो करे छेः-

जोके व्यवहार मोक्षमार्ग (देव-शास्त्र-गुरुनी श्रद्धा आदि तथा पंचमहाव्रतना परिणाम)ने उपादेयभूत निश्चयरत्नत्रयनुं व्यवहारथी कारण कहेवामां आव्युं तथा तेने


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परंपराए जीवनी पवित्रतानुं कारण होवाथी (व्यवहारे) पवित्र कहेवामां आवेल छे तोपण एकस्वरूप भगवान आत्माना अवलंबनने छोडीने रागनुं अवलंबन ले छे माटे पुण्य ए पण परमार्थे पाप ज छे. तेनुं एक कारणः-शुभ परिणामनुं परद्रव्यना आलंबनरूप पराधीनपणुं छे. बीजुं कारणः-निर्विकल्प समाधिमां लीन (योगीओने) आत्मस्वरूपमांथी पडवामां व्यवहार विकल्पोनुं आलंबन (गुण-गुणीना भेदरूप आत्मस्वरूपनुं चिंतवन अथवा द्रव्य-गुण-पर्यायनुं भेदरूप चिंतवन) कारण छे. व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प आव्यो एटले निश्चयरत्नत्रयथी पडी गयो. आ रीते निश्चयनयनी अपेक्षाए पुण्य ए पाप छे. एटले व्यवहारथी जेने पुण्य कहेवाय छे ते निश्चयथी (खरेखर) पाप छे.] [जयसेनाचार्यनी गाथा १६३ नी टीका.]

अहीं कहे छे के आत्मा एक छे तोपण व्यवहारद्रष्टिथी देखवामां आवे तो त्रण स्वभावपणाने लीधे अनेकाकाररूप छे, मेचक छे. आवो वीतराग मार्ग लोकोने सांभळवा पण मळतो नथी. अरेरे! अनादिथी जीव सम्यक् प्रतीति विना, अनुभव विना चार गतिमां रखडे छे.

भगवान अमृतचंद्राचार्यनो आ मूळ श्लोक छे. तेओ मुनि हता. पंच परमेष्ठी छे ने? ते पंचपरमेष्ठीमां आचार्य भगवान थई गया!!

* कळश १७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जयचंद पंडिते पण भावार्थ केवो (सरस) लीधो छे. जुओः-‘शुद्धद्रव्यार्थिकनये आत्मा एक छे.’ शुद्ध द्रव्य जेनुं अर्थ एटले प्रयोजन छे ए शुद्धद्रव्यार्थिकनय. ‘शुद्ध’ एटले त्रिकाळ पवित्र अने ‘द्रव्य’ एटले त्रिकाळी अंखड वस्तु अने ‘आर्थिक’ एटले प्रयोजन जेनुं छे ते-ते शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी आत्मा एक छे; जे सम्यग्दर्शननो विषय छे, तेने शुद्धद्रव्यार्थिकनय बतावे छे.

हवे कहे छे के ‘आ नयने प्रधान करी आत्माने अभेद एकरूप कहेवामां आवे त्यारे पर्यायार्थिकनय गौण थयो.’ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी वीतरागी परिणति ए पर्याय होवाथी गौण थई. व्यवहाररत्नत्रयनी तो अहीं वात ज नथी, ए तो बंधनुं कारण छे. पण अहीं तो भगवान आत्मा जे त्रिकाळ शुद्ध एकस्वरूपी छे तेनी ज्ञान- चारित्रनी निर्मळ पर्याय जे साचो मोक्षमार्ग ते पण पर्यायार्थिकनयनो विषय होवाथी गौण थाय छे, अभाव नहीं. अहाहा! शरीर, मन, वाणी तो एक बाजु रह्या केमके ए तो जड धूळ छे; पुण्य-पापना भाव पण एक बाजु रह्या केमके ए मलिन छे; संसार छे; पण अहीं तो जे त्रिकाळी भगवान एकरूप प्रभु तेनां प्रतीति, ज्ञान अने चारित्र-साचा हो-(शुद्ध रत्नत्रय) तेमने पण जे शुद्ध द्रव्यार्थिकनयनो विषय एकरूप


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त्रिकाळी स्वभाव छे तेनी अपेक्षाओ, पर्याय होवाथी पर्यायार्थिकनयनो-व्यवहारनयनो विषय होवाथी मेचक-मलिन कह्यां छे.

प्रवचनसारमां ४६ मा अशुद्धनयमां एम कह्युं के वस्तुने पर्यायथी जाणे ए अशुद्धनय छे. जेम माटीने वासणनी पर्यायथी जोवी ए अशुद्धनय छे अने माटीने माटीरूपे जोवी ए शुद्धनय छे; तेम भगवान आत्माने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्यायथी जोवो ए अशुद्ध छे. एने अहीं मलिन, व्यवहार अने अनेकाकार कहेल छे, कारण के दर्शन, ज्ञान अने चारित्र-त्रणेनो स्वभाव जुदो जुदो छे अने भगवान आत्मानो स्वभाव एकरूप छे. अहाहा! आ तो वीतराग मार्ग छे, बापु! जेने (वाणीने) इन्द्रो अने गणधरो सांभळे अने जे वाणी अंतरमां आत्माने बतावे ते केवी होय? (अद्भुत असाधारण होय) भाई! अहीं भगवाननी ए वाणीनी आ वात छे के वस्तु एक ज्ञायक-ज्ञायक-ज्ञायकमात्र एकस्वभावी छे तेने एकस्वभावीनी द्रष्टिथी जुओ तो ए निश्चय छे, एकस्वभावी छे, निर्मळ छे, अभेद छे. ए वस्तुनुं वास्तविक स्वरूप छे. अने तेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी परिणतिथी जुओ तो ए अनेकाकार छे, मलिन छे, भेद छे, व्यवहार छे.

हवे कहे छे-‘तेथी एकने त्रणरूप परिणमतो कहेवो ते व्यवहार थयो, असत्यार्थ पण थयो.’ केमके ११मी गाथामां त्रिकाळी ज्ञायकने सत्यार्थ कह्यो छे. ११ मी गाथा तो जैनदर्शननो प्राण छे. ववहारोऽभूयत्थो...” पर्यायमात्र असत्यार्थ छे. वळी केटलाक एम कहे छे के अभूतार्थने असत्यार्थ न कहो, “जयसेनाचार्ये पण अभूतनो अर्थ असत्यार्थ कर्यो छे. अरे! माणस पोतानी द्रष्टि पोषवा माटे साराय शास्त्रना अर्थ बदली नाखे छे. परंतु वस्तु तो जेवी छे तेवी ज रहेशे. भले तमे बदलाई जाओ, पण वस्तु नहि बदलाई जाय. आचार्य भगवान कहे छे के (११ मी गाथामां) भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ त्रिकाळी एकरूप जे चीज ते सत्यार्थ छे. तेने त्रणरूप परिणमन करतो कहेवो ए व्यवहार थयो. ए त्रिकाळीनी अपेक्षाए त्रिकाळ टक्ती चीज नथी तेथी गौण करीने असत्यार्थ कहेवामां आव्यो छे.

समयसार कळशटीकाकार पंडित राजमलजी पांडेए १६ मा कळशमां लीधुं छे के आत्मा मेचकः (आत्मा) चेतन द्रव्य (मेचक) मलिन छे. कोनी अपेक्षाए मलिन छे? दर्शन–ज्ञान–चारित्रैस्त्रित्वात् सामान्यपणे अर्थग्राहकशक्तिनुं नाम दर्शन छे, विशेषपणे अर्थ-ग्राहकशक्तिनुं नाम ज्ञान छे अने शुद्धत्वशक्तिनुं नाम चारित्र छे-आम शक्तिभेद करतां एक जीव त्रण प्रकारे थाय छे, तेथी मलिन कहेवानो व्यवहार छे.”

पंडित बनारसीदासे पंडित राजमलजी पांडेनी कळशटीका उपरथी समयसार नाटक


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बनाव्युं छे. तेमां १९ मो श्लोक हवे आवशे. तेना उपरथी (जीवद्वार) २० मा छंदमां कह्युं छे केः-

“एक देखिये जानिये, रमि रहिये इक ठौर;
समल विमल न विचारिये, यहै सिद्धि नहि और.”

(एक देखिये जानिये) एटले एक वस्तु त्रिकाळ भगवान पूर्णानंदने अवलोकवो, ते एकने जाणवो, (रमि रहिये इक ठौर) अने ते एक स्थानमां रमणता करवी. (समल विमल न विचारिये) निश्चयथी अभेद अने व्यवहारथी भेद एवो विकल्प करवो नहीं. (यहै सिद्धि नहि और) आ मुक्तिना उपायनी रीत छे. बीजी कोई रीत नथी. हजु तो ज्ञाननां ठेकाणां न मळे तेने श्रद्धा अने ज्ञान सम्यक् कयांथी थाय?

हवे परमार्थ नयथी कहे छेः-

* कळश १८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

अहाहा! शुं कळश! अमृतथी भरेलो छे. अमृतचंद्राचार्य १००० वर्ष पहेलां थया अने तेना १००० वर्ष पहेलां एटले आजथी र००० वर्ष पहेलां कुंदकुंदाचार्य थया. मद्रासनी आ बाजु ८० माईल दूर वंदेवास गाम छे. १०, ००० नी वस्तीवाळुं छे. त्यांथी पांच माईल दूर पोन्नूर हील नामनी टेकरी छे. त्यां कुंदकुंदाचार्य रहेता हता. तेओ आत्मानुभवी भावलिंगी मुनि हता. त्यांथी पूर्व विदेहक्षेत्रमां सीमंधर भगवान पासे गया हता. अने त्यांथी आवीने आ शास्त्रो रच्यां छे. आ साक्षात् भगवाननी वाणी छे. भाई! आ वाणी बीजे कयांय नथी. एनी (समयसार शास्त्रनी) टीका करनार अमृतचंद्राचार्य १००० वर्ष पछी पाकया. ते भावलिंगी दिगंबर संत मुनि हता. जाणे चालता सिद्ध! अंतर-आनंदनो ढगलो! अंदर अतीन्द्रिय आनंदनो प्रवाह वहेतो हतो. तेमणे आ टीका बनावी छे.

कहे छेः-परमार्थेन तु शुद्ध एक अभेद आत्मा जेनो विषय छे एवा शुद्ध निश्चयनयथी जोवामां आवे तो व्यक्तज्ञातृत्व–ज्योतिषा प्रगट ज्ञायक्ताज्योतिमात्रथी एककः आत्मा एकस्वरूप छे. ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान ए ज्ञानसूर्य चैतन्यनी झळहळ ज्योति छे. अहाहा! भाषा जुओ. आत्मा प्रगट ज्ञायक्ता ज्योतिमात्र छे. अहीं ‘व्यक्त’ शब्द छे ने? भगवान आत्माने व्यक्त-प्रगट कह्यो छे. ४९ मी गाथामां भगवान आत्माने अव्यक्त कह्यो छे. त्यां तो पर्यायने व्यक्त कही ए अपेक्षाए त्रिकाळीने अव्यक्त कह्यो, परंतु अहीं त्रिकाळी वस्तु व्यक्त-प्रगट ज छे एम कहे छे.

त्यां गाथा ४९ मां अव्यक्त कह्यो. अहीं कहे छे के आत्मा प्रगट-व्यक्त छे. वस्तु प्रगट चैतन्यज्योत छे. प्रगट केवी छे? तो ज्ञायक्ता ज्योतिमात्र एटले चैतन्य ज्ञायकस्वभाव


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ज्योति छे. हवे एककः एटले एकस्वरूप एक एव एक ज एम अर्थ कर्यो छे, त्रिकाळी वस्तु एकरूप छे. ते शुद्ध द्रव्यार्थिकनयनो विषय छे. वळी ए ज सम्यग्दर्शननो विषय छे. विषय करनारी तो पर्याय छे, पण तेनो विषय एकरूप छे. ध्येय तो त्रिकाळ वस्तु एकरूप छे.

हवे कहे छे-‘सर्व भावान्तर ध्वंसि–स्वभावत्वात्’ ‘कारण के शुद्ध द्रव्यार्थिकनयथी अन्य द्रव्यना स्वभावो तथा अन्यना निमित्तथी थता विभावोने दूर करवारूप तेनो स्वभाव छे.’ शुद्ध द्रव्यार्थिकनयथी त्रिकाळी जे ज्ञायकस्वभाव, तेनां द्रष्टि अने ज्ञान करवाथी अन्य द्रव्यना स्वभावो-शरीर, मन, वाणी अने अन्यना निमित्तथी थता विभावो-पुण्यपापना भावोने दूर करवानो तेनो स्वभाव छे. आ व्यवहारथी कथन छे. निश्चयथी तो शुद्ध चैतन्यघन स्वभावनां प्रतीति, ज्ञान अने एकाग्रता थतां विभाव उत्पन्न ज थतो नथी एटले विभावनो नाश करे छे एम कहेवामां आव्युं छे. त्रिकाळी ज्ञायक एकरूप भावमां अन्य द्रव्योनो अभाव छे तथा विभावनो अभाव करवानी ताकात छे. भावान्तर एटले ज्ञायकभावथी अन्यभावो-विभावोनो ध्वंस कहेतां नाश करवानो एनो स्वभाव छे.

ज्ञायकभावनो विभावने उत्पन्न करवानो तो स्वभाव नथी कारण के तेमां एवो कोई गुण नथी के जे विकार उत्पन्न करे. जो विकार उत्पन्न करे एवी कोई शक्ति होय तो विकारनो नाश थई सिद्धपणुं थई शके नहि. ३४ मी गाथामां आवे छे के ‘आत्मा रागनो नाश करनारो छे’ ए पण यथार्थ नथी, कथनमात्र छे. परमार्थे रागना त्यागनुं र्क्तापणुं आत्माने नथी, पोते तो ज्ञानस्वभाव छे. ३२० मी गाथामां पण आवे छे के ज्ञायकभाव कर्मोदय, निर्जरा, बंध अने मोक्षने जाणे छे, पण करतो नथी. केम? अमेचकः ते अमेचक छे-शुद्ध एकाकार छे. त्रिकाळी चैतन्यस्वभाव राग उत्पन्न करे के रागनी रक्षा करे एवो तेनो स्वभाव ज नथी, तेथी अमेचक छे. भेदद्रष्टिने गौण करीने अभेदद्रष्टिथी जुए तो आत्मा एकाकार-एकरूप ज छे, ए ज अमेचक छे, ए ज निर्मळ छे. ए ज पवित्र भगवान आत्मा एकरूप छे. आवी द्रष्टि करे तो सम्यग्दर्शन थाय छे.

आत्माने प्रमाण-नयथी मेचक, अमेचक कह्यो, ते चिंताने मटाडी जेम साध्यनी सिद्धि थाय तेम करवुं एम हवे कहे छेः-

* कळश १९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

आत्मनः मेचकामेचकत्वयोः ‘आ आत्मा मेचक छे-भेदरूप अनेकाकार छे तथा अमेचक छे-अभेदरूप एकाकार छे.’ शुं कहे छे? के आत्मा अखंड ज्ञायकभाव एकरूप वस्तु ए तो निश्चयद्रष्टि छे अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं पर्यायमां निर्विकारी परिणमन थवुं ए व्यवहारनयनो विषय छे. व्यवहाररत्नत्रयनी (महाव्रतादि शुभरागनी) वात अहीं छे ज नहीं. ए प्रमाणे आत्मा मेचक-अमेचक कह्यो.