Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 259-264.

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गाथा–२प९

एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति। एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं।। २५९।।

एषा तु या मतिस्ते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति।
एषा ते
मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म।। २५९।।

हवे, आ अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे एम गाथामां कहे छेः-

आ बुद्धि जे तुज–‘दुखित तेम सुखी करु छुं जीवने’,
ते मूढ मति तारी अरे! शुभ अशुभ बांधे कर्मने. २प९.

गाथार्थः– [ते] तारी [या एषा मतिः तु] जे आ बुद्धि छे के हुं [सत्त्वान्] जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि इति] करुं छुं, [एषा ते मूढमतिः] ते आ तारी मूढ बुद्धि ज (मोहस्वरूप बुद्धि ज) [शुभाशुभं कर्म] शुभाशुभ कर्मने [बध्नाति] बांधे छे.

टीकाः– ‘पर जीवोने हुं हणुं छुं, नथी हणतो, दुःखी करुं छुं, सुखी करुं छुं’ एवो जे आ अज्ञानमय अध्यवसाय मिथ्याद्रष्टिने छे, ते ज (अर्थात् ते अध्यवसाय ज) पोते रागादिरूप होवाथी तेने (-मिथ्याद्रष्टिने) शुभाशुभ बंधनुं कारण छे.

भावार्थः– मिथ्या अध्यवसाय बंधनुं कारण छे.

* * *
समयसार गाथा २प९ः मथाळुं

हवे, आ अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे एम गाथामां कहे छेः-

* गाथा २प९ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘पर जीवोने हुं हणुं छुं, नथी हणतो, दुःखी करुं छुं, सुखी करुं छुं-एवो जे आ अज्ञानमय अध्यवसाय मिथ्याद्रष्टिने छे, ते ज पोते रागादिरूप होवाथी तेने (- मिथ्याद्रष्टिने) शुभाशुभ बंधनुं कारण छे.’

आत्मा सच्चिदानंद प्रभु नित्य निरंजन एक ज्ञानस्वभाव मात्र वस्तु छे. एमां आ हुं परने हणुं ने न हणुं एवो जे अज्ञानमय राग-द्वेष-मोहना, पाप ने पुण्यना परिणाम थाय ते, कहे छे, मिथ्याद्रष्टिने बंधनुं कारण छे.


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अहाहा...! अनंत-अनंत गुणोनुं गोदाम प्रभु आत्मा छे. तेमां जेम जाणग- जाणग-जाणग एवो एक ज्ञानस्वभाव गुण छे तेवो कर्तास्वभाव एक गुण छे, जे पोतानी शुद्ध निर्मळ वीतरागी परिणतिने करे छे. शुं कीधुं? आत्मामां एक अनंतसामर्थ्ययुक्त कर्ता नामनो गुण छे जे पोतानी निर्मळ निर्विकार परिणतिनो-कर्मनो करनारो छे वळी एमां जेना वडे निर्मळ निर्विकार रत्नत्रयरूप कर्म नाम कार्य थाय एवो कर्म नामनो पण गुण छे, अहाहा...! पोतामां कर्म नाम कार्य थाय एवो आत्मामां कर्म नामनो गुण छे. अहाहा...! परने लईने कर्म नाम कार्य थाय ए वस्तुस्वभाव ज नथी. हवे आवुं सांभळवाय मळे नहि एने धर्म-निर्मळ कर्म क्यांथी थाय?

आ शुभ रागना-व्यवहाररत्नत्रयना परिणामथी जीवने धर्म नाम धर्मरूपी कर्म- कार्य थाय एम छे नहि; पण एनामां कर्म नामनो गुण नाम शक्ति छे जेने लईने निर्मळ धर्मरूपी कार्य (-कर्म) प्रगट थाय छे. अहीं कर्म एटले जड कर्म (ज्ञानावरणादि) के भाव कर्म (रागादि) नी वात नथी. अहीं तो आत्मामां कर्ता-शक्तिनी जेम बेहद के सामर्थ्यवाळी कर्म नामनी एक शक्ति छे जेनाथी निर्मळ वीतरागपरिणतिरूप दशा (धर्मरूपी कार्य) थाय छे. ल्यो, आवी वात छे; पण व्यवहाररत्नत्रयना कारणथी निर्मळ रत्नत्रयरूपी कर्म-कार्य थाय छे एम छे नहि. आवुं आकरुं लागे बापु! पण शुं थाय? मारग तो आवो छे.

हवे आमां कोई पंडितो वांधा काढे छे, एम के व्यवहारथी निश्चय थाय.

वांधा काढे ए तो पोतानी ऊंधाई छे भाई! बाकी न्यायथी तो समजवुं पडशे के नहि? अरे भाई! पोतानी सत्तानुं कार्य पोतानी सत्ताथी छे के पोतानी सत्तानुं कार्य बीजी सत्ता करे? शुं बीजी सत्ता पोतामां भळी जाय छे के ते पोतानी सत्तानुं कार्य करे? एम तो बनतुं नथी. ए तो कीधुं ने के-आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु नित्य निरंजन पूरण पवित्र परमात्मस्वरूप छे. एमां जेम पोतानी निर्मळ परिणतिरूप कार्यने करे एवो कर्तागुण छे तेम पोतानी निर्मळ परिणतिरूप कर्म थाय एवो कर्म नामनो पण गुण छे.

अहा! आ देह छे ए तो जड माटी छे, अने जे दया, दान, भक्ति आदिना विकल्प थाय छे ते विकार छे, विभाव छे. ज्यारे भगवान आत्मा देह ने विभावथी भिन्न एक ज्ञायकभावमात्र चैतन्यमूर्ति प्रभु छे. तेमां जेनाथी निर्मळ रत्नत्रयरूप कर्म थाय एवो कर्म नामनो गुण छे. अहाहा...! अनंत गुणनी निर्मळ परिणतिनुं कारण एवो ‘कर्म’ नामनो आत्मामां गुण छे. भाई! आ जे शुद्ध चेतन्यपरिणतिरूप रत्नत्रयनी पर्याय प्रगट थाय एनुं कारण एमां कर्म नामनो गुण छे. पण एम नथी के आ दया, दान, भक्ति आदि व्यवहाररत्नत्रयना रागथी ए स्वभावपरिणति प्रगट


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थाय छे. राग तो विभाव छे; एनाथी स्वभाव केम प्रगट थाय? राग कांई आत्मानो गुण नथी के एनाथी आत्मानुं चैतन्यस्वभावमय कार्य प्रगटे. आवी वातु छे प्रभु! बेसे न बेसे एमां जगत स्वतंत्र छे. बाकी अंदर देहमां देहातीत चैतन्यमहाप्रभु विराजमान छे ते निःसंदेह बेसे एवी ज चीज छे.

अहीं कहे छे-हुं पर जीवोने हणुं छुं, नथी हणतो अर्थात् जिवाडुं छुं- एवो जे मिथ्याद्रष्टिने अध्यवसाय छे ते राग-द्वेष-मोहरूप होवाथी तेने बंधनुं कारण छे.

अहाहा...! प्रत्येक द्रव्य पोताना गुण-पर्यायथी स्वतंत्र छे. कोई अन्यना गुणपर्यायने करवा शक्तिमान नथी. वळी कोई अन्यना पुण्य-पापना उदयने करवा के बदलवा शक्तिमान नथी. आ वस्तुस्थिति छे. आम छतां कोई एम माने के हुं आने (- परने) हणुं छुं तो ते एनुं अज्ञान छे. ना, आने हणवो नथी, आने हुं जिवाडुं-जीवतो राखुं-एम अभिप्राय करे ते पण एनुं अज्ञान छे, मूढता छे अरे भाई! परने हणवा- जिवाडवानी के परने सुखी-दुःखी करवानी तारी शक्ति ज नथी. परनां कार्य करवानुं तारा अधिकारमां ज नथी. तेथी तुं ए बधा विकल्प करे ते मिथ्या छे, बंधनुं कारण छे. समजाणुं कांई....? अहाहा....! आ नागाने वस्त्र, भूख्याने अन्न, निराश्रितने आश्रय ईत्यादि वडे बीजाने हुं सुखी करुं एवो विकल्प भगवान! मिथ्या छे, केमके ते सुखी थाय छे ए तो पोताना पुण्यना उदये थाय छे, ताराथी नहि. अहा! बीजाने जिवाडुं, सुखी करुं,-ए विकल्प अवश्य शुभभाव छे पण ते परना एकत्वरूप मिथ्यात्वसहित छे; ते बंधनुं ज कारण छे.

अत्यारे कोई पंडितो कहे छे-हुं परने जिवाडुं-एवो अध्यवसाय (परमां एकत्वबुद्धि) बंधनुं कारण छे, पण एने जिवाडवानो भाव कांई बंधनुं कारण नथी.

अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? आ बहारनी खाली पंडिताई तने नुकशान करशे बापु! आ चोख्खुं तो अहीं लीधुं छे के-‘एवो जे अज्ञानमय अध्यवसाय मिथ्याद्रष्टिने छे, ते ज (अध्यवसाय) पोते रागादिरूप होवाथी तेने (-मिथ्याद्रष्टिने) शुभाशुभ बंधनुं कारण छे.’ ल्यो, आमां स्पष्ट भाषामां लीधुं के-ते अध्यवसाय पोते रागादिरूप अर्थात् राग-द्वेष-मोहरूप, पुण्य-पापरूप होवाथी शुभाशुभ बंधनुं कारण छे. जिवाडवानो शुभभाव पण बंधनुं ज कारण छे. समजाणुं कांई...?

अहा! आत्मा अंदर चिन्मात्र एक पूरण परमात्मस्वरूप प्रभु छे. ए परनुं शुं करे? अने ए परमांथी शुं ले? एनामां शुं खामी छे के ते परने ईच्छे? अरे! पोताना पूरण परमात्मपदना भान विना ते अनादिथी पराधीन थई रह्यो छे! आ तो जेम चक्रवर्तीने कोई भूलथी वाघरण परणी होय ते पोते महाराणी छे तोपण जूनी टेव प्रमाणे गोखमां टोपली मूकीने कहे- बटकुं रोटलो आपजो बा!-तेम आ मोटो


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चैतन्यचक्रवर्ती पूरण आनंदनो नाथ प्रभु पोते छे छतां पोतानी प्रभुताना भान विना भिखारीनी पेठे बहारथी-परथी मागे के-सुख देजो मने. आ भोगमांथी-विषयमांथी- पैसा-धूळमांथी सुख मागे छे. अहीं कहे छे- हुं परने सुखी करुं वा पर मने सुखी करे ए अध्यवसाय मिथ्यात्व छे अने ते बंधनुं कारण छे, दुःखनुं कारण छे.

अहाहा....! भगवान तुं वस्तु छो के नहि? अनंत-अनंत गुणनुं वास्तु एवी तुं वस्तु छो प्रभु! तारी प्रभुतानी तने खबर नथी पण जेमां अनंत शक्तिओ एक पणे वसेली छे एवो तुं अनंत गुणोनुं संग्रहालय-गोदाम भगवान आत्मा छो. जेम गळपण साकरनो स्वभाव छे तेम ज्ञान अने आनंद तारो स्वभाव छे नाथ! एमांथी काढवुं होय तेटलुं काढ, तोय कदी खूटे नहि एवो तारो बेहद स्वभाव छे. आवो ज्ञानानंदरूप स्वरूपलक्ष्मीनो अखूट भंडार प्रभु तुं, अने आ देहमां ने रागमां ने विषयोमां क्यां मुंझाई गयो! एनाथी (देह, राग ने विषयोथी) हुं सुखी छुं ए वात (-अध्यवसाय) जवा दे प्रभु! आनंदनो भंडार तुं पोते छे एमां जा. आ बीजानी दया करुं, ने बीजाने दान दउं ने बीजानी भक्ति करुं-एम रागनो अभिप्राय छोडी दे; अने पोतानी दयामां, पोताने दान देवामां जे पोतानी भक्तिमां पोताने लगावी दे. आ तारा हितनो मार्ग छे.

अहा! अशुभथी बचवा, दया, दान, भक्ति ईत्यादिनो शुभराग आवे, पण एनाथी पोतानुं कल्याण थई जाय ए वात त्रण काळमां सत्य नथी.

अहीं कहे छे-हुं परने जिवाडुं, हणुं, सुखी-दुःखी करुं-ईत्यादि जे अध्यवसाय छे ते अध्यवसाय पोते पुण्य-पापना भावरूप, रागादिरूप होवाथी शुभाशुभ बंधनुं कारण छे. आवो अध्यवसाय मिथ्याद्रष्टिने होय छे अने तेने ते बंधनुं ज कारण छे. (ज्ञानी तो जे दया, दाननो विकल्प आवे तेनो स्वामी-कर्ता थतो ज नथी, ए तो जाणनार ज रहे छे). आवी वात छे.

[प्रवचन नं. ३१७*दिनांक १र-र-७७]
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गाथा २६०–२६१
दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि जं एवमज्झवसिदं ते।
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि।।
२६०।।
मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते।
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि।।
२६१।।
दुःखितसुखितान् सत्त्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते।
तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति।। २६०।।
मारयामि जीवयामि वा सत्त्वान् यदेवमध्यवसितं ते।
तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति।।
२६१।।

हवे, अध्यवसायने बंधना कारण तरीके बराबर नक्की करे छे-ठरावे छे (अर्थात् मिथ्या अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे एम नियमथी कहे छे)ः-

करतो तुं अध्यवसान–‘दुखित–सुखी करुं छुं जीवने’,
ते पापनुं बंधक अगर तो पुण्यनुं बंद्यक बने. २६०.
करतो तुं अध्यवसान–‘मारुं जिवाडुं छुं पर जीवने’,
ते पापनुं बंधक अगर तो पुण्यनुं बंधक बने. २६१.

गाथार्थः– ‘(सत्त्वान्] हुं जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि] करुं छुं’ [एवम्] आवुं [यत् ते अध्यवसितं] जे तारुं *अध्यवसान, [तत्] ते ज [पापबन्धकं वा] पापनुं बंधक [पुण्यस्य बन्धकं वा] अथवा पुण्यनुं बंधक [भवति] थाय छे.

[सत्त्वान्] हुं जीवोने [मारयामि वा जीवयामि] मारुं छुं अने जिवाडुं छुं’ [एवम्] आवुं [यत् ते अध्यवसितं] जे तारुं अध्यवसान, [तत्] ते ज [पापबन्धकं वा] पापनुं बंधक [पुण्यस्य बन्धकं वा] अथवा पुण्यनुं बंधक [भवति] थाय छे. _________________________________________________________________ * जे परिणमन मिथ्या अभिप्राय सहित होय (-स्वपरना एकत्वना अभिप्राय सहित होय) अथवा

वैभाविक होय ते परिणमन माटे अध्यवसान शब्द वपराय छे. (मिथ्या) निश्चय करवो, (मिथ्या)
अभिप्राय करवो-एवा अर्थमां पण ते शब्द वपराय छे.

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टीकाः– मिथ्याद्रष्टिने जे आ अज्ञानथी जन्मतो रागमय अध्यवसाय छे ते ज बंधनुं कारण छे एम बराबर नक्की करवुं. अने पुण्य-पापपणे (पुण्य-पापरूपे) बंधनुं बे-पणुं होवाथी बंधना कारणनो भेद न शोधवो (अर्थात् एम न मानवुं के पुण्यबंधनुं कारण बीजुं छे अने पापबंधनुं कारण कोई बीजुं छे); कारण के एक ज आ अध्यवसाय ‘दुःखी करुं छुं’ मारुं छुं’ एम अने ‘सुखी करुं छुं, जिवाडुं छुं’ एम बे प्रकारे शुभ- अशुभ अहंकाररसथी भरेलापणा वडे पुण्य अने पाप-बन्नेना बंधनुं कारण होवामां अविरोध छे (अर्थात् एक ज अध्यवसायथी पुण्य अने पाप-बन्नेनो बंध थवामां कोई विरोध नथी).

भावार्थः– आ अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे. तेमां, ‘जिवाडुं छुं, सुखी करुं छुं’ एवा शुभ अहंकारथी भरेलो ते शुभ अध्यवसाय छे अने ‘मारुं छुं, दुःखी करुं छुं’ एवा अशुभ अहंकारथी भरेलो ते अशुभ अध्यवसाय छे. अहंकाररूप मिथ्याभाव तो बन्नेमां छे; तेथी अज्ञानमयपणे बन्ने अध्यवसाय एक ज छे. माटे एम न मानवुं के पुण्यनुं कारण बीजुं छे अने पापनुं कारण बीजुं छे. अज्ञानमय अध्यवसाय ज बन्नेनुं कारण छे.

*
समयसार गाथा २६०–२६१ः मथाळुं

हवे, अध्यवसायने बंधना कारण तरीके बराबर नक्की करे छे-ठरावे छे अर्थात् मिथ्या अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे एम नियमथी कहे छेः-

* गाथा २६०–२६१ः टीका उपरनुं प्रवचन *

हमणां ज एक वकीले प्रश्न कर्यो हतो के-शुभरागथी पुण्य तो बंधाय ने? (एम के शुभराग कांईक भलो छे).

उत्तरः– अरे भाई! हुं परने जिवाडुं छुं के सुखी करुं छुं-ए अभिप्राय ज मिथ्यात्व छे. मिथ्याद्रष्टिने एनाथी पुण्यबंध थाय छे. छतां मिथ्यात्वनी भूमिकामां जे पुण्यबंध थाय ते खरेखर तो पाप ज छे.

भाई! आ शरीर तो हाड, मांस ने चामडानो माळो छे; ए कांई आत्मा नथी. अहा! ए तो स्मशानमां झळहळ अग्नि सळगशे तेमां भस्मीभूत थई जशे. अने अंदर आत्मा तो जेनी आदि नथी, जेनो अंत-नाश नथी एवी अनादि-अनंत अविनाशी चीज छे. अहा! आवा चिन्मात्र एक पोताना आत्माने जाण्या विना आ बधी क्रियाओ करे पण ए बधी संसार खाते छे. एनाथी संसारनी रझळपट्टी बंध नहि थाय प्रभु!


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अहा! कोई लाखो-करोडोना खर्चे मंदिर बंधावे ने तेमां भगवाननी प्रतिमा स्थापना करे ते शुभभाव छे, एनाथी पुण्यबंध थाय; अशुभथी बचवा एवो शुभभाव होय छे, पण एनाथी कोई धर्म थवो मानी ले, वा एनाथी जन्म -मरणरहित थवाशे एम मानी ले तो ते मिथ्या छे.

पण ए (मंदिर वगेरे) धर्मनुं साधन तो छे ने?

धुळमांय साधन नथी, सांभळने. ए तो रागनुं साधन छे, शुभरागनुं बाह्य निमित्त छे. एनाथी पोतानुं कल्याण थशे एम कोई माने तो ए वातमां कांई माल नथी. समजाणुं कांई.......?

अहीं कहे छे-‘मिथ्याद्रष्टिने जे आ अज्ञानथी जन्मतो रागमय अध्यवसाय छे ते ज बंधनुं कारण छे एम बराबर नक्की करवुं.’

जोयुं? मिथ्या नाम असत्य द्रष्टि छे जेने तेने अज्ञानथी जन्मतो जे आ रागमय अध्यवसाय छे ते ज बंधनुं कारण छे. भगवान आत्मा तो शुद्ध चिन्मात्र वस्तु छे; तेमां राग-विकार छे नहि. छतां राग-विकार साथे एकपणुं मानवुं ते अज्ञानथी जन्मतो रागमय अध्यवसाय छे अने ते ज कहे छे, बंधनुं कारण छे. एम नक्की करवुं. (आ सामान्य कथन कर्युं)

हवे विशेष कहे छे- ‘अने पुण्य-पापपणे बंधनुं बे-पणुं होवाथी बंधना कारणनो भेद न शोधवो;.....’

अहाहा.....! कहे छे- पुण्य-पापरूप बंधमां बेमां कारणनो भेद न पाडवो. एम न मानवुं के पुण्यबंधनुं कारण बीजुं छे अने पापबंधनुं कारण कोईबीजुं छे. अहाहा...! भगवान आत्मस्वभावमांथी तो रागनी उत्पत्ति थती नथी; पण आ अज्ञानथी जन्मतो रागमय अध्यवसाय ए एक ज शुभाशुभ बंधनुं कारण छे एम कहे छे.

अरे! अनादिकाळना परिभ्रमणमां एणे कोई दि, सत्य सांभळ्‌युं नथी ने विचार्युं नथी. एमने एम बिचारो चारगतिमां रखडी मर्यो छे. कदीक पांच-पचास करोडनी धूळवाळो शेठियो थयो तो पैसाना अभिमानमां चढी गयो के-अमे करोडोनी लागतथी मंदिर बंधाव्यां ने प्रतिष्ठा करावी ने बीजाओने सुखी कर्या ईत्यादि.

तो एथी (पैसाथी) धर्म तो थाय ने?

धूळमांय धर्म न थाय, सांभळने. पैसाथी धर्म थाय तो गरीबो बिचारा शुं करे? तेओ धर्म केवी रीते करे? पैसामां शुं छे? ए तो धूळ-माटी छे, भिन्न चीज छे. एनाथी धर्म केम थाय?


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अहाहा....! आत्मा शुद्ध चिदानंदघन प्रभु नित्य निरंजन अंदर सदा भगवान स्वरूपे विराजे छे. अहा! आवा पोताना स्वरूपने भूलीने राग साथे एकत्व पामी, ‘हुं बीजाने जिवाडी शकुं, मारी शकुं, सुखी-दुःखी करी शकुं- ‘एम अज्ञानमय अध्यवसाय करे ए पुण्य-पापरूप बंधनुं कारण छे. वळी कहे छे-पुण्य-पापरूपे बंधनुं बे-पणुं होवा छतां बंधना कारणमां भेद न शोधवो. पुण्यबंधनुं कारण जूदुं छे ने पापबंधनुं कारण जूदुं छे एम न मानवुं, केमके बंधननुं कारण एक मिथ्या अध्यवसाय ज छे. अहाहा...! आ पैसावाळानां तो अभिमान गरी जाय एवुं आ छे. (पण समजे तो ने?)

अहाहा...! तुं नित्य निरंजन शुद्ध चैतन्यघन प्रभु छो ने? तो चैतन्यपणाने छोडीने बीजुं शुं करे? जाणनार-देखनार प्रभु तुं जे थाय तेने जाणे-देखे, पण ‘जे थाय एने करे‘- ए तो मिथ्या मान्यता छे, अज्ञान छे. आचार्य महाराज कहे छे के-ए अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे, अनंत संसारनुं कारण छे एम नक्की करवुं. त्यां (बंधना कारणमां) एम न विचारवुं के पुण्यबंधनुं कारण बीजुं छे ने पापबंधनुं कारण बीजाुं छे; कारण के एक ज आ अध्यवसाय-परने मारुं-जिवाडुं छुं, परने सुखी- दुःखी करुं छुं- ते, रागमय (रागनी एकत्वबुद्धिपूर्वक) होवाथी बंधनुं कारण छे.

आमांथी कोई लोको एम काढे छे के जेने रागनी एकत्वबुद्धि नथी एना परिणामथी प्रशस्त पद मळे ने?

अरे भगवान! तने शुं थयुं छे आ? आ मोटा पैसावाळा शेठ थाय, मोटा राजा थाय के देव थाय- ए पद शुं सारां छे? अने ए शुं ईच्छवा जोग छे? भाई! ए तो बधा धूळनां पद छे. सम्यग्द्रष्टि तो एने सडेलां तणखलां जेवां गणे छे. अहा! जेने रागनी एकत्वबुद्धि नथी ते समकितीने रागनी ईच्छा नथी होती. तेने पुण्यनीय ईच्छा नथी होती के पापनीय ईच्छा नथी होती. आ वात निर्जरा अधिकारमां (गाथा र१०- रर१मां) आवी गई छे. समकिती संसारना कोई पदनी वांछा नथी करतो. अज्ञानीने ज एवा पदोनी वांछा रह्या करे छे. अहा! पुण्य ने पापना भाव थाय, पण ज्ञानीने एनी ईच्छा नथी होती. ए तो जेम बिलाडीनी केड तूटी गई होय पछी जरी हाले पण लूली थईने हाले तेम राग जेने तूटी गयो छे (-भिन्न पडी गयो छे) तेने अंदरमां राग थाय पण केड तूटेली बिलाडीनी जेम अधमूओ (मरवा पडयो होय) तेम थाय. आवी वात बहु कठण भाई! दुनिया बिचारी समज्या विना बहु हेरान थईने मरी जाय छे.

अरे! लोको बिचारा धंधा वेपारमां ने बायडी-छोकरां साचववामां आखो दि’


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पडेला रहीने एकलां पापनां पोटलां भरे! एमां वळी एकाद कलाक मांड काढीने सांभळवा जाय तो धर्मना नामे आवुं सांभळी आवे के-दया पाळो ने उपवास करो ने भगवाननी भक्ति-पूजा करो एटले धर्म थई जाय. ल्यो, त्यां कुगुरुए आम ने आम बिचाराने मारी नाख्या. अहीं कहे छे- हुं बीजानी दया पाळु, बीजाने जिवाडुं के बीजाने सुखी करुं एवो -अध्यवसाय अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे अने ते बंधनुं कारण छे.

अहाहा...! खूबी तो जुओ आचार्यदेव कहे छे-बीजाने सुखी करुं ने जिवाडुं एवो जे अध्यवसाय ते पुण्यबंधनुं कारण छे तथा बीजाने दुःखी करुं ने मारुं एवो जे अध्यवसाय ते पापबंधनुं कारण छे. पण आ बन्नेमां (पुण्य ने पाप बंधमां) कारणभेद न मानवो. बन्नेमां ए अध्यवसाय जे रागमय छे ते एक ज बंधनुं कारण छे; बेमां बे जुदां जुदां कारण छे एम नथी. ए ज वात हवे कारणसहित दर्शावे छे-

“कारण के एक ज आ अध्यवसाय ‘दुःखी करुं छुं, मारुं छुं ‘एम अने ‘सुखी करुं छुं, जिवाडुं छुं’ एम बे प्रकारे शुभ-अशुभ अहंकाररसथी भरेलापणा वडे पुण्य अने पाप-बन्नेना बंधनुं कारण होवामां अविरोध छे”

जोयुं? आ एक ज अध्यवसायने बे प्रकारे शुभ-अशुभ अहंकाररसथी भरेलापणुं छे. हुं बीजाने सुखी करी शकुं के जिवाडी शकुं, पण एनो अहंकार न करवो एम केटलाक अर्थ करे छे पण एम नथी बापु! शुं थाय? जेने जेम बेठुं होय तेम कहे. कह्युं छे ने के-

जामें जितनी बुद्धि है, ईतनो दियो बताय;
वांको बुरो न मानिये, ओर कहासें लाय.

परंतु भाई! आचार्यदेव एम कहे छे के-हुं बीजाने जिवाडुं के सुखी करुं अने बीजाने मारुं के दुःखी करुं एवी मान्यता ज शुभाशुभ अहंकाररसथी भरेली मिथ्यात्वरूप छे. हुं बीजाने शुभ-अशुभ करी शकुं एवो अध्यवसाय ज अहंकार छे. मिथ्यात्व छे.

अहीं कहे छे- बीजाने हुं शुभ-अशुभ करुं, जिवाडुं ने मारुं, सुखी करुं ने दुःखी करुं एवो जे अहंकाररसथी भरेलो अज्ञानमय अध्यवसाय छे ते एकथी ज पुण्य ने पापनो बंध थवामां कोई विरोध नथी, अविरोध छे. हुं जिवाडुं ने सुखी करुं एवो रागनो परिणाम करे अने हुं मारुं ने दुःखी करुं एवो द्वेषनो परिणाम करे, पण ए बन्ने एक ज अज्ञानमय अध्यवसाय छे अने ते पुण्य-पापना बंधनुं कारण थाय छे.

प्रश्नः– पुण्य बंधाय ए तो सारुं ने?


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उत्तरः– ए बंधाय छे एने सारुं केम कहेवाय? अहाहा....! भगवान आत्मा अंदर आनंदनो नाथ प्रभु सदा अबद्धस्वरूप मुक्तस्वरूप छे. ते पुण्यथी बंधाय ए सारुं केम कहेवाय! एने पर्यायमां बंध थाय ए सारुं केम होय? अरे भाई! पाप जो लोढानी बेडी छे तो पुण्य सोनानी बेडी छे; पण ते छे तो बेडी ज. लोढानी बेडी करतांय सोनानी बेडीनुं वजन बहु अधिक होय. एनो पछी भार लागतां हाडकां घसाईने बहु दुःखी थाय तेम पुण्यनी रुचिना भारथी तुं दुःखी थईश भाई! दुनिया तो आखी गांडी-पागल छे. ए तो पुण्यने सारुं कहे अने पुण्यवंतने सारां सर्टीफिकेट पण आपे. पण बापु! ए पागलना सर्टीफिकेट शुं कामनां? भगवान! तुं पुण्यनी रुचिमां ज आज लगी मरी गयो छो.

अहा! आ मारगडा जुदा भाई! आ तो वीतरागनो मारग नाथ! आवुं मनुष्यपणुं तने अनंतवार आव्युं भाई! पण पुण्यना रसमां पागल तने अंदर भगवान छे एनुं भान न थयुं. अहा! पोताना भान विना क्यांय कागडा-कुतरा ने कीडाना भवमां दुःखमां सबडतो रझळ्‌यो. हवे (आ भवमां) पण जो अंतःतत्त्वनी वास्तविक द्रष्टि ना करी, जेवुं स्वरूप छे तेवुं प्रतीतिमां ने अनुभवमां न लीधुं तो तारां जन्म-मरणनो आरो नहि आवे; चोरासीना अवतारमां क्यांय रझळीने मरी जईश.

* गाथा र६०–र६१ भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ अज्ञानमय अध्यवसाय ज बंधनुं कारण छे. जुओ, अहीं पुण्प-पाप-एम शब्दो नथी लीधा, अहीं तो ‘हुं आने जिवाडुं-मारुं छुं; आने सुखी-दुःखी करुं छुं, एवो जे अज्ञानमय अध्यवसाय छे ते ज बंधनुं कारण छे एम कह्युं छे. हवे कहे छे -

‘तेमां, ‘जिवाडुं छुं, सुखी करुं छुं ‘एवा शुभ अहंकारथी भरेलो ते शुभ अध्यवसाय छे अने मारुं छुं, दुःखी करुं छुं ‘एवा अशुभ अहंकारथी भरेलो ते अशुभ अध्यवसाय छे. अहंकाररूप मिथ्याभाव तो बन्नेमां छे; तेथी अज्ञानमयपणे बन्ने अध्यवसाय एक ज छे.’

अज्ञानपणानी अपेक्षाए शुभ ने अशुभ बेय राग एक ज छे, अज्ञान छे. ‘माटे एम न मानवुं के पुण्यनुं कारण बीजाुं छे अने पापनुं कारण बीजुं छे. अज्ञानमय अध्यवसाय ज बन्नेनुं कारण छे.’ अहा! अज्ञानीने पुण्य परिणाम हो के पाप परिणाम हो, ते बन्नेमां रहेलो मिथ्याभाव-अज्ञानमय अध्यवसाय ज अनंत संसारनुं कारण छे; बहारनी क्रियाथी बंध नथी.

[प्रवचन नं. ३१७ (चालु) *दिनांक १२-र-७७]

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गाथा–२६२

एवं हि हिंसाध्यवसाय एव हिंसेत्यायातम्।

अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ।
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स।।
२६२।।
अध्यवसितेन बन्धः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु।
एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयनयस्य।।
२६२।।

‘आ रीते खरेखर हिंसानो अध्यवसाय ज हिंसा छे एम फलित थयुं’-एम हवे कहे छेः-

मारो–न मारो जीवने, छे बंध अध्यवसान थी,
–आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चयनय थकी. २६२.

गाथार्थः– [सत्त्वान्] जीवोने [मारयतु] मारो [वा मा मारयतु] अथवा न मारो- [बन्धः] कर्मबंध [अध्यवसितेन] अध्यवसानथी ज थाय छे. [एषः] आ, [निश्चयनयस्य] निश्चयनये, [जीवानां] जीवोना [बन्धसमासः] बंधनो संक्षेप छे.

टीकाः– पर जीवोने पोताना कर्मना उदयनी विचित्रताना वशे प्राणोनो व्यपरोप (-उच्छेद, वियोग) कदाचित् थाओ, कदाचित् न थाओ, -‘हुं हणुं छुं’ एवो जे अहंकाररसथी भरेलो हिंसामां अध्यवसाय (अर्थात् हिंसानो अध्यवसाय) ते ज निश्चयथी तेने (हिंसानो अध्यवसाय करनारा जीवने) बंधनुं कारण छे, केम के निश्चयथी परनो भाव एवो जे प्राणोनो व्यपरोप ते परथी करावो अशक्य छे (अर्थात् ते परथी करी शकातो नथी).

भावार्थः– निश्चयनये बीजाना प्राणोनो वियोग बीजाथी करी शकातो नथी; तेना पोताना कर्मना उदयनी विचित्रतावश कदाचित् थाय छे, कदाचित् नथी थतो. माटे जे एम माने छे-अहंकार करे छे के ‘हुं पर जीवने मारुं छुं’, तेनो ते अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय छे. ते अध्यवसाय ज हिंसा छे-पोताना विशुद्ध चैतन्यप्राणनो घात छे, अने ते ज बंधनुं कारण छे. आ निश्चयनयनो मत छे.

अहीं व्यवहारनयने गौण करीने कह्युं छे एम जाणवुं. माटे ते कथन कथंचित् (अर्थात् अपेक्षापूर्वक) छे एम समजवुं; सर्वथा एकांतपक्ष तो मिथ्यात्व छे.

*

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समयसार गाथा र६रः मथाळुं

‘आ रीते खरेखर हिंसानो अध्यवसाय ज हिंसा छे एम फलित थयुं’-

एम हवे कहे छे -

* गाथा र६रः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘पर जीवोने पोताना कर्मना उदयनी विचित्रताना वशे प्राणोनो व्यपरोप (- उच्छेद, वियोग) कदाचित थाओ, कदाचित न थाओ, - “ हुं हणुं छुं” एवो जे अहंकाररसथी भरेलो हिंसामां अध्यवसाय (अर्थात् हिंसानो अध्यवसाय) ते ज निश्चयथी तेने (हिंसानो अध्यवसाय करनारा जीवने) बंधनुं कारण छे, केम के...’

शुं कह्युं? सामो पर जीव एना कर्मने कारणे एटले एनो आयुकर्मनो उदय होय तो, आने मारवाना तीव्र द्वेष पूर्वक चेष्टा होय तोय कदाचित् न मरे. अहीं कहे छे के ते मरे के न मरे तेना प्राणोनो उच्छेद थाय के न थाय, हुं हणुं छुं-एवो अहंकाररसथी भरेलो जे अध्यवसाय आने छे ते ज निश्चयथी तेने बंधनुं कारण छे. सामा जीवने आयुष्यनो उदय होय तो आने मारवाना भाव होय अने मारवा प्रवृत्त थाय तोय न मरे, अने सामा जीवने आयुष्यनो क्षय थाय तो आ जिवाडवाना भावथी जिवाडवा प्रयत्न करे तोय न जीवे, मरी जाय; ए तो बधुं सामा जीवनी देहमां रहेवानी स्थितिनी योग्यता मुजब एना आयुकर्मने अनुसरीने थाय छे. तेथी कहे छे के- सामो जीव मरे के न मरे, एनी साथे हिंसानो संबंध नथी, पण आने हिंसामां जे अहंकारयुक्त अज्ञानमय अध्यवसाय थाय छे ते ज हिंसा ने बंधनुं कारण छे. समजाणुं कांई....?

हवे एनुं कारण समजावतां कहे छे-‘केमके निश्चयथी परनो भाव एवो जे प्राणोनो व्यपरोप ते परथी करावो अशक्य छे (अर्थात् ते परथी करी शकातो नथी).

शुं कहे छे? के बीजा जीवना प्राण-पांच ईन्द्रिय, मन-वचन-काय तथा श्वासोच्छ्वास ने आयु-ए परनो भाव छे; ए कांई आत्माना भाव नथी, परभावरूप (परनी हयातीरूप) एवा ए प्राणोनो नाश निश्चयथी बीजा कोईथी करी शकातो नथी. अहाहा....! तारा भावथी बीजाना प्राणोनो नाश करावो अशक्य छे. एना प्राणोनो नाश थवो के न थवो ए तो एना आयुकर्मने लीधे छे. तारा भावने कारणे बीजानुं मरण आदि बनी शकतुं नथी. हवे आवी तो चोखवट छे, छतां कोई पंडितो आमां गोटा वाळे छे.


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* गाथा र६रः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘निश्चयनये बीजाना प्राणोनो वियोग बीजाथी करी शकातो नथी; तेना पोताना कर्मना उदयनी विचित्रतावश कदाचित् थाय छे, कदाचित् नथी थतो. ’

मतलब के तेना आयुकर्मनो क्षय थई गयो होय तो एना प्राणोनो वियोग थाय, अन्यथा न थाय; परंतु एमां तारुं कांई कर्तव्य नथी अर्थात् त्यां तुं एने मारी के जिवाडी शकतो नथी.

‘माटे जे एम माने छे- अहंकार करे छे के ‘हुं पर जीवने मारुं छुं,’ तेनो ते अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय छे. ते अध्यवसाय ज हिंसा छे- पोताना विशुद्ध चैतन्यप्राणनो घात छे, अने ते ज बंधनुं कारण छे. आ निश्चयनयनो मत छे.

अहा! ‘हुं पर जीवने मारी शकुं छुं’ एवो जे भाव ते पोताना शुद्ध चैतन्यमय ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावप्राणनो घात छे. तेवी रीते ‘हुं परने जिवाडी शकुं छुं’ एवो भाव पण पोताना शुद्ध चैतन्य ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावप्राणनो घात छे. ते ज निश्चये बंधनुं कारण छे. हवे कहे छे -

‘अहीं व्यवहारनयने गौण करीने कह्युं छे एम जाणवुं.’ बीजाना मरण-जीवनना प्रसंगमां आना मारवाना के जिवाडवाना भाव निमित्त होय छे एम जाणी व्यवहारथी (आरोप करीने) एम कहेवाय के आणे आने मार्यो, आणे आने जिवाडयो. आवो व्यवहारनय छे ते अहीं गौण छे. माटे ते कथन कथंचित् (कोई अपेक्षा पूर्वक) छे एम समजवुं, सर्वथा एकांतपक्ष तो मिथ्यात्व छे. एम के पर जीव मरे त्यां पोताने मारवानो अध्यवसाय तो होय छतां एम कहे के-मने बंध नथी केम के परने कोई मारी शके नहि- तो आवो एकांत पक्ष मिथ्यात्व छे. समजाणुं कांई.....? पोताने जे मारवानो अध्यवसाय छे ते नियमथी बंधननुं कारण छे.

[प्रवचन नं. ३१७*दिनांक १र-र-७७]

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गाथा २६३–२६४

अथाध्यवसायं पापपुण्ययोर्बन्धहेतुत्वेन दर्शयति–

एवमलिए अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव।
कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पावं।। २६३।।
तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव।
कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुण्णं।। २६४।।
एवमलीकेऽदत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव।
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापम्।। २६३।।
तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव।
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यम्।। २६४।।

हवे, (हिंसा-अहिंसानी जेम सर्व कार्योमां) अध्यवसायने ज पाप-पुण्यना बंधना कारणपणे दर्शावे छेः-

एम अलीकमांही, अदत्तमां, अब्रह्म ने परिग्रह विषे
जे थाय अध्यवसान तेथी पापबंधन थाय छे. २६३.
ए रीत सत्ये, दत्तमां, वळी ब्रह्म ने अपरिग्रहे
जे थाय अध्यवसान तेथी पुण्यबंधन थाय छे. २६४.

गाथार्थः– [एवम्] ए रीते (अर्थात् पूर्वे हिंसाना अध्यवसाय विषे कह्युं तेम) [अलीके] असत्यमां, [अदत्ते] अद्रत्तमां, [अब्रह्मचर्ये] अब्रह्मचर्यमां [च एव] अने [परिग्रहे] परिग्रहमां [यत्] जे [अध्यवसानं] अध्यवसान [क्रियते] करवामां आवे [तेन तु] तेनाथी [पापं बध्यते] पापनो बंध थाय छे; [तथापि च] अने तेवी ज रीते [सत्ये] सत्यमां, [दत्ते] दत्तमां, [ब्रह्मणि] ब्रह्मचर्यमां [च एव] अने [अपरिग्रहत्वे] अपरिग्रहमां [यत्] जे [अध्यवसानं] अध्यवसान [क्रियते] करवामां आवे [तेन तु] तेनाथी [पुण्यं बध्यते] पुण्यनो बंध थाय छे.

टीकाः– ए रीते (-पूर्वोकत रीते) अज्ञानथी आ जे हिंसामां अध्यवसाय करवामां आवे छे तेम असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य अने परिग्रहमां पण जे


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(अध्यवसाय) करवामां आवे, ते बधोय पापना बंधनुं एकमात्र (-एकनुं एक) कारण छे; अने जे अहिंसामां अध्यवसाय करवामां आवे छे तेम जे सत्य, दत्त, बह्मचर्य अने अपरिग्रहमां पण (अध्यवसाय) करवामां आवे, ते बधोय पुण्यना बंधनुं एकमात्र कारण छे.

भावार्थः– जेम हिंसामां अध्यवसाय ते पापबंधनुं कारण कह्युं छे तेम असत्य, अदत्त (-वगर दीधेलुं लेवुं ते, चोरी), अब्रह्मचर्य अने परिग्रह-तेमनामां अध्यवसाय ते पण पापबंधनुं कारण छे. वळी जेम अहिंसामां अध्यवसाय ते पुण्यबंधनुं कारण छे तेम सत्य, दत्त (-दीधेलुं लेवुं ते), ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रह-तेमनामां अध्यवसाय ते पण पुण्यबंधनुं कारण छे. आ रीते, पांच पापोमां (अव्रतोमां) अध्यवसाय करवामां आवे ते पापबंधनुं कारण छे अने पांच (एकदेश के सर्वदेश) व्रतोमां अध्यवसाय करवामां आवे ते पुण्यबंधनुं कारण छे. पाप अने पुण्य बन्नेना बंधनमां, अध्यवसाय ज एक मात्र बंध-कारण छे.

*
समयसार गाथा २६३–२६४ः मथाळुं

हवे (हिंसा-अहिंसानी जेम सर्व कार्योमां) अध्यवसायने ज पाप-पुण्यना बंधना कारणपणे दर्शावे छे-

* गाथा २६३–२६४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘ए रीते (-पूर्वोक्त रीते) अज्ञानथी आ जे हिंसामां अध्यवसाय करवामां आवे छे तेम....’

अहीं शुं कहेवुं छे? के बीजानी हिंसा हुं करी शकुं छुं एवो जे अध्यवसाय करवामां आवे छे ते बंधनुं कारण छे. अहीं अध्यवसाय एटले मिथ्याद्रष्टिने जे एकत्वबुद्धिना परिणाम होय छे तेनी वात छे. मिथ्याद्रष्टिनो ए अध्यवसाय बंधनुं कारण छे.

धर्मीने-समकितीने परमां एकत्वबुद्धि नथी; छतां हिंसा-अहिंसादिना परिणाम तो होय छे, पण एनो ते कर्ता नथी, स्वामी नथी. तेथी ए परिणामथी तेने जे बंध थाय छे तेने अहीं गौण गणवामां आवेल छे.

बीजाने हुं मारी-जिवाडी शकुं छुं एवो परिणाम-अध्यवसाय अहंकारयुक्त मिथ्यात्व छे. एवो अध्यवसाय धर्मी जीवने नथी. छतां एने अस्थिरताना कारणे (मारी शकुं, जिवाडी शकुं एम नहि) हिंसा-अहिंसानो विकल्प-परिणाम थाय छे, पण त्यां में हिंसा करी के में दया पाळी-एम ते मानतो नथी. हुं तो निमित्तमात्र


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छुं एम ते माने छे. तेथी ए अस्थिरताना परिणामथी एने किंचित् बंध होवा छतां, एकत्वबुद्धिजनित बंध तेने नहि होवाथी, बंध नथी एम कहेवामां आवे छे.

ज्ञानीने परिपूर्ण अबंधदशा नथी ए अपेक्षा लईए त्यारे, जो के एकत्वबुद्धि नथी छतां, जे अस्थिरताना परिणाम छे ते पण बंधनुं कारण छे एम कहीए. परंतु अज्ञानीने एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय ज मुख्यपणे बंधनुं कारण छे ए अपेक्षाए ज्ञानीने जे किंचित् अस्थिरताना कारणे बंध थाय छे तेने गौण गणी तेने बंध नथी एम कहेवामां आव्युं छे. समजाणुं कांई...?

एम जोईए तो ‘अध्यवसाय’ शब्द चार रीते वपराय छेः- १. मिथ्याश्रद्धानरूप स्व-परनी एकत्वबुद्धिनो अध्यवसाय ते बंधनुं कारण छे, २. परमां सुख छे, पुण्यथी धर्म छे, पापमां मझा छे- ईत्यादि स्व-पर संबंधी मिथ्याबुद्धिसहित विभावभाव ते अध्यवसाय बंधनुं कारण छे.

३. परमां एकत्वबुद्धि न होय छतां परसन्मुखताना जे विभाव परिणाम ज्ञानीने थाय छे ते किंचित् बंधनुं कारण छे. त्यां एकत्वबुद्धिजनित अनंत संसारना कारणरूप बंध नथी तेथी एने गौण गणी बंध गणवामां आवेल नथी ए बीजी वात छे, बाकी ए परिणाम छे ए अपेक्षाए ते अध्यवसाय बंधनुं कारण छे. अहीं ते गौण छे.

४. जे परिणाममां प्रज्ञाछीणी वडे राग ने आत्मानो भेद करीने शुद्ध चैतन्यस्वभावी आत्मामां एकत्व कर्युं छे एवा निर्मळ परिणामने पण अध्यवसाय कहे छे, ते अध्यवसाय मोक्षनुं कारण छे.

आ प्रमाणे ज्यां जे अर्थ थतो होय त्यां यथास्थित ते अर्थ करवो जोईए अज्ञानीने परमां एकताबुद्धिपूर्वक जे अध्यवसाय छे ते बंधनुं ज कारण छे, ज्यारे ज्ञानीने परनी एकताबुद्धिरहित परिणाम होय छे ते मुख्यपणे बंधनुं कारण नथी. भाई! आवो मोटो फेर छे. पोताने मन फावे तेम अर्थ करे ते न चाले. समजाणुं कांई....?

ए तो आगळ आवी गयुं (बंध अधिकारनी शरूआतनी गाथाओमां) के सम्यग्द्रष्टि उपयोगमां रागनुं एकत्व करतो नथी माटे तेने बंध नथी; अस्थिरताना परिणामने त्यां गण्या नथी. ज्यारे मिथ्याद्रष्टि उपयोगमां रागने एक करे छे. शुं कीधुं? के मिथ्याद्रष्टि, पोते छे तो नित्य निरंजन ज्ञानना निर्मळ उपयोगस्वरूप, पण ते उपयोगभूमिमां रागथी एकत्व करे छे अने माटे ते अध्यवसाय तेने बंधनुं ज कारण थाय छे. तथा जे ज्ञानना परिणाम भगवान ज्ञायकना त्रिकाळी निर्मळ उपयोगमां एकत्व करे छे ते अध्यवसाय मोक्षनुं कारण बने छे. आवी वात छे. ज्यां जेम होय तेम योग्य समजवुं जोईए.


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अहीं कहे छे-‘ए रीते अज्ञानथी आ जे हिंसामां अध्यवसाय करवामां आवे छे तेम असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य, अने परिग्रहमां पण जे (अध्यवसाय) करवामां आवे, ते बधोय पापना बंधनुं एकमात्र (-एकनुं एक) कारण छे.’

शुं कीधुं? जूठुं बोलवानी भाषा हुं करी शकुं छुं-ए अध्यवसाय मिथ्यात्व छे, बंधनुं ज कारण छे. बोलवापणे जे वचन छे ते तो भाषावर्गणानुं कार्य छे. भाई! तने जूठुं बोलवाना अशुभ भाव थाय ते भाव अने जूठां वचन साथे तुं एकत्व करे, ते क्रियामां अहंकार करे ते मिथ्या शल्य छे प्रभु! अने ते पापबंधनुं ज एकमात्र कारण छे. आ कोई लोको अमे जूठुं बोलीने अमारां काम होशियारीथी पार पाडीए छीए एम नथी कहेता? अहीं कहे छे- भगवान! ए तारुं मिथ्या शल्य छे अने तने अनंत संसारनुं कारण छे. ल्यो, आवुं! बिचाराओने खबर न मळे अने क्यांय संसारमां रझळी मरे.

तेवी रीते अदत्तग्रहण-बीजानी चीज हुं चोरीने लई शकुं छुं एवो अध्यवसाय पण मिथ्यात्व छे ने पापबंधनुं कारण छे. भाई! अदत्तग्रहणमां थती जडनी क्रियामां अने तने थता चोरीना अशुभभावमां अहंकार करे के केवी अमे सिफतथी चोरी करी? पण ए अध्यवसाय महा पापबंधनुं कारण छे एम कहे छे.

तेवी रीते अब्रह्ममां विषयनो-मैथुननो जे भाव छे ते अशुभभाव छे. त्यां ते मैथुनना अशुभभावनी अने शरीरनी क्रिया जे मैथुननी थाय ते हुं करी शकुं छुं एवो अध्यवसाय मिथ्यात्वभाव छे. अहाहा....! भगवान आत्मा शुद्ध एक ज्ञायकभावमात्र ब्रह्मानंदस्वरूप छे; अने शरीर तो जड भिन्न छे. त्यां विषयसेवनमां शरीरनी क्रिया जे थाय ते हुं करुं छुं एम माने ते मिथ्यात्व छे. तेनुं फळ अनंत संसार छे.

तेम परिग्रहमां हुं वस्त्र राखी शकुं छे, पैसा राखी शकुं छुं, पैसा कमाई शकुं छुं, पैसानी व्यवस्था करी शकुं छुं. सोनुं-चांदी-जवाहरात राखी शकुं छुं. , शरीर, वाणी ईत्यादि परनी क्रिया करी शकुं छुं एवो जे परना परिग्रहरूप एकत्वनो अध्यवसाय छे ते मिथ्यात्व छे अने ते चारगतिरूप संसारमां रखडवानुं कारण छे.

आ प्रमाणे अज्ञानीने असत्य, अदत्त, अब्रह्म, अने परिग्रहमां जे परना एकत्वरूप अध्यवसाय छे ते पापबंधनुं कारण छे.

अहा! वीतरागनो मारग बहु जुदो छे भाई! जे ज्ञाननी पर्यायनुं परिणमन एकलुं परसन्मुखपणे थाय ते मिथ्यात्वसहित होवाथी मिथ्याज्ञान छे अने ते बंधनुं- संसारनुं कारण बने छे. ज्यारे जे ज्ञाननुं परिणमन भगवान ज्ञायकनी सन्मुख थईने थाय ते सम्यग्ज्ञान छे अने ते मोक्षनुं कारण छे. त्यां ज्ञानीने जरा भूमिकायोग्य


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हिंसा, जूठ, अदत्त, अब्रह्म ने परिग्रह संबंधी किंचित् अशुभ राग अस्थिरतामां थाय छे पण तेमां ए बधुं हुं करी शकुं छुं एवा मिथ्या अभिप्रायनो अनंतो रस तेने तुटी गयो होय छे तेथी जे अल्प रस सहित बंध पडे छे तेने अहीं गणतरीमां लीधो नथी, केमके ते निर्जरी जवा खाते होय छे.

एना अस्थिरताना परिणामने मुख्य करीने गणीए तो तेने ए पापबंधनुं कारण छे, पण तेने अहीं गौण करी, अज्ञानीने जे परमां एकत्वबुद्धिसहित अध्यवसाय छे तेने ज पापबंधनुं एकमात्र कारण गण्युं छे.

हवे बीजी वात जरा झीणी. शुं कहे छे? के- ‘अने जे अहिंसामां अध्यवसाय करवामां आवे छे तेम जे सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रहमां पण (अध्यवसाय) करवामां आवे ते बधोय पुण्यना बंधनुं एकमात्र कारण छे.

अहा! अहिंसामां हुं परने जीवाडी शकुं छुं, बीजा जीवोनी दया पाळी शकुं छुं’ एवो जे अध्यवसाय छे ते मिथ्यात्व छे ने पुण्यबंधनुं कारण छे. आवुं ल्यो! भाई! आ तो वीतरागना कायदा बापु!

अहाहा...! त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञ परमात्मा जेने एक समयमां सत्य अने असत्य बधुं ज्ञानमां आव्युं ए भगवाननी वाणीमां आ आव्युं के- परनी अहिंसा करी शकुं छुं, एकेन्द्रियादि छ कायना जीवोनी दया करी शकुं छुं एवो अभिप्राय मिथ्या छे अने ते पुण्यबंधनुं कारण छे. भाई! पुण्यबंधनुं कारण कह्युं माटे हरखावा जेवुं नथी हों; केम के पुण्यने पाप-बन्नेमांय बंधनुं कारण तो अहंकारयुक्त एक मिथ्या अध्यवसाय ज छे. तेथी पुण्य सारुं-भलुं ने पाप खराब एम फेर न पाडवो. बन्ने बंधनी अपेक्षाए समान ज छे.

जेम अहिंसामां तेम सत्यमां- हुं सत्य बोलुं छुं, वा भाषा सत्य करी शकुं छुं एवो अध्यवसाय ते मिथ्यात्वभाव छे. अरे भाई! जे भाषा बोलाय ते तो जड शब्दवर्गणानुं कार्य छे. तेने चेतन केम करे. ? तथापि हुं (-चेतन) आम सत्य वचन बोली शकुं छुं, अने हुं बोलुं तो बोलाय ने न बोलुं तो न बोलाय एम जे माने छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! सत्य बोलवानो भाव अने भाषाना जड परमाणुओनी क्रिया हुं करुं छुं एम जे माने छे ते मिथ्यात्वभाव छे. त्यां सत्य बोलवाना शुभभावथी पुण्यबंध थाय छे पण साथे अनंत संसारनुं बीज एवुं मिथ्यात्व तो ऊभुं ज छे.

तेम दत्तमां, दीधा विना लेवुं नहि, दीधेलुं लेवुं-एवो अचौर्यनो भाव ते शुभभाव छे. त्यां ए शुभभावनो हुं स्वामी छुं, ने दीधेली पर चीज हुं लेवी होय तो लउं, न लेवी होय तो न लउं- एम परद्रव्यनी क्रियानो हुं स्वामी छुं एवो


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अध्यवसाय करे ते मिथ्यात्वभाव छे. भाई! परद्रव्य आवे ते एना कारणे ने न आवे ते पण एना कारणे; एमां तारुं कांई कर्तव्य नथी, छतां ते दीधेलुं हुं लई शकुं छुं आवो शुभ अध्यवसाय पुण्यबंधनुं कारण छे अने भेगुं मिथ्यात्व तो ऊभुं ज छे.

तेम ब्रह्मचर्यमां, ‘हुं शरीरथी ब्रह्मचर्य पाळी शकुं छुं’ एवो अध्यवसाय मिथ्यात्वभाव छे; एनाथी पुण्यबंधन थाय छे. अहा! शरीर तो जड भिन्न द्रव्य छे. आने ब्रह्मचर्य पाळवानो भाव थयो होय त्यां शरीरनी विषयनी क्रिया न थई तो ‘में न करी तो न थई’- एम जडनी क्रियानुं कर्तापणुं माने ते अध्यवसाय मिथ्यात्व छे; केमके शरीरनी क्रिया जे समये जे थाय ते तो तेना रजकणो स्वतंत्रपणे करे छे. त्यां हुं विषय न सेवुं एवो भाव शुभभाव छे तेथी पुण्यबंध थाय छे पण साथे मिथ्यात्व तो ऊभुं ज छे.

तेवी रीते अपरिग्रहमां, हुं परिग्रहरहित छुं, वस्त्र छोडीने नग्न थयो छुं अने घरबार सर्व छोडयां छे-एवो जे अपरिग्रहनो अभिमानयुक्त अध्यवसाय छे ते मिथ्यात्वभाव छे केमके पर वस्तुना ग्रहण-त्याग आत्मामां क्यां छे? अरे भाई! नग्नपणुं ए तो शरीरनी जडनी अवस्था छे. तेनुं तुं (-चेतन) केम करे? अने वस्त्रादि तारामां के दि ‘हतां ते तें छोडयां? वास्तवमां परवस्तुनां ग्रहण-त्याग पोताने माने ए मिथ्यात्वभाव छे. परवस्तुने हुं छोडुं एवो अध्यवसाय पुण्यबंधनुं कारण थाय छे, पण साथे मिथ्यात्व तो ऊभुं ज छे.

आ प्रमाणे पांच अव्रत छे ते पाप छे अने पांच महाव्रत छे ते पुण्य छे; अने ‘ते हुं करुं’ एवो जे अध्यवसाय छे ते मिथ्यात्व छे अने ते पाप ने पुण्यबंधनुं कारण थाय छे. महाव्रतना परिणाम पण हुं करुं एवी जे एकत्वबुद्धि छे ते मिथ्यात्वसहित पुण्यबंधनुं कारण छे, पण जरीय धर्म नथी. समजाणुं कांई....?

कोई लोको वळी कहे छे- शुभभावमां अशुभभावनी जेटली निवृत्ति छे तेटलो धर्म छे अने शुभनो भाव जेटलो छे ते पुण्य-बंधनुं कारण छे. आ शुं कहे छे समजाणुं? एम के भले मिथ्यात्व होय, पण शुभभावमां जेटली अशुभथी निवृत्ति छे तेटली संवर निर्जरा छे अने जे राग बाकी छे ते आस्रव छे. एक शुभभावथी बेय थाय छे- पुण्यबंधेय थाय छे ने संवर-निर्जरा थाय छे.

अरे भाई! आ तो महा विपरीत वात छे. अहीं आ चोकखुं तो छे के- अहिंसादि महाव्रतमां पर तरफना एकत्वबुद्धिना परिणाम जे छे ते मिथ्यात्व छे; ते बधोय अध्यवसाय पुण्यबंधनुं एकमात्र कारण छे, जरीये धर्मनुं (-संवर निर्जरानुं) कारण नथी. अर्थात् मिथ्यात्वसहितनो जे शुभभाव छे ते एकला पुण्य-बंधनुं कारण छे, अने जरीय धर्मनुं (-संवर-निर्जरानुं) कारण नथी.


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* गाथा र६३–र६४ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जेम हिंसामां अध्यवसाय ते पापबंधनुं कारण कह्युं छे तेम असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य अने परिग्रह-तेमनामां अध्यवसाय ते पण पापबंधनुं कारण छे.’

जेम ‘हुं परने मारी शकुं छुं’- एवो अध्यवसाय पापबंधनुं कारण छे तेम ‘हुं जूठुं बोली शकुं छुं,’ पारकी चीज छीनवी शकुं छुं, दीधा विना हुं मारी ताकातथी बीजाने लूंटी शकुं छुं, विषयसेवनादि करी शकुं छुं, स्त्रीना शरीरने भोगवी शकुं छुं तथा धनादि सामग्रीनो यथेष्ट संग्रह करी शकुं छुं-ईत्यादि असत्य, अदत्त, अब्रह्म ने परिग्रह संबंधी जे अध्यवसाय छे ते सघळोय पापबंधनुं कारण छे एम कहे छे.

ल्यो, आमां कोई वळी कहे छे- ‘में कर्युं’ एवुं अभिमान होय तो एमां पापबंध थाय पण ‘करे’- एमां एने बंधनुं कारण न थाय, एम के ‘करी शकुं छुं’ एम माने एमां पापबंध न थाय. एमनुं कहेवुं छे के ‘करी तो शके छे’ पण करे एनुं अभिमान न करवुं.

अहा! आवडो मोटो फेर! अहीं तो एम कहे छे के-‘हुं परनुं करी शकुं छुं’ एवो जे अभिप्राय छे ते ज मिथ्यात्वनो अहंकार छे, अथवा अहंकाररूप मिथ्यात्व छे. तारी मान्यतामां बहु फेर भाई! अरे! भगवानना विरह पडया! केवळी कोई रह्या नहि, अवधिज्ञान आदि ऋद्धिनो अभाव थई गयो ने बापना मूआ पछी ‘बाप आम कहेता हता ने तेम कहेता हता’ एम दीकराओ जेम खेंचताण करी अंदर अंदर लडे तेम आ दुषम काळमां लोको वाद-विवादे चढया छे, मन फावे तेम खेंचताण करे छे.

हवे कहे छे-‘वळी जेम अहिंसामां अध्यवसाय ते पुण्यबंधनुं कारण छे तेम सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य अने अपरिग्रह-तेमनामां अध्यवसाय ते पण पुण्यबंधनुं कारण छे’

जेम हुं जीवदया पाळुं छुं, पर जीवोनी रक्षा करी शकुं छुं-एवो अध्यवसाय पुण्यबंधनुं कारण छे तेम हुं सत्य बोली शकुं छुं, सत्यनी व्याख्या करी शकुं छुं, बीजाने उपदेश दई शकुं छुं एवो अध्यवसाय पण पुण्यबंधनुं कारण छे, तेम दत्तमां एटले दीधेलुं लेवुं तेमां- आ हुं दीधेलुं लउं छुं, दीधा विना न लउ एवो जे अहंकारयुक्त अध्यवसाय छे ते पुण्यबंधनुं कारण छे, भगवान! ते दीधेलुं लीधुं एम माने पण परद्रव्यने लेवुं- देवुं- आत्मामां छे क्यां? भगवान! तुं एक ज्ञायकभाव छे ने? एमां ‘में दीधेलुं लीधुं’- एनो क्यां अवकाश छे? जगतनी प्रत्येक चीज आवे जाय ते स्वतंत्र छे.

तेम ब्रह्मचर्यमां- आ शरीर में ब्रह्मचर्यमां राख्युं छे एवो अध्यवसाय पुण्य-