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अहीं पहेलां तो एम कह्युं के एकरूप वस्तु जे ज्ञायकभाव एनी सेवा करवी एटले के एक आत्माने सेववो ए निश्चय अने शुद्ध रत्नत्रयरूप पर्यायने सेववी (एम कहेवुं) ए व्यवहार छे. आत्मा मेचक छे एवो जे विकल्प र्क्ताकर्म अधिकारमां १४२ गाथा पछी २० कळशोमां (७० थी ८९) जे कह्युं के आत्मा निश्चयनयथी (एटले त्रिकाळी शक्तिरूपे) अबद्ध छे, शुद्ध छे, एक छे, पवित्र छे, अभेद छे-ए वस्तु तो एम ज छे, पण अबद्ध-शुद्ध,.. ..इत्यादि छे एवो जे विकल्प-ते विकल्प करवो ए वात अहीं नथी लीधी पण एनो विकल्प छोडवो एम अहीं कहे छे. एटले विकल्प छूटतां अभेदरूप शुद्ध परिणमन थवुं ए निर्विकल्प परिणमननी वात छे; तेने अहीं व्यवहार कह्यो छे.
आत्मा अमेचक कह्यो छे. ए निर्मळपणाने, अभेदपणाने, एकपणाने, शुद्धपणाने निर्मळ (अमेचक) कह्यो छे. ए विकल्प विनानी निर्मळतानी वात करी. अने पर्यायमां जे निश्चय मोक्षमार्गनुं त्रणपणे परिणमन-एमां एक प्रतीतिरूपभाव, एक जाणवारूपभाव, एक स्थिरतारूपभाव-एम त्रण स्वभाव भिन्न कह्या, त्रण थया एटले अनेकाकार थया. तेथी ए अशुद्ध कहेवामां आवे छे. त्रणपणानुं लक्ष करवुं ए अशुद्धता छे, अने त्रिकाळी एकाकारनुं लक्ष करवुं एनुं नाम शुद्धता छे.
अहीं तो लोकोमां हजी बधा वांधा व्यवहार (शुभरागरूप दया, दान, भक्ति, व्रतादि)ना पडया छे. एने साधन कहो, नहीं तो एकांत थई जाय छे एम केटलाक कहे छे. भाई, ए साधन तो असद्भूत व्यवहारनयथी कह्युं छे. शुं कह्युं ए? के “निश्चय साध्य अने व्यवहार साधक” एम पण पंचास्तिकाय गाथा १७२ मां आवे छे. त्यां तो प्रज्ञा-छीणीथी रागने अने आत्माने भिन्न पाडी अने प्रज्ञाछीणी द्वारा जेणे भगवान आत्माने साधकपणे परिणमाव्यो तेने ते काळे रागनी मंदता केवी होय ए बताववा एने व्यवहार साधननो आरोप आप्यो छे. समजाणुं कांई? साधननुं कथन बे प्रकारे छे, साधन बे प्रकारे नथी. मोक्षमार्गनुं निरूपण (कथन) बे प्रकारे छे, पण निश्चय अने व्यवहार एम बे मोक्षमार्ग नथी.
ए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्गनुं साचुं परिणमन जे सत्य व्यवहार छे तेनी अहीं वात छे. वस्तु आत्मा निर्मळ एकाकार तेने त्रणरूपे-एक प्रतीतिरूपे, एक जाणवारूपे अने एक स्थिरतारूपे-एम त्रणस्वभावपणे कहेवो ए मेचक छे अने वस्तु एकस्वभाव अमेचक छे. आम आत्माने मेचक-अमेचक कह्यो खरो तथा अमेचकने शुद्ध आदरणीय कह्यो छे. पण हवे कहे छे आ (वस्तु) अमेचक निर्मळ शुद्ध छे अने आ पर्याय-भेद मेचक-मलिन छे एवो विकल्प छोडी दे. राजमलजीए कळशटीकामां एम लीधुं छे के “श्रुतज्ञानथी आत्मस्वरूप विचारतां घणां विकल्पो ऊपजे
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छे.” आगळ पाछुं गाथा १४३ नी जेम कळशटीकामां लीधुं के-“एक पक्षथी विचारतां आत्मा अनेकरूप छे, बीजा पक्षथी विचारतां आत्मा अभेदरूप छे-आम विचारतां थकां तो स्वरूप अनुभव नथी.” एटले हवे अहीं कहे छे के आत्मा मेचक छे, अमेचक छे एवी ‘चिंतया एव अलम्’ चिंताथी बस थाओ. बनारसीदासकृत समयसार नाटकमां आ १९ मा कळशना हिंदीमां “एक देखिये जानिये......” छंदमां आ वात गई काले १८ मा कळशना प्रवचनमां आवी गई छे. आ द्रव्यस्वभाव अने आ पर्यायस्वभाव, आ अमेचक अने आ मेचक, आ शुद्ध अने आ अशुद्ध, आ अभेद अने आ भेदरूप एवा विकल्पो करवा छोडी दे. आवा विकल्पमां रहेवाथी कांई आत्मज्ञान नहीं थाय, अनुभव नहीं थाय. अनुभवमां ए विकल्पने कांई अवकाश नथी. माटे एवी चिंताथी बस थाओ.
हवे कहे छे के ‘साध्य–सिद्धिः’ साध्य नाम मोक्षनी पर्यायने साधवी, तेनी सिद्धि तो ‘दर्शनज्ञानचारित्रैः’ दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी ज छे. आ तो त्रण भेदथी समजाव्युं छे. बाकी आश्रय तो एकनो ज करवानो छे. त्रणनुं सेवन एम नथी, सेवन तो एक आत्मानुं ज छे. पाठमां (१६ मी गाथामां) तो एम छे के “ दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि” एटले पर्यायनी सेवा करवी. ए तो व्यवहारी लोको पर्यायना भेदथी समजे छे तेथी अहीं दर्शन-ज्ञान-चारित्रना भेदथी समजाव्युं छे. सेवना त्रणनी नथी, सेवना एकनी (अखंड एकरूप ज्ञायकनी) छे. अहाहा! आवो मार्ग! समजाय छे कांई? दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणथी ज सिद्धि छे. जोयुं? त्रण भाव कह्या ने? बीजी रीते नथी. एमां अनेरा द्रव्योने सहारो नथी, एक स्वद्रव्यनो ज सहारो छे. एमां त्रण भेद पडया, पण परद्रव्यनो कोई सहारो नथी. देव-शास्त्र-गुरुनी मदद के भक्तिनो विकल्प ए सहारो मोक्षमार्गमां छे ज नहि. आवो अर्थ, भारे कठण पडे माणसने, पण शुं थाय? ‘न च अन्यथा’ आ अनेकान्त कर्युं. आनाथी थाय अने आनाथी पण थाय एम अनेकान्त नथी. पण वस्तुस्वरूप जे छे तेनी सेवना करतां ए त्रण पर्याय उत्पन्न थाय छे. एने भेदथी समजाव्युं के त्रणनी सेवा करवी, एनाथी सिद्धि छे, बीजी रीते सिद्धि नथी. अने एनो सरवाळो तो ए ज छे के एकाकार आत्मानी सेवा करवी.
१६, १७, १८ आ त्रण कळशो बहु ऊंचा हता. काले घणी वात आवी गई हती. हवे आजे अहीं भावार्थमां कहे छे के ‘आ आत्माना शुद्ध स्वभावनी साक्षात् प्राप्ति अथवा सर्वथा मोक्ष ते साध्य छे.’ साध्य छे, ध्येय नहीं. ध्येय तो त्रिकाळी एकरूप ज्ञायकभाव छे. अहीं प्रगट करवानी अपेक्षाए केवळज्ञाननी मोक्षपर्यायने साध्य कही. साक्षात् प्राप्ति एटले आत्मानी उपलब्धि. जेवा स्वभावे आत्मा छे तेवा (परिपूर्ण) स्वभावनी पर्यायमां प्राप्ति ते आत्मोपलब्धि छे, ए मोक्ष छे, साध्य छे.
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आत्मा मेचक छे के अमेचक छे-एटले के त्रण पर्यायरूपे परिणमेलो छे के एकरूप छे एवा विचारो ज कर्या करवाथी साध्य सिद्ध थतुं नथी. आत्मा पर्यायमां त्रण प्रकारे परिणमेलो छे एवा भेदरूप विचारो अनेकाकारपणुं छे, अशुद्धपणुं छे. अने त्रिकाळी वस्तु अभेद छे, एकस्वभावी छे, अमेचक छे, निर्मळ-शुद्ध छे एवो विचार पण भेदविकल्प छे. तेथी एवा विचारमात्र कर्या करवाथी साध्य सिद्ध थतुं नथी. एटले के केवळज्ञाननी प्राप्ति अर्थात् जेवो आत्मा छे तेवी पर्यायमां उपलब्धि-प्राप्ति आवा विचारोथी थती नथी. परंतु दर्शन अर्थात् शुद्ध स्वभावनुं अवलोकन अने प्रतीति (बन्ने भाव), ज्ञान अर्थात् शुद्ध स्वभावनुं प्रत्यक्ष जाणपणुं, अने चारित्र अर्थात् शुद्ध स्वभावमां स्थिरता-तेमनाथी ज साध्यनी सिद्धि थाय छे.
दर्शन एटले त्रिकाळी शुद्ध स्वभावनुं अवलोकन. एमां श्रद्धा अने देखवुं बन्ने भाव आव्या. ज्ञान एटले शुद्ध स्वभावनुं प्रत्यक्ष जाणपणुं. एमां स्वसंवेदनज्ञाननी वात छे. स्व कहेतां पोताथी, सम् नाम प्रत्यक्ष वेदन. स्वसंवेदन एटले पोताथी पोताने प्रत्यक्ष वेदवुं. एनुं ज नाम सम्यग्ज्ञान छे. शास्त्रज्ञान अने बीजा (बाह्य) ज्ञाननी अहीं वात नथी. व्यवहारज्ञान, शास्त्रनुं विकल्पवाळुं बहारनुं ज्ञान ए कांई सम्यग्ज्ञान नथी. फक्त भगवान आत्मा शुद्ध एकस्वभावी छे तेनुं पर्यायमां स्वसंवेदन एनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे. अने चारित्र? कह्युं छे ने के “एक देखिये जानिये रमि रहिये इक ठौर”-ठौर एटले स्थान. जे वस्तु अखंड अभेद छे एने देखवी, जाणवी अने एमां ज विश्राम लेवो. अहाहा! शुद्ध स्वभावमां ध्रुव, ध्रुव धाममां स्थिरता-विश्राम-विश्राम-विश्राम ते चारित्र छे. तेमनाथी ज साध्यनी सिद्धि थाय छे. जुओ ‘ज’ शब्द लीधो छे. आनाथी थाय अने व्यवहारथी पण थाय एम अहीं ना लीधुं. एकान्त कह्युं के तेमनाथी ज साध्यनी सिद्धि थाय छे.
हवे कहे छे के-आ ज मोक्षमार्ग छे. त्रिकाळी भगवान एकरूपस्वभावनां द्रष्टि, ज्ञान अने एमां रमणता ते एक ज मोक्षमार्ग छे. मोक्षमार्ग बे नथी. पंडित श्री टोडरमलजीए कह्युं छे के मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारे छे, मोक्षमार्ग बे प्रकारे नथी. जे स्वना आश्रये थाय ते एक ज मोक्षमार्ग छे. अत्यारना कोई पंडित कहे छे के बे मोक्षमार्ग न माने ए भ्रममां छे. पूर्वना पंडित टोडरमलजी कहे छे के बे मोक्षमार्ग माने ए भ्रममां छे. वळी हालना कोई पंडित एम कहे छे के-“व्यवहारथी न थाय एम न कहेवुं, एम कहेतां निश्चयाभास थई जाय छे.” अहीं कहे छे के त्रिकाळी एकरूप आत्मानी सेवा करतां पर्यायमां त्रण प्रकार पडे तेने व्यवहार कहे छे. प्रवचनसार, ज्ञेय अधिकार, गाथा ९४ नी टीकामां कह्युं छे के-जे त्रिकाळी भगवान आत्मानी श्रद्धा-ज्ञान- चारित्रनी वीतरागी पर्याय एने आत्मव्यवहार कहीए अने रागादिनो व्यवहार ए मनुष्यव्यवहार छे. दया, दान, व्रत अने भक्तिनो विकल्प ए मनुष्यनो मानसिक व्यवहार छे, एनाथी संसार थशे. समजाय छे कांई?
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आत्मा ज्ञायकस्वभाव एकरूप वस्तुनी सेवना करवाथी जे निश्चय सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र प्रगट थाय तेने सत्य-भूतार्थ मोक्षमार्ग कह्यो छे, अने रागादि (क्रियाकांड) ने बंध अधिकारमां अभूतार्थ मोक्षमार्ग कह्यो छे. ११ मी गाथामां भगवान भूतार्थ वस्तु जे कही छे ए भूतार्थनां द्रष्टि-ज्ञान-चारित्र ए पर्यायमां भूतार्थ (मोक्षमार्ग) छे. ११ मी गाथामां जे भूतार्थ कह्यो ते द्रव्य-वस्तु भूतार्थ कही. त्यां त्रिकाळी वस्तु-पुण्यपाप रहित, परद्रव्यरहित अने एक समयनी व्यक्त पर्यायथी पण रहित-जे ध्रुव वस्तु आत्मा छे तेने मुख्य करीने निश्चय कहीने भूतार्थ-सत्यार्थ कह्यो अने पर्यायने गौण करीने व्यवहार कहीने असत्यार्थ कही.
जे भूतार्थ वस्तु छे तेना आश्रयथी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप पर्याय परिणमे एने भूतार्थ मोक्षमार्ग कहे छे. ते सत्यार्थ मोक्षमार्ग पण पर्याय छे, माटे व्यवहार छे. आवी वात कयां छे, भाई? ओहो! आ तो परम सत्य वीतरागनो मार्ग! भगवाननी द्रिव्यध्वनि!!
हवे आ ज प्रयोजनने बे गाथाओमां, गाथा १७-१८ मां द्रष्टांतथी कहे छे.
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हवे, आ ज प्रयोजनने बे गाथाओमां द्रष्टांतथी कहे छेः-
तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।। १७ ।।
अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।। १८ ।।
यथा नाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति।
ततस्तमनुचरति पुनरर्थार्थिकः प्रयत्नेन।। १७ ।।
एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः।
अनुचरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन।। १८ ।।
ज्यम पुरुष कोई नृपतिने जाणे, पछी श्रद्धा करे,
पछी यत्नथी धन–अर्थी ए अनुचरण नृपतिनुं करे; १७.
जीवराज एम ज जाणवो, वळी श्रद्धवो पण ए रीते,
एनुं ज करवुं अनुचरण पछी यत्नथी मोक्षार्थीए. १८.
गाथार्थः– [यथा नाम] जेम [कः अपि] कोई [अर्थार्थिकः पुरुषः] धननो अर्थी पुरुष [राजानं] राजाने [ज्ञात्वा] जाणीने [श्रद्दधाति] श्रद्धा करे छे, [ततः पुनः] त्यार बाद [तं प्रयत्नेन अनुचरति] तेनुं प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करे छे अर्थात् तेनी सुंदर रीते सेवा करे छे, [एवं हि] एवी ज रीते [मोक्षकामेन] मोक्षनी ईच्छावाळाए [जीवराजः] जीवरूपी राजाने [ज्ञातव्यः] जाणवो, [पुनः च] पछी [तथा एव] ए रीते ज [श्रद्धातव्यः] तेनुं श्रद्धान करवुं [तु च] अने त्यार बाद [स एव अनुचरितव्यः] तेनुं ज अनुचरण करवुं अर्थात् अनुभव वडे तन्मय थई जवुं.
टीकाः– निश्चयथी जेम कोई धन-अर्थी पुरुष बहु उद्यमथी प्रथम तो राजाने जाणे के आ राजा छे, पछी तेनुं ज श्रद्धान करे के ‘आ अवश्य राजा ज छे, तेनुं सेवन करवाथी अवश्य धननी प्राप्ति थशे’ अने त्यार पछी ज तेनुं ज अनुचरण करे, सेवन करे, आज्ञामां रहे, तेने प्रसन्न करे; तेवी रीते मोक्षार्थी पुरुषे प्रथम तो आत्माने
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अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम्।
सततमनुभवामोऽनन्तचैतन्यचिह्नं
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः।। २० ।।
__________________________________________________ जाणवो, पछी तेनुं ज श्रद्धान करवुं के ‘आ ज आत्मा छे, तेनुं आचरण करवाथी अवश्य कर्मोथी छूटी शकाशे’ अने त्यार पछी तेनुं ज आचरण करवुं-अनुभव वडे तेमां लीन थवुं; कारण के साध्य जे निष्कर्म अवस्थारूप अभेद शुद्धस्वरूप तेनी सिद्धिनी ए रीते उपपत्ति छे, अन्यथा अनुपपत्ति छे (अर्थात् साध्यनी सिद्धि ए रीते थाय छे, बीजी रीते थती नथी).
(ते वात विशेष समजावे छेः-) ज्यारे आत्माने, अनुभवमां आवता जे अनेक पर्यायरूप भेदभावो तेमनी साथे मिश्रितपणुं होवा छतां पण सर्व प्रकारे भेदज्ञानमां प्रवीणपणाथी ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं’ एवा आत्मज्ञानथी प्राप्त थतुं, आ आत्मा जेवो जाण्यो तेवो ज छे एवी प्रतीति जेनुं लक्षण छे एवुं, श्रद्धान उद्रय थाय छे त्यारे समस्त अन्यभावोनो भेद थवाथी निःशंक ठरवाने समर्थ थवाने लीधे आत्मानुं आचरण उद्रय थतुं आत्माने साधे छे. आम साध्य आत्मानी सिद्धिनी ए रीते उपपत्ति छे.
परंतु ज्यारे आवो अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाळगोपाळ सौने सदाकाळ पोते ज अनुभवमां आवतो होवा छतां पण अनादि बंधना वशे पर (द्रव्यो) साथे एकपणाना निश्चयथी मूढ जे अज्ञानी तेने ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं’ एवुं आत्मज्ञान उद्रय थतुं नथी अने तेना अभावने लीधे, नहि जाणेलानुं श्रद्धान गधेडानां शिंगडांना श्रद्धान समान होवाथी, श्रद्धान पण उद्रय थतुं नथी त्यारे समस्त अन्यभावोना भेद वडे आत्मामां निःशंक ठरवाना असमर्थपणाने लीधे आत्मानुं आचरण उद्रय नहि थवाथी आत्माने साधतुं नथी. आम साध्य आत्मानी सिद्धिनी अन्यथा अनुपपत्ति छे.
भावार्थः– साध्य आत्मानी सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी ज छे, बीजी रीते नथी. कारण केः-पहेलां तो आत्माने जाणे के आ जाणनारो अनुभवमां आवे छे ते हुं छुं. त्यार बाद तेनी प्रतीतिरूप श्रद्धान थाय; विना जाण्ये श्रद्धान कोनुं? पछी समस्त अन्यभावोथी भेद करीने पोतामां स्थिर थाय.-ए प्रमाणे सिद्धि छे. पण जो जाणे ज नहि, तो श्रद्धान पण न थई शके; तो स्थिरता शामां करे? तेथी बीजी रीते सिद्धि नथी एवो निश्चय छे.
हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
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श्लोकार्थः– आचार्य कहे छे केः [अनन्तचैतन्यचिह्नं] अनंत (अविनश्वर) चैतन्य जेनुं चिह्न छे एवी [इदम् आत्मज्योतिः] आ आत्मज्योतिने [सततम् अनुभवामः] अमे निरंतर अनुभवीए छीए [यस्मात्] कारण के [अन्यथा साध्य– सिद्धिः न खलु न खलु] तेना अनुभव विना अन्य रीते साध्य आत्मानी सिद्धि नथी. केवी छे आत्मज्योति? [कथम् अपि समुपात्तक्रित्वम् अपि एकतायाः अपतितम्] जेणे कोई प्रकारे त्रणपणुं अंगीकार कर्युं छे तोपण जे एकपणाथी च्युत थई नथी अने [अच्छम् उद्गच्छत्] जे निर्मळपणे उद्रय पामी रही छे.
भावार्थः– आचार्य कहे छे के जेने कोई प्रकारे पर्यायद्रष्टिथी त्रणपणुं प्राप्त छे तोपण शुद्धद्रव्यद्रष्टिथी जे एकपणाथी रहित नथी थई तथा जे अनंत चैतन्यस्वरूप निर्मळ उदयने प्राप्त थई रही छे एवी आत्मज्योतिनो अमे निरंतर अनुभव करीए छीए. आम कहेवाथी एवो आशय पण जाणवो के जे सम्यग्द्रष्टि पुरुष छे ते, जेवो अमे अनुभव करीए छीए तेवो अनुभव करे. २०.
टीकाः– हवे, कोई तर्क करे के आत्मा तो ज्ञान साथे तादात्म्यस्वरूपे छे, जुदो नथी, तेथी ज्ञानने नित्य सेवे ज छे; तो पछी तेने ज्ञाननी उपासना करवानी शिक्षा केम आपवामां आवे छे? तेनुं समाधानः ते एम नथी. जोके आत्मा ज्ञान साथे तादात्म्यस्वरूप छे तोपण एक क्षणमात्र पण ज्ञानने सेवतो नथी; कारण के स्वयंबुद्धत्व (पोते पोतानी मेळे जाणवुं ते) अथवा बोधितबुद्धत्व (बीजाना जणाववाथी जाणवुं ते) -ए कारणपूर्वक ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे. (कां तो काळलब्धि आवे त्यारे पोते ज जाणी ले अथवा तो कोई उपदेश देनार मळे त्यारे जाणे-जेम सूतेलो पुरुष कां तो पोते ज जागे अथवा तो कोई जगाडे त्यारे जागे.) अहीं फरी पूछे छे के जो एम छे तो जाणवाना कारण पहेलां शुं आत्मा अज्ञानी ज छे केम के तेने सदाय अप्रतिबुद्धपणुं छे? तेनो उत्तरः ए वात एम ज छे, ते अज्ञानी ज छे.
निश्चयथी एटले खरेखर जेम कोई धन-अर्थी-लक्ष्मीनी जरूरियातवाळो पुरुष बहु उद्यमथी प्रथम तो राजाने जाणे. एनां कपडां, शरीर, वैभव, एनो चहेरो, कपाळ वगेरे लक्षणोथी प्रथम जाणे के आ राजा छे. लक्ष्मीवंत छे, उपज घणी छे, शरीरमां पण पुण्य देखाय छे माटे आ राजा छे. पछी तेनी श्रद्धा करे के आ जरूर राजा ज छे, तेनुं सेवन करवाथी जरूर धननी प्राप्ति थशे. त्यार पछी तेनुं अनुचरण करे, एटले एनी आज्ञा प्रमाणे रहे, एनी सेवा करे अने एने प्रसन्न करे. जुओ, आ द्रष्टांत छे. तेवी रीते मोक्षार्थी पुरुषे प्रथम तो आत्माने जाणवो. जुओ, पहेलामां पहेलुं एने करवानुं होय
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तो भगवान आत्मा केवो छे, केवडो छे, कयां छे, केम छे-एम एने जाणवो. सीधी वात लीधी छे के अंतर स्वसंवेदनज्ञानथी प्रथम आत्माने जाणवो. अहाहा! मोक्षार्थी पुरुषे प्रथम आ करवानुं छे.
द्रष्टांतमां पेलो धनार्थी छे. तो आ मोक्षार्थी छे. एने पूर्णानंदनी प्राप्ति सिवाय बीजुं कांई प्रयोजन नथी. एने पुण्यनी इच्छा नथी, स्वर्गनी के कोई मोटी पदवी मळे एनी इच्छा नथी. एक ज पदवी मोक्षार्थी माटे छे, एक मोक्षनी. (द्रष्टांतमां) जेम पेलो एक धननो ज अर्थी छे एम आ एकलो मोक्षनो ज अर्थी छे. अनंत अनंत आनंदनी पर्यायमां प्राप्ति थाय ए मोक्ष. नियमसारमां आवे छे के आत्माना महा आनंदनो लाभ ते मोक्ष. बस ए मोक्ष जेनुं प्रयोजन छे ते मोक्षार्थी छे. श्रीमदे आत्मसिद्धिमां कह्युं छे केः-
समजाव्यो संक्षेपमां, सकल मार्ग निर्ग्रंथ.”
श्रीमद् राजचंद्रना आत्मसिद्धि शास्त्रमां पहेला ज छंदमां एम कह्युं छेः-
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत.”
अहीं जे पद समजाव्युं एटले के जे आत्मपद मने समजायुं ते पदने (स्वरूपने) हुं नमुं छुं एम कहे छे. जेवुं स्वरूप छे ते पहेलुं समजायुं. ते पदने हुं नमुं छुं. वळी १६ मा वर्षे “बहु पुण्य केरा....” ए काव्यमां एम कह्युं केः-
एना विचार विवेकपूर्वक शांत भावे जो कर्या,
तो सर्व आत्मिकज्ञानना, सिद्धांततत्त्व अनुभव्या.”
अहीं अमृतचंद्राचार्य महाराज दाखलो आपीने कहे छे के-प्रथम तो आत्माने जाणवो. जाणवो एटले स्वसंवेदनज्ञानथी एने जाणवो. शास्त्रथी जाणवो, धारणाथी जाणवो के गुरुए जणाव्यो तेथी जाणवो एम नहि. पण शुद्ध ज्ञानस्वभावी भगवान आत्माने पर्यायमां ज्ञेय बनावतां जे ज्ञान थाय ए स्वसंवेदनज्ञानथी आत्माने जाणवो. त्यारे आत्माने जाण्यो एम कहेवाय. ज्ञाता द्रव्यनुं पर्यायमां ज्ञान थाय त्यां द्रव्य पर्यायमां आवे नहि, पण पर्यायमां ज्ञाता द्रव्यनुं पूरुं ज्ञान थाय. आत्माने जाणवो एनो अर्थ एम छे के एक समयनी ज्ञानपर्यायमां आ ज्ञेय पूर्ण अखंड ध्रुव शुद्ध प्रभु जेवो छे तेवो परिपूर्ण जणाय त्यारे आत्माने जाण्यो एम कहेवाय. आवी वात
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छे, भाई! दुनिया अनेक प्रकारे विचित्र छे. तेनी साथे मेळ करवा जईश तो मेळ नहि खाय.
आत्मा ए अखंड वस्तु अने जाणवुं ए पर्याय छे. भगवान अमृतचंद्राचार्य मुनिसंत एनी टीका करे छे. ए गाथामां भरेला सामान्यभावने विशेष स्पष्ट करे छे. माणसो नथी कहेता के-‘तु मारी टीका करे छे?’ एटले के तुं केवो छे एनी टीका कहेतां विशेष स्पष्टता करे छे. एम अहीं आत्मा केवो छे एनी टीका करी छे. भगवानना दिव्यध्वनिनी संतोए टीका करी छे. अहीं टीकामां प्रथम एटले सौ पहेलां आत्मा जाणवो एम लीधुं छे. नवतत्त्वने जाणवां के रागने जाणवो ए अहीं न लीधुं. एकने जाणे ते सर्वने जाणे छे. ज्ञाननी पर्यायमां आखो आत्मा ज्ञेय पणे जणाय अने सौ प्रथम आ ज करवानुं छे. छठ्ठी गाथामां कह्युं के जे ज्ञायकभाव-स्वभाव छे ए शुभाशुभभावना स्वभावे थतो नथी, केम के शुभ के अशुभभावो अचेतन छे. ए चैतन्यरस अचेतनपणे केम थाय?
ज्ञायकभाव एकरूप चैतन्यवस्तु छे. आवो जे ज्ञायकभाव आत्मा एने प्रथम जाणवो एम आचार्य कहे छे. आचार्योए थोडुं लख्युं घणुं करीने जाणजो. भाई! छहढाळामां आवे छे केः-
लाख वात करी, अनंत वात करी. पण वात ए छे के निज आत्मानुं ध्यान करो. एटले पर्यायमां एने जाणो. एम कहीने एम सिद्ध कर्युं के रागनी मंदताथी आत्मानुं ज्ञान थाय एम कोई कहेता होय तो ए वस्तुस्थिति नथी. हमणां बहु चाले छे के-पहेलां व्यवहाररूप दया, दान इत्यादि रागनी मंदता करीए, पहेलुं चारित्र केटलुंक थाय पछी ज समक्ति थाय. अरे भगवान! चारित्र समक्ति विना कदी थतुं नथी. वळी कोई एक जणे तो एम कह्युं छे के सातमुं गुणस्थान आव्या विना निश्चय समक्ति थाय नहीं. पण एम नथी, भाई! आ तो मोक्षार्थी जेने मोक्ष करवो छे एने पहेलां जाणे. स्वसंवेदन-ज्ञानथी प्रथम आत्माने जाणवो, पछी तेनुं ज श्रद्धान करवुं एम अहीं छे ने?
रत्नकरंडश्रावकाचारमां एम आवे छे के सम्यग्दर्शन करो, अने पछी ज्ञाननुं आराधन करवुं, एटले के रागद्वेष टाळवा माटे चारित्र ग्रहण करवुं आराधन करवुं एटले विशेष (मग्नता करवी), अहीं सम्यग्दर्शन थतां ज्ञान साथे ज होय छे एम कह्युं छे. तत्त्वार्थसूत्रमां “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः” तथा छहढाळामां (चोथी ढाळमां) “सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई.” ए प्रमाणे लीधुं छे. दर्शननी पूर्णता पहेली थाय छे एटले त्यां दर्शनने पहेलुं लीधुं. अहीं ज्ञानथी वात उपाडीने तेने पहेलुं केम कह्युं के-पहेलां जाण्या विना प्रतीति (श्रद्धा) कोनी? जे वस्तु ज्ञानमां जणाई नथी एनी प्रतीति शानी?
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आ पूर्णानंद अतीन्द्रिय आनंदकंद सच्चिदानंद परमस्वभावरूप आत्मा छे ते ज हुं छुं एम श्रद्धा करवी. एनी श्रद्धामां एम आव्युं के आ अंदर जे प्रत्यक्ष जणायो ए ज आत्मा छे अने तेनुं आचरण करवाथी एटले के तेमां एकाग्र थवाथी अवश्य कर्मोथी छूटी शकाशे. शुं कह्युं? जुओ, तेनुं आचरण करवाथी एटले जे ज्ञायकभाव-स्वभाव-भाव ज्ञाननी पर्यायमां प्रत्यक्ष जणायो अने जेनी श्रद्धा थई के आ ज आत्मा छे एमां आचरण करीश तो कर्मोथी छूटाशे. बीजी कोई क्रिया तो छे नहीं. बहारनां क्रियाकांड-व्रत अने तप करीश तो कर्मोथी छूटाशे एम एनी श्रद्धामां नथी आवतुं. घणुं गंभीर भर्युं छे, भाई! एक तो ए के आत्माने सीधो जाणवो. एटले के व्यवहार आवो होय तो जणाय ए वात काढी नाखी. बीजुं ए के आ आत्मा छे एम जाण्युं तेथी एनी श्रद्धामां एम आव्युं के आत्मामां ठरीश त्यारे कर्म छूटशे, पण आटला उपवास करवाथी कर्म छूटशे एम नहि. त्यां प्रश्न थाय के शास्त्रमां (तत्त्वार्थसूत्रमां) आवे छे के-“तपवा निर्जरा” उत्तर एम छे के ए तो निमित्तनां कथन छे. मार्ग तो आवो छे, भाई!
अरेरे! चोरासीना अवतारमां ए दुःखी छे. एने एना दुःखनी खबर नथी. पण ए आकुळताना वेदनमां छे, भाई! जैनना वेदनमां, स्वना वेदनमां नथी. छहढाळामां चोथी ढाळमां आवे छे के ए आकुळताना वेदनमां साधु थई नवमी ग्रैवेयके गयो. एणे पंच महाव्रत अने र८ मूलगुणनुं पालन कर्युं पण ए आकुळतानुं वेदन हतुं.
प्रश्नः–मंद आकुळता हती ने?
उत्तरः–मंद पण आकुळता हती ने? तेथी तो कह्युं के सुख लेश न पायो. बापु! आ तो वीतरागस्वरूप आत्मानो मार्ग छे. आ आत्मा छे तेनुं आचरण करवाथी जरूर कर्मोथी छूटाशे एवी श्रद्धामां एम आव्युं के निज ज्ञायकभावमां जेटली रमणता करशे तेटलुं चारित्र थशे अने तेटलुं कर्मोथी छूटाशे. पहेलां श्रद्धामां ज आम जणायुं. लोकोने आकरुं लागे, पण शुं थाय?
अहीं कहे छे के आत्मा एकलो ज्ञेय थईने अंदर ज्ञानमां जणायो त्यारे तेने आ आत्मा छे एम श्रद्धा थई. त्यारे ए श्रद्धामां एम आव्युं के आ ज्ञायकभाव जे भगवान आत्मा तेनुं अनुचरण करवाथी, एमां ठरवाथी कर्म जरूर छूटशे, पण पंचमहाव्रतना विकल्प ए आत्मानुं अनुचरण नहि होवाथी तेनाथी कर्म छूटशे नहि. अंदर एक ज्ञायकभावमां एकाकार थवुं, एमां रमवुं, चरवुं, जामी जवुं, आनंदनुं वेदन करवुं-एनाथी कर्म छूटशे, मलिन परिणाम छूटशे. आवी वात छे, भाई! दुनिया साथे मेळ खाय एम नथी. पण शुं थाय? आत्मामां रमे ते राम कहीए. अन्यत्र रमे
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ते हराम (कुचारित्र). आत्माना आनंदमां रमवुं, निजानंदमां रमवुं ए चारित्र छे. हवे लोको कांई ने कांई क्रिया अने बहारनां पंचमहाव्रतादिने मोक्षनो मार्ग-साधन माने छे, पण भाई! ए कांई साधन नथी. परंतु निमित्तथी कथन करीने कह्युं छे. त्रण लोकनो नाथ जे सिद्धस्वरूपी परमात्मा एनुं ज्ञान, श्रद्धान थाय त्यारे एमां ठरे. ए ज्ञायकस्वरूप आनंदघन भगवान आत्मामां चरवुं, रमवुं, लीन थवुं, स्थिरता करवी ए अनुभव छे, ए चारित्र छे. अहाहा! कह्युं छे ने केः-
केटलाक कहे छे के कानजीस्वामीनुं आ बधुं एकान्त छे. पण एम नथी. कारण के अहीं तो सम्यक् एकान्त सिद्ध करे छे, के एमां (आत्मामां) ज आचरण करवुं. रागनुं आचरण करवुं एम नहीं. पहेलां एनी श्रद्धामां तो नक्की करे के भगवान आनंदनो नाथ प्रभु जे अंदरमां जणायो अने श्रद्धामां आव्यो एमां ठरवुं ए चारित्र छे. व्रत, तप, उपवास आदि कांई चारित्र नथी. उपवास एटले उप नाम समीपमां-भगवान आनंदना नाथनी समीपमां वास एटले वसवुं-अनुभव वडे वसवुं. आत्मामां अनुभव वडे लीन थवुं ए चारित्र छे. अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ भगवान आत्मा ज्ञानमां जणायो एवो श्रद्धयो के आ अंदर स्वरूपथी देखायो ते आत्मा अने एमां ठरवुं एनो अनुभव करवो ते चारित्र. आवा अनुभवनी महोर-छाप विशे पांचमी गाथामां आवे छे के आत्मानो निजविभव केवो छे? “निरंतर झरतो आस्वादमां आवतो सुंदर जे आनंद तेनी छापवाळुं जे प्रचूर संवेदनस्वरूप स्वसंवेदन तेनाथी जेनो जन्म छे.” आवो आनंदनो अनुभव ते आत्मानो साक्षात्कार छे. अनुभव, अनुभव एम तो बीजा बधा अन्यमतीओमां पण कहे छे पण ए अनुभव नथी.
आ प्रमाणे मोक्षार्थी पुरुषे प्रथम आत्माने जाणवो, पछी तेनुं ज श्रद्धान करवुं के ‘आ ज आत्मा छे’ अने तेनुं आचरण करवाथी अवश्य कर्मोथी छूटी शकाशे, अने त्यारपछी तेनुं ज अनुचरण करवुं-अनुभव वडे तेमां लीन थवुं; कारण के साध्य जे निष्कर्म अवस्थारूप अभेद शुद्धस्वरूप तेनी सिद्धिनी ए रीते उपपत्ति छे, अन्यथा अनुपपत्ति छे. जे मोक्षार्थी थयो तेने मोक्ष अवस्था साध्य छे. ए राग विनानी, कर्म विनानी निर्मळ अवस्था छे. ए निर्मळ अवस्थारूप अभेद शुद्धस्वरूपनी ए रीते उपपत्ति छे अन्यथा अनुपपत्ति छे. एटले एनी प्राप्तिनो आ उपाय छे, बीजो कोई उपाय नथी. आ अनेकान्त छे. आनाथी प्राप्ति थाय अने व्यवहारथी पण प्राप्ति थाय एम अनेकान्त नथी. आनाथी ज थाय अने बीजी रीते न थाय ए अनेकान्त छे.
छहढाळामां आवे छे के “आतम हित हेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपकुं कष्टदान.”
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केटलाक कहे छे के पंचमहाव्रत पाळवां, त्याग करवो, परिषह सहन करवा इत्यादि कष्ट सहन करीए तो धर्म थाय अने केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय. अहीं तो कहे छे के कष्ट ए धर्म नथी पण भगवान आत्मामां एकाग्र थतां एमां आनंद आवे ए धर्म छे. आनंदनी लहेरोनो अनुभव करतां करतां केवळज्ञानने पामे, पण कष्ट सहन करे तो पामे एम नथी. भाई! वस्तु तो सहजानंदस्वरूप छे. स्वाभाविक आनंदने आधीन थतां, अतीन्द्रिय आनंदने वेदतां वेदतां केवळज्ञान थई जाय छे. आ वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे, अर्थात् साध्यनी सिद्धि ए रीते थाय छे, बीजी रीते थती नथी.
केटलाक एम कहे छे के निश्चयथी थाय अने व्यवहारथी पण थाय, निश्चय पण मोक्षमार्ग अने व्यवहार पण मोक्षमार्ग, जेम निश्चय आदरणीय तेम व्यवहार पण आदरणीय; पण एम नथी. अहाहा....! एकलो भगवान आत्मा जाणवो, श्रद्धवो अने एमां ठरवुं ए एक ज मोक्षमार्ग छे. तो कहे छे-व्यवहार कह्यो छे ने? भाई, ए तो उपचारथी कथन कर्युं छे, पण मोक्षमार्ग बे नथी. मार्ग एटले कारण. मोक्षमार्ग एटले मोक्षनुं कारण. ए मोक्षनुं कारण एक ज छे, बे कारण नथी. मोक्षमार्ग एक ज छे एटले शुं? के कार्य जे सिद्धदशा एनुं कारण एक निश्चय कारण ज छे. बीजुं हो भले, पण ते जाणवा माटे; बाकी कारण नथी. आवी स्थिति सीधी छे पण पक्षना व्यामोह आडे सूझ पडे नहीं अने (साचा रस्ते) फरवुं गोठे नहीं. आटलां वर्ष शुं कर्युं? ते धूळ कर्युं. (बधुं व्यर्थ) सांभळने! त्रणलोकना नाथने जगाडयो नहीं, एनी श्रद्धा करी नहीं अने एमां ठर्यो नहीं तो शुं कर्युं? (कांई कर्युं नहीं.)
हवे ए वात विशेष समजावे छेः-
ज्यारे आ आत्माने अनुभवमां आवता जे अनेक पर्यायरूप भेदभावो तेमनी साथे मिश्रितपणुं होवा छतां-एटले भगवान आत्माना ज्ञानमां पुण्य-पाप दया, दान, व्रत, आदि अनेक पर्यायरूप भेदभावो तेनी साथे मिश्रित होवा छतां सर्व प्रकारे भेदज्ञानमां प्रवीणपणाथी ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं’ अर्थात् जाणवानी दशा जे अनुभवमां आवे छे ते ज हुं छुं अने ज्ञानमां जणाय छे ते दया, दान, रागादि व्यवहार ते हुं नथी एम आत्मज्ञान प्राप्त थाय छे. अहीं कह्युं ने के ज्ञानमां जणाय के आ रागादि छे, पण ए मोक्षमार्ग नथी. १२ मी गाथामां पण कह्युं के-“व्यवहारनय ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे.” ते काळे एटले ते ते समये जेटला प्रमाणमां रागनी अशुद्धताना अने वीतरागता-शुद्धताना अंशो छे तेने जाणवा ए भेदरूप व्यवहारज्ञान छे. ए जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो प्रयोजनवान नथी. आवी चोकखी स्पष्ट वात होवा छतां घणा वर्षोथी (अनंतकाळथी) मान्युं-मनाव्युं होय एटले फरवुं कठण पडे. पण जीवन जाय छे जीवन. (खोटी मान्यतामां आयुष्य पूरुं थई जशे). मार्ग तो आ छे, भाई!
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आत्माने अनुभवना वेदनमां आवता रागादि जे अनेक पर्यायरूप भेदभावो तेमनी साथे मिश्रितपणुं एटले ज्ञान अने राग बन्ने एकमेकपणे लागवापणुं हतुं. ते ज्यारे सर्वप्रकारे भेदज्ञाननुं प्रवीणपणुं थवाथी अर्थात् रागथी खसीने स्वभाव तरफनो झूकाव थवाथी ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं’ -ज्ञानमां जे अनुभूतिस्वरूप त्रिकाळी जणायो ते ज हुं छुं एवुं आत्मज्ञान प्राप्त थाय छे. रागथी भिन्न पडीने आ अनुभवस्वरूप भगवान आत्मा ते हुं छुं एवा आत्मज्ञानथी प्राप्त थतुं, आ आत्मा शुद्ध अखंड अभेद एक चैतन्यरूप जेवो ज्ञानमां जणायो तेवो ज छे एवी प्रतीति जेनुं लक्षण छे एवुं, श्रद्धान उद्रय थाय छे. भेदज्ञाननी प्रवीणताथी अर्थात् रागथी भिन्न पडी भगवान ज्ञानस्वरूप आत्माना अनुभवथी आत्मा अखंड एक ज्ञायकरूप जेवो जाण्यो तेवी ज तेनी प्रतीति करी. जाण्या विना ए छे ए मान्युं कोणे? सम्यग्दर्शननुं लक्षण प्रतीति छे. पंचाध्यायीमां चार बोल लीधा छे. श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, ज्ञाननी पर्याय. त्यां एने ज्ञाननी पर्याय गणी ए तो व्यवहारथी कथन छे. अहीं तो आ निश्चयनी वात छे के जे आत्मा ज्ञानमां जणायो एनी जे श्रद्धा थई ते प्रतीति. माटे सम्यग्दर्शननुं लक्षण प्रतीति छे.
आत्मा आखी चीज छे. तेनुं ज्ञान ए आत्मज्ञान कह्युं छे. आत्मामां गुणनुं के पर्यायनुं ज्ञान ते आत्मज्ञान एम नथी. आखो आत्मा एटले जे त्रिकाळी ध्रुव अखंड एक प्रतिभासमय पूर्णस्वरूप ते पर्यायमां जणायो, एनुं जे ज्ञान थयुं ते पर्याय आत्मज्ञान छे. सादी भाषा छे, पण लोको एकान्त एकान्त करे छे. व्यवहारथी थाय एम व्यवहारने साधन कहेता नथी एम कहे छे, पण भाई! आ सम्यक् एकान्त छे, ‘ज’ बधे पडयो छे ने? श्रीमदे पण कह्युं छे के “अनेकान्तनुं ज्ञान पण एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य कोई हेतुए हितकारी नथी.” सम्यक् एकान्त एवा आत्माना हित सिवाय बीजुं कोई अनेकान्त होई शके नहि.
अहाहा! आवुं आत्मज्ञान थतां श्रद्धान उद्रय थाय छे त्यारे समस्त अन्यभावोनो भेद थवाथी एटले दया, दान, भक्ति आदिना शुभभावो जे अन्यभावो छे तेनी जुदाई थवाथी निःशंक ठरवाने समर्थ थवाने लीधे आत्मानुं आचरण उद्रय थतुं आत्माने साधे छे. रागना विकल्पथी जुदो छुं एवुं भेदज्ञान थवाथी स्वरूपमां निःशंक ठरवाने लीधे आत्मानुं चारित्र-आत्मानुं अनुष्ठान-आत्मामां रमणता प्रगट थाय छे अने ते आत्माने साधे छे. व्यवहारना विकल्पथी भिन्न पडीने स्वरूपमां निःशंक ठरतां ए आचरण आत्मानी सिद्धिने साधे छे. आम साध्य आत्मानी सिद्धिनी ए रीते उपपत्ति छे. साध्य जे मोक्षदशा तेनी सिद्धि-प्राप्ति ए रीते थाय छे, बीजी रीते नहि. अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिने स्वनुं आचरण होतुं नथी. (तेथी साध्यनी सिद्धि तेने थती नथी.)
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टीकाना पहेला बे पेरेग्राफ थई गया. हवे अनुपपत्तिनो त्रीजो छेल्लो पेरेग्राफ रह्यो. तेमां हवे कहे छेः-
“ज्यारे आवो अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाळ-गोपाळ सौने सदाकाळ पोते ज अनुभवमां आवतो होवा छतां” जुओ, शुं कहे छे? आबाळ-गोपाळ सौने एटले नानाथी मोटा दरेक जीवोने जाणवामां तो सदाकाळ (निरंतर) अनुभूतिस्वरूप- ज्ञायक-स्वरूप निज आत्मा ज आवे छे. (अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा त्रिकाळीनुं विशेषण छे, ज्ञायकभावने अहीं अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा कह्यो छे.) आबाल- गोपाल सौने जाणनक्रियाद्वारा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा ज जणाई रह्यो छे. जाणनक्रिया द्वारा सौने जाणनार ज जणाय छे. (अज्ञानीने पण समये समये ज्ञाननी पर्यायमां पोतानो ज्ञानमय आत्मा ज उर्द्धपणे जणाई रह्यो छे. जाणपणुं निज आत्मानुं छे छतां ए छे ते हुं छुं एम अज्ञानीने थतुं नथी. अज्ञानी परनी रुचिनी आडे ज्ञानमां पोतानो ज्ञायकभाव जणातो होवा छतां एनो तिरोभाव करे छे अने ज्ञानमां खरेखर जे जणाता नथी एवा राग आदि परज्ञेयोनो आविर्भाव करे छे.)
अहाहा! आम सदाकाळ सौने पोते ज एटले के आत्मा ज जाणवामां आवे छे. (अज्ञानीओ कहे छे के आत्मा कयां जणाय छे? अने अहीं ज्ञानीओ एम कहे छे के दरेक आत्माओने पोतानो आत्मा ज जणाय छे पण अज्ञानी एनो स्वीकार करतो नथी.) पुण्य पाप आदि जे विकल्प छे ते अचेतन अने पर छे तेथी उर्द्धपणे ज्ञाननी पर्यायमां ते जणाता नथी परंतु जाणनार ज जणाय छे.
आम सौने पोते ज अनुभवमां आवतो होवा छतां अनादि बंधना वशे-एटले अनादि बंधना कारणे एम नहीं परंतु अनादि बंधने (पोते) वश थाय छे तेथी; आ जाणनार-जाणनार-जाणनार ते हुं छुं एम न मानतां राग हुं छुं एम माने छे. अनादि बंधना वशे-एटले कर्मने लईने एम नहीं; आ एक सिद्धांत छे के कर्म छे माटे विकार थाय छे एम नथी. आत्मा अनादि बंध छे एने वश थाय छे माटे विकार थाय छे. एटले के सौने जाणन-जाणन-जाणन भाव ज जाणवामां आवे छे. शरीरने, रागने जाणतां पण जाणनार ज जणाय छे. पण अनुभूतिस्वरूप आत्मा हुं छुं, आ जाणनार ते हुं छुं, एम अज्ञानीने न थतां बंधने वश पडयो छे. आत्माने वश थवुं जोईए एने बदले कर्मने वश थयो छे. पूजामां आवे छे ने केः-
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हवे आत्मा अने राग वच्चे सांध छे ए वात समजावे छे. (मोक्ष अधिकार, गाथा २९४ मां संधिनी वात छे) ए बंधना वशे पर साथे एकपणाना निश्चयथी- “जाणनार-जाणनार जणाय छे” एम न जाणतां जाणनारनी पर्याय वर्तमान कर्म संबंधने वश थई (स्वतंत्रपणे वश थई) पर साथे-राग अने पुण्यना विकल्पो साथे एकपणानो अध्यास-निर्णय करे छे. हुं राग ज छुं एम माने छे छतां एकपणे थतो नथी. राग अने आत्मा वच्चे संधि छे. (सांध छे.) रागनो विकल्प अने ज्ञानपर्याय ए बे वच्चे संधि छे. जेम मोटा पथ्थरनी खाण होय तेमां पथ्थरमां पीळी, लाल, धोळी रग होय छे. ए बे वच्चे संधि छे. ए पथ्थरोने जुदा पाडवा होय तो ए संधिमां सुरंग नांखे एटले पथरा उडीने जुदा पडी जाय छे. तेम ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा अने राग बे वच्चे संधि छे. अहाहा! त्यां तो एम कह्युं के निःसंधि थया नथी-एटले बे एक थया नथी. (बे वच्चे संधि होवा छतां बे एक थया नथी). पण (बन्नेना) एकपणाना निश्चयथी मूढ अज्ञानी तेने जे रागनो विकल्प उठे छे अने वश थईने ते हुं छुं एम परपदार्थ जे रागादि तेने पोताना माने छे, परंतु रागथी भिन्न अनुभवरूप पोतानी चीज जुदी छे एनुं भान नहीं होवाथी आ जाणनार जणाय छे ते हुं छुं एम मानतो नथी.
प्रवचनसार गाथा र०० मां आवे छे के ज्ञायकभाव कायम ज्ञायक पणे ज रह्यो छे. छतां अज्ञानी बीजी रीते हुं आ राग छुं, पुण्य छुं एवो अन्यथा अध्यवसाय करे छे. भाई! सूक्ष्म वात छे. जिनेन्द्र मार्ग जुदो छे. लोको बहारमां एकला क्रियाकांड-आ करवुं अने ते करवुं-एमां खूंची गया छे. एटले कांई हाथ आवतुं नथी. भगवान अमृतचंद्राचार्य टीकाकार कहे छे के प्रभु! तुं तो जाणनार स्वरूप सदाय रह्यो छे ने? जाणनार ज जणाय छे ने? अहाहा! जाणनार ज्ञायक छे ते जणाय छे एम न मानतां बंधना वशे जे ज्ञानमां पर रागादि जणाय तेना एकपणानो निर्णय करतो मूढ जे अज्ञानी तेने ‘आ अनुभूति छे ते ज हुं छुं’ एवुं आत्मज्ञान उद्रय थतुं नथी. झीणी वात, भाई! आ टीका साधारण नथी. घणो मर्म भर्यो छे.
भगवान आत्मा ज्ञायकज्योति ध्रुव वस्तु छे ए तो जाणनस्वभावे परमपारिणामिकभावे स्वभावभावरूपे ज त्रिकाळ छे. राग साथे द्रव्य एकपणे थयुं नथी; पण जाणनार जेमां जणाय छे ते ज्ञान पर्याय लंबाईने अंदर जती नथी. जाणनार सदाय पोते जणाई रह्यो छे एवी ज्ञाननी पर्याय थई रही होवा छतां आ अंदर जाणनार ते हुं छुं अर्थात् आ ज्ञाननी पर्यायमां जणाय छे ते हुं छुं एम अंदरमां न जतां कर्मने रागने वश पडयो थको बहारमां जे राग जणाय छे ते हुं छुं एम माने छे. अहा! आचार्ये सादी भाषामां मूळ वात मूकी दीधी छे. त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर अने गणधरोनी वाणीनी गंभीरतानी शी वात! पंचमआराना संते आटलामां तो सम्यक्दर्शन पामवानी कळा अने मिथ्यादर्शन केम प्रगट थाय छे तेनी वात करी छे.
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अरे भाई! तुं दुःखी प्राणी अनादिनो छे. रागने बंधने वश थयो तेथी दुःखी छे ए निराकुळ भगवान आनंदनो नाथ छे. एने पर्यायमां-ज्ञानमां जाणनारो ते पोते छे, एम न जाणतां ज्ञाननी पर्यायमां परने वश थयो थको राग ते हुं एवी मूढता उत्पन्न करे छे. थोडा शब्दोमां मिथ्यात्व केम छे अने सम्यक्त्व केम थाय एनी वात करी छे.
घणा लोको अत्यारे माने छे के कर्मने लईने आम थाय. पण भाई! कर्म तो जड छे. एने लईने शुं होय? कोई कर्म आडे आवतुं नथी. जाणवावाळाने जाणे नहि अने रागने वश पडी एम माने के हुं आ (रागादि), ए तो पोते वश थाय छे. “अपनेको आप भूलके हेरान हो गया.” मूळ सम्यग्दर्शन अने आत्मज्ञाननी वात पडी रही अने मूळ विना (त्यागमां धर्म मानीने) बधां पांदडां तोडयां. जेम आंबलीनां लाखो पान होय ते तोडे पण मूळ साजुं रहे तो ते १प दिवसमां पांगरी जाय. तेम रागनी मंदतानी क्रियाओ अनंतवार करी ए पांदडां तोडयां, राग रहित आत्मा केवो छे तेने जाण्या विना अज्ञानथी मिथ्यात्वनुं मूळ साजुं राख्युं, पण एने उखेडीने सम्यग्दर्शनरूपी धर्मना मूळने पकडयुं नहि.
अहीं कहे छे के आ जाणनार-जाणनार-जाणनार-आ जे जाणनक्रिया द्वारा जणाय छे ते हुं एम अंतरमां न जतां जाणवामां आवे छे जे राग तेने वश थई राग ते हुं एम अज्ञानीए मान्युं तेथी आ अनुभूतिमां जणाय छे ते ज्ञायक हुं एवुं आत्मज्ञान उदय पामतुं नथी. दर्शनमोहना उद्रयने कारणे आ आत्मज्ञान उद्रय पामतुं नथी एम न कह्युं पण रागने वश थवाथी आ जेना अस्तित्वमां-हयातीमां जाणवुं थाय छे ए जाणनार ते हुं एवुं आत्मज्ञान मूढ-अज्ञानीने प्रगट थतुं नथी. कोई माने के कर्मथी थाय, कर्मथी थाय तो ए जूठी वात छे. त्रणकाळमां कर्मथी आत्मानुं कांई न थाय. कर्म ए तो परद्रव्य छे. परद्रव्यथी स्वद्रव्यमां कांई थाय ए वात तद्न जूठी छे. पोते पोताने भूलीने रागने पोतानो माने ए तो मूढभाव छे, मिथ्यात्व छे. तो पछी आ बायडी, छोकरां, कुटुंब, मकान, पैसा, आबरू वगेरे कयांय रही गया. एने पोताना माने ए तो मूढता छे ज.
राग अने आत्मा वच्चे संधि छे, निःसंधि नथी. (आ प्रवचनमां) आ वात आगळ आवी गई छे. त्रणलोकनो नाथ जे सच्चिदानंद प्रभु एनी अने रागनी वच्चे संधि छे, तड छे, पण एक्ता नथी. माणसो बहारथी माथाफोड करे अने जिंदगी काढे, पण शुं थाय? (अंतरंगमां संधि छे, पण एक नथी एम विचारे नहि तो शुं थाय?) एने एकान्त लागे छे पण एकान्त एटले शुं एनी खबर नथी. भाई! जे विकार थाय छे ते ताराथी ज थाय छे, परने लईने-कर्मने लईने के निमित्तने लईने नहि. तुं पोते विकार करे त्यारे तेने (कर्म आदिने) निमित्त कहेवामां आवे छे. आ अनेकान्त छे.
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(जो विकार वखते पर-कर्म आदि कोई निमित्त छे ज नहीं एम माने तो एकान्त छे) अहीं कह्युं छे जुओने-“बंधना वशे” एमां केटलो ध्वनि छे?
हुं ज्ञायक छुं. आ जाणनार छे ते ज जणाय छे. जणाय छे ते ज्ञायक वस्तु छे एम ज्ञान न थतां जाणवानी पर्यायमां जे अचेतन राग जणाय छे ते हुं एम माने छे. दया, दान, भक्तिना विकल्प छे ए जड छे. ए ज्ञानमां एने भासतां ए हुं छुं एम माननारने एनाथी रहित हुं आत्मा छुं एवुं ज्ञान प्रगट थतुं नथी. अने ए आत्मज्ञानना अभावमां नहि जाणेलानुं श्रद्धान गधेडाना शिंगडा समान होय छे. जेम मानो के ‘गधेडानां शींगडां’ पण गधेडाने ज्यां शींगडां होय ज नहि त्यां शी रीते मनाय? एम भगवान आत्मा जाणवानी पर्यायमां जणाय ते हुं छुं एम न मानतां राग ते हुं एम माने छे एने आत्मानुं ज्ञान नथी. अने ए आत्मानुं ज्ञान नहि होवाथी तेनी श्रद्धा पण ‘गधेडाना शींगडां’ जेवी छे. भगवाननो मार्ग बहु सूक्ष्म छे, भाई! बहारथी एम कल्पी ले के दया पाळो, व्रत करो अने आ करो ने ते करो, पण भाई! कोण रागनो कर्ता थाय? कर्तापणानी बुद्धि ए तो मिथ्यात्व छे, ज्ञानस्वभावी चैतन्यसूर्य भगवान अचेतन एवा रागने केम करे?
छठ्ठी गाथामां कह्युं ने के ज्ञायकभाव शुभाशुभपणे थयो नथी. ए शुभाशुभभावे थाय तो जड थई जाय, केमके शुभाशुभभावमां चेतननो अंश नथी, पोते पोताने अने परने जाणता नथी. तेथी जो ज्ञायकस्वरूप चैतन्यसूर्य अचेतन एवा शुभाशुभावपणे थाय तो चेतन अचेतन थई जाय. पण एम कदीय बनतुं नथी. अरे! जे आ द्रष्टि- ज्ञाननी पर्याय एमां राग नहि होवा छतां एमां राग छे एवुं जेणे जाण्युं अने मान्युं तथा जे पर्याय ज्ञायकनी छे एमां जे ज्ञायक जणाय ते हुं छुं एम जाणवाने बदले जाणवानी पर्यायमां जे राग जणाय ते हुं छुं एम माननारा आत्मज्ञान विनाना मिथ्याद्रष्टि छे.
आठ आठ वर्षना बाळको सम्यग्दर्शन पामे छे. आठ आठ वर्षना राजकुमारो होय ए वनमां चाली नीकळे. ए अंदरमां (आत्मामां) जवा माटे नीकळे, वनमां जवा माटे नहीं. प्रवचनसार चरणानुयोगमां शरूआतमां आवे छे के ज्यारे आत्मज्ञान थाय छे त्यारे स्त्रीनी पासे रजा मांगे छे. कहे छे केः-हे स्त्री! आ शरीरने रमाडनारी रमणी! हवे मने ज्ञानज्योति प्रगटी छे, एटले हुं मारी अनादि आनंदनी अनुभूतिनी रमणी-जे अनादि वस्तु छे-तेनी पासे जवा मांगुं छुं. माटे ताराथी मारी छूट्टी कर.
अहीं कहे छे के जाणवानी पर्यायमां जे जाणनार जणाय ते हुं एम अंतरमां जवाने बदले बहारमां जे परज्ञेयरूप राग जणाय छे ते हुं एम वश थयो ते अज्ञानी मूढ जीवने आत्मज्ञान थतुं नथी. तेथी आत्माने जाण्या वगर श्रद्धान शी रीते थाय? जे वस्तु ज ख्यालमां आवी नथी एने (आ आत्मा एम) मानवामां शी रीते आवे? भाई! आ
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तो संसारनो छेद केम थाय एनी वात छे. अहो! आ समयसार अद्वितीय चक्षु छे, अजोड आंख छे. भरतक्षेत्रनी केवळज्ञाननी आंख छे. भाग्य जगतनुं के आ समयसार रही गयुं.
आ जाणनारो जणाय छे एवा आत्मज्ञानना अभावने लीधे आ जाणनारो ज्ञायक ते ज हुं छुं एवुं श्रद्धान पण उद्रय थतुं नथी. एने समक्ति थतुं नथी. रागमां एकत्वबुद्धिने लीधे नहि जाणेला भगवान ज्ञायकस्वरूप आत्मानुं एने श्रद्धान-समक्ति थतुं नथी. त्यारे समस्त अन्यभावोना भेद वडे आत्मामां निःशंक ठरवामां एने असमर्थपणुं छे. रागथी भिन्न एवुं आत्मज्ञान अने श्रद्धान न थयुं तेथी जेमां ठरवुं छे ए जणायो नहि. तेथी रागथी भिन्न पडी ने आत्मामां ठरवानुं असमर्थपणुं होवाथी ए रागमां ठरशे. मिथ्याद्रष्टि गमे तेटला शुभभावरूप क्रियाकांड करे, मुनिपणुं धारे अने व्रत-नियम पाळे तोपण ए रागमां ठरशे. आत्मज्ञान-श्रद्धान विना ए बधी रागनी रमतोमां रमे छे.
जुओ, त्रणेमां (ज्ञान-श्रद्धान अने आचरण) उद्रय, उद्रय, उद्रय एम कह्युं छे. आत्मज्ञान उद्रय थतुं नथी तेथी तेनुं श्रद्धान पण उद्रय थतुं नथी. एटले आत्मानुं आचरण उद्रय नहि थवाथी आत्माने साधतुं नथी. श्रीमद्मां (आत्मसिद्धिमां) “उद्रय थाय चारित्रनो” ए शब्दो आवे छे. जेमकेः-
ए आ (आत्माना आचरणनो) उद्रय. आ तो व्रत करो, संयम पाळो, चारित्र पाळो तो तमने निश्चय समक्ति थशे एवुं कहेवाय छे. पण अरेरे! रागनी एक्तामां पडयो होय तेथी परिभ्रमणना भाव सेवे अने एनाथी अपरिभ्रमणनी समक्ति दशा प्रगट थाय एम शी रीते बने? न ज बने. भाई आ तो मूळमां ज वांधा छे. एनुं समाधान थई शके नहीं. ए लोको एम कहे छे थोडी छूट अमे मूकीए अने थोडी छूट तमे मूको. एम के थोडुं निमित्तथी थाय, व्यवहारथी थाय अने थोडुं उपादानथी थाय एम समाधान करीए. पण भाई! वीतरागना मार्गमां एम न चाले. “एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पंथ.” एमां छूट मूकवानो कयां अवकाश छे? भाई! संतो शुं कहे छे एनी तने खबर नथी. दया, दान आदि रागनो एक कणियो पण आत्माने लाभ करे एम त्रणकाळमां बने नहीं. तथा निमित्त उपादानना कार्यकाळे हाजर होय पण निमित्त (उपादाननुं) कार्य करे छे एम त्रणकाळमां नथी. तो कहे छे-बे कारण आवे छे ने? भाई! बे कारणमां एक (निमित्त) तो औपचारिक-आरोपित कारण कह्युं छे. (ते अनेक प्रकारे होय छे) अने यथार्थ कारण एक (उपादान) ज छे.
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आवो अनुभूतिस्वरूप भगवान छे एनुं जेने ज्ञान ज थतुं नथी तेने श्रद्धा पण थती नथी अने श्रद्धा विना भिन्न पडीने निःशंकपणे स्वरूपमां ठरवारूप आत्मानुं आचरण थतुं नथी. अरेरे! आवुं मनुष्यपणुं मळ्युं एमां सत्यने सांभळ्युं नहि, सत्यनी ओळखाण करी नहि तो ए सत्यमां ठरशे के दि? ए तो रागमां रहेशे. आम आत्मानुं आचरण उद्रय नहि पामवाथी ते आत्माने साधतो नथी. रागनुं आचरण करे एटले शुकल लेश्याना परिणाम वडे नवमी ग्रैवेयक जाय पण आत्माने साधे नहीं. आम साध्य आत्मानी सिद्धिनी अन्यथा अनुपपत्ति छे. साध्य जे ध्येय सिद्धपद अर्थात् पूर्ण पवित्र मोक्षदशा एनी अन्यथा एटले आ सिवाय (आत्मानां ज्ञान-श्रद्धान-आचरण सिवाय) बीजी रीते उपपत्ति-प्राप्ति नथी. अहीं साध्य मोक्षनी पर्यायने ध्येय कह्युं ए तो भविष्यमां प्रगट करवानी अपेक्षाए छे. वर्तमान साधनरूप पर्यायनुं आश्रयरूप ध्येय तो त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकभाव ज छे. बीजानुं (अन्य द्रव्यनुं) करवुं, न करवुं ए आत्माना अधिकारनी वात नथी. आ तो पोते कां तो उंधाई करे वा सवळाई करे एटली वात छे.
‘साध्य आत्मानी सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी ज छे, बीजी रीते नथी.’ जुओ, साध्य एवी मोक्षदशानी प्राप्ति निश्चयरत्नत्रयथी छे, व्यवहाररत्नत्रयथी नहीं. व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए तो विकल्प (राग) छे. शास्त्रनुं व्यवहार ज्ञान अने व्यवहारचारित्र ए विकल्प छे. एनाथी साध्य आत्मानी सिद्धि नथी. केटलाक कहे छे के अनेकान्त करोः एटले के मोक्षनी प्राप्ति निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी थाय अने व्यवहारथी पण थाय. परंतु भाई! ए अनेकान्त नथी, ए तो फूदडीवाद छे. निश्चयथी छे अने व्यवहारथी नथी ए अनेकान्त छे.
आम साध्य आत्मानी सिद्धि छे, बीजी रीते नथी कारण के ‘पहेलां तो आत्माने जाणे के आ जाणनारो अनुभवमां आवे छे ते हुं छुं.’ आ जाणनारो जे पर्यायमां जणाय छे ते हुं छुं एम बराबर जाणे त्यारपछी तेनी प्रतीतिरूप श्रद्धान थाय. विना जाण्ये श्रद्धान कोनुं? पछी समस्त अन्यभावोथी-विकल्पमात्रथी भेद करीने पोतामां स्थिर थाय; ए प्रमाणे सिद्धि छे. पण जो जाणे ज नहि अर्थात् आत्मानुं ज्ञान करे ज नहि तो श्रद्धान पण न थई शके; तो स्थिरता शामां करे? तेथी बीजी रीते सिद्धि नथी एम निश्चय छे.
जेम मंदिर करीने उपर कळश चढावे तेम श्री अमृतचंद्राचार्ये टीका उपर पाछो कळश चढाव्यो छेः
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आचार्य कहे छे के- ‘अनंत चैतन्यचिह्नं’ अनंत (अविनश्वर) चैतन्य जेनुं चिह्न छे अर्थात् जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं ए जेनुं लक्षण-एंधाण छे एवी ‘इदम् आत्मज्योतिः’ आ आत्मज्योतिने ‘सततम् अनुभवामः’ अमे सतत-निरंतर अनुभवीए छीए. अहाहा! समयनो आंतरो पडया विना निरंतर अमे आनंदनो नाथ जे भगवान ज्ञायक आत्मा तेने अनुभवीए छीए. अंदर जे सच्चिदानंद प्रभु अतीन्द्रिय आनंदना स्वभावे शक्तिपणे पडयो छे ते अतीन्द्रिय आनंदस्वरूपने अमे सतत अनुभवीए छीए. जुओ आ आत्मानुं चारित्र. चैतन्यसत्ताथी भरेलो जे ज्ञायकभाव आनंदथी भरेलो भगवान आत्मा एनुं ज्ञान अने श्रद्धान छे, उपरांत आचरणमां अंदर स्थिरता करी एने अनुभवीए छीए. ‘यस्मात्’ कारण के ‘न खलु न खलु अन्यथा साध्यसिद्धिः’ तेना अनुभव विना साध्य आत्मानी सिद्धि नथी. भगवान आत्मानुं ज्ञान, एनी सम्यक् श्रद्धा अने एमां ठरवारूप चारित्र ए विना आत्मानी सिद्धि एटले मुक्ति नथी. व्यवहारथी थाय अने निमित्तथी थाय एम नथी.
केवी छे आत्मज्योति? ‘कथम् अपि समुपात्तत्रित्वम् अपि एकतायाः’ जेणे कोई प्रकारे त्रणपणुं अंगीकार कर्युं छे तोपण जे एकपणाथी च्युत थई नथी. परिणमननी अपेक्षाए पर्यायमां त्रण पणुं छे तोपण ए चैतन्यज्योति सदा एक ज्ञायकपणे ज रही छे. वळी ते चैतन्यज्योति ‘अच्छम् उद्गच्छत्’ निर्मळपणे उद्रय पामी रही छे, चैतन्यना प्रकाशथी पर्यायमां निर्मळपणे प्रकाश प्रसरी रह्यो छे.
‘आचार्य कहे छे के जेने कोई प्रकारे पर्यायद्रष्टिथी त्रणपणुं प्राप्त छे’ः-शुं कहे छे? के आ आत्मा शुद्ध चैतन्यघन त्रिकाळ ध्रुव एकरूप छे ए तो स्वभावनी वात छे, पण एने ए शुद्ध एकरूप चैतन्य आनंदस्वरूपनां प्रतीति-श्रद्धा, ज्ञान अने एमां रमणता एम सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी जे परिणति थाय ते पर्याय अपेक्षाए त्रणपणे परिणमन छे. अहीं पर्यायनुं त्रणपणे परिणमन लीधुं ते सम्यग्दर्शनादिनुं लीधुं, वच्चे जे राग (महाव्रतादिनो) आवे ते लीधुं नहि; केम के दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत, तप वगेरेनो भाव आवे ते राग छे, धर्म नथी, धर्मनुं कारण पण नथी.
प्रश्नः–एने व्यवहारे धर्म कह्यो छे ने?
उत्तरः–व्यवहारे धर्म कह्यो छे, पण कोने? सम्यग्द्रष्टिने. जेने (द्रष्टिमां) रागनो अभाव छे, शुद्ध चैतन्यना आनंदना अमृतनो स्वाद आव्यो छे अने शांति थोडी अंदर वधी छे एवा समक्तिीने जे व्रतादिना विकल्प होय तेने व्यवहारधर्म, पुण्यधर्म कह्यो छे. भाई! आ तो जन्म-मरणरहित थवुं होय एनी वात छे. जेने हजु स्वर्गना अने शेठाईना अने राजा वगेरेना भव करवानी होंश होय एने माटे आ वात नथी. ए भव सारा नथी पण दुःखमय छे.