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कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे। कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कह कया ते।। २५४।। कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे। कम्मं च ण दिंति तुहं कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं।। २५५।। कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे। कम्मं च ण दिंति तुहं कह तं सुहिदो कदो तेहिं।। २५६।।
कर्म च न ददासि त्वं दुःखितसुखिताः कथं कृतास्ते।। २५४।।
कर्म च न ददति तव कृतोऽसि कथं दुःखितस्तैः।। २५५।।
कर्म च न ददति तव कथं त्वं सुखितः कृतस्तैः।। २५६।।
हवे पूछे छे के आ अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
तुं कर्म तो देतो नथी, तें केम दुखित–सुखी कर्या? २प४.
ते कर्म तुज देता नथी, तो दुखित केम कर्यो तने? २पप.
ते कर्म तुज देता नथी, तो सुखित केम कर्यो तने? २प६.
गाथार्थः– [यदि] जो [सर्वे जीवाः] सर्व जीवो [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी [दुःखितसुखिताः] दुःखी-सुखी [भवन्ति] थाय छे, [च] अने [त्वं] तुं [कर्म] तेमने कर्म तो [न ददासि] देतो नथी, तो (हे भाई!) तें [ते] तेमने [दुःखितसुखिताः] दुःखी-सुखी [कथं कृताः] कई रीते कर्या?
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कर्मोदयान्मरणजीवित दुःखसौख्यम्।
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।। १६८।।
[यदि] जो [सर्वे जीवाः] सर्व जीवो [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी [दुःखितसुखिताः] दुःखी-सुखी [भवन्ति] थाय छे, [च] अने तेओ [तव] तने [कर्म] कर्म तो [न ददति] देता नथी, तो (हे भाई!) [तैः] तेमणे [दुःखितः] तने दुःखी [कथं कृतः असि] कई रीते कर्यो?
[यदि] जो [सर्वे जीवाः] सर्व जीवो [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी [दुःखितसुखिताः] दुःखी-सुखी [भवन्ति] थाय छे, [च] अने तेओ [तव] तने [कर्म] कर्म तो [न ददति] देता नथी, तो (हे भाई!) [तैः] तेमणे [त्वं] तने [सुखितः] सुखी [कथं कृतः] कई रीते कर्यो?
टीकाः– प्रथम तो, जीवोने सुख-दुःख खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे, कारण के पोताना कर्मना उदयना अभावमां सुख-दुःख थवां अशक्य छे; वळी पोतानुं कर्म बीजाथी बीजाने दई शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं कर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे; माटे कोई पण रीते बीजो बीजाने सुख-दुःख करी शके नहि. तेथी ‘हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर जीवो मने सुखी-दुःखी करे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे.
भावार्थः– जीवनो जेवो आशय होय ते आशय प्रमाणे जगतमां कार्यो बनतां न होय तो ते आशय अज्ञान छे. माटे, सर्व जीवो पोतपोताना कर्मना उदयथी सुखी-दुःखी थाय छे त्यां एम मानवुं के ‘हुं परने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर मने सुखी-दुःखी करे छे’, ते अज्ञान छे. निमित्तनैमित्तिकभावना आश्रये (कोईने कोईनां) सुखदुःखनो करनार कहेवो ते व्यवहार छे; ते निश्चयनी द्रष्टिमां गौण छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [इह] आ जगतमां [मरण–जीवित–दुःख–सौख्यम्] जीवोने मरण, जीवित, दुःख, सुख- [सर्व सदैव नियतं स्वकीय–कर्मोदयात् भवति] बधुंय सदैव नियमथी (-चोक्कस) पोताना कर्मना उदयथी थाय छे; [परः पुमान् परस्य मरण– जीवित–दुःख–सौख्यम् कुर्यात्] ‘बीजो पुरुष बीजानां मरण, जीवन, दुःख, सुख करे छे’ [यत् तु] आम जे मानवुं [एतत् अज्ञानम्] ते तो अज्ञान छे. १६८.
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पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्।
कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते
मिथ्याद्रशो नियतमात्महनो भवन्ति।। १६९।।
फरी आ ज अर्थने द्रढ करतुं अने आगळना कथननी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः-
श्लोकार्थः– [एतत् अज्ञानम् अधिगम्य] आ (पूर्वे कहेली मान्यतारूप) अज्ञानने पामीने [ये परात् परस्य मरण–जीवित–दुःख–सौख्यम् पश्यन्ति] जे पुरुषो परथी परनां मरण, जीवन, दुःख, सुख देखे छे अर्थात् माने छे, [ते] ते पुरुषो- [अहंकृतिरसेन कर्माणि चिकीर्षवः] के जेओ ए रीते अहंकार-रसथी कर्मो करवाना इच्छक छे (अर्थात् ‘हुं आ कर्मोने करुं छुं’ एवा अहंकाररूपी रसथी जेओ कर्म करवानी- मारवा-जिवाडवानी, सुखी-दुःखी करवानी-वांछा करनारा छे) तेओ- [नियतम्] नियमथी [मिथ्याद्रशः आत्महनः भवन्ति] मिथ्याद्रष्टि छे, पोताना आत्मानो घात करनारा छे.
भावार्थः– जेओ परने मारवा-जिवाडवानो तथा सुख-दुःख करवानो अभिप्राय करे छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे. तेओ पोताना स्वरूपथी च्युत थया थका रागी, द्वेषी, मोही थईने पोताथी ज पोतानो घात करे छे, तेथी हिंसक छे. १६९.
हवे पूछे छे के आ अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
‘प्रथम तो, जीवोने सुख-दुःख खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे,...’ जुओ, आ पाछुं आव्युं. जेम अगाउ ‘जीवोने जीवित खरेखर पोताना आयुकर्मना उदयथी ज छे’-एम कह्युं हतुं तेम अहीं पण लीधुं के ‘जीवोने सुख-दुःख खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे.’ आ व्यवहारनुं कथन छे. अहीं सिद्ध शुं करवुं छे? के जीवोने बीजो कोई सुख-दुःख करी शकतो नथी. आ सिद्ध करवा जीवोने कर्मना उदयथी सुखदुःख थाय छे एम कह्युं छे. बाकी कर्म तो जड छे, एनाथी कांई जीवने सुख-दुःख थाय? न थाय. आने सुखनी सामग्री-पैसा,
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आहार आदि-मळे छे ए तो एना कारणे एना काळे मळे छे अने त्यारे त्यां शाता- वेदनीय आदि पुण्यकर्मना उदयनुं निमित्त छे बस एटलुं ज. बाकी कर्मनो उदय कांई पैसा आदि सामग्रीनो स्वामी नथी के ते पैसा आदि आवे.
अहीं सुख-दुःख एटले अनुकूळ-प्रतिकूळ संयोगनी वात छे. हवे ए अनुकूळ- प्रतिकूळ संयोग तो एना उपादानना कारणे आवे छे, अने एमां पूर्वकर्म निमित्त छे; अनुकूळतामां पुण्यकर्मनुं निमित्त छे ने प्रतिकूळतामां पापकर्मनुं निमित्त छे. आवो निमित्तनैमित्तिकभाव जाणी अहीं कह्युं के-जीवोने सुख-दुःख खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे. अहीं सिद्ध आ करवुं छे के कोई बीजो जीवोने सुख-दुःख करी शकतो नथी. आवी झीणी वात! अहो! दिगंबर संतोए गजब काम कर्यां छे. तत्त्वने पींखी- पींखीने स्पष्ट कर्युं छे.
अहाहा...! शुं कहे छे? के-‘जीवोने सुख-दुःख खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे, कारण के पोताना कर्मना उदयना अभावमां सुख दुःख थवां अशक्य छे.’
जोयुं? जो एने कर्मनो उदय न होय तो सुख-दुःखनी अनुकूळ-प्रतिकूळ सामग्री मळवी शक्य नथी. मतलब के बीजो कोई एने सुख-दुःख करवा समर्थ नथी.
हवे कहे छे-‘वळी पोतानुं कर्म बीजाने बीजाथी दई शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं कर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे.’
‘पोतानुं कर्म’- एम केम कह्युं? केम के आ कर्मनो संबंध बीजा साथे नथी एम बताववुं छे. बाकी कर्म तो जड छे, कर्म क्यां आत्मानुं छे? पण एना पोताना परिणामना निमित्ते उपजेलुं छे माटे पोतानुं कर्म छे एम व्यवहारथी कह्युं छे. कहे छे- पोतानुं कर्म बीजाथी बीजाने दई शकातुं नथी. बीजो कोई पोतानुं कर्म बीजाने आपे अने एने सुखी-दुःखी करे एम बनी शकतुं अथी. अहा! पोताना कर्मना उदयथी ज पोताने अनुकूळ-प्रतिकूळ संयोग मळे छे.
अहा! बीजाथी पोतानुं कर्म बीजाने दई शकातुं नथी. केम? केमके ते पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे. ए सुख-दुःखना जे परमाणु बंधाणा ते एना परिणामथी ज एटले के एना परिणामना निमित्ते बंधाणा छे. आ निमित्त-नैमित्तिक संबंध दर्शाव्यो छे. पूर्वे पोताने जे विभावरूप परिणाम थया ते निमित्त, अने ते ज समये कार्मणवर्गणाना रजकणो स्वयं पोतानी योग्यताथी कर्मरूपे थया ते नैमित्तिक. ए कर्म बंधाणां ते ज काळे जीवना परिणामनुं निमित्त देखीने, ‘पोतानुं कर्म पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे’ एम व्यवहारथी कह्युं. अहीं आटलुं
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सिद्ध करवुं छे के-बीजाथी पोतानुं कर्म बीजाने दई शकातुं नथी, केमके पोताना परिणामना निमित्तथी पोतानुं कर्म बंधाय छे.
अत्यारे तो बधो गोटो उठयो छे के बधुं कर्मथी ज थाय; ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानने रोके इत्यादि.
बापु! ए तो शास्त्रमां निमित्तनुं कथन छे. शुं ए जड कर्म चेतनने रोके? अरे, ए बे वच्चे तो अत्यंताभाव छे. हवे ज्यां अत्यंत अभाव छे त्यां कर्म जीवने शुं करे? कांई नहि. ए तो जीव पोते पोतानी उपादानयोग्यताथी अत्यंत हीणापणे परिणमे छे अने पोते ज पोतानो घात करे छे त्यारे कर्मनुं निमित्त होय छे बस एटलुं ज. भाई! एक तत्त्वने बीजा तत्त्वनी साथे भेळवी नाखे तो एम भळे नहि, पण तारी मान्यता ऊंधी थाय, तने मिथ्यात्व थाय.
हवे कहे छे-‘माटे कोई पण रीते बीजो बीजाने सुख-दुःख करी शके नहि. तेथी हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर जीवो मने सुखी-दुःखी करे छे-एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे.’ ल्यो, हुं परने सुख-दुःख करुं एवो अध्यवसाय निश्चयथी अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. मिथ्याद्रष्टिने आवो अध्यवसाय होय छे अने तेने ते अनंत संसारनुं कारण बने छे.
श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां काया, मन, वचन अने शस्त्र-एम चार बोलथी वात लीधी छे. ‘कायाथी हुं बीजाने सुखी-दुःखी करी शकुं मनथी हुं बीजाने सुखी-दुःखी करी शकुं, वाणीथी हुं बीजाने सुखी-दुःखी करी शकुं के शस्त्रोथी बीजाने कापी शकुं’-एवो अध्यवसाय-अभिप्राय मिथ्यात्वभाव छे; केमके बीजो तो एना कर्मना उदयने लईने सुखी-दुःखी थाय छे.
हुं शस्त्रथी एने कापुं-मारुं ए अध्यवसाय मिथ्यात्व छे. अरे भाई! शस्त्रने तुं अडतोय नथी त्यां शस्त्रने तुं केम चलावे? अहाहा...! भगवान तो एम कहे छे के- प्रत्येक द्रव्य पोताना गुण पर्यायने चुंबे छे, अडे छे; पण परद्रव्यने चुंबतुं नथी, अडतुं नथी. बे भिन्न द्रव्योमां अत्यंताभाव छे. तो पछी मन, वचन, काय, शस्त्र आदि जड पदार्थोथी तुं बीजाने सुखी-दुःखी केम करी शके? न करी शके. तथापि हुं बीजाने सुखी- दुःखी करी शकुं छुं एम तुं माने छे तो तुं मिथ्याद्रष्टि छे. परथी परनुं कार्य थाय, कर्मथी जीवने विकार थाय एवी मान्यता मिथ्याद्रष्टिनी छे. समजाणुं कांई...?
‘जीवनो जेवो आशय होय ते आशय प्रमाणे जगतमां कार्यो बनतां न होय तो ते आशय अज्ञान छे.’
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हुं बीजाने सुखी-दुःखी करुं एम आशय-अभिप्राय राखे पण एम बनतुं नथी, कोई बीजाने सुखी-दुःखी करी शकातुं नथी. तेथी ते अभिप्राय अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे.
‘माटे, सर्व जीवो पोतपोताना कर्मना उदयथी सुखी-दुःखी थाय छे त्यां एम मानवुं के-हुं परने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर मने सुखी-दुःखी करे छे, ते अज्ञान छे.’ अहा! आवी स्पष्ट वात छे.
‘निमित्तनैमित्तिकभावना आश्रये (कोईने कोईनां) सुखदुःखनो करनार कहेवो ते व्यवहार छे; ते निश्चयनी द्रष्टिमां गौण छे.
व्यवहारथी परने परनो कर्ता कहेवामां आवे ए बीजी वात छे, पण वस्तुस्थिति एम छे नहि एम यथार्थ समजवुं जोईए.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘इह’ आ जगतमां ‘मरण–जीवित–दुःख–सौख्यम्’ जीवोने मरण, जीवित, दुःख, सुख-‘सर्व सदैव नियतं स्वकीय–कर्मोदयात भवति’ बधुंय सदैव नियमथी (-चोक्कस) पोताना कर्मना उदयथी थाय छे.
शुं कीधुं? जीवोने जीवन, मरण अने सुख-दुःखना संजोगो मळे ए बधुंय हमेशां नियमथी पोताना कर्मना उदयथी मळे छे. कोई बीजो बीजाना जीवन-मरणने के सुख- दुःखने करे छे एम छे ज नहि.
‘परः पुमान् परस्य मरण–जीवित–दुःख–सौख्यम कुर्यात्-बीजो पुरुष बीजानां मरण, जीवन, दुःख, सुख करे छे ‘यत् तु’ आम जे मानवुं ‘एतत् अज्ञानम’ ते तो अज्ञान छे.
भाई! एक द्रव्य बीजा द्रव्यने करे अर्थात् एक द्रव्य बीजा द्रव्यनी क्रियानो- जीवित मरण, सुख, दुःख इत्यादिनो कर्ता छे एम मानवुं ते अज्ञान छे. अहा! एक द्रव्यने बीजा द्रव्यनो कर्ता माने के ईश्वरने बधायनो कर्ता माने-ए बेय मान्यता एक सरखुं अज्ञान छे. जगतने ईश्वरनो कर्ता माने, वा एक द्रव्यने बीजा द्रव्यनो कर्ता माने ए बन्नेय मिथ्याद्रष्टि छे, दीर्घसंसारी छे.
फरी आ ज अर्थने द्रढ करतुं अने आगळना कथननी सूचनारूप काव्य हवे कहे छेः-
‘एतत् अज्ञानम् अधिगम्य’ आ (-पूर्वे कहेली मान्यतारूप) अज्ञानने पामीने
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‘ये परात् परस्य मरण–जीवित–दुःख–सौख्यम पश्यन्ति’ जे पुरुषो परथी परनां मरण, जीवन, दुःख, सुख देखे छे अर्थात् माने छे ‘ते’ ते पुरुषो..........
अहाहा..! शुं कहे छे? के जे पुरुषो एम माने छे के-परना ईन्द्रिय, मन-वचन- काय, आयु ने श्वासोच्छ्वास-एम प्राणोने हरी शकुं छुं, राखी शकुं छुं वा तेमने ईष्ट- अनिष्ट संजोगो दईने सुखी-दुःखी करी शकुं छुं तेओ मिथ्याद्रष्टि छे.
केवा छे ते पुरुषो? तो कहे छे- ‘अहंकृतिरसेन कर्माणि चिकीर्षवः’ अहंकाररसथी कर्मो करवाना ईच्छक छे, अर्थात् हुं आ कर्मोने करुं छुं-एवा अहंकाररूपी रसथी कर्मो करवानी-मारवा-जिवाडवानी, सुखी-दुःखी करवानी वांछा करनारा छे.
हवे आमांथी बीजा केटलाक ऊंधो अर्थ काढे छे; एम के बीजानुं काम तो करवुं पण एनो अहंकार न करवो; अहंकारनो निषेध छे बाकी परनुं काम न करवुं के परनुं करी शकतो नथी-एम नथी. परने मारी शकीए, जिवाडी शकीए, सुख-दुःख आपी शकीए, पण एनो अहंकार न करवो. भारे (विपरीत) वात भाई!
अरे भाई! तारी समजमां बहु फेर छे बापु! जो परनुं करी शके तो त्यां अहंकार करवामां शुं दोष छे? कांई दोष नथी. अहीं तो कहे छे के- परनुं कर्म-क्रिया आत्मा करी शकतो ज नथी. हुं परनुं करुं-एवो अध्यवसाय ज अहंकाररसथी भरेलो छे- अने ते मिथ्यात्वनो दोष छे. अहाहा...! आत्मा बीजाने आहार पाणी, औषध, वस्त्र, आदि दई शकतो ज नथी, बीजानां जीवन-मरण ते करी शकतो ज नथी ए मूळ सिद्धांत छे. एने आहारादि ईष्ट संयोग आवे ते एना पुण्यकर्मना उदयने लईने छे, तथा एने रोगादि प्रतिकूळता थाय ते एना पापकर्मना उदयने लईने छे. वळी एना प्राणोनुं रक्षण एना आयुकर्मना उदयथी छे तथा एनुं मरण आयुकर्मना क्षयने लईने छे पण कोई जीव कोई अन्यनुं कार्य करे ए मान्यता ज अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. माटे परनुं करवुं खरुं, पण एनो अहंकार न करवो-ए वात नरी भ्रान्ति छे समजाणुं कांई...?
लोको तो एवुं माने के-आपणे एक बीजाने मदद करवी, एकबीजानां काम करवां- ए आपणी फरज छे. पण भाई! त्रिलोकनाथ जैनपरमेश्वरनी आज्ञामां तो आ आव्युं छे के आत्मा, बीजाना प्राणोनी रक्षा करवी, बीजानुं मोत नीपजाववुं के बीजाने आहार- औषधादि सगवडो आपवी इत्यादि परनां कोई पण कार्य करी शकतो ज नथी.
प्रश्नः– बीजाने झेर दईने मारवानो भाव आवे ते क्यो भाव छे?
उत्तरः– ‘हुं झेर दई, एना प्राणोने हरुं’-एवो जे भाव छे ते मिथ्यात्वभाव छे. भाई! मारवानो अभिप्राय मिथ्यात्वभाव छे. अने तेवी ज रीते ‘हुं बीजाना प्राणोनी रक्षा करुं’- एवो बीजाने जिवाडवानो अभिप्राय पण मिथ्यात्वभाव छे. केम?
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केमके तुं तेम करी शकतो नथी. जीव मरे के न मरे ते तो तेना आयुकर्मने लईने छे. आयुनो उदय होय तो न मरे, जीवे; झेरना प्रसंगमां पण जीवे, अने आयुनो क्षय थयो होय तो मरे; जिवाडवानो प्रयत्न होय छतां मरे. आयुकर्मना उदये जीवे ने आयुकर्मना क्षयथी मरे एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. वास्तवमां तो जीवनी देहमां रहेवानी स्थितिनी जेटली योग्यता होय तेटलो काळ ते देहमां रहे अने त्यारे आयुकर्मना उदयनुं नियमथी निमित्त छे तेथी आयुकर्मथी जीवे छे एम व्यवहारथी कहेवाय छे. ते ज प्रमाणे स्थिति पूरी थतां देह छूटे त्यारे आयुकर्मना क्षयथी मर्यो एम व्यवहारथी कहेवाय छे. अहा! वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे भाई!
आ वस्तुस्थिति छे, छतां जेओ परथी परनां जीवन, मरण, सुख-दुःख माने छे तेओ अहंकाररसथी कर्मो करवाना इच्छक छे. छे ने पाठमां के-‘अहंकृतिरसेन कर्माणि चिकिर्षवः’ तेओ अहंकाररसथी कर्मो करवाना ईच्छक छे. आवो अर्थकार श्री जयचंदजीए बराबर चोकखो अर्थ कर्यो छे. परनुं करवुं, पण एनो अहंकार न करवो-एम नहि; पण हुं परनुं कार्य करुं छुं एवा अहंकाररसथी भरेला परनां कार्य करवानी ईच्छावाळा तेओ मूढ अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे एम वात छे. हुं परनुं करुं छुं-ए मान्यता ज अहंकाररसयुक्त मिथ्यात्व छे भाई! शास्त्रना अर्थ करवामां फेर ए आखो द्रष्टिनो फेर छे बापु!
घरमां दस-वीस माणस होय ने आ एकलो रळतो होय एटले माने के हुं बधांने पोषुं छुं. पण एम नथी हों. अहीं कहे छे-तुं बीजाने पोषी शके ज नहि. हुं सौने पोषुं- एम मफतनो अहंकार करीने तुं तारा मिथ्यात्व ने कषायने पुष्ट करे ए बीजी वात छे, बाकी बीजानुं पोषण तुं त्रणकाळमां करी शकतो नथी. घरमां स्त्री होय ते दाळ-भात- शाक-रोटली इत्यादि बराबर करीने टाणे आपे, रोटली उनी-उनी करीने थाळीमां पीरसे एटले आ माने के मारी सगवड बराबर साचवे छे. पण भाई! ए तारी मान्यता साव मिथ्या छे. भाई! ए रोटली आदि कोण करे? ने कोण थाळीमां पीरसे? ए तो पुदगलना रजकणो पोताना कारणे ते ते काळे रोटली आदिरूपे परिणमे छे अने पोतानी पर्यायथी त्यांथी खसीने थाळीमां जाय छे; स्त्री तो तेमां निमित्तमात्र छे. त्यां तुं एम माने के स्त्रीए मने सगवड आपी तो ते तारी मान्यता मिथ्या छे, केमके बीजो बीजानुं काम-कार्य करी शकतो ज नथी. अहा! आवो भगवान जिनेश्वरनो मार्ग समजवो बहु कठण बापा!
आ शेठियाओने घणां अभिमान होय, -एम के अमने पांच-दस करोड रूपिया छे एनाथी आटला बधा नोकरोने निभावीए छीए. धूळेय नथी, सांभळने. शुं रूपिया तारा छे? अने शुं परनां (शरीरादिनां) कार्य तुं करी शके छे? अहा! हुं परनुं करुं छुं एम मिथ्या अभिमान करे, पण परनुं ए कदीय करी शकतो नथी.
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आ वस्तुस्वरूप छे बापु! आत्मामां एवी कोई शक्ति नथी के ते परनुं (शरीर, पैसा के बीजा जीवनुं) कार्य करी शके. दरेक द्रव्य पोते ज पोतानुं कार्य करवा समर्थ छे, एने बीजुं कोई द्रव्य करी शके नहि.
प्रश्नः– तो चरणानुयोगमां एम आवे छे के-श्रावके मुनिने आहारदान आप्युं तो मानो एणे मुनिने मोक्षमार्ग आप्यो. आप तो कोई बीजानुं कांई करे नहि एम कहो छो तो आ केवी रीते छे?
उत्तरः– भाई! ए तो निमित्तनी मुख्यताथी व्यवहारनुं कथन छे. ए तो त्यां निमित्तनैमित्तिक संबंधनुं ज्ञान कराव्युं छे. त्यां श्रावक आहारदान दई शके छे एम सिद्ध नथी करवुं. ए तो मोक्षमार्गमां स्थित मुनिराजने आहार लेवानो विकल्प जे काळमां थयो होय ते ज काळमां श्रावकने आहारदाननो विकल्प थाय छे ने बहारमां आहारनी आववानी क्रिया एनामां जे थवा योग्य होय ते थई होय छे तो व्यवहारथी कहेवामां आवे छे के श्रावके मुनिने आहारदान दीधुं; बाकी आहारनुं दान कोण करे ने कोण ले? परद्रव्यनी क्रिया आत्मा करे ए त्रणकाळमां सत्य नथी.
तेवी रीते मोक्षमार्गमां स्थित मुनिराजने श्रावके कोई मोक्षमार्ग दीधो छे एमेय नथी. मोक्षमार्ग तो बापु! अंतरनी चीज छे भाई! ए तो शुद्ध अंत तत्त्व एक ज्ञायकस्वभावी आत्माना अंतर-अवलंबने प्रगट थाय छे; एने बीजो कोण दे? ए तो त्यां दान अधिकारमां श्रावकने अवश्य आहारदानना परिणाम थता होय छे एटलुं सिद्ध करवा दाननो महिमा प्रगट कर्यो छे. बाकी ए सर्व उपचारकथन जाणवुं. समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-आ जड शरीर ने ईन्द्रियो द्वारा बीजा जीवोने-स्त्री-पुत्र-परिवार आदिने हुं भोगादि सुख आपुं छुं एवी मान्यता अहंकाररसथी भरेली छे अने ते मिथ्यात्व छे, केमके शरीर-ईन्द्रियादि जडनी क्रिया तथा पर जीवोना सुख-दुःखनी क्रिया आत्मा करी शकतो ज नथी. शरीर-इन्द्रियादिनी क्रिया स्वयं एना पुदगलो वडे थाय छे अने बीजा जीवो सौ पोतपोताना भावथी ज सुखी-दुःखी थाय छे. भाई! आवुं ज जैन परमेश्वरे कहेलुं वस्तुनुं स्वरूप छे. अरे! दुनियाए जैनना नामे पण चिदानंदरसने छोडीने अहंकाररसने ज पोष्यो छे!
आ दुकानना थडे बेठो होय ने वेपार-धंधो बराबर चाले, माल आवे ने जाय, पैसा आवे ने जाय, त्यां आ एम माने के-हुं आ बधुं चलावुं छुं तेने कहे छे भाई! ए तारो मिथ्या अहंकार छे; केमके एक एक परमाणुनी प्रतिसमय थती एक एक पर्याय स्वयं ते ते परमाणुथी थाय छे. परमाणुनी क्रिया, कोई बीजो कहे के हुं करुं छुं तो ते एनुं अज्ञान छे. आ रोटलाना बे बटकां थाय ने! तेने हुं करुं छुं एम माने ते मिथ्या अहंकार छे, अज्ञान छे.
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अहा! परद्रव्यनी परिणतिने हुं करुं छुं एवा अहंकाररसथी भरेला, परनां कार्य करवानी वांछावाळा ते पुरुषो ‘नियतम’ नियमथी ‘मिथ्याद्रशः आत्महनः भवन्ति’ मिथ्याद्रष्टि छे पोताना आत्मानो घात करनारा छे.
शुं कीधुं? के हुं परनां कार्य करी शकुं छुं एवा अहंकारथी परनां कार्य करवानी जेओने वांछा छे तेओ नियमथी मिथ्याद्रष्टि छे, पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो घात करनारा छे. परनी रक्षा तो करवी, पण एनो अहंकार न करवो-एम वात नथी आ. आ तो तुं परनी रक्षा करी शकतो ज नथी एम वात छे. तथापि जो परनी रक्षा करवानी तने वांछा छे तो तुं मिथ्याद्रष्टि छो, आत्मघाती छो. आवुं आकरुं लागे एवुं छे. मारग बहु झीणो छे भाई! लोकोए वीतरागना तत्त्वने समज्या विना एम ने एम हांके राख्युं छे. (पण एथी शुं लाभ छे?)
आ मंदिर में बनाव्यां अने अंदर प्रतिमानी प्रतिस्थापना में करी इत्यादि परनी क्रिया में करी एम जेओ माने छे तेओ मिथ्या अहंकारथी भरेला परनां कर्म करवानी वांछावाळा ‘आत्महनः’ आत्मानो घात करनारा महापापी छे. अहा! आत्मानो तो शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव छे. तेने जाणवा-देखवाना स्वभाववाळो न मानतां परनां कर्म करवावाळो मान्यो तेमां पोताना स्वभावनो घात थयो, स्वभावनी हिंसा थई. भाई! आ तो भगवान सर्वज्ञदेवनो आ हुकम छे. समजाणुं कांई...? ‘कांई’ एटले कई पद्धतिथी आ कहेवाय छे अने एमां शुं न्याय छे ते समजाय छे के नहि-एम वात छे. बधुं समजाय तो तो न्याल थई जाय.
प्रश्नः– पण अनासक्तिभावे तो ते परनां कर्म करे ने?
उत्तरः– अरे भाई! तुं शुं कहे छे आ? परनुं करवुं ने अनासक्ति-ए बे भाव साथे होई ज शके नहि. बीजे (अन्यमतमां) एवो उपदेश छे के अनासक्तिभावे परनां काम करवां, परनी सेवा करवी इत्यादि; पण अहीं वीतरागना शासनमां तो आ वात छे के-‘परनुं करी शकुं छुं’ ए ज आसक्ति नाम मिथ्यात्वभाव छे. अहा! केटलुं भर्युं छे आ कळशमां? जुओ ने! हुं परने हणी शकुं छुं, वा तेनो अंगछेद करी दुःखी करी शकुं छुं एवो मिथ्याभाव तो आत्मानी हिंसा करनारो महापापमय छे ज; पण हुं बीजानुं जीवतर करी शकुं छुं, एनी दया पाळी शकुं छुं, वा अनुकूळता दईने सुखी करी शकुं छुं इत्यादि अभिप्राय पण मिथ्याभाव छे अने ते आत्मानो घात करनार महापापमय छे; केमके बीजो बीजाने हणे वा जिवाडे ए वात त्रणकाळमां साची नथी.
कोईने एम थाय के आवो मारग क्यांथी काढयो वळी? तेने कहीए छीए के भाई! आ तो अनंतकाळथी प्रवाहरूपे चाल्यो आवतो मार्ग छे. तें कोई दि’
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सांभळ्यो न होय एटले तने नवो लागे, पण आ तो मूळ सनातन मार्ग छे जेने कुंदकुंद आदि संतोए अहीं प्रसिद्ध कर्यो छे.
अहा! बापु! तें अनंतकाळमां परनां काम कर्यानां मिथ्या अभिमान कर्यां छे. बाकी तुं पोतानी (चैतन्य) सत्ताने छोडीने शुं परनी सत्तामां प्रवेश करे छे के तुं परनां कार्य करी शके? तारुं होवापणुं जे छे ते शुं परनां होवापणामां जाय छे के तुं परनुं करी शके? ना; कदीय नहि. तो पछी तुं परनां काम करी शकतो ज नथी ए न्याय छे. भाई! आ वीतराग परमेश्वरनो मारग न्यायथी छे. कोईने न बेसे एटले कांई सत्य बदलाई जाय! अहा! आ तो वीतरागना न्यायथी सिद्ध थयेली वात! ते कदी न बदलाय बापु!
जुओ, संवत १९९७ मां मुंबईथी एक मोटा वकील आव्या हता. ते कहेता हता के-कोई परद्रव्यनुं कांई करी शके नहि एम आप कहो छो पण (हाथ लांबो करीने कहे) देखो, आ हुं करी शकुं छुं के नहि?
अहा! प्रभु! तने आ शुं थयुं? ए (हाथ लांबो थयो ते) कोणे कर्युं एनी तने खबर नथी ने माने छे के में कर्युं? बापु! ए हाथना रजकणो तो पोते पोताथी ते काळे ए दशारूप थया छे, तेमां तारा आत्माए कांई कर्युं नथी. आत्मा तो एनो जाणनार वा अहंकार करनार छे, पण ए जडनी क्रियानो करनार तो कदीय नथी. अहा! अमे परनी- देशनी, समाजनी सेवा करीए छीए, आंधळा-बहेरां-मूगां लोकोनी शाळाओ चलावीए छीए, सारां सारां मकानो बनावीए छीए, मोटां कारखानां चलावीए छीए इत्यादि परनां काम करवा संबंधी बधी मान्यता मूढ मिथ्याद्रष्टिनी छे. अरे भाई! कोण कोनी सेवा करे? कोण मकानो बनावे? कोण कारखानां चलावे? ए बधुं पुद्गलनुं कार्य एना परमाणुथी थाय छे; एने आत्मा कदीय करी शकतो नथी.
अहा! देवाधिदेव अरिहंत परमात्मा जैन परमेश्वरनी आ आज्ञा छे के-भाई! तुं परनुं कांई करी शकतो नथी. आ पांपण हाले छे ने? ए पांपणने पण तुं हलावी शकतो नथी; केमके ए तो जड पुद्गल-माटी छे, ते आम-तेम थाय छे ए जड परमाणुनी क्रिया तो एना पोताना कारणे थाय छे. हवे एने बदले हुं एने करुं छुं एम माने ए मिथ्या अहंकार छे. अहीं कहे छे-
निश्चयथी परना जीवन-मरणने, परनां सुख-दुःखने हुं करुं छुं एम जेओ देखे छे तेओ मिथ्या अहंकारथी भरेला परनां काम करवानी वांछावाळा मूढ मिथ्याद्रष्टि छे अने ‘आत्महनः’-आत्मानो घात करनारा छे. आत्मानो घात करनारा छे एटले शुं? के आत्मा त्रिकाळ ध्रुव वस्तु छे ते तो जेवी छे तेवी छे, तेनो तो घात थतो नथी, पण पर्यायमां तेनी शांति हणाय छे. हुं आने (-परने) करुं छुं एवा
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मान्यता एनी शान्तिने हणे छे अर्थात् ए मान्यता एनी वीतरागी शान्तिना परिणामने प्रगट थवा देती नथी.
अहा! ‘तेओ मिथ्याद्रष्टि, आत्माना हणनारा छे’-आ शब्दोए तो गजब कर्यो छे. परने हणी शकतो नथी, छतां ‘परने हणी शकुं छुं’-एवी मान्यतामां, कहे छे, पोते हणाई जाय छे; परने जिवाडी शकतो नथी, छतां ‘परने जिवाडी शकुं छुं’-एवी मान्यताथी पोतानुं जीवन हणाई जाय छे; पोते परनां सुख-दुःख करी शकतो नथी, आहार-औषधादि वडे परनो उपकार करी शकतो नथी वा शस्त्रादिना घात वडे परनो अपकार करी शकतो नथी, छतां ‘परनां सुख-दुःख, उपकार-अपकार करी शकुं छुं’-एवी मान्यताथी पोतानो आत्मा हणाई जाय छे. तेथी कह्युं के -‘परनां कार्य हुं करुं’-एवी मान्यता वडे अहंकार करनारा तेओ मिथ्याद्रष्टि आत्माने हणनारा महापापी ज छे. ल्यो, आवी वात छे!
‘जेओ परने मारवा-जिवाडवानो तथा सुख-दुःख करवानो अभिप्राय करे छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे.’
शुं कीधुं? परने मारवा-जिवाडवानो एटले परना प्राणोने हरवानो अने परना प्राणोनी रक्षा करवानो जेने अभिप्राय छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. वळी परनां सुख-दुःख करवानो एटले परने अनुकूळ संयोगो देवानो अने परने प्रतिकूळ संयोगो देवानो जे अभिप्राय करे छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे.
हमणां ईन्दोरमां त्रण-त्रण मंदिरमां चोरी थई. भगवाननी मूर्ति उपाडी गया, अने पोलीसे आठ जणने पकडया. अहा! धर्मना स्थानमां पण चोरी! गजब वात छे ने! अहीं कहे छे-ते मूर्ति चोरवानी क्रिया (तेनुं स्थानांतर थवानी क्रिया) तो तुं करी शकतो नथी. पण हुं परने चोरी शकुं छुं एम अभिप्रायथी चोरवानी वांछा छे ने! अहीं कहे छे-ते मिथ्यात्वभाव छे. अहा! परनी क्रिया करवानो अभिप्राय छे ते मिथ्यात्वभाव छे अने तेवा जीवो मिथ्याद्रष्टि छे. हवे कहे छे-
‘तेओ पोताना स्वरूपथी च्युत थया थका रागी, द्वेषी, मोही थईने पोताथी ज पोतानो घात करे छे, तेथी हिंसक छे.’
जुओ, शुं कहे छे? के हुं बीजाना प्राणोनी रक्षा करी शकुं छुं, वा बीजाने मारी शकुं छुं तथा बीजाने अनुकूळ-प्रतिकूळ संजोगो दई शकुं छुं-इत्यादि जेनो अभिप्राय छे तेओ पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपथी भ्रष्ट थईने रागी, द्वेषी, मोही थईने पोताथी ज पोताना आत्मानो घात करे छे अने तेथी तेओ हिंसक छे. अहा! हुं परनां काम करी शकुं छुं एम माननारे, हुं पोते शुद्ध अखंड एक ज्ञानानंद-
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स्वभावी आत्मा छुं-एम मान्युं नहि तेथी ते पोते पोतानो ज निषेध करतो थको, पोताना शुद्ध ज्ञान-दर्शनरूप चैतन्यप्राणोनी रक्षा नहि करतो होवाथी हिंसक छे.
अहाहा...! आत्मा त्रणे काळ पोताना चैतन्यप्राणोथी-ज्ञान-दर्शन आदि प्राणोथी जीवे छे; ए एनुं वास्तविक जीवतर छे. पण एने भूलीने, एनाथी भ्रष्ट थईने हुं परनुं जीवतर करुं एवो अभिप्राय करे ए तो पोताना शुद्ध प्राणोनो घात करनार पोतानो ज हिंसक छे. आवुं लोकोने आकरुं लागे, पण शुं थाय?
वळी कोई तो कहे छे-परनी दया पाळवी ए जीवनो स्वभाव छे. ल्यो, हवे आवी विपरीत वात! अरे भाई! जीवनो तो एक ज्ञानस्वभाव छे. अहाहा....! ज्ञानमात्र वस्तु भगवान आत्मा छे. तेमां परनुं करवुं आव्युं क्यांथी? भाई! तारी मान्यतामां बहु फेर छे बापा! परनी दया पाळवाना अभिप्रायने तो अहीं मिथ्यात्वभाव कह्यो छे भाई! दयाने ज्यां जीवनो स्वभाव कह्यो छे त्यां ए स्वदयानी वात छे. अहाहा....! जेवो पोते रागरहित वीतराग एक ज्ञानस्वभावी आत्मा छे तेवो पर्यायमां प्रसिद्ध करवो एनुं नाम वास्तविक दया ने अहिंसा छे अने ते आत्मानो स्वभाव छे. बाकी परनी दया पाळवानो राग उत्पन्न करवो ए कांई जीव-स्वभाव नथी; एने जीव-स्वभाव माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, पोतानो ज हिंसक छे.
गजब वात छे भाई! जन्म-मरणथी रहित थवानो मार्ग आखाय जगतथी जुदो-निराळो छे. परने मारवा-जिवाडवानो अभिप्राय, स्वरूपथी च्युत थयेलो एवो विपरीतभाव छे, ए तारा स्वरूपनो घातक छे प्रभु! अहा! आवी वात सांभळवाय भाग्य होय तो मळे, बाकी दुनिया तो आखी रखडवाना पंथे छे. अरे! अनंतकाळमां ए कीडा-कागडा-कूतरा-नारकी ने मनुष्यना अवतार करी करीने मरी गयो छे; तेने ए चोरासीना चक्रावामांथी उगारी लेवानो आ एक ज मार्ग छे; अहा! आ मारग समज्या विना तेनो उद्धार क्यांथी थाय?
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तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।। २५७।।
जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदएण चेव खलु।
तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।। २५८।।
तस्मात्तु मारितस्ते दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या।। २५७।।
तस्मान्न मारितो नो दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या।। २५८।।
हवे आ अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः-
तेथी ‘हण्यो में, दुखी कर्यो’–तुज मत शुं नहि मिथ्या खरे? २प७.
वळी नव मरे, नव दुखी बने, ते कर्मना उदये खरे,
‘में नव हण्यो, नव दुखी कर्यो’–तुज मत शुं नहि मिथ्या खरे? २प८.
गाथार्थः– [यः म्रियते] जे मरे छे [च] अने [यः दुःखितः जायते] जे दुःखी थाय छे [सः सर्वः] ते सौ [कर्मोदयेन] कर्मना उदयथी थाय छे; [तस्मात् तु] तेथी [मारितः च दुःखितः] ‘में मार्यो, में दुःखी कर्यो’ [इति] एवो [ते] तारो अभिप्राय [न खलु मिथ्या] शुं खरेखर मिथ्या नथी?
[च] वळी [यः न म्रियते] जे नथी मरतो [च] अने [न दुःखितः] नथी दुःखी थतो [सः अपि] ते पण [खलु] खरेखर [कर्मोदयेन च एव] कर्मना उदयथी ज थाय छे; [तस्मात्] तेथी [न मारितः च न दुःखितः] ‘में न मार्यो, में न दुःखी कर्यो’ [इति] एवो तारो अभिप्राय [न खलु मिथ्या] शुं खरेखर मिथ्या नथी?
टीकाः– जे मरे छे अथवा जीवे छे, दुःखी थाय छे अथवा सुखी थाय छे, ते खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे, कारण के पोताना कर्मना उदयना
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य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य द्रश्यते।। १७०।।
अभावमां तेनुं ते प्रमाण थवुं (अर्थात् मरवुं, जीववुं, दुःखी थवुं के सुखी थवुं) अशक्य छे. माटे ‘में आने मार्यो, आने जिवाडयो, आने दुःखी कर्यो, आने सुखी कर्यो’ एवुं देखनार अर्थात् माननार मिथ्याद्रष्टि छे.
भावार्थः– कोई कोईनुं मार्युं मरतुं नथी, जिवाडयुं जीवतुं नथी, सुखी-दुःखी कर्युं सुखी-दुःखी थतुं नथी; तेथी जे मारवा, जिवाडवा आदिनो अभिप्राय करे ते तो मिथ्याद्रष्टि ज होय-एम निश्चयनुं वचन छे. अहीं व्यवहारनय गौण छे.
हवे आगळना कथननी सूचनारूप श्लोक कहे छेः- श्लोकार्थः– [अस्य मिथ्याद्रष्टेः] मिथ्याद्रष्टिने [यः एव अयम् अज्ञानात्मा अध्यवसायः द्रश्यते] जे आ अज्ञानस्वरूप *अध्यवसाय जोवामां आवे छे [सः एव] ते अध्यवसाय ज, [विपर्ययात्] विपर्ययस्वरूप (-विपरीत, मिथ्या) होवाथी, [अस्य बन्धहेतुः] ते मिथ्याद्रष्टिने बंधनुं कारण छे.
भावार्थः– जूठो अभिप्राय ते ज मिथ्यात्व, ते ज बंधनुं कारण-एम जाणवुं. १७०.
हवे आ अर्थने गाथा द्वारा कहे छेः-
‘जे मरे छे अथवा जीवे छे, दुःखी थाय छे अथवा सुखी थाय छे, ते खरेेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे, कारण के पोताना कर्मना उदयना अभावमां तेनुं ते प्रमाणे थवुं अशकय छे.’
जीव मरे छे ने जीव जीवे छे एटले शुं? अहाहा...! आत्मा तो अनादिअनंत वस्तु सदा पोताना शुद्ध चैतन्यप्राणोथी जीवित छे, ते कदीय मरतो नथी एवो अमर छे. तो पछी जीव मरे छे ने जीवे छे ए शुं छे? भाई! एने बहारना प्राणो-पांच ईन्द्रियो, मन-वचन-काय, आयुने श्वासोच्छ्वास-नो वियोग थवाथी ए मरे छे एम कहेवाय छे अने ते प्राणोनो संयोग रहे तो ते जीवे छे एम कहेवाय छे. ए ज प्रमाणे एने अनुकूळ साधनोनो संयोग थवाथी ए सुखी छे अने प्रतिकूळ साधनोनो संयोग थवाथी ए दुःखी छे एम लोकमां कहे छे.
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अहीं कहे छे-जे मरे छे अथवा जीवे छे, दुःखी थाय छे अथवा सुखी थाय छे, ते खरेखर पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे. एटले शुं? के बीजो कोई एने मारी के जिवाडी शकतो नथी, बीजो कोई एने दुःखी-सुखी करी शकतो नथी. जे मरे छे ते खरेखर पोताना आयुकर्मना क्षयथी ज मरे छे, कोई बीजानो मार्यो मरे छे एम छे ज नहि. वळी जे जीवे छे ते खरेखर पोताना आयुकर्मना उदयथी ज जीवे छे, कोई बीजानो जिवाडयो जीवे छे एम छे ज नहि. तेवी ज रीते आहार, वस्त्र, पात्र, धन आदि अनुकूळ सामग्री वडे जे सुखी थाय छे ते शातावेदनीयना उदयथी ज सुखी थाय छे अने रोग आदि प्रतिकूळता वडे दुःखी थाय छे ते अशातावेदनीयना उदयथी ज दुःखी थाय छे. एने कोई बीजो सुखी-दुःखी करे छे एम छे नहि. आवी वस्तुव्यवस्था छे.
अहीं, ‘खरेखर कर्मना उदयथी ज’-एम लीधुं छे ने? तो कोई वळी कहे छे- जुओ, कर्मने लईने थाय छे के नहि?
अरे भाई! ए तो निमित्तनी मुख्यताथी वात करी छे. ‘बीजो बीजानां जीवन- मरण, सुख-दुःख करी शके छे’-एवा अभिप्रायनो निषेध करवा ‘खरेखर कर्मना उदयथी ज’ जीवनुं जीववुं-मरवुं तथा सुखी-दुःखी थवुं थाय छे एम अहीं कह्युं छे. बाकी जीव जीवे छे ते पोतानी देहमां रहेवानी स्थितिनी योग्यताथी ज जीवे छे अने जीव मरे छे ते पण तेना देह-वियोगनी ते काळे योग्यता छे तेथी मरे छे. आयुकर्मना क्षयथी मरे छे ने आयुकर्मना उदयथी जीवे छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं ज्ञान करावनारुं व्यवहारनुं कथन छे.
तेवी रीते बहारना आहारादि अनुकूळ संयोगो आवे छे ते तो एना पोताना कारणे पोताथी आवे छे ने तेमां शाताना उदयनुं निमित्त छे तथा रोग आदि प्रतिकूळ संयोगो आवे छे ते पण एना पोताना कारणे आवे छे ने एमां अशाताना उदयनुं निमित्त छे. अहा! बहारना संयोगो-रजकणे रजकण-पोतानी जे ते अवस्था सहित आववाना होय ते ज आवे छे अने ते काळे शाता के अशातानुं निमित्त होय छे; पण निमित्तना कारणे संयोग आवे छे एम नथी. लोकमां कहे छे ने के-‘दाणे दाणे खानारनुं नाम छे;’ मतलब के जे रजकणो जेना संयोगमां जवाना छे ते प्रतिनिश्चितपणे तेना संयोगमां जवाना ज छे; कोई बीजो बीजाने संयोग आपे वा एना संयोग बदली दे एम छे ज नहि.
ए परमाणु-आहार-औषधादिना रजकणो-जे आववा योग्य होय ते तेना काळे संयोगमां पोतानी योग्यताथी ज आवे छे अने तेमां आने शातानुं निमित्त होय छे. हवे त्यां बीजो एम कहे के-‘आ हुं दउं छुं’ तो कहे छे-एम नथी. ‘ए भूखथी पीडातो हतो ने में एने शीरो खवडाव्यो’-एम कोई माने तो कहे छे के
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ए मान्यता यथार्थ नथी, केमके शीरो एने मळ्यो ए तो एना शाताना उदयने लईने मळ्यो छे, एमां तारुं कांई कर्तव्य नथी. ए ज कह्युं ने के-जीवने पोताना कर्मना उदयना अभावमां तेनुं जीवन-मरण, सुखी-दुःखी थवुं अशक्य छे. अहा! बीजो बीजानुं काम करी दे ए अशक्य छे.
हवे कहे छे- ‘माटे में आने मार्यो, आने जिवाडयो, आने दुःखी कर्यो, आने सुखी कर्यो-एवुं देखनार अर्थात् माननार मिथ्याद्रष्टि छे.’
जीवोने जीवन-मरण, सुख-दुःख पोताना कर्मना उदयथी ज थाय छे. आम वस्तुव्यवस्था होवा छतां, जे एम माने छे के- में आने शस्त्रथी मारी नाख्यो, में आने सर्प करडावीने मारी नाख्यो, में आने झेर आपीने मारी नाख्यो- ते मिथ्याद्रष्टि छे, अज्ञानी छे; केमके एना आयुकर्मना क्षय विना कोईनुं मरण थई शकतुं नथी, तेवी रीते जे एम माने छे के- में आने आहार-पाणी, औषधादि वडे जिवाडयो तो ए पण मिथ्याद्रष्टि छे, अज्ञानी छे; केमके एना आयुकर्मना उदय विना कोईनुं जीवन टकी शकतुं नथी.
वळी बीजो जीव सुखी थाय छे ते शाताना उदयना कारणे सुखी थाय छे. हवे एने बदले आ एम माने के में अनुकूळ सामग्री दीधी माटे सुखी थयो तो कहे छे- ते मिथ्याद्रष्टि छे, केमके शाताकर्मना अभावमां कोई सुखी थई शकतुं नथी, ए ज रीते बीजो जीव दुःखी थाय छे ते अशातावेदनीयना उदयथी दुःखी थाय छे. हवे एने बदले आ एम माने के-में प्रतिकूळता दईने दुःखी कर्यो तो ते मिथ्याद्रष्टि छे, केमके अशाता वेदनीयना उदय विना कोई दुःखी थई शकतो नथी. आवी वात छे.
कहे छे-में आने मार्यो, जिवाडयो, सुखी कर्यो के दुःखी कर्यो-एवुं देखनार अर्थात् माननार मिथ्याद्रष्टि छे. मिथ्या अहंकार छे ने एमां? अहीं अहंकार शब्द नथी नाख्यो, पण भाई! हुं बीजाने मारी-जिवाडी शकुं छुं के सुखी-दुःखी करी शकुं छुं- ए अभिप्राय पोते ज मिथ्या अहंकार छे अने ते वडे जीव मिथ्याद्रष्टि छे. कोई एम माने के-आपणे करीए, करी शकीए, पण एनो अहंकार न करवो-तो एम छे नहि. आपणे परनुं करीए वा करी शकीए ए अभिप्राय पोते ज अहंकार रूप मिथ्याभाव छे. एवा अभिप्रायवाळो मिथ्याद्रष्टि छे, एने सत्यनी खबर नथी.
समयसार नाटकमां श्री बनारसीदासे कह्युं छे ने के-
अहाहा...! आ परनां लेवा देवानां, जीवन-मरणनां ने सुख-दुःखनां कार्योनो
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कर्ता थाय ते अज्ञानी छे. परनां कार्य करवानो अभिप्राय सेवे छे ते जाणनार रहेतो नथी. पण जे कर्ता थतो नथी ते जाणनार रहे छे अने ते ज्ञानी छे. अहा! हुं तो एक ज्ञानस्वरूप छुं, परनां कार्यो तो परथी-एनाथी थाय, हुं तो एनो जाणनार मात्र साक्षी छुं एम जाणवामात्रपणे परिणमे ते ज्ञानी छे.
अहाहा......! आत्मा निर्मळानंदनो नाथ प्रभु सदा ज्ञानानंदस्वभावी भगवान छे. तेना अतीन्द्रिय आनंदनी प्राप्तिनो आ उपाय छे. शुं? के- परनी क्रिया हुं करी शकतो नथी, परनां जीवन-मरण के सुख दुःख हुं करी शकतो नथी, परनां कार्यो परमां परथी थाय, हुं तो जाणनार-देखनारमात्र छुं-एम जाणवा-देखवामात्रपणे परिणमवुं ते साचा आनंदनी प्राप्तिनो उपाय छे. भाई! करवानो अभिप्राय ए तो बोजो-दुःख छे, अने जाणवापणे रहेवुं एमां निराकुळ आनंद छे. ज्ञानी सदा निराकुळ आनंदनी मोजमां रहे छे.
‘कोई कोईनुं मार्युं मरतुं नथी, जिवाडयुं जीवतुं नथी, सुखी-दुःखी कर्युं सुखी- दुःखी थतुं नथी; तेथी जे मरवा, जिवाडवा आदिनो अभिप्राय करे ते तो मिथ्याद्रष्टि ज होय-एम निश्चयनुं वचन छे.
आ पुरुषो बधा स्त्री-पुत्र-परिवारने जिवाडे छे के नहि? अने आ बधा शेठिया नोकरोने जिवाडे छे के नहि?
भाई! कोण जिवाडे? हुं परने जिवाडुं-एवो अहंकार छे ए तो मिथ्यात्वशल्य छे. ए शल्यना कारणे भगवान! तुं नरक निगोदना ने कीडी-कीडाना अनंत-अनंत भव करीने मरी गयो छे. भाई! तारा अपार-पारावार दुःखने जोनारा पण कंपी ऊठे एवा तें दुःख सहन कर्यां छे. ए दुःख केम कह्यां जाय? भाई! ए दुःखथी उगरवुं होय तो सुलटी जा, परनां कार्य करुं-ए अभिप्राय छोडी दे. आ छोकरांने पाळुं-पोषुं, मोटा करुं ने सुखी करुं-ए वात जवा दे अने अंदर ज्ञानानंदस्वभावी भगवान विराजी रह्यो छे तेमां जा, तने अतीन्द्रिय सुख थशे.
अहा! कोई कोईनुं कांई करी शकतुं नथी ए मूळ सिद्धांत छे. तेथी जे बीजाने मारवा-जिवाडवा आदिनो अभिप्राय करे छे ते नियमथी मिथ्याद्रष्टि छे. आ निश्चयनुं वचन छे एटले आ सत्यार्थ छे. अहीं व्यवहारनय गौण छे. आणे आने मार्यो-जिवाडयो एम व्यवहारथी कहेवाय पण वस्तुस्वरूप एम नथी. तेथी अहीं व्यवहारनय गौण छे. आवी वात छे.
हवे आगळना कथननी सूचनारूप श्लोक कहे छेः-
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‘अस्य मिथ्याद्रष्टेः’ मिथ्याद्रष्टिने एटले जेनी जूठी द्रष्टि छे, सम्यक्द्रष्टिथी विरुद्ध असत्यद्रष्टि छे तेने ‘यः एव अयम् अज्ञानात्मा अध्यवसायः द्रश्यते’ जे आ अज्ञानस्वरूप अध्यवसाय जोवामां आवे छे ‘सः एव’ ते अध्यवसाय ज, विपर्ययात्’ विपर्ययस्वरूप होवाथी, ‘अस्य बन्धहेतुः’ ते मिथ्याद्रष्टिने बंधनुं कारण छे.
अहाहा...! शुं कहे छे? के में आने जिवाडयो, आ बधां छोकरांने पाळी-पोषीने मोटां कर्यां, भणाव्यां-गणाव्यां, सारा संस्कार दईने संस्कारी कर्यां-ईत्यादि बधो अज्ञानरूप अध्यवसाय छे.
जुओ, जे परिणाम मिथ्या अभिप्राय सहित होय (-स्वपरना एकत्वना अभिप्राय सहित होय) अथवा वैभाविक होय ते परिणाम माटे अध्यवसाय शब्द वपराय छे.
त्यारे कोई वळी कहे छे- बीजाने मारवा जिवाडवानो अध्यवसाय एटले अभिप्राय बंधनुं कारण छे, अर्थात् जे एकत्वबुद्धि होय ते बंधनुं कारण छे, पण एवो भाव नहि.
अरे भाई! अध्यवसायनो अर्थ भाव पण थाय ने एकत्वबुद्धि थाय-एम एना बे अर्थ थाय छे.
त्यारे ते कहे छे- जिवाडवानो भाव छे ए तो प्रशस्त ज छे, एनुं फळ पण प्रशस्त ज छे. (एटले के एनुं फळ मोक्ष छे)
प्रवचनसारमां श्रावकना अधिकारमां (गाथा रपप मां) ‘रागो पसत्थभूदो ‘एम आवे छे. त्यां आशय एम छे के जे प्रशस्त पद (तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बळदेव आदि पद) मळे छे ते एने (-सम्यग्द्रष्टिने) प्रशस्तराग-स्वरूप शुभोपयोगथी मळे छे, ल्यो, आमांथी ते आवो अर्थ काढे छे के- प्रशस्तरागथी प्रशस्तपद मळे अने ए पदथी मोक्ष थाय; माटे प्रशस्तराग बंधनुं कारण नथी. परंतु भाई! प्रशस्तराग पण छे तो बंधनुं ज कारण. अहीं सम्यग्द्रष्टिना प्रसंगमां ए गौण छे ए बीजी वात छे.
वळी कोई लोको एम कहे छे के-समयसारना पुण्य-पाप अधिकारमां (गाथा १४७मां) जे शुभाशुभ कर्म साथे राग अने संसर्गनो निषेध करवामां आव्यो छे ते जडकर्मनी वात छे, शुभाशुभ भाव साथे राग अने संसर्गनो निषेध नथी कर्यो.
अरे भाई! शास्त्रमां (स. गा. १प३ मां) अमृतचंद्राचार्ये ‘कर्म’ शब्दनो अर्थ करतां व्रत, नियम, शील, तप, वगेरे बधाने कर्म कह्युं छे. वळी प्रशस्त रागना हेतु, स्वभाव, अनुभव अने आश्रय- एम चार भेदनो निषेध करीने शुभाशुभ कर्म एक ज छे एम सिद्ध कर्युं छे. एटले शुभाशुभ परिणाम पण कर्म कहेवाय छे अने एनुं बंधन पण कर्म कहेवाय छे. भाई! शास्त्रना अभिप्राय साथे पोतानी द्रष्टि केळववी जोईए. पोतानी द्रष्टिए शास्त्रना ऊंधा अर्थ करे ए तो महा विपरीतता छे.
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अध्यवसायना आटला अर्थ छे.ः- जे परिणाम स्व-परना एकत्वना अभिप्राय सहित होय अथवा वैभाविक होय ते परिणाम माटे अध्यवसाय शब्द वपराय छे. कोई ठेकाणे स्व-परनी एकत्वबुद्धि सहित होय ते परिणामने अज्ञानस्वरूप अध्यवसाय अथवा मिथ्या अभिप्राय कहेवामां आवे छे.
वळी कोई ठेकाणे एकला (स्वपरनी एकत्वबुद्धि रहित) परिणाम होय तेने पण अध्यवसाय कहेवामां आवे छे; अने
कोई ठेकाणे निर्मळ (शुद्ध) परिणाम माटे पण अध्यवसाय शब्द वपरायो छे. अहीं कहे छे-जे आ अज्ञानस्वरूप अध्यवसाय जोवामां आवे छे ते अध्यवसाय विपर्ययस्वरूप-मिथ्या होवाथी ते मिथ्याद्रष्टिने बंधनुं कारण छे.
भाई! आने (-परने) हुं मारी-जीवाडी शकुं के सुखी-दुःखी करी शकुं, सुख- दुःखनां साधनो दई शकुं’-ए बधी आत्माना ज्ञानस्वरूपथी तद्न विपरीत मान्यता छे; आत्माना स्वभावथी विरुद्ध भाव होवाथी तेने विभाव परिणाम कहो के अध्यवसाय कहो-ए अध्यवसाय ज मिथ्याद्रष्टिने बंधनुं कारण छे.
भाई! हुं परने जिवाडुं-एम अध्यवसाय तुं करे पण त्रणकाळमां एम करी शके नहि. एनुं आयु होय तो जीवे ने न होय तो न जीवे; पण तारुं जिवाडयुं जीवे एम त्रणकाळमां बनी शके नहि. आ शेठियाओ बहु धनवान होय अने घणा नोकरो राखे ने माने के अमे बधाने नभावीए छीए तो कहे छे-धूळेय नभावतो नथी तुं, सांभळने. ‘हुं परने नभावुं छुं’-ए मान्यता ज तारी जूठी छे, केमके जगतनी प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र छे.
अहाहा...! भगवान तुं सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु अखंड एक ज्ञानमात्र वस्तु स्वतंत्र छो. तने खबर नथी प्रभु! पण तुं शाश्वत ज्ञान अने आनंदनो भंडार अंदर सदा परमात्मस्वरूपे शाश्वत बिराजमान छो. अहा! तारा आनंद-सुखनी प्राप्ति प्रभु! ताराथी ज (स्वना आश्रयथी ज) थाय छे; पण पर मने सुखी करशे के परने कंईक दउं तो हुं सुखी थईश ए मान्यता ज मिथ्या शल्य छे, बंधनुं कारण छे समजाणुं कांई...?