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प्रश्नः– तो पछी परनी दया करवी के नहि? उत्तरः– कोण करे? शुं परनी दया करी शके छे? भाई! परनी दयानो विकल्प आवे खरो; पण एनाथी परजीवनुं जीवन टके छे एम छे नहि. बीजाथी बीजानुं जीवन करी शकातुं नथी ए सिद्धांत छे.
ज्ञानीनी वात करी हती ने? (अगाउनी गाथामां) के ज्यारे आत्मा (ज्ञानी) स्वरूपमां लीन ध्यानदशामां होय त्यारे ‘आने जिवाडुं’ एवो विकल्पेय एने होतो नथी, पण ज्यारे ध्यानमांथी बहार आवे त्यारे प्रमादवश ‘आने जिवाडुं’ एवो कदाचित् विकल्प आवे छे, पण त्यां ‘एने जिवाडी शकुं छुं’ एम ते मानतो नथी. जिवाडवाना विकल्पकाळेय ज्ञानी एम माने छे के- एनुं आयुष्य हशे तो ए बचशे-जीवशे, हुं तो तेमां निमित्तमात्र छुं. आवी वात! बापु! जन्म-मरणना दुःखोथी मूकावानो वीतराग मार्ग बहु सूक्ष्म छे भाई!
अहीं अज्ञानीनी वात करे छेः- ‘पर जीवोने हुं जिवाडुं छुं अने पर जीवो मने जिवाडे छे-एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते जीव अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे.’
अहा! पर जीवोनो हुं जीवनदाता अने पर जीवो-दाकतर वगेरे मारा जीवनदाता- एवो अध्यवसाय, कहे छे, ध्रुवपणे एटले निश्चयथी अज्ञान छे. भाई! दरेक जीव पोताना शरीरनुं आयुष्य होय तो जीवे छे; कोईनो जिवाडयो जीवे छे एम छे ज नहि. दाकतर अज्ञानी होय ते एम माने के-औषध-ईन्जेकशन आदि वडे में एने जिवाडी दीधो, बचावी दीधो; पण एम छे नहि. ‘हुं बीजाने जिवाडी दउंने बीजा मने जिवाडी दे’-ए तो मिथ्या श्रद्धान छे अने तेथी एवुं माननार मिथ्याद्रष्टि छे.
ज्ञानीने पण परने जिवाडवानो विकल्प आवे छे, मुनिराजने पण छकायना जीवनी रक्षानो विकल्प होय छे; पण ए तो अस्थिरतानो विकल्प बापु! मारो जिवाडयो ते जीवशे एम ज्ञानीने छे ज नहि. जीवनुं जीवन तो ते ते काळनी तेनी योग्यताथी छे अने मने जे विकल्प आव्यो छे ते तो तेना जीवननी स्थितिमां (-जीववामां) निमित्तमात्र छे एम ज्ञानी यथार्थ माने छे. समजाणुं कांई...?
प्रश्नः– कोईने बचावी शकातो होय तो ज बचाववानो विकल्प आवे ने? उत्तरः– एम नथी बापु! बीलकुल एम नथी. ए तो पोताना प्रमादना (- अस्थिरताना) कारणे जरी विकल्प आवे, पण मारा विकल्पने कारणे सामो जीव बच्यो छे एम ज्ञानी त्रणकाळमां मानतो नथी. बीजाना जीवनमां (-जीववामां) हुं तो निमित्तमात्र छुं, एनो कर्ता नहि एम ज्ञानी यथार्थ माने छे. ज्यारे बीजाना
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जीवनमां जे निमित्तरूप छे एवा विकल्प-रागनो अने योगनो (-कम्पननो) अज्ञानी कर्ता-स्वामी थतो होवाथी तेने निमित्तकर्तानो आरोप देवामां आवे छे.
जयपुर खाणिया-चर्चामां प्रश्न थयो हतो के-पर जीवोनी रक्षा करवी ते दया धर्म छे के नहि? जीवदया-अहिंसा ए जीवनो स्वभाव छे, धर्म छे.
समाधानः– भाई! जीवदया-अहिंसा ए जीवनो स्वभाव छे ए तो बराबर छे. पण अहिंसानो अर्थ शुं? अहिंसा एटले पोतामां (स्वना आश्रये) रागनी उत्पत्ति न करवी अने वीतरागी पर्यायनी उत्पत्ति करवी एनुं नाम स्वदया-जीवदया अहिंसाधर्म छे अने ए जीवनो स्वभाव छे. पण ‘हुं परने जिवाडुं’-ए तो विकल्प-राग छे अने ते पुण्यबंधनुं कारण छे. ए (-राग) कांई जीवनो स्वभाव नथी. तथापि एने (-रागने, जिवाडवाना विकल्पने) जीवनो स्वभाव माने तो ए मान्यता मिथ्यादर्शन छे. ‘हुं परने जिवाडी शकुं छुं’-ए मान्यता मिथ्यात्व छे भाई!
कोई कहे के- परनी दया पाळवानो, परने जिवाडवानो आत्मानो स्वभाव छे तो ते बीलकुल जूठी वात छे. तो ते कहे छे-दया-अहिंसाने जीवनो स्वभाव कह्यो छे ने? ‘अहिंसा परमो धर्मः’ एम कह्युं छे ने?
हा; पण ते आ-के आत्मा पोते शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप प्रभु अखंड एक ज्ञायकभावस्वभावी-वीतरागस्वभावी त्रिकाळी ध्रुव छे; तेनो आश्रय करीने तेमां स्थिर रहेवुं, रमवुं, ठरवुं एनुं नाम दया ने अहिंसा छे अने ते परम धर्म छे. स्वदया ते आत्मानो स्वभाव छे, पण परनी दया पाळवी ए कांई जीव-स्वभाव नथी. अहा! आयुष्य जे परनुं छे तेने हुं करुं ए तो परने पोतानुं मानवारूप महा विपरीतता थई. परने पोतानुं मानवुं ने जिवाडवाना रागने पोतानो स्वभाव मानवो एमां तो पोताना चैतन्यस्वभावनो-त्रिकाळी जीवननो निषेध थाय छे अने ते खरेखर हिंसा छे. अहा! पोते जेवो सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे तेवो तेने न मानतां राग मारो स्वभाव छे, राग जेटलो हुं छुं एम मानवुं ते हिंसा छे, केमके एवी मान्यतामां पोतानो घात थाय छे ने? अरे! परने हुं जिवाडुं एवो अभिप्राय सेवीने एणे पोताने अनंतकाळथी मारी नाख्यो छे!
वीतरागनो अहिंसानो मारग महा अलौकिक छे भाई! हुं परने जिवाडी शकुं छुं, परने जिवाडवुं ए मारो धर्म छे, ए जीवनो स्वभाव छे-एम जे माने छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे, केमके परने ते जिवाडी शकतो नथी.
तो दया धर्म शुं छे? अहा! आत्मा शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी प्रभु त्रिकाळ वीतरागस्वभावी-दयास्वभावी
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छे. तेमां अंतर्द्रष्टि करतां पर्यायमां रागनी उत्पत्ति न थतां चैतन्यनी निर्मळ परिणतिनी- वीतराग परिणतिनी-उत्पत्ति थवी ते दयाधर्म छे. ते आत्मरूप छे, आत्माना स्वभावरूप छे. आवो दयाधर्म सम्यग्द्रष्टिने होय छे, अज्ञानीने होतो नथी.
विकल्पना काळमां सम्यग्द्रष्टिने परनी रक्षा करवानो विकल्प कदाचित् होय छे, तोपण ते विकल्पमां, हुं परनी रक्षानो करनारो छुं एवो आत्मभाव नथी, अहंभाव नथी ते तो जाणे छे के पर जीवनुं जीवन तो तेनी योग्यताथी तेना आयुना कारणे छे, तेमां मारुं कांई कर्तव्य नथी; हुं तो निमित्तमात्र छुं. अहा! धर्मी पुरुष तो परना जीवन समये पोताने जे पर-दयानो विकल्प थयो ने योगनी क्रिया थई तेनो पण जाणनार-मात्र रहे छे, कर्ता थतो नथी, तो पछी परना जीवननो कर्ता ते केम थाय? बापु! परनी दया हुं पाळी शकुं छुं एवी मान्यता मिथ्यात्व ने अज्ञानभाव छे, ए दीर्घ संसारनुं कारण छे. भाई! वीतराग मारगनी आवी वात सर्वज्ञ परमेश्वरना शासन सिवाय बीजे क्यांय नथी.
स्थानकवासीमां आवतुं के-
अहाहा...! ए कई दया बापु? दया शब्दनो अर्थ अने एनुं वाच्य शुं? तो कहे छे-निर्मळानंदनो नाथ अनंत अनंत शक्तिनो भंडार सच्चिदानंदस्वरूप भगवान पोते छे. आवा पोताना आत्मानी प्रतीति करीने तेमां एकाग्र थई स्थित थवुं, तेमां ज लीन थई रहेवुं ते दया छे ने ते सुखनी खाण छे. आवी ज दया धारीने अनंत जीव मुक्ति गया छे, पण शुभजोगरूप परदयानी क्रियाथी मुक्तिए गया छे एम नथी. भाई! शुभजोगनी क्रिया-दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना विकल्परूप रागनी क्रियाथी मुक्ति थशे एवी तारी मान्यता खोटी छे. अहाहा...! शुभजोगनी क्रिया-विकल्पथी रहित निर्विकल्प नित्यानंद प्रभु आत्मानी अंदरमां रुचि करी नहि तो ए बधी क्रिया फोगट जशे, कांई काम नहि आवे. समजाणुं कांई....?
भाई! आ तो त्रणलोकना नाथ वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो असाधारण मार्ग छे. शुं कीधुं? एक ‘क’ बोले एटला काळमां असंख्य समय जाय; एवा एक समयमां जे त्रणकाळ-त्रणलोकने देखे-जाणे छे एवा सर्वज्ञ प्रभुनो आ मार्ग छे. अहा! ते एक समयनुं शुं सामर्थ्य!! ए सर्वज्ञ प्रभुए वस्तुनी स्थिति जेवी ज्ञानमां जोई तेवी दिव्यध्वनिमां कही छे. ते दिव्यध्वनिमां आ आव्युं के-हुं परने जिवाडी शकुं छुं ने पर मने जिवाडी शके छे-एवी वस्तुनी स्थिति नथी. अहा! आ स्त्री कुटुंब-दीकरा-दीकरीओ ईत्यादिनुं हुं भरण-पोषण करी तेमने नभावुं छुं ए
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मान्यता कहे छे, मिथ्यात्वभाव छे. भाई! पर जीवनी पर्यायने कोण उत्पन्न करे? एने कोण टकावे? एनो कोण व्यय करे? उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ए तो द्रव्यनो पोतानो स्वभाव ज छे. तो पछी परनुं जीवन-मरण कोण करी शके?
जुओ, मुनिराज पंचमहाव्रतधारी होय छे. तेमां एक अहिंसामहाव्रत छे. हवे त्यां अहिंसानो-पर जीवोनी रक्षानो जे विकल्प आवे छे तेमां जो कोई एम माने के हुं परनी दया करी शकुं छुं, छकायना जीवोनी रक्षा करवी मारुं कर्तव्य छे तो, अहीं कहे छे, ते मिथ्यात्वभाव छे. बहु आकरी वात, बापा! पण आ सत्य छे. ज्ञानीने, पोताना स्वरूपमां स्थिर न होय त्यारे, प्रमादवश अस्थिरताना कारणे पर जीवनी रक्षानो विकल्प आवे छे ए जुदी वात छे; पण ते कांई ए विकल्पने पोतानुं कर्तव्य मानता नथी, विकल्पना ते कर्ता थता नथी; पछी पर जीवना जीवनना कर्तापणानी तो वात ज क्यां रही? पर जीवनुं जीवन छे ते तेनी ते काळे उपादान-योग्यताथी छे, पोते तो तेमां निमित्तमात्र छे-आवुं ज्ञानी यथार्थ जाणे छे.
प्रश्नः– पण निमित्त तो थवुं ने? उत्तरः– (निमित्त) थवानो प्रश्न ज क्यां छे? ज्यारे उपादान-योग्यताथी एनी पर्याय एनामां थाय छे त्यारे आने एवो ज विकल्प होय छे अने त्यारे तेने निमित्त कहेवामां आवे छे, बन्नेनो-एना जीवननो (-जीववानो) अने आना विकल्पनो समकाळ-छे, एक ज काळ छे. ज्यारे ते जीवनुं आयुष्य छे ते ज काळे आने विकल्प आव्यो छे; पण एम तो नथी के ए विकल्पथी सामो जीव जीवे छे. तेथी निमित्त थवानी चेष्टा करवी ए तो कर्तापणानी मान्यता रूप अज्ञान ज छे.
अहा! शैली तो जुओ आचार्यनी! अहा! सत्नुं शरण कोने कहीए? ‘केवलीपण्णत्तं धम्मं शरणं पव्वज्जामि’-भगवान केवळीए कहेलो धर्म शरण छे. ते धर्म कोने कहीए? के रागरहित वीतराग परिणतिनी-निर्मळ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी- उत्पत्ति थवी ते धर्म छे अने ते ज अहिंसा परम धर्म छे. आ सिवाय कोई पर जीवनी दयाना विकल्पने-रागने वास्तविक अहिंसाधर्म माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. आकरी वात प्रभु! पण आ वस्तुस्वरूप छे.
परनी दयानो विकल्प-राग आवे त्यां अज्ञानी ते विकल्पनो कर्ता थाय छे. एटले परनी क्रियानो हुं निमित्तपणे कर्ता छुं एम ते माने छे. शास्त्र भण्यो होय एटले उपादानपणे तो हुं कांई न करी शकुं एम कहे पण निमित्तपणे तो बीजाना जीवननो कर्ता छुं एम ते माने छे. तेथी निमित्त तो थवुं ने!-एम निमित्त थवानी चेष्टा करे छे. अहा! पर जीवना जीवननो जे निमित्तकर्ता थाय ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. अहा! हुं परने जीवाडुं छुं ने पर मने जीवाडे छे एवो अध्यवसाय जेने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, दीर्घसंसारी छे.
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हवे कहे छे-‘अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते जीव ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.’
सम्यग्द्रष्टिने ज्यारे पर तरफनुं लक्ष जाय त्यारे परने बचावुं, अभयदान दउं- एवो विकल्प आवे, पण ते समये तेने अंतरमां एवो द्रढ निश्चय छे के हुं एनो जीवनदाता नथी, हुं परने अभयदान दई शकतो नथी. एनुं जीवन तो एना कारणथी छे, मारो विकल्प तो तेमां निमित्तमात्र छे, निमित्तकर्ता नहि. आवुं यथार्थ जाणे ते ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.
भावार्थः– ‘पर मने जिवाडे छे अने हुं परने जिवाडुं छुं-एम मानवुं ते अज्ञान छे. जेने ए अज्ञान छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; जेने ए अज्ञान नथी ते सम्यग्द्रष्टि छे.’ ल्यो, आवो स्पष्ट भावार्थ छे.
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कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्–
आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू। आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं।। २५१।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू। आउं च ण दिंति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं।। २५२।।
आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषाम्।। २५१।।
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः।
आयुश्च न ददति तव कथं नु ते जीवितं कृतं तैः।। २५२।।
हवे पूछे छे के आ (जीवननो) अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
तुं आयु तो देतो नथी, तें जीवन कयम तेनुं कर्युं? २प१.
छे आयु–उदये जीवन जीवनुं एम सर्वज्ञे कह्युं,
ते आयु तुज देता नथी, तो जीवन कयम तारुं कर्युं? २प२.
गाथार्थः– [जीवः] जीव [आयुरुदयेन] आयुकर्मना उदयथी [जीवति] जीवे छे [एवं] एम [सर्वज्ञाः] सर्वज्ञदेवो [भणन्ति] कहे छे; [त्वं] तुं [आयुः च] पर जीवोने आयुकर्म तो [न ददासि] देतो नथी [त्वया] तो (हे भाई!) तें [तेषाम् जीवितं] तेमनुं जीवित (जीवतर) [कथं कृतं] कई रीते कर्युं?
[जीवः] जीव [आयुरुदयेन] आयुकर्मना उदयथी [जीवति] जीवे छे [एवं] एम [सर्वज्ञाः] सर्वज्ञदेवो [भणन्ति] कहे छे; पर जीवो [तव] तने [आयुः च] आयुकर्म तो [न ददति] देता नथी [तैः] तो (हे भाई!) तेमणे [ते जीवितं] तारुं जीवित [कथं नु कृतं] कई रीते कर्युं?
टीकाः– प्रथम तो, जीवोने जीवित खरेखर पोताना आयुकर्मना उदयथी ज
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छे, कारण के पोताना आयुकर्मना उदयना अभावमां जीवित करावुं (-थवुं) अशक्य छे; वळी पोतानुं आयुकर्म बीजाथी बीजाने दई शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं आयुकर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे (-मेळवाय छे); माटे कोई पण रीते बीजो बीजानुं जीवित करी शके नहि. तेथी ‘हुं परने जिवाडुं छुं अने पर मने जिवाडे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (-नियतपणे) अज्ञान छे.
भावार्थः– पूर्वे मरणना अध्यवसाय विषे कह्युं हतुं ते प्रमाणे अहीं पण जाणवुं.
हवे पूछे छे के आ (जीवननो) अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तेनो उत्तर कहे छेः-
‘एवं भणंति सव्वण्हू’–एम सर्वज्ञदेवो कहे छे. शुं? के-‘जीव आयुकर्मना उदयथी जीवे छे-एम सर्वज्ञदेवो कहे छे.’
हवे आमांथी केटलाक उंधुं ले छे के-जुओ, कुंदकुंदाचार्य कहे छे के-‘सर्वज्ञदेवो एम कहे छे’ (भणंति सव्वण्हू). ल्यो, आवो गाथामां चोकखो पाठ छे अने तमे कहो छो के जीव भाषा करी शके नहि. (आमां खरुं शुं?).
अरे भाई! ए तो वाणीना काळे निमित्त कोण हतुं एनुं ज्ञान कराववा ‘भणन्ति सव्वण्हू’–एम व्यवहारथी कह्युं छे. पण एनो अर्थ एम नथी के सर्वज्ञदेव (जीव) भाषा करी शके छे. भाषा तो भाषाथी ज थई छे, भगवान सर्वज्ञदेवे भाषा करी छे एम छे नहि.
हवे नयथी यथार्थ समजे नहि अने वांधा काढे के-भगवाने कह्युं छे एवो चोकखो पाठ तो छे?
भाई! ए कई अपेक्षाए कथन छे? भगवाने भाषा करी छे एम त्यां बताववुं नथी. भगवान तो जाणनार छे, पण ए वाणीना काळे भगवान (योग) निमित्त हता तेथी निमित्तथी ‘भगवान कहे छे’-एम कथन छे. बाकी ते काळे भाषानी पर्यायना उत्पादनो स्वकाळ हतो तो स्वतंत्रपणे भाषावर्गणाना परमाणुओ शब्दरूपे पोताना उपादानथी परिणमी गया छे अने तेमां भगवान (योग) ते काळे निमित्त हता. ‘भगवान कहे छे’-एनो आ अर्थ छे. एम तो आचार्य कुंदकुंदे पहेली गाथामां ‘वोच्छामि’–हुं समयसार कहुं छुं-एम कह्युं छे. पण भाई! ए तो संक्षेपमां
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निमित्तनी मुख्यताथी कथन करवानी व्यवहारनी एवी शैली छे. तेने यथार्थ समजवी जोईए.
त्यां ११मी गाथामां (भावार्थमां) कह्युं ने के-‘जिनवाणीमां व्यवहारनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंब (सहायक) जाणी बहु कर्यो छे; पण एनुं फळ संसार छे.’ एटले जिनवाणीमां निमित्तथी कथन आव्युं होय त्यां कोई एम मानी ले के-आ एनो (- परनो) कर्ता छे तो ते अज्ञान छे. भाई आ देहादिनी जे क्रिया थाय ते, ते काळे तेना स्वतंत्र उपादाननी योग्यताथी थाय छे, त्यां कोई शरीरादिनी (विषयसंबंधी) क्रिया हुं करुं छुं एम माने ते अज्ञान छे, एनुं फळ संसार छे.
ज्ञानीने कदाचित् विषयसंबंधी विकल्प थाय तोपण तेनो ए कर्ता थतो नथी, मात्र ज्ञाता ज रहे छे. हवे त्यां शरीरादिनी क्रियाना कर्तापणानी तो वात ज क्यां रही? आवडो मोटो ज्ञानी ने अज्ञानीमां फेर छे!
भाई! बधां द्रव्यने स्वतंत्र जुदां जुदां राखीने बीजुं द्रव्य (-पर्याय) निमित्त होय एम जाणवुं ते यथार्थ छे; पण एक द्रव्यमां बीजा द्रव्यनो हाथ जाय, एक द्रव्यनी सत्तामां बीजुं द्रव्य प्रवेशीने एनुं काम करे, वा एक द्रव्य बीजा द्रव्यनी सत्तामां प्रवेशीने बीजा द्रव्यनुं काम करे-एम जो होय तो एकेय द्रव्यनी सत्ता भिन्न नहि रहे. (सर्व द्रव्योनो लोप थशे). एक द्रव्यनी पर्याय बीजा द्रव्यने करे नहि-एम जो होय तो ज अनंत द्रव्यनी सत्ता भिन्न पोत-पोतापणे टकी रहे. वास्तवमां दरेक द्रव्य पोताना ज उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यपणे स्वभावथी ज रहेलुं छे. हवे जो एक द्रव्यनी पर्याय अन्य द्रव्यने करे तो तेनी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप सत्ता बीजामां चाली जाय. पण एम कदीय बनतुं नथी. आवो झीणो मार्ग बापु! वाणियाने बिचाराने धंधा आडे नवराश न मळे एटले शुं थाय? (अंधारे अथडाय).
मार्ग तो आवो छे प्रभु! अहा! तुं कोण छो भाई?-ए बतावे छे. तुं ज्ञाता-द्रष्टा छो ने नाथ! जगतनी क्रिया काळे पण तुं जाणनार-देखनार छो ने प्रभु! अहा! ए जाणवा-देखवाना स्वभावने ओळंगीने रागनुं करवुं ने परनुं करवुं एवी कर्ताबुद्धि क्यांथी आवी? ए परनी कर्तृत्वबुद्धिए तो तारा ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावी आत्मानो अनादर कर्यो छे. ए वडे तारा आत्मानो घात थई रह्यो छे ने प्रभु!
आ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य ने अपरिग्रह-ए पांच महाव्रतना परिणाम अर्थात् परनी दया पाळवी आदि भाव ते अहिंसा धर्म छे एम छे नहि. पंडित श्री टोडरमलजीए मोक्षमार्गप्रकाशकमां एनो खुलासो कर्यो छे के-मुनिने समिति-गुप्तिमां तीव्र प्रमाद नथी तेथी दया पाळी एम कहेवामां आवे छे पण त्यां परनी
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रक्षा करवानो हेतु ज्ञानीनो छे नहि; केमके परनी रक्षा ते करी शकतो नथी. तीव्र प्रमादनो अभाव छे तेथी ईर्या समिति आदिमां परनी रक्षानो जे शुभराग थाय छे तेने व्यवहारे दया कही छे. वास्तवमां समिति-गुप्तिथी धर्म एटले संवर अने पर जीवोनी रक्षा करवी ए संवर-निर्जरा-एम छे नहि. हवे लोकोने आ आकरुं पडे छे, पण शुं थाय?
अहा! अहीं तो एम पूछयुं छे ने के-परने हुं जिवाडुं ने पर मने जिवाडे ए अध्यवसाय अज्ञान कई रीते छे? तो कहे छे के-‘जीव आयुकर्मना उदयथी जीवे छे एम सर्वज्ञदेवो कहे छे.’ हवे आमां एक तो ‘सर्वज्ञदेवो कहे छे-’ ए व्यवहार छे अने बीजुं ‘आयुकर्मथी जीवे छे’-ए पण व्यवहार छे. ए तो खरेखर पोतानी योग्यताथी ज जीवे छे, पण बीजो कोई जिवाडी शकतो नथी एम सिद्ध करवुं छे तो निमित्तथी कह्युं के आयुकर्मना उदयथी जीवे छे. आ व्यवहारनुं वचन छे. आयुकर्म तो जड छे, अने आनुं रहेवुं-जीववुं तो पोताना उपादाननी योग्यताथी छे; पण ते काळे आयुकर्मनो उदय नियमरूप निमित्त होय ज छे, तेथी पर जीव आने जिवाडे छे एवी खोटी मान्यतानो निषेध करवा आयुकर्मने लईने जीवे छे एम व्यवहारथी कह्युं छे. बापु! व्यवहारना कथनने यथार्थ न समजे तो वाते वाते वांधा उठे एवुं छे. (बिचारो वांधा-विवादमां ज अटवाई जाय.)
भाई! चारित्र-दोष जुदी चीज छे ने श्रद्धा-दोष जुदी चीज छे. भरत चक्रवर्ती छ लाख पूर्व सुधी अने ऋषभदेव भगवान ८३ लाख पूर्व सुधी रागमां ने भोगमां गृहस्थपणे रह्या. पण भोगमां सुख छे ने भोगनी क्रियानो हुं कर्ता छुं एवी बुद्धि पहेलेथी ज (सम्यग्दर्शनना काळथी ज) उडी गई हती. अहा! भोगसंबंधी रागनां रस- रुचि उडी गयां हता; तेमने रागनुं कर्तापणुं उडी गयुं हतुं. गृहस्थदशामां पण तेओ ज्ञाता-द्रष्टा ज हता, केमके स्वभावनुं तेमने निरंतर अवलंबन हतुं.
हवे कहे छे-‘तुं पर जीवोने आयुकर्म तो देतो नथी, तो हे भाई! तें तेमनुं जीवित (जीवतर) केवी रीते कर्युं?’
शुं कहे छे? के परजीवो पोताना आयुकर्मथी जीवे छे. हवे तेने जो तें जिवाडया, तो शुं ते मरी जवाना हता ने तें आयुष्य दईने जिवाडया छे? तुं एने आयुकर्म तो देतो नथी तो एने जीवतदान-अभयदान कई रीते आप्युं? निश्चयथी तो पोतानी रागरहित वीतरागस्वरूप वस्तु भगवान आत्मा छे तेनी द्रष्टि करवी अने अनुभव करवो ते अभयदान छे; ते आत्मरूप छे. अने परनी रक्षानो विकल्प उठे छे तेने व्यवहारे अभयदान कहेवाय छे. वास्तवमां कोई कोईने जिवाडे छे, के तुं परने जिवाडे छे एम छे नहि.
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हवे बीजी (२प२मी) गाथानो अर्थः- ‘जीव आयुकर्मना उदयथी जीवे छे-एम सर्वज्ञदेवो कहे छे; पर जीवो तने आयुकर्म तो देता नथी, तो हे भाई! तेमणे तारुं जीवित (जीवतर) कई रीते कर्युं?’
बीजो तने आयुकर्म तो देतो नथी, तो तेणे तने केवी रीते जिवाडयो? बीजो तने जिवाडी शके ज नहि. आ सिद्धांत छे. तेने सिद्ध करवा जीव आयुकर्मथी जीवे छे एम व्यवहारथी अहीं कह्युं छे. पाणीमां माखी पडी होय एने कोई माणस उपाडी ले एटले एणे माखीने जीवतर आप्युं एवी मान्यता, अहीं कहे छे, अज्ञान छे. एवो विकल्प होय, पण ए विकल्प एना जीवतरनो कर्ता नथी माटे ते मिथ्या छे. जीव तो पोतानी ते काळनी योग्यताथी आयुकर्मना उदयना निमित्ते बचे छे; कोई अन्य तेने बचावे छे एवी मान्यता खरेखर अज्ञान छे.
‘प्रथम तो, जीवोने जीवित खरेखर पोताना आयुकर्मना उदयथी ज छे, कारण के पोताना आयुकर्मना उदयना अभावमां जीवित करावुं (-थवुं) अशक्य छे.’
शुं कहे छे? आ जगतना जीवो जीवे छे ते पोताना आयुकर्मना कारणे जीवे छे’ कोई बीजो एने जिवाडी शके छे एम नथी.
‘जीवोने जीवित खरेखर पोताना आयुकर्मना उदयथी ज छे.’ हवे आमांथी लोको काढे के-जुओ, जीव आयुकर्म वडे जीवे छे, अने तमे ना पाडो छो. आ चोक्खो पाठ तो छे?
अरे भाई! ए तो निमित्तनुं कथन छे. बीजो कोई एने जिवाडी शकतो नथी एम सिद्ध करवुं छे तो आयुकर्मना उदयथी ज जीवे छे एम कह्युं छे. बाकी आयुकर्म तो जड छे अने जीवनुं रहेवुं-जीववुं छे ए तो चैतन्यनुं चैतन्यमां रहेवुं छे. बे चीज ज भिन्न छे त्यां कर्म जीवने शुं करे? कांई न करे. जीव आ जड शरीरमां रहे छे ते तो पोतानी योग्यताथी रहे छे, जड आयुकर्मना कारणे रहे छे एम कहेवुं ए तो निमित्तनी मुख्यताथी कहेलुं व्यवहारनुं कथन छे.
अहा! एणे जाणवुं पडशे के पोते कोण छे? अहा! भगवान! तुं चिदानंदघन प्रभु एक चैतन्यस्वरूप छो ने? शुद्ध चैतन्यप्राणो वडे सदा जीवित चैतन्यनो पिंड प्रभु छो ने? एनुं जीवित बीजो कोण करे? ए बीजाथी केम जीवे? एनुं जीवन आयुकर्मने लईने छे ए तो निमित्तनुं कथन छे. बीजो कोई-बीजा जीवो के नोकर्म आदि-एने जिवाडी शके एवी खोटी मान्यतानो निषेध करवा ए आयुकर्मने लईने जीवे छे एम अहीं कह्युं छे. अहा! अहीं निमित्तथी कथन करीने निमित्त सिद्ध नथी करवुं पण बीजो कोई एने जिवाडी शके नहि एम सिद्ध करवुं छे. समजाणुं कांई...?
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‘जीवोने जीवित खरेखर पोताना आयुकर्मना उदयथी ज छे.’ अहा! आमां शैली शुं छे ते बराबर जाणवी जोईए. ‘पोतानुं आयुकर्म’ एटले शुं? शुं आयुकर्म जीवनुं छे? आयुकर्म तो जडनुं छे. भाई! ए तो संयोगथी-निमित्तथी कथन छे. वळी ‘खरेखर आयुकर्मना उदयथी ज’-एम शब्दो छे, एटले बीजा कोई एमांथी एम काढे के कर्मथी ज थाय तो एम नथी. भाई! आ तो जीवितमां आयुकर्मनो उदय ज नियमरूप निमित्त होय छे (बीजा प्रकारनां निमित्तो होवानो नियम नथी) एम जाणी ‘आयुकर्मना उदयथी ज’ एम कह्युं छे; बाकी देहमां आत्मा पोतानी योग्यताथी ज रहे छे, त्यां आयुकर्म मात्र निमित्त छे बस.
अहा! हुं बीजा जीवोनुं जीवतर करी शकुं छुं, तेमने पाळुं-पोषुं छुं, तेमने निभावुं छुं, स्त्री-पुत्र-परिवार आदि बधानो जीवनदाता छुं ईत्यादि मान्यता अज्ञान छे. आ सिद्ध करवा ‘जीवोने जीवित खरेखर पोताना आयुकर्मना उदयथी ज छे’-एम कह्युं छे.
वळी कहे छे-‘पोताना आयुकर्मना उदयना अभावमां जीवित करावुं अशक्य छे.’ शुं कहे छे? पोतानुं आयुष्यकर्म न होय अने बीजो जीवतर करावी दे एम कदीय बनवुं शक्य नथी. ए तो पोतानुं आयुकर्मनो उदय होय त्यांसुधी ज जीवे. (देहमां रहे). अहीं आयुकर्म तो जडनुं छे. एने पोतानुं-जीवनुं कहेवुं ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं कथन छे.
हवे कहे छे-‘वळी पोतानुं आयुकर्म बीजाथी बीजाने दई शकातुं नथी, कारण के ते (पोतानुं आयुकर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे. (-मेळवाय छे).’
ल्यो, आवे छे ने इतिहासमां के-बादशाह बाबरे एनुं आयुष्य एना पुत्र हुमायुने आप्युं एटले हुमायु मरतो हतो ते बची गयो ने बाबर मरी गयो. भाई! ए तो बधी निराधार लोकवायका, बाकी आयुष्य कोण आपे? (भगवानेय न आपी शके). आवुं ने आवुं बधुं लोकमां तूते-तूत हाले छे अहीं कहे छे-पोतानुं आयुकर्म बीजाने दई शकातुं नथी अने बीजानुं आयुकर्म पोताने बीजो दई शकतो नथी. अहा? पोतानुं आयुकर्म परस्पर दई शकातुं नथी, केमके ते पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे.
जोयुं? वळी पाछुं निमित्तथी कथन आव्युं. जड आयुकर्म जे बंधाय छे ए तो जड पुद्गलना परिणाम छे अने तेमां ते काळे जीवना परिणाम हता ते निमित्त छे. आ भव पहेलां पूर्वे जे आयुष्य बांधीने आव्यो ते एना (-पोताना) परिणामथी ज बंधाणुं छे. एटले शुं? के ते काळे जीवना (पोताना) परिणाम एवा हता के जे प्रकारे आयुकर्मनी पर्याय स्वयं एना कारणे बंधाई एमां ए प्रकारे ज जीवना परिणामनुं निमित्त हतुं.
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भगवान! तुं आत्मा छो ने प्रभु! तने जे परिणाम आयुष्य बंधावामां निमित्त छे ते परिणाम खरेखर तारी (-चैतन्यनी) जातना नथी; ए तो बंधना परिणाम छे. अहा! तें तारी जातने भूलीने ते परिणाम कर्या हता त्यारे तेना निमित्ते आयुकर्म स्वयं एना कारणे बंधाणुं हतुं. तेथी ते परिणामना निमित्ते उपजेलुं कर्म, पोताना परिणामथी ज बंधाणुं छे एम कहेवामां आवे छे. जोके आयुकर्मनी स्थिति तो एना परमाणुनी योग्यताथी एना स्वकाळे स्वयं थई छे, एमां जीवना परिणाम निमित्त हता. तेथी ‘ते (आयुकर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे’-एम निमित्तथी कहेवामां आवे छे. हवे शास्त्रमां आवां कथन होय ते समजे नहि एटले निमित्तथी थाय, निमित्तथी थाय- एम चोंटी पडे, पण शुं थाय?
आत्मा शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु छे. एमां अज्ञानपणे जे विकारी परिणाम कर्या तेना निमित्ते आयुनी स्थिति बंधाणी छे, आवो निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे. आयु बंधावा टाणे पोताना जे परिणाम हता ते निमित्त अने आयुष्य बंधाणुं ते नैमित्तिक. आ प्रमाणे निमित्तना संबंधमां थयेली दशा-पर्यायने नैमित्तिक कहे छे. न्याय समजाय छे? ए निमित्तथी नैमित्तिक थयुं एम कहेवुं ते व्यवहारनुं कथन छे. हवे आमां कोनी साथे चर्चा करे? (नयविभाग समजे नहि अने जिद करे त्यां कोनाथी चर्चा करवी?) शास्त्रमां तो आवुं बधुं खूब आवे छे-के कर्मथी आ थयुं ने कर्मथी ते थयुं. जुओ, अहीं छे ने के-‘ते (-पोतानुं आयुकर्म) पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे.’ अही तो आटलुं ज सिद्ध करवुं छे के पोताना परिणामना निमित्तथी जे आयुकर्म बंधाणुं तेना कारणे पोते (- जीव) जीवी रह्यो छे, पण कोई बीजो एने जिवाडी शके छे एम छे नहि, कारण के बीजानुं आयुष्य बीजो कोई दई शकतो नथी. बाकी कर्म आत्मानुं छे क्यां? अने आत्माना परिणामथी कर्म क्यां नीपज्युं छे? ए तो बधो व्यवहारनय छे, बाकी निश्चयथी कर्म आत्मानुं नथी अने जीव-परिणामथी कर्म नीपज्युं नथी. आवी वातु छे.
वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो मार्ग कोई अलौकिक छे भाई! नयनुं वास्तविक ज्ञान न होय तेने आ वात नहि बेसे. शास्त्रमां आधार बधा आप्या छे, पण तेनुं त्यां शुं प्रयोजन छे ते बराबर समजवुं जोईए. अमुक वात सिद्ध करवा व्यवहारथी पण कथन होय, तेने प्रयोजन विचारी समजवुं जोईए. अहीं कह्युं के- ‘पोतानुं आयुकर्म पोताना परिणामथी ज उपार्जित थाय छे’- तो एमां शुं सिद्ध करवुं छे? एटलुं ज के बीजो बीजाने पोतानुं आयुकर्म दई शके नहि, अर्थात् कोई पण रीते बीजो बीजानुं जीवित करी शके नहि. जुओ, ए ज कहे छे-
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‘माटे कोई पण रीते बीजो बीजानुं जीवित करी शके नहि. तेथी हुं परने जिवाडुं छुं अने पर मने जिवाडे छे-एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे (-नियतपणे) अज्ञान छे.’ अध्यवसाय एटले मिथ्या अभिप्राय, मात्र राग एम नहि, अहीं तो रागनी एकताबुद्धिवाळा अभिप्रायने अध्यवसाय कह्यो छे अने ते संसारनुं-बंधनुं कारण छे. समजाणुं कांई....?
‘पूर्वे मरणना अध्यवसाय विषे कह्युं हतुं ते प्रमाणे अहीं पण जाणवुं.’ अहाहा....! आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी छे. तेमां रागनुं के परनुं करवुं-ए छे ज नहि. जेने पोताना ज्ञानानंदस्वभावनुं अंदरमां भान थयुं छे ते धर्मी जीव परनी क्रियाने पर तरीके जाणे छे, पण परनी क्रिया हुं करी शकुं एम माने नहि. अहा! तेने जे शुभाशुभ परिणाम थाय एनो पण धर्मी कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता- द्रष्टा छे, केमके ज्ञाता-द्रष्टा (-अकर्ता) ए एनो स्वभाव छे अने ते स्वभावने अवलंबी रह्यो छे. एने प्रमादने लईने बीजाने ‘जिवाडुं, मारुं’ एम विकल्प थाय, पण त्यां तेने, बीजाने जिवाडी शकुं छुं के मारी शकुं छुं-’ एवो अभिप्राय -अध्यवसाय नथी. विकल्प आव्यो छे तेनो ए जाणनार मात्र रहे छे. सामा जीवनुं आयु शेष छे तो ते जीवे छे, हुं तो निमित्तमात्र छुं एम ते यथार्थ जाणे छे.
भाई! आ एक ज सिद्धांत लक्षमां राखे के-‘दरेक द्रव्यनी पर्याय स्वकाळे तेना क्रमबद्ध स्थानमां थाय छे.’ -तो सर्व कर्तापणानुं मिथ्या अभिमान खलास थई जाय. जीवनुं जीवितपणुं छे ते तेना स्वकाळे क्रमबद्ध ज छे एम जाणनार ते जीवना जीवितनो कर्ता थतो नथी, तेम पोताने जिवाडवानो जे विकल्प थयो तेनो पण कर्ता थतो नथी; ते तो तेनो (परना जीवितनो ने पोताना विकल्पनो) जाणनार-देखनार मात्र रहे छे. आम रागना अने परनी क्रियाना जाणनार-देखनारपणे रहेवुं एनुं नाम धर्म छे.
ए पूर्वे मरणना अध्यवसायथी कह्युं हतुं तेम अहीं पण यथार्थ जाणवुं के- निश्चयथी पोताथी परनुं जीवित करी शकातुं नथी. अने परथी पोतानुं जीवित करी शकातुं नथी. निश्चये कोई कोईनुं जीवित करी शके नहि, छतां (करी शके) तेम मानवुं ते अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. आनाथी आनुं जीवित थयुं एम कहेवुं ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे व्यवहारनुं कथन छे एम यथार्थ समजवुं.
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दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि एषैव गतिः–
जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।। २५३।।
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः।। २५३।।
दुःख-सुख करवाना अध्यवसायनी पण आ ज गति छे एम हवे कहे छेः-
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २प३.
गाथार्थः– [यः] जे [इति मन्यते] एम माने छे के [आत्मना तु] मारा पोताथी [सत्त्वान्] हुं (पर) जीवोने [दुःखितसुखितान्] दुःखी-सुखी [करोमि] करुं छुं, [सः] ते [मूढः] मूढ (-मोही) छे, [अज्ञानी] अज्ञानी छे, [तु] अने [अतः विपरीतः] आनाथी विपरीत ते [ज्ञानी] ज्ञानी छे.
टीकाः– ‘पर जीवोने हुं दुःखी तथा सुखी करुं छुं अने पर जीवो मने दुःखी तथा सुखी करे छे’ एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे. ते अध्यवसाय जेने छे ते जीव अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते जीव ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.
भावार्थः– ‘हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर जीवो मने सुखी-दुःखी करे छे’ एम मानवुं ते अज्ञान छे. जेने ए अज्ञान छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; जेने ए अज्ञान नथी ते ज्ञानी छे-सम्यग्द्रष्टि छे.
‘दुःख-सुख करवाना अध्यवसायनी पण आ ज गति छे एम हवे कहे छेः-
‘पर जीवोने हुं दुःखी तथा सुखी करुं छुं अने पर जीवो मने दुःखी तथा सुखी करे छे-एवो अध्यवसाय ध्रुवपणे अज्ञान छे.’
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शुं कहे छे? के बीजा जीवोने हुं प्रतिकूळ संजोगो दई शकुं छुं जेथी ते दुःखी थाय अने बीजा जीवोने हुं अनुकूळ खान-पान आदि सामग्री दउं जेथी ते सुखी थाय-अहा! एवी मान्यता अज्ञान छे एम कहे छे. समजाणुं कांई.....?
प्रश्नः– तो गरीबने दाणा देवा के नहि? उत्तरः– कोण दे दाणा? शुं तुं दाणा दई शके छे? ए तो दाणा दाणाने कारणे जाय भाई! तुं मिथ्या माने के हुं दउं छुं. बाकी एना अंतरंग पुण्यना निमित्ते एने अनुकूळ सामग्री मळे छे अने एना अंतरंग पापना निमित्ते एने प्रतिकूळ सामग्री मळे छे. बीजो कोई एने दई शके छे ए वात त्रणकाळमां साची नथी केमके बीजो बीजाने दई शके ए वस्तुस्थिति ज नथी.
तो पछी देनारो कोण छे? (एम के कोई ईश्वर छे?) बीजो कोई नथी, ईश्वरेय नथी. ए परमाणु पोते ज दे छे. शुं कीधुं? परमाणुमां पण अंदरमां संप्रदान नामनो गुण छे जे कारणे पोते ज (पोताने) दे, अने पोते ज (पोताने माटे) ले. आकरी वात बापु! तत्त्वद्रष्टि बहु सूक्ष्म छे. ए परमाणुमां कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान ने अधिकरण-एम षट्कारकरूप शक्ति छे. अहा! एनी समय- समयनी पर्याय जे थाय छे ते एना पोताना षट्कारकथी थाय छे. परथी-बीजाथी परमाणुनी आम-तेम जवानी क्रिया थाय एम त्रणकाळमां नथी.
प्रश्नः– पण परमाणुने कांई खबर (-ज्ञान) नथी तो ते जाय केवी रीते? उत्तरः– जवामां खबरनुं (ज्ञाननुं) शुं काम छे? (ए तो क्रियावती शक्तिनुं काम छे ने परमाणुने क्रियावती शक्ति छे). शुं खबर (-ज्ञान) होय तो ज द्रव्य कहेवाय? तो पछी खबर (-ज्ञान) विनानां जड द्रव्यो जगतमां छे ज नहि एम थशे. पण एम छे नहि. बापु! टकीने प्रतिसमय परिणमवुं ए प्रत्येक द्रव्यनो स्वभाव ज छे.
आमां बे सिद्धांत पडया छेः- एक तो सामा जीवना संबंधमां रहेला-आवेला सर्व परमाणुओमां-दरेकमां ते काळे जे परिणाम थवाना हता ते ज पोताने कारणे थया छे एवो निर्णय करे तेने हुं बीजा जीवने अनुकूळ-प्रतिकूळ सामग्री दउं ने सुखी-दुःखी करुं-एवो अध्यवसाय उडी जाय छे;
अने ते काळे मने जे सामा जीवने सुखी-दुःखी करवानो विकल्प थयो ते विकल्प ते काळे थवानो हतो ते क्रमबद्ध ज थयो एम निर्णय थतां पोतानी द्रष्टि भगवान ज्ञायक उपर जाय छे अने स्वभावनो आश्रय थईने सम्यग्दर्शन थाय छे. साथे राग
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पण छे, पण पोताने रागनुं कर्तापणुं उडी जाय छे ने पोते मात्र ज्ञाता-द्रष्टापणे रही जाय छे. आ प्रमाणे बे सिद्धांत नक्की थया-
१. वस्तुमां प्रत्येक परिणमन स्वकाळे क्रमबद्ध ज थाय छे. २. स्वना आश्रये ज धर्म थाय छे. भाई! आ वस्तुनी स्थिति छे. आमां न्याय समजाय छे कांई? ‘न्याय’मां ‘नी- नय्’ धातु छे. नय् एटले दोरी जवुं-जेवी वस्तुनी स्थिति छे तेना प्रति ज्ञानने दोरी जवुं एनुं नाम न्याय छे.
अहा! कहे छे-पर जीवोने प्रतिकूळ सामग्री दईने तेने दुःखी करुं-एवो अध्यवसाय अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. केम? केमके प्रतिकूळ सामग्री तो एना अभ्यंतर पापना उदयना कारणे आवे छे. भाई! आ पण निमित्तनुं कथन छे; केमके पापनो उदय भिन्न चीज छे अने प्रतिकूळ सामग्री भिन्न चीज छे. बेयना दरज्जा भिन्न छे, बन्ने भिन्न भिन्न छे. जुओ, अहीं एने पापनो उदय छे, अने ते ज काळे एने प्रतिकूळ सामग्रीनुं तेना पोताना कारणे आववुं छे. आवो परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव छे तेने जोईने पापना उदयना कारणे एने प्रतिकूळ सामग्री आवी एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. आवी वात छे.
तेवी ज रीते हुं बीजाने आहार, पाणी, औषध इत्यादि आपीने सुखी करुं-एवो अध्यवसाय अज्ञान छे, मिथ्यादर्शन छे. केमके अनुकूळ सामग्री तो एना पुण्यना उदयना कारणे आवे छे. आ पण निमित्तनुं कथन छे, केमके पुण्यनो उदय अने अनुकूळ सामग्री बन्ने जुदी जुदी चीज छे. अहीं एने पुण्यनो उदय होय ते काळे अनुकूळ सामग्रीनुं आववुं एना पोताना कारणे थाय छे एवो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध जोईने पुण्यना उदयथी अनुकूळता मळी, सुख थयुं एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे. अहा! वीतरागनुं निरालंबी तत्त्व एकला न्यायथी भरेलुं छे, पण ते अंतरना पुरुषार्थ वडे ज पामी शकाय एम छे.
जेने एवो अध्यवसाय छे के ‘हुं बीजाने सुखी करी दउं’ तेने अध्यवसाय बंधनुं कारण छे; शुभ-पुण्यबंधनुं कारण छे तोपण ते बंधनुं ज कारण छे, जराय निर्जरानुं कारण नथी. तथा ‘बीजाने हुं दुःखी करी दउं’, एवो जे अध्यवसाय छे ते पापबंधनुं कारण छे. त्यां बीजाने जे सुख-दुःख थाय ते तो तेना अंतरंग पुण्य-पापना उदयना कारणे छे, आना अध्यवसायना कारणे नहि. भाई! बीजो बीजाने सुखी-दुःखी करी शके छे-एम छे ज नहि. आ वात अत्यारे चालती नथी एटले लोकोने कठण पडे छे, पण शुं थाय? एने बिचाराने तत्त्वनी खबर नथी के शुं आत्मा, शुं परिणाम ने शुं बंधन? आंधळे-बहेरुं कूटे राखे छे. पण भाई! एनाथी संसार मळशे; इष्ट-अनिष्ट संजोग मळशे, पण आत्मा नहि मळे.
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अहा! ज्ञानीने द्रव्यद्रष्टि छे. एटले शुं? के पोते शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी सच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे तेनो तेने आश्रय वर्ते छे. त्यां ज्यारे ते ध्यानदशामां होय छे त्यारे तो कोई विकल्प होतो नथी. परंतु अंदर ध्यानमां न होय त्यारे तेने प्रमादवश अस्थिरतानो विकल्प आवे छे के-आने हुं सुखी-दुःखी करुं. बीजाने सुखी-दुःखी करी शकुं छुं एवो अध्यवसाय नथी. शुं कह्युं? बीजाने सुखी-दुःखी करुं एम विकल्प आवे पण तेम करी शकुं छुं एम ते न माने. आवो फेर ज्ञानी ने अज्ञानीनी मान्यतामां रहेलो छे. ए जे पुण्य-पापना परिणाम ज्ञानीने आवे तेना निमित्ते किंचित् पुण्य-पाप बंधाय, पण खरेखर तो ए जे विकल्प आव्यो छे तेनो अने एनाथी जे पुण्य-पाप बंधाणुं तेनोय ज्ञानी स्वामी थतो नथी, ए तो बन्नेनो ज्ञाता रहे छे, बन्नेनेय परज्ञेय तरीके जाणे छे. ज्यारे अज्ञानीने आत्मद्रष्टि छे नहि, ए तो हुं बीजाने सुखी-दुःखी करी शकुं छुं एम माने छे अने तेथी तेनो ए अध्यवसाय बंधनुं-दीर्घसंसारनुं कारण बने छे.
अहा! जीवने संसारमां भमतां भमतां अनंतकाळ गयो, एमां अनंतवार एने मनुष्यपणुं आव्युं ने अनंतवार एणे मुनिव्रत धारण कर्यां, पांचमहाव्रत पाळ्यां; पण अरेरे! भगवान सर्वज्ञदेवे कहेला आ अलौकिक तत्त्वनुं ज्ञान न कर्युं. एणे आत्मज्ञान न कर्युं!
अही कहे छे-पर जीवोने हुं सुखी-दुःखी करी शकुं छुं अने पर जीवो मने सुखी- दुःखी करी शके छे-एवो अध्यवसाय अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. ज्ञानीने एवो विकल्प आवे पण एनो ए कर्ता न थाय. ए तो एम यथार्थ माने के पर जीवने पहोंचतुं सुख-दुःख तेना पुण्य-पापना उदयने कारणे छे, एमां मारुं कांई कर्तव्य नथी, हुं तो निमित्तमात्र छुं.
भाई! बीजाने आहार पाणी दई शकुं, औषधादि दई शकुं-एवी जो तारी मान्यता छे तो पूछीए छीए के-शुं ए आहार-औषधादि पदार्थो तारा चैतन्य-स्वरूपमां छे? शुं तुं ए जडपदार्थोनो स्वामी छे के तुं ए बीजाने दई शके? भाई! तुं जुदो, ए पदार्थो (आहारादि) जुदा ने तेनो लेनार (जीव) जुदो; बधुं जुदेजुदुं छे त्यां कोण कोने दे अने कोण ले? भाई! तारी मान्यता अज्ञान छे बापा!
प्रश्नः– पण गरीबनां आंसु तो लूछवां ने?
उत्तरः– ए कोण लूछे भाई? ए परद्रव्यने कोण करे बापा? बहु झीणी वात भाई! ज्यां परमाणु-परमाणु पोताना काळे पलटीने पोतानी नियत पर्यायरूपे स्वयं परिणमे त्यां बीजो शुं करे? बीजो एने केम परिणमावे? बीजो बीजाने परिणमावे ए सिद्धांत ज नथी भाई! आ शरीर छे ने! आम हाथमां रोटलो लीधो होय त्यां
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शरीरनी जे पर्याय थाय ते एना परमाणुना कारणे थाय छे, एने आत्मा करी शके छे एम नथी. आ रोटलो आम (हाथमां) रहे छे ते एनी (रोटलानी) पर्याय छे, ते आंगळीथी रहे छे एम नथी. रोटलानी अवस्थानुं कर्ताकर्मपणुं रोटलामां छे, आंगळी कर्ता थईने एने पकडी राखवानुं कर्म करे छे एम छे नहि.
पण देखाय छे शुं? आंगळी रोटलाने पकडती देखाय छे ने? अरे भाई! ए तो संयोगद्रष्टिथी जोनारने एम देखाय छे, पण ए (-एम मानवुं) तो अज्ञान छे; केमके रोटलो आंगळीने अडयो ज नथी. रोटलो रोटलामां ने आंगळी आंगळीमां-बन्ने भिन्न भिन्न पोत-पोतामां रहेलां छे, ल्यो, आवुं झीणुं! तत्त्वनो विषय बहु झीणो छे भाई! अज्ञानीने स्थूळद्रष्टिमां आ बेसवुं महाकठण छे.
ज्यां होय त्यां कर्मथी थाय, निमित्तथी थाय एम मांडी छे एणे. पण अहीं कहे छे-‘ते अध्यवसाय जेने छे ते जीव अज्ञानीपणाने लीधे मिथ्याद्रष्टि छे; अने जेने ते अध्यवसाय नथी ते जीव ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.’
जगतमां बहारथी बीजाने सुखी करीए, दुःखी करीए एम निमित्तनैमित्तिक संबंधथी बोलाय भले, पण एम थई शकतुं नथी; कोई कोईने सुखी-दुःखी करी शकतुं नथी. तेथी ज्ञानीने ‘हुं परने दुःखी-सुखी करुं’ एवो अध्यवसाय होतो नथी, परंतु अज्ञानीने एवो अध्यवसाय होय छे. अहा! धर्म कोई अलौकिक चीज छे भाई! आ परनी दया पाळी के बीजाने साधन-सामग्री आपी एटले माने के धर्म थई गयो; तो कहे छे-मूढ छो के शुं? एमां क्यां धर्म छे? धर्म कोने थाय! के हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करी शकुं नहि, अनुकूळ-प्रतिकूळ सामग्री दई शकुं नहि एम मानतो थको मात्र ज्ञाता- द्रष्टापणे रहे तेने धर्म थाय छे. पोताने विकल्प आवे तेमां एकत्व नहि करतो तेनो जाणनार मात्र रहे ते धर्मी छे. अहा! ल्यो, ज्ञानी-अज्ञानीमां आवो फेर! भाई! दुनिया साथे वाते वाते फेर छे. आवे छे ने के-
तेम अहीं भगवान कहे छे (अज्ञानीने) के तारे ने मारे वाते वाते फेर छे. तारी लाख वातोमांथी एकेय साथे मारे मेळ खाय एम नथी. तारी मान्यतामां जे ऊंधां लाकडां गरी गयां छे एने मारी वात साथे भारे (उगमणो-आथमणो) फेर छे.
अहा! धर्मी-ज्ञानी पुरुषनी द्रष्टि शुद्ध चैतन्यतत्त्व पर होय छे. तेणे पोतानो एक ज्ञायकभाव एकला ज्ञानरसनो कंद प्रभु आत्माने पोताना ध्येयमां लीधो छे. तेने नथी परनुं आलंबनके नथी रागनुं आलंबन. तेथी हुं परने सुखी-दुःखी करुं ने
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पर मने सुखी-दुःखी करे-एवो अध्यवसाय तेने होतो नथी. तेथी अहीं कह्युं के जेने ए अध्यवसाय नथी ते ज्ञानीपणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि छे.
परमाणुमां पण प्रत्येक समये जे पर्याय थाय छे ते तेनी जन्मक्षण छे. प्रवचनसार ज्ञेयअधिकारमां गाथा १०२ मां आ वात आवे छे. त्यां एम लीधुं छे के जगतमां जीव-अजीव जेटला ज्ञेय (द्रव्यो) छे तेनी जे ते समये जे पर्याय उत्पन्न थाय छे तेनी जन्मक्षण छे; तेनी उत्पत्तिनो काळ छे, परने लईने ते थाय छे एम नथी. अहाहा...! पूर्वनी पर्यायने लईने तो नहि, पण एना द्रव्य-गुणने लईने पण नहि. तो पछी परने लईने थाय छे ए तो वात ज क्यां रहे छे?
जगतमां आत्मा ने पर-एम छ द्रव्यो जाति अपेक्षाए भगवाने जोयां छे. तेओ संख्याए अनंत छे-जीव अनंत, पुद्गलो अनंतानंत, एक धर्म, एक अधर्म, एक आकाश अने असंख्यात कालाणु. ते अनंत द्रव्योनो जे समये जे पर्याय थाय ते तेनी जन्मक्षण छे, ते तेनो उत्पत्तिनो काळ छे; एने बीजो कोई उपजावे एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. आ रजकणोने आम जवानो उत्पत्तिकाळ छे तेथी आम जाय छे; हवे एमां बीजो कहे के हुं आहार-पाणी-ओषध दउं छुं तो तेनो ते अभिप्राय जूठो छे, मिथ्यात्व छे. आवी व्याख्या झीणी पडे ने आकरी लागे पण शुं थाय? वस्तुस्वरूप ज एवुं छे. कदी सांभळवा मळ्युं न होय एटले राडो पाडे के एकान्त छे, एकान्त छे; पण भाई! आ सम्यक् एकांत छे.
‘हुं पर जीवोने सुखी-दुःखी करुं छुं अने पर जीवो मने सुखी-दुःखी करे छे-एम मानवुं ते अज्ञान छे.’ अहा! आवी मान्यता संसारमां रखडवाना कारणरूप मिथ्यात्व छे.
पंचास्तिकाय गाथा १३७ मां आवे छे के- जन्मार्णवमां रखडता प्राणीओने भूख- तरस आदिथी पीडित देखीने, अरे! आ मिथ्यात्वने लईने भवार्णवमां रखडे छे!-एम ज्ञानीने खेद थाय छे. त्यां भूख-तरस आदिनो उपचार करवा ज्ञानी अधीर थई प्रवृत थता नथी केमके ते जाणे छे के बहारनी-परनी क्रिया पोताने आधीन नथी, पोताना अधिकारमां नथी. ज्यारे अज्ञानी, हुं आम करी दउं ने तेम करी दउं-एम अज्ञानमय इच्छा वडे आकुलित थाय छे. पर द्रव्यनी क्रिया हुं करुं एम अज्ञानी माने छे ने? तेथी ते आकुलित थाय छे.
प्रवचनसार गाथा ८प मां अज्ञानना त्रण बोल लीधा छे. जुओ-
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विषयो तणो वळी संग,-लिंगो जाणवां आ मोहनां.”
अहा! तिर्यंच-मनुष्यो प्रेक्षायोग्य होवा छतां, तेमनी हुं दया करुं-एवो तन्मयपणानो दयानो भाव, करुणानो भाव अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. अहा! तिर्यंच- मनुष्यनी-परनी दया हुं करी शकुं छुं, तेने सुख-दुःख हुं करी शकुं छुं एवी मान्यता अज्ञान छे.
‘जेने ए अज्ञान छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; जेने ए अज्ञान नथी ते ज्ञानी छे- सम्यग्द्रष्टि छे.’ ल्यो, आ संक्षेप कह्यो.