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साधवानी आ धर्मशाळा छे, तथा संसारतपनो नाश करनारी ए अमृतस्वरूप मेघमाळा छे, अहाह...! ठंडा शीतळ पाणीथी भरेला वरसता मेघनी पंक्ति समान छे. अहाहा....! ए जिनवाणी महामोहनो नाश करीने मोक्षने-सर्वोत्कृष्ट सुखने देनारी छे. अहा! एवी जिनवाणी माता वागीश्वरी देवीने हुं नमस्कार करुं छुं एम कवि कहे छे.
प्रश्नः– पण वाणी तो जड छे एम आप कहो छो ने? एमां क्यां आत्मा छे? - एम आप वारंवार फरमावो छो ने? (एम के तो पछी आवी जिनवाणीनी स्तुति केम करो छो?)
समाधानः– भाई! ज्यां जे अपेक्षाथी वात होय ते यथार्थ समजवी जोईए. वाणीमां आत्मा नथी, भाषावर्गणाना परिणमनरूप वाणी जड छे ए तो सत्य ज छे. पण आ भगवान जिनेश्वर सर्वज्ञ परमेश्वरना निमित्ते प्रगटेली वाणी-जिनवाणीनुं वाच्य शुं छे? अहाहा...! एनुं वाच्य चिदानंदघन प्रभु आत्मा छे. ए तो स्तुतिमां ज आवे छे के-
अहाहा...! जिनवाणी, जेमां चिदानंद राय भगवान आत्मा वसे छे एनी राजधानी छे, अर्थात् जिनवाणीमां चिदानंदघन प्रभु आत्मानुं कथन छे. अहाहा...! एनो भाव जे समजे तेने ते शुद्ध स्वरूपनी प्राप्तिमां उपकारभूत-निमित्तभूत थाय छे. माटे ते व्यवहारे स्तुतियोग्य पूजनीक छे. धर्मात्माने एवो जिनवाणी प्रति स्तुतिनो भाव आवे छे. आव्या विना रहेतो नथी. बनारसीदासे गृहस्थाश्रममां आ स्तुति करी छे. भाई! अमे जे अपेक्षाए कहीए छीए ते न्यायथी यथार्थ समजवुं जोईए.
आ वाणिया आखो दि’ धंधा-वेपारमां ने बैरां-छोकरां साचववामां पडया रहे ते न्यायथी आ अर्थ क्यां समजवा बेसे. एने तो अर्थ नाम पैसानी खबर होय पण आ अर्थनी खबर न होय.
प्रश्नः– एनुं शुं कारण? उत्तरः– पेलामां तो घरमां-घरनी मूडीमां नुकशान थतुं देखाय छे? अने आमां नुकशान तो आवे पण कही दे के ‘खबर पडती नथी’ एटले हाले. नुकशान तो खूब मोटुं आवे भाई! हों, पण एने खबर पडती नथी. बापु! एम ने एम आ जीवन जाय छे हों.
अहीं कहे छे-रागनी एकताबुद्धिनो अभिप्राय-अध्यवसाय छे ते बंधनुं कारण छे; अने ए बंधना कारणनुं कारण जे परवस्तु तेने अहीं (आश्रयरूप) कारण गण्युं छे. निमित्त छे ने? ए कारणथी कार्य थाय छे एम नहि, पण
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अध्यवसायने बाह्यवस्तु निमित्त छे. एने अहीं कारण कह्युं छे. ए कारणना प्रतिषेधथी कार्यनो प्रतिषेध थाय छे एम कहे छे. बाह्यवस्तु अध्यवसायनुं कारण छे तेथी ते वस्तुना प्रतिषेधथी अध्यवसायनो प्रतिषेध थाय छे. जुओ, पहेलां एम कह्युं हतुं के अध्यवसायना प्रतिषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध करवामां आवे छे. पछी फेरवीने आम कह्युं के बाह्यवस्तु अध्यवसायनुं कारण छे तेथी तेना प्रतिषेधथी अध्यवसायनो प्रतिषेध थाय छे. बेमां कांई फरक नथी केमके बाह्य वस्तुना आश्रयना अभावमां अध्यवसान नीपजतुं नथी. अहीं तो बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी, पण बंधना कारणनुं कारण छे-एम वात छे.
ए ज वात द्रष्टांतथी कहे छे-
‘परंतु, जो के बाह्यवस्तु बंधना कारणनुं (अर्थात् अध्यवसाननुं) कारण छे. तोपण ते (बाह्यवस्तु) बंधनुं कारण नथी; केमके इर्यासमितिमां परिणमेला मुनीन्द्रना पग वडे हणाई जता एवा कोई झडपथी आवी पडता काळप्रेरित उडता जीवडानी माफक, बाह्यवस्तु-के जे बंधना कारणनुं कारण छे ते-बंधनुं कारण नहि थती होवाथी, बाह्यवस्तुने बंधनुं कारण मानवामां अनैकांतिक हेत्वाभासपणुं छे-व्यभिचार आवे छे.’
जुओ, द्रष्टांत जे आपेलुं छे ते समजाववानी व्यवहारनी रीत छे. भाषा जुओ तो ‘मुनीन्द्रना पग वडे’-एम छे. वास्तवमां पग तो जडनो छे, मुनीन्द्रनो नथी, मुनीन्द्रनो तो शुद्धोपयोग छे. अहाहा..! मुनीवर तो शुद्धोपयोगी होय छे. भाई! एमने गमनमां शरीर निमित्त छे तेथी ‘मुनीन्द्रना पग वडे’-एम भाषा छे. ‘पग वडे हणाई जतां’-एम कह्युं त्यां पण पर वडे पर हणाय नहि एम छे, पण अहीं निमित्त-नैमित्तिक संबंधथी वात छे.
मुनिराज आम सामुं नीचे जोईने चाले छे; ईर्यासमितिपूर्वक त्यारे आम पग मूकवा जाय त्यां काळप्रेरित अर्थात् जेनुं आयुष्य पूरुं थयुं छे एवुं जीवडुं एकदम झडपथी पग नीचे गरी जाय अने मरी जाय तोपण मुनिराजने हिंसा थती नथी. ते उडतुं जीवडुं मरी गयुं ए मुनिराजने बंधनुं कारण नथी, केमके मुनिराजने ‘हुं मारुं-जिवाडुं’-एवो अध्यवसाय नथी. मुनिराजने ईर्यासमितिनो शुभभाव छे, पण बंधनुं कारण जे एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय ते नथी. तेनी माफक बाह्यवस्तुओ जे बंधना कारणनुं कारण कह्युं छे ते बंधनुं कारण नथी.
जो बाह्यवस्तु बंधनुं कारण मानवामां आवे तो मुनिराजने पग तळे जीवडुं मरी जतां हिंसा थाय अने तेथी बंध पण थाय; पण एम नथी. केमके मुनिराज अंतरमां शुद्ध परिणतियुक्त छे, ईर्यासमितिए परिणमेला छे, मारवा-जिवाडवाना
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अध्यवसायथी रहित छे. माटे तेमने जीवडुं मरी गयुं ए बंधनुं कारण नथी. तेवी रीते बाह्यवस्तु जे बंधना कारणनुं कारण छे ते बंधनुं कारण नथी.
बाह्यवस्तुने बंधनुं कारण मानवामां आवे ते अनैकांतिक हेत्वाभास छे-एमां व्यभिचार आवे छे. एटले शुं? के बाह्यवस्तुने निर्बाधपणे बंधनुं कारणपणुं सिद्ध थतुं नथी. ते (-बाह्यवस्तु) नियमरूप बंधनुं कारण बनी शकती नथी.
‘माटे बाह्यवस्तु के जे जीवने अतद्भावरूप छे ते बंधनुं कारण नथी; अध्यवसान के जे जीवने तद्भावरूप छे ते ज बंधनुं कारण छे.’
बाह्यवस्तु जीवने अतद्भावरूप छे, ते जीवना पोताना भावरूप नथी. आ स्त्री, कुटुंबपरिवार ईत्यादि पर जीव, पैसा, धन-संपत्ति, शरीर, वाणी, ईन्द्रिय ईत्यादि सघळी परवस्तु आत्माने अतद्भावरूप छे, ते आत्माना भावरूप नथी, परभावरूप छे. ते जीवने बंधनुं कारण नथी.
परंतु हुं बीजाने जिवाडुं-मारुं, सुखी-दुःखी करुं, कुटुंबने पाळु-पोषुं ने नभावुं, धनादि सामग्री आपुं-लउं अने शरीरनी क्रिया यथेष्ट करुं-एवो जे अहंकाररूप अध्यवसाय छे ते जीवने तद्भावरूप छे अने ते ज जीवने बंधनुं कारण छे.
‘बंधनुं कारण निश्चयथी अध्यवसान ज छे;....?
जोयुं? आ एकान्त कर्युं के बंधनुं कारण अध्यवसान ज छे. आ सम्यक् एकान्त छे भाई! मतलब के बंधनुं कारण अध्यवसान ज छे, परवस्तु नहि एम (सम्यक्) अनेकान्त छे; पण बंधनुं कारण अध्यवसान पण छे ने परवस्तु पण छे ए तो मिथ्यावाद छे बापु!
‘अने जे बाह्यवस्तुओ छे ते अध्यवसाननुं आलंबन छे-तेमने आलंबीने अध्यवसान उपजे छे, तेथी तेमने अध्यवसाननुं कारण कहेवामां आवे छे.’
जुओ, आ अध्यवसान नाम परिणाम (-विभाव) जे उपजे छे तेने बाह्यवस्तुनुं आलंबन अर्थात् आश्रय होय छे. तेने आश्रय कहो, निमित्त कहो, कारण कहो के आलंबन कहो-ए बधुं एकार्थवाचक छे. अहाहा..! बाह्यवस्तुना आलंबने उपजे छे तेथी बाह्यवस्तुने अध्यवसाननुं कारण कहेवामां आवे छे. अहीं एम नथी के बाह्यवस्तु अध्यवसानने (उत्पन्न) करावे छे. अहाहा..! अध्यवसान आश्रयभूत निमित्तथी उत्पन्न थाय छे एम नथी. बाह्यवस्तु आलंबनरूप-आश्रयरूप निमित्त
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कारण छे, ए निमित्त जीवमां अध्यवसान उत्पन्न करे वा करावी दे छे एम छे नहि. आ तो अध्यवसान बाह्यवस्तुना आलंबने उपजे छे तेथी तेने (बाह्यवस्तुने) अध्यवसाननुं कारण कहेवामां आवे छे.
जुओ, नानुं कुमळुं बाळक होय, रूपाळुं कुणुं होय एटले एने चुंबन ले. त्यां आनो जे अभिप्राय छे के ‘हुं आने चुंबन लउं’ ए अभिप्राय चुंबननी क्रिया करी शकतो नथी, केमके होठथी चुंबननी क्रिया थाय ए तो परनी-जडनी क्रिया छे. ते जीवने अतद्भावरूप होवाथी जीव ए क्रिया करी शकतो नथी. अहा! जे क्रिया आ करतो-करी शकतो नथी ते एने बंधनुं कारण केम थाय? न थाय. तेथी बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी. पण ‘हुं आम चुंबन लउं’ एवुं जे परिणाम-अध्यवसान छे ते ज बंधनुं कारण छे.
अहाहा...! क्षणेक्षणनुं भेदज्ञान बताव्युं छे भाई! समये समये थती पर्याय (- परिणाम) अने ते ते समये थती परद्रव्यनी क्रिया-ए बे भिन्न भिन्न स्वतंत्र छे एम कहे छे. ते ते समये थता परिणाम जीवने तद्भावरूप छे, अने ते ते समयनी परद्रव्यनी क्रिया जीवने अतद्भावरूप छे. तथापि ते ते परिणामने बाह्यवस्तु आलंबन छे तेथी तेने अध्यवसाननुं-परिणामनुं कारण कहेवामां आवे छे. अहा! अतद्भावरूप एवी बाह्यवस्तु आलंबनभूत होवाथी तद्भावरूप अध्यवसाननुं कारण छे एम कहेवाय छे. समजाणुं कांई...?
‘बाह्यवस्तु विना निराश्रयपणे अध्यवसान उपजतां नथी तेथी बाह्यवस्तुओनो त्याग कराववामां आवे छे.’
बीजाने मारवा-जिवाडवानो, सुखी-दुःखी करवानो अध्यवसाय बाह्यवस्तुना आश्रय विना उपजतो नथी तेथी बाह्यवस्तुओनो त्याग कराववामां आवे छे. त्यां आशय तो अध्यवसाननो ज त्याग कराववानो छे. कोईने बाह्यवस्तुओनो त्याग होय पण अंतरंग अध्यवसान मटे नहि तो तेथी कांई (लाभ) नथी.
हवे कहे छे-‘जो बंधनुं कारण बाह्यवस्तु कहेवामां आवे तो तेमां व्यभिचार आवे छे.’ एटले शुं? एटले के तेमां सत्यता आवती नथी, विरुद्धता-विपरीतता आवे छे; केमके कारण होवा छतां कोई स्थळे कार्य देखाय अने कोई स्थळे कार्य न देखाय तेने व्यभिचार कहे छे. कारण होय छतां कार्य थाय वा न पण थाय तो ते कारणमां व्यभिचार छे, अने एवा कारणने व्यभिचारी-अनैकांतिक कारणाभास कहे छे. माटे बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी.
जेमके ‘कोई मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यत्नथी गमन करता होय तेमना पग तळे कोई ऊडतुं जीवडुं वेगथी आवी पडीने मरी गयुं तो तेनी हिंसा मुनिने लागती
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नथी. अहीं बाह्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो हिंसा थई, परंतु मुनिने हिंसानो अध्यवसाय नहि होवाथी तेमने बंध थतो नथी.’ अहाहा...! पग तळे जीवडुं मरी गयुं ए द्रष्टिए बहारथी जोतां हिंसा थई छे, पण मुनिराजने मारवाना परिणाम नहि होवाथी तेमने बंध थतो नथी. जुओ अहीं परिणामना अर्थमां अध्यवसाय शब्द वापर्यो छे; केमके मुनिराजने एकत्वबुद्धि तो छे ज नहि तेथी अध्यवसायनो अर्थ अहीं परिणाम लेवो.
‘जेम ते पग नीचे मरी जतुं जीवडुं मुनिने बंधनुं कारण नथी तेम अन्य बाह्यवस्तुओ विषे पण समजवुं.’
शरीर, मन, वाणी ईत्यादि बधी जे परनी क्रिया थाय ते परिणामनो आश्रय होय, पण ए बाह्यवस्तुनी क्रिया बंधनुं कारण नथी; वाणीथी बंध नथी, देहथी बंध नथी; केमके ए बधी परचीज जीवने अतद्भावरूप छे. जे परिणाम छे ते जीवने तद्भावरूप छे अने ते ज जीवने बंधनुं कारण छे.
‘आ रीते बाह्यवस्तुने बंधनुं कारण मानवामां व्यभिचार आवतो होवाथी बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी एम सिद्ध थयुं. वळी बाह्यवस्तु विना निराश्रये अध्यवसान थतां नथी तेथी बाह्यवस्तुनो निषेध पण छे ज.’
जुओ, आ प्रमाणे बाह्यवस्तुना निषेध द्वारा बाह्यवस्तुनो आश्रय छोडावे छे.
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जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा।। २६६।।
या एषा मूढमतिः निरर्थिका सा खलु ते मिथ्या।। २६६।।
आ रीते बंधना कारणपणे (-कारण तरीके) नक्की करवामां आवेलुं जे अध्यवसान ते पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नहि होवाथी मिथ्या छे-एम हवे दर्शावे छेः-
आ मूढ मति तुज छे निरर्थक, तेथी छे मिथ्या खरे. २६६.
गाथार्थः– हे भाई! ‘[जीवान्] हुं जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि] करुं छुं, [बन्धयामि] बंधावुं छुं [तथा विमोचयामि] तथा मुकावुं छुं, [या एषा ते मूढमतिः] एवी जे आ तारी मूढ मति (-मोहित बुद्धि) छे [सा] ते [निरर्थिका] निरर्थक होवाथी [खलु] खरेखर [मिथ्या] मिथ्या (-खोटी) छे.
टीकाः– हुं पर जीवोने दुःखी करुं छुं, सुखी करुं छुं इत्यादि तथा बंधावुं छुं, मुकावुं छुं इत्यादि जे आ अध्यवसान छे ते बधुंय, परभावनो परमां व्यापार नहि होवाने लीधे पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नहि होवाथी, ‘हुं आकाशना फूलने चूंटुं छुं’ एवा अध्यवसाननी माफक मिथ्यारूप छे, केवळ पोताना अनर्थने माटे ज छे (अर्थात् मात्र पोताने ज नुकसाननुं कारण थाय छे, परने तो कांई करी शकतुं नथी).
भावार्थः– जे पोतानी अर्थक्रिया (-प्रयोजनभूत क्रिया) करी शकतुं नथी ते निरर्थक छे, अथवा जेनो विषय नथी ते निरर्थक छे. जीव पर जीवोने दुःखी-सुखी आदि करवानी बुद्धि करे छे, परंतु पर जीवो तो पोताना कर्या दुःखी-सुखी थता नथी; तेथी ते बुद्धि निरर्थक छे अने निरर्थक होवाथी मिथ्या छे-खोटी छे.
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आ रीते बंधना कारणपणे (-कारण तरीके) नक्की करवामां आवेलुं जे अध्यवसान ते पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नहि होवाथी मिथ्या छे-एम हवे दर्शावे छेः-
‘हुं पर जीवोने दुःखी करुं छुं, सुखी करुं छुं ईत्यादि तथा बंधावुं छुं, मुकावुं छुं ईत्यादि जे आ अध्यवसान छे ते बधुंय, परभावनो परमां व्यापार नहि होवाने लीधे पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नहि होवाथी, “हुं आकाशना फूलने चूंटुं छुं” एवा अध्यवसाननी माफक मिथ्यारूप छे, केवळ पोताना अनर्थ माटे ज छे.’
जुओ, परजीवोने मारुं-जिवाडुं, सुखी-दुःखी करुं-एवो अभिप्राय मिथ्या अध्यवसाय छे ए वात आवी गई छे, हवे आमां परने ‘बंधावुं-मुकावुं छुं’ ए अभिप्राय पण मिथ्या छे एम वधारे नाख्युं छे.
शुं कहेवुं छे? के ‘हुं परने बंधावुं’ एवो तारो जे भाव छे ते परने बंधावी शकतो नथी, अने ‘हुं बीजाने मुक्त करुं’ एवो तारो जे भाव छे ते बीजाने मुक्त करी शकतो नथी. ‘हुं बीजाने मोक्ष करी दउं’ एवो तारो भाव शुं बीजानो मोक्ष करी दे छे? ना; तेम ‘हुं बीजाने बंधावुं’ एवो तारो भाव शुं बीजाने बंधावे छे? ना. अरे भाई! बीजाने बंधावा-मूकावाना परिणाम तो बीजाना एना छे अने बंधावा-मूकावानी क्रिया पण बीजामां-एनामां थाय छे. अहा! पोताने परनुं करवाना भाव-परिणाम थाय पण ए परनी क्रिया करी शकतो नथी. झीणी वात भाई!
ऐक द्रष्टांत आवे छे ने के-एक शेठ हता हवे एनुं मकान बंधातुं हतुं त्यारे तेनो एक वेरी छुपी रीते मंदिरनी थोडी ईंटो एमां मूकी आव्यो. एने मन एम के आ देवद्रव्य-देरासरनो माल मकानमां वपराशे एटले एनुं नख्खोद जशे, एने तीव्र बंध थशे. पेला मकान बंधातुं हतुं ए शेठने तो आनी खबरेय नथी त्यां एने शुं थाय? मूर्ख लोको आवो ने आवो अभिप्राय राखे के हुं बीजाने बंधावुं! अहीं कहे छे-ए अभिप्राय मिथ्या जूठो छे.
श्वेतांबरमां ‘दस अच्छेरां’ मां एक वात आवे छे. हरिवंशक्षेत्रमां एक जुगलीयां हतां. हवे ते जुगलियां नियमथी मरीने स्वर्गे जाय. तेनो वेरी एक देव हतो तेणे आ जुगलियानुं शरीर नानुं करीने भरतक्षेत्रमां मूक्यां अने त्यां दारू, मांस आदि खवडाव्यां ने सात व्यसनमां तेने नाखी दीधां. पछी ते जुगलियां मरीने नरके गयां. हवे आवी ने आवी मेळ वगरनी वात; केमके हरिवंशक्षेत्रमांथी जुगलियांने
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अहीं भरतमां लवाय नहि, जुगलियां दारू, मांस सेवे नहि अने मरीने नरके जाय नहि. अहा! बीजाने बीजो कोई बंधावी दे ए अध्यवसाय ज जूठो छे.
आवी तो बधी कल्पित वातो त्यां (श्वेतांबरमां) घणी छे. भगवान महावीर ८२ दिवस ब्राह्मणीनी कुखे गर्भमां रह्या, पछी देवे आवीने तेने (-गर्भने) त्रिशला माताने कुखे मूकया. ल्यो, आवी कल्पित वात! अहा! भगवाननुं गर्भकल्याणक बीजे ने जन्मकल्याणक बीजे उजवाय एम कदी बनी शके नहि. भगवान ब्राह्मणीने त्यां गर्भमां आव्या अने जन्म्या श्री त्रिशला क्षत्रियाणीने त्यां एम बनी शके नहि. आवुं खोटुं बधुं हलाव्ये राखे! अहा! आमां बीजाने दुःख लागे पण भाई! शुं थाय? मार्ग तो वीतरागनो दिगंबर आचार्योए बतावेल छे ते सनातन सत्यार्थ छे.
अहीं कहे छे-तुं बीजाने मांस-दारू खवडावीने पापमां नाखी दे, नरकमां नाखी दे एम कदी बनी शकतुं नथी. अहा! तुं एने पराणे मांस खवडावी दे, एना मोढामां नाखी दे तो तेथी शुं? एने तो ते विष्टा समान छे. तुं भले तारा दुष्ट परिणाम करे, पण एने क्यां मांस खावाना परिणाम छे? माटे तेने पाप बंधाय एम छे ज नहि. दामनगरमां आ बनेली वात छे के एक माणसने रोग हतो तो एने बहु उलटी थई. उलटी थतां थतां विष्टानो आखो गांगडो मोंढामां आव्यो; तो शुं एने एमां मीठाश-रुचि छे? जराय नहि. एम कोई पराणे कोईने मांस खवडावे माटे एना परिणाम बगडी जाय एम छे नहि. भाई! ‘हुं परने बंधावी दउं, एना परिणाम फेरवी दउं’ एम तुं अध्यवसाय करे पण परमां एम बनी शकतुं नथी, केमके परना परिणाम करनारो पर पोते छे. अहा! मारा शरणे आवे एनो मोक्ष करी दउं, एने धर्म पमाडी दउं’ एवो अभिप्राय मिथ्या अध्यवसान छे एम कहे छे.
प्रश्नः– तो उपदेश दईने श्रीगुरु धर्म पमाडे छे ने? उत्तरः– एम छे नहि. ए तो पोते स्वाश्रये धर्म पामे छे तो श्रीगुरुए धर्म पमाडयो एम निमित्तथी कहेवाय छे; बाकी पमाडे कोण? उपदेशना विकल्पने काळे वाणी आवे, त्यां ‘बीजा धर्म पामो’ एवो श्रीगुरुनो विकल्प छे, पण एनाथी बीजाने धर्म- लाभ थाय एम वस्तुस्थिति नथी. धर्म तो ते पोताना स्वना आश्रये ज्यारे परिणमे त्यारे ज थाय. आ वस्तुस्थिति छे.
‘नमुत्थुणं’ मां आवे छे ने? के-तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं, बोहियाणं, मुत्ताणं मोयगाणं? भाई! आ तीर्थंकर भगवाननी स्तुति छे एटले व्यवहारथी निमित्तनुं ज्ञान कराववानुं त्यां प्रयोजन छे, बाकी भगवान कोईने तारी दे छे, मुक्त करी दे छे, मोक्ष करी दे छे एम छे नहि. समजाणुं कांई...?
अहाहा.....! परने बंधावा-मूकावाना परिणाम, परने मारवा जिवाडवाना
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परिणाम, परने दुःखी-सुखी करवाना परिणाम-ए बधा अध्यवसान मिथ्या छे. केम? केमके पर भावनो परमां व्यापार होतो नथी तेथी ते पोतानी अर्थक्रिया करनारा नथी. अहा! परिणामनुं जे प्रयोजन छे ते ते परिणाम सिद्ध करी शकता नथी. अर्थात् परने जिवाडवाना परिणामवाळो परने जिवाडवानी क्रिया करी शकतो नथी, परने मारवाना परिणामवाळो परने मारवानी क्रिया करी शकतो नथी, परने बंधावा-मूकावाना परिणाम परमां कांई करी शकता नथी. अहाहा..! परभावनो परमां व्यापार थवो ज शक्य नथी. तेथी ते सघळा अध्यवसान मिथ्या ज छे. कोनी जेम? तो कहे छे-
‘हुं आकाशना फूलने चूंटुं छुं’ एवा अध्यवसाननी माफक मिथ्यारूप छे. अहा! आकाशने फूल होय ज नहि तेथी आकाशना फूलने चूंटुं छुं एवो भाव जेम मिथ्या छे, जुठो छे तेम आने परने मारवा-जिवाडवाना, बंध-मोक्ष करवाना ने दुःखी-सुखी करवाना अध्यवसाय तद्दन मिथ्या छे, जूठा छे. तेथी परनी क्रिया हुं करी शकुं छुं एवो जे अभिप्राय छे ते मिथ्यात्व छे, केवळ पोताना अनर्थने माटे ज छे.
भगवान त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेवे प्ररूपेला सत्य सिद्धांतने अहीं सिद्ध करे छे के- परजीवना प्राणने हुं हरी शकुं, के पर जीवना प्राणनी हुं रक्षा करी शकुं, वा बीजाना बंध-मोक्षने हुं करी शकुं ईत्यादि जे अभिप्राय छे ते मिथ्यात्व छे, केमके ते अभिप्राय पोतानुं जे प्रयोजन छे ते सिद्ध करी शकतो नथी. परभावनो परमां व्यापार थवो अशक्य छे तेथी परने मारवा-जिवाडवा आदिना जे भाव छे ते पोतानी अर्थक्रिया करी शकता नथी माटे ते भाव मिथ्या छे, अने तेवो अभिप्राय मिथ्यात्व छे. भजनमां आवे छे ने के-
पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न आणे रे.’
अहीं कहे छे- परनी पीडा कोई बीजुं टाळी शकतुं ज नथी. कोईने एवो विकल्प आवे ए बीजी वात छे, पण ए विकल्प बीजानी पीडा हरवा माटे समर्थ नथी. तेथी बीजानी पीडा हरी शकुं छुं एवो अभिप्राय मिथ्यात्व छे. सूक्ष्म वात छे भगवान!
बीजा जीवने हुं कर्मबंध करावुं के एने कर्मथी मूकावी दउं इत्यादि अभिप्राय जेने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. अहाहा....! बीजा जीवने हुं एवा परिणाम करावुं के ते कर्मथी बंधाय ने संसारमां रझळी मरे,-अहीं कहे छे-ए परिणाम तारा मिथ्या छे, केमके परजीव पोताना अज्ञानवश राग-द्वेषथी बंधाय छे; तेमां तुं शुं करे छे? कांई नहि. तारा परने बंधावाना परिणाम बीजाने बंधन करावी शकता नथी. तेवी
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रीते हुं एवो उपदेश दउं के बीजा तरी जाय, तो कहे छे-ए परिणाम पण तारा मिथ्या छे, केमके परनुं तुं शुं करे? कांई नहि. तारा परने तारी देवाना परिणाम बीजाने तारी शकता नथी, कारण के परनो परमां व्यापार ज नथी. समकितीने जरी अस्थिरतानो विकल्प आवे ए बीजी वात छे, बाकी मिथ्याद्रष्टिने जे विपरीत अभिप्रायना परिणाम छे ए तेने दीर्घ संसारनुं कारण छे.
मा-बाप होय ने? एमने एम थाय के-आ छोकरांने बराबर भणावी-गणावीने होशियार करी दउं, एमने धंधो शीखवाडी दउं, तेओ पैसा कमाता थई जाय एटले आपणे निवृत्त थई जईए; -अहीं कहे छे-भाई! तारो ए अभिप्राय मिथ्या छे, केमके परभावनो परमां व्यापार ज शक्य नथी.
प्रश्नः– पण आवकनुं साधन तो करी आपवुं जोईए ने? उत्तरः– कोण साधन करी आपी शके? एना पुण्यनो उदय होय तो साधन आपोआप आवी मळे, अने पापनो उदय होय तो साधन न मळे. एमां तुं शुं करे? साधन करी आपवानो भाव आवे, पण आने (छोकराने) पापनो उदय होय तो साधन मळे नहि. अरे भाई! परनी क्रिया आत्मा त्रण काळमां करी शके ज नहि. तुं भाव करे पण ते भाव परमां कांई करी शके नहि. तेथी तारा परिणाम निरर्थक मिथ्या छे अने तारा तेवो अभिप्राय मिथ्यात्व छे.
ए तो अहीं कह्युं ने के-‘हुं आकाशनां फूलो चूंटुं छुं’- एवा अध्यवसाननी माफक ‘हुं परने मारुं-जिवाडुं छुं, परने दुःखी-सुखी करुं छुं, परने बंधावुं-मूकावुं छुं’ इत्यादि सर्व अध्यवसान निरर्थक छे. अहा! जेम आकाशने फूल होय नहि तेम परवस्तु आत्मानी छे नहि; तेथी परनी क्रिया हुं करुं छुं ए अध्यवसाय जूठो छे. आ छोकराओ बधा भणी- गणीने मोटा थाय एटले बधाने सरखां मकान बनावी दउं अने बधानी सरखी व्यवस्था करी दउं एवुं अध्यवसान जूठुं छे, केमके परमां कांईपण करवा माटे आत्मा पांगळो छे. आत्मा परनी व्यवस्था त्रणकाळ त्रणलोकमां करी शके नहि. ते पोताना पोतामां बंधना परिणाम के मोक्षना परिणाम करी शके पण परमां कांई पण करी शके नहि.
हुं खूब धन कमाउं छुं तो एनी एवी व्यवस्था करुं के जेथी कुटुंबनां सर्व सुखी थाय, सेवको सुखी थाय ने समाजने लाभ थाय-एम परने सुखी करवानो अभिप्राय अज्ञानी मिथ्याद्रष्टिनो छे. अज्ञानीना आवा सर्व परिणाम मिथ्या छे अने पोताना अनर्थने माटे ज छे. परनुं तो ते कांई करी शके नहि, पण पोताने अवश्य नुकशाननुं कारण थाय छे. अहा! आवा सर्व परिणाम परनी क्रिया करवामां निष्फळ छे अने पोताना आत्मानुं नुकशान करवामां, चतुर्गति-परिभ्रमण अर्थे सफळ छे.
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ल्यो, हवे आवुं कदी सांभळवा मळे नहि अने बीजे दया करो ने दान करो ने भक्ति करो ने तप करो एम परनी क्रिया करो, करो-एवो उपदेश बधे सांभळवा मळे. पण अहीं कहे छे-भगवान! ए परनुं करवाना परिणाम सर्व निरर्थक छे अने पोताना अनर्थने माटे ज छे. अहा! भाषा तो जुओ! ए परिणाम पोतानुं अनर्थ करनारा एटले संसारमां दीर्घकाळ रखडावनारा-रझळावनारा छे. केम? केमके ते मिथ्या अभिप्राय सहित छे. अरे! लोकोने मिथ्यादर्शन शुं छे एनी खबर नथी!
झीणी वात छे भाई! शुं तारी सत्तामां थता परिणाम परनी सत्तामां प्रवेश करी शके छे के ते परनुं कार्य करी दे? ना, कदीय नहि. तेम शुं परसत्ता तारामां प्रवेशी शके छे के पर तारुं कार्य करी दे? एम पण नहि. अहा! कोई सत्ता पोतानी सत्ताने छोडीने परनी सत्तामां प्रवेश पामती ज नथी तो पछी ते परनुं शुं करी शके? कांई ज नहि.
आ शरीर छे तेने आम तेम हुं हलावुं छुं एम अज्ञानी माने छे. पण भाई! शुं आत्मानी सत्ता जड शरीरमां जाय छे? ना; तो पछी आत्मा शरीरनुं शुं करे? ते शरीरने केवी रीते हलावे? अहा! पाणीमां माखी पडी गई होय तो आंगळी वडे काढीने हुं तेने बचावी शकुं छुं- एवो अभिप्राय मिथ्या छे. शुं आंगळीनी के पर माखीनी सत्तामां तुं जई शके छे? ना; तो पछी आंगळीनुं तुं शुं करे? ने माखीने तुं केवी रीते बचावे? आंगळीनी क्रिया तो स्वयं एना परमाणुओथी थाय छे अने माखी बचे छे ते एना आयुकर्मना उदयथी बचे छे. माटे माखीने हुं बचाउं छुं एवो तारो अभिप्राय मिथ्या छे अने ते पोताना अनर्थ माटे ज छे, अर्थात् पोताने संसारनी वृद्धिनुं ज कारण छे.
अहाहा...! प्रत्येक जीवननी अने परमाणु-परमाणुनी जे क्षणे जे अवस्था पोतानी थाय छे एने कोई बीजो करी दे ए त्रणकाळमां बनी शके नहिं. प्रत्येक जीव अने प्रत्येक परमाणुनी पोतपोतानी पर्यायनी जन्मक्षण छे. अहा! प्रतिसमय तेमां जे जे अवस्था थाय छे ते तेनी उत्पत्तिनो काळ छे. हवे एमां कोई बीजो कहे छे के-हुं एने उपजावी दउं के बदलावी दउं तो ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे, केमके बीजानो बीजामां प्रवेश ज नथी. आ अमे लोकोनी सेवा करीए छीए, दीन-दुखियांनां दुःख दूर करीए छीए इत्यादि परनां कार्य करवाना सर्व अध्यवसाय जूठा-निरर्थक छे, केमके पोताना अध्यवसाय प्रमाणे परमां बनतुं नथी. हा, एवा जूठा अध्यवसाय वडे पोतानो आत्मा हणाय छे, तेथी ते अध्यवसाय पोताने संसारमां रखडाववामां सार्थक छे, पण परनुं कार्य करवामां ते तद्दन निरर्थक छे.
प्रश्नः– निश्चयथी तो कोई परनुं कांई न करी शके ए तो बराबर, पण व्यवहारथी शुं छे? (एम के व्यवहारथी तो करी शके ने?)
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उत्तरः– भाई! व्यवहारथी पण आत्मा परनुं कांई न करी शके. आणे आनुं भलुं-बुरुं कर्युं एम व्यवहारथी जे कहेवाय छे ए ते बाह्य निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं कथन छे, पण कोई कोईनुं भलुं-बुरुं करी शके छे एम छे नहि. दरेक पदार्थ स्वयं पोते पोतानी क्रिया स्वतंत्र करे ते निश्चय अने ते काळे बाह्य अनुकूळ निमित्त जे होय तेनुं ज्ञान करवुं ते व्यवहारनय छे. पण निमित्ते-बीजा पदार्थे एमां (उपादानमां) कांई करी दीधुं छे एम जाणवुं ते व्यवहारनय नथी, ए तो अज्ञान छे. समजाणुं कांई....?
प्रश्नः– व्यवहारथी परनुं करी न शके पण ‘आणे आनुं कर्युं’ एम व्यवहारथी बोलाय तो छे ने?
उत्तरः– बोलाय छे एनी कोण ना पाडे छे? पण एम छे? ना, तथापि बोलाय तो छे ने-एम जेनी बोलावा उपर द्रष्टि छे ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे, केमके तेने अंतरमां अभिप्राय यथार्थ थयो नथी. अंतरना अभिप्रायने जोतो नथी ने आम तो बोलाय छे ने-एम जे भाषाने वळगे छे ते बहिर्द्रष्टि ज छे.
अहीं कहे छे-परने मारुं-जिवाडुं, सुखी-दुःखी करुं, बंधावुं-मूकावुं इत्यादि जेटला अध्यवसाय छे ते सघळा निरर्थक नाम जूठा छे अने ते पोताना अनर्थ माटे ज छे. ल्यो, आवी वात छे!
‘जे पोतानी अर्थक्रिया (-प्रयोजनभूत क्रिया) करी शकतुं नथी ते निरर्थक छे, अथवा जेनो विषय नथी ते निरर्थक छे.’
जुओ आ सिद्धांत मूक्यो. ‘हुं पर जीवने मारी के बचावी शकुं’ एवो जे परिणाम छे तेनो विषय नथी; कारण के पर जीवना मरण के जीवननी क्रिया एनी स्वतंत्र छे, ए कांई आना परिणामथी थाय छे एम नथी. तथापि एने पोताना परिणामनो विषय माने तो ए मिथ्या मान्यता छे. भाई! धर्म शुं चीज छे ए लोकोने खबर नथी. विना समज्ये अज्ञानपूर्वक दया, दान, व्रत, भक्ति ईत्यादि बहारनी क्रियाओ करे राखे छे? पण एथी शुं? आत्मज्ञान विना एवुं तो अनंतवार कर्युं प्रभु! पण संसार तो ऊभो ज रह्यो. अहाहा.....! ‘ए रागनी क्रिया हुं करी शकुं छुं’ एवो अभिप्राय पण मिथ्या छे. रागादि क्यां एनामां छे ते ए करी शके? जेम परद्रव्यनी क्रिया आत्मा करी शकतो नथी तो ए परिणामनो विषय नथी तेम. हुं रागादि करी शकुं छुं-ए परिणामनो विषय नथी. अने जेनो विषय नथी ते निरर्थक छे. अहा! परनी क्रिया ने रागनी क्रिया करवानो अभिप्राय निरर्थक छे.
‘हुं परनो मोक्ष करी दउं, हुं पर जीवोने बचावी दउं’ इत्यादि परिणाम तुं
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करे पण ए परिणामनो विषय शुं तारो छे? ए परिणाम पोतानी अर्थक्रिया करी शकतो नथी माटे ए मिथ्या छे, निरर्थक छे. परनो मोक्ष तो एना वीतरागी परिणामथी थाय छे एमां तुं शुं करे? तेम पर जीव एनुं आयुष्य होय तो बचे छे, पण तारा परिणामथी ए क्यां बचे छे? आ प्रमाणे परनी क्रिया करवाना परिणाम पोतानी अर्थक्रियाथी रहित होवाथी निरर्थक छे.
जुओ, सम्यग्दर्शनना परिणामनो विषय नाम ध्येय त्रिकाळी ध्रुव शुद्ध चैतन्यद्रव्य छे. ए तो विषय वस्तु यथार्थ, सत्यार्थ छे; तेथी ए परिणामनो विषय छे. पण ‘हुं मारी-जिवाडी शकुं छुं’ इत्यादि परिणामनो विषय ज नथी केमके परने मारवा- जिवाडवाना परिणाम परने मारी-जिवाडी शकता नथी. शुं कीधुं? के ‘परने हुं जिवाडुं’ एम अभिप्राय राखे पण परने ते जिवाडी शकतो नथी. माटे ए परिणामनो विषय खोटो-असत्यार्थ छे अर्थात् एनो विषय ज नथी एम कहे छे. समजाणुं कांई...?
अहो! दिगंबर संतोए वस्तुस्वरूप खुल्लुं करीने मार्गने टकावी राख्यो छे. अहा! संतोने-केवळीना केडायतीओने समाजनी शुं पडी छे? समाज वस्तुना स्वरूपने स्वीकारशे के नहि एनी एमने शुं पडी छे? ए तो सर्वज्ञनुं फरमान जेम छे तेम यथास्थित निःसंकोचपणे खुल्लुं करे छे. भाई! एने समजवुं होय तो पोतानो दुराग्रह छोडी देवो जोईशे.
‘हुं शरीरनी क्रिया करी शकुं छुं’-एवा जे परिणाम ते शरीरनी क्रिया करी शकता नथी, केमके शरीरनी क्रिया तो भिन्न जडनी क्रिया जडथी थाय छे. तो पछी ए परिणामनुं शुं? तो कहे छे-ए परिणाम मिथ्या, निरर्थक छे अने पोताना अनर्थ माटे छे. जेनो विषय नथी ते निरर्थक छे. जेवा परिणाम थया ते प्रमाणे परमां करी शके नहि तेथी परिणामनो विषय असत्यार्थ छे अर्थात् नथी एम कहेवाय छे. अहा! आवी वात वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरना मार्ग सिवाय बीजे क्यांय नथी. आ परम सत्यनो पोकार छे के जीवना परिणामनो जो विषय नथी तो ते परिणाम निरर्थक छे, पोताना अनर्थने माटे छे.
ए ज कहे छेः ‘जीव पर जीवोने दुःखी-सुखी आदि करवानी बुद्धि करे छे, परंतु पर जीवो तो पोताना कर्या दुःखी-सुखी थता नथी; तेथी ते बुद्धि निरर्थक छे अने निरर्थक होवाथी मिथ्या छे-खोटी छे.’
प्रश्नः– तो पछी शुं करवुं?
उत्तरः– भाई! ज्ञाता-द्रष्टापणे (-जाणवा-देखवापणे) रहेवुं. अहाहा....! हुं ज्ञानानंदस्वभावी छुं. -एम द्रष्टि स्वस्वरूपमां एकाग्र करवी.
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आत्मा सदा सर्वज्ञस्वभावी छे. सर्वज्ञ पर्याय जे केवळी परमात्माने उत्पन्न थाय छे ते क्यांथी उत्पन्न थाय छे? शुं ए क्यांय बहारथी आवे छे? ना; ए तो अंदर सर्वज्ञस्वभाव पडयो छे एमां लीन थतां प्रगट थाय छे. तो मारो पण सर्वज्ञस्वभाव छे, बधाने जाणवा-देखवानो स्वभाव छे, पण परनुं कांई करवुं एवो व्यवहारे पण एनो भाव नथी एम जाणी भाई! अंतर्निमग्न थवुं ए एक ज कर्तव्य छे. आत्मा पोताना सिवाय शरीर, मन, वाणी कर्म, परजीवो वगेरे पर पदार्थोनुं कांई पण करी शकतो नथी एम जाणी निज स्वरूप जे सर्वज्ञस्वभाव तेमां लीन थईने रहेवुं ए एनुं वास्तविक कार्य छे. आवुं झीणुं पडे माणसने, पण शुं थाय? मारग तो आ छे बापु!
छहढालामां पंडित श्री दोलतरामजीए कह्युं ने के-
पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो.’
भगवान! एणे अनंतवार मुनिपणां लईने पंचमहाव्रत, पंचसमिति, गुप्ति वगेरे पाळ्यां; हजारो स्त्रीओ त्यागीने जंगलमां रह्यो ने शुक्ल लेश्याना परिणाम करीने नवमी ग्रैवेयक सुधी गयो. पण एमां शुं वळ्युं? अहा! राग ने परपदार्थोथी भिन्न पोतानी शुद्ध चैतन्यसत्तानुं भान कर्युं नहि तो शुं वळ्युं? कांई नहि. कह्युं ने के ‘सुख लेश न पायो’- अर्थात् दुःख ज पायो. हुं राग ने परथी भिन्न होवाथी रागनी ने परथी क्रिया करी शकतो नथी एम जाणी ज्ञाता-द्रष्टापणे प्रवर्तवुं ते एक ज कर्तव्य छे भाई! एना विना बीजी बधी बहारनी क्रिया तो दुःख ज दुःख छे.
अहाहा....! हुं अखंड एक शुद्ध चैतन्यमूर्ति चिदानंदघन प्रभु भगवान आत्मा छुं; हुं सर्वने जाणुं एवुं मारामां ज्ञान छे, पण हुं परनो कर्ता थाउं एवी मारामां कोई शक्ति नथी. हुं मारी निर्मळ पर्यायनो कर्ता थाउं एवी शक्ति मारामां छे, पण परनो कर्ता थाउं एवी कोई शक्ति मारामां नथी. जुओ, आ वस्तुनुं स्वरूप छे. मारामां निर्मळ पर्याय थाय ए पर्याय-परिणामनो विषय तो यथार्थ, सत्यार्थ छे. निर्मळ रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गनी पर्यायनुं कर्तव्य तो मारामां छे ए बराबर छे. केमके ए तो स्वभाव छे; पण परभावनुं कर्तापणुं मने नथी.
तेथी कहे छे-‘हुं परनो जाणवावाळो छुं’ ए भूलीने ‘हुं परनो करवावाळो छुं’- एवो जे अभिप्राय छे ते मिथ्या अभिप्राय छे. एक रजकणथी मांडीने बधीय चीजो, दुनियाना धंधा-वेपार, कुटुंबनुं भरण-पोषण, संस्थाओनो वहिवट, राज्यनो वहिवट, शरीरादिनी क्रिया इत्यादि हुं करुं छुं -ए बधाय परिणामनो विषय नथी, केमके ए परिणाम परमां कांई करी शकता नथी. आ तो बधा दाखला कीधा. संक्षेपमां
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सिद्धांत आ छे के -स्वद्रव्य परद्रव्यनुं कांई पण करवा शक्तिमान नथी अने छतां करी शके छे एम मानवुं ते मिथ्या मान्यता होवाथी मिथ्यात्व छे, महा अनर्थनुं कारण छे.
परनुं कर्तापणुं तो दूर रहो, ‘हुं परनो जाणनार-देखनार छुं’ ए पण व्यवहार छे. निश्चयथी तो हुं पोतानो (-आत्मानो) जाणनार-देखनार छुं-ए परिणाम सार्थक छे. समजाणुं कांई....? आवी वात छे! गाथा २६६ पूरी थई.
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कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारीति चेत्–
अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि। मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करेसि तुमं।। २६७।।
मुच्यन्ते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वम्।। २६७।।
हवे पूछे छे के अध्यवसान पोतानी अर्थक्रिया करनारुं कई रीते नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-
ने मोक्षमार्गे स्थित जीवो मुकाय, तुं शुं करे भला? २६७.
गाथार्थः– हे भाई! [यदि हि] जो खरेखर [अध्यवसाननिमित्तं] अध्यवसानना निमित्ते [जीवाः] जीवो [कर्मणा बध्यन्ते] कर्मथी बंधाय छे [च] अने [मोक्षमार्गे स्थिताः] मोक्षमार्गमां स्थित [मुच्यन्ते] मुकाय छे, [तद्] तो [त्वम् किं करोषि] तुं शुं करे छे? (तारो तो बांधवा-छोडवानो अभिप्राय विफळ गयो.)
टीकाः– ‘हुं बंधावुं छुं, मुकावुं छुं’ एवुं जे अध्यवसान छे तेनी पोतानी अर्थक्रिया जीवोने बांधवा, मूकवा (-मूकत करवा, छोडवा) ते छे. परंतु जीव तो, आ अध्यवसायनो सद्भाव होवा छतां पण, पोताना सराग-वीतराग परिणामना अभावथी नथी बंधातो, नथी मुकातो; अने पोताना सराग-वीतराग परिणामना सद्भावथी, ते अध्यवसायनो अभाव होवा छतां पण, बंधाय छे, मुकाय छे. माटे परमां अकिंचित्कर होवाथी (अर्थात् कांई नहि करी शकतुं होवाथी) आ अध्यवसान पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नथी; अने तेथी मिथ्या ज छे. -आवो भाव (आशय) छे.
भावार्थः– जे हेतु कांई पण न करे ते अकिंचित्कर कहेवाय छे. आ बांधवा- छोडवानुं अध्यवसान पण परमां कांई करतुं नथी; कारण के ते अध्यवसान न होय तोपण जीव पोताना सराग-वीतराग परिणामथी बंध-मोक्षने पामे छे, अने ते अध्यवसान होय तोपण पोताना सराग-वीतराग परिणामना अभावथी बंध-मोक्षने नथी पामतो. आ रीते अध्यवसान परमां अकिंचित्कर होवाथी स्व-अर्थक्रिया करनारुं नथी अने तेथी मिथ्या छे.
हवे आ अर्थना कळशरूपे अने आगळना कथननी सूचनिकारूपे श्लोक कहे छेः-
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तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत्।। १७१।।
श्लोकार्थः– [अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः] आ निष्फळ (निरर्थक) अध्यवसायथी मोहित थयो थको [आत्मा] आत्मा [तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति] पोताने सर्वरूप करे छे, -एवुं कांई पण नथी के जे-रूप पोताने न करतो होय.
भावार्थः– आ आत्मा मिथ्या अभिप्रायथी भूल्यो थको चतुर्गति-संसारमां जेटली अवस्थाओ छे, जेटला पदार्थो छे ते सर्वरूप पोताने थयेलो माने छे; पोताना शुद्ध स्वरूपने नथी ओळखतो. १७१.
हवे पूछे छे के अध्यवसान पोतानी अर्थक्रिया करनारुं कई रीते नथी? तेनो उत्तर कहे छेः-
‘हुं बंधावुं छुं, मूकावुं छुं-एवुं जे अध्यवसान छे तेनी पोतानी अर्थक्रिया जीवोने बांधवा, मूकवा ते छे.’
जुओ अहीं ‘बंधावुं, मूकावुं-’ एम बे बोल केम लीधा? केमके ते नवा आव्या छे. जीवन-मरण करुं ने दुःखी-सुखी करुं-ए बोलनी वात तो पहेलां आवी गई छे. आ बोल पहेलां नहोता आव्या तो तेनो अहीं खुलासो करे छे.
शुं कहे छे? के हुं बीजा प्राणीने कर्मबंधन करावुं छुं के एने कर्मबंधनथी छोडावुं छुं एवुं जे अध्यवसान छे तेनी अर्थक्रिया शुं? तो कहे छे-बीजा जीवोने बांधवा के मूकवा ते एनी अर्थक्रिया छे. हवे कहे छे-
‘परंतु जीव तो, आ अध्यवसायनो सद्भाव होवा छतां पण, पोताना सराग- वीतराग परिणामना अभावथी नथी बंधातो नथी मूकातो; अने पोताना सराग-वीतराग परिणामना सद्भावथी, ते अध्यवसायनो अभाव होवा छतां पण, बंधाय छे मूकाय छे.’
अहाहा...! जोयुं? कहे छे के-बीजाने हुं बंधावुं छुं अर्थात् पापमां नाखुं छुं अने बीजाने छोडावुं छुं अर्थात् मुक्त करावुं छुं एवो तारो अध्यवसाय-परिणाम होवा छतां पर जीवो तो पोताने सराग परिणाम न होय तो बंधाता नथी अने पोताने वीतराग परिणाम न होय तो मूकाता नथी. आ वस्तुस्थिति छे त्यां
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तारा परिणाम शुं करी शके? ए प्राणी तो पोताना रागना परिणाम विना बंधाशे नहि अने वीतरागताना परिणाम विना मूकाशे नहि.
वळी जो कदीक बीजा जीवने बंधावाना के मूकावाना तारा परिणाम न होय तो पण ते बीजो जीव पोताना सराग परिणामथी बंधाशे अने वीतराग परिणामथी मूकाशे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे त्यां तारुं शुं कर्तव्य छे? भाई! आ समज्या विना ज दुनिया आखी संसारमां अनंतकाळथी रखडी मरे छे.
भगवान! तुं अनादिथी दुःखी ज दुःखी छे. मोटो पैसावाळो धनपति थयो त्यारे पण, हुं पैसावाळो छुं, हुं संपत्तिनी बराबर व्यवस्था करी शकुं छुं, हुं पैसा दानमां आपी शकुं छुं अने धन वडे बीजाने (-गरीबोने) सुख पहोंचाडी शकुं छुं-एवी मिथ्या मान्यता वडे मिथ्याद्रष्टि थईने दुःखी ज रह्यो छे. भाई! तने मिथ्यादर्शन शुं चीज छे एनी खबर नथी पण एना गर्भमां अनंतकाळनां परिभ्रमणनां पारावार दुःख रह्यां छे.
अहाहा....! हुं बीजाने दुःखी-सुखी करुं छुं, बंधावुं-मूकावुं छुं एम जे माने छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे अने ते चारगतिमां अनंतकाळ रखडी खाय छे.
जुओ, पहेलां कह्युं के -तारा परिणाम होय के हुं परने बंधावुं-मूकावुं तो पण पर जीव तो एना सराग-वीतराग परिणामना अभावथी बंधातो नथी के मूकातो नथी. वळी कह्युं के तारा परने बंधावा-मूकावाना अध्यवसाय न होय तोपण पर जीवो तो पोताना सराग-वीतराग परिणामथी बंधाय छे के मूकाय छे. आमां खूबी जोई? एम के-तारा अध्यवसाय होय के न होय, पर जीवो तो पोताना मिथ्यात्वना भावने कारणे बंधाय छे अने वीतरागभावने कारणे मूकाय छे. एटले के तारुं अध्यवसान तो पर जीवोने बंधावा-मूकावामां फोगट व्यर्थ छे.
अहा! आचार्यदेवे आमां गजबनी खूबी नाखी छे. तारा पर जीवोने बंधावा- मूकावाना अध्यवसाय न होय तोय पर जीवो तो पोताना सराग-वीतराग परिणामने कारणे बंधाय-मूकाय छे, अने तने पर जीवोने बंधावा-मूकावाना परिणाम होय तोपण पर जीवो तो पोताना सराग-वीतराग परिणामना अभावथी बंधाता-मूकाता नथी. माटे तारा अध्यवसाय परमां कांई करतां नथी. ल्यो, आवी वात छे! हवे ए ज कहे छे के-
‘माटे परमां अकिंचित्कर होवाथी आ अध्यवसान पोतानी अर्थक्रिया करनारुं नथी; अने तेथी मिथ्या ज छे-आवो भाव (-आशय) छे.’
अहो! अद्भूत अलौकिक वात छे भाई! आ. अत्यारे तो पंडितोमां मोटी चर्चा
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ने विवाद चाले छे के-परनुं करी शके छे; तथा केटलाक लोको पण माने छे के (-जीव) परनुं करी शके छे.
अरे भाई! जो तो खरो भगवान! के अहीं शुं कहे छे आ? कहे छे-तारुं अध्यवसान परमां तद्दन अकिंचित्कर छे, अर्थात् परमां कांईपण करी शकतुं नथी. जेम तारा सुख-दुःखना परिणाममां विषयो अकिंचित्कर छे. (जुओ, प्रवचनसार गाथा ६७), विषयो तारा सुख-दुःखना परिणामना कर्ता नथी तेम तारुं अध्यवसान परमां कांई करतुं नथी अर्थात् परद्रव्यनी क्रिया करवामां-नीपजाववामां अकिंचित्कर छे.
अहाहा...! त्रणलोकना नाथ भगवान जिनेन्द्रदेव धर्मसभामां गणधरो ने इन्द्रोनी समक्ष ओम्ध्वनिमां आ वात कहेता हता अने संतो ए वात अहीं कहे छे. जुओ, अत्यारे महाविदेहमां सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ भगवान सीमंधर प्रभु बिराजे छे. त्यां २००० वर्ष पर प्रचुर आनंदमां झूलनारा, ज्ञानी, ध्यानी, महापवित्र दिगंबर संत महा मुनिवर भगवान कुंदकुंदाचार्य सं. ४९ मां भगवान पासे सदेहे गया हता अने आठ दि’ त्यां रह्या हता. त्यांथी आवीने आ समयसार, प्रवचनसार आदि शास्त्र बनाव्यां छे. तेओ कहे छे-भगवाननो आ संदेशो छे के आत्मा परद्रव्यमां कांईपण करवा अकिंचित्कर छे. अहाहा....! पर जीवोनी दया पाळवामां आत्मा अकिंचित्कर छे, अने पर जीवोने मारवामां पण आत्मा अकिंचित्कर छे. आत्मा परनी दया पाळी शकतो नथी अने पर जीवोने मारी शकतो नथी. भाई! आ तो वस्तुस्थितिनी मर्यादा छे के परद्रव्यनी कोई क्रिया आत्मा करी शकतो नथी.
पण परद्रव्यनी क्रिया थाय एमां ए निमित्त तो छे ने?
निमित्त छे एनी कोण ना पाडे छे? पण निमित्त परमां कांई करतुं नथी, परनी क्रियामां अकिंचित्कर छे एम वात छे. निमित्त परमां कांईक करे छे एम जो मानो तो निमित्त ज ना रहे. अहा! मूळ वातमां फेर होय त्यां शुं थाय?
अरे! अनादिथी जीव महा अनर्थनुं कारण एवा मिथ्यात्वने लईने संसारमां रखडे छे. दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि एणे अनंतवार कर्यां; अने भगवानना समोसरणमां पण अनंतवार गयो, छतां भवभ्रमण ना मटयुं. केम? के मिथ्यात्व ऊभुं हतुं. अहा! ते मिथ्यात्व शुं छे ते अहीं बतावे छे. अहा! परद्रव्यनी क्रिया (दया, दान वगेरे) हुं करी शकुं छुं एवो जे भाव ते, परमां अकिंचित्कर होवा छतां, आने अनंतकाळमां सेव्या ज कर्यो छे; ते मिथ्यात्वभाव छे, अनंत संसारनुं मूळ छे.
जयपुरमां ‘खाणिया चर्चा’ थई एमां मोटी चर्चा थई के सोनगढवाळा,
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निमित्त परमां कांई करतुं नथी एम माने छे माटे तेओ निमित्तने मानता नथी. तो कहीए छीए-
निमित्त होय छे खरुं, पण ए परमां अकिंचित्कर छे. अर्थात् परमां कांई करतुं नथी. कोई पंडिते ठीक ज लख्युं छे के-सोनगढवाळा निमित्तने मानता नथी एम नथी, पण निमित्त परमां कांई करतुं नथी एम माने छे.
भाई! आ शरीर हाले छे, वाणी थाय छे तो एमां आत्मा निमित्त छे, पण आत्मा शरीरने हलावे छे, तेम ज वाणी बोले छे एम नथी. आत्मा शरीरने हलावी शकतो नथी, वाणी बोली शकतो नथी. तेवी रीते पर जीवनी रक्षा एना कारणे थाय तेमां बीजो जीव निमित्त होय पण ते एनी रक्षा करी दे छे एम नथी. भाई! निमित्त अकिंचित्कर छे, ते परमां कांई करी शकतुं नथी. भगवान आत्मा परद्रव्यनी क्रिया करवामां अकिंचित्कर छे.
आ वेपारीओ बधा मोटो वेपार करे छे ने चोपडा लखे छे ने? तेमां लखे छे ने के-बाहुबलीनुं बळ हजो, अभयकुमारनी बुद्धि हजो वगेरे वगेरे. अहीं कहे छे-भाई! ए वेपार हुं करुं छुं ने चोपडा हुं लखुं छुं एवी तारी जे बुद्धि छे ते विपरीत बुद्धि छे; केमके वेपारनी-पैसानी लेवड-देवडनी क्रिया तुं करी शकतो नथी. ए क्रिया तो जड परमाणुनी छे अने तेमां तुं निमित्त भले हो, पण तुं ए क्रिया करे छे-करी शके छे एम छे ज नहि. निमित्त परनुं कांई करे छे एम त्रणकाळमां नथी.
श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां आवे छे के ज्ञानी-धर्मात्मा-समकितीने, पर जीवोने मारवा-बचाववाना परिणाम आवे, एवा विकल्प थाय, पण पर जीवोने हुं मारी-बचावी शकुं छुं एम ते मानता नथी. अरे ते ए विकल्पनाय स्वामी थता नथी त्यां परनी क्रियाना स्वामी केम थाय? ए तो पर जीव मर्या के बच्या तेमां हुं निमित्तमात्र छुं, निमित्तकर्ता नहि हों, -एम जाणे छे. अज्ञानीने तो हुं करुं छुं, परनी क्रियानो हुं करनारो छुं-एम कर्ताबुद्धि छे, ज्यारे ज्ञानी तो पोताने थयेला विकल्पना अने ते काळे तेना निमित्ते थयेली परनी क्रियाना ज्ञाता ज छे; कर्ता नहि, निमित्तकर्ताय नहि. ल्यो, आवो निमित्तकर्ता अने निमित्तमात्रमां मोटो फेर छे. समजाणुं कांई....?
अरे! लोकोने पोतानो कांई विचार नथी के हुं कोण छुं? क्यां ऊभो छुं? ने मारुं शुं थशे? एमणे तो बस रळवुं-कमावुं, बायडी-छोकरांने पाळवां-पोषवां ने विषयभोग भोगववा ईत्यादिमां पोतानुं सर्वस्व मानी लीधुं छे. अहीं कहे छे- भाई! रळवा- कमावाना, बायडी-छोकरांने पाळवा-पोषवाना ने विषयभोगना भाव तुं