Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 19.

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भाई! सुख शामां छे एनी तने खबर नथी. शुं सुख पैसामां छे? स्त्रीना शरीरमां छे? आबरूमां छे? पुण्य-पापना भाव थाय एमां छे? एमां तो सुख धूळेय (कांई) नथी. अहाहा! सुख तो भगवान आत्मा जे अनाकुळ आनंदना रसथी भरेलो छे एमां छे. आवी निजसत्तानो जेमने स्वीकार ज नथी ते भले कोई पुण्य करे, एथी एने पुण्यना फळमां स्वर्गादि (भव) मळे; पण ए बधा दुःखी छे, चारगतिमां रखडनारा छे. अहीं कहे छे के एवा अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप भगवान आत्मानां द्रष्टि, ज्ञान अने रमणता करतां अतीन्द्रिय निराकुळ आनंद-सुखनो जे स्वाद आवे छे ते स्वादमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रणे समाय छे. एम सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्गनुं जे त्रणपणे परिणमन छे ए पर्यायार्थिकनयनो विषय छे.

अत्यारे संप्रदायमां तो अजैनने जैनपणुं मनावी रह्या छे. शुं थाय? भक्तिवाळा एम कहे छे के भगवाननी भक्ति करतां करतां धर्म थाय, दया पाळनारा एम कहे छे के परनी दया पाळतां पाळतां धर्म थाय, पैसावाळा एम कहे छे के पांच पचास लाखनुं दानमां खर्च करीए तो धर्म थाय. ए त्रणे जूठा छे. धर्म तो वस्तुनो स्वभाव छे. कह्युं छे ने के वत्थु सहावो धम्मो भगवान आत्मा वस्तु जे त्रिकाळ आनंदघनस्वभावी छे एनी द्रष्टि करीने, एनुं ज्ञान करीने एमां रमणता करवी ए वस्तुनो स्वभावरूप धर्म छे.

जेने आवा धर्मनी द्रष्टि थई छे तेनी परिणतिमां वर्तमान पर्यायद्रष्टिथी जोईए तो त्रणपणुं प्राप्त छे ‘तोपण शुद्ध द्रव्यद्रष्टिथी जे एकपणाथी रहित नथी थई....’ अहाहा! शुद्ध द्रव्यद्रष्टिथी आ त्रिकाळी आनंदकंद प्रभु आत्माने एकपणुं छे ए अज्ञानीने केम बेसे? ज्यां थोडीक अनुकूळता थाय, बहारमां पांच पचास लाखनो संयोग थाय त्यां खुशी खुशी थई जाय ए रांकाने आत्मा आनंदकंद छे ए केम बेसे? पण भाई! आ तो जिनेन्द्रदेव त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ तीर्थंकरदेवे एम कह्युं छे के तुं अंदरमां त्रिकाळी एकरूप आनंदस्वरूप ज्ञायक परमात्मतत्त्व छे. शुद्ध द्रव्यद्रष्टिथी जोतां ए एकपणुं, ज्ञायकपणुं कदी छूटयुं नथी. आवो मार्ग कठण पडे, केम के आखो दिवस धंधामां पापमां जाय. ७-८ कलाक ऊंघमां जाय, १०-१२ कलाक धंधामां जाय, २-३ कलाक खावामां जाय अने वखत मळे तो कोईक दिवस एकाद कलाक सांभळवामां जाय. त्यां आवुं सांभळे के व्रत करो, तप करो, उपवासादि करो, तेथी तमने धर्म थशे. अरेरे! बिचारानी जिंदगी लूंटाई जाय छे. अहीं परमात्मा एम कहे छे के ए व्रत, तप, दया, दान, भक्ति आदिना भाव ए रागना अने कषायनी मंदताना भाव ए दुःखना भाव छे.

जेम सक्करकंदमां जे उपर लाल पातळी छाल छे ए काढी नाखो तो बाकीनो आखो सक्करकंद मीठाशनो पिंड छे; एम आ भगवान आत्मामां पुण्य-पापनी वृत्तिओ, दया, दान, व्रत आदि विकल्पो ए छाल छे. एनी पाछळ जुओ तो चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा आखो अतीन्द्रिय आनंदनो कंद छे. पण शरीर अने पुण्य-पापना विकल्पनुं लक्ष


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छोडी अंदरमां त्रणलोकनो नाथ आनंदकंद भगवान विराजमान छे तेनुं लक्ष करतो नथी तेने आ केम बेसे? जेने एक बे बीडी पीए तो चैन पडे अने तो पायखाने दस्त उतरे आवी तो रांकाई छे तेने आ केम बेसे? जेम हरणनी नाभिमां कस्तूरी छे एनी हरणने खबर नथी; एने एम लागे के आवी गंध बहारथी आवे छे एटले बहारमां रखडे छे. तेम आ परमात्मा अंदर अतीन्द्रिय आनंदनो रसकंद पडयो छे एनी एने खबर नथी एटले बिचारो बहारमां आनंद-सुख माटे फांफां मारे छे.

अहाहा! जेने अतीन्द्रिय आनंदनी एक क्षणमां-सम्यग्दर्शनादि अनुभूतिना स्वादमां इन्द्रना इन्द्रासनो अने इन्द्राणीना भोग सडेलां कूतरां जेवां (तुच्छ, फीका) लागे तेने धर्मी कहीए. आखो दिवस रागनां चूंथणां कर्या करे अने एमां मजा-माणे ए तो मूढ छे. तेने धर्म कयां छे? कदाच पापना परिणाम छोडीने जरा पुण्यभावमां आवे एटले तो जाणे अमे कांईक छीए एम मानवा लागे. लाख बे लाखनुं दान करे अने पत्थरनी तक्तीमां नाम मढावे के फलाणानी स्मृतिमां फलाणाए दान कर्युं, इत्यादि. भाई! आमां तो दया, दानना परिणामनां पण कयां ठेकाणां छे? कदाचित् रागनी मंदताथी दान करे तोपण ए पुण्यभाव छे, धर्म नथी. ए परिणाम दुःख छे, दुःखरूप छे. अने आ पैसाने साचववा अने बायडी-छोकरां-परिवारने पोषवां इत्यादि तो एकला पापना परिणाम छे, तीव्र दुःखरूप छे. आ तो वीतरागनो मार्ग, भाई! अत्यारे तो बधा अधर्मना ढसरडा करीने एम माने के अमे धर्म करीए छीए. पण जन्म- मरणरहित भगवान आत्माना भान विना माथे जन्म-मरणनी डांग ऊभी छे, भाई! मोटा राजा होय ते मरीने नरके जाय अने मोटा करोडपति के अबजोपति शेठिया होय ते मरीने तिर्यंचमां अवतरे-कूतरीनी कूखे गलुडियां थाय के बकरीने पेटे लावरां थाय. माया, कपट आदि क्रियाओना फळ एवां ज होय, बीजुं कांई न होय.

अहाहा! वीतरागदेव परमेश्वर आम कहे छे, नाथ! के द्रव्यद्रष्टिथी एटले वस्तुनी द्रष्टिथी जोईए तो तेनुं एकपणुं कदीय छूटयुं नथी. अने ते एक ज्ञायक भगवान आत्माने-पोताने एकपणे अनुभवीने द्रष्टि ज्ञान अने रमणता करे तेने पर्यायद्रष्टिए त्रणपणुं प्राप्त छे एम जाणवामां आवे छे. बस आटली एनी (सत्तानी) मर्यादा छे. बाकी ए (एनी सत्ता) नथी. दया, दान आदि परिणाममां, शरीर, मन के वाणीमां के कुटुंबादि परमां एनी सत्तानो अंश पण नथी.

हवे कहे छे के द्रव्यद्रष्टिथी जोतां जे कदीय एकपणाथी रहित थई नथी तथा जे अनंत चैतन्यस्वरूप निर्मळ उद्रयने प्राप्त थई रही छे एवी आत्मज्योतिनो अमे निरंतर अनुभव करीए छीए. अहाहा! अविनाशी ज्ञानस्वरूप ए आत्मज्योति निर्मळ प्रकाश वडे पर्यायमां प्रगट थई रही छे. अमे निरंतर एनो अनुभव करीए छीए एटले पुण्य-पापना


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विकल्पथी हठी निर्विकल्प आनंदनी परिणतिने अमे सेवीए छीए. आ अनुभूति- निर्विकल्प आनंदनी अनुभूति ए धर्म छे, साक्षात् धर्म छे. पण दया, दान, पूजा आदि परंपरा (धर्म) छे एम नथी. परंपरा धर्म कह्यो छे ने? कह्यो छे, पण ए कोने लागु पडे? जेने रागमां धर्म छे एवी मान्यता टळी गई छे अने आत्मानो आनंद छे ए धर्म छे एवी द्रष्टि थई छे एने शुभभाव परंपरा धर्म छे एम लागु पडे छे; केम के एणे अशुभ टाळ्‌युं छे अने आत्मानी द्रष्टि वडे ए शुभ टाळशे. पण हजी जे शुभभावमां धर्म माने एने तो परंपरा लागु पडती नथी, केम के ए तो मिथ्याद्रष्टि छे. मार्ग जुदा छे, बापा! बहारना बधा डहापणमां गुंचाईने मरी जाय पण अरेरे! बिचाराने आ अंतरना डहापणनी खबर नथी. आचार्यदेवे ए ज कह्युं छे के अमे निरंतर आत्मज्योतिनो अनुभव करीए छीए केम के ए अनुभव विना साध्य आत्मानी सिद्धि नथी.

हवे कहे छे के-‘आम कहेवाथी एवो पण आशय जाणवो के जे सम्यग्द्रष्टि पुरुष छे ते, जेवो अमे अनुभव करीए छीए तेवो अनुभव करे. सम्यग्द्रष्टिने अतींद्रिय आनंदनो कंद प्रभु आत्मा अनुभवमां आव्यो छे अने प्रतीति थई छे. तने कहे छे के- बापु! तारे साध्य जे सिद्धदशा तेनी प्राप्ति करवी होय तो अनुभूतिथी थशे. धवलमां आवे छे के निरपेक्षनयाः मिथ्याः एक नय, बीजानी अपेक्षा विना मिथ्या छे. एनो अर्थ ए के रागादिभाव जे छे ए व्यवहारनय छे. एने ए जाणे छे अने एनी उपेक्षा करीने स्वनी अपेक्षामां आवी जाय छे. भाई! आ कांई वादविवादथी पार पडे एवुं नथी. बनारसीदास तो कहे छे के “सद्गुरु कहे सहजका धंधा, वादविवाद करे सो अंधा” आ तो सहजनो धंधो छे. वस्तु सहजानंद सहज स्वभाव छे. आत्मसिद्धिमां आवे छे केः-

“पांचे उत्तरथी थई, आत्मा विषे प्रतीत,
थाशे मोक्षोपायनी, सहज प्रतीत ए रीत.”

आत्मा सहज प्रतीतिरूप स्वभाविक वस्तु अंदर छे. तेनां दर्शन-ज्ञान-चारित्र सहजपणे थाय छे-एमां हठ न होय. आवुं सहजपणुं जे सम्यग्द्रष्टिने श्रद्धा-ज्ञानमां आव्युं छे तेणे आवो अनुभव करवो ए ज मोक्षनो मार्ग छे. आत्माना साध्यनी सिद्धि अनुभवथी थाय छे-कह्युं छे ने केः-(समयसार नाटकमां).

“अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप,
अनुभव मारग मोखकौ, अनुभव मोख सरूप”

आ भावार्थ थयो.

* गाथा १७–१८ः टीका (आगळनो अंश) उपरनुं प्रवचन *

“हवे, कोई तर्क करे के आत्मा तो ज्ञान साथे तादात्म्यस्वरूपे छे, जुदो नथी,


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तेथी ज्ञानने नित्य सेवे ज छे; तो पछी तेने ज्ञाननी उपासना करवानी शिक्षा केम आपवामां आवे छे?” अहीं शिष्य एम कहे छे के आत्मा अने ज्ञान बन्ने तत्स्वरूप छे, एकरूप छे. जेम साकरने मीठाश तद्रूप छे, जुदां नथी; जेम अग्नि स्वभाववान अने उष्णता तेनो स्वभाव-ए बन्ने एकरूप छे, जुदां नथी तेम आत्मा स्वभाववान अने ज्ञान तेनो स्वभाव-ए बन्ने एकरूप छे, जुदा नथी. आम ज्ञान अने आत्मा बन्ने अभेद छे, एकरूप छे, जुदा नथी. तेथी आत्मा सदाय ज्ञानने सेवे ज छे. तो पछी ज्ञानने सेववो, आत्माने सेववो-एम तेने ज्ञाननी उपासना करवानो उपदेश केम आपवामां आवे छे?

तेनुं समाधानः-‘ते एम नथी,’ केमके ज्ञान अने आत्मा अभेद छे एवी (अनुभवरूप) पर्याय प्रगट करे तो सेवा करी कहेवाय. त्रण वात करी छे ने? द्रव्य ते आत्मा, ज्ञान ते स्वभाव अने ए स्वभावनी एक्ता करे ते सेवा ए पर्याय. केवी गजब शैली लीधी छे? कहे छे-‘ते एम नथी. जोके आत्मा ज्ञान साथे तादात्म्यस्वरूपे छे तोपण एक क्षणमात्र पण ज्ञानने सेवतो नथी.’ एटले के ज्ञान ते आत्मा एम पर्यायमां एक्ता करतो नथी तेथी ज्ञानने सेवतो नथी. ल्यो आ सेवा. भगवाननी सेवा मूकी दईने आ सेवा ते सेवा छे. भाई, भगवाननी सेवाना भाव ए तो पुण्य छे, शुभभाव छे (अशुद्धभाव छे) अने आ निजपरमात्मानी सेवा-एकाग्रता ए शुद्धभाव छे, धर्म छे. एक समयमात्र पण ज्ञान ते आत्मा एवी अंतर अनुभवद्रशा एणे करी नथी एटले ए ज्ञानने सेवतो ज नथी. ए तो पुण्य-पाप, दया, दान, व्रत, भक्ति आदि रागने सेवे छे.

कर्ता-कर्म अधिकार, गाथा ६९-७० मां आवे छे केः- ‘आ आत्मा, जेमने तादात्म्यसिद्ध संबंध छे एवा आत्मा अने ज्ञानमां विशेष (तफावत, जुदां लक्षणो) नहि होवाथी तेमनो भेद (जुदापणुं) नहि देखतो थको, निःशंक रीते ज्ञानमां पोतापणे वर्ते छे अने त्यां वर्ततो ते, ज्ञानक्रिया स्वभावभूत होवाने लीधे निषेधवामां आवी नथी माटे, जाणे छे-जाणवारूप परिणमे छे.’ जुओ, ज्ञान ते आत्मा एम ज्ञानमां पोतापणे वर्ते ते ज्ञाननुं-आत्मानुं सेवन छे. जे आत्मा वस्तु छे तेनी अस्ति-सत्ता ज्ञानस्वभाव साथे तादात्म्यरूपे छे, परंतु तादात्म्यरूपे छे एवी द्रष्टि करीने पर्यायमां एनी एकाग्रता करतो नथी. तेथी ते क्षणमात्र पण आत्माने सेवतो नथी. अहाहा! पर्यायने अंतर्मुख वाळीने ज्ञान ते आत्मा एम तद्रूपस्वरूपमां एकाग्र थई एने जाणे तो एणे ज्ञाननी सेवा करी कहेवाय. आ सिवाय बधी रागनी सेवा छे, पण आत्मानी सेवा नथी.

आ ज्ञाननी क्रिया विना आत्मानी सेवा थती नथी. क्रिया त्रण प्रकारे छेः- (१) जडनी क्रिया-जडनुं परिणमवुं, बदलवुं ते. (२) विकारनी क्रिया-दया, दान, व्रतादिना परिणाम तथा हिंसा, जूठ, चोरी आदि तथा क्रोधादिना परिणाम ते. (३) ज्ञाननी क्रिया


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-आ जे आत्मा छे ते ज्ञानस्वरूप छे एम तादात्म्यपणे एमां एकाग्र थवुं ते ज्ञाननी क्रिया, धार्मिक क्रिया. आवी वात छे. अहीं कहे छे के आत्मा अने ज्ञान एकरूप होवा छतां ते एकरूप छे एवी एणे पर्यायमां अनुभूति नथी करी. केवी शैली! आ तो सर्वज्ञ वीतरागनो पंथ, बापु! आ कांई साधारण वात नथी.

सर्वज्ञ परमेश्वर एम कहे छे के आत्मानुं ज्ञान साथे छे तो तद्रूपपणुं ज तोपण तद्रूप छे एवी पर्यायमां एणे प्रतीति कयां करी छे? शिष्य प्रश्नमां एम तो कहे छे के आत्मा अने ज्ञान तद्रूपे ज छे. साकर अने साकरनी मीठाश तद्रूपे, छे तेथी मीठाशने सेवे छे; नथी सेवतो एम तमे केम कहो छो? सांभळ, भाई सांभळ. साकर अने तेनी मीठाश छे तो तद्रूपे, पण एनो स्वाद आवे त्यारे तद्रूपे छे एम साचुं थयुं ने? एम गुण (ज्ञान) अने गुणी (आत्मा) छे एकरूप, पण पर्यायमां एनो स्वाद आवे त्यारे एनी सेवना थई कहेवाय ने?

कोई कहे के आ ते वळी केवी वात? जैनमां तो वळी आवी वात होय? आपणे जैनमां तो कंदमूळ न खावुं, रात्रे चोविहार करवो, सामायिक करवी, प्रतिक्रमण करवुं, पोसा करवा, उपवास करवा एवुं आवे. अहीं कहे छे के ए जैनधर्म ज नथी. ए तो रागनी-विकारनी क्रियाओ छे. पर्यायने अंतर्मुख वाळी एकाग्रता कर्या विना ज्ञान अने आत्मा एकरूपे छे एवी एने प्रतीति न थाय तेथी एणे आत्मानी-ज्ञाननी सेवा करी ज नथी. दीन-दुःखियांनी, दरिद्रीओनी मानवसेवा करवी के भगवाननी सेवा करवी एनी तो वात ज नथी. अहीं तो भगवान आत्मा चैतन्यस्वभावथी भरेलो छे एवुं जेणे अंतर्मूख थईने पर्यायमां जाण्युं एणे आत्मानी सेवा करी कहेवाय अने ए जैनधर्म छे एनी वात छे.

छठ्ठी गाथामां ‘उपासना’-सेवानी वात आवे छे. परद्रव्य अने परद्रव्यना भावोनुं लक्ष छोडी आत्माना ज्ञायकभावनुं सेवन-उपासना करे तो ‘शुद्ध’ कहेवाय. विकारनुं लक्ष छोडीने एम त्यां नथी लीधुं, पण जे द्रव्यकर्म छे ते परद्रव्य अने द्रव्यकर्मना उद्रयरूप भाव ते परद्रव्यना भावो-एनुं लक्ष छोडीने एक ज्ञायकभाव आत्मामां एकाग्र थाय छे त्यारे पर्यायमां आत्मानी उपासना-सेवा थाय छे. परद्रव्यनुं लक्ष छोडी आत्मामां लीन थयो एटले विकारनुं लक्ष पण छूटी गयुं एम त्यां लीधुं छे. ए द्रव्यनी सेवा- उपासना थाय त्यारे वस्तु त्रिकाळी ‘शुद्ध’ छे एम ख्यालमां आवे छे. त्रिकाळी ‘शुद्ध’, ‘शुद्ध’ छे एम तो सौ कोई कहे छे, पण पर्यायमां अशुद्धता छे एने केम टाळवी एनी खबर न होय एटले ए त्रिकाळी ‘शुद्ध’ छे एम जाण्युं ज नथी. आत्मा जे ज्ञायकस्वभाव शुद्ध छे एनी पर्यायमां द्रष्टि करी अंतर्मुख वळतां एने ज्यारे शुद्धतानुं वेदन थाय त्यारे वेदनमां द्रव्य आखुं शुद्ध छे एम आवे अने त्यारे एणे ‘शुद्ध’ मान्यो कहेवाय.


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मार्ग तो आ छे. भाई! पण संप्रदायवाळाने लागे के आ ते वळी कई जातनो मार्ग? नवो काढयो हशे? अरे भाई! तने खबर नथी, बापु! आत्मा तो सर्वज्ञस्वभावी छे ज, पण कोने? जेणे अंतर्मुख थई एमां एकाग्रता करी प्रतीतिमां लीधो एने. आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे एनी सत्तानो स्वीकार कोणे कर्यो? ए पर्याय ए तरफ ढळीने आ छे एम ज्यारे जाण्युं त्यारे ते श्रद्धामां आव्यो. त्यारे एणे ज्ञाननी-आत्मानी सेवा करी एम यथार्थ कहेवाय.

जोके आत्मा ज्ञान साथे तद्रूपे छे तोपण ते एक क्षणमात्र ज्ञानने सेवतो नथी, केमके पुण्य-पाप, दया, दान, आदि जे विकल्प ते आत्मा एम एनी द्रष्टि पर्यायमां पडी छे. ज्ञाननी पर्याये गुलांट खाईने आ ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम एणे कदी अनुभव कर्यो ज नथी. बीजा लोको आवी वातो सांभळीने राडो पाडे छे हों. बिचारा! (कायर छे तेथी कंपी ऊठे छे) एकान्त छे, एकान्त छे एम शोर करे छे. पण भाई, ए सम्यक् एकान्त छे, त्रिकाळी ज्ञायकस्वभाव आ छे एम ए पर्याये जाण्युं त्यारे सम्यक् एकान्त थयुं. (सम्यक् एकान्त एवा निजपदनी प्राप्ति थई.) भाई! निजघरमां शुद्धचैतन्यघनमां जुए नहीं अने बहारथी राडो पाडे; पण एम कांई चाले?

पोते वीतरागस्वरूप भगवान आत्मा छे. आ वीतरागनी आज्ञा छे. कळशटीकामां आवे छे ने के जिनवचमि रमन्ते एटले जिनवचननो कहेवानो भाव वीतरागता छे. जिनवचननुं तात्पर्य वीतरागता छे. पंचास्तिकाय गाथा १७२ मां सूत्रतात्पर्य अने शास्त्रतात्पर्य एम बे वात लीधी छे. सूत्रतात्पर्य सूत्र प्रमाणे छे अने शास्त्रतात्पर्य वीतरागता छे एम लीधुं छे. चारेय अनुयोगोनुं तात्पर्य वीतरागता बताव्युं छे. हवे वीतरागता कयारे प्रगटे? स्वनो आश्रय लईने परनो आश्रय छोडे त्यारे. जिनवचनमां शुद्धद्रव्यार्थिकनये एक शुद्धात्माने उपादेय कह्यो छे. एनो अर्थ ए के वीतरागभाव केम प्रगट थाय एनो उपदेश आप्यो छे. परनी अपेक्षा छोडी एक शुद्ध जीववस्तुरूप स्वमां जाय त्यारे वीतरागता थाय. समजाणुं कांई? आ तो परमात्मानो गहन मार्ग, भाई! अंदरथी उकेल कर्या विना बहारथी वादविवाद करे के आम छे ने तेम छे एमां कांई वळे नहि.

हवे केम सेवतो नथी एनुं कारण आपतां कहे छे केः-‘कारण के स्वयंबुद्धत्व (पोते पोतानी मेळे जाणवुं ते) अथवा बोधितबुद्धत्व (बीजाना जणाववाथी जाणवुं ते)-ए कारणपूर्वक ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे.’ स्वयंबुद्धत्व एटले हुं शुद्ध ज्ञानघन चैतन्यस्वरूपी आत्मा छुं एम स्वयं पोतानी मेळे स्व तरफ झूकाव थतां जाणे ते. अने बोधितबुद्धत्व एटले बीजा कोई धर्मात्मा ज्ञानीना जणाववाथी जाणे ते. समक्ति बे प्रकारे थाय छे एम आवे छे ने? निर्सगात् अधिगमात् वा धर्मात्मा ज्ञानी एने कहे के-भाई तारी पुंजी मोटी. शुद्ध आत्मतत्त्व ए तारी पुंजी-निधान छे; त्यां जो ने. जेमां तुं नथी त्यां तुं


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जुए छे, पण ज्यां तुं आखो छे तेने जो ने. त्यां पछी एने द्रव्यद्रष्टि थतां पोताने जाणे ते बोधितबुद्धत्व छे. आम स्वयंबुद्धत्व अने बोधितबुद्धत्व-ए कारणपूर्वक ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे. कां तो काळलब्धि आवे त्यारे पोते ज जाणी ले अथवा कोई उपदेश देनार मळे त्यारे जाणे-जेम सूतेलो पुरुष कां तो पोते ज जागे अथवा तो कोई जगाडे त्यारे जागे.

पर्यायमां पोतानी मेळे ज ज्ञान ते आत्मा एवा ज्ञाननी उत्पत्ति थाय ते स्वयं बुद्धत्व अथवा काळलब्धि आवे त्यारे थाय ए बे एक ज वात छे. काळलब्धि एटले शुं? जे पर्यायमां-काळमां निर्मळ सम्यक्दशा थाय ते काळलब्धि. पण एनुं ज्ञान साचुं कोने थाय? जे ज्ञायकस्वभावनी प्रतीति अने अनुभव करे एने पर्यायमां आ काळ पाकयो एम साचुं ज्ञान थाय. (परकाळ सामे जोवाथी काळलब्धि न थाय.)

संप्रदायमां एम कहेतां के केवळज्ञानीए दीठुं हशे ते दिवसे (समकित आदि) थशे, आपणे शुं पुरुषार्थ करीए? परंतु एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे एवा केवळज्ञाननी अस्ति जगतमां छे एनो स्वीकार कर्या विना दीठुं, जाण्युं एम कोणे नक्की कर्युं? केवळज्ञाननी सत्ता जगतमां होवापणे छे एनो निर्णय थया विना जे केवळीए दीठुं ते थाय ए कयांथी आव्युं? ए सर्वज्ञ भगवान केवा छे, केवडा छे इत्यादि श्रद्धानमां बेसे एने ज ‘केवळीए दीठुं एम थाय छे’ नो साचो निर्णय होय छे. (केवळीनो निर्णय अर्थात् केवळज्ञान पर्यायनो निर्णय पूर्ण केवळज्ञान स्वरूप आत्मानी सन्मुख थया विना थई शक्तो नथी. आम जे स्वभाव सन्मुख थई केवळज्ञाननो निर्णय करे छे, तेनो मोह अवश्य नाश पामे छे. अने सम्यक्दर्शन थाय छे.)

प्रवचनसार गाथा ८० मां कह्युं छे केः-

‘‘जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।। ’’

जेणे अरिहंतनी एक समयनी पर्यायमां केवळज्ञान छे एम स्वभाव सन्मुख थई निर्णय कर्यो तेणे केवळज्ञाननो स्वीकार कर्यो कहेवाय. केवळज्ञान जे एक समयनी पर्याय छे एने जे जाणे एने भव रही शके नहिं. ते दिवस सं. १९७२ मां आ भाव आव्यो हतो. त्यारे प्रवचनसार वांच्युं न हतुं.

केवळज्ञान एक समयमां एक गुणनी (ज्ञानगुणनी) पर्याय जेनी मुद्त एक समय ते त्रण काळ जाणे! अहाहा! स्वयंभूस्तोत्रमां स्वामी समंतभद्राचार्ये कह्युं छे के-हे नाथ!


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आप सर्वज्ञ छो एम अमे निर्णय कर्यो छे; केम के आपनी सर्वज्ञनी पर्यायमां भूत- वर्तमान-भावि पर्यायो सहित तथा एक समयनो काळ अने जगतना अनंता द्रव्योने एक समयमां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित आपे जाण्या, एक समयमां त्रणनो निर्णय कर्यो. काळ त्रण, अनंता द्रव्यो त्रण (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) सहित अने समय एकमां (एक समयमां) आपे जाण्यां. आम एक समयमां त्रण, सर्वज्ञ सिवाय कोई कही शके नहि तेथी आप सर्वज्ञ छो एम अमे निश्चय कर्यो छे. आ रीते केवळज्ञाननो स्वीकार कर्यो कहेवाय.

हवे फरीथी शिष्य पूछे छे के ज्ञाननी उत्पत्ति स्वयंबुद्धत्वथी एटले पोते पोताथी आत्मामां ज्ञान अने आनंदनी जागृति करे अथवा बोधितबुद्धत्वथी एटले बीजो कोई समजाववावाळो मळे त्यारे समजे-‘जो आम छे तो जाणवाना कारण पहेलां शुं आत्मा अज्ञानी ज छे केम के तेने सदाय अप्रतिबुद्धपणुं छे?’ शिष्यनो प्रश्न एम छे के भगवान आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा छे एवुं भान हजु थयुं नथी तो पहेलांथी ए अज्ञानी छे, अप्रतिबुद्ध छे? आत्मा तो ज्ञानस्वरूपी छे, जाणवाना स्वभाववाळो ज्ञानवाळो तो छे, तो पछी एने अज्ञानी केम कहेवाय?

उत्तरः–ए वात एम ज छे, ते अज्ञानी ज छे. केम के एणे आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा छे एवो अनुभव कदी कर्यो नथी. अहाहा! वस्तु त्रिकाळी ज्ञानस्वभावी होवा छतां ‘ज्ञान ते आत्मा’ एवो अनुभव कर्यो नथी त्यांसुधी ते अज्ञानी अने मूढ छे. चाहे ते दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि लाख-करोड-अनंतवार करे तोपण अज्ञानी ज छे, केम के ए तो शुभराग छे, धर्म नथी.

धर्म तो वस्तुना स्वभावने कहे छे. कह्युं छे ने के-वत्थु सहावो धम्मो वस्तुनो स्वभाव ते धर्म. वस्तु जे आत्मा छे तेमां अनंतगुणो (धर्मो) रहेला छे, वसेला छे. तेथी तेने वस्तु कहे छे. गोम्मटसारमां आवे छे के जेमां अनंत गुण वस्या-रहेला छे तेने वस्तु कहे छे. अहाहा! ज्ञान, आनंद, शांति, वीतरागता, स्वच्छता, इश्वरता इत्यादि अनंतगुण वस्तुमां वसेला छे एवी अंतरद्रष्टिपूर्वक स्वीकार, श्रद्धा-प्रतीति करीने, अनंत-गुणसंपन्न भगवान आत्मा छे तेनी तरफना झूकावथी-स्वभावसन्मुखताथी एकता थवी तेनुं नाम धर्म छे. बाकी बधी वातो छे, भाई!

ज्यारे ए ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा पोते पोताथी अंदरमां एकाग्र थाय अथवा कोई समजाववावाळो मळे तेनाथी अंदर एकाग्र थाय त्यारे ए ज्ञानी थाय छे. शिष्य


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पूछे छे के ए ज्ञानी थया पहेलां अज्ञानी हतो? तो कहे छे हा, ए अज्ञानी ज हतो. भले पछी ए दिगंबर साधु होय, हजारो राणीओनो त्यागी होय के बाळब्रह्मचारी होय; ज्यांसुधी आत्माना ज्ञाननी एक्तारूप धर्म न कर्यो त्यांसुधी अज्ञानी ज छे.

वळी फरी पूछे छे के आ आत्मा केटला वखत सुधी (कयां सुधी) अप्रतिबुद्ध छे ते कहो, तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-

[प्रवचन नंबर प८ थी ६१ * तारीख र७-१-७६ थी ३०-१-७६]






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वळी फरी पूछे छे के आ आत्मा केटला वखत सुधी (कयां सुधी) अप्रतिबुद्ध छे ते कहो. तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-

कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं। जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव।। १९ ।।


कर्मणि नोकर्मणि चाहमित्यहकं च कर्म नोकर्म।
यावदेषा खलु बुद्धिरप्रतिबुद्धो भवति तावत्।। १९ ।।

नोकर्म–कर्मे ‘हुं’, हुंमां वळी ‘कर्म ने नोकर्म छे’,
–ए बुद्धि ज्यां लगी जीवनी, अज्ञानी त्यां लगी ते रहे. १९.

गाथार्थः– [यावत्] ज्यां सुधी आ आत्माने [कर्मणि] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म [च] अने [नोकर्मणि] शरीर आदि नोकर्ममां [अहं] ‘आ हुं छुं’ [च] अने [अहकं कर्म नोकर्म इति] हुंमां (-आत्मामां) ‘आ कर्म-नोकर्म छे’- [एषा खलु बुद्धिः] एवी बुद्धि छे, [तावत्] त्यां सुधी [अप्रतिबुद्धः] आ आत्मा अप्रतिबुद्ध [भवति] छे.

टीकाः– जेवी रीते स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावोमां तथा पहोळुं तळियुं, पेटाळ आदिना आकारे परिणत थयेल पुद्गलना स्कंधोमां ‘आ घडो छे’ एम, अने घडामां ‘आ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावो तथा पहोळुं तळियुं, पेटाळ आदिना आकारे परिणत पुद्गल-स्कंधो छे’ एम वस्तुना अभेदथी अनुभूति थाय छे, तेवी रीते कर्म-मोह आदि अंतरंग परिणामो तथा नोकर्म-शरीर आदि बाहृा वस्तुओ-के जेओ (बधां) पुद्गलना परिणाम छे अने आत्मानो तिरस्कार करनारा छे-तेमनामां ‘आ हुं छुं’ एम अने आत्मामां ‘आ कर्म-मोह आदि अंतरंग तथा नोकर्म-शरीर आदि बहिरंग, आत्म-तिरस्कारी (आत्मानो तिरस्कार करनारा) पुद्गल-परिणामो छे’ एम वस्तुना अभेदथी ज्यां सुधी अनुभूति छे त्यां सुधी आत्मा अप्रतिबुद्ध छे; अने ज्यारे कोई वखते, जेम रूपी दर्पणनी स्व-परना आकारनो


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(मालिनी)
कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूला–
मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा।
प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावै–
र्मुकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव।। २१ ।।

__________________________________________________ प्रतिभास करनारी स्वच्छता ज छे अने उष्णता तथा ज्वाळा अग्निनी छे तेवी रीते अरूपी आत्मानी तो पोताने ने परने जाणनारी ज्ञातृता (ज्ञातापणुं) ज छे अने कर्म तथा नोकर्म पुद्गलनां छे एम पोताथी ज अथवा परना उपदेशथी जेनुं मूळ भेदविज्ञान छे एवी अनुभूति उत्पन्न थशे त्यारे ज (आत्मा) प्रतिबुद्ध थशे.

भावार्थः– जेम स्पर्शादिमां पुद्गलनो अने पुद्गलमां स्पर्शादिनो अनुभव थाय छे अर्थात् बन्ने एकरूप अनुभवाय छे, तेम ज्यां सुधी आत्माने, कर्म-नोकर्ममां आत्मानी अने आत्मामां कर्म-नोकर्मनी भ्रांति थाय छे अर्थात् बन्ने एकरूप भासे छे, त्यां सुधी तो ते अप्रतिबुद्ध छे; अने ज्यारे ते एम जाणे के आत्मा तो ज्ञाता ज छे अने कर्म-नोकर्म पुद्गलनां ज छे त्यारे ज ते प्रतिबुद्ध थाय छे. जेम अरीसामां अग्निनी ज्वाळा देखाय त्यां एम जणाय छे के “ज्वाळा तो अग्निमां ज छे, अरीसामां नथी पेठी, अरीसामां देखाई रही छे ते अरीसानी स्वच्छता ज छे”; ते प्रमाणे “कर्म-नोकर्म पोताना आत्मामां नथी पेठां; आत्मानी ज्ञान-स्वच्छता एवी ज छे के जेमां ज्ञेयनुं प्रतिबिंब देखाय; ए रीते कर्म-नोकर्म ज्ञेय छे ते प्रतिभासे छे”-एवो भेदज्ञानरूप अनुभव आत्माने कां तो स्वयमेव थाय अथवा उपदेशथी थाय त्यारे ज ते प्रतिबुद्ध थाय छे.

हवे, आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [ये] जे पुरुषो [स्वतः वा अन्यतः वा] पोताथी ज अथवा परना उपदेशथी [कथम् अपि हि] कोई पण प्रकारे [भेदविज्ञानमूलाम्] भेदविज्ञान जेनुं मूळ उत्पत्तिकारण छे एवी [अचलितम्] अविचळ (निश्चळ) [अनुभूतिम्] पोताना आत्मानी अनुभूतिने [लभन्ते] पामे छे, [ते एव] ते ज पुरुषो [मुकुरवत्] दर्पणनी जेम [प्रतिफलन–निमग्न–अनन्त–भाव–स्वभावैः] पोतामां प्रतिबिंबित थयेला अनंत भावोना स्वभावोथी [सन्ततं] निरंतर [अविकाराः] विकाररहित [स्युः] होय छे, - ज्ञानमां जे ज्ञेयोना आकार प्रतिभासे छे तेमनाथी रागादि विकारने प्राप्त थता नथी. र१.


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उपोद्घातः–

हवे शिष्यनो प्रश्न छे के-आत्मा केटला वखत सुधी अप्रतिबुद्ध रहे छे? महाराज! आप आ आत्माने अनादिथी अप्रतिबुद्ध कहो छो. तेणे अनंतवार दया, व्रत, तप, ब्रह्मचर्य, आदि पाळ्‌यां तोपण आत्मानुं सेवन कर्युं नथी एम कहो छो तो हवे ते कयां सुधी अप्रतिबुद्ध रहेशे ते कहो. तेना उत्तररूपे गाथासूत्र कहे छेः-

* गाथा १९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

अमृतचंद्राचार्य द्रष्टांत आपे छेः-जेवी रीते स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावोमां तथा पहोळुं तळियुं, पेटाळ आदिना आकारे परिणत थयेल पुद्गल स्कंधोमां, आ घडो छे’ एम, अने घडामां ‘आ स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावो तथा पहोळुं तळीयुं, पेटाळ आदिना आकारे परिणत पुद्गल स्कंधो छे’ एम वस्तुना अभेदथी अनुभूति थाय छे; आ द्रष्टांत थयुं. तेवी रीते कर्म-मोह-शुभाशुभराग आदि अंतरंग परिणामो तथा नोकर्म-शरीरादि बाह्य वस्तुओ-ए बधां पुद्गलनां परिणाम छे. जेम स्पर्श, रस, गंध, वर्णमां घडो छे अने घडामां स्पर्श, रस, गंध, वर्ण छे एम पुण्य- पापना अंतरंग परिणाम भावकर्म अने जडकर्म तथा नोकर्म-शरीर, मन, वाणी आदि बहिरंग पुद्गल परिणामो छे. अहाहा! अंदरमां दया, दान, व्रत, भक्ति आदि जे रागभाव थाय ते बाह्य वस्तु छे, केम के जेम आत्मामां ज्ञान अने आनंद स्वभाव छे तेम पुण्य-पापना भाव तेनो स्वभाव नथी. ए आत्मा नथी.

भगवान आत्मामां अंतरंगमां जे पुण्य-पाप देखाय छे ते, जड कर्म तथा शरीरादि नोकर्म-ए त्रणेय पुद्गलपरिणामो आत्मानो तिरस्कार करनारा छे. जुओ, शुभ-अशुभभावने पुद्गलपरिणाम कह्या केमके ते आत्मानो अनादर करवावाळा छे. जेओ रागनी रुचिवाळा छे तेओ आत्मानो अनादर करे छे. रागभाव ज आत्मानो अनादर करवावाळो छे.

पुण्य-पापरूप भावकर्म, जड द्रव्यकर्म अने शरीरादि नोकर्म ए त्रणेय पुद्गलनी जात छे; भगवान आत्मा ज्ञाननी जात छे. पुण्य-पापना भावमां ज्ञानना अंशनो अभाव छे. ए त्रणेय पुद्गलपरिणामोनो चैतन्यभावमां अभाव छे. ए त्रणेय भगवान आत्माना परिणाम नथी, केमके भगवान आत्मा ज्ञानस्वभावी वस्तु होवाथी एना परिणाम ज्ञानरूप होय; ज्यारे आ त्रणेयमां चैतन्यना अंशनो अभाव छे. व्यवहाररत्नत्रय ए शुभराग छे, ए पुद्गलना परिणाम छे केमके ए (राग) चैतन्यथी खाली छे. आवी वात बहु भारे, भाई. लोकोने तो एवुं लागे के आ सोनगढवाळाओए ‘निश्चयथी धर्म’ ए नवो शोध्यो. सहेलो सट लईने बेठा छे. व्रत अने तपमां दुःख पडे, कष्ट पडे एटले सहेलो धर्म काढयो. बस आत्मा जाणो, आत्मा जाणो-ए धर्म. अरे भगवान! तुं सांभळ तो खरो. प्रभु! तुं आत्मा चैतन्यचमत्कार वस्तु छे. ए चैतन्यचमत्कारमां एकाग्र थवुं एनुं नाम धर्म


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छे. ए चैतन्यचमत्कारने छोडी जे दया, दान, व्रतादि छे ते अचेतन छे. ते ज्ञानस्वरूप चैतन्यनी जात नथी. सीधी सादी भाषा छे. वस्तु आवी छे, भाई.

घडाना द्रष्टांते-ए पुण्य-पाप आदि भावकर्म, अने द्रव्यकर्म तथा शरीर, मन, वाणी आदि नोकर्म ए त्रणेमां आत्मा छे अने ए त्रणेय चीज आत्मामां छे एवी जेनी मान्यता छे ते मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी-अप्रतिबुद्ध छे. परसत्तानुं पोतामां होवापणुं मानवुं ए मिथ्यात्वभाव छे. कोई कहे के व्यवहारथी (धर्म) थाय. पण भाई, व्यवहार ए शुभरागनी क्रिया छे अने शुभराग छे ए अचेतन छे, पुद्गलपरिणाम छे. चेतन आत्मा अचेतन पुद्गलपरिणाममां छे अने पुद्गलपरिणाम आत्मामां छे एवी मान्यता अज्ञानीनी छे. भले ने नग्न साधु केम न होय, ‘रागना परिणाममां हुं छुं अने मारामां रागना परिणाम छे’-एवी मान्यता जो तेने होय तो ते अज्ञानी छे, अप्रतिबुद्ध छे. अहाहा! कर्म-मोह आदि अंतरंग परिणाम एटले मोह-राग-द्वेषादि भावकर्म अने जड कर्म तथा नोकर्म-शरीरादि-ए बधी बाह्य वस्तुओ छे. आ बाह्य वस्तुमां हुं छुं अने बाह्य वस्तु मारामां छे एम माननार बहिरात्मा-मिथ्याद्रष्टि छे. अहो! आचार्यदेवे सत्ने समजावनारी मीठी अने मधुर टीका करी छे.

भगवान! बहिरात्मा कोने कहीए अने अंतरात्मा कोने कहीए? के जे अंदर रागनी क्रियाना पुण्य-पापरूप, दया, दान, भक्ति, व्रत आदिरूप भाव थाय छे ते पुद्गल-परिणाम छे अने बाह्य छे. तेमां हुं छुं अने तेथी मने लाभ छे एम माननार बहिरात्मा छे. बहु आकरुं पडे. पेला भक्तिवाळा एम कहे के भक्ति करो, एम करतां करतां धर्म थशे; आ दया पाळवावाळा एम कहे के परनी दया पाळो, तेथी धर्म थशे अने शरीरना बळिया होय ते एम कहे उपवासादि तप करो, एम करवाथी धर्म थशे. आ त्रणे मंदरागनी क्रिया छे. आ मंदरागनी क्रियाथी लाभ माननारा रागनी रुचिवाळा बहिरात्मा छे, अज्ञानी छे.

अहाहा! अहीं तो दांडी पीटीने कहेवाय छे के भगवान जिनेन्द्रदेवनो कहेलो धर्म ए अलौकिक चीज छे. एवी चीज बीजे कयांय नथी. पण एना घरमां (दिगंबर जैनमां) जेणे जन्म लीधो छे एने य खबर नथी. अहीं त्रण वात कहे छेः-पुण्य- पापरूपभाव ए भावकर्म, ज्ञानावरणादि जड कर्म अने शरीरादि नोकर्म ए त्रणेय पुद्गलपरिणाम छे, एक वात. ए आत्माना तिरस्कार करवावाळा छे ए बीजी वात अने आम होवा छतां तेमां हुं छुं अने ए परिणाम मारामां छे एम वस्तुना अभेदथी ज्यां सुधी अनुभूति छे त्यां सुधी आत्मा अप्रतिबुद्ध छे, मिथ्याद्रष्टि छे. शुं कहे छे? शुभराग आदि पुद्गल-परिणाम छे. ए जीवस्वभावमां तो नथी पण जीवनो तिरस्कार करवावाळा छे. तेथी पुण्यभाव आदि भावकर्म तथा शरीर, मन, वाणी, स्त्री, कुटुंब, परिवार आदि नोकर्मनो


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प्रेम आदर करीश वा तेथी पोताने लाभ छे एम मानीश तो भगवान आत्मानो अनादर थशे. आ त्रणेयमां अभेदपणे अनुभूति ए तो मिथ्यादर्शन छे, अज्ञान छे.

प्रश्नः–अनुभूति छे तोपण अज्ञानी?

उत्तरः–ए अनुभूति छे एमां शुं? ए तो जडनी अनुभूति छे. (अज्ञान छे) एने अनुभूति कहेता ज नथी. अनुभूति एटले अनुभववुं, थवुं. स्वने अनुसरीने थवुं, परिणमवुं. एटले पोताना दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभावने अनुसरीने थवुं-परिणमवुं तेने आत्मानी अनुभूति कहे छे. परंतु जडने, रागने अनुसरीने थवुं-परिणमवुं ए आत्मानी अनुभूति नथी. पहेलां बीजी गाथामां आ आवी गयुं छे.

आहाहा! शुं कह्युं? जडकर्म अने शरीरादि नोकर्म ए तो पुद्गलपरिणाम छे ज. पण आ आत्मा जे एक ज्ञायकभाव ज्ञाताद्रष्टा चैतन्यचमत्कार वस्तु छे तेमां थता क्षणिक पुण्य-पापना जे भाव ते पण पुद्गलपरिणाम छे, अचेतन छे. ए चैतन्यचमत्कार ज्ञायक-भावरूप आत्मा एक वस्तु अने पुण्य-पापना भाव ए बीजी वस्तु. आ बे वस्तु भिन्न होवा छतां द्रष्टिमां ज्यांसुधी बन्नेमां एकपणानी अभेदबुद्धि छे त्यांसुधी आत्मा अप्रतिबुद्ध-अज्ञानी छे, पछी भले लाखो शास्त्रो भण्यो होय.

अहीं कोई कहे के आमां जरा ढीलुं करो. थोडो रागथी लाभ थाय अने थोडो रागथी लाभ न थाय एम स्याद्वाद करो. तो आपणे बधा एक थई जईए. पण भाई, आमां ढीलुं मूकवानो प्रश्न ज कयां छे? त्रिलोकीनाथ भगवान अने संतो जाहेर करे छे के तुं चैतन्यचमत्कारी वस्तु छे. तारामां चैतन्यचमत्कारनी ईश्वरता भरेली छे. एवा निज आत्मस्वरूपने दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभभावरूप जाणे अने माने, ए शुभभावो मारा छे अने एथी मने लाभ (धर्म) थशे एम माने तो मिथ्याद्रष्टि, अज्ञानी छे, मूढ छे, जैन नथी.

नवा माणसने जरा आकरुं लागे. पहेलां सांभळ्‌युं होय ने के व्रत, तप, जात्रा आदि करो एटले धर्म थई जशे. पण कोईनी जात्रा, भाई? बहारनी के अंदरनी? तीर्थे जाओ पण कयुं तीर्थ? आत्मानी अंदर के आत्मानी बहार? कांई खबर न मळे बिचाराने. भगवान आत्मा स्वयं तीर्थरूपे-देवरूपे छे. ए परमानंदस्वभाववाळुं द्रव्य छे. तेमां अंदर जात्रा करे-अंदर जाय ए धर्म छे. बहारनी जात्रा ए तो रागनी क्रिया छे. ए रागक्रिया जे आत्मानो तिरस्कार करवावाळी छे एनाथी लाभ थशे एवी मान्यता तो अप्रतिबुद्ध-अजैननी छे. भाई! व्रत, तप आदि शुभभाव ए तो पुद्गलना परिणाम छे, अचेतन छे. जे भावे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ए भाव पुद्गलपरिणाम छे, अचेतन छे. एमां चैतन्यनी जात नथी. तेथी ए शुभरागादि भावकर्म, द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म ए बाह्य वस्तुओ साथे ज्यांसुधी एकपणानी अभेदपणे अनुभूति छे त्यांसुधी ते अप्रतिबुद्ध छे, बहिरात्मा


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छे. तथा ए त्रणेय पुद्गलपरिणामो बाह्य चीज होवाथी मारा-पोतानामां नथी एम मानी जे पोतानो दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभावरूप एक ज्ञायकभाव आत्मा छे तेवी श्रद्धा करी तेनी साथे ज एकपणानी निर्मळ ज्ञान, आनंदनी अनुभूति करे ते अंतरात्मा छे. पोताना दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदिनी पूर्णदशा प्रगट थवी ए परमात्मा छे. आ बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मानी व्याख्या छे.

पहेलां घडानुं द्रष्टांत आप्युं. हवे दर्पणनुं द्रष्टांत आपीने समजावे छे. ‘जेम रूपी दर्पणनी स्व-परना आकारनो प्रतिभास करनारी स्वच्छता ज छे अने उष्णता तथा ज्वाळा अग्निनी छे....शुं कहे छे? ज्यारे दर्पणनी सामे अग्नि होय त्यारे दर्पणमां जे प्रतिबिंब (अग्नि जेवो आकार) देखाय छे ते दर्पणनी स्वच्छतानी पर्याय छे, पण अग्निनी पर्याय नथी. जे बहारमां ज्वाळा अने उष्णता छे ते अग्निनां छे. परंतु दर्पणमां जे प्रतिबिंब देखाय छे ते तो दर्पणनी स्व-परना आकारनो-स्वरूपनो प्रतिभास करनारी स्वच्छता ज छे. ‘तेवी रीते अरूपी आत्मानी तो पोताने ने परने जाणनारी ज्ञातृता (ज्ञातापणुं) ज छे अने कर्म तथा नोकर्म पुद्गलनां छे.’ शुं कहे छे? राग-दया, दान, पुण्य-पाप आदि जे विकल्प एना आकारे एटले ज्ञेयाकारे ज्ञान थयुं ए तो ज्ञाननी पर्याय छे, पण रागनी नथी. जेम अग्निनी पर्याय अग्निमां रही, पण तेनो आकार (प्रतिबिंब) जे अरीसामां देखाय छे ते अग्निनी पर्याय नथी पण ए तो अरीसानी स्वच्छतानी आकृतिनी पर्याय छे, तेम भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप छे ए ज्ञेयाकार स्वनुं ज्ञान करे छे अने दया, दान, व्रत, आदि विकल्पनुं ज्ञान करे छे. ए परनुं ज्ञान थाय छे ए पोतानी पर्यायमां थाय छे. ए परनुं ज्ञान परमां तो थतुं नथी, पण परने लीधे पण थतुं नथी. पोताना ज्ञाननी स्वच्छत्व शक्तिने लीधे थाय छे.

स्वनुं ज्ञान थवुं अने पर-रागनुं ज्ञान थवुं ए तो पोतानी ज्ञाननी परिणतिनो स्व-परप्रकाशक स्वभाव छे. राग छे तो रागनुं ज्ञान थयुं एम नथी. परंतु ते समये पोतानी ज्ञाननी पर्याय स्वयं रागना ज्ञेयाकाररूपे परिणमती थकी ज्ञानाकाररूप थई छे. ते पोताथी थई छे, पोतामां थई छे, परथी (ज्ञेयथी) नहीं. अरूपी आत्माने तो पोताने अने परनी जाणवावाळी ज्ञातृता छे. ए ज्ञातृता पोतानी छे, पोताथी सहज छे, रागथी नहि अने रागनी पण नहीं. ए राग छे तो ज्ञातृता (जाणपणुं) छे एम नथी. वस्तुनुं सहजस्वरूप ज आवुं छे. अहो! आचार्यदेवे मीठी, मधुरी भाषामां वस्तु भिन्न पाडीने बतावी छे. एमां ठर तो तारुं कल्याण थशे.

जेम रूपी दर्पणनी स्वच्छतामां स्व-परनो प्रतिभास करवानी पोतानी शक्ति छे तेम ज्ञाननी पर्यायमां पोतानुं ज्ञान थवुं अने पर एवा व्यवहाररत्नत्रयनुं ज्ञान थवुं-ए स्वपरनुं जाणवारूप परिणमन थवुं ए पोतानी शक्तिना कारणे छे, पण रागना (व्यवहाररत्नत्रयना) कारणे नहि अने रागमां पण नहि. १२ मी गाथमां आवे छे


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ने के ते काळे व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान छे. (व्यवहारनयो परिज्ञायम नस्तदात्वे प्रयोजनवान्’) एनुं स्पष्टीकरण छे. पोतानी ज्ञाननी पर्याय पोताने जाणे छे अने रागने जाणे छे. राग छे तो जाणे छे एम नथी, पण ते काळे पोतानी ज्ञानपर्याय ज एवी स्व-परप्रकाशक प्रगट थाय छे. आवो मार्ग, भाई. हवे आ वाणियाने वेपार करवो, बायडी-छोकरांनुं करवुं के आवुं सांभळवा बेसवुं? धूळमांय वेपारादि करतो नथी; ए तो राग अने द्वेष करे छे शुं वेपार करी शके छे? परनी क्रिया करी शके छे? ना. ए (पर) तो जड छे.

घडानुं द्रष्टांत पहेलां दईने हवे दर्पणनुं द्रष्टांत आप्युं. घडाना द्रष्टांतमां तो जेम वर्ण, गंध, रस, स्पर्शमां घडो छे अने घडामां वर्ण, गंध, रस, स्पर्श छे तेम पुण्य- पापमां हुं छुं अने मारामां ए छे एवी अनुभूति ए अज्ञान छे एम कह्युं. आमां कहे छे के लोकालोक छे तो केवळज्ञाननी पर्याय छे एम नथी. ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक परिणति ए पोतानी पोताना स्वभावथी थाय छे, लोकालोकथी नहीं. स्व-परनो प्रतिभास थवो ए पोतानुं सहज सामर्थ्य छे. पर छे तो परनो प्रकाश थाय छे एम नथी. आत्मानी तो स्वपरने जाणनारी ज्ञातृता छे अने कर्म अने नोकर्म पुद्गलनां ज छे एम जणाय छे. रागादि कर्म अने शरीरादि नोकर्म पुद्गलनां छे एम पोताथी जाणे अथवा परना उपदेशथी. जेनुं मूळ भेदविज्ञान छे-एटले रागथी अने शरीरादि परथी भिन्न पडवुं ए जेना मूळमां छे-एवी अनुभूति उत्पन्न थशे त्यारे ज आत्मा प्रतिबुद्ध थशे.

* कळश १९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

जेम स्पर्शादिमां पुद्गलनो अने पुद्गलमां स्पर्शादिनो अनुभव थाय छे अर्थात् बन्ने (घडाना द्रष्टांतनी जेम) एकरूप अनुभवाय छे तेम ज्यांसुधी आत्माने कर्म-जड कर्म अने अंतरंग रागादि भावकर्म अने नोकर्म-शरीर, मन, वाणी इत्यादिमां आत्मानी अने आत्मामां कर्म-नोकर्मनी भ्रांति थाय छे त्यांसुधी ते अप्रतिबुद्ध छे.

भगवान आनंदस्वरूप ज्ञायक आत्मा छे. एने आ राग ते हुं छुं अने ए राग मारामां छे एवी भ्रांति छे त्यांसुधी ए मिथ्याद्रष्टि छे. हवे केटलाक कहे छे के व्यवहार - राग करतां करतां आत्मानी अनुभूति-निश्चय थाय, पण एम नथी. ए राग तो विकल्परूप छे. अने आत्मा तो निर्विकल्परूप आनंदकंद छे. आत्मा तो शुद्ध पवित्र आनंदघन ज्ञायकरूप छे. अने व्यवहारना शुभभाव तो जडस्वभावी, अशुद्ध, अपवित्र अने दुःखरूप छे. तेथी आत्मा ते राग छे अने राग ते आत्मामां छे एवी एकपणानी मान्यता भ्रम छे. ज्यांसुधी बन्ने एकरूप भासे त्यांसुधी ते अज्ञानी-अप्रतिबुद्ध छे. पुण्य-पापना भाव स्वरूपमां तो नथी, ए तो स्वरूपनो तिरस्कार करवावाळा-अनादर करवावाळा छे. आम छे तोपण ए पोतापणे एकरूप भासे ए अज्ञान छे.


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हवे ज्यारे ते एम जाणे छे के आत्मा तो ज्ञाता ज छे अने कर्म-नोकर्म पुद्गलनां ज छे त्यारे ज ते प्रतिबुद्ध थाय छे. शुं कह्युं? के आ जाणनार, जाणनार छे ते ज आत्मा छे. जे आ जाणे छे ते ज आत्मा छे. अने पर तरफना लक्षे उत्पन्न थएलां रागादि भावकर्म अने शरीर, मन, वाणी इत्यादि नोकर्म ए पुद्गलना ज छे. जुओ, आ पैसा, बायडी, छोकरां, वेपारंधधो ए तो बहु दूर रही गया. ए तो बधी पुद्गलनी पर्यायनी ज जात छे. अहीं तो दया, दान, व्रतादि विकल्प ऊठे ए पण पुद्गलना ज छे एम वात छे. ए चैतन्य-ज्ञायकनी सत्तामां-ज्ञायकना होवापणामां ए रागनी सत्ता नथी अने रागनी सत्तामां भगवान ज्ञायकनी सत्ता नथी. एम शरीरनी सत्तामां आत्मानी सत्ता नथी अने आत्माना होवापणामां शरीरनी सत्ता नथी. भगवाननी भक्ति थाय, व्रत अने तपनो विकल्प आवे उपवास करुं, ब्रह्मचर्यपाळुं एवो शुभराग आवे ए बधा शुभरागनी सत्तामां चैतन्यस्वरूप आत्मा नथी अने चैतन्यस्वरूप आत्मामां ए शुभरागनी सत्ता नथी. आवुं ज्यारे भेदज्ञान थाय त्यारे ते प्रतिबुद्ध थाय छे. ल्यो, आम रागादिथी भेद करी ज्ञायकमां एकपणे एकाग्रता करे त्यारे प्रतिबुद्ध थाय छे.

जेम अरीसामां अग्निनी ज्वाळा देखाय त्यां एम जणाय छे के-ज्वाळा तो अग्निमां ज छे; अरीसामां नथी पेठी. अरीसामां देखाई रही छे ते अरीसानी स्वच्छता ज छे. शुं कहे छे? तेमां जे अग्निनी ज्वाळा (प्रतिबिंब) देखाय छे ते ज्वाळा अग्निनी नथी अने अग्निथी पण नथी. ए तो अरीसानी स्वच्छतानी दशा छे. ए (ए अरीसाना स्वभावने कारणे छे) अरीसानी स्वच्छतानो स्वभाव ज एवो छे के ते पोतानी स्वच्छताने बतावे अने सामे चीज छे एनो जे पोतामां प्रतिभास थाय एने पण बतावे. खरेखर अरीसामां जे देखाय छे ए ज्वाळा नथी पण ए तो अरीसानी स्वच्छता छे. सामे बरफ होय अने पीगळतो जाय ए अरीसामां देखाय छे. ए बरफने लईने नथी के बरफ एमां छे एम पण नथी. त्यां तो अरीसानी स्वच्छतानुं ज अस्तित्व छे, बरफनुं नथी. तेम जेनी सत्तामां-होवापणामां आनंद अने ज्ञान भर्युं छे तेमां रागनुं जे ज्ञान थाय ए ज्ञान एनी पोतानी सत्तामां छे, पण राग एनी सत्तामां नथी. भगवान आत्मा ज्ञायकज्योति चैतन्यअरीसो छे. एमां शुभाशुभभावनी वृत्तिओ जे छे तेनो प्रतिभास-ज्ञान थाय, ए ज्ञाननुं अस्तित्व तो पोतामां छे, पण शुभाशुभभावनी वृत्तिओनुं अस्तित्व आत्मामां नथी. ए ज्ञानमां ए (शुभाशुभभावनी वृत्तिओ) जणाय अने आत्मा जणाय, पण परने (शुभाशुभभावनी वृत्तिओने) लईने ज्ञाननुं अस्तित्व छे एम नथी. ए राग छे माटे रागनुं अहीं ज्ञान थयुं एम नथी.

झीणो मार्ग, भाई! संप्रदायना माणसो नवा आवे एमने थाय के आ ते शुं कहे छे? आवो धर्म? बापा! जिनेश्वरना मार्गनो धर्म तो आवो छे. चैतन्यबिंब पडयुं छे ने अंदर! तेमां सामी जे चीज छे ए प्रकारना (ज्ञेयना) ज्ञानरूपे परिणमवुं,


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एने जाणवुं ए तो पर्यायनो ते क्षणनो धर्म छे. खरेखर तो ए ज्ञेय संबंधी पोतानी जे ज्ञाननी परिणति एने ए जाणे छे. आ बधा (अज्ञानी) कहे छे के देव-गुरुनी भक्ति करो, तेथी एमांथी मार्ग मळी जशे. अहीं कहे छे के भक्ति ए राग छे. ए राग जे थाय ते ज समयनुं ज्ञान स्व अने परने जाणतुं परिणमे एवी पर्यायनी ताकातथी ए रागने जाणी रह्युं छे. रागने जाणी रह्युं छे ए पण व्यवहारथी छे. निश्चयथी तो राग संबंधी ज्ञान अने पोता संबंधी ज्ञानने जाणी रह्युं छे. मूळ वात-प्रथम दशा समजाय नहि अने पछी चारित्र अने व्रत कयांथी आवे? मूळ एकडा विनानां मींडां शा कामनां?

भगवान आत्मा ज्ञायकभावस्वभावरूप छे. एमां व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग थाय ते रागसंबंधीनुं पण ते काळे पोतानुं ज्ञान परिणमे छे. ए ज्ञेयाकारे परिणमे छे एम कहेवुं ते व्यवहार अने ए ज्ञानाकारे थई रह्युं छे ए निश्चय छे. भाई! अहीं तो तळिये-वस्तुना तळमां जाय तो पत्तो खाय एवुं छे. कोई ने एम लागे के आ तो निश्चयाभास छे. भगवान! तने स्वभावनी सत्तानी खबर नथी. भगवान आत्मानी ज्ञानसत्ता ज्ञानना होवापणे छे. एमां व्यवहारना जे विकल्प ऊठे ए संबंधीनुं ज्ञान थवुं ते ते काळे ज्ञाननी परिणतिना स्वभावथी थाय छे, पण रागने लीधे नहि. ते काळे स्वपरने जाणवानी परिणति पोताना अस्तित्वने लईने ऊभी थाय छे, पण रागने लईने नहि. भगवान आत्मानो स्व-परने प्रकाशवाना सामर्थ्यवाळो चैतन्यप्रकाश ज एवो छे के जेम अरीसामां सामेनी चीज-बिंबनुं प्रतिबिंब देखाय छे तेम ज्ञानमां रागादि कर्म-नोकर्म जे ज्ञेय छे ते प्रतिभासे छे. तेथी रागने काळे रागनुं जे ज्ञान थाय ए रागने लईने नहि पण ज्ञानना स्वपरप्रकाशक सामर्थ्यने लईने ए ज्ञान थाय छे. ज्यारे रागनुं ज्ञान रागने लईने नथी तो पछी रागथी (राग करतां करतां) आत्मानी निर्मळदशा केम प्रगट थाय? शुभराग-व्यवहार साधन (कारण) अने निर्मळदशा कार्य एम शी रीते थाय? न ज थाय.

प्रश्नः–व्यवहारने साधन कह्युं छे ने?

उत्तरः–ए तो बीजी रीते कह्युं छे. (निश्चय) साधननी जोडे बीजी चीज (व्यवहार) छे एने आरोप करीने साधन कह्युं छे, पण खरेखर ए साधन नथी. शुभराग-व्यवहार छे ए निश्चयने साधे छे, व्यवहारथी निश्चय थाय छे, व्यवहार जे राग छे एनाथी वीतरागता थाय छे, व्यवहार जे दुःख छे एनाथी सुख थाय छे’-एम नथी, भाई! (ए तो बधां व्यवहारनां कथन छे)

भाई! तारा ज्ञाननुं सामर्थ्य कोई अचिन्त्य छे. जे काळे जेवा रागादि (ज्ञेय) होय तेवुं ज ज्ञान थई जाय छे ए ज्ञाननी पर्यायनुं सामर्थ्य छे. तेम छतां आवो राग


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छे माटे आवुं ज्ञान थयुं एम नथी, केमके रागना अस्तित्वथी ज्ञाननी परिणतिनुं अस्तित्व भिन्न छे. आ तो स्वातंत्र्यनो ढंढेरो छे, भाई. रागादि छे ते पर छे, अने पर्यायमां रागादिनुं जे ज्ञान छे ए (स्व) मारुं छे एवो भेदज्ञानस्वरूप अनुभव कयारे थाय? के ज्यारे रागादिनुं लक्ष छोडी स्वना लक्षमां जाय त्यारे एनी परिणतिमां भेदज्ञान थाय. शरीर, मन, वाणी इत्यादि नोकर्म अने रागादि कर्म ए पर पुद्गलना ज छे अने ए ज्ञेयोने जाणनारुं ज्ञान ते मारुं ज्ञायकनुं छे एम भिन्नता जाणी एक ज्ञायकनी सत्तामां ज लक्ष करे तेने भेदज्ञान थाय छे. आवो भेदज्ञानरूप अनुभव कां तो स्वयमेव निसर्गात् अथवा तो उपदेशथी अधिगमात् ज्यारे थाय छे त्यारे ज ते प्रतिबुद्ध थाय छे. थाय छे तो आ रीते ज. (बीजी कोई रीत नथी) निमित्त आवे तो उपादानमां (कार्य) थाय एम नथी. भाई! उपादानना काळे स्व परप्रकाशक परिणति स्वयं पोताथी थाय छे. ते काळे निमित्त होय, पण निमित्तने लईने, निमित्तनी सत्ता छे माटे एने ज्ञान-परिणति उत्पन्न थई एम नथी. आ १९ मी गाथानी टीकानो भावार्थ कर्यो.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश २१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

ये जे पुरुषो स्वतो वा अन्यतो वा पोताथी ज अथवा परना उपदेशथी कथम् अपि हि कोई पण प्रकारे भेदविज्ञानमूलाम् भेदविज्ञान जेनुं मूळ उत्पत्तिकारण छे एवी अनुभूतिम् अचलितम् लभन्ते अविचळ (निश्चळ) पोताना आत्मानी अनभूतिने पामे छेः-शुं कहे छे? जो कोई आत्मा पोताथी ज एवुं भेदज्ञान प्रगट करे-एटले रागथी भिन्न जे ज्ञायकस्वभावरूप निज द्रव्य तेनुं लक्ष करे तो ते अविचळ एटले कदी न पडे एवी आत्मानी अनुभूतिने प्राप्त थाय छे.

अरे भाई! चारे गतिओमां रखडी रखडीने अनंतकाळ गयो. भ्रमणामां ने भ्रमणामां अनंतभवना अनंत अवतार कर्या. ए बधुं भूली गयो छे. पण ए भ्रमणा भांगे (दूर थाय) तो भवना अंत आवे एम छे. ए केम भांगे? तो कहे छे कोई पण प्रकारे एटले महा पुरुषार्थ करीने पण स्वथी सीधो ज भगवान ज्ञायकभाव उपर द्रष्टि करतां ते रागथी भिन्न पडी जाय छे. मोक्ष अधिकार, गाथा २९४ मां शिष्यनो प्रश्न छे के-‘आत्मा अने बंध बन्नेने कंई रीते छेदी शकाय छे?’ तेनुं समाधान आचार्यदेवे कर्युं छे के- “आत्मा अने बंधना नियत स्वलक्षणोनी सूक्ष्म अंतःसंधिमां (अंतरंगनी संधिमां) प्रज्ञाछीणीने सावधान थईने पटकवाथी (नाखवाथी, मारवाथी) तेमने छेदी शकाय छे अर्थात् जुदा करी शकाय छे एम अमे जाणीए छीए.” एटले के प्रज्ञा- ज्ञानपर्यायने रागथी भिन्न करीने पछी द्रव्यमां एक्ता करवाथी परने (रागादिने) छेदी शकाय छे. आम


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स्वथी अथवा परना उपदेशथी कोई पण प्रकारे एटले महापुरुषार्थथी ज्यारे आ अनुभूति (ज्ञान) रागनुं लक्ष छोडीने स्वद्रव्यना-ज्ञायकना लक्षे जाय छे त्यारे भेदविज्ञान जेनुं मूळ छे एवी आत्मानी अनुभूति उत्पन्न थाय छे.

‘भेदविज्ञान जेनुं मूळ उत्पत्तिकारण छे’-एम केम कह्युं? तेनुं समाधानः कोई एम कहे के रागनी घणी मंदता करतां करतां (एटले शुभभाव करतां करतां) अनुभूति थाय तो ए वात बराबर नथी. परंतु राग अने आत्मानां भिन्न भिन्न लक्षणो जाणीने, रागनुं लक्ष छोडी प्रज्ञा-छीणी एटले ज्ञाननी परिणति वडे आत्मा अने रागादि बंधने छेदी नाखवा-जुदा पाडवा. जेने आवुं भेदज्ञान थाय ते आवी अविचळ पोताना आत्मानी अनुभूतिने पामे छे. भगवान आत्मानी अनुभूतिनुं मूळ कारण भेदज्ञान कह्युं छे पण व्यवहार साधन-शुभरागने आत्मानुभूतिनुं कारण कह्युं नथी. जुओ, आमां व्यवहार साधन-शुभरागनो निषेध आवी जाय छे.

भाई! आ तो धीरानां काम छे. पहेलां विकल्प द्वारा लक्षमां, प्रतीतिमां तो ले के अंतरनो अनुभव भेदविज्ञानना कारणे थाय छे, परथी भिन्न पडवाना कारणे थाय छे. पर के जेनाथी जुदुं पडवुं छे एनाथी अनुभूति थाय? (न ज थाय.) रागादि जे क्रिया, भले ते पंचमहाव्रतादि होय, एनाथी तो जुदुं पडवुं छे. हवे जेनाथी जुदुं पडवुं छे ए (रागादि) अहीं साधन केम थाय? (न थाय) वस्तुनी स्थिति ज आवी छे, भाई! घणुं गंभीर तत्त्व भर्युं छे. वळी केटलाक एम कहे छे के-रागनी मंदतारूप शुभोपयोग छेल्लो (अनुभव पहेलां) तो होय छे ने? (भले) एनाथी जुदुं, पण शुभोपयोग एटलुं तो साधन थयुं ने? अशुभ उपयोग होय ने भेदज्ञान थाय एम बनतुं नथी माटे अशुभ- उपयोग साधन न थाय, पण शुभ-उपयोग तो साधन खरुं ने? (उत्तर) छेल्लो जे शुभोपयोग होय तेनाथी तो जुदुं पडवानुं छे तो (जुदा पाडवामां) शुभोपयोगे शुं मदद करी? (कांई ज नहि) ए शुभरागना काळे रागथी जे भेदज्ञान ते अनुभूतिनुं कारण थाय छे पण रागने लईने अनुभूति थाय छे एम नथी.

प्रश्नः–‘भेदविज्ञानमूलाम् एम लख्युं छे ने? भेदविज्ञान जेनुं मूळ कारण छे. (बीजुं शुभोपयोग उत्तर कारण?) एटले एम बे कारणथी कार्य थाय छे. अष्टसहस्त्रीमां (तत्त्वार्थसूत्रनी टीकामां) बे कारण आवे छे ने?

उत्तरः–ए तो बीजुं होय एनुं ज्ञान कराव्युं छे. बाकी अहीं तो रागथी भेदज्ञान करवुं (ए एक ज) अनुभूतिनी उत्पत्तिनुं कारण छे एम कह्युं छे. छेल्लो शुभराग हतो माटे एनाथी कांईक मदद थई-एम नथी.

हवे कहे छे-जे पुरुषो कोईपण प्रकारे पोताथी अथवा परना उपदेशथी अंतःस्वभावना