PDF/HTML Page 2601 of 4199
single page version
बंधनुं कारण छे. बापु! शरीरनी क्रिया तो एना कारणे विषयसेवनरूप नहोती थवानी ते न थई, एमां तुं माने के में ए क्रिया करी, विषय सेव्यो नहि तो ते परना कर्तापणानुं तारुं मिथ्या अभिमान छे, समजाणुं कांई?
प्रश्नः– तो पछी अमारे क्यां ऊभवुं? दया पाळवी के नहि? ब्रह्मचर्य पाळवुं के नहि?
उत्तरः– भाई! तुं जेमां छो त्यां ऊभो रहे ने? ज्यां नथी त्यां ऊभवानी चेष्टा क्यां करे छे? अहाहा....! अनंत अनंत ज्ञान ने आनंदनो सागर प्रभु तुं; एवा स्व- स्वरूपने छोडीने क्यां ऊभवुं छे प्रभु! तुं जेमां ऊभवानुं माने छे ए तो राग छे. शुं सत् नाम सच्चिदानंदमय पोताना भगवानने छोडीने दुर्जन, दुष्ट, घातक एवा रागमां ऊभवुं ठीक छे? बापु! तुं शुं करे छे आ? (परमांथी ने रागमांथी पाछो वळ, स्वरूपमां ऊभो रहे).
तेम अपरिग्रहमां-आ लक्ष्मी आदि हुं दानमां दउं ईत्यादि जे अध्यवसाय छे ते पण पुण्यबंधनुं कारण छे. कोई तो वळी दान आपे ने नामनी तकती चोडावे. अरे भाई! दानमां राग (लोभ) मंद कर्यो होय तो पुण्यबंध थाय पण तेमां नामनी तकती चोडाववानो भाव पापभाव छे अने ‘हुं दान आपुं छुं’ - एवो अहंकारयुक्त अध्यवसाय मिथ्यात्व छे. पैसा कयां एना छे ते आपे? लक्ष्मी तो जड छे. ने शुं जडनो स्वामी चेतन थाय? जेम भेंसनो स्वामी पाडो (एनी जातनो) होय तेम लक्ष्मी आदि जडनो स्वामी जड पुद्गल ज होय
अहा! जेम आत्मा जगतनी चीज छे तेम परमाणु-जड पण जगतनी बीजी चीज छे. हवे आत्मा पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायनो-स्वनो स्वामी थाय के जड रजकणोनो- धूळनो स्वामी थाय? अहाहा...! पोताना द्रव्य-गुण ने निर्मळ पर्याय ते आत्मानुं स्व छे ने तेनो ए स्वामी छे, पण परनो-बीजी चीजनो कदीय स्वामी नथी.
पण आ बायडी- छोकरां तो मारां खरां के नहि?
अरे! त्रणकाळमां ए तारां नथी, जगतनी बीजी चीज त्रणकाळमां तारी नथी, तारी न थाय, बापु! तुं ए बीजी जुदी चीजनो स्वामी छुं एम माने ते तारो मिथ्या अभिप्राय छे अने ते तने अनंतानंत संसारनुं कारण छे. भाई! बीजी चीजने पोतानी करवामां (थाय नहि हों) तें तारा अनंता ज्ञाता-द्रष्टास्वभावनो अनादर कर्यो छे. हुं लक्ष्मी दई शकुं छुं ने लई शकुं छुं एवी मान्यतामां प्रभु! तें तारा अनंत स्वभावनो घात कर्यो छे.
PDF/HTML Page 2602 of 4199
single page version
मोक्षमार्ग प्रकाशकना चोथा अधिकारमां आवे छे के- ‘मिथ्यादर्शन वडे आ जीव कोई वेळा बाह्य सामग्रीनो संयोग थतां तेने पण पोतानी माने छे. पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोडा, मंदिर अने नोकर-चाकर आदि जे पोतानाथी प्रत्यक्ष भिन्न छे, सदाकाळ पोताने आधीन नथी-एम पोताने जणाय तोपण तेमां ममकार करे छे.’ जुओ, प्रत्यक्ष भिन्न चीजमां ममकार, अहंकार करवो ए मिथ्यादर्शन छे.
अहीं अपरिग्रहमां धनादिनुं दान करवानो भाव शुभभाव छे, अने त्यां धनादिनी जवानी क्रिया जे थाय छे ते तो परनी क्रिया छे छतां तेने हुं करुं छुं ने तत्संबंधी जे शुभभाव छे ते पण मारुं कर्तव्य छे एम जे अहंकार ने ममकार करे छे ते पुण्यबंधनुं कारण छे.
पं. श्री टोडरमलजीए मोक्षमार्गप्रकाशकमां शास्त्रोनां गंभीर रहस्यो खोल्यां छे, बहु खुलासा कर्या छे. कोईने ते सारा न लागे एटले ‘अध्यात्मनी भांग पीने नाच्या छे’ एम कहे, पण बापु! ए अत्यारे हालशे, पण अंदर तने नुकशान थशे. मिथ्या मान्यतानां ने असत्य सेवननां फळ बहु आकरां छे भाई! मिथ्यात्वना गर्भमां नर्क- निगोदनां अति तीव्र दुःखो पडेलां छे; केमके मिथ्यात्व ज आस्रव अने बंधनुं कारण छे. मिथ्या अध्यवसाय एक ज अनंत संसारनुं कारण छे एम अहीं मुख्यपणे वात छे. ए ज कहे छे-
‘आ रीते पांच पापोमां (अव्रतोमां) अध्यवसाय करवामां आवे छे ते पापबंधनुं कारण छे अने पांच (एकदेश के सर्वदेश) व्रतोमां अध्यवसाय करवामां आवे छे ते पुण्यबंधनुं कारण छे. पाप अने पुण्य बंनेना बंधनमां अध्यवसाय ज एकमात्र बंध- कारण छे.’
अहीं एकदेश एटले श्रावकने पांच अणुव्रतोमां अने सर्वदेश एटले मुनिने पांच महाव्रतोमां जे अध्यवसाय करवामां आवे छे के-ए रागनी ने परनी क्रिया मारी छे ते ज पुण्यबंधनुं कारण छे. अहीं एकत्वबुद्धिनी वात लेवी छे ने? एटले पाप अने पुण्य बन्नेमां बंधनमां एकत्वबुद्धि-अध्यवसाय ज एकमात्र बंधनुं कारण छे.
PDF/HTML Page 2603 of 4199
single page version
न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बन्धहेतुरिति शङ्कयम्–
ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि।। २६५।।
न च वस्तुतस्तु बन्धोऽध्यवसानेन बन्धोऽस्ति।। २६५।।
वळी ‘बाह्यवस्तु ते बीजुं पण बंधनुं कारण हशे’ एवी शंका न करवी. (‘अध्यवसाय ते बंधनुं एक कारण हशे अने बाह्यवस्तु ते बंधनुं बीजुं कारण हशे’ एवी पण शंका करवी योग्य नथी; अध्यवसाय ज एकनुं एक बंधनुं कारण छे, बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी.) आवा अर्थनी गाथा हवे कहे छेः-
पण वस्तुथी नथी बंध, अध्यवसानमात्रथी बंध थाय छे. २६प.
गाथार्थः– [पुनः] वळी, [जीवानाम्] जीवोने [यत्] जे [अध्यवसानं तु] अध्यवसान [भवति] थाय छे ते [वस्तु] वस्तुने [प्रतीत्य] अवलंबीने थाय छे [च तु] तोपण [वस्तुतः] वस्तुथी [न बन्धः] बंध नथी, [अध्यवसानेन] अध्यवसानथी ज [बन्धः अस्ति] बंध छे.
टीकाः– अध्यवसान ज बंधनुं कारण छे; बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी, केम के बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेना कारणपणाथी ज बाह्यवस्तुने चरितार्थपणुं छे (अर्थात् बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेनुं कारण थवामां ज बाह्यवस्तुनुं कार्य क्षेत्र पूरुं थाय छे, ते कांई बंधनुं कारण थती नथी). अहीं प्रश्न थाय छे के-जो बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी तो (‘बाह्यवस्तुनो प्रसंग न करो, त्याग करो’ एम) बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध (निषेध) शा माटे करवामां आवे छे? तेनुं समाधानः– अध्यवसानना प्रतिषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध करवामां आवे छे. अध्यवसानने बाह्यवस्तु आश्रयभूत छे; बाह्यवस्तुनो आश्रय कर्या विना अध्यवसान पोताना स्वरूपने पामतुं नथी अर्थात् ऊपजतुं नथी. जो बाह्यवस्तुनो आश्रय कर्या विना पण अध्य वसान ऊपजतुं होय तो, जेम आश्रयभूत एवा *वीरजननीना पुत्रना सद्भावमां (कोईने) एवो _______________________________________________________________ * वीरजननी = शूरवीरने जन्म आपनारी; शूरवीरनी माता.
PDF/HTML Page 2604 of 4199
single page version
अध्यवसाय ऊपजे छे के ‘हुं वीरजननीना पुत्रने हणुं छुं’ तेम आश्रयभूत एवा वंध्यापुत्रना असद्भावमां पण (कोईने) एवो अध्यवसाय ऊपजे (-ऊपजवो जोईए) के ‘हुं वंध्यापुत्रने (वांझणीना पुत्रने) हणुं छुं’. परंतु एवो अध्यवसाय तो (कोईने) ऊपजतो नथी. (ज्यां वंध्यानो पुत्र ज नथी त्यां मारवानो अध्यवसाय क्यांथी ऊपजे?) माटे एवो नियम छे के (बाह्यवस्तुरूप) आश्रय विना अध्यवसान होतुं नथी. अने तेथी ज अध्यवसानने आश्रयभूत एवी जे बाह्यवस्तु तेनो अत्यंत प्रतिषेध छे, केम के कारणना प्रतिषेधथी ज कार्यनो प्रतिषेध थाय छे. (बाह्यवस्तु अध्यवसाननुं कारण छे तेथी तेना प्रतिषेधथी अध्यवसाननो प्रतिषेध थाय छे). परंतु, जोके बाह्यवस्तु बंधना कारणनुं (अर्थात् अध्यवसाननुं) कारण छे तोपण ते (बाह्यवस्तु) बंधनुं कारण नथी; केम के ईर्यासमितिमां परिणमेला मुनींद्रना पग वडे हणाई जता एवा कोई झडपथी आवी पडता काळप्रेरित ऊडता जीवडानी माफक, बाह्यवस्तु-के जे बंधना कारणनुं कारण छे ते-बंधनुं कारण नहि थती होवाथी, बाह्यवस्तुने बंधनुं कारणपणुं मानवामां अनैकांतिक हेत्वाभासपणुं छे-व्यभिचार आवे छे. (आम निश्चयथी बाह्यवस्तुने बंधनुं कारणपणुं निर्बाध रीते सिद्ध थतुं नथी.) माटे बाह्यवस्तु के जे जीवने अतद्भावरूप छे ते बंधनुं कारण नथी; अध्यवसान के जे जीवने तद्भावरूप छे ते ज बंधनुं कारण छे.
भावार्थः– बंधनुं कारण निश्चयथी अध्यवसान ज छे; अने जे बाह्यवस्तुओ छे ते अध्यवसाननुं आलंबन छे-तेमने आलंबीने अध्यवसान ऊपजे छे, तेथी तेमने अध्यवसाननुं कारण कहेवामां आवे छे. बाह्यवस्तु विना निराश्रयपणे अध्यवसान ऊपजतां नथी तेथी बाह्यवस्तुओनो त्याग कराववामां आवे छे. जो बंधनुं कारण बाह्यवस्तु कहेवामां आवे तो तेमां व्यभिचार आवे छे. (कारण होवा छतां कोई स्थळे कार्य देखाय अने कोई स्थळे कार्य न देखाय तेने व्यभिचार कहे छे अने एवा कारणने व्यभिचारी-अनैकांतिक-कारणाभास कहे छे.) कोई मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यत्नथी गमन करता होय तेमना पग तळे कोई ऊडतुं जीवडुं वेगथी आवी पडीने मरी गयुं तो तेनी हिंसा मुनिने लागती नथी. अहीं बाह्य द्रष्टिथी जोवामां आवे तो हिंसा थई, परंतु मुनिने हिंसानो अध्यवसाय नहि होवाथी तेमने बंध थतो नथी. जेम ते पग नीचे मरी जतुं जीवडुं मुनिने बंधनुं कारण नथी तेम अन्य बाह्यवस्तुओ विषे पण समजवुं. आ रीते बाह्यवस्तुने बंधनुं कारण मानवामां व्यभिचार आवतो होवाथी बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी एम सिद्ध थयुं. वळी बाह्यवस्तु विना निराश्रये अध्यवसान थतां नथी तेथी बाह्यवस्तुनो निषेध पण छे ज.
PDF/HTML Page 2605 of 4199
single page version
वळी ‘बाह्य वस्तु ते बीजुं पण बंधनुं कारण हशे’ एवी शंका न करवी.
कोईने एम थाय के-परमां एकपणानो जे अध्यवसाय ते बंधनुं कारण छे एम कह्युं, पण साथे बाह्य वस्तु जे एना संबंधमां छे ते पण बंधनुं कारण छे के नहि? तो कहे छे-बाह्यवस्तु ते बीजुं पण बंधनुं कारण हशे एवी शंका न करवी. अर्थात् अध्यवसाय ते बंधनुं एक कारण हशे अने बाह्य वस्तु ते बीजुं पण बंधनुं कारण हशे एम शंका करवी योग्य नथी. अध्यवसाय ज एकमात्र बंधनुं कारण छे. शुं कीधुं? के-में हिंसा करी, में दया पाळी, में चोरी करी, में चोरी ना करी, में ब्रह्मचर्य पाळ्युं, में ब्रह्मचर्य ना पाळ्युं-ईत्यादि जे पर साथेना एकपणानो अध्यवसाय छे ते एक ज बंधनुं कारण छे, पण शरीरादि जे बाह्यवस्तुमां क्रिया थाय ते बंधनुं कारण नथी. झीणी वात छे भाई! अनंतकाळमां एने आ सांभळवा मळ्युं नथी. अहीं कहे छे-
बंधनुं कारण जे (एकत्वबुद्धिनो) अध्यवसाय तेने आश्रय बाह्यवस्तुनो छे, पण ते बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी. बाह्यवस्तु अध्यवसायनुं निमित्त छे, पण ते कांई बंधनुं कारण नथी; बंधनुं कारण तो एक अध्यवसाय ज छे.
आवा अर्थनी हवे गाथा कहे छेः-
‘अध्यवसान ज बंधनुं कारण छे; बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी, केमके बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेना कारणपणाथी ज बाह्यवस्तुने चरितार्थपणुं छे.’
जुओ, शुं कह्युं? बाह्यवस्तु अध्यवसाननो आश्रय छे, जे अध्यवसाय विभावना परिणाम थया तेनुं निमित्त बाह्यवस्तु छे, तथापि ते बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी. आ शरीर, ईन्द्रिय, वाणी, धन, लक्ष्मी, स्त्री-परिवार आदि परवस्तु-बाह्यवस्तु छे; तेना आश्रये निमित्ते आने जे ममतानो भाव-अध्यवसान थाय ते ज बंधनुं कारण छे, पण ए बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी, शरीरादिनी क्रिया बंधनुं कारण नथी. गजब वात छे प्रभु!
शुं कहे छे? के आ शरीर, धन, लक्ष्मी ईत्यादि ‘आ बधुं मारुं छे’ एवी जे ममताबुद्धिनो भाव छे ते ज बंधनुं कारण छे, धनादि बाह्य वस्तु नहि. नहितर तो जेने झाझी लक्ष्मी होय तेने ते झाझा-वधारे बंधनुं कारण थाय अने थोडी लक्ष्मी होय तेने ते थोडा बंधनुं कारण थाय. पण एम होतुं नथी. कोई दरिद्री होय पण
PDF/HTML Page 2606 of 4199
single page version
अंदर ममताथी खूब तृष्णावान होय तो तेने विशेष झाझो पापबंध थाय, अने कोई संपत्ति-वैभवशील होय पण अंदरमां ममतारहित होय तो तेने अति अल्प बंध थाय. जुओ, चक्रवर्ती सम्यग्द्रष्टि होय तेने छ खंडनी संपत्तिनो वैभव छे, पण तेने अल्प बंध छे, केमके तेने रागमां ने बाह्यवैभवमां क्यांय ममता नथी. राग नथी. आ प्रमाणे बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी, पण तेमां एकत्वनो अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे.
अहा! अध्यवसान ज बंधनुं कारण छे, बाह्यवस्तु नहि, केम? ‘केमके बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेना कारणपणाथी ज बाह्यवस्तुने चरितार्थपणुं छे.’ शुं कहे छे? के बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेनुं बाह्यवस्तु निमित्तकारण छे. बाह्यवस्तुनी चरितार्थता- सार्थकता बस आटली ज छे के ते बंधनुं कारण जे अध्यवसाय तेनुं ते काळे ते निमित्त थाय छे. अहाहा.....! अध्यवसायनुं बाह्य निमित्त थवामां ज बाह्यवस्तुनुं कार्यक्षेत्र पुरुं थाय छे, एथी विशेष कांई नहि. मतलब के बाह्यवस्तु अध्यवसायमां फकत निमित्त कारण छे, बस एटलुं ज; बाकी ए कांई बंधनुं कारण थती नथी.
भाई! आ शरीर, स्त्री-कुटुंब-परिवार, धन-लक्ष्मी ईत्यादि ए कोई बंधनुं कारण नथी; परंतु एमां जे एकत्वनो मोह-अध्यवसाय छे ते ज बंधनुं कारण छे अने ते स्त्री- कुटुंब, धन, आदि बाह्य पदार्थो तो ते अध्यवसायनुं निमित्तमात्र छे, बस. निमित्त हों, उपादान नहि. उपादान तो एमां पोतानुं पोतामां छे. अहाहा...! आ जे ईन्द्रने ईन्द्रासनो छे, अपार वैभव छे, करोडो अप्सराओ छे, असंख्य देवो छे ए बधां कांई एने बंधनुं कारण नथी एम कहे छे, केमके ए तो बाह्यवस्तु छे.
अध्यवसायमां बाह्यवस्तु निमित्त हो, पण निमित्त छे माटे अध्यवसाय थाय छे एम नथी. बाह्यवस्तु-निमित्त आने अध्यवसाय करावी दे छे एम नथी. बाह्यवस्तुनुं कार्यपणुं मात्र आटलुं ज छे के अध्यवसानमां ते अध्यवसान काळे तेने आश्रयभूत थाय छे, पण ते बाह्य पदार्थ छे ते कांई आनामां अध्यवसान करी दे छे एम नथी, तथा ते बंधनुं कारण थाय छे एमेय नथी भाई! आ तो वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो मारग छे. एनी एक एक वातमां न्याय भर्या छे. भाई! आ समजवुं पडशे हों.
अरे आ समज्या विना एणे अनंतकाळ मोटा दुःखना डुंगरा वेठया छे. अहा! माताना पेटमां ए चोवीस-चोवीस वर्ष रह्यो, एकवार बार वर्ष ने बीजीवार बार वर्ष; अहा! ऊंधे माथे लटकतो, आगळथी मों बंध, आंखो बंध, नाकनां नसकोरां बंध-एवी शरीरनी स्थितिए अंदर अत्यंत संकोचाईने दुःखभरी स्थितिमां ए रह्यो. अहा! ए दुःखनी शी वात! बापु! ए परमां एकत्वबुद्धिनो मोह ज्यां सुधी रहेशे त्यां सुधी बाह्य शरीरना संयोगो थया ज करशे, अहा! एने नरक-
PDF/HTML Page 2607 of 4199
single page version
निगोदनां शरीरो, रोगवाळां शरीरो मळ्या ज करशे अने फरी पाछो ए पोते संयोगमां एकपणुं पामीने ए दुःखी थया ज करशे.
भाई! अहीं आचार्यदेव ए दुःखनुं बंधननुं कारण समजावे छे. कहे छे- बंधनुं कारण शरीरादि बाह्यवस्तु नथी पण एना आश्रये आने उत्पन्न थतो एना एकपणानो मोह नाम अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे. भाई! अहीं आचार्यदेव जगतना पर पदार्थोथी भेदज्ञान करावे छे. एम के तारो भाव-अध्यवसाय जे छे ते तने नुकशानकर्ता छे, सामी चीज नहि. तारो अध्यवसाय काढी नाख, सामी चीज तो जगतमां जेम छे तेम छे, ते तने नुकशान करती नथी. (लाभेय करती नथी).
हिंसामां, शरीरनुं बळी जवुं, शरीरादि प्राणनुं विखराई जवुं ईत्यादि बाह्य क्रिया आना (-जीवना) परिणाममां निमित्त छे; त्यां ए परिणाम बंधनुं कारण छे, पण ए शरीरनी क्रिया बंधनुं कारण नथी. तेम शरीरथी विषयनी क्रिया थाय ए क्रिया बंधनुं कारण नथी, पण हुं शरीरथी विषय सेवन करुं एवो आने जे अध्यवसाय छे ते ज बंधनुं कारण छे. ए अध्यवसायने शरीरनी क्रिया आश्रयभूत-निमित्तभूत छे, पण ए शरीरनी क्रिया बंधनुं कारण नथी. शरीर तो जड परवस्तु छे. ए जडनी क्रिया आने बंधननुं कारण केम थाय? न थाय, तेम ‘हुं जूठुं बोलुं’ एवो जे असत्यमां अध्यवसाय छे ते ज पापबंधनुं कारण छे. जूठुं बोलवाना अध्यवसायने भाषावर्गणाना निमित्त हो, पण एनाथी पापबंध नथी. अहीं तो आ सिद्धांत छे के-आ हुं (परनुं) करुं छुं, अने ‘एमां मने मझा छे’ ईत्यादि जे मिथ्याभाव छे ए ज बंधनुं कारण थाय छे, बाह्यवस्तु के बाह्यवस्तुनी क्रिया नहि.
अहाहा....! आत्मा अनंतगुणनो पिंड प्रभु ज्ञानानंदनो दरियो सदा स्वाधीन छे. पण अज्ञानीए अनादिथी एने भ्रांतिवश पराधीन मान्यो छे. एणे शरीर, ईन्द्रिय, वाणी, स्त्री-पुत्र, लक्ष्मी ईत्यादि वडे पोतानुं सुख मान्युं छे. ते कहे छे- मने शरीर विना चाले नहि, ईन्द्रियो विना चाले नहिं, स्त्री विना चाले नहि, पैसा-लक्ष्मी विना चाले नहि. अरे भाई! आवो पराधीन भाव ज तने बंधननुं कारण छे, केमके ए पराधीन भाव ज तारी स्वाधीनताने हणे छे, प्रगट थवा देतो नथी. बाह्य पदार्थो तो जेम छे तेम छे, तारी पराधीनताने खंखेरी नाख.
जुओ, अध्यवसानने आश्रयभूत-निमित्तभूत बाह्यवस्तु-स्त्री-पुत्र, तन, धन- ईत्यादि छे खरी, पण ए कांई बंधनुं कारण नथी. बाह्यवस्तुना कार्यक्षेत्रनी मर्यादा बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेने निमित्त होवा पूरती ज छे. मारवा जिवाडवा आदिना अध्यवसायमां बाह्यवस्तु निमित्त छे बस एटलुं ज एनुं कार्यक्षेत्र छे, पण बंधना कार्यमां ए निमित्तरूप कारण पण नथी, अहीं तो आ चोकखी वात उपाडी
PDF/HTML Page 2608 of 4199
single page version
छे के-बाह्यवस्तु अध्यवसानने निमित्त छे, पण ए परवस्तु बंधनुं कारण नथी. कोईए माठा परिणाम कर्या के शुभ परिणाम कर्या, त्यां ए परिणाम एने बंधनुं कारण छे, पण ए परिणाम जेना आश्रये-निमित्ते थया ते बाह्य चीज बंधनुं कारण नथी. ते बाह्य चीजनुं कार्यक्षेत्र ए अध्यवसायने-परिणामने निमित्त होवामां ज पुरुं थई जाय छे. आवी वात छे!
हवे कहे छे-‘अहीं प्रश्न थाय छे के-जो बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी तो (बाह्यवस्तुनो प्रसंग न करो; त्याग करो-एम) बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध (निषेध) शा माटे करवामां आवे छे?
अहाहा....! शिष्य पूछे छे के-जो अध्यवसाय एक ज बंधनुं कारण छे अने बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी, आ शरीरनी क्रिया, स्त्री-कुटुंब परिवार, धनादि सामग्री बंधनुं कारण नथी तो स्त्री-पुत्र परिवार छोडो, घर छोडो, धनादि छोडो एम उपदेश करवामां आवे छे तेनुं शुं कारण छे?
स्त्रीनो संग न करो, व्यभिचारी पुरुषोनो प्रसंग न करो, कंदमूळनुं सेवन न करो, रात्रिभोजन न करो ईत्यादि परवस्तुनो आप निषेध करो छो अने वळी परवस्तु बंधनुं कारण नथी एम पण कहो छो तो ए परवस्तुनो निषेध भगवान! आप शा कारणथी करो छो?
‘तेनुं समाधानः अध्यवसानना प्रतिषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध करवामां आवे छे.’
शुं कीधुं? के पर जीवोने मारुं-जिवाडुं, परनी साथे व्यभिचार करुं ईत्यादि एवो जे अध्यवसाय-एकत्वपणानो मोह छे तेनो निषेध करवा माटे बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध करवामां आवे छे. अहा! अंदर अभिप्रायमां जे विपरीत भाव छे एना निषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो निषेध कराव्यो छे. अहाहा....! कोईने बहारमां परिग्रहना ढगला होय, हीरा, माणेक, मोती, जवाहरात, स्त्री-पुत्र, राजसंपत्ति ईत्यादि ढगलाबंध होय; त्यां ए बाह्य चीजो बंधनुं कारण नथी ए तो सत्य ज छे, पण एमना तरफना आश्रयवाळो ममतानो जे विपरीत अभिप्राय छे ते बंधनुं ज कारण छे तेथी ते मोहयुक्त विपरीतभावना निषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो निषेध कहेवामां आव्यो छे. अहा! अहीं कहे छे-अमे जे बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध करीए छीए ए तो एना आश्रयभूत जे मिथ्याभाव छे, मिथ्या अध्यवसान छे तेनो निषेध करवा करीए छीए. समजाणुं कांई...?
‘अध्यवसानने बाह्यवस्तु आश्रयभूत छे; बाह्यवस्तुनो आश्रय कर्या विना अध्यवसान पोताना स्वरूपने पामतुं नथी अर्थात् उपजतुं नथी.’
PDF/HTML Page 2609 of 4199
single page version
जोयुं? जे कांई विभावना परिणाम थाय छे ए परिणामने बाह्यवस्तु निमित्त छे. ए (विभावना) परिणाम बाह्यवस्तुना (परद्रव्यना) आश्रये उत्पन्न थाय छे. अहाहा...! जेम सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्विकार निर्मळ धर्मना परिणाम स्वद्रव्यना आश्रये उत्पन्न थाय छे छतां ए स्वद्रव्य (त्रिकाळी चैतन्य महाप्रभु) छे ते मोक्षनुं कारण नथी, (केमके मोक्षनुं कारण तो शुद्ध रत्नत्रयना परिणाम छे, हा, शुद्ध रत्नत्रयना परिणामने, संवर-निर्जराना परिणामने आश्रय स्वद्रव्यनो छे ए खरुं) तेम हिंसा, जूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रहना अशुभ परिणाम वा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य ने अपरिग्रहना शुभ परिणाम परद्रव्यना आश्रये थाय छे छतां ए परद्रव्य छे ते बंधनुं कारण नथी; पण एमां जे पोतानो मिथ्या अध्यवसाय छे ते ज बंधनुं कारण छे. भाई! ए शुभाशुभ परिणाम सघळा परद्रव्यना आश्रये ज उत्पन्न थाय छे, तोपण ए परद्रव्य बंधनुं कारण नथी.
त्यारे ललचाई जवाय एवा स्थानोमां न जवुं, रूपाळी चीज होय तेनो प्रसंग न करवो जेथी त्यां खेंचाई जवाय एम उपदेशमां आवे छे ने?
तो कहे छे-त्यां खेंचाई जवानो भाव तो जीव पोते करे छे, एमां ए परचीज तो निमित्तमात्र छे; ए भाव कांई निमित्ते कराव्यो छे एम नथी. तेथी ए परचीजथी बंध नथी. तोपण परचीजनुं लक्ष छोडाववा पर चीज छोडो, परचीजनो प्रसंग न करो एम उपदेशमां आवे छे.
प्रवचनसारमां (ज्ञान अधिकार, गाथा ६७मां) आवे छे के-‘विषयो अकिंचित्कर छे.’ पांच ईन्द्रियना विषयो जीवने रागरूप विभावना परिणाम करावता नथी, पण जीव पोते ज विषयो प्रति रागादिरूप परिणमे छे. जीव पोते जे रागादि परिणाम करे एमां ए परचीजनुं आश्रयपणुं भले हो, पण ते परिणाम परचीजना कराव्या थाय छे एम नथी. अहा! ते रागादि परिणाम स्वद्रव्यना आश्रये थता नथी, पण परद्रव्यना आश्रये ज थाय छे. परंतु परद्रव्य बंधनुं कारण नथी छतां परद्रव्यनो आश्रय-लक्ष छोडाववा परद्रव्यथी प्रसंग न करो एम उपदेशमां आवे छे.
अहा! अध्यवसाय छोडाववा परने छोडावे छे, पण परने छोडाववा अध्यवसाय छोडावे छे एम नथी. परचीज तो छूटी ज छे, एने क्यां छोडवानी छे? परने छोडो एम कह्युं त्यां परना आश्रये थता अध्यवसायने छोडवानी वात छे. समजाणुं कांई...? भाई! आमां तो एनुं लक्ष जे पर उपर छे ते पलटीने लक्ष स्व उपर जाय बस आटली वात छे. ११ मी गाथामां भूदत्थमस्सिदो खलु...’ एम आवे छे ने? तेनो अर्थ पण ए छे के भूतार्थ नाम स्वद्रव्यना आश्रये-लक्षे जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे.
PDF/HTML Page 2610 of 4199
single page version
पण स्वद्रव्यनुं लक्ष न करे तो?
स्वद्रव्यनुं लक्ष न करे तो खलास; एने परद्रव्यना लक्षे विभावरूप मिथ्या अध्यवसाय ज थाय; अने एथी बंधन ज थाय. आवी सीधी वात छे.
अहाहा...! भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु अतीन्द्रिय आनंदनो कंद एकला आनंदनुं दळ छे. पोते एना पर लक्ष करे तो मोक्षना परिणाम थाय. छतां ए त्रिकाळी द्रव्य मोक्षना परिणाम करावतुं नथी. निश्चयथी मोक्षना परिणामनुं (त्रिकाळी ध्रुव) द्रव्य दाता नथी. अहाहा....! शुद्धरत्नत्रयरूप जे मोक्षनो मार्ग ते मोक्षमार्गनी पर्यायनुं लक्ष (त्रिकाळी) द्रव्य उपर छे, पण द्रव्य ए पर्यायनो दाता नथी. मोक्षमार्ग अने मोक्षनी पर्यायनो कर्ता द्रव्य नथी. तो कोण छे? ए पर्याय पोते ज पोतानो कर्ता छे.
प्रश्नः– पर्याय आवे छे तो द्रव्यमांथी ने?
उत्तरः– द्रव्यमांथी आवे छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे; बाकी पर्याय थाय छे ते पोते पोताना कारणथी (पोताना षट्कारकपणे) थाय छे. जो द्रव्यथी थाय तो एकसरखी पर्याय थवी जोईए, पण एम तो थतुं नथी माटे खरेखर पर्याय पर्यायथी पोताथी थाय छे. पर्यायमां थोडी शुद्धि, वधारे शुद्धि, एथीय वधारे शुद्धि एवी तारतम्यता आवे छे ते पर्यायना पोताना कारणे आवे छे. हा एटलुं छे के ए (-शुद्ध) पर्यायनो आश्रय स्वद्रव्य छे.
तेवी रीते हिंसा, जूठ, चोरी आदि तथा भक्ति, दया, दान, व्रत, पूजा आदि अशुभ के शुभभावमां पण जे मंदता-तीव्रतारूप तारतम्यता (विषमता) आवे छे ए पण पर्यायना पोताना कारणे आवे छे, परना कारणे नहि; पण ए भाव थवामां सामी परचीजनो आश्रय अवश्य होय छे. अध्यवसायने परवस्तुनो आश्रय नियमथी होय छे.
प्रश्नः– बाह्यवस्तु वर्तमान विद्यमान न होय तोपण परिणाम (-अध्यवसाय) तो थाय छे?
उत्तरः– भाई! परिणाम (-अध्यवसाय) थाय एने बाह्यवस्तुनो आश्रय तो अवश्य होय छे, पण ते बाह्यवस्तु वर्तमान विद्यमान ज होय के समीप ज होय एवो नियम नथी. श्री मोक्षमार्ग प्रकाशकमां (चोथा अधिकारमां) आवे छे के- ‘पापी जीवोने तीव्र मोह होवाथी बाह्य कारणो न होवा छतां पण तेमना संकल्प वडे ज रागद्वेष थाय छे.’ मतलब के भले बाह्यवस्तु तत्काल हाजर न होय, समीप न होय, तोपण मनमां तेनी कल्पना करीने विभावना परिणाम अज्ञानी करे छे. आ
PDF/HTML Page 2611 of 4199
single page version
प्रमाणे रागादि अध्यवसाय जे थाय तेने बाह्यवस्तुनो आश्रय होय ज छे. जो के बाह्यवस्तु ए अध्यवसाय उत्पन्न करी दे छे एम नहि, तोपण अज्ञानीने जे हिंसा- अहिंसादिना अध्यवसाय थाय छे ते बाह्यवस्तुना आश्रये ज थाय छे. (थाय छे पोताथी स्वतंत्र).
अहाहा...! आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप अंदर भगवान पोते छे. पण अज्ञानीने तेनुं लक्ष नथी. अज्ञानीनुं लक्ष बाह्यवस्तु पर छे. बाह्यवस्तुना लक्षे-आश्रये परिणमता तेने हिंसा-अहिंसादिना अध्यवसाय उत्पन्न थाय छे. अहीं कहे छे-ते अध्यवसाय ज एने बंधनुं कारण छे पण बाह्यवस्तु बंधनुं कारण नथी. ए परवस्तु बंधनुं कारण जे अध्यवसाय तेनुं कारण नाम निमित्त छे, पण ते बंधनुं कारण नथी. श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां एने परंपराकारण लख्युं छे; एनो अर्थ ज ए के ए साक्षात्-सीधुं कारण नथी, कारणनुं कारण-निमित्त छे. आवी यथार्थ वस्तुस्थिति जेम छे तेम अहीं सिद्ध करी छे. एमां गरबड चाले नहि. परिणामथी-अध्यवसायथीय बंध थाय ने बाह्यवस्तुथीय बंध थाय एम माने ते विपरीतद्रष्टि छे एम कहे छे.
‘अध्यवसानने बाह्यवस्तु आश्रयभूत छे; बाह्यवस्तुनो आश्रय कर्या विना अध्यवसान पोताना स्वरूपने पामतुं नथी अर्थात् उपजतुं नथी.’ ल्यो, आमां न्याय मूकयो छे. एम कहे छे के-जेम स्वना आश्रय विना निर्मळ निर्विकारी परिणाम कदीय त्रणकाळमां थाय नहि तेम परना-बाह्यवस्तुना आश्रय विना बंधना परिणाम थता नथी. आ न्याय छे भाई! आगळ बंध अधिकारमां (गाथा २३७-२४१ नी टीकामां) आवी गयुं ने के-‘माटे न्यायबळथी ज आ फलित थयुं के जे उपयोगमां रागादिकरण ते बंधनुं कारण छे.’ अहाहा...! वस्तु शुद्ध चैतन्यघन पवित्रतानो पिंड प्रभु त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यना उपयोगमय छे. तेमां क्षणिक विकृत दशाने-रागादिने जोडी बेने एक करी नाखवा ए बंधनुं कारण छे. अहीं पण आ ज सिद्ध करवुं छे.
हवे कहे छे-‘जो बाह्यवस्तुनो आश्रय कर्या विना पण अध्यवसान उपजतुं होय तो, जेम आश्रयभूत एवा वीरजननीना पुत्रना सद्भावमां (कोईने) एवो अध्यवसाय उपजे छे के-“हुं वीरजननीना पुत्रने हणुं छुं” तेम आश्रयभूत एवा वंध्यापुत्रना असद्भावमां पण (कोईने) एवो अध्यवसाय उपजे (-उपजवो जोईए) के “हुं वंध्यापुत्रने (वांझणीना पुत्रने) हणुं छुं. परंतु एवो अध्यवसाय तो (कोईने) उपजतो नथी.”
जुओ, अहीं द्रष्टांत आपीने सिद्धांत सिद्ध करे छे. शुं कहे छे? के जो आश्रय विना परिणाम थाय तो शूरवीर माताना शूरवीर पुत्रना आश्रये जेम अध्यवसाय उपजे छे के ‘हुं एने हणुं छुं’ तेम जेनुं कदी होवापणुं ज नथी एवा वंध्यापुत्रना आश्रये
PDF/HTML Page 2612 of 4199
single page version
पण ‘हुं वंध्यासुतने हणुं छुं’ एवो अध्यवसाय उपजवो जोईए. पण एवो अध्यवसाय संभवित ज नथी, केमके वंध्याने पुत्र ज न होय तो ‘हुं एने हणुं छुं’ एवो अध्यवसाय पण क्यांथी उपजे? न उपजे. जुओ, अहीं अध्यवसायने बाह्यवस्तुनो आश्रय सिद्ध करे छे. एम के ‘वीरजननीना पुत्रने हणुं छुं’ एवो अध्यवसाय तो थाय केमके वीरजननीना पुत्रनी हयाती छे; पण ‘हुं वंध्यापुत्रने हणुं छुं’ एवो अध्यवसाय उपजे? न उपजे, केमके वंध्यापुत्रनुं होवापणुं ज नथी त्यां एने हणवानो अध्यवसाय क्यांथी उपजे? (कोई रीते न उपजे). हवे सिद्धांत कहे छे के-
‘माटे एवो नियम छे के (बाह्यवस्तुरूप) आश्रय विना अध्यवसान होतुं नथी.’
आ अंदर आस्रव-बंधना जे परिणाम थाय छे ते परना आश्रय विना थता नथी एम कहे छे. शुं कह्युं? के बाह्यवस्तुनो आश्रय पाम्या विना मोह-राग-द्वेषरूप अध्यवसान उपजतुं नथी. झीणी वात भाई! ए बाह्यवस्तुनी हयाती छे एनाथी अध्यवसान थाय छे एम नहि, पण परवस्तुनो आश्रय पाम्या विना अध्यवसान उपजतुं नथी एम वात छे. (बेमां बहु फरक छे). हवे कहे छे-
‘अने तेथी ज अध्यवसानने आश्रयभूत एवी जे बाह्यवस्तु तेनो अत्यंत प्रतिषेध छे, केमके कारणना प्रतिषेधथी ज कार्यनो प्रतिषेध थाय छे.’
बाह्यवस्तु अध्यवसानने आश्रयभूत छे. तेथी अध्यवसाननो त्याग कराववा अर्थे बाह्यवस्तुनो त्याग कहेवामां आव्यो छे. आमांथी कोई लोको एम काढे छे के-जुओ, बाह्यनो त्याग करे त्यारे एना परिणाम सारा (निर्मळ) थाय; पण ए बराबर नथी, एम छे नहि. अहीं तो ‘बहारनी वस्तुनो त्याग करो’, ‘एनो प्रसंग करो’ एम कहीने तेना आश्रये उपजता अध्यवसाननो त्याग कराववो छे. अहा! एने परनो आश्रय छोडावीने स्वना आश्रयमां लई जवो छे. हवे कोई स्वनो आश्रय तो करे नहि अने बहारथी स्त्री-कुटुंब, घरबार, वस्त्र आदिनो त्याग करी दे तो ते शुं काम आवे? कांई ज नहि; केमके पराश्रय तो एने ऊभो ज छे, परना आश्रये जन्मता मिथ्या अध्यवसाय तो ऊभा ज छे.
अहा! जेम सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम स्वद्रव्यना आश्रये थाय तेम विकारना परिणाम परद्रव्यना आश्रये थाय छे. अहा! केवी सीधी स्पष्ट वात!
तोपण कोई लोको कहे छे-व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम स्वद्रव्यना आश्रये प्रगटे छे.
अरे प्रभु! तुं शुं कहे छे आ? व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम जे छे तेनो
PDF/HTML Page 2613 of 4199
single page version
आश्रय तो वीतरागी देव-गुरु-शास्त्र छे. ए तो परवस्तु छे अने तेना आश्रये थतो शुभभाव पुण्यबंधनुं कारण छे. देव-गुरु-शास्त्र पुण्यबंधनां कारण नथी पण तेना आश्रये थतो शुभभाव-व्यवहाररत्नत्रयना परिणाम-पुण्यबंधनुं कारण छे. ज्यारे निश्चयरत्नत्रयना-धर्मना परिणामने तो त्रिकाळी एक ज्ञायकवस्तुनो आश्रय होय छे. ११ मी गाथामां आव्युं ने के-
सम्यग्दर्शनमां तो भूतार्थ जे अखंड एक ज्ञायकभावमात्र वस्तु आत्मा ते एक ज आश्रय करवा योग्य छे. अहा! धर्मने त्रिकाळी एक सत्यार्थ चिदानंदघन प्रभु आत्मानो ज आश्रय होय छे. (व्यवहाररत्नत्रयनो नहि).
अहाहा.....! जेम मोक्षना परिणाम अखंड एक त्रिकाळी ध्रुव विज्ञानघन प्रभु आत्माना आश्रये थाय छे तेम बंधना-विकारना परिणाम-हिंसा जूठ आदिना ने दया, दान, भक्ति आदिना परिणाम-परद्रव्यना आश्रये थाय छे. आ भगवाननी भक्ति- पूजानो शुभभाव थाय तो तेने आश्रय भगवानना बिंबनो-जिनबिंबनो होय छे. त्यां जिनबिंब बंधनुं कारण नथी, बंधनुं कारण तो एनो शुभभाव छे. अहीं मिथ्यात्वसहितनी वात छे. जुओ, कोई दस-वीस लाख खर्चीने मंदिर बनावे अने एमां जिनबिंबनी प्रतिष्ठा करावे. हवे एमां मंदिर आदि बने ए तो परनी क्रिया छे अने एने जे शुभभाव थयो तेने ए मंदिरनो परचीजनो आश्रय छे, तोपण ए मंदिरना कारणे एने शुभभाव थयो छे एम नथी, तथा ए शुभभाव बाह्यवस्तु जे मंदिर एना आश्रय विना थयो छे एम पण नथी; वळी ए शुभभाव जेना आश्रये थया छे ए मंदिर एने पुण्यबंधनुं कारण नथी पण शुभभाव ज बंधनुं कारण छे.
अहा! आवो वीतरागनो मारग! समजवो कठण पडे, पण धीमे धीमे समजवो भाई! अहा! आवी यथार्थ समजण ज्यां नथी अर्थात् ज्यां जूठी-विपरीत समजण छे त्यां गमे तेटलां दया, दान, व्रत, भक्ति करे ए सर्व बंधनुं ज कारण छे; एमां धर्मनुं कोई कारण नथी. अहा! बंधना कारणरूप आने भाव छे, पण भावनो आश्रय (बाह्यवस्तु) ए बंधनुं कारण नथी. छतां ए भाव बाह्य आश्रय विना थता नथी. (परद्रव्यना) आश्रय विना परिणाम (विभाव) थता नथी माटे आश्रयभूत वस्तु बंधनुं कारण छे एम नथी; अने आश्रय विना परिणाम थता नथी माटे आश्रयभूत वस्तुथी परिणाम थाय छे एमेय नथी. अहो! आ तो त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ परमात्माए कहेला तत्त्वने सिद्ध करवानी कोई अलौकिक युक्ति-न्यायनो मार्ग छे!
धर्मीने स्वद्रव्यनो आश्रय वर्ते छे. तेनी मुख्यतामां किंचित् परद्रव्यना आश्रये थता परिणामने गौण करी दीधा छे. अहीं एकत्वबुद्धि लेवी छे ने? जेणे स्वद्रव्यमां
PDF/HTML Page 2614 of 4199
single page version
एकत्व करीने स्वद्रव्यना आश्रये (निर्मळ रत्नत्रयना) परिणाम प्रगट कर्या एने परद्रव्यना आश्रये परिणाम थता ज नथी अर्थात् ए परिणाम ज नथी एम कहे छे. अने आम जे ‘हुं परनुं करुं छुं’ एम परमां एकत्व करीने परिणमे छे तेने मोक्षमार्गना परिणाम नथी. ए तो द्रष्टांतथी सिद्ध कर्युं ने के आश्रयभूत वस्तु विना परिणाम थाय एम बनतुं नथी. (जेने स्वद्रव्यनो आश्रय छे तेने परद्रव्यनो आश्रय नथी तेथी तेने विभावना परिणाम थता नथी, अने जेने परद्रव्यनो आश्रय छे तेने स्वद्रव्यनो आश्रय नथी तेथी तेने मोक्षमार्गना परिणाम थता नथी). आश्रय विना परिणाम होई शके नहि; अहीं एकत्वबुद्धिना परिणामनी मुख्यताथी वात छे.
अहा! आवो वीतरागनो मारग! बिचाराने अभ्यास न मळे एटले अंधारे अथडाय. जुओने! दुनियाना लौकिक पापना अभ्यासमां केटकेटलो वखत गाळे? पच्चीस-पच्चीस वर्ष सुधी पापना लौकिक भणतर भणे अने एमां मरी जाय तो थई रह्युं. ल्यो, अमेरिकामां जईने भणे, नेवुं टका मार्के पास थाय, एने होंशे ने हरखनो पार न मळे. लोको त्यां एने सन्मान आपे. सवारे देशमां जवुं होय त्यां रात्रे सूई जाय ते सूई ज जाय, मरी जाय; बिचारो क्यांय कागडे-कूतरे जाय. जुओ आ लौकिक भण्या-गण्यानो सरवाळो! भाई! ए लौकिक भणतर संसारमां रझळवा सिवाय बीजा कांई खपमां न आवे.
ज्यारे आ (-तत्त्वनुं) भण्या-गण्यानो सरवाळो तो केवळज्ञान आवे. अहाहा.....! जेणे आ आत्माने भणीने गणतरीमां लीधो छे, ‘हुं नथी’ एम जे हतुं ते ‘हुं छुं’ एम जेणे अस्तिमां लीधो छे तेने गणतरीमां सरवाळे केवळज्ञान आवे छे. बीजा छ द्रव्योने जेम गणे छे तेम ‘हुं ए छये द्रव्योथी जुदो अनंत अनंत शान्तिनो सागर एक विज्ञानघनस्वभावपणे अंदर विराजमान छुं’ एवी अंतर-प्रतीति वडे पोताने गणे ते एने सरवाळे मोक्ष लावे छे. अहाहा....! स्वस्वरूपमां एकत्वना परिणाम एने मोक्षनुं कारण थाय छे. धर्मीने निश्चयथी तो एक स्वनी साथे ज एकत्वबुद्धिना परिणाम छे; पर साथे तेने एकत्व छे ज नहि. तेथी अमथा साधारण (अस्थिरताना) परिणाम होय तेने अहीं गौण करी दीधा छे. अहो! दिगंबर संतोए अपार करुणा करीने जगतना भव्य जीवोने शुं न्याल करी दीधा छे! अहो! शुं करुणा! ने शुं शास्त्र!!
कहे छे-‘माटे एवो नियम छे के बाह्यवस्तुना आश्रय विना अध्यवसाय होतुं नथी.’ जेम वंध्याने पुत्र नथी तो एने हणवानुं अध्यवसाय होतुं नथी तेम परना आश्रय विना कोईपण बंधना (-विकारी) परिणाम थता नथी. विकारी परिणामनो आश्रय पर छे अने निर्विकारी निर्मळ परिणामनो आश्रय स्व छे.
PDF/HTML Page 2615 of 4199
single page version
तेथी, विकारी परिणामना (-शुभभावना) आश्रये निर्विकारी (-शुद्ध) परिणाम थाय एम कदी बने नहि; तेमज निर्विकारी शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तुना आश्रये जे परिणाम थाय एमां विकारी परिणाम थाय एम बने नहि.
त्यारे कोई लोको कहे छे-मोक्षमार्ग छे ए बंधनुं कारण छे ने मोक्षनुं कारण पण छे अने बंधमार्ग छे ते बंधनुं कारण छे ने मोक्षनुं कारण पण छे-आवो अनेकान्त छे.
अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? बापु! तने वस्तुना स्वरूपनी खबर नथी. जेने स्वस्वरूप शुद्ध विज्ञानघनवस्तुमां एकत्व सहित स्वनो आश्रय छे तेने मोक्षमार्ग छे, पण तेने परमां एकत्वना परिणाम नथी तेथी बंध नथी; तथा जेने परना एकत्वपूर्वक पराश्रयना परिणाम छे तेने बंधमार्ग छे, पण तेने स्वना एकत्वना परिणाम नथी तेथी मोक्षनुं कारण बनतुं नथी. आ प्रमाणे मोक्षमार्ग मोक्षनुं कारण छे पण किंचित् बंधनुं नहि तथा बंधमार्ग बंधरूप ज छे पण तेमां किंचित् मोक्षनुं कारण नथी. आनुं नाम ज सम्यक् अनेकान्त छे. बापु! तुं कहे छे ए तो अनेकान्त नथी पण फुदडीवाद छे, संशयवाद छे.
भाई! वंध्यापुत्रना आश्रये जेम ‘हुं वंध्यापुत्रने हणुं’ एवो अध्यवसाय होय नहि तेम परवस्तुना आश्रय विना विकारना बंधरूप परिणाम थता नथी अने स्वद्रव्यना आश्रय विना मोक्षमार्गना परिणाम बनता नथी. ल्यो, आम स्व अने पर एम बेयथी आ सिद्ध थाय छे.
वेदांतनी जेम बधुं थईने एक ज छे एम माने तो स्व अने पर एम सिद्ध थाय नहि. मोक्षमार्गनो उद्यम करवो एवो उपदेश तो त्यारे ज बनी शके के जो एने वर्तमानमां परना आश्रयभूत बंधमार्ग होय. एमां स्व ने पर बन्ने सिद्ध थई गयां. तथा परनो आश्रय छोडीने स्वनो आश्रय करवो एम उपदेश आवतां स्वआत्मतत्त्व परथी भिन्न पण सिद्ध थई गयुं. अरे बापु! आ तो वीतरागनो अलौकिक मार्ग छे! एने वेदांतादि बीजा कोई साथे मेळ खाय एम नथी. जुओ, बंधमार्गमां बीजी बाह्यवस्तु छे ने एना परिणाम बाह्यवस्तुना आश्रये सिद्ध कर्या. अहा! जेम पोते छे तेम पोताथी भिन्न बीजी चीज छे, अने तेना आश्रये एने बंधमार्ग छे. पण बीजी चीजना आश्रयना अभावमां एने बंध थाय एम छे नहि. अने स्वना आश्रयना अभावमां एने मोक्षमार्ग थाय एम पण छे नहि. आवी ज वस्तुस्थिति छे. समजाणुं कांई...?
भाई! तारे धर्म करवो छे ने? तो स्वद्रव्य-परमात्मद्रव्य पोते छे एना आश्रये धर्म थशे. अहा! स्वद्रव्य केवुं छे, केटलुं छे, केवडुं छे- ए बधुं समजवुं
PDF/HTML Page 2616 of 4199
single page version
पडशे अने समजीने तेनो आश्रय करवो पडशे, ए विना बीजी कोई रीते धर्म नहि थाय. अहो! लोकोनां परम भाग्य छे के भगवाननो विरह पडयो पण आ वाणी रही गई. अहाहा...! संतोए शुं काम कर्युं छे!
कहे छे-आ टीका छे ते में (अमृतचंद्रे) करी नथी, टीका तो शब्दोथी थई छे. अने ए काळमां आ जे टीकानो विकल्प उठयो छे ते पण मारी चीज नथी. एमां एकत्वबुद्धि नथी ने? तो कहे छे के परना आश्रये नीपजेला परिणाम मारा नथी, केमके हुं तो स्वरूपगुप्त छुं, स्वना आश्रयमां छुं. अहाहा...! जुओ तो खरा! केवी संतोनी निर्मान दशा!
त्यारे कोई वळी कहे छे- ए तो आचार्ये पोतानी लघुता बताववा एम कह्युं छे.
पण भाई! एम नथी हों. वास्तवमां आत्मा टीका (परद्रव्यनी क्रिया) करी शकतो ज नथी; तथा परना आश्रये विकल्प थाय तेनो कर्ता-स्वामी धर्मी पुरुष थाय ज नहि. आ सत्य वात छे ने ते जेम छे तेम आचार्यदेवे कही छे, एकली लघुता बताववा माटे कह्युं छे एम नथी. अहा! मार्दवगुणना मालिक परनी क्रियाना कर्ता केम थाय? त्यां कळशटीकामां ‘अभिमान करता नथी’ एम लखाण छे तेनो अर्थ ज ए छे के कर्तापणानुं अभिमान नथी. ‘करी शकुं छुं’ पण लघुता बताववा अभिमान करतो नथी एम अर्थ नथी. (परनुं) ‘करी शकतो ज नथी’ एम बताववा ‘अभिमान करता नथी’ एम कह्युं छे.
अरे! तारी ज्ञानानंदनी लक्ष्मी तने लक्षमां न आवे अने परचीजना लक्षमां तुं दोराई जाय छे तो शुं थाय? ते वडे तने बंध ज थाय, संसार ज मळे. चाहे तो पूजा- भक्तिना भाव हो, पण तेमां एकत्वबुद्धिना परिणामथी बंध ज थाय. एकत्वबुद्धिरहित भक्ति-पूजाना भाव होय ते अस्थिरताना परिणामनी मुख्यताथी जोईए तो ते भाव पण (अल्प) बंधनुं कारण छे. धर्मीने एवा परसन्मुखताना परिणाम थाय छे पण तेमां एकत्वबुद्धि नथी तेथी ते निर्जरानुं कारण छे एम कह्युं छे. धर्मीने स्वना आश्रयनुं जोर छे तेथी परना आश्रये थयेला परिणाम (निःसंतान) छूटी जवा माटे छे ए अपेक्षाए तेने निर्जरानुं कारण कह्युं छे. आमां तो घणा बधा न्याय भर्या छे.
अहीं परनो आश्रय अने स्वनो आश्रय एम बे वात छे. तेमां परना आश्रये जे एकत्वबुद्धिथी परिणाम थाय तेने बंध कह्यो, बंधनुं कारण कह्युं. अने स्व-भाव अंदर जे शुद्ध चैतन्यरस-ज्ञानानंदरसथी परिपूर्ण एवुं ध्रुव तत्त्व एना आश्रये मोक्ष कह्यो, मोक्षनुं कारण कह्युं. अहीं आ बे चोख्खा भाग पाडवा छे के स्वना आश्रये मोक्ष ने परना आश्रये बंध. वळी त्यां परचीज छे ते बंधनुं कारण नथी अने
PDF/HTML Page 2617 of 4199
single page version
स्ववस्तु त्रिकाळी आत्मा छे ते मोक्षनुं कारण नथी एम विशेष कहे छे. पराश्रित अने स्वाश्रित जे परिणाम छे ते परिणाम ज अनुक्रमे बंध-मोक्षनुं कारण छे.
द्रव्य-त्रिकाळी ध्रुव वस्तु ए मोक्षनुं कारण नथी. ए त्रिकाळी ध्रुव उपादान व्यवहार छे.
तो कोई वळी कहे छे-द्रव्य त्रिकाळी उपादान छे तेमां अनेक प्रकारनी योग्यताओ छे, अने जे समये जेवुं निमित्त आवे तेवी पर्याय एमां थाय छे. (एम के निमित्त अनुसार द्रव्य-योग्यता परिणमी जाय छे.)
पण भाई! आ वात बराबर नथी; केमके द्रव्य तो व्यवहार उपादानकारण छे, निश्चय उपादान तो वर्तमान पर्याय छे. वस्तुना उपादानना बे भेद कह्या छे. अष्टसहस्त्रीना प८ मा श्लोकनी टीका पृ. २१० नो आधार चिद्विलासमां ‘कारण-कार्यभाव अधिकार’मां पृ. ३६मां आपेल छे के-परिणाम क्षणिक उपादान छे अने गुण (-शक्ति) शाश्वत (ध्रुव) उपादान छे. ध्रुवने उपादान कह्युं ए तो एनी शक्ति छे ते व्यवहार सिद्ध कर्यो, पण प्रगट पर्यायमां जे निर्मळ दशा प्रगट थाय ते क्षणिक उपादान-वर्तमान उपादान छे ते यथार्थ निश्चय छे. ते क्षणिक उपादान अर्थात् वर्तमान पर्यायनी ते समये योग्यता जे होय ते ज प्रमाणे पर्याय-कार्य थाय. वर्तमान पर्याय निमित्तना आधारे तो नहि पण द्रव्यना त्रिकाळी ध्रुव उपादानना आधारे पण थती नथी.
आ वात द्रष्टांतथी जोईए-
जेमके परमाणुमां तीखाश थवानी त्रिकाळी योग्यता-शक्ति छे ते त्रिकाळी उपादान छे; पण ए तो व्यवहार बापु! लींडीपीपरना परमाणुमां तीखाश छे ते वर्तमान उपादाने प्रगट छे. ए वर्तमान योग्यता ते निश्चय छे. परमाणुमां त्रिकाळ योग्यता तो छे, पण ते पथ्थर वगेरेना परमाणुमां वर्तमान तीखाश प्रगट थवानुं कारण छे? नथी. लींडीपीपरना परमाणुने ते छे. तेथी जेनी वर्तमान पर्यायमां तीखा रसनी शक्ति प्रगट छे ते क्षणिक उपादानने ज खरेखर निश्चय उपादानकारण कहेवाय छे.
अहीं कहे छे-बंधनुं कारण जे अध्यवसान तेना प्रतिषेध अर्थे अध्यवसानने आश्रयभूत बाह्यवस्तुनो प्रतिषेध छे, केमके कारणना प्रतिषेधथी कार्यनो प्रतिषेध थाय छे.
मिथ्यात्वना परिणाम ए कार्य अने एनुं कारण (-निमित्त) आश्रयभूत परवस्तु कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र आदि,-एने अहीं छोडवानुं कह्युं, केमके मिथ्यात्वना परिणाम एना आश्रये थाय छे. मिथ्यात्वने छोडाववा एना आश्रयभूत पदार्थोने छोडवानुं कह्युं छे. ए पदार्थो बंधनुं कारण छे एम नहि, बंधनुं कारण तो मिथ्यात्व ज छे, पण ए मिथ्यात्वना परिणाम ए पदार्थोना आश्रये उपजे छे. माटे बाह्य
PDF/HTML Page 2618 of 4199
single page version
पदार्थोनो निषेध करावी ए मिथ्यात्वना परिणामनो निषेध कराव्यो छे एम समजवुं. मात्र बाह्यपदार्थनो निषेध छे एम न समजवुं. परिणामनो निषेध कराववा बाह्यवस्तुनो निषेध कर्यो छे. एम तो बहारनो त्याग अनंतवार कर्यो, पण एथी शुं? बाह्यवस्तु क्यां बंधनुं कारण छे? मिथ्यात्व ऊभुं रह्युं तो संसार ऊभो ज रह्यो. समजाणुं कांई....?
जुओ, एक जणे प्रश्न पूछयो हतो के- कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्रनी श्रद्धा ए मिथ्यात्व छे. तेम सुदेव-सुगुरु-सुशास्त्रनी श्रद्धा (-राग) पण मिथ्यात्व छे?
त्यारे कह्युं-ना, एम नथी. सुदेव-सुगुरु-सुशास्त्रनी श्रद्धानो भाव तो शुभराग छे, ए मिथ्यात्व नथी. एवो भाव तो ज्ञानीने पण होय छे; परंतु ए शुभरागमां कोई धर्म माने तो ते मान्यता मिथ्यात्व छे. साचा देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो जे राग छे एने धर्म माने ते मिथ्यात्व छे.
‘हुं बीजाने जिवाडुं-मारुं’ इत्यादि एवो जे अध्यवसाय-मिथ्या परिणाम छे ते ज बंधनुं कारण छे. त्यां बीजो जीव मर्यो के जीव्यो ए कांई आने बंधनुं कारण नथी. तो पछी ए बाह्य वस्तुनो निषेध केम कर्यो. तो कहे छे-‘हुं मारुं-जिवाडुं’ ईत्यादि मिथ्या अध्यवसानना निषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो निषेध कर्यो छे, केमके बाह्यवस्तुना आश्रय विना अध्यवसान उपजतुं नथी. ल्यो, आमां न्याय समजाय छे कांई...?
प्रश्नः– तो अमारे बन्नेनो त्याग करवो के एकनो? उत्तरः– ए तो कह्युं ने के- मिथ्या अध्यवसानने छोडाववा बाह्यवस्तुनो संग छोडो एम कह्युं छे. भाई! बाह्यनो त्याग करो एम कहीने मिथ्या अध्यवसायने छोडाववुं छे. समजाय छे कांई....?
आ बधा वाणिया संसारना खूब चतुर-डाह्या होय छे. बधा मजूरनी जेम मजूरी करे पण न्याय ने तर्कथी वस्तु शुं छे ए नक्की करवानी दरकार न करे. अहीं आचार्य महाराज एम कहे छे के-‘हुं वेपार करुं’ एवो जे अभिप्राय ते वेपारनी क्रिया करी शकतो नथी, केमके वेपारनी क्रिया पोतानाथी भिन्न परचीजनी क्रिया छे. एटले एनो परनो कर्तापणानो अभिप्राय मिथ्या होवाथी एने बंधनुं कारण छे. ए अभिप्रायनो आश्रय परचीज छे. तेथी ए मिथ्या अभिप्रायना निषेध अर्थे परचीजनुं लक्ष छोडाववा परचीजनो निषेध कर्यो छे. आ लोजीकथी-न्यायथी तो वात छे. भगवान सर्वज्ञनो मार्ग न्यायप्राप्त छे, एने न्यायथी समजवो जोईए.
जुओ, एवो नियम छे के बाह्यवस्तुना आश्रय विना अध्यवसान होतुं नथी, अने तेथी अध्यवसानने आश्रयभूत एवी बाह्यवस्तुनो अत्यंत प्रतिषेध छे; केमके कारणना निषेधथी अर्थात् अध्यवसानना आश्रयभूत जे बाह्यवस्तुना निषेधथी काय
PDF/HTML Page 2619 of 4199
single page version
नाम अध्यवसाननो निषेध थाय छे. जेमके ‘बीजाने जिवाडुं’ एवो जे अध्यवसाय ते अध्यवसायनुं कारण-आश्रय जे परजीव ते परजीवना संगना निषेधथी कार्यभूत अध्यवसाननो निषेध थाय छे. आवी वात छे!
श्रोता-आ तो बहु अटपटुं लागे छे.
बापु! समजाय एवुं तो छे. न समजाय एम केम होय? फरीने लईएः
जुओ, जे भाव एम थयो के-‘आने जिवाडुं, बचावुं, आहारादि आपुं’ ते भाव- अभिप्राय जिवाडवा ने आहारादि आपवानी क्रिया करी शकतो नथी तेथी ते मिथ्या छे अने बंधनुं कारण छे. तेथी ते अभिप्राय निषेधवा योग्य छे. हवे ते अभिप्रायमां परवस्तु-परजीव आश्रय-लक्ष-निमित्त छे. तो कहे छे ते मिथ्या अभिप्रायनो आश्रय- कारण जे पर जीव छे तेनो निषेध थई जतां कार्यभूत अध्यवसाननो निषेध थाय छे, केमके आश्रयभूत परवस्तुना अभावमां अध्यवसान उपजतुं नथी. तेथी बंधना परिणामना निषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो निषेध करवामां आव्यो छे. समजाणुं कांई....?
स्त्रीनो संग न करो एम जे कहेवामां आवे छे ए स्त्रीना लक्षे जे परिणाम थाय छे ते परिणामनो निषेध करवा माटे कहेवामां आवे छे. स्त्री तो परवस्तु छे; ए कांई बंधनुं कारण नथी. बंधनुं कारण तो स्त्रीना लक्षे, ‘हुं आम विषय सेवुं’ एम जे, मिथ्या अध्यवसाय थाय छे ते छेे. अहीं कहे छे के ए मिथ्या अध्यवसायना निषेध अर्थे बाह्यवस्तुनो-स्त्री आदिनो निषेध करवामां आवे छे, केमके बाह्यवस्तुना आश्रय विना अध्यवसान उपजतुं नथी. बहु झीणी वात भाई! एणे कदी न्यायथी विचार्युं नथी; उपयोगने वस्तुना स्वरूप भणी लई गयो नथी. अहाहा.....! न्यायमां ‘नि’ धातु छे ने? एटले जे रीते वस्तु छे ते रीते ज्ञानने तेमां दोरी जवुं एनुं नाम न्याय छे.
अहीं कहे छे-भगवान! तुं एकवार सांभळ. के ‘हुं आ पैसा बीजाने दउं, दान करुं’ एवो तारो जे अभिप्राय छे ते मिथ्या छे. केम? केमके ते अभिप्राय पैसा देवानी क्रिया करी शकतो नथी. अहा! ए पैसाना-जडना खसवाना परिणाम तो जे काळे जेम थवा योग्य होय तेम ते काळे एना पोताना कारणे थाय छे; अने तुं माने छे के ‘हुं दउं छुं’; तेथी तारो ए मिथ्या अध्यवसाय छे अने ते बंधनुं कारण छे. आ मिथ्या अध्यवसायने परवस्तु जे पैसा ते आश्रयभूत छे. हवे अहीं कहे छे के-अध्यवसायनुं कारण-आश्रय जे परवस्तु-पैसा तेनो निषेध थतां, तेना तरफनुं वलण निवृत थतां कार्यभूत जे मिथ्या अध्यवसाय तेनो निषेध थाय छे, केमके परवस्तुना आश्रय
PDF/HTML Page 2620 of 4199
single page version
विना अध्यवसाय उपजतो नथी. आ प्रमाणे कारणना निषेधथी कार्यनो निषेध थाय छे. धीमे धीमे पण समजवुं भाई!
आ बंध अधिकारमां तो पहेलेथी ज न्यायथी उपाडयुं छे के -जुओ, जगतमां कर्मना रजकणो ठसाठस छे माटे आत्मा बंधाय छे एम नथी, नहितर सिद्धने पण बंध थाय. तेम मन-वचन-कायाना योगनी क्रिया थाय माटे आत्मा बंधाय छे एम नथी; जो एम होय तो भगवान केवळीने (यथाख्यात संयमीने) पण बंध थाय. तेम पांच ईन्द्रियोनी क्रिया पण बंधनुं कारण नथी, जो एम होय तो भगवान केवळीने पण बंध थाय. तेम चेतन-अचेतननो घात पण बंधनुं कारण नथी, जो एम होय तो समितिरूपे प्रवर्तनारा मुनिवरोने पण बंधनो प्रसंग आवे. आ प्रमाणे पर वस्तु बंधनुं कारण नथी. तो बंधनुं कारण शुं छे? तो कहे छे-उपयोगमां जे रागादि करे छे ते एक ज बंधनुं कारण छे. अहाहा...! एक ज्ञायकभावमात्र वस्तु आत्मा एना ज्ञानस्वभावमां क्षणिक वर्तमान विकारना-रागादिना परिणामने एक करे ते मिथ्यात्व बंधनुं कारण छे.
शुं कहे छे? के भगवान आत्मा चिदानंदघन प्रभु अखंड एक ज्ञायकभावमय त्रिकाळ ज्ञानना उपयोगरूप छे. तेना वर्तमान वर्तता ज्ञानना उपयोगमां पुण्य-पापरूप रागादिने, दया, दान आदिना विकल्पने जोडी दे-एक करे ते मिथ्यात्वभाव छे अने ते ज संसारनुं-बंधनुं कारण छे. भाई! तारो आत्मस्वभाव, भगवान ज्ञानस्वभाव ए बंधनुं कारण नथी, तेम परवस्तु पण बंधनुं कारण नथी. फक्त स्व-स्वरूपना परिणाममां परने एक करवुं ते मिथ्यात्व ज बंधनुं कारण छे. आवी व्याख्या छे बापु! अहा! आ तो जिनवाणी माता-लोकमाता भाई!
बनारसी विलासमां स्तुतिमां (शारदाष्टकमां) आवे छे ने के-
दुराचार दुर्नैहरा शंकरानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी.”
अहाहा..! भगवान जिनेश्वरदेवना मुखकमळमांथी उत्पन्न थयेली होवाथी जे ओम्ध्वनि जिनेन्द्रा तरीके सुविख्यात थई छे, अने जे अति पवित्र ज्ञानना भंडाररूप छे, ज्ञानने उत्पन्न करनारी छे एवी ए जगतनी माता जिनवाणी दुराचार अने दुर्नयनो नाश करनारी अने परम सुखनी देनारी छे. कवि कहे छे-माटे हे वागीश्वरी! हुं तारी गोदमां आवुं छुं, अर्थात् हुं तने नमस्कार करुं छुं. वळी केवी छे ते जिनवाणी!
महामोह विध्वंसनी मोक्षदानी; नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी.”
अहाहा...! अमृतनो नाथ प्रभु आत्मा तेना आश्रये प्रगटता अमृतरूप धर्मने